बेचा नहीं गिरवी रखा है ( व्यंग्य रचनाएं ) डॉ लोक सेतिया
ज़मीर मरा भी नहीं ज़मीर ज़िंदा भी नहीं है । टीवी चैनल वालों ने अपना ज़मीर सुरक्षित रख छोड़ा है किसी न किसी दल के पास किसी न किसी सरकार के पास । अख़बार वालों ने भी किराये पर उठा रखा है ज़मीर अपना रोज़ किरायेदार बदलते हैं रोज़ किराया बढ़ता है । विज्ञापन छापते छापते खुद ही इश्तिहार बन गये हैं फिर भी आईना दिखाने की बात करते हैं खुद अपनी सूरत को नहीं देखते कभी भी । ये बात सोची तो रिश्तों को लेकर थी मगर इस पर भी सही साबित होती है । आशिक़ महबूबा में थोड़ा फासला रहना अच्छा है चेहरा सुंदर लगता है मगर पति पत्नी बनकर जब बहुत करीब से देखते हैं तो हर चेहरे पर छोटे से छोटा तिल भी नज़र आता है , किसी भी चेहरे को ज़ूम कर के बारीकी से देखोगे तो विश्व सुंदरी भी अजीब लगेगी । दूर के ढोल सुहावने होते हैं । आजकल लोग परेशान हैं देख कर कि समाचार वाले टीवी चैनल बेखबर हैं कि हम क्या से क्या हो गए हैं और क्या होते जा रहे हैं । पैसे की चाहत की अंधी दौड़ में अपना ईमान तक गवा बैठे हैं और समझते हैं कितना आगे बढ़ गये हैं । दोहा :-
आगे कितना बढ़ गया अब देखो इंसान , दो पैसे में बेचता ये अपना ईमान
1 संपादक जी
संपादक जी मेरे दिये समाचार को पढ़ रहे थे और मैं सोच रहा था कि ये सब क्या
हो रहा है । समाज किस दिशा को जा रहा है , आखिर कहीं तो कोई सीमा होनी
चाहिये । नैतिक मूल्यों का अभी और कितना ह्रास होना बाकी है । "शाबाश अरुण"
संपादक जी उत्साह पूर्वक चीखे तो मेरी तन्द्रा भंग हो गई , "धन्यवाद
श्रीमान जी " मैं इतना ही कह सका । उनहोंने चपरासी को चाय लाने को कहा व फिर
मेरी तरफ देख कर बोले "तुम वास्तव में कमाल के आदमी हो , क्या खबर लाये हो
खोजकर आज , कल फ्रंट पेज के शीर्षक से तहलका मचा देगी ये स्टोरी । " मुझे
चुप देख कर पूछने लगे " क्या थक गये हो " मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं
है । तब उनहोंने जैसे आदेश दिया , अभी बहुत काम करना है तुम्हें , किसी
दूसरे अख़बार को भनक लगे उससे पहले और जानकारी एकत्र करनी है । इधर उधर से जो
भी जैसे भी हासिल हो पता लगाओ , ये टॉपिक बहुत गर्म है इसपर कई संपादकीय
लिखने होंगे आने वाले दिनों में । एक तो कल के अंक में लगाना चाहता हूं ,
थोड़ा मसाला और ढूंढ लाओ तो मज़ा आ जाये । " सम्पादक जी को जोश आ गया था और
मैं समझ नहीं पा रहा था कि जिस खबर से मेरा अंतर रोने को हो रहा है उस से
वे ऐसे उत्साहित हैं जैसे कोई खज़ाना ही मिल गया है । कल अख़बार में इनका
संपादकीय लेख पढ़ कर पाठक सोचेंगे कि ये बात सुनकर बहुत रोये होंगे संपादक
जी । कितनी अजीब बात है जो आज ठहाके लगा रहा है वो कल अखबार में दर्द से
बेहाल हुआ दिखाई देगा । चाय कब की आ गई थी और ठंडी हो चुकी थी , मैंने उसे
पानी की तरह पिया और इजाज़त लेकर उनके केबिन से बाहर आ गया था । मुझे याद
नहीं संपादक जी क्या क्या कहते रहे थे , लेकिन उनका इस दर्द भरी बात पर यूं
