दिसंबर 27, 2021

समाज को किताबों से जोड़ना ( मेरा मकसद ) डॉ लोक सेतिया

  समाज को किताबों से जोड़ना ( मेरा मकसद ) डॉ लोक सेतिया 

   हर किसी का कोई मकसद अवश्य होना चाहिए। लिखते लिखते उम्र बिताई है अब आगे बढ़कर कुछ नया सार्थक करना चाहता हूं। लेखक का साहित्य सृजन नाम शोहरत हासिल करने को नहीं होता है अपने समय की वास्तविक तस्वीर दिखाई देनी चाहिए। किताबों से पढ़ने से लगाव ही नहीं मुहब्बत होनी ज़रूरी है अन्यथा हमारी जानकारी और विवेकशीलता कुंवे के मेंढक की तरह हो सकती है। सोशल मीडिया की पढ़ाई कुछ ऐसी ही है। कोई आपको विवश नहीं कर सकता अगर आपको प्यास नहीं है पढ़ने की आंखों पर कोई पट्टी बांध रखी है या किसी चश्मे से देखते हैं तो सावन के अंधे को हरियाली नज़र आती है जैसी हालत बन जाती है। जाने क्यों हम सदियों से चली आई मान्यता को भुला बैठे हैं कि किताबें आपका सच्चा दोस्त हितैषी और मार्गदर्शक होती हैं। अपनी संतान आने वाली पीढ़ियों को सही मार्ग पर चलकर उच्च आदर्शों और नैतिक मूल्यों का पालन करने का सबक सिखाना है तो किताबों से जोड़कर ही संभव है। 
 
   लिखना कभी भी खालाजी का घर नहीं रहा है सच को सच झूठ को झूठ कहना कांच के टुकड़ों पर चलना है और अन्याय अत्याचार असमानता के लिए निडरता पूर्वक विरोध करते लिखना तलवार की धार अपने सर पर लटकती अनुभव होती है। सर पर रोज़ कफ़न बांध कर निकलते हैं , वो लोग जो सच की राह चलते हैं। किताबों का स्वभाव है लिखा हुआ जो कभी बदलता नहीं है जो कहती हैं उस बात से मुकरती नहीं कभी किताबें , दुनिया में दोस्त मतलब की खातिर मुकर जाते हैं सिर्फ किताबें हैं जिनको कुछ फर्क नहीं पड़ता। आपसे नाराज़ नहीं होती न कोई उम्मीद होती है ज्ञान देकर कुछ हासिल करने को । मुंशी प्रेम चंद खुद को इक मज़दूर समझते थे कलम का और जिस दिन कुछ लिखा नहीं उनका कहना था कि मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं। ये संकल्प ही लेखक को अच्छा साहित्य रचने के काबिल बनाता है। मैं क्या लिखता हूं से अधिक महत्वपूर्ण है क्यों लिखता हूं। ये मेरा आजीविका का साधन नहीं बल्कि घर फूंक तमाशा देखना है। 
 
  लिखने की शुरआत हुई इक पत्रिका का हर अंक में इक कॉलम छपता था उसको पढ़कर। संपादक लिखते थे अगर आप शिक्षित हैं तो सिर्फ अपना कारोबार नौकरी कर घर बनाना शादी कर संतान को जन्म देना सुखी जीवन बिताना काफी नहीं है।  ये सब अनपढ़ ही नहीं पशु पक्षी जीव जंतु तक कर लेते हैं पढ़ लिखकर आपको अपने समाज और देश को बेहतर बनाने को बिना किसी स्वार्थ कुछ योगदान देना ही चाहिए। उनकी कही बातों में इक विकल्प ये भी था समाज की समस्याओं पर ध्यान देकर उनके समाधान की कोशिश करना। मेरा लेखन जनहित की बात उठाना जहां जो अनुचित दिखाई दे उसका विरोध करना इक जूनून बन गया। सामाजिक विडंबनाओं को देख ख़ामोश रहना नहीं सीखा जब तक लिखता नहीं सांस लेना कठिन महसूस होता। कठिनाईयां हर क्षण सामने खड़ी थीं अधिकांश लोग मुझे क्या कुछ भी होता रहे सोच कर अनदेखा करते हैं। जब तक खुद अपनी समस्या नहीं हो सब कहते हैं ये सामान्य बात है ऐसा हर जगह घटित होता है बस अपना घर सुरक्षित होना ज़रूरी है। अनुचित का विरोध करना लोग नासमझी मानते हैं। 
 
साहित्य की हर विधा में मेरा लेखन बड़े कथाकारों रचनाकारों के सामने भले सामन्य लगे लेकिन इसको पढ़कर पाठक को हमारे युग वर्तमान काल की सही तस्वीर अवश्य नज़र आएगी ये यकीन है। और यही मेरे लिए सार्थक लेखन की कसौटी है। अगर मेरी ग़ज़ल , कविता , व्यंग्य रचनाएं , कहानियां , सामाजिक विषयों पर तार्किक ढंग से लिखे आलेख इस पर खरे उतरते हैं तो ज़िंदगी की मेरी सबसे बड़ी पूंजी है ये।
 
  

दिसंबर 21, 2021

बुरा हूं मगर इतना बुरा नहीं ( ब्यान अर्ज़ है ) डॉ लोक सेतिया

   बुरा हूं मगर इतना बुरा नहीं ( ब्यान अर्ज़ है ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने कब कहा कि मैं अच्छा हूं , बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय। लेकिन इतना भी बुरा नहीं जितना साबित किया गया मुझको। जुर्म करता तो सज़ाएं मंज़ूर भी कर लेता पर बेगुनाही को भी जुर्म समझ सूली पर चढ़ाना भला कैसे चुपचाप इंसाफ़ समझता ज़ुल्म को। क़ातिल को दुआ देने की रस्म आखिर कोई कब तक निभाए। बात मेरी भी पहले सुनलो फिर सज़ा दो मेरे गुनाहों की। दोस्ती को ईबादत समझा जुर्म तो है इंसानियत को धर्म माना बगावत ही तो की है झूठ के सामने सर नहीं झुकाया सच की ख़ातिर जान तक दे सकता हूं सियासत से अदावत ही तो है। ज़माना हर रोज़ बदलता है चाल अपनी हम नहीं रुकते न दौड़ते न कभी थकते चलते हैं अपनी रफ़्तार से आदत ही तो है। हम तो चलाते हैं कलम शमशीर से डरते नहीं , कहते हैं जो बात कहकर अपनी बात से मुकरते नहीं। जाने कैसे समाज की बनी बनाई आसान राहों से अलग नई रह बनाकर चलने की चाह दिल दिमाग़ पर सवार हुई और कांटो पर तपती ज़मीन पर पत्थरीली राहों बढ़ता रहा। सच का दर्पण समाज का आईना और अभिव्यक्ति की आज़ादी के झंडाबरदारों से निडरता पूर्वक आवाज़ उठाने का सबक सीख लिया तो वापस मुड़कर नहीं देखा जबकि इन सभी बातों का दम भरने वाले खुद बाज़ार में बिकने लगे ज़मीर को मारकर। मैंने उन्हीं से सवाल पूछने का जुर्म भी किया है। बिका ज़मीर कितने में जवाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते। जुर्म-बेलज्ज़त साहित्य समाज की सच्ची तस्वीर दिखलाना कर बैठे और हर किसी की निगाह में खटकने लगे हैं। 
 
चाटुकारिता करना नहीं पसंद और सत्ता से टकराना उनकी वास्तविकता और इश्तिहार का विरोधाभास सामने लाना तलवार की धार पर कांच के टुकड़ों पर चलना जैसा होना ही था। सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुज़रना पड़ता है कौन किस से फ़रियाद करे गुनहगार बच जाते हैं बेगुनाह फांसी चढ़ते हैं। फैसले तब सही नहीं होते , बेगुनाह जब बरी नहीं होते। जो न इंसाफ़ दे सकें हमको , पंच वो पंच ही नहीं होते। सोचना ये लिखने से पहले , फैसले आख़िरी नहीं होते। उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़ , 'लोक ' राजा को वो कहता है निपट नंगा है। अपराध है राजा नंगा है बोलना कहानी पुरानी अभी तक हक़ीक़त है। ये सभी अल्फ़ाज़ ग़ज़ल के हैं मेरी लिखी हुई , पहली कविता की शुरुआत जिन शब्दों से हुई उनकी बात करते हैं। पढ़कर रोज़ खबर कोई मन फिर हो जाता है उदास। कब अन्याय का होगा अंत , न्याय की होगी पूरी आस।  कब ये थमेंगी गर्म हवाएं , आएगा जाने कब मधुमास। कैसी आई ये आज़ादी , जनता काट रही बनवास। ये तहरीर है इक़बाल ए जुर्म है। मैंने उनको आईना दिखाने की जुर्रत की है जो आईनों का बाज़ार लगाकर दुनिया को दिखाते हैं बदशक़्ल है मगर खुद अपने आप को नहीं देख सकते । अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग , आईने से यूं परेशान हैं लोग। शानो-शौकत है वो उनकी झूठी , बन गए शहर की जो जान हैं लोग। मैंने अपना जुर्म कबूल कर लिया है मुश्क़िल उनकी है जिन्होंने कटघरे में खड़ा किया है उन नाख़ुदाओं ने कश्ती को डुबोया है। चंद धाराओं के इशारों पर , डूबी हैं कश्तियां किनारों पर। हमे सूली चढ़ा दो हमारी आरज़ू है ये , यही कहना है लेकिन मुझे कहना नहीं आता।
 

 

दिसंबर 17, 2021

किस को सुनाएं से सुन ज़माने तक ( कागज़ कलम स्याही पुस्तक का सफर ) डॉ लोक सेतिया

          किस को सुनाएं से सुन ज़माने तक 

             ( कागज़ कलम स्याही पुस्तक का सफर )

