सितंबर 30, 2016

अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) डॉ लोक सेतिया

     अपमानित होती देश की जनता ( बेहद खेद की बात ) 

                                  डॉ लोक सेतिया

 यूं तो हमेशा से साधनविहीन लोगों को अपमानित किया जाता रहा है , इक शायर का शेर कुछ इसी तरह है :-

                      " या हादिसा भी हुआ इक फ़ाक़ाकश के साथ ,

                       लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिये  "

    मगर लोकतंत्र में जनता भले गरीब भी हो उसका अपमान करना खुद संविधान को अपमानित करना है। शायद आपको इस में बुराई नहीं लगती हो कि सरकार जब स्वच्छता अभियान की बात करे तो जनता को ही कटघरे में खड़ा करती हो कि आप गंदगी करते हैं तभी गंदगी है। गंदगी नहीं हो इसका प्रबंध सरकार को करने की ज़रूरत ही नहीं शायद। भाषण देना बहुत सरल है मगर जिस तरह इस देश की जनता जीती है उसकी कल्पना भी ये नेता अफ्सर नहीं कर सकते। जब सब कुछ अपने आप मिल जाता हो तब ये नहीं समझ सकते कि जिनको कुछ भी नहीं मिलता उनका जीवन कैसा होता है। इधर सरकारी प्रचार विज्ञापनों में ऐसा ही किया जाने लगा है , ये दिखाया जाता है कि मूर्ख लोग हैं जो खुले में शौच करते हैं। पूछना जाकर उन महिलाओं से जो झौपड़ी में रहती हैं क्या खुश हैं खुले में शौच को जाकर। आप कागजों पर दिखा सकते हैं घर घर शौचालय बनवा दिया वास्तव में नहीं दिखा सकते। कितनी खेदजनक बात है सरकार जो स्वयं सामान्य सुविधा सुरक्षा की जीने की बुनियादी ज़रूरतों की सभी को दे पाने में विफल रही है आज़ादी के 6 9 साल बाद भी , और इस पर कभी शर्मसार नहीं होती वो जनता को शर्मसार करने की बात करती है। वाह मीडिया वालो आपको भी ऐसे विज्ञापन गलत नहीं लगते न ही किसी नेता के भाषण में ऐसी बातें जो गरीबों को हिकारत से देखने और अपमानित करने का काम करती हैं अनुचित लगता है।

          देश की सत्तर प्रतिशत आबादी जिन गांवों में रहती है या गंदी बस्तियों में , उन को साफ पीने का पानी तक उपलब्ध  नहीं करवा पाने वाली सरकारें , आदर्श नगर और सुंदर शहरों की बात करती हैं।  क्या ये इक भद्दा उपहास नहीं है जनता के साथ।  लेकिन अब सरकारों ने अपना कर्तव्य समझना छोड़ दिया है , कि सभी को आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य सेवा , और रोज़गार के अवसर देना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिये। हां कितना अधिक कर वसूल सकते हैं और जनता के धन को कैसे अपने ऐशो-आराम पर या झूठे गुणगान के विज्ञापनों पर बर्बाद कर सकते हैं ये प्राथमिकता दिखाई देती है।

               अगर कोई नेता , चाहे उसको कितना भी जनसमर्थन हासिल हो , देश की जनता को अपमानित करना सही समझता है तो फिर उसको लोकतंत्र की परिभाषा ही नहीं , संविधान की भावना ही नहीं , मानव धर्म को भी पढ़ना समझना और अपनाना होगा , अन्यथा उसको किसी भी तरह महान नहीं कहा जा सकता।

 

सितंबर 28, 2016

सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      सार्थक जीवन या निरर्थक जीवन ( चिंतन )  डॉ लोक सेतिया

      बहुत दिन से इक खलबली सी है दिलो-दिमाग़ में खुद अपने ही बारे में , मुझे क्या करना था क्या नहीं करना था , क्या किया अभी तक क्या नहीं किया , सोचता हूं ज़िंदगी के इतने लंबे सफर में मुझे कहां जाना था और मैं कहां पर आ गया हूं , अभी किधर को जाना है। बहुत कठिन है समझ पाना वास्तव में जीवन की सार्थकता क्या है। आज सोचता हूं लोग बहुत कुछ सोचते हैं समझते हैं और मानते भी हैं कि हमने क्या क्या किया है क्या हासिल कर लिया है अपने प्रयास से , लेकिन शायद ये कभी नहीं सोचते कि उन सब की सार्थकता क्या है। जैसे कुछ उदाहरण देखते हैं। कोई समझता है वह देशभक्त है , मगर देशभक्ति की परिभाषा क्या है , क्या आप अपने देश को अपना सर्वस्व अर्पित कर सकते हैं। तन मन धन सभी कुछ। नहीं कर सकते तो फिर कैसे देशभक्त हैं , केवल देशभक्त होने का आडंबर करते हैं। अगर कोई धर्म प्रचारक या साधु महात्मा बना फिरता है तो उसको सोचना होगा कि उसके प्रयास से धर्म का क्या भला हुआ है , क्या उसके समझने से लोग सच्चे इंसान बन गये हैं , लोभ लालच झूठ पाप मोह माया के जाल से मुक्त हुए हैं। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि आपके लाखों अनुयाई हैं सैंकड़ों मठ आश्रम हैं धन संपति है तो आपको खुद ही धर्म का ज्ञान तक नहीं है। अगर आप शिक्षक हैं तो क्या आपकी शिक्षा से छात्र ज्ञानवान बने हैं , उनकी अज्ञानता का अंधेरा मिटा है , अगर ऐसा कुछ नहीं तो आपने मात्र किताबों को रटा खुद भी और रटाया है औरों को भी , जिस का कोई अर्थ ही नहीं है। अगर आप चिकित्सक है तो आपकी चिकित्सया क्या सफल रही लोगों को स्वथ्य करने में या कहीं आप रोगों की चिंता अधिक करते हैं रोगियों की काम , और आप रोगमुक्त समाज बनाना ही नहीं चाहते अपने स्वार्थ की खातिर। अगर आप जनसेवक हैं अफ्सर हैं या सरकारी कर्मचारी तो आपने क्या जनता की परेशानियों को दूर किया है या फिर अपने अहंकार और अधिकारों के मद में विपरीत कार्य ही करते रहे हैं , क्या आपने अपना फ़र्ज़ निभाया है देश और समाज के प्रति। अगर आप नेता हैं और आपको सत्ता का अवसर मिला है तो क्या आपने देश की आम जनता की ज़िंदगी को कुछ आसान बनाया है या उसकी मुश्किलें और भी बढ़ाई हैं। देश की वास्तविक दशा क्या सुधरी है सभी के लिये अथवा मात्र आंकड़े ही दिखाते रहे हैं और जो सब से नीचे हैं उनके बारे आपने सोचा तक नहीं समझ भी नहीं सके उनकी भलाई क्या है। अगर आप पत्रकारिता करते हैं तो आपने कितना सच का पक्ष लिया है कितना झूठ को बढ़ावा दिया है , क्या आप वास्तव में जनहित में सच को उजागर करते हैं , निष्पक्ष हैं निडर हैं। लेकिन अगर आप झूठ को सच साबित करते हैं , धन बल और ताकत के मोह जाल में उलझे हुए है और आपका मकसद अधिक पैसा किसी भी तरह कमाना है खुद अपनी प्रगति की खातिर तब आप जो भी करते हैं कम से कम पत्रकारिता तो हर्गिज़ नहीं करते हैं। अब अगर आप लेखक हैं तो आपके लेखन का ध्येय क्या है , खुद अपने लिये नाम शोहरत हासिल करना , ईनाम पुरुस्कार पाना या समाज को सच्चाई की राह दिखलाना बिना निजि स्वार्थ के। अगर इक ऐसे समाज की कल्पना को सार्थक करना आपका मकसद नहीं है जिस में न्याय हो अत्याचार का नाम तक नहीं हो , जिस में मानवता हो हैवानियत का निशान तक नहीं हो , जिस में प्यार हो भाईचारा हो नफरत की कहीं बात तक भी नहीं हो , और आपके लेखन से ऐसा कुछ भी सार्थक नहीं हो सकता तब आपका लिखना किसी काम का नहीं है। कहने को बहुत है मगर केवल बातें करने से क्या होगा , आओ हम सभी सोचें हम जीवन में जो भी करते हैं या आगे करना है वो कितना सार्थक है।  दुनिया किस को क्या समझती है वो महत्व नहीं रखता , महत्वपूर्ण है कि खुद हम क्या समझते हैं , हमारी आत्मा हमारा ज़मीर क्या कहता है। 
 