चहकना मुझे बेहद खल रहा था । उनके लेखों को पढ़कर जो छवि मेरे मन में बन गई
थी वो टूट चुकी थी ।
मैं भी इस बारे और जानकारी हासिल करना चाहता था , संपादक
जी के आदेश से अधिक अपने मन कि उलझन को मिटाने के लिये । शाम को कई बातें
मालूम करने के बाद जब दफ्तर पहुंचा तो संदेश मिला कि संपादक जी ने घर पर
बुलाया है । जाना ही था पत्रकार होना भी क्या काम है । उनको भी मेरा बेसब्री
से इंतज़ार था , पूरी जानकारी लेने के बाद कहने लगे अब यही कांड कई दिन तक
ख़बरों में , चर्चा में छाया रहेगा । ये सुन उनकी श्रीमती जी बोली थी इससे
क्या फर्क पड़ता है । उनका जवाब था , बहुत फर्क पड़ता है , हम अख़बार वालों को
ही नहीं तमाम लिखने वालों को ऐसा विषय कहां रोज़ रोज़ मिलता है । देखना इसी पर
कितने लोग लिख लिख कर बहुत नाम कमा लेंगे और कुछ पैसे भी । इस जैसी खबर से
ही अख़बार की बिक्री बढ़ती है , जब अख़बार का प्रसार बढ़ेगा तभी तो विज्ञापन
मिलेंगे । देखो ये अरुण जो आज इस खबर से उदास लग रहा है , जब कल इसके नाम
से ये स्टोरी छपेगी तो एक अनजान लड़का नाम वाला बन जायेगा । अभी इसको ये भी
नहीं समझ कि इसकी नौकरी इन ख़बरों के दम पर ही है , कल ये भी जान जायेगा
अपने नाम की कीमत कैसे वसूल सकता है । मैं ये सब चुपचाप सुनता रहा था और
वापस चला आया था ।
अगली सुबह खबर के साथ ही मुखपृष्ठ पर संपादक जी का लेख छपा
था :: " घटना ने सतब्ध कर दिया और कुछ भी कहना कठिन है :::: : " मुझे
बेकार लगा इससे आगे कुछ भी पड़ना , और मैंने अख़बार को मेज़ पर पटक दिया था ।
मैं नहीं जानता था कि साथ की मेज़ पर बैठे सह संपादक शर्मा जी का ध्यान मेरी
तरफ है । शर्मा जी पूछने लगे , अरुण क्या हुआ सब कुशल मंगल तो है , खोये
खोये से लग रहे हो आज । मैंने कहा शर्मा जी कोई बात नहीं बस आज की इस खबर के
बारे सोच रहा था । और नहीं चाहते हुए भी मैं कल के संपादक जी के व्यवहार की
बात कह ही गया । शर्मा जी मुस्कुरा दिये और कहने लगे अरुण तुमने गीता पढ़ी
हो या नहीं , आज मैं तुम्हें कुछ उसी तरह का ज्ञान देने जा रहा हूं , जैसा
उसमें श्रीकृष्ण जी ने दिया है अर्जुन को । अपना खास अंदाज़ में मेज़ पर बैठ
गये थे किसी महात्मा की तरह । बोले " देखो अरुण किसी पुलिस वाले के पास जब
क़त्ल का केस आता है तो वो ज़रा भी विचलित नहीं होता है , और जिसका क़त्ल हुआ
उसी के परिवार के लोगों से हर तरह के सवाल करने के साथ , चाय पानी और कई
साहूलियात मांगने से गुरेज़ नहीं करता । कोई इस पर ऐतराज़ करे तो कहता है आप
कब हमें शादी ब्याह पर बुलाते हैं । इसी तरह वकील झगड़ा करके आये मुवकिल से
सहानुभूती नहीं जतला सकता , क्योंकि उसको फीस लेनी है मुकदमा लड़ने की । जब
किसी मरीज़ की हालत चिंताजनक हो और बचने की उम्मीद कम हो तब डॉक्टर की फीस
और भी बढ़ जाती है । पुलिस वाले , वकील और डॉक्टर दुआ मांगते हैं कि ऐसे लोग
रोज़ आयें बार बार आते रहें । पापी पेट का सवाल है । ख़बरों से अपना नाता भी
इसी तरह का ही है , और हम उनका इंतज़ार नहीं करते बल्कि खोजते रहते हैं ।
