जनवरी 27, 2025

POST : 1942 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी  ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल

 

समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें — डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल  , गुरुग्राम ( हरियाणा )

हिंदी साहित्य की एक नाज़ुक और लोकप्रिय विधा है - ग़ज़ल । ग़ज़ल को लेकर आज अधिकांश क़लमकार सजग हैं और अपनी भावाभिव्यक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं जिनमें अपना व समाज दोनों का दर्द निहित है ।
 
   डॉ. लोक सेतिया एक प्रतिष्ठित रचनाकार हैं जिनकी नवीनतम कृति है -  । ’ फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी '
 
कृति में 130 ग़ज़लें और 21 नज़्में हैं । शायर को ठहराव पसंद नहीं है , इसीलिए ये ग़ज़लें और नज़्में भी गतिमान हैं । इनमें जीवन का फ़लसफ़ा है , वैयक्तिक पीड़ा है , सामाजिक विसंगतियाँ हैं तथा है आम आदमी का दर्द । ये मन को सुकून देती हैं व सोचने को विवश भी करती हैं ।
 
कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ,
तभी ख़ामोश लब सब हो गये हैं ।
 
शायर का दर्द दर्शाती एक ग़ज़ल का शेर देखिए —
 
किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें,
कि अपना मेहरबाँ किसको बनायें ।
 
शायर ज़माने को आगाह भी करता है —
 
नया दोस्त कोई बनाने चले हो,
फिर इक ज़ख़्म सीने पे खाने चले हो ।
 
लोग भला किसके सगे हुए हैं , यह बात शायर बख़ूबी जानता है —
 
हमको ले डूबे ज़माने वाले,
नाखुदा ख़ुद को बताने वाले ।
 
समाज में व्याप्त विसंगतियों की ओर इशारा देखिए —
 
कैसे कैसे नसीब देखे हैं ,
पैसे वाले ग़रीब देखे हैं ।
 
फिर भी शायर आशा का दामन थामे हुए है —
 
दिल पे अपने लिख दी हमने तेरे नाम ग़ज़ल ,
जब नहीं आते हो आ जाती हर शाम ग़ज़ल ।
 
निराश मानव को शायर का सुझाव है —
 
हल तलाशें सभी सवालों का ,
है यही रास्ता उजालों का ।
 
शायर की पूँजी उसका अपना स्वाभिमान है —
 
सबसे पहले आपकी बारी ,
हम न लिखेंगे राग दरबारी ।
 
ज़िंदगी क्या है, देखिए —
 
मुश्किलों का नाम है ये ज़िंदगी ,
दर्द का इक जाम है ये ज़िंदगी ।
 
भौतिकतावादी इस युग की सच्चाई भी क्या ख़ूब है —
 
सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ,
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
 
मतलबपरस्त सरकार पर शायर का प्रश्नचिन्ह देखिए —
 
सरकार है ,बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।
 
राजनेताओं पर आरोप लगाता हुआ शायर कह उठता है —
 
तुम बताओ है कहीं ऐसा जहाँ ,
राजनेता दर्द को समझे कहाँ ।
 
सचाई की राह ही जीवनोपयोगी होती है । बक़ौल शायर -
 
पथ पर सच के चला हूँ मैं ,
जैसा अच्छा - बुरा हूँ मैं ।
 
हमें विश्वास का आँचल नहीं छोड़ना चाहिए —
 
उन्हें मिल ही जाते हैं इक दिन किनारे ,
जो रहते नहीं नाखुदा के सहारे ।
 
 सभी ग़ज़लें ख़ूबसूरत बन पड़ीं हैं । इनकी छांव मन को सुकून देती हैं । नज़्मों में भी ग़ज़लों जैसी ही रवानी है ।
 
’ बेचैनी’ से —
पढ़कर रोज़ ख़बर कोई ,
मन फिर हो जाता है उदास ।
 
 ‘ क्या हो गया ’ में सच का दर्द देखते चलिए —
 
मत ये पूछो कि क्या हो गया ,
बोलना सच ख़ता हो गया ।
 
एक साफ़-सुथरे संग्रह के लिए शायर डॉ. लोक सेतिया को ख़ूब सारी बधाइयाँ । हिंदी ग़ज़ल में कृति का खुलेमन से स्वागत होना चाहिए ।
 
