नवंबर 24, 2023

बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

इक छोटी सी घटना ने मुझे वो समझा दिया जिस को समझने में मैंने सालों बिता दिए । इक व्यक्ति जिस को मैंने हमेशा अपना दोस्त माना रास्ते पर चलते फिरते मिल गया । मुझे इक रोग का इंजैक्शन लगा कर मुझसे उसकी कीमत वसूल कर ली जबकि लगाने से पहले अपनी संस्था की समाजसेवा की खातिर उस रोग से बचाव का कार्य समाजसेवा की खातिर कर रहे हैं घोषित किया था । लेकिन मुझे ध्यान आया कि तभी तभी मैंने एटीएम से पैसे निकलवाए थे अन्यथा अपमानित महसूस करता कि जेब ख़ाली थी । तभी उस ने इक और रसीद भी पकड़ा दी कुछ महीने के उस के बिल की जो मैंने कभी मंगवाया भी नहीं और मुझे कभी मिला भी नहीं । आपको अजीब लगेगा कि मुझे उसको पैसे देने से पहले ये बात पूछने का ख़्याल तक नहीं आया । बाद में सोचा ये तो मैं खुद ही मूर्ख बन गया , समझदार होता तो बिना संकोच कहता भाई मुझे इस इंजैक्शन की कोई ज़रूरत नहीं और जिस की रसीद आप ने बना रखी है मैंने कभी मंगवाया नहीं मुझे कभी भेजा ही नहीं गया । आज मुझे अपने सवाल का जवाब मिल ही गया कि जीवन भर मैंने दोस्तों की दोस्ती की खातिर क्या क्या नहीं किया लेकिन तब भी आज कोई भी दोस्त मेरे साथ खड़ा नहीं है । ज़िंदगी ग़ुज़ार दी दोस्ती को ईबादत समझते समझते मगर हासिल कुछ भी नहीं हुआ अब सोचता हूं कहां मुझसे क्या ख़ता हुई जो मुझे ऐसी सज़ा मिली कि अब सोच रहा ' कोई दोस्त है न रकीब है , तेरा शहर कितना अजीब है '।  

आजकल दोस्ती शुद्ध लेन - देन का कारोबार है कुछ आपको चाहिए कुछ उसको जिस से आपको दोस्ती करनी है ये मैंने कभी सोचा तक नहीं था । मैंने दोस्ती की खातिर सब किया जो शायद मेरे बस में नहीं था मगर इक चीज़ कभी नहीं की झूठ फ़रेब और अपनी आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर किसी की गलत बात को सही बताकर रिश्ते बचाना । लेकिन यहां सभी दोस्ती का मतलब दोस्त बनना नहीं दोस्त कहलाना है तो सबको अनुचित और झूठ की राह पर चलने पर भी शाबास बहुत बढ़िया कर रहे हैं बोल कर हौंसला बढ़ाना होता है । सही रास्ता दिखलाना गलत रास्ते जाने से रोकना और सच कहना कि ऐसा क्यों करते हैं आप जब जानते हैं कि ये तरीका ठीक नहीं आपको सभी आलोचक नहीं विरोधी और कभी दुश्मन समझने लगते हैं । दोस्ती निभाने की कीमत सभी चाहते थे जो उनको पसंद है वही बोलना वही करना वही समझना भी , खुद को जो बिल्कुल भी पसंद नहीं अनुचित लगता है साथ देने को उस पर चलना भी और और बिना किसी सोच विचार किए समर्थन भी करते रहना । ये संभव नहीं हुआ हमसे न कभी होगा कि अपने किरदार को खुद ही मिटा दें झूठी दोस्ती की ख़ातिर । 

सच बोलने की आदत ने हमको बर्बाद कर दिया है तो क्या हुआ इस का अफ़सोस नहीं है सच बोलना कोई सामाजिक सरोकार की जनहित की बात लिखने वाला लेखक कभी छोड़ नहीं सकता है । शायर बशीर बद्र जी कहते हैं ' दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे , जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों । मैंने तो जितना भी लिखा है सिर्फ इक दोस्त की तलाश की खातिर ही लिखा है सब उसी को समर्पित है लेकिन दो रचनाएं अपने अनुभव की भी कही हैं ग़ज़ल पेश करता हूं ।

1

सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ।

सच बोलना तुम न किसी से कभी 
बन जाएंगे दुश्मन , दोस्त सभी । 
 
तुम सब पे यक़ीं कर लेते हो 
नादान हो तुम ऐ दोस्त अभी । 
 
बच कर रहना तुम उनसे ज़रा 
कांटे होते हैं , फूलों में भी ।  

पहचानते भी वो नहीं हमको 
इक साथ रहे हम घर में कभी । 

फिर वो याद मुझे ' तनहा ' आया 
सीने में दर्द उठा है तभी । 
 

फिर वही  हादिसा हो गया ( ग़ज़ल )  डॉ लोक सेतिया ।

फिर वही हादिसा हो गया ,
झूठ सच से बड़ा हो गया ।

अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।

कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।

सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया ।

साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।

राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।

हाल अपना   , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।

देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।



 
 
          

नवंबर 23, 2023

प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया

 प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया

आओ मिल कर नज़राने की बात करते हैं , गुज़रे ज़माने के अफ़साने की बात करते हैं । 1961 में इक फिल्म आई थी नज़राना राजकपूर वैजयंती माला नायक नायिका थे , राजिंदर कृष्ण जी का गीत मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में क्या लाजवाब था । गीत के बोल सुनते हैं पढ़ते हैं । 

 नज़राना फिल्म का गीत :-

एक प्यासा तुझे मयख़ाना दिए जाता है 

जाते-जाते भी ये नज़राना दिए जाता है 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को 

साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को , हाय

कश्ती ख़ुशी से जिसने भँवर में उतार दी 

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

जब चल पड़े सफ़र को तो क्या मुड़ के देखना ? हाय

दुनिया का क्या है, उसने सदा बार-बार दी 

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

समझने का फेर है कोई हार कर नहीं हारता कोई जीत कर भी सब हार जाता है जब वक़्त बदलता है हर आशिक़ का उतर बुखार जाता है । नशे की रात बीत जाती है बचा ख़ुमार रह जाता है दिल में बस इक ऐतबार रह जाता है फिर सुबह होगी कुछ पास नहीं लेकिन बकाया उधार रह जाता है । कभी जश्न कभी मातम होता है ज़माना हंसते हुए भी लगता है रोता है । पहले नंबर की कहानी है दूसरे नंबर की यही नादानी है हम अगर नहीं हारते तो उनकी जीत नहीं हो सकती थी और हम घर आये महमान को खाली हाथ नहीं भेजा करते बस जो था पास नज़राना दे दिया । हमने इक खेल को खेल नहीं समझा है हार जीत होना अनोखी बात नहीं लेकिन हमने तो खेल की भावना तक को हार दिया है । कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती कविता सभी को याद रहती है समझा नहीं अर्थ कोई भी । 

छोड़िये राजनेताओं की राजनीति का क्या कहना चुनाव हार कर चिंतन करते हैं क्यों हारे ताकि जिस ने हराया उसको बचाया जा सके और हार का ठीकरा किसी और के सर फोड़ कर राहत का अनुभव किया जा सके । क्या हम पहली बार खेल में हारे हैं या क्या विश्व कप जीतने से हम वास्तव में दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाते । हम तो जाने कब से हारते आये हैं सच कहें तो सब कुछ हार बैठे हैं जो जो भी हमारी पहचान हुआ करती थी कुछ भी हम में बचा नहीं है । प्यार सच्चाई वो सामाजिक सदभावना परोपकार की बातें भाईचारा क्या हम तो अपनी बात पर अडिग रहने की आदत तक भुला बैठे हैं । आज़ादी मिली मगर हमने आज़ाद रहना नहीं सीखा कभी भी गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं होना चाहते और विडंबना ये है कि ऐसे ऐसे किरदार वाले लोगों को अपना मसीहा समझ लिया जिनका कोई ज़मीर तक नहीं था । कड़वी बात है मगर सच है कि हमने खेल के मैदान को जंग का मैदान समझ लिया है जबकि जंग को हमने खेल समझने की भूल की है । सीमा की नहीं ज़िंदगी की जंग भी हमको कैसे लड़नी चाहिए नहीं आती है हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली जीवन जीने का कोई सबक नहीं सिखलाती है । 