देखा जाये तो हम संवेदनहीनता में इन सभी से आगे हैं । ये बात जिस दिन समझ
जाओगे तुम मेरी जगह सह संपादक बन जाओगे , जिस दिन से तुम्हें इन बातों में
मज़ा आने लगेगा और तुम्हें इनका इंतज़ार रहेगा उस दिन शायद तुम संपादक बन
चुके होगे । कुछ लोग इससे और अधिक बढ़ जाते हैं और किसी न किसी पक्ष से लाभ
उठा कर उनकी पसंद की बात लिखने लगते हैं अपना खुद का अख़बार शुरू करने के
बाद । हमारी तरह नौकरी नहीं करते , हम जैसों को नौकरी पर रखते हैं । सब से
बड़ा सत्य तुम्हें अब बताता हूं कि आजकल कोई अख़बार ख़बरों के लिये नहीं छपता
है , सब का मकसद है विज्ञापन छापना । क्योंकि पैसा उनसे ही मिलता है इसलिये
कोई ये कभी नहीं देखता कि इनमें कितना सच है कितना झूठ । सब नेताओं के
घोटालों की बात ज़ोर शोर से करते हैं , सरकार के करोड़ों करोड़ के विज्ञापन
रोज़ छपते हैं जिनका कोई हासिल नहीं होता , सरासर फज़ूल होते हैं , किसी ने
कभी उन पर एक भी शब्द बोला आज तक । शर्मा जी की बातों का मुझ पर असर होने
लगा था और मेरा मूड बदल गया था , मैंने कहा आपकी बात बिल्कुल सही है शर्मा
जी । वे हंस कर बोले थे मतलब तुम्हारी तरक्की हो सकती है ।
इन बातों से मेरे मन से बोझ उतर गया था और मैं और अधिक
उत्साह से उस केस की जानकारी एकत्र करने में जी जान से जुट गया था । शाम को
जब अपनी रिपोर्ट संपादक जी को देने गया तो उन्होंने मुझे कि उनकी बात हुई
है अख़बार के मालिक से तुम्हारी पदोन्ति के बारे और जल्दी ही तुम सह संपादक
बना दिये जाओगे । जी आपका बहुत शुक्रिया , जब मैंने संपादक जी का आभार
व्यक्त किया तब शर्मा जी की बात मेरे भीतर गूंज रही थी । मैं शर्मा जी का
धन्यवाद करने गया तब उन्होंने पूछा कि अरुण तुम्हें कर्म की बात समझ आई कि
नहीं । मैंने जवाब दिया था शर्मा जी कर्म का फल भी शीघ्र मिलने वाला है । हम
दोनों हंस रहे थे , अख़बार मेज़ से नीचे गिर कर हमारे पांवों में आ गया था ,
कब हमें पता ही नहीं चला ।
2 सवाल विशेषाधिकार का
यमराज जब पत्रकार की आत्मा को ले जाने लगे तब पत्रकार की आत्मा ने यमराज से
कहा कि मैं बाकी सभी कुछ यहां पर छोड़ कर आपके साथ यमलोक में चलने को तैयार
हूं , आप मुझे एक ज़रूरी चीज़ ले लेने दो । यमराज ने जानना चाहा कि वो कौन सी
वस्तु है जिसका मोह मृत्यु के बाद भी आपसे छूट नहीं रहा है । पत्रकार की
आत्मा बोली कि मेरे मृत शारीर पर जो वस्त्र हैं उसकी जेब में मेरा पहचान
पत्र है उसको लिये बिना मैं कभी कहीं नहीं जाता । यमराज बोले अब वो किस काम
का है छोड़ दो ये झूठा मोह उसके साथ भी । पत्रकार की आत्मा बोली यमराज जी
आपको मालूम नहीं वो कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है , जिस किसी दफ्तर में जाओ
तुरंत काम हो जाता है , अधिकारी सम्मान से बिठा कर चाय काफी पिलाता है ,
अपने वाहन पर प्रैस शब्द लिखवा लो तो कोई पुलिस वाला रोकता नहीं । पत्रकार
होने का सबूत पास हो तो आप शान से जी सकते हैं । यमराज ने समझाया कि अब आपको
जिस दुनिया में ले जाना है मुझे , उस दुनिया में ऐसी किसी वस्तु का कोई