सितंबर 26, 2016

हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

       हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग चार- अंतिम 

                             { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                   हिलती हुई दीवारें ( आखिरी भाग  )          
   
 लाजो ने प्यार से जगाया था भावना को और जगाकर कहा था , बेटी अब तुम कोई चिंता कोई डर अपने मन में न रखो , अब तुम अकेली नहीं हो , मैं तुम्हारी मां तुम्हारे साथ हूं  और ढाल बनकर तुम्हारी सुरक्षा करूंगी हर पल हर कदम। बस यही समझ लो कल इक घनी अंधेरी काली रात थी जो समाप्त हो चुकी है , आज की भौर लाई है तुम्हारे जीवन में नया उजाला नई रौशनी। और लाजो अपनी बेटी का हाथ थामे उसको नीचे घर के आंगन में वहां लाई थी जहां सभी बाकी सदस्य बैठे चाय पी रहे थे। और भावना का हाथ थम उन सभी को सामने जाकर खड़ी हो गई थी अपना सर ऊंचा किये जैसा शायद कभी किया नहीं था आज तक। सब समझ गये थे कि लाजो कुछ कहना चाहती है , और समझ रहे थे कि उसने भावना को समझा लिया है। मगर जो कुछ लाजो ने कहा था उसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी। लाजो ने जैसे एलान किया था , मैंने अपनी बेटी से सब कुछ जान लिया है और मुझे उस पर पूरा यकीन भी है। वह समझदार है परिपक्व भी है और अब इस काबिल हो चुकी है कि उचित अनुचित , सही और गलत में अंतर कर सके। मुझे लगता है कि हम किसी रिश्ते को सिर्फ इसलिये गलत नहीं मान सकते क्योंकि वो भावना की पसंद है , न ही कोई रिश्ता इसी लिये सही नहीं हो जाता क्योंकि वो हमने तय किया है। सवाल किसी के अहम का नहीं है , ये हमारी बेटी के जीवन का प्रश्न है , और अपनी बेटी की ख़ुशी को समझना हमारा कर्तव्य है। आज अपने अहम को दरकिनार कर हमें समझना होगा कि भावना की भलाई किस में है। मैं चाहती हूं कि हम सभी शांति से बातचीत करें आपस में और इक दूजे की भावनाओं का आदर करें। इसलिये हमें इक बार जाकर विवेक और उस के परिवार से मिलना चाहिये और अगर हमें उनमें वास्तव में कोई कमी नज़र आये तो हम भावना को समझा सकते हैं। और अगर कुछ भी ऐसा नहीं है तो हमें अपनी बेटी की बात को स्वीकार करना चाहिये। सब से पहले आज एक बात सभी समझ लें कि आज के बाद मेरे साथ , भावना के साथ अथवा परिवार की किसी महिला के साथ मार पीट , हिंसा कदापि सहन नहीं की जायेगी। जिस तरह से बेबाकी से लाजो ने ये बातें कहीं उसको सुन कर बलबीर सहित सभी दंग रह गये थे , ये रूप किसी ने पहले नहीं देखा था। एक ही रात में ऐसा बदलाव चकित करने की बात थी , फिर यहां तो वो नज़र आ रहा था जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। पूरे आत्मविश्वास से बुलंद आवाज़ में निडरता पूर्वक अपना पक्ष रख कर लाजो ने सभी को सकते में डाल दिया था , और किसी से भी जवाब देते नहीं  बन रहा था।

              थोड़ी देर में बलबीर उठ खड़ा हुआ था , और लाजो की तरफ देख कर बोला था , ये क्या हो गया है तुम्हें , जो तुम सारे समाज को चुनौती देने जैसे बातें कर रही हो। ऐसा कर के तुम कहीं की नहीं रह जाओगी। वास्तव में लाजो ने बलबीर को भीतर से हिला कर रख दिया था , और उसको लगने लगा था कि उसका शासन और मनमानी अब और नहीं चल सकेगी। फिर भी वो अपनी बेचैनी और घबराहट को छिपाने का प्रयास कर रहा था , ताकि सभी को मानसिक तौर से अपने अधीन रख सके। लाजो बलबीर की बात सुन कर ज़रा भी नहीं घबराई थी और उसी लहज़े में जवाब देते बोली थी , आज मुझे क्या मिला या क्या खोया है की बात नहीं करनी मुझे , मुझे बस भावना की बात करनी है।  उसकी शिक्षा को बीच में नहीं रोक सकता कोई भी , ये उसका अधिकार है अपना भविष्य बनाने का , जो किसी भी कारण वंचित नहीं किया जा सकता। मैं उसको हॉस्टल छोड़ने जा रही हूं और मुझे रोकने का प्रयास मत करना कोई भी।  कोई मां जब दुर्गा बन जाती है तो अपनी बेटी की खातिर सब कर गुज़रती है , आज मैं इक तूफान बन चुकी हूं जो रोकने वालों को तिनके की तरह हवा में उड़ा देता है। ये मत समझना कि मैं आप पर निर्भर हूं  मैं खुद आत्मनिर्भर हो सकती हूं  लेकिन आपने अभी शायद दूर तक नहीं सोचा है। अपनी बेटी या पत्नी को जान से मारने वाले को कौन अपनी बेटी देगा , हमें मार कर खुद आपका जीना भी दुश्वार हो जायेगा ये सोचना। अपने दोनों बेटों का ब्याह नहीं कर सकोगे ऐसा अपराध करने के बाद।  कैसी विडंबना है कि जो खुद अपराध करना चाहते हैं वही न्यायधीश बन कर फरमान जारी करते हैं। लेकिन हम मां बेटी फैसला कर चुकी हैं कि भले जो भी अंजाम हो अन्याय की इस अदालत के सामने हम अपना सर नहीं झुकायेंगी।