हम भूख से हार गए गरीबी से हार गए हम संविधान की भावना सभी के एक समान अधिकार और सब को इक समान न्याय मिलने का मकसद हारे ही नहीं बल्कि कभी जीत ही नहीं सकते क्योंकि हम तो उस राह पर चल रहे हैं जो हमारी मंज़िल से हमको बहुत दूर करता जा रहा है । नैतिक मूल्यों को हमने खुद दफ़्न ही कर दिया है और मतलबी स्वार्थी बनकर गर्व करते हैं कि हम कितने आगे बढ़ गए आधुनिक लोग हैं जिस में समाज की संरचना में सिर्फ दरारें ही दरारें दिखाई देती हैं । हम बातें करते हैं महान आदर्शवादी अपने इतिहास के नायकों की उनकी कहानियां पढ़ते हैं उनकी बताई राह पर कभी चलते ही नहीं । धर्म को लेकर सभी बड़ी शानदार बातें करते हैं लेकिन जीवन भर व्यर्थ की भागदौड़ और कंकर पत्थर जोड़ते रहते हैं हीरे मोती की बात क्या हमने तो पीतल को सोना समझने और आडंबर करने की नादानी की है । उम्र भर बेकार की चीज़ों को लेकर सोचते रहे और जो जैसा समाज मिला उस को बेहतर बनाने को लेकर कुछ करना ज़रूरी नहीं समझा बल्कि हमने तो हवा पानी वातावरण धरती पेड़ पौधे सभी को बर्बाद ही किया है ।  आख़िर में इक ग़ज़ल पयाम सईदी की सुनते हैं । 
  
हम दोस्ती एहसान वफ़ा भूल गए हैं
ज़िंदा तो है जीने की अदा भूल गए हैं ।

ख़ुशबू जो लुटाती है मसलते हैं उसी को
एहसान का बदला यही मिलता है कली को
एहसान तो लेते है, सिला भूल गए हैं ।

करते है मोहब्बत का और एहसान का सौदा
मतलब के लिए करते है ईमान का सौदा
डर मौत का और ख़ौफ़-ऐ-ख़ुदा भूल गए हैं ।

अब मोम पिघल कर कोई पत्थर नही होता
अब कोई भी क़ुर्बान किसी पर नही होता
यूँ भटकते है मंज़िल का पता भूल गए हैं ।

-पयाम सईदी 
 




नवंबर 22, 2023

ख़ामोश हो , उदास हो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ामोश हो , उदास हो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ दूर हो कुछ पास हो 
कैसा हसीं अहसास हो ।  
 
हम को ख़िज़ा का डर नहीं 
जब प्यार का मधुमास हो । 
 
हम अब अकेले हैं तो क्या 
इक दिन है मिलना आस हो । 
 
तुमको बताएं किस तरह 
तुम कौन हो क्यों ख़ास हो । 
 
पहला था जो अंतिम भी है 
हर पल वही आभास हो । 
 

 
 
 

नवंबर 21, 2023

आई लव माय इंडिया ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

    आई लव माय इंडिया ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया 

साड़ी - सूट चप्पल - जूते  
सब जिस रंग उसी रंग की 
माथे पर है सजती बिंदिया 
लो बन गया भारत इंडिया । 
 
बदले नेता गए बदल दल 
हुई समस्या कभी न हल 
रिश्वत लाल-फ़ीताशाही वही 
काठ की चढ़ती रहती हंडिया । 
 
लोकतंत्र का नाच है नंगा 
मैली और हो गई है गंगा 
अपराधी सब झूम रहे हैं 
नाचती सत्ता की रंडिया । 
 
लगती है नेताओं की भी मंडी 
इस बाज़ार में नहीं आती मंदी  
भिंडी बाज़ार लगते हैं सदन 
सबको ललचाती है भिंडिया । 
 
देखा देशभक्ति का हुआ तमाशा 
तोला माशा जनता की हताशा  
चाहे कुछ होता होने दो यारो 
झूमो गाओ आई लव माय इंडिया ।  
 
 

( 11 सितंबर 2003 की डायरी पर लिखी पुरानी रचना संशोधित किया है। ) 


 

ख़्वाब तो ख्वाब थे अब ताबीर दिखा दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

ख़्वाब तो ख्वाब थे अब ताबीर दिखा दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

ख़्वाब तो ख़्वाब थे अब ताबीर दिखा दो 
खूबसूरत नई इक तस्वीर बना दो । 
 
रहनुमा किस तरह सब बर्बाद हुआ है 
अब छुपाओ नहीं कुछ सब साफ़ बता दो । 
 
राम का राज कहते रहते सब रावण 
ज़ालिमों के महल की बुनियाद हिला दो । 
 
आप कछुए नहीं हम ख़रगोश नहीं हैं 
इस नये दौर के कुछ किरदार पढ़ा दो ।
 
तुम खिलाना मुहब्बत के फूल हमेशा 
दोस्तो नफ़रतों को मत और हवा दो । 
 
रौशनी को घटाएं क्या रोक सकेंगी 
बन के सूरज अंधेरों को जड़ से मिटा दो ।
 
सबको आता यहां पर बस आग लगाना 
आप बारिश करो ' तनहा ' आग बुझा दो ।   
 

  ( 11 सितंबर 2003 को लिखी डायरी पर रचना संशोधित किया है। ) 


 

नवंबर 20, 2023

हास्य रस की चौपाइयां - डॉ लोक सेतिया

        हास्य रस की चौपाइयां - डॉ लोक सेतिया

 
सबक सिखाने को इक हस्ती है आई , करना सभी लोग बस नेक कमाई 
अपने दिलों से मिटा कर गहरी खाई , रहो मिल जुल बनकर सब  भाई भाई ।
 
बड़े प्यार से पास सभी को बुलाया , ख़ुदा ने भेजा फ़रिश्ता ज़मीं पे आया 
बंद करवा आंखें सच दिखलाया , सूरत सभी की असली नज़र थी आई । 
 
सबको पाप पुण्य का भय जो दिखाता , खुद उसका नहीं कोई बही खाता 
धर्म बेचता धर्म खरीदता सुबह शाम  , मत पूछो उसकी कैसी है चतुराई । 

विद्यालय का शिक्षक है भाग्य विधाता , पढ़ाई ट्यूशन फीस लेकर पढ़ाता 
चमचों को नकल करवा उत्तीर्ण कराए , शिक्षा से करता रहता है गुरुआई ।
 
डॉक्टर है ये इक सरकारी लगी है जिसे , ड्यूटी पर नहीं रहने की बिमारी 
निजी अस्पताल में उपलब्ध हमेशा है , सबको लूटता हमेशा ही हरजाई । 
 
ऊंची दुकान पर मीठे फीके पकवान , बिकता खूब मिलावटी सामान है 
तोल मोल कर बोलता मधुर बोल , होती तभी दोगुनी से चौगनी कमाई ।  
 
नेता कितना बड़ा चाहे हो छोटा , नहीं कभी भी सगा किसी का होता 
शहर राज्य देश सबका है लुटेरा , फिर भी कहलाता सबका है भाई ।
 
फ़र्ज़ नहीं निभाना उसको है आता , हरदम रहे मौज मनाता इतराता 
कागज़ी महल भी खूब बनाता जाता , हर अधिकारी होता करिश्माई । 
 
दूध है कितना कितना मिला पानी , बड़ी अजब है उसकी भी कहानी 
क्रीम मख़्खन पनीर दूध मलाई  ,  असली क्या नकली की कठिनाई । 
 
इक बाबा बना है बड़ा कारोबारी , गली गली जिसकी दुकान खुलती 
नाम पे उसके सब बढ़िया इश्तिहार  , खुद ही अपनी बजाए शहनाई ।
 
ताज़ी कहकर बासी दे जाये सब्ज़ी , दाम चौगने पर फिर भी सस्ती 
तराज़ू और गिनती में गड़बड़ है ज़रा  , बस नहीं है कुछ भी और बुराई ।
 
नगरपालिका का है इक कर्मचारी , होगा भला वह कैसे कोई अनाड़ी
तीज त्यौहार उपहार की खातिर , होती गली की पूरी तरह सफाई । 
 