महत्व नहीं है । पत्रकार की आत्मा ये बात मानने को कदापि तैयार नहीं कि कोई
जगह ऐसी भी हो सकती है जहां पत्रकार होने का कोई महत्व ही नहीं हो । इसलिये
पत्रकार की आत्मा ने तय कर लिया है कि यमराज उसको जिस दुनिया में भी ले
जाये वो अपनी अहमियत साबित करके ही रहेगी ।
धर्मराज की कचहरी पहुंचने पर जब चित्रगुप्त पत्रकार
के अच्छे और बुरे कर्मों का हिसाब देख कर बताने लगे तब उसकी आत्मा बोली
मुझे आपके हिसाब किताब में गड़बड़ लगती है । आपने मुझसे तो पूछा ही नहीं कि आप
सभी पर मेरी कोई देनदारी भी है या नहीं और अपना खुद का बही खाता खोल कर सब
बताने लगे । आपको मेरी उन सभी सेवाओं का पारिश्रमिक मुझे देना है जो सब
देवी देवताओं को मैंने दी थी । आपको नहीं जानकारी तो मुझे मिलवा दें उन सब
से जिनके मंदिरों का मैं प्रचार करता रहा हूं । कितने देवी देवता तो ऐसे हैं
जिनको पहले कोई जानता तक नहीं था , हम मीडिया वालों ने उनको इतना चर्चित
कर दिया कि उनके लाखों भक्त बन गये और करोड़ों का चढ़ावा आने लगा । हमारा नियम
तो प्रचार और विज्ञापन अग्रिम धनराशि लेकर करने का है , मगर आप देवी
देवताओं पर भरोसा था कि जब भी मांगा मिल जायेगा , इसलिये करते रहे । अब अधिक
नहीं तो चढ़ावे का दस प्रतिशत तो हमें मिलना ही चाहिये । धर्मराज ने समझाया
कि वो केवल अच्छे बुरे कर्मों का ही हिसाब रखते हैं , और किसी भी कर्म को
पैसे से तोलकर नहीं लिखते कि क्या बैलेंस बचता है । हमारी न्याय व्यवस्था
में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि अच्छे कर्म का ईनाम सौ रुपये है और किसी
बुरे का पचास रुपये जुर्माना है । और जुर्माना काटकर बाक़ी पचास नकद किसी को
दे दें । पत्रकार की आत्मा कहने लगी , ऐसा लगता है यहां लोकतंत्र कायम करने
और उसकी सुरक्षा के लिये मीडिया रूपी चौथे सतंभ की स्थापना की बहुत ज़रूरत
है । मैं चाहता हूं आपके प्रशासनिक तौर तरीके बदलने के लिये यहां पर
पत्रकारिता का कार्य शुरू करना , मुझे सब बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करवाने
का प्रबंध करें । धर्मराज बोले कि उनके पास न तो इस प्रकार की कोई सुविधा
है न ही उनका अधिकार अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने का । मुझे तो सब को उनके
कर्मों के अनुसार फल देना है केवल ।
पत्रकार की आत्मा कहने लगी हम पत्रकार हमेशा
सर्वोच्च अधिकारी से ही बात करते हैं । आपके ऊपर कौन कौन है और सब से बड़ा
अधिकारी कहां है , मुझे सीधा उसी से बात करनी होगी । ऐसा लगने लगा है जैसे
पत्रकार की आत्मा धर्मराज को ही कटघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही है ।
जैसे धर्मराज यहां पत्रकार के कर्मों का लेखा जोखा नहीं देख रहे , बल्कि
धर्मराज की जांच पड़ताल करने को पत्रकार की आत्मा पधारी है यहां । आज पहली
बार धर्मराज ये सोचकर घबरा रहे हैं कि कहीं इंसाफ करने में उनसे कोई चूक न
हो जाये । पत्रकार की आत्मा धर्मराज के हाव भाव देख कर समझ गई कि अब वो मेरी
