मार्च 31, 2016

संकल्प ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

            संकल्प ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

जीवन में जाने कितनी बार
किया तो है पहले भी संकल्प
खुद को बदलने का संवरने का
मगर शायद कुछ अधूरे मन से
तभी जब भी आया इम्तिहान
नहीं पूरा कर सका में अपना संकल्प ।

फिर से इक बार कर रहा हूं वही संकल्प
नहीं घबराना असफलताओं से
नहीं डरना ज़िंदगी की मुश्किलों से
छुड़ा कर निराशाओं से अपना दामन
साहसपूर्वक बढ़ाना है इक इक कदम
अपनी मंज़िल की तरफ बार बार ।

नतीजा चाहे कुछ भी हो मुझे करना है
फिर से प्रयास पूरी लगन से निष्ठा से
कोई रुकावट नहीं रोक सकती रास्ता
मुझे करना ही है पार इस बार उस नदी को
और ढूंढनी ही है मंज़िल प्यार की यहीं
इसी जन्म में इसी दुनिया में इक दिन । 
 

 

मार्च 28, 2016

वजूद की तलाश में ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

वजूद की तलाश में ( कविता ) - डॉ लोक सेतिया

जाने कहां खो गया हूं मैं
खोजना चाहता हूं अपने आप को
वापस चला जाता हूं
ज़िंदगी की पुरानी यादों में
समझना चाहता हूं दोबारा
किस मोड़ से कैसे मुड़ गया था
रास्ता ज़िंदगी की राह का कभी ।

शायद चाहता हूं जानना
कि क्या होता अगर तब मैंने
चुनी होती कोई और ही राह चलने को
तब कहां होता मैं आज और क्या होता
मेरा वर्तमान भी और भविष्य भी ।

लेकिन समझ आता है तभी मुझे
ये सच कि कोई कभी भी
लिखी हुई किताब को दोबारा पढ़कर
बदल नहीं सकता है लिखी हुई
इबारत को
गुज़रे हुए पलों को ।

हो सकता है
मेरी ज़िंदगी की किताब में
बीते हुए ज़माने की ही तरह
पहले से ही लिखा हुआ हो मेरा
आने वाला कल भी भविष्य भी
शुरुआत से अंत के बीच
न जाने कब से भटकता रहा हूं
और भटकना है जाने कब तलक
अपने खोये हुए वजूद की तलाश में
मुझे । 
 

 

मार्च 26, 2016

मेरा विवेक जगाता है मुझे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मेरा विवेक जगाता है मुझे ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

आज इक बार फिर
इक कहानी पढ़ते पढ़ते
सोच रहा था
मुझे भी उस कहानी के
किसी पात्र की तरह
अच्छा
बहुत अच्छा बनना है ।

सभी मुझे समझते हैं
मैं बहुत अच्छा हूं
सच्चा हूं
मगर खुद अपनी नज़र में
मुझ में कमियां ही कमियां हैं
सोचता रहता हूं
मैं क्यों नहीं बन पाया वैसा
जैसा बनना चाहिए था मुझे ।

शायद इस दुनिया में अच्छा
सच्चा बनकर जीना
मुश्किल ही नहीं
असंभव काम भी है
और मैंने किया है उम्र भर
असंभव को संभव करने का प्रयास ।

मुझे किसी ने पढ़ाया नहीं
सच्चाई और उसूलों का पाठ
बल्कि हर कोई समझाता रहा
दुनियादारी को सीखने की ज़रूरत ।

बस मेरा किताबें पढ़ने का शौक
अच्छी फिल्मों को देखने का जुनून
मुझे समझाता रहा सही और गलत
अच्छे और बुरे का अंतर करना
और मुझ में मेरा ज़मीर
ज़िंदा रहा हर हाल में ।

जो काम शायद किसी गुरु की शिक्षा
किसी प्रचारक के उपदेश नहीं कर सके
मेरे विवेक ने खुद किया हर दिन
वही काम मार्गदर्शन देने का मुझे
इसलिए हमेशा की तरह फिर
आज भी मैंने किया है निर्णय
तमाम कठिनाईयों के बावजूद
अकेले उसी राह पर चलते रहने का । 
 

 

मार्च 24, 2016

आज मनाई होली इस तरह ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

आज मनाई होली इस तरह  ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुबह से शाम हो गई है
सोच रहा हूं मैं होली के दिन
क्या ऐसे ही होती है होली
जैसे आज मनाई है मैंने ।

कभी वो भी बचपन की होली थी
जब बक्से से निकाल के देती थी
मां हमें चमचमाती हुई पुरानी
स्टील और पीतल की सुंदर पिचकारी ।

