कहने को बहुत है अगर कहने पे आए हम ( चिंतन ) लोक सेतिया
आजकल अख़बार टीवी चैनल से लेकर सोशल मीडिया तक हर दिन कुछ नया चर्चा में होता है। ख़बरों में रहना चर्चा में रहना आजकल उतना भी कठिन नहीं रह गया है। मशहूर होने की चाहत सभी की रहती है। कभी ये भी कहते थे बदनाम हुए तो क्या नाम तो हो गया। हालत ये हो गई है कि मशहूर लोग गली गली मिलते हैं और होता ये भी है कि खुद अपने मुंह से मियां मिठू बन सवाल करते हैं आप मुझे नहीं पहचानते मैं वही हूं कल जिसकी खबर टीवी पर थी। अभी भी पुराने लोग अखबार में अपनी छपी फोटो को दिखाया करते हैं अपनी फाइल खोलकर इतने साल तक संभाले रखा है। आजकल सेल्फी ने ऐसा सितम ढाया है कि लोग देश के पी एम के साथ फोटो में दिखाई देते हैं तो इसी बात पर हंगामा हो जाता है कि कैसे कैसे लोग किस किस के कितने करीब हैं। इनाम खिताब तमगे इस तरह आम हो गए हैं जैसे फोन की हालत है , कभी बेसिक फोन भी किसी किसी के घर होता था , फिर आम मोबाइल फोन कम लोग रख सकते थे क्योंकि उनका खर्चा बहुत महंगा हुआ करता था , आजकल महंगे से महंगा स्मार्ट फोन हर कोई रख सकता है काल दर और डाटा इतना सस्ता हो गया है। लेकिन आजकल मोबाइल फोन होने से किसी का रुतबा नहीं बढ़ता है। ये इक सामाजिक विज्ञान की बात है की जो वस्तु बहुतियात में हो जाती है उसकी कीमत चाहे जो भी हो कदर कम हो जाती है। हर किसी के पास महंगी कार , हर गली मुहल्ले में कोई लेखक कोई खबर बनाने वाला मिलते हैं। इक ज़माना था बी ए की डिग्री होना शान की बात थी , उच्च शिक्षा हासिल करने वाले लोग ही कोट पेंट पहन टाई लगाया करते थे। कीमत सामान की बढ़ती जा रही है आदमी की कम होती जा रही है , हर आम आदमी अपने को ख़ास मानता है समझता है और साबित करता है। ये ऐसा काम है जिस की खातिर सब कुछ भी करने को तैयार हैं। भला चंगा आदमी तलवे चाटता है किसी अधिकारी नेता या हर उस के जिस से कोई तमगा हासिल हो सकता है जो उसे आम से ख़ास बना सकता हो। संभावनाओं की कोई कमी नहीं है। आपको किसी समिति का सदस्य मनोनित किया जा सकता चंदा लेकर तो कोई अमीर राज्य सभा की सदस्यता खरीद लेता है।
गोरे शासक खिताब देने का ऐसा चलन बना गए कि हम आज़ादी के बाद भी उन्हीं की निति पर चलते हैं। शहर से राज्य की राजधानी से देश की राजधानी तक आये दिन इनाम पुरुस्कार और तमगे खिताब बंटते हैं। सैनिक जान पर खेल कर सीने पर मेडल सजाया करते हैं और बहुत को मरने के बाद भी मेडल मिलते हैं जिनकी शान ही अलग है। मगर इधर हर सरकारी अधिकारी को उत्कृष्ट सेवा के लिए और तमाम उन कामों के लिए जिन में ईमानदारी और समाज सेवा शामिल हैं सम्मानित किया जाता है जो वास्तव में उन्होंने कभी नहीं किया होता है। जो अपना कर्तव्य नहीं निभाते रहे और पद का दुरूपयोग कर रिश्वत खाते रहे उनको भी सम्मानित होते देखा है। साहित्य में तो रेवड़ियां हमेशा बंटती रही हैं और बीस पचास किताबें छपा खुद को इतिहासकार साहित्यकार कहलाने वाले देश और समाज को कुछ भी सार्थक नहीं दे पाते। कोई राह नहीं दिखला सकते कोई शमां नहीं जला सकते। जिस को पढ़कर पढ़ने वाला कुछ कर दिखाने की सोच भीतर से अनुभव करे ऐसी कोई बात लगती ही नहीं। अधिकतर शब्दों का बदलाव मात्र है नया विचार नई ऊर्जा नहीं है लेखन में। कभी लोग खादी के कपड़े पहन कर भी शान से रहते थे , इधर ब्रांडेड पहन कर भी चिंता रहती है किसी और की शान मुझसे अधिक नहीं हो जाये। इंसान की नहीं कपड़ों की शान है। बड़े से बड़े नेता को भी अपने छोटेपन का भीतर एक एहसास रहता है क्योंकि कथनी और करनी में विरोधाभास कब सामने आ जाये क्या पता। आदर्शवादी होने की बात गाली लगती है जब आपके संबंध तमाम अपरदियों और बदमाशों के साथ हों , सत्ता की खातिर दागदार नेताओं को गले लगाकर आप देश भक्त नहीं बन सकते। आपको चंदा किस किस से मिला किसी को नहीं बताते और क्यों मिला ये बता दें तो सारी प्रतिष्ठा दांव पर लग जायगी।