बातों के प्रभाव में आ गये हैं , इसलिये अवसर का लाभ उठाने के लिये वो
धर्मराज से बोली , आपको मेरे कर्मों का हिसाब करने में किसी तरह की
जल्दबाज़ी करने की ज़रूरत नहीं है । जब चाहें फैसला कर सकते हैं , लेकिन जब तक
आप किसी सही निर्णय पर नहीं पहुंच जाते , तब तक मुझे अपनी इस दुनिया को
दिखलाने की व्यवस्था करवा दें । मैं चाहता हूं यहां के देवी देवता ही नहीं
स्वर्ग और नर्क के वासियों से मिलकर पूरी जानकारी एकत्रित कर लूं । पृथ्वी
लोक पर भी हम पत्रकार पुलिस प्रशासन , सरकार जनता , सब के बीच तालमेल बनाने
और आपसी विश्वास स्थापित करने का कार्य करते हैं । कुछ वही यहां भी मुमकिन
है ।
काफी गंभीरता से चिंतन मनन करने के बाद धर्मराज
जी इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि अगर इस आत्मा से पत्रकारिता के भूत को नहीं
उतारा गया तो ये यहां की पूरी व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर सकती है । इस
लोक में पत्रकारिता करके नया भूचाल प्रतिदिन खड़ा करती रहेगी । तमाम देवी
देवताओं को प्रचार और उनके साक्षात्कार छापने - दिखाने का प्रलोभन दे कर
प्रभावित करने का प्रयास कर सकती है । पृथ्वी लोक की तरह यहां भी खुद को हर
नियम कायदे से ऊपर समझ सकती है । पहले कुछ नेताओं अफ्सरों की लाल बत्ती वाली
वाहन की मांग भी जैसे उन्होंने स्वीकार नहीं की थी उसी तरह पत्रकारिता के
परिचय पत्र की मांग को भी ठुकराना ही होगा । धर्मराज जी ने तुरंत निर्णय
सुना दिया है कि जब भी अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब किया जायेगा तब इसका
कोई महत्व नहीं होगा कि किस की आत्मा है । नेता हो अफ्सर हो चाहे कोई
पत्रकार , यहां किसी को कोई विशेषाधिकार नहीं होगा ।
3 जो बिक गये , वही खरीदार हैं
कहानी एक वफादार कुत्ते की है । अपने गरीब मालिक की रूखी सूखी रोटी खा कर भी
वो खुश रहता । कभी भी गली की गंदगी खाना उसने स्वीकार नहीं किया । वो जानता
था कि मालिक खुद आधे पेट खा कर भी उसको भरपेट खिलाता है । इसलिये वो सोचता
था कि मुझे भी मालिक के प्रति वफादार रहना चाहिये , उसके सुख़ दुःख को समझना
चाहिये । वो दिन रात मालिक के घर और खेत खलियान की रखवाली करता । अचानक कुछ
लोग मालिक के घर महमान बन कर आये और उसके कुत्ते की वफादारी को देख उससे
कुत्ते को खरीदने की बात करने लगे । गरीब मालिक अपने कुत्ते को घर का सदस्य
ही मानता था इसलिये तैयार नहीं हुआ किसी भी कीमत पर उसको बेचने के लिये । तब
उन्होंने कुत्ते को लालच दे कर कहा कि तुम इस झौपड़ी को छोड़ हमारे आलीशान
महल में चल कर तो देखो । मगर वफादार कुत्ते ने भी उनके साथ जाने से इनकार कर
दिया । ऐसे में उन्होंने दूसरी चाल चलने का इरादा कर लिया और कुत्ते से कहा
कि तुम रहते तो यहीं रहो , बस कभी कभी ख़ास अवसर पर जब हम बुलायें तब आ
जाया करना । हम भी तुम्हें खिला पिला कर दिखाना चाहते हैं कि तुम हमें कितने
अच्छे लगते हो । बस यही राजनीति की चाल थी , वे यदा कदा आते और कुत्ते को