                                डॉ लोक सेतिया 

शीर्षक संक्षेप में नहीं संभव इस पोस्ट का क्योंकि 1973 में पहली ग़ज़ल कही थी ' हम अपनी दास्तां किस को सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं '। करीब आधी सदी का लंबा सफर साहित्य से चाहत का मुहब्बत से जूनून होने तक का जिया है हर दिन परस्तिश की है। किताबें छपवाने की शुरुआत देर से सही मगर सोच विचार कर करने चला हूं ताकि सिर्फ मेरी ही नहीं सभी लिखने वालों की मुश्किलों दुश्वारियों और हौंसलों की बुलंदी से थकान तक का एहसास पाठक वर्ग को हो सके। जाने कितने सोच विचार अंतर्द्वंद से गुज़रते हुए कलम हाथ में उठाते हैं विचार भावना को शब्दों में पिरोना रचना का आंखों से मस्तिष्क और रूह तलक पहुंचना सिर्फ रचनाकार जानता है तपस्या क्या होती है। आपको ग़ज़ल की 151 रचनाएं पढ़ने में कुछ घंटे लगेंगे लिखने में सालों हर हर्फ़ के मायने समझने में बीते हैं। लिखना ऐसे समय में जब हर कोई सोशल मीडिया टीवी चैनल अनगिनत ऐप्प्स और गूगल पर दुनिया देखना समझना चाहता है साहस का कार्य है। इसलिए पुस्तक से साहित्य से समाज को जोड़ना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि ज़िंदगी की वास्तविकता और सामाजिक समस्याओं की वास्तविक भावनाओं को महसूस करने को यही एक विकल्प बचा लगता है। किताब से अच्छा दोस्त कोई नहीं दुनिया में और अच्छे साहित्य से बढ़कर मार्गदर्शन कोई अन्य नहीं कर सकता है। पुस्तक के पन्ने निर्जीव वस्तु नहीं होते हैं पाठक से संवाद करते हैं कभी हमदर्द लगते हैं कभी निराशा के अंधकार से बाहर निकाल रौशनी से मिलवाते हैं। किताबें बंद अलमारी की शान बढ़ाने को नहीं हो सकती हैं बेशक इधर बहुत मशहूर जाने माने लोग सिर्फ खुद के गुणगान जीवनी और अधिकांश अनावश्यक घटनाओं की व्यर्थ चर्चा कर ख्याति हासिल करने को इसका अनुचित उपयोग करते हैं। और सरकारी संस्थान संघठन ऊंचे दाम खरीद लायब्रेरी की शोभा बढ़ाते हैं। सच्चा कलम का सिपाही अपनी नहीं समाज की बात कहता है।  

ग़ज़ल संग्रह के बाद कविताओं की उसके बाद व्यंग्य रचनाओं पर आधारित पुस्तक और चौथी किताब ज़िंदगी की कहनियों की हाज़िर करनी है। मकसद दौलत शोहरत पाना कदापि नहीं है बल्कि आपको खुद अपने आप से मिलवाने का उद्देश्य है। ये आपको निर्णय करना है खुद से नज़रें मिलाना चाहते हैं अथवा नज़र बचाना चाहेंगे। बुद्धिजीवी लोगों से समीक्षा लिखवाना अनावश्यक होगा पाठक को रचनाएं खुद से जुड़ती हुईं लगती हैं और सामाजिक सरोकार की चिंता जागृत करने को सफल होती हैं तभी सार्थकता होगी रचनाओं की। इंतज़ार नहीं स्वागत नहीं करें लेकिन निवेदन है पुस्तक जिस भी किसी लेखक की हो आपको मिलती है तो उसको रद्दी की टोकरी में फैंक कर सरस्वती का निरादर कदापि नहीं करें। पढ़ना नहीं पसंद तो जैसे अख़बार पत्रिका के संपादक खेद सहित लौटाते हैं ताकि अन्य किसी के लिए उपयोगी हो सके जैसा कदम उठाना बुरा नहीं है। लिखने वालों को इसकी आदत होती है दस जगह भेजी रचना एक जगह छप जाती है तब भी ख़ुशी मिलती है बेशक रॉयल्टी तो क्या उचित मानदेय भी हमेशा नहीं मिलता। 
 

 

दिसंबर 15, 2021

ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

शहंशाह के चाहने वाले ग़मज़दा हैं उदास हैं बड़े बेचैन हैं। कहते हैं सरकार इतनी कठोर तपस्या किसलिए। पहले जितने शासक हुए हैं सभी ने मौज मस्ती सैर सपाटे शाही अंदाज़ से सजना संवरना रोज़ मनचाहा खाना जश्न मनाना जैसे ऐशो आराम पर खज़ाना लुटाया है। सरकार आपने बस इक धोती कुर्ते एक समय पेट भरना एक समय उपवास रखना गांधी लालबहादुर की राह चल सादगी से रहकर देशसेवा की मिसाल कायम की है। अपने अपनी शान दिखाने को कोई महल नहीं बनाया है गरीबी से नाता छोड़ा नहीं हमेशा इक झौंपड़ी में घर बसाकर गुज़ारा किया है। अफ़सोस चाहने वालों को इस बात का है कि जिन की खातिर जनाब कांटों का ताज पहन शूलों भरे सिंघासन पर विराजमान हैं वही देशवासी आपको बुरा भला कहते हैं। उनको नहीं पता आपको सत्ता की रत्ती भर चाहत नहीं है आप तो भिखारी बनकर जीवन बिताते रहे हैं बस बीस साल से कुर्सी से रिश्ता इस तरह निभाया है जैसे कोई आशिक़ अपनी महबूबा से दिल से प्यार करता है तो किसी और की कभी नहीं होने देता। ग़ुलाम लोग चाटुकारिता से बहुत आगे बढ़कर शहंशाह को अपना आराध्य और खुद को उपासक मानते हैं। उनके दिलो-दिमाग़ में चिंता और डर महसूस होने लगा है कहीं देश की नासमझ जनता उनको चुनाव में पराजित करने का गुनाह नहीं कर बैठे। ठीक है इस से पहले बड़े बड़े अहंकारी तानाशाहों को देशवासियों ने उनकी सही जगह पहुंचाया है धूल चटाई है। लेकिन गुलामों को डर है उनका भगवान सत्ता से बाहर हुआ तो क्या होगा वो घड़ी क़यामत की घड़ी होगी। 
 
गुलामों की हालत ऐसी है कि उनको लगता है देश को आज़ादी पहले नहीं मिली थी अब जब से इस शासक को सत्ता हासिल हुई तब मिली है आज़ादी। देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी जान की कुर्बानियां जाने क्यों देते रहे। उस इतिहास को मिटाना चाहते हैं जिस में ऐसे कई नाम आते हैं जिन्होंने आज़ादी की जंग में विदेशी शासकों का साथ दिया आज़ादी की ख़ातिर लड़ने वाले शहीदों की मुखबरी और जासूसी करते रहे लेकिन इस शासन के लोगों को आदर्श लगते हैं। माजरा कुछ और है शहंशाह के दरबार में सजाएं इस कदर खूबसूरत मिलने लगी हैं कि हर कोई गुनहगार होने को बेताब है। सब अपने गुनाहों का इकरार करने लगे हैं ग़ुलामी को बरकत समझने लगे हैं। 
 

 

दिसंबर 14, 2021

हमारी मज़बूरी है लिखना ( कलम का सिपाही ) डॉ लोक सेतिया

  मुश्किल चुप रहना आसां नहीं कहना ( उलझन ) डॉ लोक सेतिया 

लिखने का मकसद क्या है सवाल पूछते हैं सभी दोस्त अपने जान पहचान वाले अजनबी लोग यहां तक बेगाने भी। हर किसी का अपना अलग नज़रिया है कोई समझता है पैसा मिलना चाहिए वर्ना किसलिए जोखिम उठाना सच लिखना और दुश्मन बना लेना ज़माने भर को। किसी को लगता है छपने पर नाम शोहरत मिलती है समाज में बुद्धिजीवी कहलाने से रुतबा बढ़ता है। किताबें छपने पर साहित्यकार की उपाधि हासिल कर ख़ास होने का एहसास मिलता है सरकारी संस्थाओं में जगह ईनाम पुरूस्कार पाने की कतार में खड़े होने का सौभाग्य मिलता है। ये सभी कारण लिखने की वजह नहीं बन सकते और इन सब की खातिर लिखने वाला कलमकार नहीं होता है। लेखक इक सिपाही होता है कलम का सिपाही जो सामाजिक सरोकार और सच्चाई की खातिर निडरता पूर्वक जीवन भर अपनी अंतिम सांस तक लड़ता है तलवार के साथ अन्याय अत्याचार के विरुद्ध देश समाज की वास्तविकता को उजागर कर आडंबर विडंबनाओं विसंगतियों पर चोट करने को। जब कोई लेखक कलम उठाता है उसका दायित्व बन जाता है सार्थक लेखन करना अपना धर्म निभाना अन्यथा संकीर्णता पूर्ण रचनाकार आखिर रोता है जैसा नौवें सिख गुरु तेगबहादुर जी अपनी बाणी में कहते हैं , करणो हुतो सु ना कियो परियो लोभ के फंद , नानक समियो रमी गईयो अब क्यों रोवत अंध। थोड़ा इस विषय को विस्तार से समझते हैं अन्य सभी लोगों को सामने रखते हुए। 
 
शुरुआत आदमी से करते हैं इंसान को इंसानियत और सभ्य समाज की संरचना के लिए जैसा आचरण करना चाहिए वैसा नहीं उसके विपरीत करने पर स्वार्थी खुदगर्ज़ और असमाजिक पापी अधर्मी समझा जाता है। सरकार राजनेता अधिकारी कर्मचारी अपना कर्तव्य देश कानून संविधान की मर्यादा का पालन कर नहीं करते हैं तो उनको पद पर रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। हालत कितनी खेदजनक और भयभीत करने वाली दिखाई देती है जब ये खुद को देश जनता का सेवक नहीं मालिक समझने लगते हैं। आज़ादी के बाद सामन्य नागरिक की हालत बिगड़ती गई है और मुट्ठी भर धनवान एवं राजनीति करने वालों धर्म के झण्डाबरदार बने लोगों तथा विशेषाधिकार प्राप्त टीवी चैनल अख़बार के सच के पैरोकार होने का दावा करने वाले शक्तिशाली बनकर अन्य लोगों की आज़ादी और जीने के अधिकारों का हनन करते हुए संकोच नहीं करते बल्कि अधिकांश गर्वानित महसूस करते हैं सबको जूते की नोक पर रखते हुए। कोई डॉक्टर किसी रोगी को दवा ही नहीं दे तो क्या रोगी की मौत का मुजरिम नहीं हो सकता , बस यही किया है देश की सरकारों ने अधिकारियों ने धर्म उपदेश समाज सेवा के नाम पर आडंबर करने वाले लोगों ने। किसी शायर ने कहा है ' वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता , तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं। '
 
वपस लेखन धर्म की बात पर आते हैं। कोई पढ़ता है चाहे नहीं कोई अखबार पत्रिका छापता है या नहीं हमारा कार्य है अपने समय की वास्तविकता को सामने लाने आईना बनकर जो अच्छा बुरा है उसे दिखलाना। कायर बनकर कलम नहीं चलाई जा सकती है। घर फूंक तमाशा देखना पड़ता है कबीर नानक जैसे संत शिक्षा देते हैं। चाटुकारिता नहीं करना काफी नहीं है आधुनिक काल में दुष्यन्त कुमार होना ज़रूरी है , पहली ग़ज़ल का पहला शेर कहता है ' कहां तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए '। आखिरी ग़ज़ल का शेर भी ज़रूरी है , ' मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं , मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं '। शासक आपको दिलकश खूबसूरत चकाचौंध रौशनियों की दास्तां सुनाते हैं जिनसे करोड़ों गरीबों के घरों में उजाला नहीं हो सकता है। सपनों की दुनिया से बाहर निकलना होगा सपनों का स्वर्ग किसी काम नहीं आता हमको जिस देश दुनिया धरती पर रहना है जीने को उसका अच्छा सुरक्षित और सबके लिए एक समान होना ज़रूरी है। बड़े संतों महात्माओं बड़े आदर्शवादी नायकों ने सदा यही कल्पना की थी भारत देश ही नहीं दुनिया को शानदार मिल जुलकर प्यार से रहने वाली जगह बनाने को जिस में छोटा बड़ा अमीर गरीब का अंतर नहीं हो भेदभाव की दीवार नफरत की भावना नहीं हो। 
 