              तभी दरवाज़े की घंटी बजी थी , लाजो किवाड़ खोलने जाने लगी तो बलबीर ने उसको रोक दिया था , मैं देखता हूं इतनी सुबह कौन आया है। तुम दोनों चुप चाप कमरे के अंदर चली जाओ और ये ख्याल दिल से निकाल दो कि हम तुम्हें इस तरह कहीं भी जाने देंगे।  मुझे ऐसे ठोकर लगाकर नहीं जा सकती हो तुम। लाजो ने बलबीर की बात का कोई जवाब नहीं दिया था। घर की घंटी फिर से बजी थी और कोई बाहर से ऊंची आवाज़ में बोला था बलबीर दरवाज़ा खोलो। जैसे ही बलबीर ने किवाड़ खोला था कई लोग एक साथ भीतर आ गये थे , पुलिस , प्रशासनिक अधिकारी , महिला संगठन , मानवाधिकार कार्यकर्ता आदि। बलबीर और बाकी परिवार के सदस्य आवाक रह गये थे। आते ही अधिकारी ने पूछा था लाजो कौन है , और उनकी बेटी भावना कहां है। लाजो और भावना सामने आ गई थीं और कहा था हम दोनों हैं जिन्होंने आपसे यहां आने की गुहार लगाई थी।
हमने ही फोन किया था मीडिया को आप सभी को भी सूचित करने को , परिवार के लोग भावना को जान से मारना चाहते हैं और मुझे भी इनसे जान का खतरा है , लाजो ने बताया था। हम अपनी मर्ज़ी से घर को छोड़ कर जाना चाहती हैं , हम स्वतंत्र नागरिक हैं और अपनी इच्छा से जीने का हक हमें है। आप इन लोगों को समझा दें ताकि ये हम से अनुचित व्यवहार नहीं करें। 

           प्रशासन के अधिकारी और पुलिस अफ्सर ने परिवार के सभी सदस्यों को ताकीद कर दी थी कि आप लाजो और भावना की ज़िंदगी में कोई दखल नहीं दे सकते , हमारा दायित्व है उनको सुरक्षा देना और किसी को भी अपने मनमाने नियम बनाकर दूसरे पर थोपने का अधिकार नहीं है।  आप क़ानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं।  ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस रूढ़ीवादी घर की सारी दीवारें खोखली होकर हिलने लगी हों और कभी भी गिर सकती हों।  लाजो और भावना इक दूसरे का हाथ मज़बूती से थाम कर घर से बाहर जाने लगी तो सभी खामोश देखते रह गये थे।  कोई उनको रोकने का साहस नहीं कर सका था , वो दोनों चली गईं थी और उनके जाने के बाद अधिकारी लोग भी। घर के बाकी सदस्य स्तब्ध खड़े घर के खुले दरवाज़े को देख रहे थे।
         
                                      समाप्त
       
इस कहानी का ध्येय यही है , खुद महिलाओं को आना होगा आगे साहस पूर्वक कदम उठाकर।  

सितंबर 25, 2016

हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

     हिलती हुई दीवारें ( मेरी चर्चित कहानी ) भाग तीसरा 

                            { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया                              

                                   हिलती हुई दीवारें ( अंक तीसरा  )    
                                
    भावना के पिता से पापा की  हुई बातचीत विवेक ने फोन पर भावना को बता दी थी जिस को सुन कर भावना परेशान होकर रोने लगी थी। विवेक अब क्या होगा , रोते रोते इतना ही बोल सकी थी। विवेक ने दिलासा दिलाया था तुम घबराओ मत सब ठीक हो जायेगा , अभी शायद अचानक सुनकर उनकी ऐसी प्रतिक्रिया सामने आई है। तुम प्यार से आदर से अपनी ख़ुशी की बात कहोगी तो वो अवश्य समझेंगे बेटी की बात को। मगर भावना को किसी अनहोनी का अंदेशा होने लगा था जो विवेक को नहीं बता सकती थी क्योंकि खुद उसको नहीं मालूम था कल क्या होने वाला है। अगले दिन सुबह ही उसके पिता और दोनों भाई हॉस्टल आये थे और उसको ज़बरदस्ती घर को लेकर चल पड़े थे। किसी ने कोई बात नहीं की थी न ही कोई सवाल ही पूछा था , बस सब सामान उठा कर चल दिये थे।  उन सब के चेहरों पर इक कठोरता और तनाव साफ झलक रहा था जो भावना को भीतर तक डरा रहा था। घर पहुंचते ही जैसे इक पहाड़ टूट पड़ा था , मार पीट , बुरा भला कहना जाने क्या क्या हो गया था। सभी की निगाहों में नफरत ही नफरत थी भावना के लिये जैसे उसने कोई अक्षम्य अपराध कर दिया हो , मोबाइल छीन लिया गया था , ताने मारे जा रहे थे कि तुम वहां पढ़ाई करने गई थी या परिवार की इज्ज़त से खिलवाड़ करने को।  ऐसा लग रहा था  जैसे इक चिड़िया के पर कटकर उसको पिंजरे में कैद कर दिया गया हो। जाने क्या बात थी जो उसको ऐसे में भी कमज़ोर नहीं होने दे रही थी बल्कि और भी मज़बूत हो गई थी अपने इरादे में।  उसने सोच लिया था अपने प्यार की इस परीक्षा में उसने हर बात सहकर भी विचलित नहीं होना है , अडिग रहना है। शायद सच्चा प्रेम ही ये शक्ति प्रदान करता है।