घुमाने को ले जाते । कभी कोई बोटी डाल देते तो कभी हड्डी दे देते चबाने को ।
धीरे धीरे कुत्ता उनकी आने की राह तकने लगा , और उनके आते ही दुम हिलाने
लगा । इस तरह अब उसको मालिक की रूखी सूखी रोटी अच्छी नहीं लगने लगी और धीरे
धीरे उसकी वफादारी मालिक के प्रति न रह कर चोरों के साथ हो गई । जब महमान बन
कर आये नेता ही चोर बन उसका घर लूटने लगे तो बेखबर ही रहा । अपने कुत्ते की
वफादारी पर भरोसा करता रहा जबकि वो अब चोरों का साथी बन चुका था ।
आजकल किसी गरीब की झौपड़ी की रखवाली कोई
कुत्ता नहीं करता है । अब सभी अच्छी नस्ल के कुत्ते कोठी बंगले में रहते हैं
कार में घूमते हैं । मालकिन की गोद में बैठ कर इतराते हैं , और सड़क पर चलते
इंसानों को देख सोचते हैं कि इनकी हालत कितनी बदतर है । हम इनसे लाख दर्जा
अच्छे हैं। इन दिनों कुत्तों का काम घरों की रखवाली करना नहीं है , इस काम
के लिये तो स्कियोरिटी गार्ड रखे जाते हैं । कुत्ते तो दुम हिलाने और शान
बढ़ाने के काम आते हैं । जो आवारा किस्म के गली गली नज़र आते हैं वे भी सिर्फ
भौंकने का ही काम करते हैं , काटते नहीं हैं । जो रोटी का टुकड़ा डाल दे उसपर
तो भौंकते भी नहीं , जिसके हाथ में डंडा हो उसके तो पास तक नहीं फटकते ।
चुनाव के दिन चल रहे हैं , ऐसे में
एक नेता जी अखबार के दफ्तर में पधारे हैं , अखबार का मालिक खुश हो स्वागत
कर कहता है धनभाग हमारे जो आपने यहां स्वयं आकर दर्शन दिये । मगर नेता जी इस
बात से प्रभावित हुए बिना बोले , साफ साफ कहो क्या इरादा है । अब ये नहीं
चल सकता कि खायें भी और गुर्रायें भी । संपादक जी वहीं बैठे थे , पूछा नेता
जी भला ऐसा कभी हो सकता है । हम क्या जानते नहीं कि आपने कितनी सुविधायें
हमें दी हैं हर साहूलियत पाई है आपकी बदौलत । आप को नाराज़ करके तो हमें नर्क
भी नसीब नहीं होगा और आपको खुश रख कर ही तो हमें स्वर्ग मिलता रहा है । आप
बतायें अगर कोई भूल हमसे हो गई हो तो क्षमा मांगते हैं और उसको सुधार सकते
हैं । नेता जी का मिज़ाज़ कुछ नर्म हुआ और वो कहने लगे कि कल आपके एक पत्रकार
ने हमारी चुनाव हारने की बात लिखी है स्टोरी में , क्या आपको इतना भी नहीं
पता । संपादक जी ने बताया कि अभी नया नया रखा है , उसको पहले ही समझा दिया
है कि नौकरी करनी है तो अखबार की नीतियों का ध्यान रखना होगा । आप बिल्कुल
चिंता न करें भविष्य में ऐसी गल्ती नहीं होगी । अखबार मालिक ने पत्रकार को
बुलाकर हिदायत दे दी है कि आज से नेता जी का पी आर ओ खुद स्टोरी लिख कर दे
जाया करेगा और उसको ही अपने नाम से छापते रहना जब तक चुनाव नहीं हो जाते ।
सरकारी विज्ञापन कुत्तों के सामने फैंके रोटी के टुकड़े हैं ये बात पत्रकार
जान गया था ।
सच कहते हैं कि पैसों की हवस ने इंसान को जानवर बना
दिया है । जब नौकरी ही चोरों की करते हों तब भौंके तो किस पर भौंके । भूख से
मरने वालों की खबर जब खूब तर माल खाने वाला लिखेगा तो उसमें दर्द वाली बात
कैसे होगी , उनके लिये ऐसी खबर यूं ही किसी छोटी सी जगह छपने को होगी जो बच