कृति : फलसफ़ा-ए-ज़िंदगी 

शायर : डॉ. लोक सेतिया
 
प्रकाशक : श्वेतवरणा प्रकाशन, दिल्ली
 
पृष्ठ : 168
 
मूल्य :₹200

26 जनवरी 2022
 
समीक्षक संपर्क फोन नंबर -  +91 92104 - 56666  
 



जनवरी 20, 2025

POST : 1941 करोड़पति बनाने का चोखा धंधा ( टीवी शो ) डॉ लोक सेतिया

    करोड़पति बनाने का चोखा धंधा ( टीवी शो ) डॉ लोक सेतिया  

कौन बनेगा करोड़पति टीवी शो को लेकर कई बार पहले भी पोस्ट लिखी हैं , कब से मेरे ज़हन में इक सवाल रहता था कि काश कभी उसी खेल में कौन बनेगा करोड़पति की वास्तविकता को उजागर करने को भी ऐसे सवालात जवाब संभव हो सकता है । बस इतना सार्वजनिक किया जाये कि पिछले 24 सालों में शामिल होने वाले खिलाड़ियों को कितना पैसा मिला और कितना टीवी चैनल ने कमाई की और कितना संचालन करने वाले जनाब अमिताभ बच्चन जी को मिला है । अभी इसी समय केबीसी का 25 साल की शुरुआत का एपीसोड दिखाया जा रहा है और उस में घोषित किया है अमिताभ बच्चन जी ने कि पिछले 24 साल में केवल 32 लोग करोड़पति बने हैं और 250 करोड़ धनराशि प्रतिभागी लोगों ने जीती है । मुझे लगता है सामन्य शिक्षित व्यक्ति गणित से इतना आंकलन आसानी से कर सकता है कि हर साल औसत दो लोग करोड़पति बन सके हैं एवं सभी प्रतिभागियों को हर साल में अधिकतम 16 करोड़ इन सोलह सीज़न में मिले हैं । कोई कभी नहीं बताएगा कि वास्तव में जितना पैसा खेल खेलने वालों को मिला उस से सौ गुणा नहीं लाख गुणा नहीं शायद करोड़ गुणा खेल खिलवाने वालों को मिला होगा कितनी ही तरह से विज्ञापन से लेकर मालूम नहीं किस किस तरह से । ये इक फरेब है या लोगों को इक झूठे काल्पनिक लोक में खुशियां मिलने की ऐसी आशा दिखलाना है जिस में हर कोई पलक झपकते ही नर्क से निकल स्वर्ग की चौखट तक पहुंच जाता है । धर्म वाले हमेशा मरने के बाद स्वर्ग या जन्नत मिलने की बातें करते हैं लेकिन मीडिया टीवी सिनेमा का मकसद कुछ और होता है , मुझे हैरानी होती है जब इसी कार्यक्रम में आसानी से पैसा कमाने की बातें करने वालों से सावधान रहने की बात वही करते हैं जो खुद ऐसा ही सपना बेच कर खुद मालामाल होते हैं । 
 
लेकिन आपत्ति इस पर है कि भाग लेने वाले प्रतिभागी लोगों से उस शो में उपस्थित तमाम लोगों तथा देखने वाले दर्शकों को ऐसा दिखलाया जाता है जैसे केबीसी कोई धन कमाने का कारोबार नहीं बल्कि समाज की सेवा भलाई और लोगों की परेशानियां दूर करने के मकसद से कोई बिना लाभ हानि का कार्य है । मुझे लगता है इसे ज्ञानदार धनदार शानदार कहना जनता को गुमराह करना है । कभी कभी तो ऐसा भी कहते हैं कि आपने यहां पहुंच कर खुद को काबिल साबित कर दिया है अर्थात करोड़ों लोग जो केबीसी में खेलने नहीं आये हैं उनकी काबलियत साबित नहीं हुई है । टीवी पर देख कर संचालन करने वाले की मीठी मीठी बातें सुन कर लगता है जैसे टीवी चैनेल से शो से जुड़े सभी लोग इंसान के दुःख दर्द को समझते हैं और समय आने पर सभी सहयता करने को तैयार हैं जबकि वास्तविक जीवन में ऐसे लोग नहीं मिलते बल्कि इसी शो में दिखाया जाता है कि समाज कितना बेरहम है । कलाकार बुद्धिजीवी वर्ग का ध्येय आदमी को सही राह बताना होता है जो कभी भी धन दौलत के लालच को बढ़ावा देने से नहीं हो सकता है बल्कि पैसे से अधिक महत्व इंसानियत को महत्वपूर्ण समझने से हो सकता है । केवल कहने से कि मेरे लिए ये खेल आर्थिक आमदनी का नहीं बल्कि जनता से मिलने वाले प्यार के लिए है मगर वास्तव में शायद इक शो क्या कुछ भी वो बिना पैसा लिए करना नहीं चाहेंगे । 
 
पैसे ने आदमी को क्या से क्या बना डाला है सच कहें तो हर कोई राजनीति धर्म समाजसेवा सभी का पहला मकसद धन दौलत बन गया है । फिल्मों की बात की जाये तो इधर पिछले तीस साल से फ़िल्मी कहानियां भी दर्शकों को वास्तविकता से दूर कर झूठी मनघड़ंत बातों से सिर्फ मनोरंजन की आड़ में मानसिकता को विकृत ही किया है ।  कारोबार व्यौपार धंधा करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन किसी भी ऐसे कार्य को महान या समाज सुधरने अथवा परोपकार करने का बताना अनुचित है । शायद इस शो की सबसे आपत्तिजनक बात ये है कि यहां सभी इक अभिनेता जो सिर्फ पैसा और नाम शोहरत पाकर इक शिखर पर खड़ा है उसे आदमी नहीं कोई मसीहा या भगवान समझते हैं ।
 
एक करोड़ का नहीं सात करोड़ का नहीं एक सौ चालीस करोड़ का सवाल है , 24 साल 32 करोड़पति 250 करोड़ पुरुस्कार अन्य सभी प्रतिभागी खिलाड़ियों को मिले है , कितने हज़ार साल लगेंगे सभी उन लोगों की आकांक्षाओं अपेक्षाओं को पूर्ण होने में , जवाब आराम से बताना ज़िंदगी की अंतिम सांस तक समय है । 
 
कुलदीप सलिल जी की ग़ज़ल से अंत करते हैं ।  

इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं 

कोई बन्दों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

रौशनी छीन के घर घर से चरागों की अगर 

चाँद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

सीख ले दोस्त भी कुछ तो तजुर्बे से कभी 

काम ये सिर्फ मेरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना 

आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

खूब तु खूब तेरा शहर है ता - उम्र मगर 

एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूं बदौलत उसकी 

मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

हो चरागाँ तेरे घर में मुझे मंज़ूर सलिल 

गुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं । 






जनवरी 19, 2025

POST : 1940 जनता के मन की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       जनता के मन की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

