मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा । मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है । ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं । व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है । मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं । साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है । व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं ।
फ़रवरी 09, 2025
POST : 1945 दिल्ली की गलियां चौबारे ( दिल से दिल तलक ) डॉ लोक सेतिया
फ़रवरी 08, 2025
POST : 1944 आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
आम आदमी पार्टी की पराजय का अर्थ ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
चुनावी आंकड़ों का बाज़ार ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

फ़रवरी 04, 2025
POST : 1943 विश्व आर्थिक मंच का विषकन्या प्रयोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
विश्व आर्थिक मंच का विषकन्या प्रयोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
रहीम और गंगभाट संवाद : -
ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
वो ज़हर देता तो सब की निगाह में आ जाता ,
सो ये किया कि मुझे वक़्त पर दवायें न दीं ।
जनवरी 27, 2025
POST : 1942 फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल
फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : घमंडीलाल अग्रवाल
समाज को आईना दिखाती ग़ज़लें — डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल , गुरुग्राम ( हरियाणा )
जनवरी 20, 2025
POST : 1941 करोड़पति बनाने का चोखा धंधा ( टीवी शो ) डॉ लोक सेतिया
करोड़पति बनाने का चोखा धंधा ( टीवी शो ) डॉ लोक सेतिया
इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं
कोई बन्दों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
रौशनी छीन के घर घर से चरागों की अगर
चाँद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
सीख ले दोस्त भी कुछ तो तजुर्बे से कभी
काम ये सिर्फ मेरा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना
आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
खूब तु खूब तेरा शहर है ता - उम्र मगर
एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूं बदौलत उसकी
मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
हो चरागाँ तेरे घर में मुझे मंज़ूर सलिल
गुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं ।
जनवरी 19, 2025
POST : 1940 जनता के मन की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
जनता के मन की बात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
रहीम और गंगभाट का संवाद :-
ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
जनवरी 18, 2025
POST : 1939 संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात ) आलेख : डॉ लोक सेतिया
संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात )
आलेख : डॉ लोक सेतिया
धरती का रस ( नीति कथा )
एक बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़ गया । उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह में वहां चला गया । इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके देश का । राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी । बुढ़िया ने छांव में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं । बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया । राजा को बहुत ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है । बुढ़िया ने बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं । यहां का राजा बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े आराम से हो जाता है । राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका खज़ाना अधिक बढ़ सकता है । तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो । बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़ कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास भर सका । ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था । बुढ़िया बोली बेटा ये तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है । ये तो तब होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है । ऐसे में कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर ऐश आराम करते हैं । राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था ।
संवेदनहीन प्रशासन-सरकार , निष्क्रिय समाज ( चिंतनजनक हालात ) आलेख : डॉ लोक सेतिया
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है ( कविता ) रामधारी सिंह दिनकर
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी ,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही ,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली ,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली ।
जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम ,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है । "
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है ? "
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ? "
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं ,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में ;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं ,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है ;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती ,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है ,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां ?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है ।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा ,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं ,प्रजा का है ,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख ,
मन्दिरों , राजप्रासादों में , तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे ,
देवता मिलेंगे खेतों में , खलिहानों में ।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं ,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है ;
दो राह ,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
जनवरी 07, 2025
POST : 1938 लोकतंत्र के सौदागर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
लोकतंत्र के सौदागर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
अधूरी प्यास ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
युगों युगों से नारी कोछलता रहा है पुरुष
सिक्कों की झंकार से
कभी कीमती उपहार से
सोने चांदी के गहनों से
कभी मधुर वाणी के वार से ।
सौंपती रही नारी हर बार ,
तन मन अपना कर विश्वास
नारी को प्रसन्न करना
नहीं था सदा पुरुष की चाहत ।
अक्सर किया गया ऐसा
अपना वर्चस्व स्थापित करने को
अपना आधिपत्य
कायम रखने के लिये ।
मुझे पाने के लिये
तुमने भी किया वही सब
हासिल करने के लिये
देने के लिये नहीं
मैंने सर्वस्व समर्पित कर दिया तुम्हें ।
तुम नहीं कर सके ,
खुद को अर्पित कभी भी मुझे
जब भी दिया कुछ तुमने
करवाया उपकार करने का भी
एहसास मुझको और मुझसे
पाते रहे सब कुछ मान कर अपना अधिकार ।
समझा जिसको प्यार का बंधन
और जन्म जन्म का रिश्ता
वो बन गया है एक बोझ आज
मिट गई मेरी पहचान
खो गया है मेरा अस्तित्व ।
अब छटपटा रही हूँ मैं
पिंजरे में बंद परिंदे सी
एक मृगतृष्णा था शायद
तुम्हारा प्यार मेरे लिये
है अधूरी प्यास
नारी का जीवन शायद ।
जनवरी 05, 2025
POST : 1937 असली भगवान बंदी हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
असली भगवान बंदी हैं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