गई कवर स्टोरी के शेष भाग के नीचे रह जाता है । कभी वफादारी की मिसाल समझे
जाते थे ये जो अब चोरों के मौसेरे भाई बने हुए हैं । जनता के घर की रखवाली
करने का फ़र्ज़ भुला कर उसको लूटने वालों से भाईचारा बना लिया है अपने लिये
विशेषाधिकार हासिल करने को । जब मुंह में हड्डी का टुकड़ा हो तब कुत्ता भौंके
भी किस तरह । अपना ज़मीर बेचने वालों ने जागीरें खड़ी कर ली हैं इन दिनों । जो
कोई नहीं बिका उसी को बाकी बिके लोग मूर्ख बता उपहास करते हैं ये पूछ कर
कि तुमने बिकने से इनकार किया है या कोई मिला ही नहीं कीमत लगाने वाला क्या
खबर । वो मानते हैं कि हर कोई किसी न किसी कीमत पर बिक ही जाता है । तुम
नहीं बिके तभी कुछ भी नहीं तुम्हारे पास , खुद को बेच लो ऊंचे से ऊंचा दाम
लेकर ताकि जब तुम्हारी जेब भरी हो तिजोरी की तरह , तब तुम औरों की कीमत
लगा कर खरीदार बन सको और ये समझ खुश हो सको कि सब बिकाऊ हैं तुम्हारी ही
तरह ।
4 जिन्हें अंधकार से प्यार हो गया है
घटना पुरानी है दस साल पहले की , लोग भूल भी गये होंगे , मुझे बार बार
याद आती रहती है , क्योंकि उसी तरह की खबरें आये दिन पढ़ने को मिलती ही रहती
हैं । घटना इतनी सी है कि एक आदमी अपने एक कमरे के किराये के घर में ज़िंदा
जलकर मर गया । हम सभी ने कभी न कभी अपने हाथ को किसी गर्म बर्तन से छूने से
या गलती से आग को छूने का एहसास किया होगा , वो जलन वो दर्द सिरहन पैदा
करता है । जब भी सुनते हैं कोई आग में झुलस गया या ज़िंदा जल गया तन बदन में
कंपकंपी सी होने लगती है । मगर उस दिन इक अख़बार ने वो खबर छापी थी तब के
विधायक की तस्वीर के साथ ये बताने को कि उस गरीब की अस्वाभाविक मौत पर जब
उन्होंने ये जानकारी नेता जी को दी तो वह खुद गये उस पिड़ित परिवार को पचीस
हज़ार की सहायता राशि देने को । क्या ऐसी घटना के बाद मात्र यही मान लेना
काफी है कि आग बिजली के शार्ट सर्किट से लगी होगी , और क्योंकि घर के बाकी
चार सदस्य बाहर गये हुए थे , और वह अकेला एक साल से तपेदिक से बीमार था
चारपाई पर लाचार लेटा रहा , चल फिर नहीं सकता था खुद अपना बचाव नहीं कर सका
और तड़प तड़प कर मर गया । सरकार आज भी यही करती है और दावा करती है उनकी
योजनाएं लोकहितकारी हैं । कई बार समाचार से हमें जितनी बात मालूम होती है उस
से अधिक महत्वपूर्ण वो होता है जो न कोई बताता है न शायद कभी हम भी सोचते
ही हैं । उस खबर से मेरे मन में जो सवाल उठे और मैंने संबंधित लोगों से पूछे
जिनको सुन वो खफा हुए मेरे साथ आज बताता हूं , अर्थात दोहराता हूं । जो
आदमी इस कदर बीमार हो उसको तो हॉस्पिटल में भर्ती होना चाहिए था , मगर पता
चला सरकारी हॉस्पिटल ने इनकार कर दिया था , जबकि स्वास्थ्य विभाग का प्रचार
है टी बी की दवा "डॉट्स " घर घर पहुंचाने का । उस गरीब परिवार को सरकारी बी
पी एल कार्ड भी नहीं मिला था न ही कोई मुफ्त प्लाट सौ गज़ का जैसा सरकारी
विज्ञापन दावा करता है । आप प्रतिदिन कितने ऐसे विज्ञापन टीवी पर या अख़बार
में देखते या पढ़ते हैं , असलियत कोई नहीं जानता ।