साहित्य हमेशा सामाजिक पतन को रोकने और उत्थान की राह बनाने का कार्य करता रहा है। मुंशी प्रेम चंद की विरासत को आगे बढ़ाना है अपनी महत्वांक्षाओं को त्याग कर। हम किसी और पर दोष देकर बच नहीं सकते हैं खामोश रहकर ज़ालिम के डर से अथवा अपने लोभ लालच स्वार्थ से झूठ को सच बताना अपनी अंतरात्मा अपने ज़मीर से धोखा करना ज़िंदा रहते लाश बनना होगा। चलती फिरती लाश होना किसी कलम के सिपाही को स्वीकार नहीं हो सकता है। साहित्य कलम की उपासना करते चालीस साल हो चुके हैं अब जाकर पुस्तक छपवाने की शुरुआत करते हुए इस विषय पर चिंतन करना उचित लगा है। पुस्तकें पाठक को पसंद आएंगी खरीदेंगे या मुमकिन है पाठक को मनोरंजन रोचकता की चाह होने से साहित्य की गंभीर रचनाओं समाजिक वास्तविकता से अधिक काल्पनिक विषयों का आनंद भाएगा ये मेरी चिंता का विषय नहीं है। मुझे लिखना है और सिर्फ वास्तविकता को उजागर करने की कोशिश करनी है। और आधुनिक समय की सामाजिक वास्तविकता बेहद कड़वी है उसको मधुर बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।

दिसंबर 07, 2021

तुम्हारे अश्क़ मोती हैं ( मेरा लेखन ) डॉ लोक सेतिया

       

      तुम्हारे अश्क़ मोती हैं ( मेरा लेखन ) डॉ लोक सेतिया

        सभी लोग अपनी पुस्तक के पहले पन्ने पर अपने बारे में लेखन और किताब की बात कहते हैं। मुझे लिखते हुए चालीस साल और अख़बार मैगज़ीन में रचनाएं छपते तीस साल से अधिक समय हो चुका है देश भर में पचास से अधिक पत्र पत्रिकाओं में हज़ारों रचनाएं छपी हैं । ब्लॉग पर ये 1550 से अधिक पोस्ट हैं  दस साल से नियमित लिख रहा हूं और 320000 से अधिक संख्या अभी तक पोस्ट की पढ़ने वालों की है। किताब छपवाने की हसरत रही  है और काफी रचनाओं का चयन ग़ज़ल , कविता- नज़्म , व्यंग्य , कहानी , हास-परिहास की रचनाओं पांच हिस्सों में किया गया है जो इसी ब्लॉग पर लेबल से समझ सकते हैं। लेखक दोस्त और पहचान वाले किताब छपवाने पर चर्चा करते रहे हैं। हिंदी साहित्य को लेकर ये कड़वा सच कभी खुलकर सामने नहीं आया है कि हर किसी के दुःख दर्द की बात लिखने वाले खुद अपने अश्क़ किसी को नहीं दिखाते। तुम्हारे अश्क़ मोती हैं नहीं ये जानता कोई। क्या नाम दिया जाये इस को कि साहित्य का सृजन करने वाले को रचना छपने पर इतना भी उचित मेहनताना नहीं मिलता जिस से उसका पेट भर सके। हर कोई उस से काम लेना चाहता है बिना कीमत चुकाए। मुझे तभी सालों लगे समझने में कि खुद जेब से खर्च कर किताब छपवा उपहार में उनको बांटना जो मुमकिन है पढ़ना भी नहीं चाहते समझना तो दूर की बात है क्या हासिल होगा। मगर पाठक को पढ़ने को मिलना चाहिए ये सोच कर ब्लॉग पर पब्लिश तमाम जगह छपी रचनाओं को पुस्तक रूप में सुरक्षित रखना ज़रूरी लगता है। कभी किसी को अपने लेखन के कॉपीराइट नहीं दिया है अब कानून भी अनुमति नहीं देता है। ये घोषणा करना चाहता हूं मेरा लेखक मौलिक है और उस पर केवल मेरा लेखक डॉ लोक सेतिया का ही संपूर्ण अधिकार सुरक्षित है पंजीकृत है और रहेगा हमेशा। 70 साल की आयु में ये नई शुरआत है मुझे कुछ न कुछ करते रहना पसंद है।
 
    मैंने साहित्य पढ़ा भी बहुत कम है कुछ किताबें गिनती की और नियमित कई साल तक हिंदी के अख़बार के संपादकीय पन्ने और कुछ मैगज़ीन पढ़ने से समझा है अधिकांश खुद ज़िंदगी की किताब से पढ़ा समझा है। केवल ग़ज़ल के बारे खतोकिताबत से इसलाह मिली है कोई दो साल तक आर पी महरिष जी से। ग़ज़ल से इश्क़ है व्यंग्य सामाजिक विसंगतियों और आडंबर की बातों से चिंतन मनन के कारण लिखने पड़े हैं। कहानियां ज़िंदगी की सच्चाई है और कविताएं मन की गहराई की भावना को अभिव्यक्त करने का माध्यम। लिखना मेरे लिए ज़िंदा रहने को सांस लेने जैसा है बिना लिखे जीना संभव ही नहीं है। लिखना मेरा जूनून है मेरी ज़रूरत भी है और मैंने इसको ईबादत की तरह समझा है। 
 

                            मुझे चलना पसंद है ठहरना नहीं 

   कभी कभी खुद से अपने बारे चर्चा करता हूं। आत्मचिंतन कह सकते हैं। मुझमें रत्ती भर भी नफरत नहीं है किसी के लिए भी , उनके लिए भी प्यार हमदर्दी है जिनकी आलोचना करना पड़ती है सच कहने को। कोई व्यक्तिगत भावना दोस्ती की न विरोध की मन में रहती है। कुछ अधिक नहीं पढ़ा है मैंने जीवन को जाना समझा है और उसी से सीखा है। किताबों से जितना मिला समझने की कोशिश की है विवेचना की है। बहुत थोड़ा पढ़ा है शायद लिखा उस से बढ़कर है विवेकशीलता का दामन कभी छोड़ा नहीं है और खुद को कभी मुकम्मल नहीं समझा है। क्यों है नहीं जानता पर इक प्यार का इंसानियत का भाईचारे का संवेदना का कोई सागर मेरे भीतर भरा हुआ है। बचपन में जिन दो लोगों से समझा जीवन का अर्थ मुमकिन है उन्हीं से मिला ये प्यार का अमृत कलश। मां और दादाजी से पाया है थोड़ा बहुत उन में भरा हुआ था कितना प्यार अपनापन और सदभावना का अथाह समंदर। दुनिया ने मुझे हर रोज़ ज़हर दिया पीने को और पीकर भी मुझ पर विष का कोई असर हुआ नहीं मेरे भीतर के अमृत से ज़हर भी अमृत होता गया। और जिनको मैंने प्यार का मधुर अमृत कलश भर कर दिया उनके भीतर जाने पर उनके अंदर के विष से वो भी अपना असर खो बैठा। 

  मेरी कोई मंज़िल नहीं है कुछ हासिल नहीं करना है मुझे लगता है मेरे जीवन का मकसद यही है बिना किसी से दोस्ती दुश्मनी समाज और देश की वास्तविकता को सामने रखना। समाज का आईना बनकर जीना। भौतिक वस्तुओं की चाहत नहीं रही अधिक बस जीवन यापन को ज़रूरी पास हो इतना बहुत है। सुःख दुःख ज़िंदगी के हिस्सा हैं कितने रंग हैं बेरंग ज़िंदगी की चाह करना या सब गुलाबी फूल खुशबू और सदाबहार मौसम किसी को मिले भी तो उसकी कीमत नहीं समझ आएगी। हंसना रोना खोना पाना ये कुदरत का सिलसिला है चलता रहता है। लोग मिलते हैं बिछुड़ते हैं राह बदलती हैं कारवां बनते बिगड़ते हैं हमको आगे बढ़ना होता है कोई भी पल जाता है फिर लौटकर वापस नहीं आता है ये स्वीकार करना होता है। जो कल बीता उनको लेकर चिंता करने से क्या होगा और भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है नहीं मालूम फिर जो पल आज है अभी है उसी को अपनाना है जीना है सार्थक जीवन बनाने को। कितने वर्ष की ज़िंदगी का कोई हासिल नहीं है जितनी मिली उसको कितना जीया ये ज़रूरी है। 

    लोगों से अच्छे खराब होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहता हूं खुद अपनी नज़र में अपने को आंखे मिलाकर देख पाऊं तो बड़ी बात है। मगर यही कठिन है। मैली चादर है चुनरी में दाग़ है और अपना मन जानता है क्या हूं क्या होने का दम भरता हूं। वास्तविक उलझन भगवान से जाकर सामना करने की नहीं हैं अपने आप से मन से अंतरात्मा से नज़र मिलाने की बात महत्वपूर्ण है। और अब यही कर रहा हूं। मैंने खुद को कभी भी बड़ा नहीं समझा है बल्कि बचपन से जवानी तक कुछ हद तक हीनभावना का शिकार रहा हूं। कारण कभी मुझे समझ नहीं आया क्यों हर किसी ने मुझे छोटा होने अपने बड़ा होने और नीचा दिखाने की कोशिश की है। बहुत कम लोग मिले हैं जिन्होंने मेरे साथ आदर प्यार का व्यवहार किया है। जाने कैसे मैंने अपना साहस खोया नहीं और भीतर से टूटने से बचाये रखा खुद को। मुझे कभी किसी ने बढ़ावा देने साहस बढ़ाने को शायद इक शब्द भी नहीं कहा होगा हां मुझे नाकाबिल बताने वाले तमाम लोग थे। मुझे किसी को नीचा दिखाना किसी का तिरस्कार करना नहीं आया और नफरत मेरे अंदर कभी किसी के लिए नहीं रही है। ऐसा दोस्त कोई नहीं मिला जो मुझे अपना समझता मुझे जानता पहचानता और साथ देता। अकेला चलना कठिन था मगर चलता रहा रुका नहीं कभी भी।