                                     भावना को घर में सब से ऊपर की मंज़िल पर बने इक कमरे में कैद सा कर दिया था , कोई उस से बात तक नहीं करता था। रात तक कुछ भी खाने पीने को नहीं मिला था न ही भावना ने मांगा ही था।  रात को मां उसके लिये खाना लाई थी जो उसने चुप चाप खा लिया था।  लाजो को बेटी के चेहरे पर इक दृढ़ संकल्प दिखाई दिया था जो किसी आने वाले तूफ़ान का ईशारा करता लगा था।  भावना कहीं घर से भागने का प्रयास न करे इस डर से बलबीर ने लाजो को भावना के साथ ही सोने को कह दिया था।  मां बेटी दोनों ही किसी गहरी चिंता में डूबी हुई थीं इसलिये नींद कोसों दूर थी उसकी आंखों से।  लाजो ने प्रयास किया था भावना को समझाने का कि पिता ने तुम्हारे लिये इक लड़का पसंद किया है उस से चुप चाप विवाह कर लो।  माना लड़का पढ़ा लिखा नहीं है फिर भी हमारी तरह ज़मींदार परिवार है धन दौलत की कोई कमी नहीं है , हर सुख सुविधा मिलेगी तुम्हें वहां जाकर।  भावना ख़ामोशी से मां की बात सुनती रही थी , एक शब्द नहीं बोली थी , बस कुछ सोचती रही थी। थोड़ी देर रुक कर भावना बोली थी , " मां मेरा वादा है मैं बिना आपकी सहमति या आज्ञा के कोई कदम नहीं उठाऊंगी , आपको मेरे बेटी होने पर कभी शर्मसार नहीं होना पड़ेगा।  बस एक बार सिर्फ एक बार आज मेरी बात मेरी मां बनकर सुन लो , समझ लो कि तुम्हारी बेटी की भलाई किस में है।  मां मैं चाहती हूं कि अज तुम मुझे ही नहीं खुद अपने आप को भी ठीक से पहचान लो।  मुझे पता है तुमने पूरी उम्र कैसे दुःख सहकर अपमानित होकर रोते हुई बिताई है। मैंने हर दिन तुम्हारे दर्द को समझा है महसूस भी किया है , और चाहती हूं किसी तरह तुम्हारे दुखों का अंत कर तुम्हें ख़ुशी भरा जीवन दे सकूं मैं , मेरी मां।  मां तुम मेरा यकीन रखना तुम्हारी ये बेटी कभी भी तुम्हारे लिये कोई परेशानी नहीं खड़ी करेगी।  मेरी कोई ख़ुशी कोई चाहत कोई स्वार्थ इतना मेरे लिये इतना महत्वपूर्ण नहीं हो सकता जिस की खातिर मैं तुम्हारे दुःख दर्द और बढ़ा दूं।  फिर भी मेरी बात सुन कर इक बार विवेक के परिवार से मिल लोगी तो अच्छा होगा , बहुत ही सभ्य लोग हैं , इक दूजे को सम्मान देते हैं , प्यार से साथ साथ रहते हैं , सवतंत्र हैं किसी बंधन की कैद में कोई नहीं है।  मां कभी सोचा है तुमने , तुम भी इक इंसान हो , तुम्हारा भी कुछ स्वाभिमान होना चाहिए , सम्मान मिलना चाहिए। क्या क्या नहीं करती तुम दिन रात घर की खातिर , कोई कभी तो समझे तुम भी महत्वपूर्ण हो। तुम्हारी अपनी भी कोई सोच समझ है , पसंद नापसंद है , सही और गलत समझने का अपना निर्णय है।  कुछ कर दिखाने की काबलियत तुम में भी है।  तुम कोई पशु नहीं जिसको खरीद लाये और बांध दिया है खूंटे से , बचपन से देखती रही हूं तुम्हें पिता जी की अनुचित बातें सहते भी और उनकी हर बात को मानते भी।  क्या तुम कभी वास्तव में खुश रही हो , क्या हर दिन हर पल तुम इक डर इक दहशत में नहीं रहती रही हो।  क्या ऐसे जीने की कभी कल्पना की थी तुमने या करोगी मेरे लिये भी। 

                          भावना की बातें सुन लाजो को अपना बचपन याद आ गया था , जब उसकी मां लाजो को  प्यार से गोदी में लिटाकर समझाती थी कितनी बातें।  कैसे हर समस्या का समाधान साहस पूर्वक किया जा सकता है , कैसे प्यार से आपस में मिलकर रहना सब को अपना बनाना होता है।  लाजो को लगा जैसे आज भावना उसकी मां बन गई है जबकि आज उसको ज़रूरत है मां की।  तब लाजो की नम आंखों को अपने हाथों से पौंछ के भावना ने कहा था  , मां अब रोना नहीं है , मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने दो , मैं तुम्हारी सभी परेशानियों का अंत कर दूंगी।  मां अब भले जो भी हो , हम कभी ऐसे मर मर कर नहीं जिएंगी।  मैंने सुन लिया था शाम को छत पर जो मेरे पिता जी ने तुम्हें कहा था कि अगर मैं उनकी पसंद की जगह शादी के लिये नहीं मानी तो तुम्हें मुझे ज़हर देना होगा।  मुझे मालूम है तुम ऐसा नहीं कर सकोगी , कोई भी मां नहीं कर सकती है ऐसा घिनोना कार्य।  हां कुछ कायर लोग विवश करते हैं ऐसा करने को।  अपने झूठे मान सम्मान की खातिर , अपने अहंकार की खातिर , महिलाओं को बलिवेदी पर चढ़ाना चाहते हैं , खुद अपनी आबरू की खातिर अपनी जान कभी नहीं लेते।  मां कितने ढोंगी हैं समाज के लोग , मीरा और राधा के मंदिर बनाते हैं , उनकी पूजा करते हैं और प्यार को अपराध बता कत्ल करते हैं।  अखिर कब तलक परम्पराओं के नाम पर महिलाओं पर अन्याय अत्याचार होगा उनका शोषण किया जाता रहेगा।  क्या हमने पूछा है हर युग में नारी ही अग्निपरीक्षा क्यों दे , आज तुम्हें इस अग्निपरीक्षा से नहीं गुज़रना पड़ेगा।  अगर तुम्हें लगेगा कि मुझे जीने का अधिकार नहीं है तो तुम ज़हर नहीं पिलाओगी , मैं खुद अपने हाथ से पी लूंगी ज़हर।  आज मैं अपने प्यार का अपने जीवन का हर निर्णय तुम पर छोड़ती हूं , मगर बस इतना चाहती हूं कि वो निर्णय तुम अपने विवेक से अपनी समझ से लो न कि किसी और द्वारा थोपे हुए निर्णय को बिना सोचे स्वीकार करो।  लाजो ने भावना को बाहों में भर लिया था , एक अश्रुधारा बह रही थी दोनों की आंखों से।  यूं ही लेटे लेटे दोनों जाने कब सो गईं थी। लाजो की नींद खुली तो उसे खिड़की से सुबह का उगता हुआ सूरज दिखाई दे रहा था , जो शायद इक संदेशा दे रहा था , नये उजाले का , नये जीवन का।

    
            (  जारी है  हिलती हुई दीवारें  ,  अगले अंतिम  अंक  में )

हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

  हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग दूसरा

                           { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

                                       ( पिछले अंक से आगे )
                                     