और घोलते थे रंग कितने ही मिला पानी में
भरने को दिन भर जाने कितनी बार
खेलते थे बड़ों छोटों के साथ मस्ती में
मन में भरी रहती थी जाने कैसी उमंग ।

फिर होते गये हम बड़े और समझदार
बदलता गया ढंग हर त्यौहार मनाने का
सोच समझ कर जब लगे खेलने होली
नहीं रही मन की उमंग और होता गया
हर बरस पहले से फीका कुछ हर त्यौहार ।

आज चुप चाप बंद कमरे में अकेले ही
खेली दिन भर हमने भी ऐसे कुछ होली
जैसे किसी अनजान इक घर में हो खामोश
पिया बिना नई नवेली दुल्हन की डोली ।

फेसबुक पर कितनी रंग की तस्वीरें
कितने सन्देश कितने लाईक कमेंट्स
मगर दिल नहीं बहला लाख बहलाने से
किसी को नहीं भिगोया न हम ही भीगे
ये कैसे दोस्त सच्चे और झूठे जाने कैसे
नहीं आई घर बुलाने कोई भी टोली हमजोली ।

की बातें फोन पर सभी से कितनी दिन भर
ली और दी हर किसी को होली की बधाई
बने पकवान भी कुछ मंगवाये बाज़ार से
लगी फिर भी फीकी हर तरह की मिठाई ।

लेकिन हम सभी को यही बतायेंगे कल
बहुत अच्छी हमने ये होली है मनाई
नहीं जानते कैसे क्या क्यों बदला है
मगर खुशियां होली की हो गई हैं पराई । 
 

 

मार्च 20, 2016

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है
इश्क़ की हर दास्तां खामोश है ।

बस तुम्हीं करते रहे रौशन जहां
तुम नहीं , सारा जहां खामोश है ।

क्या बताएं क्या हुआ सबको यहां
चुप ज़मीं है आस्मां खामोश है ।

झूमता आता नज़र था रात दिन
आज पूरा कारवां खामोश है ।

तू हमारे वक़्त की आवाज़ है
किसलिए तूं जाने-जां खामोश है । 
 

 

मार्च 09, 2016

मत कहो आकाश में कोहरा घना है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  मत कहो आकाश में कोहरा घना है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

समरथ को नहीं दोष गुसाईं , पैसा हर कमी को ढक देता है , ये बात इक बार फिर से सच साबित हो गई है। हज़ार एकड़ भूमि की फसल को तहस नहस कर देना , कितने पेड़ पौधों को काट देना , नदी किनारे बालू पर निर्माण करना किसी भव्य कार्यक्रम के आयोजन के लिए। किसी नियम की चिंता नहीं , कोई औपचारकता निभाना ज़रूरी नहीं , केवल किसी एक विभाग से किसी तरह इक मंज़ूरी का कागज़ हासिल कर बाकी सभी कुछ भुला देना। आपको कौन रोक सकता था जब आपके  करोड़ों अनुयाई हैं , अरबों का कारोबार फैला हुआ है विश्व भर में , और सत्ताधारी लोग आपके समर्थक हैं। आधुनिक भगवान ऐसे ही पर्यावरण को बचाते हैं। कभी भगवान भी गलत हो सकते हैं , जो उनमें कमी बताये वो पापी है। भगवान प्रेस वार्ता करते हैं दावा करते हैं कि वो तो महान कार्य कर रहे हैं , उनका उपकार मानना चाहिए। मगर क्या करें हमें सावन के अंधों की तरह हर तरफ हरियाली दिखाई देती ही नहीं। कितनी बुरी बात है कलयुगी भगवान को अदालत में जाना पड़ा है और विभाग ने उन पर पांच करोड़ का हर्ज़ाना भरने का हुक्म सुना दिया है , साथ ही पांच लाख जुर्माना उस सरकारी विभाग को भी अदालत ने लगाया जिसने ये सब होने दिया। इक फिल्म क्या बनी ओह माय गॉड , लोग अदालत घसीट ले गए उनको भी जो गुरु ही नहीं जाने क्या क्या कहलाते हैं। मगर देख लो हर गलत काम सही हो गया पैसे से , तभी तो धनवान और ताकत वाले जो मन चाहे करते हैं। ये राशि क्या है उनके लिए , ऐसे आयोजन से उनको इससे कई गुणा फायदा होना है। साबित हो गया पैसा ही सब कुछ है , अगर पैसा नहीं होता तो शायद ये भगवान भी बेबस हो जाते जब उनका आयोजन रोक दिया जाता। जहां तक छवि खराब होने या बदनामी की बात है तो जो प्रचार इस बात से मिला वो भी कम नहीं है। लेकिन अहंकार में डूबे इस संत का कहना है कि हम जुर्माना नहीं भरेंगे चाहे जेल जाना पड़े। वास्तव में ऐसे आयोजन को रद्द किया जाना चाहिए ताकि सबको समझ आये कि कायदे क़ानून सब के लिए हैं। मगर जब देश का प्रधानमंत्री ऐसे आयोजन में शामिल होता है तब समझ आता है कि बड़े लोग वी वी आई पी लोग देश के क़ानून से ऊपर हैं !