    जब भी मुझे निराशा और परेशानी ने घेरा तब मुझे इस से बाहर निकलने को संगीत और लेखन ने ही बचाया और मज़बूत होना सिखाया है। अपनी सभी समस्याओं परेशानियों का समाधान मुझे ग़ज़ल गीत किताब पढ़ने से हासिल हुआ है। इंसान हूं दुःख दर्द से घबराता भी रहा मगर जाने क्यों अपने ग़म भी मुझे अच्छे लगते रहे हैं ग़म से भागना नहीं चाहा ग़म से भी रिश्ता निभाया है। ग़म को मैंने दौलत समझ कर अपने पास छिपाकर रखा है हर किसी अपने ग़म बताये नहीं। इक कमज़ोरी है आंसू छलक आते हैं ज़रा सी बात पर हर जगह मुस्कुराना क्या ज़रूरी है कभी ऐसा हुआ कि हंसने की कोशिश में पलकें भीग जाती हैं। अपने आप को पहचानता हूं और अब तन्हाई अकेलापन मुझे अच्छा लगता है उन महफिलों से जिन में हर कोई अपने चेहरे पर सच्चाई भलेमानस की नकाब लगाए इस ताक में रहता है कि कब अवसर मिले और अपनी असलियत दिखला दे। ये दुनिया और उसकी रौनक मुझे अपनी नहीं लगती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात मुझे बचपन से दोस्ती की चाहत रही है। बहुत दोस्त बनाए हैं साथ दोस्तों से कम रहा है बस इक सच्चे दोस्त की तलाश रही है जो मुझे समझता भी और जैसा हूं वैसा अपनाता भी शायद कहीं है कोई कभी मिलेगा भरोसा है या सपना हो सकता है। ज़िंदगी ने जितना दिया बहुत है। 
 

   फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( अफ़साना बयां करती ग़ज़ल और नज़्म ) 

( सभी ग़ज़ल से प्यार करने वाले दोस्तों और साहित्य पढ़ने में रुचि रखने वाले बंधुओं को जानकार ख़ुशी होगी कि मेरी पहली पुस्तक ग़ज़ल एवं नज़्म की 151 रचनाओं की आपको पढ़ने को उपलब्ध करवा दी जाएगी। 

किताब की सिमित प्रतियां लागत मूल्य पर भेजी जा सकती हैं अथवा प्रकाशक से खरीद सकते है। 

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पर मुझसे बात कर मंगवा सकते हैं। 

विश्वास है आपको पसंद आएंगी मेरी चुनिंदा रचनाएं शामिल हैं। 

डॉ लोक सेतिया।  )

 
 
डॉ लोक सेतिया 
एस सी एफ - 30 
मॉडल टाउन ,
फतेहाबाद ,
हरियाणा - 125050 
मोबाइल नंबर - 9416792330 
 
Blog 
http://blog.loksetia.com 
 
Email:- drloksetia@gmail.com   
 
अपनी ग़ज़ल- नज़्म को यूट्यूब चैनल पर अंदाज़-ए -ग़ज़ल नाम से बनाकर कोशिश की है अधिक चाहने वालों तक पहुंचने की कुछ महीने पहले ही। लिंक नीचे दिया है।
 
 
 https://youtube.com/channel/UC5fgxqiYhBth2eRtsQF7oDw

 

दिसंबर 05, 2021

इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया

   नहीं मालूम मुलाक़ात कैसे हो ( लिखा जिनके लिए जीवन भर ) 

          इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया 

जैसे इक ईबादत इक परस्तिश इक सच्ची मुहब्बत होती है कुछ उसी तरह मैंने जीवन भर लेखन कार्य किया है निःस्वार्थ बिना किसी फायदे नुकसान की चिंता किए। मिलेगा क्या या कुछ भी हासिल नहीं होगा कभी इस पर विचार नहीं किया। पहले पहले अखबार पत्रिका में छपने की चाहत रहती थी धीरे धीरे उस पर ध्यान देना छूट गया जब लिखना इक जूनून बन गया ज़रूरत बन गया मज़बूरी है लिखे बगैर चैन नहीं आता। जैसे कोई खेत में ज़मीन तैयार करता है फसल बोता है पकने पर जिनको ज़रूरत है पहुंचाने को मंडी में सस्ते महंगे दाम बेच आता है लेकिन कभी ये भी होता है जिनको सबसे अधिक ज़रूरत होती है उन्हीं तक अनाज नहीं पहुंचता और अनाज कहीं गोदाम में सड़ता है और कहीं लोग भूखे रह जाते हैं। साहित्य कला की कोई मंडी होती तो नहीं ये कोई बाज़ारी चीज़ नहीं अनमोल वस्तु है दाम चुकाना मुमकिन नहीं लेकिन तब भी इक कारोबार इक बाज़ार बना हुआ है जहां चमकती चीज़ सोना हीरा जवाहरात बनकर खरीदी बेची जाती है। कला का कोई ऐसा मंदिर ढूंढना होगा जहां नाम शोहरत और बाज़ारी तौर तरीके से वाक़िफ़ नहीं जो रचनाकार उनको कीमत नहीं कम से कम उन लोगों से मुलाक़ात तो हो जिन पाठक वर्ग की खातिर उस की कलम तपस्या करती रही। आज ये खुद अपने लिए लिख रहा हूं जब सालों लिखने के बाद किताब छपवाने का कार्य करने लगा हूं। शायद बहुत लिखने वालों की यही चिंता रहती होगी पाठक की तलाश पढ़ने वालों से सीधा संवाद कैसे कायम हो। 
 
पुस्तक छपवाने का फैसला लेना आसान नहीं रहा है इक बड़ा लंबा रास्ता तय किया है खुद अपनी डगर बनाना कोई खालाजी का घर नहीं है। कितने काफ़िले बने कितने हमराही बन चले साथ बिछुड़ते रहे लघुकथा क्या कहानी भी नहीं उपन्यास लिखना होगा। मेरे बस की बात नहीं फिर भी पाठक की तलाश का सफर कैसा था बताना तो पड़ेगा। कोई बीस साल पहले मुलाकात की बड़े नाम वाले शानदार साहित्यकार से दिल्ली में। पूछा आप महान कथाकार हैं किताबें भी छापने का कारोबार करते हैं मुझे सलाह दें ग़ज़ल की किताब छपवाना उचित होगा। जवाब हैरान करने वाला था , हिंदी में कौन पढ़ता है अपनी तसल्ली को पैसे खर्च कर छपवा जान पहचान के लोगों को उपहार दे देते हैं। अख़बार पत्रिका में समीक्षा खुद ही किसी से लिखवा भेजते हैं साहित्य अकादमी में निदेशक से मधुर संबंध बना कर नाम शोहरत ईनाम पुरूस्कार हासिल कर समझ लेते हैं लिखना सफल हुआ। मैंने कहा आपकी मेहरबानी खुल कर वास्तविकता समझाई लेकिन मेरा मकसद ऐसा हर्गिज़ नहीं है ये शोहरत नाम ईनाम पुरूस्कार नहीं चाहता उद्देश्य सार्थक सृजन है जो साहित्य में रूचि रखने वाले पाठक तक बात पहुंचे ताकि समाज की वास्तविकता उजागर होने एवं बदलाव लाने में उपयोगी हो। 
 
लिखने वाले कितने लोगों से मिलते मिलते लगने लगा साहित्य के नाम पर अधिकांश का ध्येय समाज की वास्तविकता और विसंगतियों को उजागर कर आईना दिखाना बदलाव कर अच्छे समाज का निर्माण करना नहीं बल्कि खुद अपने आप पर आत्ममुग्ध होना है। आगे बढ़ना ऊंचाई पर पहुंचने को हर तरह से चतुराई और समझौता कर इक मुकाम पाना रहा साहित्य जगत में जगह बनाना। जिस समाज की दुःख दर्द की असमानता अन्याय अत्याचार की बात लिखते हैं कविता कहानी ग़ज़ल उपन्यास में वास्तव में उन से सरोकार कहने को ही है वास्तविक संवेदना कहीं खो जाती है। जैसे किसी दर्द भरी दास्तां लिखने वाला कथाकार खाली पेट दर्द सहकर लिखता है लेकिन फ़िल्म में तालियां और दौलत अभिनेता के हिस्से में आती हैं जो गरीबी भूख बेबसी से अनजान होता है। 
 
अखबार पत्रिकाओं में रचनाएं छपना अच्छा लगता है लेकिन आपको छापने वालों का आभार व्यक्त करने के साथ उनकी उचित अनुचित बातों को लेकर खामोश रहना पड़ता है। जैसे आपने लेखक के अधिकार उस के जीवन यापन जैसी बात पर ध्यान दिलाया गलती से मेहनताना नहीं मिलने की बात अथवा उनके दोहरे मापदंड अपनाने को लेकर शब्द लिख दिया आपको सज़ा मिलना तय हो जाता है। चाटुकारिता उनको भी खूब भाती है खुद विज्ञापन देने वालों को भगवान की तरह मानते हैं और जो इनकी बढ़ाई का गुणगान करता है उन की रचनाओं को जगह देने को तैयार रहते हैं। आजकल सोशल मीडिया पर छापने वाले संपादक का आभार जताना रिवायत बन गया है। कोई ज़माना था संपादक फोन कर चिट्ठी भेज कर अनुरोध किया करते थे रचना भेजने को। अखबार पत्रिका टीवी सीरियल फिल्म अर्थात जहां कहीं भी विचार विमर्श समाज की जनहित जनकल्याण की बात होना ज़रूरी है लेखक जो आधार होता है बुनियाद की तरह पहली ज़रूरत उसका स्थान हाशिए पर होता है। जिनकी खुद की किताबों की रायल्टी मिलती है वो भी अपने संस्थान में रचनाकार को मानदेय तक नहीं भेजते कभी कभी तो लेखक का शोषण किया जाता है सदस्य्ता शुल्क नहीं भेजते तो रचनाएं नहीं छपती उनका चलन है। ऐसा लगता है साहित्य का उपयोग सभी करते हैं उसकी कीमत नहीं समझते बस साहित्य का कारोबार खूब बढ़ रहा है मकसद की धारणा छूट गई है। 
 
समाचार पढ़ते हैं अमुक साहित्यकार ने पुस्तक भेंट की सरकारी बड़े अधिकारी राजनेता किसी बड़े नाम वाले समाजसेवी अभिनेता आदि को। इतने व्यस्त रहते हैं और उनको साहित्य से सरोकार नहीं होता बल्कि बहुत लोग विपरीत आचरण करने वाले भी हो सकते हैं लिखने वाले को अवसर मिलना चाहिए फिर रामायण गीता की तरह आदर्शवादी कृति को रिश्वतखोर भ्र्ष्टाचारी को भी सच्चाई ईमानदारी पर लिखी पुस्तक भेंट करते उनसे प्रेरणा पाने की बात कहने में संकोच नहीं होता है। हज़ारों रूपये मूल्य की महान लोगों की जीवनी लिखने वाले की पुस्तक सरकारी अनुदान देने वाली संस्था विश्वविद्यालयों को खरीदने को लिखती देखी। काश यू जी सी से हम भी ऐसा सहयोग पा सकते , ये व्यंग्य रचना " मेरी भी किताब बिकवा दो "
छप चुकी है इरादा नहीं उस राह चलने का। 
 