सबको आईने सामने बिठा कर , इधर उधर की हर खबर सुनाकर
बाल संवारे ख़िज़ाब लगाए जो , हेयर सैलून पार्लर है अब नहीं नाई ।  
 
पत्नी को है रोज़ सताता जो ,  हरदम दहेज के ताने रहता सुनाता 
माल ससुर का सब खा जाता , बड़ा बेशर्म होता है ऐसा भी जंवाई ।    
 

 
 
   
 
 

उस की अदालत में पक्षपात नहीं होता ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 उस की अदालत में पक्षपात नहीं होता ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

अपने आस पास देखना इक न इक शख़्स आपको नज़र आएगा जो बड़ा शांत स्वभाव से साधारण ढंग से जीवन जीता है ।  किसी से कोई लड़ाई झगड़ा नहीं कोई छल कपट धोखा चालाकी नहीं करता न ही अपने आप को कोई ख़ास समझता है मन में किसी तरह का कोई अहंकार नहीं रखता है । शायद ही उसको ज़िंदगी में कोई असहनीय दुःख मिलता है बल्कि कभी किसी अन्य कारण से उसको कोई दर्द घाव मिले भी तो खुद ब खुद ठीक भी हो जाता है । मैंने देखा है कुछ ऐसे बज़ुर्गों को जो हमेशा अच्छे कर्म करते थे कभी धार्मिकता का प्रदर्शन नहीं करते थे । मैं समझता हूं उनको भगवान से कभी अपने पापों की क्षमा नहीं मांगनी पड़ी होगी और उनको कभी मानसिक तनाव और कोई पछतावा कितना पाया कितना नहीं हासिल हुआ को लेकर शायद नहीं रहा होगा । 
 
अब बात करते हैं हम जैसे सभी साधारण लोगों की ,  हम बहुत कुछ नहीं सब कुछ सबसे ज़्यादा पाना चाहते हैं और अपने मतलब की खातिर किसी से भी अनुचित व्यवहार कर सकते हैं । हम सुबह शाम भगवान से अपने पापों की अपराधों की क्षमा मांगते हैं । सोचते नहीं कि ईश्वर पक्षपात नहीं कर सकता है किसी को अनजाने में की भूल की माफ़ी दे सकता है लेकिन किसी अन्य व्यक्ति से किए गलत आचरण की माफ़ी कभी नहीं दे सकता क्योंकि ऐसा करने से पीड़ित व्यक्ति को न्याय नहीं मिल सकता है । अब थोड़ा ध्यानपूर्वक देखना कितने लोगों ने तमाम छल कपट धोखा साज़िश कर बड़ा लंबा चौड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया लेकिन धन दौलत नाम शहरत सब पाकर भी खुशहाल ज़िंदगी नहीं मिल पाई । जीवन भर दुःख दर्द परेशानियां और पीड़ा मिलती रहती है तब अपने पापों का प्रायश्चित नहीं क्षमा मांगते रहते हैं जो मिलती नहीं है । वास्तव में हमको भगवान से अपने अपराधों की सज़ा मांगनी चाहिए माफ़ी नहीं क्योंकि जिन जिन से भी हमारे कारण अन्याय हुआ उसका प्रायश्चित हो सके । मुझे नहीं लगता उस की सब से बड़ी अदालत में कोई दलील किसी के गुनाहों की सज़ा से बचा सकती है । विधि के विधान की बात सभी जानते हैं जैसे कर्म करते हैं भले-बुरे ठीक वैसा ही फल मिलता है बबूल बोने वाले आपको आम खाते मिल सकते हैं लेकिन उनके बाग़ में कांटे उगते हैं फल नहीं ये आपको नहीं पता कि बिना मेहनत आम खाने वालों की वास्तविकवता क्या है । साधारण लोगों की बात छोड़ उनकी बात करते हैं जो पेड़ नहीं लगाते पर आम खाने का जुगाड़ कर लेते हैं । 

शासक वर्ग यही करता है चलिए इक इक बात को विवरण सहित समझते हैं , प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री या चाहे किसी भी बड़े से बड़े पद पर नियुक्त होकर कोई वेतन सुविधाएं अधिकार उपयोग करता है लेकिन अपना कर्तव्य सच्चाई ईमानदारी और शुद्ध अंतकरण से निभाता नहीं है तो वो सबसे बड़ा गुनहगार है । विडंबना देखिए ये सभी क्या करते हैं अन्य सभी अधीनस्थः कर्मचारियों को समय पर दफ़्तर आने का नियम पालन करने को आदेश जारी करते हैं ख़ुद कभी उसका पालन नहीं करते हैं । ये अनुचित है कि कोई अधिकारी घर से ही तथाकथित कैंप ऑफिस की व्यवस्था कर मनमानी करे जब मर्ज़ी कार्य करे नहीं करे । इक बात और जो सामान्य लगती है प्रशासनिक अधिकारियों की अनावश्यक बैठकों का ताम झाम किसी पार्टी की तरह जलपान की भोजन की व्यवस्था जो उनकी घरेलू और दफ़्तर के समय के बाद होनी चाहिए । शासक नियुक्त होने का मतलब ये नहीं होना चाहिए कि आप देश राज्य शहर का कार्य करने को अनदेखा कर इधर उधर सैर सपाटा या किसी सभा समारोह में अपनी शान दिखाने या भाषण देने पर अपना समय और साधन उपयोग करें या अपनी राजनीति को बढ़ावा देने का प्रचार करने का कार्य करें । आपका राजनैतिक दल अलग है जिस की चिंता शासन और सरकार की नहीं होनी चाहिए । आपको किस धर्म देवी देवता में आस्था है उसका शासन सरकार से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए । इस प्रकार का आयोजन ख़ुद सभी की निजी आय से और व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए । सरकारी दफ़्तर सरकारी कार्य के लिए हैं किसी आपसी मेल मिलाप या संबंध बनाने की जगह नहीं है ।

जितना भी धन साधन और समय सरकारी प्रशासन मंत्री अन्य पुलिस सुरक्षा बल न्यायपालिका के लोग ऐसे सरकारी संसाधनों से खर्च करते हैं उसको जुर्म से बढ़कर संगीन अपराध नहीं पाप समझा जाना चाहिए । अफ़सोस है यही होता रहता है और किसी को ऐसे जनधन की बर्बादी करते संकोच नहीं होता है । शासक नियुक्त होने से कोई देश का मालिक नहीं बन जाता जैसा हर राजनेता और अधिकारी मानने लगते हैं । जो लोग सार्वजनिक पदों पर बैठ सबसे अधिक अपने वर्ग नेताओ अधिकारियों के लिए शानदार भवन आदि निर्माण करते हैं उनको पहले सुनिश्चित करना चाहिए कि जिन्होंने उनको पद पर बिठाया है या जिन की आय से कर एकत्र कर उनका वेतन मिलता है क्या उनको सब हासिल है सुख सुविधाएं उपलब्ध हैं । जब तक अधिकांश जनता को बुनियादी सुविधाएं नहीं उपलब्ध करवाई जा सकती उनकी शानो शौकत अपने अधिकारों का गलत मनमाना उपयोग अक्षम्य अपराध है , अफ़सोस ऐसा करने वाले दावे करते हैं कि उन्होंने जनता को क्या क्या दिया है जबकि बात इस के विपरीत है उन्होंने जनधन की लूट ही की है बर्बाद किया है । 