               भावना ने स्नातक की शिक्षा में अच्छे अंक प्राप्त किये थे और उच्च शिक्षा से पूर्व की परीक्षा में भी अच्छा रैंक पाकर बड़े शहर के अच्छे कॉलेज में प्रवेश हासिल कर लिया था जबकि उसके दोनों भाई हमेशा मुश्किल से उत्तीर्ण होकर भी संतुष्ट हो जाते थे। दोनों आगे पढ़ाई करने में रुचि ही नहीं रखते थे। भावना को हॉस्टल में कमरा मिल गया था और वो मन लगा कर पूरी मेहनत करने लगी थी ताकि भविष्य में कुछ बन सके और अपना ही नहीं अपने गांव तक का नाम रौशन कर सके। कॉलेज में सहपाठी रंजना से उसकी मित्रता हो गई थी और दोनों काफी घुल मिल गई थी। रंजना का बड़ा भाई विवेक कई बार उसको छोड़ने आया करता था कॉलेज में और कभी कभी भावना से हाय हेल्लो नमस्ते हो जाती थी। हालांकि भावना अंतर्मुखी स्वभाव की सीधी सादी लड़की थी जो बहुत कम बातें करती थी और रंजना और उसका भाई विवेक सभी से खुलकर बातें करने वाले मिलनसार लोग थे , फिर भी उनसे भावना का तालमेल बन गया था। भावना और रंजना में घनिष्ठता हो गई थी और आपस में दोनों अपनी हर बात बिना झिझक बताने लगी थी। रंजना के पापा का अच्छा कारोबार था और विवेक किसी कंपनी में अच्छे पद पर जॉब करता था , खुश रहना मस्ती करना उसकी आदत थी और शहरी आम लड़कों की तरह बेपरवाह न होकर संवेदनशील था। पापा मम्मी जब भी शादी की बात करते तो वो कहता था जब कोई लड़की पसंद आई तो खुद ही लेकर मिलवा देगा उन से। औपचारिक मुलाकातों में ही विवेक और भावना कब इक दूजे को पसंद करने लगे दोनों को पता ही नहीं चला था , शुरू में थोड़ा संकोच से विवेक भावना को उसके मोबाइल पर फ़ोन करता , कभी रंजना का फोन बिज़ी होने पर तो कभी कॉलेज नहीं आ सकने का संदेशा देने को भावना को रंजना को बताने के बहाने से।  धीरे धीरे जान पहचान इक गहरे मधुर संबंध में बदल गई थी , एक दो बार भावना रंजना और विवेक सिनेमा गये थे साथ साथ और कभी किसी रेस्टोरेंट में खाना भी साथ खा लेते  थे।  जब उन दोनों को विश्वास हो गया कि हमें उम्र भर साथ रहना है तब भावना ने ही रंजना  से ये बात बताई थी , विवेक ने ही भावना से रंजना को बताने को कहा था ताकि ये जान सके कि उसकी क्या राय है। रंजना को भी कुछ कुछ आभास पहले से होने लगा था मगर भावना के मुंह से विवेक से प्यार की बार जान कर उसको और भी अच्छा लगा था। उसको भावना बहुत समझदार और काबिल लड़की लगती थी जो उसके भाई के लिये अच्छी जीवन साथी बन सकती थी। रंजना ने तभी घर जाकर मम्मी  को भावना और विवेक के प्यार की बात बता दी थी ,  उनको भी भावना का स्वभाव अच्छा लगता था जब भी रंजना के साथ मिली थी भावना उनको। विवेक के पिता को धर्मपत्नी ने बताया था भावना के बारे कि मधुर स्वभाव की अच्छे संस्कारों की सुशील लड़की है जो बड़ों का आदर सम्मान करना भली तरह जानती है। और उन्होंने हामी भर दी थी और विवेक से कहा था भावना से भी कहो अपने माता पिता से बात करे ताकि हम उनसे मिलकर रिश्ते की बात कर सकें।

                         जब विवेक ने बताया कि उसके माता पिता भावना के माता पिता से शादी की बात करना चाहते हैं तब वो खामोश हो गई थी। प्यार के रंगीन सपने देखते समय भावना इस वास्तविकता को भूल गई थी कि उसके पिता और परिवार के लोग बेहद रूढ़ीवादी मान्यताओं में जकड़े संकुचित सोच के लोग हैं जो किसी लड़की को अपनी मर्ज़ी से प्यार करने और शादी करने की स्वीकृति प्रदान नहीं करने वाले।  जब विवेक ने भावना से ख़ामोशी का कारण पूछा था तब भावना ने बताया था कि उसके समाज और परिवार में बेटियों को अपनी पसंद बताने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता है , और अगर उसने ऐसा कुछ किया तो न जाने परिवार के लोग कैसा सलूक करेंगे उसके साथ। भावना ने बताया था विवेक को कि आज तक उसने अपने मन की बात किसी से की नहीं है , न कभी किसी ने जानना चाही है कि उसके दिल में क्या है। इतना तय है कि वो जब भी विवाह करेगी विवेक से ही करेगी अन्यथा किसी से भी नहीं करेगी।  विवेक ने भावना को तसल्ली दी थी कि हम हर हाल में साथ निभायेंगे तुम चिंता मत करो , भावना से उसके घर का पता और फोन नंबर ले लिया था ताकि उसके पिता से विवेक के पापा बात कर सकें। 

              रविवार का दिन था , विवेक के पापा ने भावना के पिता को फोन कर बात की थी। अपना परिचय दिया था , विवेक के बारे भी सब बता दिया था और रंजना से मित्रता और भावना को पसंद करने की बात कही थी और पूछा था कब कैसे मिल सकते हैं आगे की बात करने को।  जैसा भावना के पिता का स्वभाव था उन्होंने तल्खी से सवाल किया था आप किस काम के लिये हमसे मिलना चाहते हैं।  विवेक के पापा ने भावना और विवेक के एक दूसरे को पसंद करने की बात बताकर कहा था कि मिलकर उनका रिश्ता तय करना चाहते हैं। इस बात से बलबीर आग बबूला हो गया था और विवेक के पापा से गुस्से में बोला था हमें आपसे नहीं मिलना है न ही ऐसे रिश्ता करना हम कभी स्वीकार करेंगे , आप बेटे को समझ दें कि भविष्य में भावना से मिलने का प्रयास नहीं करे इसमें उसकी भलाई है , खुद अपनी बेटी को भी हम रोक देंगे।

                            अभी कहानी जारी है बाकी अगले अंक में

हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी ) भाग पहला { ऑनर किल्लिंग पर } डॉ लोक सेतिया

    हिलती हुई दीवारें ( मेरी सब से लोकप्रिय कहानी )  भाग पहला

                           { ऑनर किल्लिंग पर }  डॉ लोक सेतिया 

 भावना को तड़पता देख कर भी भावशून्य लग रही थी लाजो , जैसे उसका अपनी ही बेटी से कोई संबंध ही ना हो। आधी रात का सन्नाटा और घर के ऊपर की मंज़िल पर अकेले कमरे में वे दोनों। खुद लाजो ने ही तो ज़हर पिलाया है अपनी बेटी को। उसके पति बलबीर ने शाम को उसको आदेश दिया था , घर की इज्ज़त बचाने के नाम पर बेटी को जान से मार देने का। और अगर लाजो ने ऐसा नहीं किया तो वह मां बेटी दोनों को तड़पा तड़पा कर मरेगा बलबीर ने ये भी कहा था। लाजो जानती है अपने पति के स्वभाव को वो कुछ भी कर सकता है। ज़हर पिलाने के बाद लाजो इंतज़ार कर रही थी भावना के मरने का ताकि उसकी मौत के बाद वो खुद जाकर बलबीर और बाकी सभी सदस्यों को बता सके कि उसने वह कर दिया है जो करने का आदेश उसको दिया गया था। तड़प तड़प आखिरी सांसें गिनती भावना ने अपनी मां को इशारे से अपने पास बुलाया था , बेहद मुश्किल से धीमी धीमी आवाज़ में उसने कहा था , " मां तुमने मुझे ज़हर दिया है ना , कोई बात नहीं , अच्छा ही है , तुमने ही तो मुझे जन्म दिया था , तुम मेरी जान ले लो ये भी तुम्हें अधिकार है। मां तुम इस के लिये दुखी मत होना। मैंने शाम को ही सुन ली थी वो सारी बातें जो पिता जी ने तुमको कही थी छत पर बुलाकर। इसलिये रात को सोने से पहले ज़हर मिला दूध पीने से पहले मैंने सब कुछ बता दिया था और सोच लिया था कि अगर मुझे जन्म देने वाली मां को भी लगता हो कि मुझे इस जहां में ज़िंदा रहने का कोई हक नहीं है तो मुझे जी कर क्या करना है। मां तुम्हारे हाथ से ज़हर पी कर मरना तो मुझे एक सौगात लग रहा है। मुझे नहीं जीना इस समाज में तुम्हारी तरह हर दिन इक नई मौत मरते हुए। मां मेरी बात ध्यान पूर्वक सुन लो , मैंने अलमारी में अपने कपड़ों के नीचे इक पत्र लिख कर रख छोड़ा है , जिस में लिखा है कि मैं अपनी मर्ज़ी से आत्महत्या कर रही हूं। तुम वो पत्र पुलिस वालों को दे देना , और कभी किसी को ये मत बताना कि तुमने मुझे ज़हर पिलाया है दूध में मिलाकर , वरना दुनिया की बेटियों का भरोसा उठ जायेगा मां पर से "।