बड़े लोगों के बड़े काम धंधे होते हैं उनके पास कहने को कितनी बातें होती हैं लेकिन साधरण गरीब इंसान के पास भी कहने को कुछ होता है मगर वो चुप रहता है ये समझ कर कि कहीं बड़े लोगों को बुरी नहीं लग जाएं । ये डायलॉग मैंने इक फ़िल्म से उधार लिए हैं जिस में नायिका को अपमानित कर घर और नौकरी से इक अभिनेता की माता जी निकाल देती हैं और खबर होते ही अभिनेता मनाने को नायिका के पीछे पीछे अपनी बड़ी गाड़ी से चले आते हैं । आपको सब कुछ हासिल है सत्ता के शिखर पर बैठे कुछ भी नहीं करना सूझे तो मन की बात करने को रेडियो है भले आजकल लोग रेडियो नहीं सुनते तब भी तमाम टीवी चैनल मन की बात का प्रसारण करते हैं । तीसरी कसम फ़िल्म में नायक नायिका से पूछता है मन समझती हैं ना आप , लेकिन सच कहें तो आपके मन की बात जनता तो क्या लगता है आपको भी समझ आई नहीं अभी तलक । मन रे तू काहे ना धीर धरे , वो निर्मोही मोह ना जाने जिनका मोह करे । मन चंचल होता है मन की रफ़्तार से तेज़ कोई नहीं दौड़ सकता है , पलक झपकते ही किसी अलग दुनिया में पहुंच जाता है । इक भजन है काजल फ़िल्म का , प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊं तोहे , प्रभु कहे तू मन को पा ले पा जाएगा मोहे , तोरा मन दर्पण कहलाये । आपका मन जानता है आपकी चाहत क्या है बल्कि क्या नहीं चाहते हैं आप जितना भी मिलता है थोड़ा लगता है ये इक मृगतृष्णा है भागने को विवश करती है जबकि सभी जानते हैं जिस जगह से शुरू की थी दौड़ घूम कर वापस उसी जगह पहुंचना नियति है । कभी कभी लगता है कि जिसे आपने मन की बात नाम दिया है वो वास्तव में मन की नहीं किसी अन्य उलझन की बात हो सकती है । ऐसा होता है आदमी को जब अपनी उलझनों से बचना होता है तब किसी काल्पनिक पुरानी कहानी किसी घटना की चर्चा करते हैं । लेकिन जो भी करते हैं ज़िंदगी की उलझन सुलझती नहीं है और आपकी तो राजनीति की भूल भुलैयां की उलझनों की कोई सीमा नहीं होती उनसे निकलना भागना चाहते हैं फिर भी कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है ।
 
मन को काबू में कौन रख सका है इंसान क्या भगवान भी मन की थाह नहीं पा सकते हैं , संत महात्मा सन्यासी उपदेशक मन से सभी हारे हैं । मनभावन दुनिया कभी किसी को नहीं हासिल हुई कितने लोग उसकी खोज में भटकते रहे हैं । दिल्ली का लुटियन ज़ोन क्या जाने मन की राहों को बड़ी कठिन है डगर पनघट की । मन की मनमानी कब किसे कहां से कहां ले जाये किसी को नहीं पता , मन से मन की बात मन से मन का मिलन ये तो अध्यात्म है भला सत्ता की राजनीति छोड़ खुद को पाने की राह कोई जाता है । आजकल तो लोग सन्यास छोड़ राजनीति की गंगा में नहाने को तैयार बैठे हैं , कहीं आपको भी कभी मन वापस उसी दुनिया में पहुंचा दे सब छोड़ दर दर जाकर भिक्षा मांगने वाली । उधर से इधर आना संभव है इधर से उधर लौटना संभव नहीं है । आपको किसी दार्शनिक ने बतलाया नहीं क्या कि मन का खेल किसे कहते हैं चलो आपको इक कहानी सुनाते हैं । 
 
इक राजा को शौक था सभी उसको सबसे बड़ा दानी दानवीर कहें , उसने इक बार अपने राज्य ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य के सभी संतों महात्माओं को आमंत्रित किया और बहुत धन दौलत दे कर कहा कि आपको अपने राज्य में जाकर सभी को बताना है कि इस राज्य का राजा कितना दानवीर है । पड़ोसी राज्य के इक वास्तविक साधु को समझ आई ये बात कि राजा अपना अहंकार जताना चाहता है और उसको इसका जवाब अवश्य देना चाहिए । राजा के दरबार से निकलते ही उसने राजा से मिला सभी कुछ वहां के भिखारियों में बांट कर कहा अपने राजा को बताना पड़ोसी देश का इक साधु आपका दिया सभी वितरित कर सकता है । अर्थात उस देश का साधु ऐसा है तो अन्य लोग कितने दयावान होंगे और राजा कितना दानी , मगर उसने कभी भी अपने दान देने का डंका नहीं बजाया । आखिर में इक सार्थक संवाद पढ़ते हैं : -
 

रहीम और गंगभाट का संवाद  :-

इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
 जनता की बात

जनवरी 18, 2025

POST : 1939 संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात ) आलेख : डॉ लोक सेतिया

 संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात )

                                आलेख : डॉ लोक सेतिया

                     धरती का रस ( नीति कथा )

एक बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़ गया । उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह में वहां चला गया । इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके देश का । राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी । बुढ़िया ने छांव में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं । बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया । राजा को बहुत ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है । बुढ़िया ने बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं । यहां का राजा बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े आराम से हो जाता है । राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका खज़ाना अधिक बढ़ सकता है । तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो । बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़ कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास भर सका । ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था । बुढ़िया बोली बेटा ये तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है । ये तो तब होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है । ऐसे में कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर ऐश आराम करते हैं । राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था ।

 

   संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात ) आलेख : डॉ लोक सेतिया 

बात की शुरुआत इक नीति कथा से करना सार्थक प्रयास है आधुनिक काल में संदर्भ को उचित ढंग से समझने को । हम खुद को विश्व का सब से बड़ा लोकतंत्र होने पर गर्व अनुभव करते हैं लेकिन वास्तव में राजनीति प्रशासन की ख़ुदग़र्ज़ी और अपने कर्तव्यों की अवेहलना और अधिकारों का मनमाने ढंग से उपयोग करने की आदत से समाज कल्याण को दरकिनार कर संविधान की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया है । संक्षेप में कुछ बातों पर विचार करते हैं , सरकारी अधिकारी कर्मचारी देश राज्य की नियम कायदे कानून की शपथ लेते हैं शुद्ध अंतकरण से कर्तव्य निभाने की जबकि शायद ही उनको ईमानदारी से जनता की समस्याओं का समाधान करने की मंशा होती है । पुलिस प्रशासन का तौर तरीका मनवीय संवेदनाओं से रहित और शासक बन कर जनता से अशोभनीय आचरण करने का दिखाई देता है , कहने को जनता के सेवक हैं लेकिन खुद को देश का मालिक मानते हैं । कायदे कानून न्यायपूर्ण नहीं बल्कि जनता को इक ऐसे जाल में उलझाने को बनाते हैं जिस से सरकारी अधिकारी कर्मचारी मनमाने ढंग से सरकारी लूट से खज़ाना भरने के साथ खुद भी अपने हित साधने का कार्य कर सकें । अजीब बात है कि नागरिक पर कड़ाई से नियम लागू करने वाले खुद जिस भी विभाग में कार्यरत होते हैं अपने लिए कोई कड़ाई नहीं लागू करते हैं । अधिकांश उनके सही कार्य नहीं करने पर परेशानी जनसाधरण को होती है । 

राजनेताओं की बात बाद में पहले सरकारी प्रशासनिक लोगों की वास्तविकता पर नज़र डालते हैं । बड़े बड़े विकसित अधिकांश देशों में औसत सरकारी कर्मचारी का वेतन औसत नागरिक की आमदनी से दो से पांच गुना होता है जबकि हमारे देश में ये अंतर बीस से तीस गुना है , अर्थात साधरण नागरिक से इतना अधिक वेतन मिलने पर भी उस जनता के लिए न्यायोचित तरीके से फ़र्ज़ निभाना नहीं चाहते हैं । अधिकांश लोग सत्ताधारी राजनेताओं की कठपुतली बनकर चाटुकारिता कर जनहित विरोधी कार्य करने में संकोच नहीं करते हैं । ख़ास लोगों के लिए जो कार्य आसानी से झटपट होते हैं आम नागरिक के लिए उस के लिए एड़ी चोटी एक करनी पड़ती है और अक़्सर घूसख़ोरी का आश्रय लेने को विवश होना पड़ता है । शिक्षित होकर भी उनका विवेक नहीं जागृत होता जब अनावश्यक साधारण ख़ामी को बहाना बना उन पर अनुचित और अन्यायकारी दंड जुर्माना लगाते हैं , जबकि ख़ास लोगों के बड़े अपराध तक कानून बदल कर सज़ा से बचाते रहते हैं । आपने कभी सोचा है जितने भी घोटाले देश में होते रहते हैं उन को बिना किसी आई ए एस अथवा ऐसे आला अधिकारी की अनुशंसा योजना में संभव नहीं हो सकता है क्योंकि कोई भी मंत्री मुख्यमंत्री क्या देश का प्रधानमंत्री तक खुद कार्यपालिका का कार्य नहीं कर सकता है । जब तक देश का प्रशासन ईमानदारी से काम करता रहा देश की सामाजिक दशा सुधरती रही थी मगर जब से भ्र्ष्टाचार का वातावरण बढ़ता गया है देश समाज की हालत बिगड़ती जा रही है । 
 
अब राजनीति की बात करते हैं , कोई भी नेता कोई भी राजनीतिक दल सही में देश और जनता के कल्याण और समाज की भलाई जनता की समस्याओं की चिंता नहीं करता है , सभी को सत्ता हासिल कर खुद अपने लिए राजसी ठाठ और शानो शौकत अधिकार सुविधाएं पाकर शानदार जीवन चाहिए । त्याग की जनसेवा की देशभक्ति की राजनीति का अंत हो चुका है । कैसी विडंबना है कि जिनको लोग प्रतिनिधि चुनते हैं वही खुद को जनता का मालिक ही नहीं समझने लगते बल्कि जनता को भीख देने की बातें करने लगे हैं , जनता का पैसा जनता पर खर्च करना किसी राजनेता का उपकार नहीं होता है , क्या ये सभी अपनी व्यक्तिगत पूंजी से अथवा पारिवारिक विरासत से ये बांटते हैं । असलियत बिल्कुल उलटी है सांसद विधायक बनकर देश की आधी संपत्ति उन्होंने हथिया ली है या कुछ अमीर उद्योगपतियों धनवान लोगों के हवाले कर दी है । ऐसा लगता है जैसे देश की राजनीति लूटने का इक माध्यम बन गई है । 80 करोड़ लोग अगर सरकारी मुफ्त अनाज पर रहते हैं तो देश की आज़ादी के 77 साल बाद ये विकास नहीं विनाश की अर्थव्यवस्था है जिस में बीस तीस प्रतिशत को सभी कुछ मिलता है 70  प्रतिशत को और गरीब बनाकर ।  