पहली किताब जल्द ही छपने वाली है ग़ज़ल और नज़्म की। और उस के बाद कविताओं की , फिर व्यंग्य रचनाओं की उसके बाद कहनियों की पुस्तक तैयारी की हुई है। सच कहना चाहता हूं मुझे नहीं मालूम कौन मेरी रचनाओं को पढ़ना चाहता है। इस पोस्ट के माध्यम से पाठक की तलाश है जिनको हिंदी साहित्य की ललक हो चाह हो। कीमत की चिंता मत करना लागत मूल्य पर भेजने का संकल्प है और भरोसा है कि आपको खेद नहीं होगा पढ़कर कुछ सार्थक मिलेगा उम्मीद है। 
 
संपर्क - 9992040688 पर बात कर सकते हैं पुस्तक मंगवाने के लिए। छपते ही सूचना आपको एवं सोशल मीडिया पर दी जाएगी।
 


दिसंबर 02, 2021

कांटो का गुलशन है ये ( सोशल मीडिया की बात ) डॉ लोक सेतिया

   कांटो का गुलशन है ये ( सोशल मीडिया की बात ) डॉ लोक सेतिया 

मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली , इसी तरह से बसर हमने ज़िंदगी कर ली। कैफ़ी आज़मी के अल्फ़ाज़ मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ अनोखी रात फिल्म का गीत नायक परीक्षित साहनी का किरदार असित सेन का निर्देशन सब पर्दे पर लाजवाब लगता है वास्तविक ज़िंदगी में बात अलग होती है। बशीर बद्र जी की बात सही लगती है , भूल शायद बहुत बड़ी कर ली , दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली। सोशल मीडिया पर चाहा था अच्छे सच्चे दोस्त की तलाश पूरी हो जाए शायद हुआ ऐसा कि दुश्मनी शब्द भी छोटा लगता है। घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए। हर कोई फेसबुक व्हाट्सएप्प को कचरा डालने की जगह समझता है मन की बात कम होती है अनबन की ज़्यादा। समय की बर्बादी होती है हासिल इतनी उलझन कि समझना मुश्किल हो जाता है सच क्या झूठ क्या , अफ़वाह का बाज़ार  सा है घबराहट होने लगती है लगता कोई पागलखाना है जिस में सभी मनोरोगी नासमझ फज़ूल की बकझक अजीब सी उल्टी सीधी हरकतें कर ख़ुशी से नाचते झूमते हैं। कोई पागल खुद को पागल नहीं मानता सबको लगता है बाक़ी दुनिया पागल है। खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो फ़िल्मी नायक का पागलपन ठीक करने को अमीर बाप बाज़ार से खिलौने की तरह नाचने वाली बुला लाते हैं। सोशल मीडिया के पागलपन का कोई ईलाज मुमकिन नहीं है इश्क़ के मरीज़ की तरह मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की , फेसबुकिया इश्क़ पर लानत खुदा की। इस नामुराद सोशल मीडिया का नशा उन पर और गहरा चढ़ता है जिनको शराब अफ़ीम चरस गांजा सिगरेट जैसे नाम से भी परहेज़ है , तौबा तौबा क्या कहते हैं भाई हम शाकाहारी धर्म संस्कार वाले नशे की बात करना गुनाह है। नाम लिया हुआ है गुरूजी के दर्शन करते हैं निहाल हो जाते हैं। 
 
सोशल मीडिया जानने समझने की जगह नहीं कोई मैदान ए जंग बन गया है भाई बंधु दोस्त रिश्तेदार सब को छोड़ सकते हैं किसी की चाटुकारिता अंधभक्ति कभी नहीं छोड़ सकते। जिनकी महिमा का गुणगान करते हैं उनके सौ खून हज़ार गुनाह करोड़ झूठ माफ़ किये जा सकते हैं उनकी आलोचना करने वालों का सच माफ़ी के काबिल नहीं उसकी सज़ा ज़रूरी है। क्या करें खुदा बना लिया जिसको जीहज़ूरी करना मज़बूरी है। इस सोशल मीडिया ने बढ़ाई आपस में दूरी है नफरत की खाई रास्ते में आई है चोर पुलिस ने मिलकर शपथ उठाई है। जो ईमानदार कहलाये सबसे बड़ा हरजाई है अधिकारी नेता माई बाप हैं गरीब जनता सबकी भौजाई है। अजब मुसीबत है गले पड़ा ढोल है बजाना पड़ता है स्टेटस कुछ भी नहीं स्टेटस बढ़ाना है तो बिना कारण मुस्कुराना पड़ता है बिना सोचे समझे बगैर जाने पढ़े बिना लाइक दबाना पड़ता है। कमेंट क्या लिखना समझते नहीं स्माइली से काम चलाना पड़ता है। फुर्सत नहीं काम कितने कोई करे मसरूफ़ हैं समझाना पड़ता है दिल नहीं लगता दुनिया में स्मार्ट फोन पर घंटों बैठ वक़्त बिताना पड़ता है। बस मज़बूरी हो पेट भरने को खाना और वाशरूम जाकर नहाना पड़ता है रिचार्ज करवाना मज़बूरी है वाई फाई लगवाना पड़ता है। 
 
हम आज़ाद नहीं गुलाम बन गए हैं सच कहें तो कागज़ी पहलवान बन गए हैं। कठपुतली सभी नादान इंसान बन गए हैं अजनबी लोग भाईजान मेहरबान बन गए हैं। चाय की प्याली के हम तूफ़ान बन गए हैं। अभिशाप मिला है हमको नासमझी को समझदारी मानते हैं आदमी थे पायदान बन गए हैं । आखिर में इक ग़ज़ल के बोल हैं।   
 

कोई समझेगा क्या राज़ ए गुलशन , जब तक उलझे न कांटों से दामन। 

गुल तो गुल खार तक चुन लिए हैं , फिर भी खाली है गुलचीं का दामन। 

   फ़ना निज़ामी कानपुरी ( शायर )

 

 

नवंबर 30, 2021

साहित्य में आरक्षण ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         साहित्य में आरक्षण ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

ये कभी सोचा ही नहीं था आज इक साहित्य की पत्रिका को लेकर रचना भेजने की बात हुई तो सुनकर हैरानी हुई कि अगले काफी अंक निर्धारित किये जा चुके हैं कैसे रचनाकार शामिल करने हैं। खुद उन्हीं के शब्दों में अगला विशेषांक बड़े बड़े सरकारी अधिकारियों की रचनाओं को लेकर होगा। साहित्य की इस दशा पर गर्व कर सकते हैं या खेद जता सकते हैं ये वही जाने जो साहित्य में भेदभाव से आगे बढ़कर ख़ास वर्ग को आरक्षण देने की बात सोच भी सकते हैं। शायद जिनकी रचनाएं छपनी हैं उनको भी ये समझ आया होगा ये अनुकंपा किसी विशेष उद्देश्य से हासिल होगी। चलो कल्पना करते हैं कोई उच्च पद पर बैठा सत्ता के नशे में मस्त अपना नाम साहित्यकारों में शामिल करवाना चाहता है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। मुझे कोई अठाहर वर्ष पुरानी घटना याद आती है , शाम का समय था मेरे घर के करीब ही इक अखबार के पत्रकार के दफ़्तर में बैठे बातें करते करते उनके कूड़ेदान पर नज़र गई देखा सफेद कागज़ पर टाइप की कुछ कविता जैसी झलक दिखलाती हुई रचनाएं फेंकी गई थी। उनसे अनुमति लेकर कूड़ेदान से उठाकर पढ़ना चाहा क्योंकि उन्होंने बताया था कि उपायुक्त के दफ़्तर से कोई प्रेस नोट के साथ ये भी दे गया जो अखबार की कोई खबर नहीं बन सकता इसलिए सही जगह कूड़ेदान में पहुंच गए रद्दी कागज़। रचनाएं अच्छी या खराब की बात नहीं मगर जिनको मिली उनको किसी काम की नहीं लगी। मुझे लगा चलो इतना तो पता चला शहर का बड़ा अधिकारी साहित्य में रूचि रखता है। 
 
मैंने अगले दिन उनको फोन कर बताया हम शहर में कुछ लिखने वाले हैं जो कब से साहित्य की इक संस्था का गठन करने की कोशिश करते रहे हैं मगर सफल नहीं हुए। उन्होंने मुझसे सभी ऐसे लोगों को बुलाने को कहा तो मैंने कहा कोशिश करता रहा मगर कोई न कोई रूकावट खड़ी हो जाती है। ठीक है आप मुझे सबके फोन नंबर भेज देना किसी दिन मैं खुद सबको इकट्ठा कर साहित्य की सभा गठित कर लूंगा। और फिर हरिवंश राय बच्च्न जी का निधन होने पर श्रद्धा अर्पित करने को सभा बुलाई गई जनवरी 2003 का आखिरी सप्ताह था। हर महीने पच्चीस तीस लोग मिलते कविता पाठ करते मगर वास्तव में कोई अफसराना ढंग उनका नहीं था सब इक समान थे बड़े छोटे का कोई भेदभाव नहीं था। तबादला होने पर उन्होंने कोशिश की थी इक चेक सरकारी कोष से देने की लेकिन हम सभी ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि हम सभी सदस्यों ने जितने भी आयोजन किये थे खुद अपनी जेब से पैसे खर्च कर किये थे। कभी किसी अधिकारी किसी नेता किसी धनवान सेठ साहूकार से चंदा नहीं मांगा था। मगर सभी अधिकारी इक जैसे नहीं होते इसका अनुभव भी होता रहा है। 
 
साहित्य अकादमी का निदेशक हमेशा कोई अव्वल दर्जे का लेखक होता है मगर इक बार सत्ता से मधुर संबंध रखने वाले इक पब्लिशर पर शासक की अनुकंपा हुई। उनका कारोबार पुस्तक छापने से अधिक बेच कर कमाई करने का था। बस उन्होंने अंधा बांटे रेवड़ियां मुड़ मुड़ अपनों को दे की बात सच साबित कर इक ऐसी परंपरा शुरू की जिसको भविष्य में कोई बदल नहीं सकता है। शासक राजनेताओं का नाम उनकी महिमा का गुणगान कर साहित्य अकादमी का बजट बढ़ते बढ़ते कई करोड़ हो गया। राज्य भर में साहित्य चेतना यात्रा का आयोजन किया गया लेकिन शहर के लिखने वालों से नहीं मिल कर अधिकारी वर्ग के साथ जलपान आदि करते करते साहित्य को छोड़ अन्य मकसद साधते रहे। जब जो भी राजनेता सत्ता में आता है उसी तौर तरीके से अपने अधिकार का उपयोग करता है। कुछ साल पहले शासक की पहचान का इक लेखक उनसे मिलने उनके निवास राजधानी गया और अपनी दो पुस्तक भेंट की उनको। शासक ने अपने संगठन के साथी को अगले ही दिन दो लाख की पुरुस्कार राशि देने की बात कह दी। साहित्य अकदमी के नियम में बदलाव कर मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी शासक ने कर दिखलाया। ऐसे ही किसी अन्य को सम्मान पुरुस्कार देना था लेकिन वो अपने राज्य में रहते नहीं थे तो किसी और के घर के पते पर रहने की व्यवस्था औपचरिकता निभाने को करना कोई कठिन नहीं था। साहित्य में बड़े अधिकारियों को महत्व देना काम आता है लेकिन उनको आरक्षण की आवश्यकता पड़ना उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगता है। ये कुछ अलग ढंग का तालमेल है भाईचारा से बढ़कर याराना बनाने की बात है। ऊपर जाने की सीढ़ी जो आपको वास्तव में नीचे धकेलती है। काल्पनिक रचना है किसी व्यक्ति की बात नहीं व्यवस्था की बात है। संयोग से घटना मेल खा जाए तो अलग बात है इरादा किसी पर आरोप आक्षेप लगाना हर्गिज़ नहीं। चोर की दाढ़ी में तिनका जैसा होना मुमकिन है।
 
 

नवंबर 29, 2021

परियों की रानी की डोली ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

    परियों की रानी की डोली ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

चार कहार अपने कांधों पर उठाए सजी हुई पालकी में घूंघट ओढ़े बैठी दुल्हन को राजमहल की तरफ बढ़े जा रहे थे। सत्ता के कदम डगमगाते झूमते जश्न मनाते मौज मस्ती में राजधानी की मुख्य सड़क पर बढ़ते चले जा रहे थे। आगे पीछे दाएं बाएं चारों तरफ सुरक्षा का घेरा कायम था सत्तासुंदरी मदिरा का सरूर हल्का हल्का पूरी राजसी बरात पर असर दिखला रहा था। डोली मयकदे से परियों की रानी को लेकर चली चलती जा रही थी। शासन को अपनी शान बढ़ानी थी राज्य भर में शहर शहर गांव गांव गली कूचे में बहुबेगम का ठिकाना बनाया हुआ था तरह तरह की मय की बोतल कितने रंगीन परिधान पहने मचलती सी आगोश में आने को नज़दीक खींचती लगती थी। लोग दो घूंट मुझे भी पिला दे साकी कहते अपने पर्स से नोटों को निकाल डोली पर फैंकते पैसों की बारिश हो रही थी। शराब खराब नहीं होती कभी भी शराबी नाहक बदनाम हैं। न-तज़रबा-कारी से वाई'ज़ की हैं ये बातें , इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है। अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं। शराबी फ़िल्म देखने वाले अभिनेता को इतना चाहते हैं कि ऊंचे आसमान पर बिठा देते हैं। बड़ी मुबारिक चीज़ है माना कि बहुत बदनाम है ये छू लेने दो नाज़ुक होंटों को , कुछ और नहीं है जाम है ये। कुदरत ने जो हमको बख़्शा है वो सबसे हसीं इनाम है ये। साहिर लुधियानवी जी फ़रमाते हैं। राजकुमार अभिनेता की बात ही अगल थी जानी हम वो हैं जो शीशे से पत्थर को तोड़ते हैं। झूठ नहीं कहता ये दुनिया कभी इतनी खूबसूरत और रंगीन नहीं होती अगर शराब मयकदा साक़ी और पीने वाले नहीं होते। जन्नत की चाहत लोग परियों और शराब की आरज़ू में करते हैं मरने के बाद जीते जी प्यासे रहते हैं। 
 
शराब का नशा कुछ पल का नशा है असली नशा मुहब्बत का होता है जो हर किसी को नसीब नहीं होता है। महंगी सस्ती होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है पीने वाला और पिलाने वाले का अंदाज़ तौर तरीका कैसा है अंतर उस में है। मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूं दोस्तो , ज़हर भी इसमें अगर होगा दवा हो जाएगा। बशीर बद्र जनाब कहते हैं। शायरी और शराब साकी और मयखाना इनका रिश्ता कमल का होता है। शराब से बढ़कर कोई साथी नहीं हो सकता इक यही है जो ख़ुशी को कई गुणा बढ़ाती भी है और हज़ारों ग़म को भुलाती भी है। महान शायर कह गए हैं जिसको शराब मिल जाये उसको कुछ और क्यों चाहिए बस यही खुद इंतज़ाम करना पड़ता है बाकी सब ऊपरवाला खुद देता ही है। सरकार शराब के सहारे ज़िंदा रहती है चुनाव लड़ने से सरकारी खज़ाने भरने तक बस उसी का भरोसा नेताओं को रहा है। अधिकारी कर्मचारी आपसी भाईचारा बनाये रखने को पीने पिलाने के दौर चलाते रहते हैं दफ़्तर के झगड़े रिश्वत का बटवारा की तकरार खत्म होती है शाम की रंगीन महफ़िल में जाम से जाम टकराते ही। 
 
शराब हौंसला बढ़ाती है नशे में आदमी असंभव को संभव कर दिखाता है। बज़ुर्ग सुनाया करते थे इक बादशाह रात को हाथी पर शहर का मुआयना करने निकला तो इक शराबी ने नशे में पूछा बताओ ये हाथी कितने का दोगे मुझे खरीदना है मुंहमांगे दाम दूंगा। बादशाह ने सुबह दरबार में बुलाया और पूछा बताओ क्या कीमत लगाओगे मेरे हाथी की। उसने जवाब दिया सरकार रात वाले व्यौपारी चले गए अब सौदा नहीं हो सकता है। शराब का नशा दौलत शोहरत ताकत सत्ता अहंकार का नशा उतरता है तो अपनी औकात पर पहुंच जाते हैं सभी अन्यथा है कोई पूछता है तेरी औकात क्या है यानि बंदा नशे में है । मुझको यारो माफ़ करना मैं नशे में हूं। 
 

 

नवंबर 25, 2021

दिल-औ दिमाग़ के जाले साफ़ कर ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया

  दिल-औ दिमाग़ के जाले साफ़ कर ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर कभी सही निर्णय नहीं लिए जा सकते हैं। पंचायत अदालत जब किसी विषय पर विचार करती है तब इंसाफ करने को पहली शर्त अपना नज़रिया छोड़ निरपेक्ष होकर विवेक से सोचना समझना होता है। हम कौन हैं पुरुष हैं या नारी हैं उस धर्म या इस धर्म किस नगर गांव देश के हैं किसकी संतान हैं किस से क्या संबंध है इन सभी बातों को एक तरफ रखकर समझना चाहिए। यहां केवल समझने को कई विषय पर विमर्श करना है। शुरआत शानदार भवन उपासना करने को बनाने से करते हैं। ईश्वर को किसी आलीशान महल की चाहत भला हो सकती है अगर चाहता तो खुद बना सकता था उसकी बनाई पूरी दुनिया धरती आकाश पानी हवा जीव जंतु पेड़ पौधे सुंदरता की अनुपम मिसाल रंग बिरंगी कलिया फूल धूप छांव उजाला अंधेरा रात दिन मौसम हरी वादियां चांद सितारे कितना कुछ जिसकी कोई सीमा नहीं गिनती नहीं सब उसी का घर ही है कोई उसको किसी छोड़ी जगह रखने की कोशिश करता है तो नासमझ है। क्या आदमी खुद को ईश्वर से विधाता से ऊपर समझता है जो दावे करता है कहां कितने भव्य मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर निर्माण कर रहे हैं। खुद को हर धर्म से अलग कर ईश्वर पर विश्वास करते हुए सोचना क्या ख़ुदा भगवान विधाता जो एक है एक ही है उसे अपने लिए हर जगह घर निवास करने को चाहिएं या उसको ख़ुशी होगी जब उसके पैदा किये सभी बंदे इक घर में रहें बेघर कोई नहीं हो। धर्म समाज के भलाई के नाम पर हमने इंसानों को छोड़ पत्थरों को महत्व देना कैसे शुरू किया कहां से सीखा है। हर धर्म वास्तव में सही भक्ति ईबादत पूजा उपासना का मार्ग अपनाता तो कोई भी दुनिया में बेघर बेआसरा बेसहारा बेबस नहीं होता और दुनिया कितनी खूबसूरत बन जाती। 
 
अब विषय देश में बहुमत जिस का है उस धर्म का सर्वोचता समझने का। देश में अधिकांश लोग गरीब हैं तो क्या गरीबों की पसंद से व्यवस्था होनी चाहिए और अगर सभी निर्णय गरीबी की रेखा से नीचे के वर्ग की इच्छा से लिए जाएं तो रईस अमीर लोग बहुमत की भावना को स्वीकार कर अपना सब सभी में बराबर बांटने को राज़ी होंगे। कहने भर को देश में लोकतंत्र है वास्तव में धन बाहुबल और चोर चोर मौसेरे भाई की तरह कुछ मुट्ठी भर लोग स्वार्थ की राजनीति और शासन सत्ता के अधिकारों का मनमाना उपयोग कर संविधान से छल कर रहे हैं कभी किसी को देश के अधिकांश लोगों ने मतदान में पचास फीसदी मत नहीं दिए हैं अर्थात तीस फीसदी पाकर सत्ता पर होते हैं और अधिकांश जनता की भलाई उनकी प्राथमिकता नहीं होती है। देश की सबसे बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है क्या सभी किसान मज़दूर एक हो जाएं तो उनकी सरकार बन कर नौकरी कारोबार उद्योग सबके लिए मुश्किल खड़ी करने को नियम लागू कर सकते हैं। वास्तव में देश में अधिकांश लोग किसान मज़दूर महनत करने वाले खुदगर्ज़ मतलबी नहीं हैं उनको अपना पेट भरना है जीवन बसर करना है मगर बाकी सबको साथ रखकर सबके संग रहना है। खेद की बात है ये वर्ग खामोश रहता है शराफत से ईमानदारी से थोड़े में गुज़ारा कर संतुष्ट हो जाता है। धनवान राजनेता शासक अधिकारी राजनेता उनकी उपेक्षा करते हैं और उनको अधिकार भी ख़ैरात की तरह देते हैं। 
 
शिक्षित होकर हमने धन दौलत ताकत शोहरत पाने को क्या नहीं किया बस नहीं किया तो सच और झूठ को समझने परखने के बाद अपनी तर्कशक्ति से विचारधारा विकसित करने का कार्य कभी नहीं किया है। काले सफ़ेद की बात नहीं है बात होती है बापू के तीन बंदर खामोश रहने की सीख देते हैं बुराई को अनदेखा करना समस्या का समाधान नहीं उसको ख़त्म करना ज़रूरी होता है। ज़ालिम को ज़ालिम कहना खराब नहीं होता क़ातिल को मसीहा कहने से बचना चाहिए। जिसको खुद अपना पता नहीं मालूम वही दुनिया भर की खबर रखने का दावा करता है। मिट्टी के खिलौने की तरह तीन पुतले बनाकर कोई समझता है कि मेरे बनाये मिट्टी के पुतले भगवान बनकर कल्याण करेंगे। हम सभी जैसे किसी अंधे बंद कुंवें के मेंढक हैं जिनको कुंवा समंदर लगता है अफ़सोस इस बात का है कि हम अंधे कुंवे में रहकर खुश हैं बाहर निकलना ही नहीं चाहते और कोई बाहर निकालने की कोशिश करता भी है तो हम बाहर निकलते फिर वापस उसी कुंवे में छलांग लगा देते हैं। कैफ़ी आज़मी की नज़्म की तरह। और चिल्लाने लगते हैं हमको रौशनी चाहिए हमको आज़ादी चाहिए। 
 

 

नवंबर 23, 2021

धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

  धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

ये सवालात पुराने हैं बचपन से दादाजी मुझसे धार्मिक किताबों को पढ़ कर सुनाने की बात करते थे। जाने क्यों धार्मिक कथाओं को पढ़ते पढ़ते मेरे मन में कई बातों पर उलझन होती थी तार्किक दृष्टि से समझना चाहता था बालमन। दादाजी परिवार के बड़े आदरणीय सदस्यों से बहस करना अनुचित होता ये शिक्षा मिली थी फिर भी घर में जब कभी भगवाधारी संत साधु सन्यासी आया करते तब उनसे पूछने की कोशिश करता था जिसको वो एवं अन्य लोग बचपन की नादानी नासमझी है सोचकर महत्व नहीं देते थे। थोड़ा बड़ा हुआ तो ईश्वर धर्म को जानने समझने की उत्सुकता को नास्तिकता घोषित किया जाने लगा। मगर मन मनस्तिष्क में उथल पुथल जारी रही मैंने धर्म को लेकर कुछ किताबों का अध्यन किया धर्म उपदेशकों से मिलने पर अपनी जिज्ञासा और शंकाओं पर चर्चा की लेकिन कोई संतोषजनक जवाब किसी से मिला नहीं कभी अभी तक भी। सभी धर्म इस पर एकमत हैं कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। सत्य हमेशा एक समान रहता है किसी की मर्ज़ी सुविधा से सत्य घटता बढ़ता नहीं है सत्य में झूठ की मिलावट कभी संभव ही नहीं है ठीक उसी तरह जैसे घी और जल नहीं मिलते कभी। 
 
मैंने किसी धार्मिक पुस्तक में ऐसा लिखा नहीं पढ़ा कि ईश्वर की उपासना धर्म के मार्ग पर सच्चाई की राह पर चलने के लिए किसी धार्मिक स्थल मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा की आवश्यकता होती है। ईश्वर को पाने की नहीं समझने की ज़रूरत होती है और विधाता किसी भी नाम से मानते हैं उसको हर प्राणी में धरती के कण कण में निवास करने पर भरोसा होना चाहिए। चाहे कोई भी हो अगर धार्मिक जगह जाता हो पूजा अर्चना ईबादत नाम जपना माला फेरना जैसे कार्य करता हो लेकिन आचरण में धार्मिक पावन और हर जीव जंतु मानव से प्यार की भावना नहीं रखता हो तब उन बातों का कोई औचित्य नहीं केवल दिखावा आडंबर है। भगवान को आप कुछ भी दे ही नहीं सकते क्योंकि उसी ने दुनिया बनाई सबको जो भी मिला दिया ऐसे में दाता को भिखारी कैसे बना सकते हैं वास्तव में ईश्वर को रहने को कोई ईमारत नहीं चाहिए उसको हमको अपने हृदय में चेतना में रखना चाहिए। जब मन में परमात्मा का निवास होगा तब कोई पाप कोई अपराध कोई अन्याय कोई अत्याचार कैसे कर सकते हैं। अपने स्वार्थ में अंधे होकर सिर्फ अपनी महत्वांकाक्षा पूरी करने वाले सबसे पहले अपने भीतर से परमात्मा को बाहर निकालते हैं। 
 
धार्मिक स्थल आयोजन कभी अनुचित तरीके से नहीं किये जा सकते हैं। दान धर्म तभी उचित है जब कमाई नेक और ईमनदारी की से करते हैं। अनुचित ढंग से अवैध रूप से धार्मिक जगह बनाएंगे तो क्या ईश्वर ऐसी जगह रहना पसंद करेंगे इस विषय पर सोचना। महान साधु संतों ने कभी धनवान लोगों , शासक वर्ग या ताकत के ज़ोर पर कमज़ोरों को सताने दबाने वालों के सामने घुटने टेकना मंज़ूर नहीं किया बल्कि उनको साफ शब्दों में गलत कहने का साहस किया। इधर आजकल जिधर देखते हैं कलयुगी धार्मिक समारोह में इन्हीं लोगों को मंच पर बिठाने का कार्य कर कोई मकसद साधने की बात होती है। लोभ लालच मोह माया छोड़ने का उपदेश देने वाले खुद ऐसे जाल में फंसे हुए हैं। रिश्वतखोर व्यवसाय कारोबार में लूटने वाले अपनी काली कमाई से समाजसेवा कर धर्मात्मा कहलाना चाहते हैं। धर्म की मानव कल्याण की डगर कठिन है अधर्म पाप अनाचार अत्याचार लूटने के कर्म कर हराम की कमाई से समाजसेवा करना असली चेहरे पर नकली मुखौटा लगाना है। 
 
जिस समाज में आधी आबादी भूखी रहती है बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती सर्दी ठंड गर्मी धूप लू बारिश में लोग छत को तरसते हैं कोई धर्म उन दीन दुखियों की सहायता छोड़ धार्मिक आडंबर करने ऊंचे ऊंचे भवन बनाने की बात कैसे समझा सकता है। जब हर धर्म की शिक्षा मानवता समानता की बात करती है तब हर जगह सभाओं में ख़ास लोग धनवान सत्ताधारी होना साबित करता है कि धर्म पालन करने से अधिक धार्मिक होने कहलाने की आकांक्षा महत्वपूर्ण हो गई है। बड़े बड़े शासक राजनेता किसी तथाकथित संत के गैरकानूनी ढंग से पर्यावरण से खिलवाड़ करने वाले समारोह में शामिल होने से देश की न्याय-व्यवस्था और नियम कानून सबके लिए बराबर नहीं होना देख कर लगता है धर्म अधर्म का अंतर मिट गया है। सभा बेशक भ्रष्टाचार का विरोध करने को लेकर हो मंच पर रिश्वतखोर अधिकारी राजनेता विराजमान होते हैं तब लगता नहीं उनकी अंतरात्मा किसी अपराधबोध से ग्रस्त होती होगी। झूठ बोलने वाले कथनी और करनी में विरोधाभास का आचरण करने वाले जिस समाज में शोहरत और इज्ज़त पाते हैं उस में धर्म बचा कहां है और ईश्वर को मानना उस का भरोसा करना नहीं बस उसके नाम का दुरूपयोग करना चलन में है। हैरानी की बात है कुछ लोग खुद को भगवान समझने को अपनी खुद की धर्म की किताबें लिख कर अनुयाईयों को भटकाने का कार्य करते हैं ईश्वर को पाने की समझने की बात भूलकर ईश्वर बनने की चाह रखते हैं। विधाता ने कभी अपना गुणगान करवाना नहीं चाहा होगा सोचने पर समझ आता है कि ऐसा कोई साधारण व्यक्ति ही चाह रखता है भगवान कदापि नहीं।
 

नवंबर 19, 2021

मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं ( हास-परिहास )

                                 डॉ लोक सेतिया 

विषय बदल गया है साल तक जिन कृषि कानूनों के फायदे समझा रहे थे अचानक हिसाब लगा रहे हैं उनको हटाने से कितना मुनाफ़ा होगा। राजनीति की शतरंज की बिसात पर मोहरे कब चाल बदलते हैं खेलने वाले खिलाड़ी जानते हैं किस समय कैसे शह - मात की बाज़ी खेलनी है। बात पुरानी है किसी राजनेता ने किसी शायर का शेर पढ़ा था मेरा पानी उतरते देख कर किनारे पर घर मत बना लेना , मैं समंदर हूं लौट कर ज़रूर आऊंगा। समंदर होने का गरूर चूर चूर भी होते देखा है जब हर कतरा अपनी हैसियत समझाने लगे खुद को विशाल समझने या ऊंचाई का शिखर समझने वाले इतिहास में पहले भी वक़्त की ठोकर से सही अंजाम तक पहुंचते देखे हैं। सत्ता मिलने से बंदा ख़ुदा नहीं बन जाता है राजनीति की डगर फिसलन भरी होती है पांव डगमगाते क्षण भी नहीं लगता है। सरकार हमेशा दावा करती है जनता की भलाई करने का जबकि उसको खज़ाना भरने से मतलब होता है घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। ज़हर देने की ज़रूरत नहीं होती चारागर अगर दवा ही नहीं दे तो मन की बात सच हो जाती है और क़त्ल का इल्ज़ाम भी नहीं लग सकता। मुझे वसीम बरेलवी जी की ग़ज़ल का शेर याद आता है। मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं। ये है तो सब के लिए हो ज़िद हमारी है , इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है। ये इक चिराग़ कई आंधियों पे भारी है। 
 
गलत को गलत समझना पड़ता है तभी उसको ठीक करने की बात होती है। मुश्किल होगी जब सरकार जनाब की हर बात पर ताली बजाने वालों को अख़बार टीवी चैनल पर बात को बदल कर बताना पड़ेगा तीन कृषि कानून को निरस्त करने से फ़ायदा होगा। कतरे की ज़िद के सामने झुकना समंदर की तौहीन होगी लेकिन बगैर कतरे समंदर की कोई औकात ही नहीं सीधी सी बात समझ नहीं आती कई बार। चुनावी नतीजे जब निकलेंगे तब निकलेंगे खुद को चाणक्य बताने वाले सर्वेक्षण का धंधा चलाने वाले नहीं जानते नैया बीच भंवर हिचकोले खाएगी डूबेगी कि पार होगी। किनारे पर भी कश्तियां डूबती रहती हैं अब अगर ये पांसा भी उल्टा पड़ा तो वही होगा न खुदा ही मिला न विसाले सनम , न उधर के रहे न इधर के रहे। मुहब्बत की बात होती तो हार कर भी जीत जाते हैं लेकिन सत्ता की राजनीति में आंकड़ों की बाज़ी पलटना भला कैसे मंज़ूर होगा। धड़कन बढ़ती जाएगी बड़ी क़यामत की घड़ी सांस से सांस मिली तो सबको सांस आएगी। अभी किसी को समझ नहीं आएगा कि सरकार पहले सही थी या अब सही है लेकिन कहावत है शासक ताकतवर कभी गलत नहीं ठहराए जाते हैं। कुछ बातें राज़ भी होती हैं और हर कोई जानता भी होता है जैसे हमारे देश में पुलिस का रिश्ता अपराधियों से आंख मिचोली खेलने जैसा होता है। आम लोग अपराध होने पर पुलिस के पास जाते हैं शिकायत करने जबकि अपराधी पहले से भाईचारा बनाने और निभाने की व्यवस्था कर लेते हैं। पुलिस विभाग का चौबीस घंटे उपलब्ध नंबर मिलाने पर मिल भी जाये तो सूचना देने वाले से पूछताछ करने लगते हैं ताकि गुनाह करने वाला बच कर निकल सके। पुलिस वाले विश्वास करते हैं कि अपराध होते हैं तभी उनकी नौकरी वेतन के साथ कितना कुछ मिलता है अत: अपराध खत्म होना उनके हित की बात नहीं होगी। जुर्म होने पर धरे जाने के बाद पुलिस जांच के नाम पर पीड़ित पक्ष को ही परेशान करती है मुजरिम खुला आज़ाद फिरता है। देश की सबसे बड़ी अदालत कहती है उसको लगता है अमुक मामले में पुलिस की जांच इक मिसाल है खराब जांच की। 
 