                          अचानक लाजो की नींद खुल गई थी , उस भयानक सपने से डरकर जाग गई थी लाजो , अपनी धड़कन उसको ज़ोर ज़ोर से सुनाई पड़ रही थी और पूरा बदन पसीने से तर हो गया था। अपनी दिमाग़ की नसें लाजो को फटती फड़फड़ाती सी लग रही थीं। भावना उसकी बगल में सोई पड़ी थी , बाहर से आ रही हल्की रौशनी में उसका प्यारा सा चेहरा मुरझाया हुआ लग रहा था। शायद बेटी भी कोई ऐसा बुरा सपना देख रही हो सोच कर लाजों की आंखों में आंसू भर आये थे। प्यार से ममता भरा हाथ उसने बेटी के माथे  पर रख दिया था और सहलाती रही थी। रात को बहुत देर तक भावना मां को दिल की हर बात बताती रही थी , और बेटी की अपनत्व भरी बातों ने लाजो को भीतर तक झकझोर कर रख दिया था। आज लाजो को एहसास हुआ था कि उसने बेटी के साथ अकारण कठोर व्यवहार  किया है आज तक , कभी प्यार से ममता भरी बातें की ही नहीं। आज उसको अपनी सोच पर ग्लानि हो रही थी कि क्यों भावना के जन्म लेने पर उसको लगा था कि उसकी कोख से बेटी जन्म ही नहीं लेती। अपना सारा प्यार सारी ममता लाजो अपने दोनों बेटों पर ही न्यौछावर करती रही है , आज तक कभी समझा ही नहीं कि बेटी को भी प्यार दुलार और अपनत्त्व की उतनी ही ज़रूरत है। शायद ऐसा उस समाज और उस परिवेश के कारण हुआ जिस में खुद लाजो पली बढ़ी थी। लेकिन आज भावना ने मन की सारी गांठे खोल कर रख दी थीं , बचपन से लेकर जवानी तक के सभी एहसास अपनी मां को बता दिये थे , जिनको सुन कर समझ कर दिल में महसूस कर के लाजो के मन में बेटी के लिये ममता का सागर छलक आया था। आज पहली बार लाजो को समझ आया था कि इस पूरे समाज में पूरी दुनिया में इक बेटी ही है जो अपनी मां की पीड़ा को उसके दर्द को समझ सकती है और चाहती भी है जैसे भी हो सके अपनी मां का आंचल खुशियों से भर दे। लाजो ने आज जाना था कि मां के लिये जो भाव कोई बेटी महसूस कर सकती है वो बेटे कभी नहीं कर सकते। आज पहली बार बेटी की मां होने पर लाजो को गर्व और प्रसन्नता की अनुभूति हुई थी वह भी ऐसे समय जब जब उसका सारा परिवार , पूरा समाज ही बेटी की जान का दुश्मन बन चुका है। मगर आज इक मां ने भी ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाये वो अपनी बेटी पर कोई आंच नहीं आने देगी। बेटी की ख़ुशी उसके भविष्य उसके अधिकार के लिये वो अपनी जान तक की परवाह नहीं करेगी। समय आ गया है इक मां के अपनी बेटी के प्रति कर्तव्य निभाने और ममता की लाज रखने का।

           (   अभी जारी है कहानी बाकी अगले अंक में  )

सितंबर 23, 2016

कौन किसको समझे समझाये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कौन किसको समझे समझाये  ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

आखिर
आज जान ही लिया मैंने
बेकार है
प्रयास करना भी ।

यूं ही
अभी तलक मैंने
घुट घुट कर
ज़िंदगी बिताई
इस कोशिश में
कि कभी न कभी
मुझे समझेंगे
सभी दुनिया वाले ।

शायद
अब खुद को खुद मैं ही
समझ सकूंगा
अच्छी तरह से
अपनी नज़र से
औरों की नज़रों को देख कर नहीं ।

दुनिया
बुरा समझे मुझे , चाहे भला
नहीं पड़ेगा कोई अंतर उस से
मैं जो हूं , जैसा भी हूं
रहूंगा वही ही हमेशा
किसलिये खुद को
गलत समझूं
खुद अपनी
वास्तविकता को भुला कर ।

नहीं अब और नहीं
समझाना किसी को भी
क्या हूं मैं
क्या नहीं हूं मैं ।

यूं भी किसको है ज़रूरत
फुर्सत भी किसे है यहां
दूसरे को समझने की
खुद अपने को ही
नहीं पहचानते जो
वही बतलाते हैं
औरों को उनकी पहचान ।

चलो यही बेहतर है
वो मुझसे उनसे मैं
रहें बनकर हमेशा ही
अजनबी अनजान ।
 

 

