नवंबर 10, 2025

POST : 2038 अनजान राहों का मुसाफ़िर ( दरअसल ) डॉ लोक सेतिया

    अनजान राहों का मुसाफ़िर ( दरअसल ) डॉ लोक सेतिया   

मुसाफ़िर को मालूम ही नहीं सफ़र कब शुरू हुआ और कब इसका अंत होगा , चलना है रुकना नहीं बहते दरिया की तरह उसको । हमसफ़र न सही कोई हमराही तो मिलता थोड़ी दूर तलक ही सही साथ चलते मगर ऐसा भी मुमकिन नहीं हो पाया कठिनाई में सभी दामन छुड़ाते रहे । जाने कितनी बार किसी न किसी से जान पहचान हुई रास्ते में इधर उधर की कई बातें जिनको मुलाकातें कहना कठिन है यूं ही साथ चलना ख़ामोशी को तोड़ने की तरह से , जैसे कोई मौसम की बात करता है । हमेशा सभी जब तक ज़रूरी लगता साथी बनकर चलते जब मनचाहा बीच राह में रास्ता ही नहीं इरादा भी बदल लेते मौसम बदलता लोग बदल जाते । कुछ लोग वापस ही लौट जाते थक कर अलविदा कहना कभी फिर किसी अगले मोड़ पर मिलना बार बार बिछुड़ना अजीब रिश्ता बना लेते थे । संबंधों के कितने नाम लिखवाये लिख कर फिर मिटाये उनको सफ़रनामा में शामिल करने नहीं करने पर यकीन नहीं शंका या संदेह है कि कोई ख़्वाब था कि हक़ीक़त थी । कहीं किसी मंज़िल की तलाश नहीं थी बस इक आरज़ू थी कुछ लोग अपने दोस्त या कुछ भी अन्य संबंध प्यार का अपनत्व का हमेशा साथ साथ रहकर भी किसी अनुबंध किसी विवशता में नहीं केवल खुद अपनी ख़ुशी से कोई आशियाना बनाकर ज़िंदगी बसर करते । 
 
ज़िंदगी कुछ इस तरह बिताई है , भीड़ में मिली हमेशा तन्हाई है , कदम कदम ठोकर खाई है कैसे कहें कौन भला कौन बुरा है किस्मत ही अपनी हरजाई है । बहुत अजीब दौर है जाने भीतर मन में कितना शोर है सच कोई कहां समझता है हर किसी के ख़ुदग़र्ज़ी का नाता रिश्ता है । सभी औरों पर अधिकार जताते हैं खुद चाहते हैं पाना सब कुछ लौटाना पड़ता है बदले में अवसर आने पर आंख चुराते हैं । दुनिया हमको नहीं रास आई है ज़िंदगी खुद अपनी नहीं पराई है हमको सभी ने समझा नाकाबिल और नासमझ है ख़ामोशी अपनी किसी को नहीं समझ आई है । कभी सच साफ़ सामने कहने की आदत थी कुछ नहीं हासिल हुआ बढ़ी मुसीबत थी । आखिर ये बात समझ आई है इस दुनिया की प्रीत झूठी है खुद ही साथ अपना निभाना है दिल ही अपना इक ठिकाना है । दिल को किसी तरह से समझाना है चार दिन जीने को इक बहाना है कौन जाने किस दिन ये सफ़र ख़त्म होना है अभी कितना ज़हर खाना है दर्द जैसे अपना ख़ज़ाना है ज़ख़्म को दुनिया से छुपाना है । 
साथ कुछ इस तरह निभाना है जैसे अपना है इक बेगाना है , रस्म है दुनियादारी को निभाना है , पंछी पिजंरे का दर्द कौन समझता है खुद हो चुपके चुपके आंसू बहाना है । आखिर इक दिन छोड़ जाना है , मुझको याद है कितना अच्छा गीत है उसको समझना है , चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
चल उड़ जा रे पंछी , कि अब ये देश हुआ बेगाना , 
चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
ख़त्म हुए दिन उस डाली के जिस पर तेरा बसेरा था 
आज यहां और कल हो वहां ये जोगी वाला फेरा था 
ये तेरी जागीर नहीं थी , चार घड़ी का डेरा था 
सदा रहा है इस दुनिया में किस का आबो - दाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
तूने तिनका तिनका चुनकर नगरी एक बसाई 
बारिश में तेरी भीगी पांखें धूप में गर्मी आई 
ग़म न कर जो तेरी मेहनत तेरे काम न आई 
अच्छा है कुछ ले जाने से दे कर ही कुछ जाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
भूल जा अब वो मस्त हवा वो उड़ना डाली डाली 
जग की आंख का कांटा बन गई चाल तेरी मतवाली 
कौन भला उस बाग़ को पूछे हो न जिसका माली 
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
रोते हैं वो पंख पखेरू साथ तेरे जो खेले 
जिनके साथ लगाये तूने अरमानों के मेले 
भीगी अंखियों से ही उनकी आज दुआएं ले ले 
किसको पता अब इस नगरी में कब हो तेरा आना 
चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
 
 
 On a Path Unknown – Poppy Walks the Dog …

नवंबर 05, 2025

POST : 2037 मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

मैं क्या हूं क्यों हूं कहां हूं कैसे हूं सभी लोग तमाम दुनिया उलझी हुई है मेरी उलझन सुलझाने में , मगर चाहे जितना सुलझाए कोई उलझन बढ़ती जाती है । दुनिया वाले क्या भगवान भी मुझसे अनजान है क्योंकि मेरी बनाई दुनिया में उसका नहीं कोई नाम है न कोई निशान है । आप समझे नहीं ये किसी टीवी शो की बात नहीं है मेरी सबसे ऊंची निराली शान है मेरे लिए हर शख्स नासमझ है अभी नादान है । मेरा सभी कुछ है कुछ भी मेरा है नहीं लेकिन जो भी है सब कुछ मेरे अधिकार में है , आपका जीना आपका मरना कोई मायने नहीं रखता है जो भी है सिर्फ मेरे ही इख़्तियार में है । मेरी सत्ता इस पार से उस पार तलक फैली है मेरा आकार  धरती से फ़लक तक से बढ़कर , शून्य से अनगिनत संख्या जैसे किसी विस्तार में है , किसी देश में किसी शासक में वो बात कहां है जो विशेषता मेरी सरकार में है । मुझे नाचना नहीं आता नचाना जानता हूं सभी को अपने इशारों पर सब नहीं जानते असली लुत्फ़ सत्ता देवी की पायल की मधुर झंकार में है । मेरा ही मोल सबसे महंगा दुनिया के हर बाज़ार में है जो कहीं नहीं है वो चमत्कार मेरे ही किरदार में है । मुझे जानते हैं सभी पहचानता कोई नहीं मुझ जैसा कोई हुआ कभी न ही कभी होगा पहला आखिरी भी शुरुआत भी अंत भी मैं खुद से खुद तक रहता हूं हर बात सच्ची है जो भी मैं कहता हूं । मेरे हाथ मेरी आंखें पहुंचती हैं देखती हैं पल पल जहां भी कुछ भी घटित होता है , सब मालूम है कोई हंसता है किसलिए कौन किस बात पर रोता है । मेरी शरण में जो भी आता है सब पाता है , मुझसे बिछुड़ने वाला अपनी हस्ती को खोता है । मेरा साथ पाकर सभी गुनाह माफ़ हो जाते है जितने भी अपराध किये पिछले सभी पाप धुल जाते हैं , खुशियों के कमल कीचड़ में भी खिल जाते हैं ।     
 