आखिर में न्याय की बात करना कठिन है , लगता ही नहीं वास्तव में किसी को सभी को समान न्याय मिलने की आवश्यकता की चिंता भी है । अंधेर नगरी चौपट राजा जैसी बात है ।  लेकिन असली समस्या कुछ और है देश की जनता की निष्क्रियता सब से चिंताजनक बात है । सामने मतलबी लोग देश को बर्बाद कर किसी गहरी खाई में धकेल रहे हैं सत्ताधारी विपक्षी सभी मिलकर जनता को कोई खिलौना समझ खेल रहे हैं । कुछ भी गंभीर विषय पर चिंतन नहीं सिर्फ और सिर्फ कुर्सी के लिए पागल हैं हर घड़ी उनके किरदार बदलते हैं । कोई विचारधारा नहीं फायदे का सौदा गठबंधन कर चुनावी खेल में काठ की तलवारों की बनावटी जंग लड़ते हैं बाद में सभी एक हैं लेकिन साथ नहीं विरोध नहीं शतरंज की बिसात पर शह मात की बाज़ी लगाते हैं । ये पुराना खेल है जागीरदारों का बड़े रुतबे वाले खानदानी रईस लोगों का । संविधान को लगता है जैसे इक हथियार समझ लिया है जब जैसे उपयोग करते हैं । राजनेता और प्रशासक जनता का उपहास करते रहते हैं लेकिन हम क्या अपमानित महसूस करते हैं लगता नहीं । सोशल मीडिया पर नेताओं पर कॉमेडी करते वीडियो रील संदेश से मनोरंजन करना नासमझी है , ये गंभीर विषय है सिर्फ हंसी उड़ाने मज़ाक करने से कुछ असर नहीं होने वाला है । दुष्यन्त कुमार कहते हैं , देख दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली , ये ख़तरनाक़ सचाई नहीं जाने वाली । आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा , चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली । लगता है देश समाज की बर्बादी के खामोश तमाशाई बन गए हैं सभी लोग । उस पर कोई गांधी कोई जयप्रकाश नारायण कहीं दिखाई नहीं देता , खुद हमको भगत सिंह बनना होगा इन से देश को आज़ाद करवाना है जिनको गुमान है कि देश उनके भरोसे है उनके रहमो- करम पर है । 
 
अपनी कायरता को छोड़ कर लोकतंत्र को बचाना होगा हमको फिर से वही उदघोष लगाना होगा जो खुद को भगवान समझ बैठे उनको धरती पर लाना होगा देश हमारा है किसी की जागीर नहीं बतलाना होगा दिनकर की कविता दोहराकर जनता को ताज पहनाना होगा । 

सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है ( कविता ) रामधारी सिंह दिनकर

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी  , 

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ; 

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,   

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । 

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही , 
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली ,   

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे 
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली ।
 
जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम , 
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है । " 
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है ? " 
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ? "
 
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं , 
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में ; 
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के 
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं , 
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है ; 
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो , 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
 
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती , 
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है , 
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां ? 
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है । 

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार 
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय 
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं । 

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा , 
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो 
अभिषेक आज राजा का नहीं ,प्रजा का है , 
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो । 

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख , 
मन्दिरों , राजप्रासादों में , तहखानों में ? 
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे , 
देवता मिलेंगे खेतों में , खलिहानों में । 

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं , 
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है ; 
दो राह ,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो , 
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । 


Singhasan Khali Karo ki janata aati hai'- Dinkar and JP's call for 'Total  Revolution' | NewsClick
             
 

जनवरी 07, 2025

POST : 1938 लोकतंत्र के सौदागर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            लोकतंत्र के सौदागर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

संविधान की शपथ को , समाज को शानदार भविष्य देने की सभी बातें को , पीछे छोड़ देश की राजनीति उस जगह खड़ी है जहां रिश्वत लेकर काम करने की तर्ज़ पर सभी दल जनता से खुलेआम सौदा करने लगे हैं । इक होड़ है उस शोरूम से आपको जो प्रलोभन दिया गया है दूसरे मॉल पर उस से बढ़कर कुछ और उपहार मिलेगा । कभी महिलाओं को संसद में आरक्षण देने की बात की जाती थी अभी तक संभव नहीं हुआ लेकिन अब उनको लगता है महिला को कुछ हज़ार मासिक देने की बात से चुनावी नैया पार लग सकती है तो उनको सक्षम बनाने सुरक्षा देने समानता और सर उठा कर बराबरी पर खड़ा करने की आवश्यकता क्या है । वास्तव में महिलाओं का इस ढंग से अनादर ही किया जाने लगा है , शराबी पुरुष कुछ दिन शराब की बोतल से किसी दल की भीड़ बनकर नारे लगाते थे लेकिन वोट मालूम नहीं कब किस तरफ डालते हों भरोसा नहीं होता है । लेकिन अब कुछ सालों से गरीब जनता को और गरीब बनाकर देश की राजनीति ने लोकतंत्र की बोली बीच चौराहे पर लगानी शुरू कर दी है । चुनाव आयोग से सुप्रीम कोर्ट तक लोकतंत्र का चीरहरण होते देख कर महाभारत की कौरवों की सभा की तरह ख़ामोशी से देख रहे हैं । बात कड़वी है लेकिन वास्तविकता है कि राजनेताओं में ज़मीर जैसा कुछ बचा नहीं है ज़मीर बेच दिया या गिरवी रख दिया है बदले में कुछ हासिल करने को । जो लोग बिकते हैं समझते हैं सभी को लालच दे कर कीमत लगा कर बिकने को विवश किया जा सकता है । ऐसे में कोई भी समाज कल्याण की राजनीति की राह पर चलना नहीं चाहता नैतिकता और आदर्श सभी दलों को व्यर्थ प्रतीत होते हैं । 
 