सितंबर 21, 2016

इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

 इक पाती अपने परमात्मा के नाम ( फरियाद ) डॉ लोक सेतिया

         क्या संबोधन दूं  नहीं जानता , विनती कहूं या फरियाद नहीं मालूम ये भी , इतना जनता हूं शिकायत नहीं कर सकता , मुझे किसी से भी गिला शिकवा शिकायत करने का कोई अधिकार ही नहीं है , बहुत की है शिकायतें उम्र भर हर किसी से , बिना एक भी शब्द बोले ही , साहस ही नहीं है मुझ में अपनी बात कहने का , इस तरह डर डर कर जिया हूं हमेशा , लोग जाते हैं मंदिर मस्जिद गिरजा गुरूद्वारे , मैं भी जाकर देखा है बहुत बार , सच कहता हूं अक्सर लगता भी रहा है , तुम हो वहीं कहीं मेरे आस पास ही , जब भी परेशानी में तुम्हारे सामने जाकर रोया हूं मैं , बस इक सुकून सा मिलता लगा है , तब मेरे अविश्वास और आस्था में आस्था भारी रही है , लेकिन फिर भी सोचता ज़रूर हूं , क्या वास्तव में तुम समझते हो सभी के दुःख-दर्द , कभी कभी लगता है शायद मेरी कमज़ोरी रही है , भरोसा रखना कि तुम ज़रूर कभी न कभी , मुझ पर दया करोगे रहम करोगे , और मुझे बेबसी भरा जीवन जीने से , अगर निजात नहीं भी दिल सको तो कम से कम , मुझे मुक्त ही कर दोगे ऐसे मौत से बदतर जीने से , मंदिर और गुरूद्वारे जाकर लगता है , कितना शोर है वहां पर तुम्हारे गुणगान का , तुम खुश होते होगे देख भक्तों की भीड़ , नहीं सुनाई देती होगी मुझे जैसे बदनसीब की विनती , मेरी प्रार्थना में छुपा दर्द नहीं समझ सके हो कभी भी , मुझे नहीं मालूम तुमने मुझे दी है सज़ा , इस जन्म के बुरे कर्मों की जो शायद , मुझ से हुए भी हालात की विवशता के कारण , या फिर कोई हिसाब पिछले जन्म का बाकी था , जो चुकाना ही पड़ता है सब को , मगर फिर भी हमेशा इक उम्मीद रही है , शायद किसी दिन तुमको समझ आ ही जाये , हम जैसे बेबस लोगों की बेबसी पर तरस , सुना तो है दयालु हो कृपालु हो तुम , क्षमा भी करते हो जब कोई पश्चाताप करता  है , मुझे नहीं आया कभी शायद मनाना तुझे , मेरी आस्था में भी रही है कुछ न कुछ तो कमी  , आज सोचा लिखता हूं इक पाती तेरे नाम भी , अक्सर लिखता रहता हूं मैं हर किसी को पत्र , लोग कहते हैं मुझे बहुत अच्छी तरह आता है ये , और तो मुझे कुछ भी नहीं आया आज तक , हर काम में असफल ही रहा हूं मैं , हो सकता है ये पाती पढ़कर ही तुम भी , जान सको मेरे दिल का हाल , मगर कठिनाई है अभी भी , मुझे नहीं पता किस पते पर कैसे भेजूं ये खत मैं , कोई डाकघर का पता है न कोई   ई-मेल  ही , खुद ही पढ़ना तुम अगर मिले कभी फुर्सत तो , जवाब तो नहीं दोगे इतना तो जनता हूं  , हां लेकिन आना तो है मुझे शायद जल्दी ही , पास तुम्हारे इक न इक दिन तो , तब इतना तो बताना क्या मेरा पत्र पढ़कर भी , तुझे नहीं आया था मुझ पर ज़रा सा भी रहम , नहीं भगवान कुछ भी हो तुम बेरहम तो नहीं हो सकते , बहुत कुछ लिख दिया है आज , लिखने का अधिकार है भी या नहीं , सोचे बिना ही क्योंकि सुना है , दाता से कर सकते हो मन की हर बात , स्वीकार करे चाहे नहीं भी करे , तब भी सभी को फरियाद करने का अधिकार तो है , बस मुझे नहीं मालूम क्या हासिल होता है  इस से , मगर इक कसक थी मन में किसी दिन तुमसे ये बातें कहने की , पहली बार भी और शायद आखिरी बार भी , लिखी है ये पाती मैंने खुदा परमात्मा ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु तुझ को , जनता हूं ये तरीका नहीं है दुनिया वालों का , तुझ से अपनी बात करने का , मुझे नहीं मालूम कैसे करते अर्चना अरदास विनती प्रार्थना , जो हो जाती मंज़ूर भी तुझको।  

 

सितंबर 19, 2016

देखना अपने समाज को दर्पण के सामने ( कड़वा सच ) डॉ लोक सेतिया

     देखना अपने समाज को दर्पण के सामने (  कड़वा सच )  

                                  डॉ लोक सेतिया 

    आप जब कुछ नहीं कर सकते तब परेशान ही हो सकते हैं देख देख कर वो सब जो गलत है अनुचित है मगर जिसको सही और उचित समझा जा रहा है। अगर आप विवेकशील हैं चिंतन करते हैं खुद अपने बारे ही नहीं समाज और देश के बारे में भी तब आप अन्य लोगों की तरह ऐसा बोल पल्ला नहीं झाड़ सकते कि मुझे क्या।

       और लोग आपको सनकी या पागल कहते हैं और मूर्ख समझते हैं जो अपना हित छोड़ जनहित की बात पर परेशान रहता है। मगर आप चाहो भी तो खुद को बदल नहीं सकते , जब देखते हैं आस पास अनुचित और गैर कानूनी काम हो रहे हैं मगर न पुलिस अपना कर्तव्य निभाना चाहती है न प्रशासन न ही सरकार का कोई विभाग शिकायत करने पर कोई करवाई ही करता है अपितु गुण्डे बदमाश आपराधिक तत्व आपको धमकाते हैं और आपका जीना हराम कर देते हैं क्योंकि आपके पास धन बल या बाहु बल नहीं है। तब लगता है इस समाज में सभ्य और शरीफ नागरिक को जीने की आज़ादी नहीं है। हर नेता बड़ी बड़ी बातें करता है कष्ट निवारण समिति जैसे आडंबर रचाता है मगर जनता को मिलता नहीं न्याय कहीं भी। मात्र उलझाया जाता है , सभाओं के नाम पर , क्या पुलिस या प्रशासन को नज़र नहीं आता जो जो गलत होता सभी को दिखाई देता है।

जब अपराधी के विरुद्ध या कानून तोड़ने वाले के खिलाफ कोई कदम उठाना पड़ता है तब उसको जिसने प्रशासन को सूचित किया होता है अनुचित कार्य होने के बारे उसी को परेशानी में डाला जाता है गलत करने वालों के सामने लाकर खड़ा कर के।  तब जताते हैं अगर ये मूर्ख शिकायत नहीं करता तो सरकार या प्रशासन आपको कदापि नहीं रोकती , क्यों अधिकारी और नेता देश और समाज को ऐसा बना रहने देना चाहते हैं , जैसा कभी नहीं होना चाहिये। इस के बावजूद इनको देश भक्त और जनसेवक कहलाने का भी शौक है , क्या देशभक्ति की परिभाषा यही है। लगता है जैसे हर कोई दूसरों को लूट रहा है , व्योपार के नाम पर , शिक्षा के नाम पर , स्वास्थ्य सेवा के नाम पर या जनता की सेवा का दावा कर के। नैतिकता कहीं बची दिखती नहीं , पैसा सभी का भगवान हो गया है। गैर कानूनी काम जितनी आसानी से यहां किये जा सकते हैं उचित कार्य करना उतना ही कठिन होता जा रहा है। मालूम नहीं ये कैसा विकास है जो विनाश अधिक लाता जाता है।

                   नेता और प्रशासन के लोग इतने बेशर्म हो चुके हैं कि उनको देश की जनता की गरीबी भूख और बदहाली नज़र ही नहीं आती है। झूठे विज्ञापनों पर करोड़ों रूपये बर्बाद किये जा रहे सालों से किस लिये , केवल मीडिया को खुश रखने को , क्या इस से बड़ा कोई घोटाला हुआ है आज तक , हिसाब लगाना कभी। यही धन अगर गरीबों को मूलभूत सुविधायें देने पर खर्च किया जाता तो आज कोई बेघर नहीं होता। नानक जी आज होते तो तमाम धनवान लोगों की रोटी को निचोड़ दिखाते लहू की नदियां बहती नज़र आती। कौन कौन कैसे कमाई कर रहा है  किस किस का खून चूस कर। महात्मा गांधी की समाधि पर माथा टेकने से आप गांधीवादी नहीं हो जाते , याद करें गांधी जी ने कहा था इस देश के पास सभी की ज़रूरत पूरी करने को बहुत है , मगर किसी की हवस पूरी करने को काफी नहीं। आज कुछ लोगों की धन की हवस इतनी बढ़ गई है कि कभी खत्म ही नहीं होती , ध्यान से देखो कौन कौन है जो अरबपति होने का बाद और अधिक चाहता है।  हमारे धर्म ग्रंथ बताते हैं जिस के पास बहुत हो फिर भी और अधिक की चाह रखता हो वही सब से दरिद्र होता है।  इस श्रेणी में नेता अभिनेता नायक महानायक स्वामी और नेता सरकार उद्योगपति ही नहीं धार्मिक स्थल तक आते हैं जो आये दिन बताते हैं कितनी दौलत जमा हो गई किस मंदिर मठ या आश्रम के पास , मुझे दिखाओ किस धर्म की कौन सी किताब में लिखा है संचय करना ऐसे में जब लोग भूखे नंगे और बदहाली में जीते हैं। अधर्म को धर्म घोषित किया जा रहा है आजकल।