क्या हर खबर आपके लिये इक तमाशा भर है । अब
लगता है जैसे कुछ लोगों को अंधकार से प्यार हो गया है । पतन को उत्थान घोषित
कर दो , पाप को पुण्य बताओ , झूठ पर सच का लेबल लगा दो , धृतराष्ट्र को
दूरदर्शी बताकर उसका गुणगान करो । राजनीति रूपी नर्तकी सभी को लुभा रही है ,
उसे हासिल करने को किसी भी सीमा तक नीचे गिरने को तैयार हैं लोग । स्वार्थ
की आंधी सभी को उड़ा कर ले जा रही है , सफल होना एकमात्र ध्येय है और सफलता
का मतलब धनवान होना ही है । जानते हुए भी अंधविश्वास और छल कपट को बढ़ावा दे
रहे हैं चंद सिक्कों में ईमान बिक रहा है । पैसे का मोह ऐसा बढ़ा है कि जो
सच का चिराग लेकर चले थे आज रौशनी से बचने और अंधेरों का कारोबार करने लगे
हैं । मकसद आम नहीं ख़ास कहलाना है , उसकी कीमत चुकाने को राज़ी हैं । जनता के
ज़िंदा रहने या मरने से अधिक महत्व खुशहाल जीवन और सुख सुविधा धन दौलत बंगला
गाड़ी जैसी चीज़ों का लगता है । हमारा किसी विचारधारा से कोई सरोकार नहीं है ,
बस इक अवसर की तलाश है। जो हमें ऊपर ले जा सके उसी का गुणगान करने को
तत्पर हैं । हमें इक दल मिल गया है जो अपने को कहता आम है मगर समझता सब से
ख़ास है । उसका रंग उसका पहनावा यही हमारी पहचान है , कथनी और करनी का
विरोधभास तक हमें मंज़ूर है । कल तक जिन आदर्शों जिन मूल्यों की बात किया
करते थे हम आज वो फज़ूल लगती हैं । हमारा मकसद अपने कार्य को इक सीढ़ी की तरह
इस्तेमाल करना था , ऊपर आते ही उस सीढ़ी को नष्ट कर दिया है ताकि कोई दूसरा
उसका उपयोग नहीं कर सके । अब हमें अपने नेता की जयजयकार करनी है , आडंबर
करना है जनसेवा का और जनता ही नहीं खुद को भी धोखा देना है । हमारा दल
लोकतंत्र के नाम पर व्यक्तिपूजा करने में आस्था रखता है , दल के भीतर
असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है । अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के
अधिकार को हमने दल के नेता का पास गिरवी रख दिया है ।
5 चरण पादुका को झुका सर
आप इस संपादकीय को सत्ता की आरती कह सकते हैं , किसी अधिकारी के नाम का चालीसा भी । फल दायक तो है ही , जो लोग अपराध रोकने नहीं बढ़ाने का कार्य करते रहे उनको बताया जा रहा संकल्प लिया है अपराध मिटाने का , उनको रखा किसलिए गया है । अपराध बढ़ने पर जिनको कटघरे में खड़ा करना चाहिए उनकी महिमा का बखान कर रहे हो ये क्या कर रहे हो । कभी कोई किसी के इशारे पर आलेख छापता है और खुद न्यायधीश बनकर सच झूठ की अपनी व्याख्या करता है । कोई वक़्त था जब कहते थे :-
खींचों न कमानों को न तलवार निकालो , जब तोप मुकाबिल हो अख़बार निकालो ।
अब ये हालत है कि अख़बार किसी उद्देश्य को लेकर नहीं स्वार्थ साधने को धन दौलत कमाने को और बिना किसी योग्यता के विशेषाधिकार हासिल करने को लोग इस धंधे में आते हैं और सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते संसद तक पहुंच जाते हैं । जितना नीचे गिरते हैं उतना ऊंचा आकाश पर पहुंचते हैं मगर जिस दिन पर नहीं साथ देते ज़मीन पर गिरते हैं घायल होकर ।