वो पहन कर कफ़न निकलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
वो पहन कर कफ़न निकलते हैंशख्स जो सच की राह चलते हैं ।
राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं ।
गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं ।
जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं ।
जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं ।
कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं ।
टालते हैं हसीं में वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं ।
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