शीशे सा नाज़ुक घर भी है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
शीशे सा नाज़ुक घर भी हैकुछ तूफानों का डर भी है ।
जीने की चाहत है लेकिन
पीना ग़म का सागर भी है ।
इंसानों की खबर न कोई
शहर का ऐसा मंज़र भी है ।
यूँ तो है खामोश किनारा
लहर गई टकरा कर भी है ।
ढूंढ के उसको लाओ कहीं से
खोया सहर में दिनकर भी है ।
1 टिप्पणी:
बहुत खूब
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