देशसेवा केवल भाषण देने का विषय है वास्तविक मकसद सत्ता पर बैठ कर करोड़ों रूपये खुद पर खर्च करना हो गया है । ये सभी सांसद विधायक होते समय ही नहीं बल्कि बाद में भी कितने ही विशेषाधिकार पाकर देश के खज़ाने पर इक बोझ बन कर रहते हैं , इतना ही नहीं हर राजनेता के परिवार उनके निधन के बाद भी उनके नाम पर समाधिस्थल और स्मारक बनाने की चाहत रखते हैं भले किसी का कोई विशेष योगदान नहीं भी रहा हो सामाजिक कार्यों को लेकर । महान नायकों का योगदान अपने आप उनको इन सभी से अधिक प्यार आदर और शोहरत दिलवाती है कुछ भी उन्होंने बदले में ये मिलने की खातिर नहीं किया होता है । लिखने वाले हमेशा लिखते थे औरत को हमेशा छला जाता रहा है , प्यार उपहार से लेकर उसे त्याग की देवी कहकर अपने वर्चस्व स्थापित करने की , लेकिन ये तो महिलाओं को और भी हानिकारक साबित हो सकता है जो भविष्व में उसका अस्तित्व पर खतरा है । समाज को अपने स्वाभिमान की खातिर इस को ठुकराना ज़रूरी है । 
 
लालच ने सभी को अंधा बना दिया है , सरकार से धर्म तक समाजसेवा को भी हर कोई खुदगर्ज़ी की खातिर उपयोग कर रहा है । आसानी से कभी समस्याओं का समाधान नहीं मिलता अपनी ज़िंदगी को सरल बनाने को खुद पर निर्भर होना पड़ता है । उपरवाले ने हमको हाथ पैर ही नहीं विवेक भी दिया है दिमाग़ का उपयोग कर इंसान चांद पर पहुंचा है लेकिन किसी आशिक़ ने कभी अपनी महबूबा को चांद सितारे तोड़ कर उसकी झोली में नहीं भरे हैं । आजकल राजनेता भी छलिया जैसे हैं आपको कुछ भी नहीं देना चाहते बल्कि सभी आपको लोभ लालच के किसी जाल में फंसाकर खुद आसानी से तमाम सुख सुविधाएं हासिल कर शासन करना चाहते हैं । कोई भी मुफ़्त में किसी को कुछ देता नहीं है हम भी किसी की सहायता करते हैं तब भी कोई मतलब छिपा रहता है । दान भी देते हैं तो पापों की क्षमा और पुण्य की कामना रहती है । लगता है महिलाओं को राजनेताओं ने नासमझ समझ कर उपहार धन इत्यादि का जाल फैंका है जिस से सावधान रहना होगा उनको भी हमको भी ।  इक कविता याद आई है । 
 

अधूरी प्यास ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

युगों युगों से नारी को
छलता रहा है पुरुष
सिक्कों की झंकार से
कभी कीमती उपहार से
सोने चांदी के गहनों से
कभी मधुर वाणी के वार से ।

सौंपती रही नारी हर बार ,
तन मन अपना कर विश्वास
नारी को प्रसन्न करना
नहीं था सदा पुरुष की चाहत ।

अक्सर किया गया ऐसा
अपना वर्चस्व स्थापित करने को
अपना आधिपत्य
कायम रखने के लिये ।

मुझे पाने के लिये 
तुमने भी किया वही सब
हासिल करने के लिये 
देने के लिये  नहीं
मैंने सर्वस्व समर्पित कर दिया तुम्हें ।

तुम नहीं कर सके ,
खुद को अर्पित कभी भी मुझे
जब भी दिया कुछ तुमने
करवाया उपकार करने का भी
एहसास मुझको और मुझसे 
पाते रहे सब कुछ मान कर अपना अधिकार ।

समझा जिसको प्यार का बंधन 
और जन्म जन्म का रिश्ता
वो बन गया है एक बोझ आज
मिट गई मेरी पहचान
खो गया है मेरा अस्तित्व ।

अब छटपटा रही हूँ मैं
पिंजरे में बंद परिंदे सी
एक मृगतृष्णा था शायद
तुम्हारा प्यार मेरे लिये 
है अधूरी प्यास
नारी का जीवन शायद ।     
 

 

जनवरी 05, 2025

POST : 1937 असली भगवान बंदी हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     असली भगवान बंदी हैं  ( हास-परिहास )  डॉ लोक सेतिया 

आज जो कहना चाहता हूं उसे कविता कहानी ग़ज़ल अथवा निबंध साहित्य की सभी विधाओं से हटकर शायद किसी जीवनी की तरह वर्णन किया जा सकता है । लेकिन ये मेरी अथवा किसी एक व्यक्ति की ज़िंदगी की बात नहीं बल्कि शायद अधिकांश लोगों की दास्तान कहा जा सकता है । सिर्फ औपचरिकता निभाने को इक नाम रखते हैं अजबनी , कोई पुरुष या महिला दोनों संभव है । अजनबी की ज़िंदगी बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हर दिन किसी अनचाहे हादिसे से गुज़रती रही है । कभी भी समाज में उसको कुछ भी जैसे मिलना ही चाहिए था मिला नहीं , लेकिन दुनिया ने समझाया कि ऐसा किस्मत में निर्धारित था । अनेक बार अजनबी को अनावश्यक दुःख दर्द और परेशानियां होती रहीं और उन सभी का कारण था कुछ लोगों का अन्य तमाम लोगों से अधिकार छीन कर अपना आधिपत्य जमा लेना । लेकिन अजनबी ने हमेशा उसको भगवान की मर्ज़ी ही मान लिया दोषी अनुचित आचरण करते रहे अपना अधिकार मानकर तमाम लोगों से अन्याय करने को कोई भी नाम कोई कारण कोई बहाना घोषित करते रहे । अजनबी को शराफ़त से रहने का जो सबक पढ़ाया गया था उस में ज़ालिम से ज़ुल्म सहना कायरता नहीं बल्कि समझदारी माना जाता है । सहनशीलता की कोई सीमा होती है पर अत्याचार करने वालों के अन्याय और दमन की कभी कोई सीमा शायद नहीं थी जब भी लगता अब बस बहुत हो चुका उनकी ज़ुल्म करने की सीमा बढ़ती ही जाती रही कोई इन्तिहा नहीं थी उनकी उस से बढ़कर अजीब था उसे कोई मकसद बता कर अनिवार्य घोषित करते रहना । 
 
अजनबी पर घर परिवार के सभी सदस्यों ने अन्याय किया अपमानित करते रहे और उस पर बिना किसी आधार लांछन आरोप लगाकर प्रताड़ित करते रहे । स्कूल में अध्यापकों से सहपाठियों तक ने अजनबी की शराफ़त को कमज़ोरी समझ दंडित करने का कार्य किया उसका आत्मविश्वास ख़त्म करते रहे । दोस्तों से लेकर जीवन में हर दिन जिन जिन से वास्ता पड़ता सभी ने ऐसा ही किया जैसे कहते हैं कि पानी नीचे की तरफ बहता है । अजनबी हमेशा नीचे धरती पर खड़ा रहा जबकि अन्य तमाम लोग किसी ऊंचे आसमान पर खड़े समझते थे कि उनका कद बड़ा है जो वास्तव में नहीं था । जीवन में अनगिनत बार अजनबी को लगता उसे ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए लेकिन फिर सोचता अभी रहने देता हूं दोबारा होगा तो सहन नहीं करूंगा । मगर हर बार इक सोच रोक लेती कि मुझे बुराई का बदला बुराई से नहीं भलाई से देना चाहिए । गलत लोगों को कोई विधाता कर्मों की सज़ा कभी न कभी अवश्य देगा ही । ऐसा भी होता कभी अजनबी सोचता जब गलत आचरण करने वाले मौज में रहते हैं तो उसे भी उन की तरह बनकर जिन पर संभव हो अन्याय या षड्यंत्र कर अपने स्वार्थ साधने चाहिएं पर जब भी ऐसा करने का अवसर होता अजनबी की अंतरात्मा उसे रोकती गलत नहीं करने देती । कभी महसूस होता कि अगर गलत राह पर चलकर सफलता हासिल की भी तो कोई विधाता इस गुनाह की सज़ा देगा जो शायद पहले से खराब ज़िंदगी से भी बुरी हो जाएगी । कहने का अर्थ है कि भगवान पर भरोसा किया कभी उस से डर कर अपनी इंसानियत को बनाये रखा लेकिन दिल को चैन था सुकून था कि कदम डगमगाये नहीं कभी हमेशा सही रास्ते पर ईमानदारी से नैतिक मूल्यों मर्यादाओं का पालन करते रहे । 
 
कोई अदालत नहीं थी जो अजनबी से उम्र भर होने वाले हमलों के दोषी लोगों सरकार धर्म समाज को कभी कटघरे में खड़ा कर निर्णय करती उनको अपराधी साबित कर सज़ा देती । हमारे देश के करोड़ों लोग ठीक इसी तरह से अपनी शराफ़त का बोझ ढोते हमेशा मौत से बदतर ज़िंदगी बिताते हैं , बाकी दुनिया में भी ऐसा होता होगा लेकिन इस तरह उस को उचित नहीं ठहराया जाता सामाजिक धार्मिक अथवा सरकारी नियम कानून व्यवस्था की आड़ लेकर । जिसको पुरातन परंपरा इत्यादि कहते हैं वास्तव में कुछ चालाक लोगों का रचा इक षड्यंत्र है धोखा देने को किसी विश्वासघाती की योजना को ढकने छुपाने को । ताकतवर सत्ताधरी धनवान लोगों के लिए ये सभी कोई परेशानी नहीं खड़ी करते बल्कि उनके लिए सभी कुछ बदल जाता है सुविधानुसार । कभी कभी तार्किक कसौटी पर परखने पर लगता है कि कोई भगवान ईश्वर ख़ुदा उन सभी के गुनाहों की कोई सज़ा नहीं देता बल्कि उनको फलने फूलने देता है जैसे भगवान नहीं दुनिया को कोई शैतान चलाता है और ऊपरवाले का नाम सभी अपकर्मों को उचित समझाने को लिया जाता है । कहीं ऐसा तो नहीं कि वास्तविक ईश्वर भगवान ख़ुदा को किसी ने अपहरण कर अपनी कैद में बंदी बनाया हुआ हो और असली भगवान से मनचाहे ढंग से दुनिया का प्रबंधन करवा रहा हो । 
 
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जनवरी 04, 2025

POST : 1936 वैज्ञानिक चिकत्स्क जिनको सामाजिक सरोकार है ( अनूठी मिसाल ) डॉ लोक सेतिया

   वैज्ञानिक चिकत्स्क जिनको सामाजिक सरोकार है ( अनूठी मिसाल ) 

