सुनो इक कहानी हमारी ज़ुबानी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
सुनो इक कहानी हमारी जुबानीनई भी नहीं है न है ये पुरानी।
किसी ने किसी से किया प्यार इक दिन
रखी है छुपा कर अभी तक निशानी।
वहीँ पर सुबह से हुई शाम अक्सर
सुहाने थे दिन और रातें सुहानी।
नहीं भूल सकता कभी वो नज़ारा
किसी में थी देखी नदी की रवानी।
वो क्या दौर था दोस्तो ज़िंदगी का
लुटा दी किसी ने किसी पर जवानी।
अजब हाल देखा वहां पर सभी का
वहीं प्यास भी थी जहां पर था पानी।
इसे तुम जुबां पर कभी भी न लाना
सुना दी है "तनहा" तुम्हें जो कहानी।
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