जब ऐसे बाज़ार से कीमत देकर तमगे लाओगे तो क्या कहलाओगे। ऊंचाई पर चढ़कर और छोटे हो जाओगे। बहुत झूठ का सामान जमा कर लिया है झूठी शान बढ़ाने को , फिर भी हवस रहती है अभी और भी पाने को। मृगतृष्णा का शिकार होकर चमकती रेत को पानी समझ भागते जाते हैं अंजाम मालूम है। अभी कुछ दिन पहले किसी के शव को तिरंगे में लपेटने पर बहस करने लगे कुछ लोग , जब उनको पदम् पुरूस्कार मिलते हैं तब कहां थे। किसी अभिनेता को जुर्म की सज़ा सुनाई जाती है तो शोर मच जाता है , ये कैसा समाज है कैसा मीडिया है। अपराध भी आम ख़ास होने लगे हैं। मानसिक दिवालियापन है हर पत्थर को खुदा समझ लेते हैं , समाज को देश को क्या दिया है कुछ मशहूर नाम वालों ने। अपने लिए धन कमाया तो क्या बड़ी बात की। महान वो कहलाते थे जो अपना सर्वस्व देश पर समाज पर लुटवाते थे। आज अगर आप देश में बड़े बड़े ईनाम सम्मान पुरूस्कार और तमगों वा प्रशस्तिपत्र प्रमाणपत्र वालों की सूचि बनाओ तो संख्या करोड़ों की होगी लाखों की नहीं। आजकल तो ये भी महान कार्य बन गया है कि किस की कितनी बड़ी जागीर है भले जागीर बनाई ज़मीर बेचकर ही हो।
कभी कभी सोचता हूं जैसे भारत देश में बताया जाता है कि छतीस करोड़ देवी देवता हैं , और ये सभी वरदान देते हैं मनोकामना पूरी किया करते हैं सैकड़ों सालों से नहीं युगों युगों से। फिर भी इतनी लंबी लंबी कतारें लगी हैं भूखों की बेबसों की , ये भगवान के समान समझे जाने वाले और बाकी सभी धर्मों वाले भी खुद आलिशान भवनों में बड़ी शान से रहते हैं और भक्त जन दरिद्र हैं। क्या उधर भी भारत सरकार जैसी हालत है अधिकारी नेता ठाठ बाठ से रहते हैं और जनता भूखी रहती है। सोचता हूं कि जिस देश में इतने भरत रत्न और जाने क्या क्या हैं समाज की देश की सेवा करने वाले करोड़ों की संख्या है उन्होंने किया क्या है जो अभी भी देश की हालत बदहाली की है। यहां एक एक साधु संत ने समाज को बदल दिया था , नानक कबीर विवेकानंद से गाँधी विनोबा भावे तक सब जीवन भर यही करते रहे और बहुत सारी कुरीतियों का अंत हुआ या फिर उन में बहुत कमी आई उनके प्रयास से। तब इतने देशभक्त नेता अधिकारी और अन्य तमाम लोग जो कहलाते हैं युग के महान नायक हैं उनका किया हुआ दिखाई क्यों नहीं देता देश की दशा और समाज में अच्छाई के रूप में। अगर इन सब से देश और समाज का कोई भला हुआ नहीं है तो किसलिए हम लोग उनकी जयजयकार करते हैं उनकी बढ़ाई की बातें करते हैं उनका गुणगान करते हैं।
सब जानते हैं इक दीपक जलाने से दूर तक रौशनी हो जाती है। ये सब अगर उजाला बांटने वाले हैं तो फिर अंधकार ही अंधकार क्यों छाया हुआ है। धर्म उपदेशक बहुत हैं धार्मिक आयोजन भी हर दिन हर जगह होते हैं फिर धर्म कहीं नज़र क्यों नहीं आता। पाप ही पाप है अधर्म ही अधर्म है , किसी को किसी पर भरोसा नहीं है। जिस का बस चलता है वही चोर बन जाता है ईमानदारी आचरण में नहीं है जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता वही ईमानदार है मज़बूरी से। इस सब की सीमा कोई नहीं कहां तक चर्चा की जाये। आखिर में इक पुरानी बात याद आई है। समझाया जाता था , धन गया तो समझो कुछ भी नहीं गया , स्वास्थ्य गया तो समझो कुछ गया , मगर चरित्र गया तो समझो सब कुछ गया। आज चरित्र की कीमत ही नहीं और धन तो जीवन का मकसद बन गया है रही स्वस्थ्य की बात तो हमारा समाज ही बीमार है। किस किस रोग की दवा करें किस किस अंग को ठीक करें , सब कुछ तो रोगग्रस्त है।