                                 डॉ लोक सेतिया   

बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है जैसा 3 जनवरी 2024 के कौन बनेगा करोड़पति के 105 वें एपिसोड में डॉ कन्हैया जी से अनुभव हुआ जो 2500000 रूपये की जीती हुई धनराशि का उपयोग कोई ऐसा ऐप्प बनाने पर करना चाहते हैं जिस से ज़रूरत होने पर निःशुल्क उपयोग कर लोग कैंसर रोग की जांच समय रहते करवा सकेंगे क्योंकि भारत में विलंब होने से पूरा उपचार नहीं किया जा सकता है । शुरआत में उन्होंने बताया कि बनिया समाज में अधिकांश पिता बेटे से अपनी दुकान संभालने को कहते हैं लेकिन उनके पिता ने उनको शिक्षा हासिल करने को कहा । उन्होंने 3 जनवरी 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जी की पहल पर शुरू किया गया भाभा परमाणु रिसर्च सेंटर में न्यूक्लियर मेडिसिन की शिक्षा प्राप्त की और आजकल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली में विभाग के प्रमुख हैं । उन्होंने समाज को जागरूक करने को बहुत सारी जानकारी शो पर देते हुए बताया कि उनका केबीसी पर आने का मकसद यही है । जब भी ऐसे लोगों से परिचित होते हैं जिनके लिए मानवीय संवेदना का महत्व सबसे अधिक होता है दिल को इक राहत मिलती है और ख़ुशी होती है कि कितने लोग आज भी अपने लिए नहीं समाज के लिए चिंतित रहते हैं । 
 
इसे क्या इत्तेफ़ाक कहेंगे कि उस एपिसोड का अंतिम प्रश्न भी ऐसा ही था , रूस में जब लेनिनगार्ड शहर को घेरा गया था और बर्बाद कर दिया गया था तब उस शहर में स्थापित बीज और पौधों की प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने पौधों को बचाने को अपनी जान तक दे दी थी भूखे मर गए लेकिन वहां पर सुरक्षित पौधों को नहीं खाया था जब पत्थर तक खाने की नौबत आई थी । अब उस शहर का नाम सैंट पीटरगार्ड है , आजकल क्या ऐसा संभव लगता है कि मानवता की भविष्य की सुरक्षा की चिंता करते हुए पढ़े लिखे लोग अपनी ज़िंदगी तक न्यौछावर कर देते थे । खेद है आधुनिक समाज अपनी सुविधा ज़रूरत और महत्वांकाक्षा से ऊपर नहीं देख पाते हैं । नैतिक मूल्यों पर हम कितना निचले स्तर पर पहुंच चुके हैं ऐसे में कोई अनूठी मिसाल बनकर हमको सही राह दिलखाये तो उसको सलाम करना चाहिए । डॉ कन्हैया जी का अभिवादन करते हैं । 
 

 

POST : 1935 तेरी मेहरबानियां ग़ज़ब हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          तेरी मेहरबानियां ग़ज़ब हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

साहब की बात सुनकर लगता है जैसे उनका बड़ा कारोबार है उद्योग है करोड़ों का टर्नओवर है जिस से उन्हने अपना कोई घर नहीं बनवाया बल्कि सब देश की जनता की भलाई की खातिर दान दे दिया । उनकी मेहरबानी से अब सभी अपने पक्के घर में रहते हैं , उन्होंने लोगों से कहा ये बात आप भी सभी से कह सकते हैं मेरे नाम पर अर्थात सभी को अधिकार दे दिया शाहंशाह की तरह फरमान जारी करने को । देश में कितने लोग 2024 में बेघर हैं , नवभारत टाइम्स के अनुसार बेघर लोगों की यह संख्या 2023 की तुलना में 18 फीसद ज्यादा है । इसका मतलब है कि देश के हर 10,000 लोगों में से लगभग 23 लोग बेघर हैं । नेशनल लो इनकम हाउसिंग कोलिएशन के अनुसार , जनवरी 2024 में औसत किराया जनवरी 2021 की तुलना में 20 फीसद ज्यादा था । आंकड़ों को देखना चाहें तो सौ करोड़ में 23 लाख 140 करोड़ में 32 लाख बीस हज़ार लोग बेघर हैं । हम सभी को क्षमा मांगनी चाहिए कि हम अपने प्रधानमंत्री को रहने को कायदे का निवास नहीं दे पाए और उनको किसी झौंपड़ी में रहना पड़ रहा है । सत्ता का कितना बड़ा मज़ाक है इतने आलीशान घर में रहते हैं करोड़ों रूपये रोज़ आप पर रहन सहन पर खर्च होते हैं सैंकड़ों करोड़ अपनी उन यात्राओं पर बर्बाद किये जाते हैं जिन से जनता को कुछ नहीं मिलता सिर्फ आपकी हसरत पूरी होती है दुनिया में अपनी पहचान बनाने की और करोड़ों रूपये उपहार दान अन्य आडंबर करने पर आपके लिए विमान खरीदने पर खर्च होने पर भी आपको लगता है जनता पर उपकार करते हैं । 

क्या देश की संसद की ईमारत थोड़ी थी जो इक नई ईमारत बनवाई गई जब देश में सरकार 80 करोड़ लोगों को भूख से बचने ज़िंदा रहने को राशन देने को मेहरबानी समझती है । कभी सोचते हैं आज़ादी के 77 साल बाद ऐसी हालत है तो कैसी व्यवस्था है । दस सालों में आपके दल का राजधानी में आलीशान भवन ही नहीं बना है सैंकड़ों शहरों में आपके दल के दफ्तर की भवन बनाये गए हैं कभी उन सभी का विवरण भी भाषण में जनता को बताते किसी श्वेत पत्र की तरह । इलेक्टोरल बॉन्ड्स से तमाम अन्य कारनामों की सच्चाई कभी तो सभी को मालूम होगी । जिनकी आलोचना आप ने शालीनता की सीमा का उलंघन कर लाखों बार की होगी उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही अपनी करोड़ों की निजी पारिवारिक संपत्ति देश को दे दी थी क्या कोई अन्य ऐसा करता दिखाई देता है ।