इक वर्ग है अख़बार टीवी चैनल सोशल मीडिया जिन्होंने अपना दायित्व भुला दिया है और देश समाज को सच दिखाने की बजाय झूठ को सच साबित करने लगे हैं । ये वो लोग हैं जिन्हें अंधेरा मिटाना था मगर ये खुद अपनी चकाचौंध में अंधे होकर विज्ञापन और विशेषाधिकार पाने की दौड़ में अपना रास्ता भटक गए हैं । आज़ादी के बाद न केवल सबसे अधिक नैतिक पतन इनका हुआ है बल्कि यही समाज की देश की बदहाली के लिए उत्तरदायी भी हैं क्योंकि इन्होने अंधेरे को सूरज नाम देने का कार्य डंके की चोट पर किया है । कुछ चाटुकार लोग सरकार अधिकारी से अनुकंपा पाकर समाजसेवी का चोला पहन अपना घर भर रहे हैं सरकारी खज़ाने से धन प्राप्त कर के । उद्योगपति धनवान व्यौपारी शासक से मिलकर जनता पर खर्च होने वाला पैसा अपनी तिजोरी भरने का अपराध करते हैं लेकिन मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरुद्वारे को दान देने का दिखावा कर अपने पापों को ढकने की कोशिश करते हैं जबकि सब जानते हैं उनकी अमीरी कैसे बढ़ती है । उपरवाले की अदालत में न्याय होगा कोई पक्षपात नहीं इसलिए जीवन में ऐसे अपकर्म मत करें की उसकी अदालत में कटघरे में मुजरिम बनकर खड़ा होना पड़े । 



 

नवंबर 12, 2023

अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

              अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

चाहता था कुछ कहना 
लग रहा जैसे बेज़ुबान था ,
सड़क किनारे खड़ा हुआ 
दुनिया का वो भगवान था । 
 
भूल गया था जैसे कोई 
अपना ही पता ठिकाना ,
खुद बनाया था सबको 
सब से मगर अनजान था । 
 
मंदिर के दर पर गया फिर 
मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ा ,
पंडित को देख परेशान था 
मौलवी से मिल हैरान था । 
 
ढूंढ ढूंढ थक गया मिला न
उसको घर अपना कहीं भी ,
जहां पर थी कल इक बस्ती 
वहां पे बना हुआ श्मशान था ।
 
बे-शक़्ल आदमी थे या कि 
हर तरफ दिख रहे शैतान थे ,
थर- थर्राता - सा खड़ा वहां 
इक किनारे पे छुपा ईमान था ।  
 
लिखा था लाशों पर सभी 
ये हिंदू था वो मुसलमान था ,
वो बनाता रहा हमेशा से ही 
सिर्फ और सिर्फ इंसान था । 
 
मैंने क्या बनाया था इनको 
और ये कैसे ऐसे बन गये हैं ,
देख कर हाल दुनिया का वो 
हुआ बहुत अधिक पशेमान था ।  

(    बहुत  पुरानी डायरी से पुरानी लिखी रचना है । व्यंग्य-यात्रा पत्रिका के अंक में भी शामिल है    ) 
 

 
 
 



     

नवंबर 11, 2023

समंदर जैसी फ़ितरत वाले लोग ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

   समंदर जैसी फ़ितरत वाले लोग  ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

दान उपकार का शोर मचाने वाले अपनी दयालुता का ढिंढोरा पीटने वाले कमाल का आत्मविश्वास रखते हैं । इधर तो आजकल विज्ञापन देते हैं इस को खरीदने पर एक रुपया किसी सामाजिक कार्य में उपयोग किया जाएगा । कौन बनेगा करोड़पति शो में यही दिखाई दिया हर सवाल के सही जवाब पर घी आटा चावल सौ किलो इक संस्था जो भूखों को खाना खिलाती है उसको दान दिया जाएगा । बार बार गिनती बताते कितनी संख्या का सामान हुआ है बढ़ता ही जा रहा है । कुछ ऐसा लगा जैसे समंदर शोर कर रहा हो उस ने कितना पानी बादलों को दिया है और उनसे कितनी धरती पर बारिश होती है । बादलों ने कभी इस बात पर अभिमान नहीं किया कि उसने कितना पानी बरसात कर नदियों तालाबों खेत खलियानों को बांटा है । हम कभी बेमौसमी बारिश की शिकायत करते हैं कभी बादल नहीं बरसते तो सूखे से गर्मी से परेशान होते हैं तो कभी अधिक पानी बरसे तो बाढ़ से परेशान होते हैं । बादलों से शिकवे हज़ार किए जाते हैं उनसे प्यार कभी कोई नहीं करता आशिक़ तक उनके गरजने से बिजली कड़कने से धड़कन बढ़ने की बात करते हैं । बड़े नाम वाले लोग तमाम देशों की सभी सरकारें भी अन्य देशों की सहायता करते हैं भले खुद देश के कितने नागरिक भूखे गरीब और बेहाल ज़िंदगी बसर करते हों । इक पुरानी कहानी है किसी देश के राजा ने अपने पड़ोसी देश के राजा से बढ़कर दानी कहलाने को उस देश के तमाम भिक्षुक साधु संतों को अपने दरबार में आमंत्रित किया और सभी को कीमती उपहार हीरे जवाहरात सोना चांदी के मोहरे भर थैलियां भेंट देकर कहा आपको अपने देश में जाकर बताना है हमारे देश का शासक कितना बड़ा दानवीर है । इक सच्चे साधु को लगा ऐसे अभिमानी शासक को किस तरह सबक सिखाना चाहिए और उस ने राजा से मिला सब कुछ दरबार से बाहर निकलते ही वहां के लोगों को बांटते हुए कहा कि अपने देश के राजा को बता देना कि पड़ोसी जिस देश का इक भिखारी साधु भी जितना भी मिला पास हो गरीबों में बांट देता है उसका राजा कैसा होगा । वास्तविक शासक कभी सामाजिक कल्याण करने या गरीबों की ज़रूरतमंदों की सहायता करने पर खुद अपनी बढ़ाई नहीं करते बल्कि अपना कर्तव्य निभाते हैं । उनको जनता ने कर देकर खज़ाना भर समर्थ बनाया जनहित करने को या फिर ईश्वर ने उनको अधिकार दिया समाज का कल्याण करने को । समझने को इक घटना की बात ज़रूरी है । 
नवाब रहीम और गंगभाट की बात आपने सुनी है या नहीं फिर से दोहराते हैं । रहीम इक नवाब थे जो रोज़ सहायता मांगने वालों की सहायता करते थे तब उनकी नज़रें झुकी रहती थी इक कवि गंगभाट ने ये देखा तो दोहा पढ़कर सवाल किया इस तरह से ।                           

गंगभाट :-

सिखियो कहां नवाबजू ऐसी देनी दैन , ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें त्यों त्यों नीचे नैन । 

अर्थात नवाब साहब ये आपका अजीब तरीका लगता है जब भी किसी को कुछ सहायता देते हैं उसकी तरफ नहीं देखते अपनी नज़रें नीचे को झुकी हुई होती हैं । 

रहीम :-

देनहार कोऊ और है देवत है दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन । 

  रहीम के कहने का मतलब था देने वाला तो वही भगवान है लोग समझते हैं कि मैं दे रहा तभी मेरी नज़रें झुकी रहती हैं ।  कितनी अफ़सोसजनक बात है हम सभी वास्तविक मानवधर्म की परिभाषा भूल गए हैं मंदिर मस्जिद से लेकर रोज़ कितने आयोजन अनुष्ठान करने पर धन खर्च करते हैं जबकि हमारे करीब कितने लोग दो वक़्त रोटी पानी को तरसते हैं । सरकार खुद नेताओं अधिकारियों के अनावश्यक शानो शौकत के दिखावे पर व्यर्थ के आयोजनों सभाओं पर पैसा पानी की तरह बहाती है जबकि देश की आधी आबादी बदहाली में रहती है । इक धर्म का नियम समझाया गया है अपनी आमदनी वो भी सच्ची महनत की कमाई से खुद भी जीना और उसी का दसवां भाग अन्य लोगों की सहायता करने पर खर्च करना इंसानियत कहलाता है । आपस में मिल बांट कर खाना अनिवार्य है । जो लोग किसी भी तरह अधिक से अधिक कमाई करते हैं उनका सामाजिक कार्यों पर नाम मात्र को इक अंश देना वैसा है जैसे किसी नदिया से कोई चिड़िया चौंच भर पानी ले जाए , लेकिन इतने पर भी जो रईस अमीर खुद को शाहंशाह समझते हैं उनको क्या कहा जाए । देश का अधिकांश धन संपदा केवल कुछ सौ या हज़ार लोगों की तिजोरी में होना ईश्वर या भाग्य की बात नहीं बल्कि आधुनिक अर्थव्यवस्था की नाकामी है जिस में समानता कभी संभव ही नहीं है । जब तक अमीर गरीब में इतनी बड़ी खाई है हम अपने देश को महान और आदर्शवादी नहीं नहीं मान सकते हैं । समंदर को भी कभी हिसाब देना होगा उस को कितना कहां कहां से कैसे मिला है वास्तव में जैसे नदियों का मीठा जल समंदर से मिलते खारा हो जाता है वही दशा अमीरों के भरे खज़ाने की है ।  


                                 शायर जाँनिसार अख़्तर कहते हैं :-

                         शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहां 

                          न मिले भीख़ तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । 


 



नवंबर 09, 2023

अंजाम जानते हैं आगाज़ से पहले ( ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया

       अंजाम जानते हैं आगाज़ से पहले ( ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया  

आपने कभी पानी को नीचे धरती से पर्वत की तरफ बहते देखा है कहने को उलटी गंगा बहाना कहावत है । ये अजब ग़ज़ब इधर बहुत दिखाई देने लगा है चाहे कोई कथा कहानी चाहे कोई संदेश वीडियो या किसी भी अन्य माध्यम से सोशल मीडिया पर मनचाहा उपदेश देने को इक काल्पनिक घटना बनाई जाती है यकीन नहीं तो थोड़ा गौर से यूट्यूब फेसबुक व्हाट्सएप्प पर नज़र डाल कर देख सकते हैं । आपको तार्किक ढंग से समझाने वाले भी अपने मनघड़ंत किस्से बना लेते हैं । कुछ लोग पहले दवा बनाते हैं उस के बाद किस रोग का ईलाज उस से किया जा सकता है इस को लेकर शोध करते हैं । साहित्य में अच्छी लाजवाब बेमिसाल कहानी तभी बनती है जब लिखने वाला अगले पन्ने पर तो क्या अगले पहरे में क्या लिखेगा खुद नहीं जानता है । ये टीवी सीरियल वाले ये आधुनिक फिल्म निर्माता सब पहले निर्धारित कर जो भी करते हैं सिर्फ पैसा कमाने को किसी भी सामाजिक सरोकार या बदलाव की खातिर नहीं । दर्शक को कुछ मिले न मिले उनको मनचाहा मुनाफ़ा मिल जाए तो सफ़लता कहलाती है । जिस कथा कहानी से दर्शक पाठक को कुछ नया सार्थक समझने को नहीं मिलता उस का महत्व कुछ भी नहीं सिर्फ व्यौपार धंधा करना कारोबार करना साहित्य या कला अथवा संगीत या अभिनय का मकसद कभी नहीं होना चाहिए । 
 

इक कल्पना करते हैं कि कोई आधुनिक ऐप्प या ऐसा कोई यंत्र जो तमाम आंकड़े एकत्र कर इक सही निष्कर्ष निकाल सकता हो बन जाए तो नतीजे क्या होंगे । आधुनिक फ़िल्मकार अभिनेता टीवी सीरियल निर्माता को लेकर पता चलेगा कि उन्होंने इतना पैसा अर्जित किया लेकिन उनकी कहानियों अभिनय से दर्शक को सबक मिला हिंसक होने का उचित अनुचित की चिंता छोड़ जो मर्ज़ी करने का और प्यार जंग की तरह कारोबार में सब करना उचित है समझने का जिस से समाज रोगी बन गया है । समाज को नग्नता और अश्लीलता और असभ्य भाषा गाली गलौच अभद्रता को वास्तविकता समझ अपनाना स्वीकार करना का पाठ पढ़ाने वाले किस समाज की स्थापना करना चाहते हैं । आजकल तो नशा और खुलेआम शारीरिक संबंध बनाना हर फ़िल्म सीरियल का हिस्सा बन गया है और अब तो टीटी माध्यम से सीरीज़ ने गंदगी की हर सीमा लांघ दी है । मनोरंजन की आड़ में सब कुछ नहीं होना चाहिए स्वस्थ मनोरंजन का लक्ष्य है अच्छी और उच्चकोटि की नागरिकता का निर्माण करना साथ ही मानसिक रूप से शारीरिक रूप से तंदरुस्त बनाना । इसके साथ ही इसमें अच्छी आदतें विकसित करना और उसको चरित्र वाले गुणों से विकसित करना उसके उद्देश्य हैं। एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना आवश्यक उद्देश्य है ।

कमाल की बात है ये सभी दर्शक को हिंसा गुंडागर्दी और असंभव को घटित होता दिखाने के बाद कहते हैं कि हम आपको वास्तविक जीवन में ऐसा आज़माने की सलाह नहीं देते बल्कि ऐसा करना ख़तरनाक साबित हो सकता है । माजरा खतरों से खेलने तक का नहीं है ये तमाम खिलाड़ी आपको हानिकारक खाद्य पदार्थ को उपयोग करने को ललचाते हैं जुए जैसी खराब लत की तरफ धकेलते हैं सिर्फ विज्ञापन से खूब कमाई करने को अपने चाहने वालों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते हैं । हमने कैसे कैसे नायक बना लिए हैं जिनका असली किरदार ख़लनायक से भी बढ़कर हानिकारक साबित होता है । ऊंचा उठने को कितना नीचे गिर रहे हैं और हम ये सब बेहूदगी आखिर क्यों सह रहे हैं । वो अंधकार को उजाला बता रहे हैं और हम अपनी आंखें बंद कर उनकी दिखाई राह चलते हुए ठोकर पे ठोकर खा रहे हैं । चिड़िया खेत चुग रही और हम लोग ताली बजा रहे हैं सच कहने वाले बोलकर पछता रहे हैं । काश कोई कहानी लिखने का वही पुराना अंदाज़ वापस लौटा सके , इक ग़ज़ल पढ़ते हैं ।

अब सुना कोई कहानी फिर उसी अंदाज़ में ( ग़ज़ल ) 

          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब सुना कोई कहानी फिर उसी अंदाज़ में
आज कैसे कह दिया सब कुछ यहां आगाज़ में ।

आप कहना चाहते कुछ और थे महफ़िल में ,पर
बात शायद और कुछ आई नज़र आवाज़ में ।

कह रहे थे आसमां के पार सारे जाएंगे
रह गई फिर क्यों कमी दुनिया तेरी परवाज़ में ।

दे रहे अपनी कसम रखना छुपा कर बात को
क्यों नहीं रखते यकीं कुछ लोग अब हमराज़ में ।

लोग कोई धुन नई सुनने को आये थे यहां
आपने लेकिन निकाली धुन वही फिर साज़ में ।

देखते हम भी रहे हैं सब अदाएं आपकी
पर लुटा पाये नहीं अपना सभी कुछ नाज़ में ।

तुम बता दो बात "तनहा" आज दिल की खोलकर
मत छिपाओ बात ऐसे ज़िंदगी की राज़ में ।
 

 
 
 

 

नवंबर 08, 2023

ना इधर के रहे ना उधर के रहे ( गोरा-काला ) डॉ लोक सेतिया

   ना इधर के रहे ना उधर के रहे ( गोरा-काला ) डॉ लोक सेतिया 

हर दिन ख़ास होता है भले कसी दिन जश्न मनाते हैं किसी दिन अफ़सोस जतलाते हैं । 8 नवंबर का भी अपना महत्व है शायर की भाषा में कह सकते हैं " ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल ए सनम , ना इधर के रहे ना उधर के रहे "। लेकिन जिनको बस कुछ कर दिखाना होता है उनको ऐसी बातों से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता खाया पीया कुछ नहीं गलास तोडा बारह आना की बात है । लेकिन सच कहें तो किसी ने खूब जमकर खाया ही नहीं यारों को खिलाया भी है उनके दरबार में हर दिन दावत होती है । इक पंजाबन कहती है काला शाह काला मेरा काला हे सरदार गोरियां नूं दफ़ा करो । शहंशाह को भी तमाम चाहने वाले इसी तरह से दिल से चाहते हैं कोई दाग़ दिखाई नहीं देता जब कभी कालिख़ भी कोयले की कोठड़ी से लग जाए तो नज़र से बचने का काला टीका समझते हैं । राजनेताओं से देश समाज को क्या मिलता है इस विषय पर इतिहासकार चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि ये माजरा थोड़ा अलग है । जिस राजनेता ने आपात्काल घोषित किया उनको सिर्फ बदनामी मिली मगर उसी का नतीजा कितने विपक्षी दलों के राजनेता सत्तासुख भोग रहे हैं । ऐसे भी बहुत हैं जो पकड़े जाने के डर से भागे छुपते फिरते थे अब शेर की तरह दहाड़ते हैं । जनता की और बात है कोई भी शासक हो उसको कुछ नहीं हासिल होता वोट देकर हासिल बेबसी लाचारी होती है आज़ादी क्या है इक पहेली है जिस का अभी हल किसी को नहीं समझ आया है । सरकारों से संसद से विधानसभाओं से क्या क्या और कैसे कैसे कानून बनाये गये हैं लेकिन मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की जैसी हालत है । 
 
सिर्फ काला धन ही नहीं बढ़ता गया बल्कि गरीबी भूख बेरोज़गारी शोषण अन्याय अत्याचार सभी खूब फलते फूलते रहते हैं अपराधी हंसते हैं जब बड़ी से बड़ी अदालत कहती है हमारा बुलडोज़र चला तो मुश्किल होगी । बच्चो संभल जाओ हैडमास्टर जी छड़ी दिखा रहे हैं इक समस्या है छड़ी से उनकी कलाई को मोच आने की चिंता रहती है । जिनको संविधान मंज़ूर नहीं कोई उनसे नहीं पूछता कि आपका सारा वजूद उसी के आधार पर है अगर कोई पहले यही सोचता तो आपका क्या होता , तेरा क्या होगा कालिया सरकार गब्बर सिंह की तरह काला धन से पूछ रही है । मैंने आपकी तिजोरी भरी है रिज़र्व बैंक से आंकड़े आये हैं अब सभी लोग दूध के नहाये हैं आपकी अनुकंपा है अपराधी गुंडे जीते हैं सांसद विधानसभाओं की शोभा बढ़ाये हैं माननीय और आदरणीय कहलाये हैं । सभी अपने पिया मन भाये हैं अदालत से गुनहगार भी शासक से कलीन चिट लाये हैं और सभी शरीफ़ लोग देख कर घबराये हैं लौट कर बुद्धू घर आये हैं । हम चांद की सैर कर ज़मीन पर वापस आये हैं कांटों के गुलशन हर जगह लहलहाये हैं उनके लिए हमने कालीन बिछाये थे हमारे लिए जिन्होंने राहों में कांटे ही कांटे बिछाये हैं । सत्ता ने अजब दस्तूर बनाये हैं धूप वाले साये हैं ये कैसे पेड़ लगाये हैं ।  काला धन बढ़ गया है विदेशी बैंक से राजनैतिक दलों का सबका ख़ज़ाना भर गया है । काला धन कितना था कितना सफेद कोई हिसाब नहीं लगाया गया आज तक , लेकिन जब सरकार ने उनका भेदभाव मिटाने को दोनों को इक साथ मिला दिया तब काला और सफेद रंग मिलकर जो नया रंग बना । साथ साथ मिलाने से काला काला नहीं रहता सफेद सफेद नहीं रहता उनके मिलन से ग्रे रंग बन जाता है अब कोई भी पूरी तरह से खराब नहीं न ही कोई पूरी तरह से अच्छा सब कुछ भले कुछ बुरे बन गये हैं । नोटेबंदी ने कमाल कर दिया है हुआ कुछ भी नहीं बस इक धमाल कर दिया है ।

 

अंत में इक हास्य कविता अच्छे दिन आने की पढ़ना लाज़मी है । 

          अब अच्छे दिन आये हैं ( हास्य-व्यंग्य कविता ) 

सुन लो  बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं
तिगनी का नाच नचाने को हमने , लंगड़े सभी बनाये हैं
 
हाल सब का इक जैसा होगा , काले भी गोरे बन जायेंगे
अपने रंग में रंगना सब को , अपनी पाउडर बिंदी लाये हैं ।

मुर्दों की अब बनेगी बस्ती , ऐसी योजना बनाई है हमने

होगी नहीं लाशों की गिनती , क़ातिल की होती रुसवाई है । 

अपने दल की टिकेट देकर , जितने अपराधी खड़े किये हैं
माननीय बन शरीफ कहलायें , इंकलाब क्या कैसा लाये हैं ।

सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।

सब इश्तिहार हमारे देखो तुम , झूठे हैं या सच्चे हैं हम

हम सब छप्पन इंच के हैं अब , बाकी तो अभी बच्चे हैं

मत देखो जो कुछ भी बुरा है , तुम गांधी जी के बंदर हो
जो सत्ता कहती सच वही है , सच की परिभाषा बनाये हैं ।

सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।
 

 

नवंबर 07, 2023

ख़राब नशा छोड़ अच्छा नशा अपनाओ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 ख़राब नशा छोड़ अच्छा नशा अपनाओ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

कल 6 नवंबर को कौन बनेगा करोड़पति शो की ख़ास महमान थी मुक्तांगन नशामुक्ति केंद्र पुणे की संचालिका मुक्ता पुणतांबेकर जी । शराब गांजा चरस से लेकर कितने ही नशे को लेकर सरकार से सामाजिक संगठन ही नहीं शासक प्रशासक से बड़े बड़े नायक महानायक समझे जाने वाले साधारण लोगों को समझाते हैं । लेकिन कल पहली बार खुद अमिताभ बच्चन जी सवाल कर बैठे कोई और भी नशा है जिस को लेकर आपको या सभी को चिंतित होना चाहिए । मुक्ता जी ने बताया और तथ्य सहित समझाया कि स्मार्ट फ़ोन वीडियो गेम से लेकर सोशल मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप्प सभी का उपयोग दुरूपयोग कुप्रयोग अर्थात इस्तेमाल करने से अनुचित इस्तेमाल से भी आगे गलत या हानिकारक ढंग से इस्तेमाल किया जाता है । शायद किसी भी उस सभा में उपस्थित अथवा शो के दर्शक को महसूस हुआ होगा कि तमाम लोगों को इस कौन बनेगा करोड़पति खेल को लेकर भी इक नशा है और ये नशा भी सर चढ़ कर बोलता है कि किसी व्यक्ति को लेकर बात करने देखने तक पागलपन की सीमा पार कर लोग बहुत कुछ ऐसा कर जाते हैं जो चाटुकारिता की सीमा पर कर खुद अपने स्वाभिमान और सामाजिक छवि प्रतिष्ठा को दांव पर लगाता प्रतीत होता है । बहुत मुमकिन है बाद में उनको वास्तविक जीवन में अपनी बात या आचरण को लेकर शर्मसारी अनुभव हुई हो । आज ऐसे तमाम तरह के नशों को लेकर चर्चा करने की ज़रूरत है । 
 
दौलत पैसा नाम शोहरत हासिल करने का भी नशा इतना अधिक है कि लोग सिर्फ टीवी पर दिखाई देने को कुछ भी करने को तैयार रहते हैं । यहां तक कि खुद अपना उपहास करवाने से भी संकोच नहीं करते हैं । सिनेमा टीवी चैनल सोशल मीडिया तक खुद अपना गुणगान करते नज़र आते हैं , ज़मीर बेच कर भी धनवान बनने को राज़ी हैं लोग । राजनेताओं को झूठी चमक दमक और शोहरत की आकांक्षा की कोई सीमा ही नहीं है तमाम अनुचित कार्य करने के बावजूद मसीहा कहलाना चाहते हैं जो अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाते तो देश की दुर्दशा का कारण नहीं बनते । सत्ता का नशा इतना ख़तरनाक़ होता है कि उसे हासिल करने को समाज को बांटने लड़वाने नफ़रत की आग फ़ैलाने तक सब करते हैं और सत्ता पर बैठते समय संविधान की खाई शपथ को कभी याद ही नहीं रखते हैं ।  हम सभी की गुलामी की आदत आज़ादी मिलने के बाद भी ख़त्म नहीं हुई है और हम इक न इक को ख़ुदा भगवान मसीहा समझ लेते हैं । मगर सच तो ये है कि राजनेता कभी भी मसीहा नहीं होते हैं और अब तो शायद ही कोई देश और समाज की भलाई की राजनीति करता है कभी कुछ विरले जयप्रकाश नारायण और लाल बहादुर शास्त्री जैसे सच्चे राजनेता होते थे । सादगी से जीवन यापन करना और देश के संसाधनों का उपयोग जनकल्याण की ख़ातिर करना जिनका आदर्श था । जो शासक खुद अपने रहन सहन और ऐशो-आराम पर इतना अधिक खर्च करता है जिस पैसे से हज़ारों लाखों लोगों की रोटी रोज़ी और बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जा सकती हों उस को जनता का सेवक नहीं कह सकते हैं । 
 
अफ़सोस की बात है कि बड़े अधिकारी से शासन पर आसीन नेताओं तक सभी अपने अधिकारों का गलत बल्कि बेहद आपत्तिजनक अनुचित उपयोग करने के बाद भी खुद को अपराधी नहीं मानते हैं । अहंकार का नशा भी बड़ा ही नुकसानदायक होता है और इधर अहंकारी लोग अपनी भाषा में संयम नहीं रख जिस किसी को चाहे अपशब्द से संबोधित करते हैं सभाओं से संसद तक शिष्टाचार की दशा गंभीर है । कुछ लोगों को किसी भी तरह से अधिक से अधिक धनवान बनने का मोह होता है और अपने कारोबार उद्योग या फिर दिखावे की समाजसेवा में पैसा बनाने की लत इतनी बढ़ जाती है कि उचित अनुचित की परिभाषा भूल जाते हैं और जो भी उनको बाधा लगता है उस को नुकसान पहुंचाने में सब तरीके आज़माते हैं । मुक्ता पुणतांबेकर जी ने बताया सभी बुरे नशे आपको लगता है ख़ुशी मिलती है उनसे मगर वास्तविक ख़ुशी आपको कुछ अच्छे नशे अपनाने से भी मिल सकती है जैसे सभी की भलाई करने की आदत किताबों को पढ़ने की संगीत की और महनत से ईमानदारी से अपनी आमदनी से सादगी से जी कर खुश रहने की सोच को अपनाना और जब आपके पास अपनी आवश्यकता से अधिक हो तो उनकी मदद करना जिनके पास कुछ भी नहीं होता है । 

सच तो ये है कि आजकल सभी को कोई न कोई नशा लगा हुआ है अपने ही स्वार्थ में अंधे होकर देश समाज को नैतिक मूल्यों ऊंचे आदर्शों को छोड़ दिया है जिसे देखें खुद अपने को छोड़ तमाम अन्य लोगों की आलोचना करता दिखाई देता है । प्यार की सदभावना की बात याद नहीं मगर नफ़रत और हिंसक होने की आदत आम है ज़रा ज़रा सी बात पर लड़ाई झगड़ा और आपसी विवाद होने लगे हैं आपसी रिश्तों में कोई झुकना नहीं चाहता न किसी को क्षमा करना चाहते हैं । दोस्ती की भावना नहीं और दुश्मनी बैर की भावना मन में छुपी रहती है । बड़े घर ऊंची इमारत शानदार दिखावे का साधन सुविधाएं हासिल हैं फिर भी चैन की नींद नहीं आती और न ही खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि जिन बातों से ऐसी वास्तविक ख़ुशी और संतोष मिलता है उनको हमने बेकार समझ त्याग दिया है । अच्छाई सच्चाई की राह पर चलने को सभी नासमझी मानने लगे हैं और समझदार होना अर्थात सफल होने को कुछ भी मार्ग अपनाना बन गया है । हमने समाज को उत्थान की ओर अग्रसर करने की जगह पतन और विनाश की राह चुनी है । झूठ छल कपट धोखा इक चलन बन गया है आधुनिक समाज की नींव जिस पर टिकी है वो खोखली और कमज़ोर है । तभी हमारी तथाकथित गगनचुंबी तस्वीर इक झौंके से चरमरा कर गिरने को अभिशप्त है । नशा है मुहब्बत का भी और जंग का भी नशा होता है जो सामने दिखाई दे रहा है । प्यार में और जंग में सब जायज़ कहते हैं लोग । आपको क्या चुनना है हरा भरा या ज़र्द रंग झुलसा हुआ अपने बगीचे का । 
 

 

नवंबर 06, 2023

हर किसी का अलग ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

    हर किसी का अलग ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

हर किसी का अलग ख़ुदा है 
अब ज़माना बहुत नया है ।  
 
प्यार की बात कर रहे हो 
प्यार करना बड़ी ख़ता है । 
 
जाम भर भर मुझे पिलाओ 
ज़हर ये दर्द की दवा है ।
 
हम से दुनिया ख़फ़ा है सारी 
बोलते सच मिली सज़ा है ।  

मौत भी जश्न बन गई है 
रोज़ होता ये हादिसा है । 

साथ हर बार और कोई 
आजकल की यही वफ़ा है । 

झूठ ' तनहा ' से कह रहा है
ये बता सच का हाल क्या है ।  



 
 

नवंबर 03, 2023

रब मिलिया कद मिलिया जद मिलिया ( दर्शन ) डॉ लोक सेतिया

 रब मिलिया कद मिलिया जद मिलिया ( दर्शन ) डॉ लोक सेतिया  

मैंने उसको देखते ही पहचान लिया , फिर भी बिना सोचे समझे पूछ बैठा कि आप मुझे सच्चे रब लगते हैं क्या वही हैं आप । रब ने कहा अपनी पहचान का भरोसा नहीं क्या भरोसा है तो मैं वही हूं नहीं भरोसा तो मैं यहां क्या कहीं भी नहीं मिल सकता । मैंने कहा ऐसा नहीं है मुझे पक्का यकीन है मैंने अपनी आत्मा से आपको पहचान लिया है लेकिन इधर दुनिया में सभी कहते हैं बड़ी मुश्किल से तलाश कर मिलते हैं आप । कुछ विचार किया फिर बोले हां कभी मुझे खोजते थे जीवन भर वास्तविक संत सन्यासी किसी पुराने वक़्त की बात है आजकल तो सभी ने कितने अलग अलग अपने अपने भगवान बना लिए हैं । मैंने कहा क्या इंसान का बनाया भगवान अपनी भक्ति पूजा गुणगान से इंसानों का कल्याण कर सकता है । उसने कहा क्या आपकी बनाई किसी मूरत से आपको वास्तव में कुछ भी मिल सकता है पत्थर से बनी गाय से दूध मिल सकता है बस आपको सपने में सब मिलता है सोते हुए जागते हैं तो कुछ भी पास दिखाई नहीं देता है । मैंने सवाल किया क्या मतलब दुनिया भर में आपके रहने को असंख्य स्थल बनाए हुए हैं कितने बड़े बड़े आलीशान भवन सुंदर मनमोहक मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरजाघर आश्रम जाने क्या क्या । उस ने कहा क्या मानते हो ये सभी धरती पेड़ पैधे जीव जंतु नदियां झरने सागर पहाड़ कितना कुछ मुझी ने बनाया है , अगर मैंने आदमी से हवा पानी तक सब कुछ बनाया तो मुझे किसी और द्वारा बनाए किसी घर की ज़रूरत क्या है क्या मुझे रहने को कोई ठिकाना चाहिए । कभी समझते हो मैं हर जगह हूं फिर किसी भी जगह कैद कैसे कर सकते हो मुझे ।  
 
मैंने कहा तब ये सब खेल तमाशा क्या है ईश्वर धर्म के नाम पर लोग झगड़ते हैं क्या क्या कहते हैं कितने क्या क्या तरीके बना लिए हैं तुझे मनाने और तुझ से सब पाने को सर झुकाते हैं हाथ पसरे खड़े रहते हैं । कभी किसी की झोली भरती नहीं चाहे जितना मिले थोड़ा लगता है । उस ने कहा अब सही विषय की बात पर आये हो तो सुनो क्या सही क्या गलत है सब सामने है पल भर को मुझे भूल जाओ और देखो अपने आस पास क्या है क्या होना चाहिए तुम्हें लगता है । किसी धर्म ग्रंथ को पढ़ने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उनको लिखने वालों ने क्या लिखा पढ़ने वालों ने क्या पढ़ा सुनने वालों ने क्या सुना और क्या समझने वालों ने समझा भी या नहीं । लेकिन तुम्हीं बताओ अगर कोई देश समाज का शुभचिंतक अपने देश समाज का संचालक बनकर खुद ही अपने रहन सहन खान पान और सैर सपाटे मौज मस्ती करने और अपनी अनगिनत ख्वाहिशों को पूरा करने पर धन और संसाधन खर्च करता हो जबकि उसी से कितने जनहित के कल्याणकारी कार्य किये जा सकते हों तो क्या वो अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाता है । आपके सभी शासक यही करते हैं उनको देश समाज की नहीं बस अपनी शानो शौकत की नाम की फ़िक्र है और ऐसे लोगों ने विधाता को भी अपने जैसा समझ लिया है । भला मुझे क्या चाहिए कुछ भी नहीं क्योंकि सब मेरा ही तो है और मुझे अपने ही बनाए इंसानों से कुछ भी कदापि नहीं चाहिए । भगवान को भिखारी बनाना क्या यही आस्था है धर्म है हर्गिज़ नहीं । 
 
मेरे लिए सभी इंसान इक बराबर हैं और मैंने तो संसार में इतना सब बनाया है जो सभी की ज़रूरत को बहुत है लेकिन जिन्होंने किसी भी ढंग से अपने पास धन दौलत ज़मीन जायदाद और संसाधन सीमा से अधिक जमा कर लिए हैं वास्तव में औरों का हक छीन कर अनुचित कर रहे हैं । आदमी ने मेरी बनाई व्यवस्था को बर्बाद कर अपनी इक विनाशकारी व्यवस्था को बनाकर उसे शासन और सरकार का नाम दे दिया है जबकि ऐसा कर वो सिर्फ मनमानी कर रहे हैं सभी का नहीं सिर्फ खुद का अपने कुछ साथियों का भला कर रहे हैं । अब तो जिधर देखो धनवान शिक्षित और प्रशासन न्यायपालिका के उच्च पदों पर आसीन लोग समाज की भेद भाव ऊंच नीच की अमीर गरीब की खाई को बढ़ा रहे हैं और न्याय समानता की अवधारणा को मिटा रहे हैं । झूठ को सच ही नहीं बनाते बल्कि सच को झुठला रहे हैं अजीब लोग हैं खुद को जैसा कभी नहीं बन सकते वैसे हैं घोषित कर इतरा रहे हैं । धोखा देने वाले खुद को धोखा देकर समझते हैं मनचाहा वरदान पा रहे हैं असल में गंगा को उलटी बहा रहे हैं । बहुत कम लोग जानते हैं कि हम कम जानते हैं अधिकांश लोग इक कतरे को समंदर बता रहे हैं । ब्रह्माण्ड में ये धरती छोटा सा कतरा है जिस का इक तिनका मिल गया तो खुद को बादशाह समझने लगे हैं सतह पर हैं समझते थाह पा रहे हैं । 
 
मैंने ध्यान लगाया तो रब को सामने खड़ा पाया उसका बदन था घायल और पैरहन फटा हुआ लगता था गरीब जिस की झोली में था सबसे बड़ा सरमाया । हर किसी को उस ने हाथ से खिलाया कभी किसी से कुछ मांगने को नहीं दमन फैलाया । आदमी की दुनिया के दस्तूर निराले हैं लिबास चमकीले दिल उनके काले हैं वो जो लगते हैं बड़े कद वाले हैं उनके पांव तले लाशें हैं देखने वालों की आंखें बंद होंटों पर ताले हैं । बड़े बड़े भवन खुली खुली सड़कें जगमगाहट रौशनी की महानगर की ऊंची इमारतें आपको लगता है कितना खूबसूरत है अपना देश और खुशहाल हैं लोग सभी । मगर खुले आसमान तले सर्दी से ठुठरते गर्मी की तपती धूप में झुलसते भूखे बदहाल गरीब अधिकतर लोग बेबस मज़बूर और लाचार हैं आदमी हैं आदमी की चालों का हुए शिकार हैं । शिकार करने वाले कहलाते बड़ी सरकार हैं ख़त्म नहीं होते सत्ता के अत्याचार हैं ज़माने ने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी है चलाई गुंडे मवाली से नेता तक सभी ज़ालिम बने हैं जनता के भाई । जनता ने बना लिया उन सभी को घर जंवाई खुद मुसीबत को दावत भिजवाई अब मुश्किल उनसे पीछा छुड़ाना जब उनका है चोर लुटेरे अपराधी लोगों से गहरा याराना । रब कहने लगा मेरा इन से कोई नहीं नाता है ये दुनिया किसी और की जिसका अजब बही खाता है यहां शराफ़त नहीं है कहीं पर सच की सियासत नहीं है । मैंने इस नर्क जैसी दुनिया को छोड़ दिया है आदमी ने अपनी धरती को नर्क बना दिया है मुझसे तोड़ नाता शैतान को घर में बसा लिया है । मेरा अपनी ही बनाई दुनिया से दिल भर गया है यहां हर कोई खुद से भी डर गया है मैं तो इधर आता जाता नहीं आपकी दुनिया का कोई भी विधाता नहीं क्योंकि हर कोई सोचता है उसने कितना कुछ किया है ज़िंदगी में । हर शख़्स खुद को फ़रिश्ता समझने लगा है नहीं किसी को किसी खुदा की चाहत मुझे रास नहीं आती आपकी सियासत हुई बर्बाद इतनी मेरी ये विरासत नहीं मुझको यहां बसने की चाहत । तुम चाहते हो बनाऊं कोई अच्छी सच्ची दुनिया इसलिए छोड़ जानी है ये दुनिया । बस कुछ देर को चला आया था बनकर महमान तुम्हारा अब जाने की घड़ी है दे दो इजाज़त । और मुझे महसूस हुआ मेरा रब हमारी दुनिया से दूर और दूर जाते जाते सबकी नज़रों से ओझल हो गया है । भगवान चले गए इस दुनिया से कहीं और फिर से कोई दुनिया बनाने जैसी उनको चाहिए । क्या आपको चाहत है उस की बताना । 
 

 
 
   

नवंबर 02, 2023

वो ज़माने आएंगे ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

         वो ज़माने आएंगे ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

यूं ही हम दिल बहलाएंगे  
फिर से वो ज़माने आएंगे । 
 
जब हाल कोई पूछेगा तो 
ख़ुद ज़ख़्म सभी भर जाएंगे । 
 
वो बिछुड़े तो दिल पर क्या गुज़री 
मिलने पर उनको बताएंगे । 
 
इन टूटी-सी उम्मीदों से 
खुद को ही हम समझाएंगे । 
 
अब तो जीना है यूं ही हमें 
बस घुट-घुट कर मर जाएंगे । 
 
          (   6 अक्टूबर 2001   )
 

 

हम बिक गये ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

              हम बिक गये ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

दिल के हाथों सरे-आम हम बिक गये 
इस मुहब्बत में बेदाम हम बिक गये । 
 
भूल से आ गए मयकदे में कभी 
पी के हाथों तिरे , जाम , हम बिक गये ।
 
आये बन कर ख़रीदार बाज़ार में 
और ले कर तिरा नाम हम बिक गये । 
 
तेरे ज़ुल्मों-सितम को भी , मेरे सनम 
जान कर तेरा इनाम , हम बिक गये ।  

      ( 19 मार्च 2001 )


 
 

नवंबर 01, 2023

प्यार का पहला मधुर अहसास बहुत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

  प्यार का पहला मधुर अहसास बहुत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

प्यार का पहला मधुर अहसास बहुत है 
याद रखने को वही मधुमास बहुत है । 
 
आपके इस शहर की पहचान अलग है 
काम की बातें नहीं बकवास बहुत है । 
 
रास्तों पर हैं खड़े बस सोच रहे हैं 
चाह उसकी है सभी को ख़ास बहुत है । 
 
दोस्तों के घर भले ही दूर हों कितने 
दिल में चाहत है तो लगता पास बहुत है । 
 
मिल जिन्हें सत्ता गई तकदीर है उनकी 
आम लोगों को मिले बनवास बहुत है । 
 
ख़ास लोगों की नई संसद है बनाई 
आम लोगों का किया उपहास बहुत है । 
 
हैं सभी आज़ाद ' तनहा ' ख़ौफ़ में लेकिन 
ज़ुल्म बढ़ता जा रहा पर आस बहुत है ।