                             इस कदर कोई बड़ा हो हमें मंज़ूर नहीं
                             कोई बन्दों में खुदा हो हमें मंज़ूर नहीं।
                             रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर
                             चांद बस्ती में उगा हो हमें मंज़ूर नहीं।
                             मुस्कुराते हुए कलियों का मसलते जाना
                             आपकी एक अदा हो हमें मंज़ूर नहीं। 

         कभी इक कथा में ज़िक्र आया था कि इक गुरु और उसके शिष्य जब धर्मराज के सामने पेश हुए तो गुरु को जितनी सज़ा अपकर्मों की मिली अनुयायियों को उससे कई गुणा दी गई , जब पूछा गया किसलिए तो उत्तर मिला कि आप सभी ने जानते समझते हुए उनका साथ दिया जबकि गुरु की शिक्षा थी झूठ का विरोध करें चाहे वो कोई भी हो। आपने गुरु की दी शिक्षा को ही भुला दिया गुरु की जय जयकार करने में। सब से विचत्र बात ये है कि इस देश में नियम क़ानून का पालन नहीं करने या अनुचित कार्य करने पर किसी को कभी नुकसान नहीं होता है। बिजली चुराने पर लगा जुर्माना जितनी राशि की बिजली चोरी की उस से तो कम ही होता है , और बदनाम भी नहीं होते ऐसा कह कर कि सभी करते हैं। क़ानून से डरना और नियमों का पालन करना कमज़ोर लोगों का काम है। बड़े बड़े लोग इनकी परवाह किये बिना आगे बढ़ते जाते हैं , हर कायदे क़ानून को पांवों तले रौंद कर। सरकारी विभाग भी क़ानून लागू करने में नहीं क़ानून तोड़ने से हर बात पर जुर्माना राशि वसूल करने में यकीन रखते हैं। फलां नियम तोड़ने पर इतना जुर्माना , बस पैसे भर कर अवैध को वैध करार करा सकते हैं। इक समझदार बता रहे हैं बड़े लोग कभी जुर्माना भरते नहीं हैं , पांच करोड़ जुर्माना वसूल हो पाये ये ज़रूरी नहीं है , उनके पास विकल्प खुला है जुर्माने के खिलाफ अपील करने का। मगर कोई विभाग उनके जुर्माना नहीं अदा करने पर सख्त कदम नहीं उठा सकता है। इन महान लोगों का आचरण जो भी सभी को मान्य होता है , लोक कल्याण जनहित जैसे शब्दों की आड़ में सभी कुछ छुप जाता है।

           सच सच सभी सच का शोर करते हैं , पूरा सच कोई बताता नहीं , कोई सुनना भी नहीं चाहता, पढ़ना भी कहां चाहते सब लोग , ऐसे में संपादक और प्रकाशक छापने से परहेज़ करें तो गलत क्या है। न जाने कब कैसे कहां किसी का अपना मतलब अपनी सोच अपनी आस्था बीच में आ जाये और विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी को दरकिनार कर दे। देखिये हम किसी की व्यक्तिगत आलोचना को नहीं छापते , बेशक आपकी बात कितनी खरी हो और कितनी ज़रूरी सच को सच साबित करने के लिए। तभी दुष्यंत कुमार कह गये हैं " मत कहो आकाश में कोहरा घना है , ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है "। ऐसी हर घटना चर्चा में रहती कुछ दिन को , फिर कोई नया किस्सा कोई फ़साना सुनाई देता है और पिछली बात खो जाती इतिहास बनकर। कोई कभी सोचेगा कि जो भी अनुचित करने लगा हो उसको नहीं करने दिया जायेगा तभी गलत होना बंद होगा , अन्यथा कभी कुछ नहीं बदलेगा और धनवान हमेशा मनमानी करते रहेंगे। काश ऐसे आयोजन को सख्ती से रोकने का साहस कोई करता ताकि औरों को ये सन्देश जाता कि कानून से ऊपर कोई भी नहीं है। ऐसे तो हर कायदे कानून को इक मज़ाक बना दिया जाता है जैसे चंद सिक्कों में बिकता है हर नियम भी। अब किस किस की बात करें , फिर अंत में दुष्यंत कुमार के शेर अर्ज़ हैं।

                         " अब किसी को भी नज़र आती नहीं दरार ,
                           घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार।
                           इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके - जुर्म हैं ,
                           आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार "।