है शहर में बस धुआं धुंआ ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
है शहर में बस धुआं धुआंन रौशनी का कोई निशां।
ये पूछती है नज़र नज़र
है आदमी का कोई निशां।
समझ सके जो यहाँ है कौन
ज़रा सी इक बच्ची की जबां।
कहीं भी दिल लगता ही नहीं
जो कोई जाये भी तो कहाँ।
सुनाएँ कैसे किसी को हम
इक उजड़े दिल की ये दास्ताँ।
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