                     अब ज़रा और बात , कल रात की ही बात , टीवी पर दो कार्यक्रम देखे , एक नृत्य का एक हास्य का।  नृत्य के कार्यक्रम में अभिनेता अमिताभ बच्चन जी मंच पर थे , इक नवयुवती की परफॉर्मंस पर बोलते हुए उन्होंने अपनी फिल्म की इक कविता पढ़ी " ज़िन्दगी तुम्हारी ज़ुल्फ़ों ,,,,,,,,,,,,,,,,,, गुज़रती  तो शादाब हो भी सकती  थी  "  आप इसको हल्के में ले सकते हैं , मगर उसके बाद जो तमाशा दिखाया गया उसको नज़रअंदाज़ करना अपराध होगा। संचालक उस नवयुवती को गिरने से संभालता दिखाई दिया और समझाया गया जैसे हर युवती का सपना यही है कि भले वो सत्तर साल का बूढ़ा भी हो तब भी उसका प्रेम प्रदर्शन उनको खुश कर सकता है। क्या ये महिला जगत की छवि को खराब नहीं करता , क्या अमिताभ जी को उचित लगता है कोई अपनी उम्र से इतनी छोटी महिला से ऐसी बात कहे। मगर हम विचित्र हैं नामी लोगों की बुराई भी हमें अच्छी लगती है।  हास्य के प्रोग्राम में इतनी बेहूदा बातों पर लोग हंसते हैं कि रोना आता है।  हर सुबह हर चैनल अंधविश्वास को बेचता है अपने मुनाफे की खातिर सभी आदर्शों की बातों को भुलाकर पैसे के लिये।  जिधर देखो यही हो रहा है पाप का महिमामंडन , किसी को ग्लानि नहीं क्या कर रहे क्यों कर रहे हैं।  अब फिर भी लोग समझते हैं हम धर्म और ईश्वर को मानते हैं तो वो कौन सा धर्म है कैसा भगवान मुझे समझ नहीं आता है। 

 

सितंबर 14, 2016

इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 इंतज़ार में है मंज़िल ( कविता )   डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी सोचते हैं हम
क्या खोया है क्या पाया है
 
क्या यही था हमारा ध्येय
क्या यही थी हमारी मंज़िल 

और शायद अक्सर सोच कर 
लगता है जैसे अभी तलक हम 

भटकते ही फिरते हैं इधर उधर
बिना जाने बिना समझे ही शायद 
रेगिस्तान में प्यासे मृग की तरह ।

तब रुक कर करना चाहिये मंथन
आत्मचिंतन और विशलेषण 

तभी कर सकेंगे ये निर्णय हम कि
किधर को जाना है अब हमें आगे  

और तय करना होगा फिर इक बार 
कौन सी है  मंज़िल कौन सी राह है
जिस पर चल  कर जाना है हमें ।

आज कुछ ऐसी ही बात है मेरे साथ
सोचने पर समझ आया है मुझे भी 

नहीं किया अभी तलक कुछ सार्थक
व्यतीत किया जीवन अपना निरर्थक 

लेकिन मुझे ठहरना नहीं यहां  पर
चलना है चलते जाना है तलाश में 

उस मंज़िल की जो कर रही  इंतज़ार
किसी मुसाफिर के आने का सदियों से । 
 

 

फिर वही ढंग हिंदी दिवस मनाने का ( बेबाक ) डॉ लोक सेतिया

  फिर वही ढंग हिंदी दिवस मनाने का ( बेबाक ) डॉ लोक सेतिया

               आज इक  मित्र  का  फ़ोन आया  , कल आपके शहर में आ  रहे  हैं  इक कवि सम्मेलन में  जो हिंदी दिवस  के उपलक्ष में स्थानीय कॉलेज में  इक समाचार पत्र आयोजित करवा रहे हैं। मैंने कहा अच्छी बात है आप आ रहे हैं तो मिलना अवश्य। उनको हैरानी हुई ये जानकर  कि मुझे अपने शहर के शायर को बुलाना नहीं याद रहा और पड़ोस के शहर से तमाम लोगों को बुलाया गया है। शायद ये इक प्रश्नचिन्ह है ऐसे हिंदी दिवस मनाने के औचित्य को लेकर। मगर मुझे ज़रा भी अचरज नहीं हुआ क्योंकि ये कोई पहली बार नहीं होने वाला  है। बहुत साल पहले साहित्य अकादमी के लोग राज्य भर में साहित्य चेतना यात्रा निकाल सभी शहरों में घूम रहे थे और फतेहाबाद में जिस दिन आये वो भी 1 4 सितंबर का ही दिन था हिंदी दिवस का। लेकिन साहित्य अकादमी वाले तब किसी स्थानीय लेखक से नहीं मिले थे न ही किसी को सूचित ही किया था। ज़िला प्रशासन को सूचित किया गया था और प्रशासन ने बाल भवन में अपनी आयोजित होने वाली मासिक बैठक की जगह पर मीटिंग से पहले जलपान की व्यवस्था कर दी थी और हिंदी दिवस मनाने की रस्म अदा कर दी गई थी। मुझे याद है मैंने साहित्य अकादमी को इस बारे इक पत्र लिखा था जो बेशक निदेशक जी को पसंद नहीं आया था और उनको सफाई देनी पड़ी थी कि जो हुआ उसकी ज़िम्मेदारी अकादमी की नहीं थी और बाकी सभी शहरों में प्रशासन ने स्थनीय लेखकों  को आमंत्रित किया था। वास्तव में हमारे प्रशासन की रिवायत यही रही है कि वो खुद कभी नहीं देखता कौन किस काबिल है , लोग जाते हैं उनको बताने कि हम कौन हैं क्या हैं , हमने क्या किया है और हमें पुरस्कार सम्मान दो , अतिथि बनाकर बुलाओ। मुझे राग दरबारी नहीं आता है , नहीं सीखना भी मुझे। ये बात सिर्फ हिंदी दिवस की ही नहीं है , सरकारी हर आयोजन इसी तरह ही किया जाता है। चाहे स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस , इक आडंबर किया जाता है चाहे वो मानव अधिकार की चर्चा ही क्यों न हो। मंच सरकार का आवाज़ भी सरकारी ही होती है , हर बार मालूम पड़ता है यहां कुछ भी नहीं बदला न ही शायद बदलेगा। कोई बदलना चाहता भी नहीं है , यथासिथति चाहते हैं वो जिनको नया कुछ करना भाता ही नहीं।  वही लोग वही बातें फिर से दोहराते रहते हैं।