मेरी दुनिया के सभी दस्तूर निराले हैं बचना इस खंडहर जैसी हवेली में कदम कदम पर फैले जाले हैं , कोई भी खिड़की दरवाज़ा नहीं है लेकिन पांव में बेड़ियां हैं जंज़ीरों से बंधे हुए लोग हैं ,  सलाखों की कैद में जादुई लगे ताले हैं । मुझे ढूंढने वाले गुम हो जाते हैं जिनको चाहत है मेरे भीतर समाकर शून्य हो जाते हैं । कोई दादी नहीं कोई नहीं नानी है फिर भी ख़त्म कभी होती नहीं मेरी प्रेम कहानी है , राजा महाराजा शाहंशाह कुछ भी समझ सकते हैं मेरा परिवार बड़ा है कोई भी नहीं मेरी रानी महारानी है । जिस को समझ आई मेरी बात इक वही जानकर है नहीं समझ पाया कोई जो महाअज्ञानी है । मेरी लीला निराली है चेहरे पर लाली दिल में कालिख़ से बढ़कर छाई काली परछाई है मैंने आपका चैन लूटा है दुनिया की नींद चुराई है , चोर छिपकर रहते हैं मुझी में मैंने चोरों की नगरी इक अलग बसाई है । मैं भी फंस गया हूं अपने खुद के बुने जाल में सामने है कुंवां और पीछे गहरी खाई है । मैंने सबको ख़त्म करने की शपथ उठाई है नाम से मेरे हर चीज़ घबराई है हर जगह थरथराई है मैंने स्वर्ग को नर्क बनाया है वही खुश है जो शरण में मेरी आया है , सामने जिस ने सर अपना भूले से उठाया है उसका शीश कट गया मरकर भी पछताया है । आपने मुझे क्यों बनाया है कुछ समझ नहीं आपको आया है इक अजूबा सामने नज़र आता है कोई जूते साफ करता है कोई तलवे चाटता है कोई पांव दबाता है कोई जूता फैंकता है मगर कोई बच कर खैर मनाता है । मुझे जब भी कुछ बहुत भाया है मैंने उसको खाया चबाया है मैंने सभी को खुद से बौना साबित करने को दुनिया को ये मापदंड समझाया है , सबको लगता है बिग्ग बॉस शाम ढलते है कोई साया है ।  
 
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नवंबर 02, 2025

POST : 2036 क्या मिला , क्या बनाया , होगा क्या ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया

क्या मिला ,  क्या बनाया , होगा क्या  ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ भी निर्धारित नहीं है कोई विधाता खुद अपनी बनाई रचना को बनाने के बाद उसका भविष्य निर्धारित नहीं करता है । जैसा हम लोग मानते हैं विश्वास करते हैं कि किसी ईश्वर की मर्ज़ी से सभी कुछ होता है सोचो अगर वैसा होता तो कोई अपनी बनाई दुनिया को बर्बादी की तरफ जाने देता । जैसा तमाम तरह के वैज्ञानिक जाने कितने शोध कर समझने का प्रयास भर करते हैं कि कैसा करने से क्या होना तय है लेकिन हज़ारों ढंग से प्रयोग करने के बावजूद भी कभी परिणाम वांछित नहीं प्राप्त होते हैं । तब उस को लेकर भी शोध कार्य किया जाता है कि क्यों जैसा अपेक्षित था नहीं हुआ और जो हुआ आखिर किस कारण हुआ । कुछ ऐसा ही हमारा भूतकाल वर्तमान काल और भविष्य को लेकर है जिस रहस्य को समझने की कोशिश ही शायद किसी ने की ही नहीं । हमको हैरानी होती है जिनको खिलता गुलशन मिलता है वो लोग गुलशन को खिलाने की नहीं उजाड़ने की बातें करते हैं इसलिए आने वाली पीढ़ियों को गुलशन नहीं बर्बादी मिलती है विरासत में । लेकिन हमने देखा नहीं भी तो पढ़ते सुनते हैं कि कितने ही महान लोगों ने अपने देश समाज को शानदार बनाने में अपनी ज़िंदगी समर्पित कर कितना अच्छा बदलाव किया अपनी मेहनत लगन और तमाम कठिनाईयों से लड़ते जूझते हुए । अगली पीढ़ी को विरासत में जो जैसा मिला उसका कर्तव्य था उसे और शानदार बनाने का लेकिन जब ऐसा नहीं कर किसी पीढ़ी ने मिली विरासत को सुरक्षित नहीं रख कर उसके साथ मनमर्ज़ी से छेड़खानी की अपने मतलब स्वार्थों को हासिल करने को तब विकास के नाम पर विनाश होता गया । 
 
आपको कोई धर्म कोई ज्योतिष विशेषज्ञ कभी नहीं बता सकता है क्या था पहले आज क्या है और भविष्य क्या होना है । क्योंकि खुद उन लोगों ने ही अपनी परंपराओं को सहेजा संभाला तक नहीं है । जिसको जो मिला सभी ने उसका दोहन किया है उसको फलने फूलने नहीं दिया ये बात सामने हैं ध्यान पूर्वक देखने से समझ सकते हैं । दुनिया सृष्टि किसी को पूर्वजों से मिली विरासत नहीं है , प्रकृति ने सभी कुछ सबको इक समान देने का कार्य किया है , हवा रौशनी अंधकार दिन रात बारिश आंधी बदलते मौसम किसी से कोई भेदभाव नहीं करते हैं । कुछ लोग शासक मालिक बन बैठे और उन्होंने अपने अपने स्वार्थों की खातिर कुछ ऐसे नियम कायदे बनाकर थोप कर विधाता समझने लगे अपने आप को । विधाता ईश्वर किसी से कुछ मांगता नहीं है जैसा धरती पर शासक बनकर अपनी सत्ता स्थापित करने वालों ने खुदगर्ज़ी का इक जाल बिछाया है ।लेकिन अगर आधुनिक ढंग से मौसम विज्ञान की तरह समझने की कोशिश करें तो हमको समझ आएगा कि हमारा भूतकाल वर्तमान और भविष्य इक कड़ी है जिसको जैसा सही गलत उपयोग किया जाता है वो उसी अनुरूप अच्छा या खराब बनता जाता है । कभी पुरातन काल में अधिकांश लोग सही राह पर चलने और कुछ आदर्शों मूल्यों का पालन करने वाले हुआ करते थे , उन्होंने समाज को अच्छा बनाने की कोशिश की हमेशा ही भविष्य को बेहतर सौंपने का प्रयास किया । 
 
अब लोग समाज और व्यवस्था इस कदर सड़ी गली बन चुकी है कि हर कोई जैसा चाहे सामाजिक माहौल को बिगाड़ने को तत्पर दिखाई देता है कोई समाज को अच्छा बनाने में कोई योगदान नहीं देना चाहता । ऐसा हमारी सभ्यता में कभी नहीं था कि जिसे भी अवसर मिले वही अपनी महत्वकांशा पूर्ण करने को अन्य सभी से भेदभाव कर अपने अधीन करने लगे । बड़े बड़े महान पुरुष महात्मा संत सन्यासी दार्शनिक समझाते रहे कि हमारे पास सभी की आवश्यकता को काफी है लेकिन किसी की हवस लोभ लालच पूरा करने को कदापि नहीं है । खेद है कुछ लोग धनवान शासक बनकर समाज को बनाने नहीं लूट कर अपनी हवस मिटाने को पागलपन की सीमा तक बेरहम और मतलबी बने हुए हैं । उनको शायद नहीं पता है कि जो पेड़ बबूल वाले वो बो रहे हैं भविष्य में उनके कांटों पर उन्हीं को चलना होगा , ज़रूरी नहीं किसी को जीवन काल में कर्मों का नतीजा मिल जाए लेकिन जिनकी खातिर ऐसे लोग समाज को बर्बादी की तरफ ले जा रहे हैं  वही भविष्य में दुःख परेशानी झेलेंगे । आपका लिखवाया झूठा इतिहास किसी काम का साबित नहीं होगा जब भविष्य आपकी कार्यशैली पर विचार विमर्श कर शोध कर आपको देश समाज ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि को तहस नहस करने का दोषी समझेगा । संक्षेप में तीन कालों का लेखा जोखा यही है भूतकाल से मिला वर्तमान का किया ही भविष्य का निर्माण करता है ।  
 
 भूतकाल सपना, भविष्यकाल कल्पना, किन्तु वर्तमान अपना है… - Shiv Amantran |  Brahma Kumaris