इक कहानी है जिस में रात को सुनसान जगह पर डाकू रास्ते में कुछ लोगों को घेर लेते हैं मगर मुसाफिर बताते हैं कि हम कवि शायर लोग हैं किसी शहर से कवि सम्मलेन में भाग लेकर लौट रहे हैं। हमको कोई पैसा दौलत नहीं मिलते हैं सिर्फ तालियां और वाह वाह सुनकर खुश हो जाते हैं। हां कोई कोई बड़ा मशहूर हो जाता है तब उसको ईनाम धन दौलत हासिल होती है। डाकू सरदार उनसे नामी शायरों के नाम पते लिखवा लेते हैं और कुछ दिन बाद अपनी बिरादरी का विशेष उत्सव मनाने को कवि सम्मलेन आयोजित करते हैं। कविताएं सुनते हुए शानदार उपहार धन दौलत देकर खुश कर उनको विदा करते हैं लेकिन कुछ दूर पहुंचने पर उनको घेर कर लूटने लगते है सब। कवि शायर कहते हैं छीनना ही था तो पहले दिया ही क्यों तब डाकू सरदार कहते हैं वो हमारा शौक था मौज में दिया लेकिन ये हमारा धंधा है इसलिए अपना काम नहीं छोड़ सकते। बंदूक जिनके हाथ होती है उनका हर निर्णय सही होता है प्यार जतलाना भी और ज़ुल्म ढाना भी शासक का मिजाज़ कब बदले कौन जानता है।
 

                     

 

 

नवंबर 10, 2021

ज़िंदगी जीने का सलीका यही है ( गीता सिंह गौड़ --- केबीसी ) डॉ लोक सेतिया

   ज़िंदगी जीने का सलीका यही है ( गीता सिंह गौड़ ) डॉ लोक सेतिया

53 साल की विवाहित घर परिवार चलाने वाली आत्मविश्वास और संयम स्वाभिमान की पूंजी लिए उस महिला ने आचंभित और प्रभावित कर दिया हर किसी को। बड़ी सादगी से बिना कोई दिखावा आडंबर किये अपनी ज़िंदगी की किताब को सामने रख कर सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान दिलवाने के साथ किसी गिला शिकवा शिकायत आंसू बहाये बगैर उनका सामना करने और वास्तव में प्रगतिशीलता की राह चलने की मिसाल खुद बनकर असंभव कुछ भी नहीं है समझाया। 8 - 9 नवंबर के केबीसी एपिसोड का देखने का बेमिसाल था। शायद ही कभी भाग लेने वाला किरदार में शख़्सियत में अमिताभ बच्चन ही नहीं आधुनिक काल में अन्य जाने माने अन्य नायकों से ऊंचा चमकदार और वास्तविक आदर्श बनकर उभरा दिखाई दिया पहले कभी भी। मुख्य विशेषताओं पर चर्चा करते हैं। 
 
ऐसे गांव समाज जिस में बेटियों को जन्म लेते ही मौत देने की रिवायत रही हो जन्म लेकर अपने दादा जी की ज़िंदगी से सबक सीख कर परिपक्व विचारों वाली महिला बनना ऐतहासिक पौराणिक कथाओं से भी बढ़कर शिक्षा देता है। गीता जी ने बताया उनके दादा जी ने बेटियों को मारने से बचाने को बड़ा ही सही तरीका अपनाया था। जब जिस किसी घर में बच्चे का जन्म होना होता था उसके दरवाज़े के बाहर बैठ जाते और बच्चे की किलकारी सुनकर ही उठते दर से। शिक्षा दिलवाने को गांव से दूसरे शहर परिवार को ले जाकर बेटी को सही परवरिश देने और एम ए तक पढ़ाया गया और विवाह किया गया। गीता जी एल एल बी करना चाहती थी मगर पति ने समझाया उनके समाज में संभव नहीं होगा और वास्तविकता को समझा स्वीकार किया।लेकिन पारिवारिक दायित्व निभाने के बाद घर पति बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए रात को जाग कर पढ़ाई करती रही। 36 साल की होने पर बच्चे बड़े हो जाने के बाद पति से अगर वकालत की पढ़ाई करने पर सहमति पाकर एल एल बी कर ली लेकिन सरकारी नौकरी पाने की आयु निकल चुकी थी। अपनी मंज़िल की तरफ बेहद शांति शालीनता से चलती रही कोई बहाना कोई परेशानी आड़े नहीं आई साहस के सामने। 
 
अपनी सोच और बुद्धि की परिपक्वता विचारों की उनको मार्ग दिखलाती रही और अपनी बेटी का विवाह करते समय अपने पति से कहा कि महिला लड़की बेटी कोई वस्तु नहीं होती जिस को दान दिया जाए। और उन्होंने निर्णय लिया बेटी का विवाह करते कन्यादान नहीं करेंगे और भारतीय अन्य सोलह संस्कारों से एक पाणिग्रहण संस्कार किया गया। विदा करते हुए बिटिया को कहा हमने तुझे दान नहीं किया है छोड़ा नहीं है ये घर तुम्हारा है और हमेशा रहेगा। ससुराल तुम्हारा दूसरा घर है लेकिन अगर कभी भी तुमको कोई परेशानी हो तुम अपने घर आ सकती हो और तुम्हारी एक आवाज़ पर हम तुम्हारे पास होंगे। गीता जी का कहना था हर माता पिता को बेटी से ऐसा कहना चाहिए। अपनी पुरानी परंपरा को निभाते हुए विदाई के समय बेटी के हाथों की छाप दीवार पर नहीं इक कपड़े पर लेकर सहेज कर सुरक्षित रखी है। अगले महीने उनकी बहु घर लानी है बेटे का विवाह निर्धारित हो चुका है उस अपनी बहु का स्वागत अलग ढंग से करने की तयारी की हुई है। घर प्रवेश करते समय धरती पर पांव की छाप की जगह इक कपड़े पर चल कर गली से घर तक लाने की व्यवस्था की जाएगी ताकि उस कपड़े पर बहुरानी के गृहलक्ष्मी के पैरों के निशान हमेशा को संभाल कर शानदार याद की तरह रखे जाएं। 
 
कहीं उनकी किसी बात में नाटकीयता या नकली पन नहीं दिखाई दिया। किसी बड़े नाम वाले से प्रभावित होने जैसा कुछ भी नहीं लगा। किसी क्विज़ से जानकारी पाने की बात अवश्य कही जिसको एकलव्य की तरह बिना मिले देखे शिक्षा पाने को गुरु समझा। पहली बार हुआ कि एक करोड़ के कठिन सवाल का जवाब दो विशेष सहायक लाइन उपलब्ध होने के बाद भी आत्मविश्वास से अपनी जानकारी पर भरोसा रखते हुए दिया जबकि शायद हर कोई शंका मिटाने को उपयोग करना चाहता। इस बात का महत्व बहुत है जो बताता है कि जब आपको खुद पर भरोसा हो तब उपलब्ध होने पर भी किसी की सहायता नहीं लेनी चाहिए। खुद अपने दम पर अपनी राह बनाकर चलने वाले विरले होते हैं। बहुत कुछ याद आ रहा है शेर ग़ज़ल कविता कहानी सब बड़े उच्च कोटि के विद्वान की बातें लेकिन जो खुद रौशनी देते हैं जुगनू सूरज से उजाला नहीं उधार लेते इसलिए किसी का ज़िक्र यहां हर्गिज़ ज़रूरी नहीं है। गवालियर की गीता गौड़ खुद मिसाल हैं और उनको भविष्य में बहुत कुछ कर दिखाना है।

 Gwalior homemaker Geeta Singh Gour becomes third 'KBC 13' crorepati at Big B hosted show

नवंबर 07, 2021

राज़ खुला ज़िंदगी बिता कर ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

   राज़ खुला ज़िंदगी बिता कर ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

कहो कैसी रही ज़िंदगी , दुनिया से वापस आने वाले से ऊपरवाला यही पूछता है। लोग हैरान हो जाते हैं उलझन में पड़ जाते हैं जवाब देते नहीं बनता है। चिंता की कोई बात नहीं है आपको समय मिलेगा याद कर जवाब लिख कर दे सकते हैं जैसे स्कूल कॉलेज में परीक्षा देते थे आपको समझाने को रखे हुए हैं तमाम देवी देवता। खुद पहुंच जाते हैं शानदार परीक्षा भवन में , सबसे पहले आपको समझाया जाता है करना क्या है और मकसद क्या है। कोई देवता आपका स्वागत करते हुए बतलाता है आपको हर किसी इंसान को ईश्वर खाली भेजता है और खाली वापस बुलाता है। कुछ भी बंधन कोई अनुबंध नहीं होता है आपको अपने विवेक से अपनी अर्जित जानकारी शिक्षा अनुभव से ज़िंदगी जीने की पूर्ण आज़ादी होती है। उपरवाले ने धरती पर बेहद खूबसूरत दुनिया बनाई थी इंसानों पशु पक्षी जानवर सबको अपने अपने तरीके से उस दुनिया को सुंदर बनाना था। बस यही बताना है अपने जन्म लेकर मरने तक उपरवाले की बनाई दुनिया को सजाया संवारा या बर्बाद किया है। दुविधा हो जवाब देने में तो हम सामने विराजमान हैं सभी देवदूत देवी देवता जिस से जिस तरह की मदद चाहो मांग सकते हैं संकोच की आवश्यकता नहीं है। 
 
कोई खड़ा होकर कहता है क्या हमको बताना होगा कितना भगवान का नाम जपते रहे मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे बनाते उस में जाकर पूजा ईबादत धार्मिक कार्य करते रहे। दान दिया धार्मिक आयोजन किये माला जपते रहे हवन अनुष्ठान आदि करते रहे। उसको बताया गया इन बातों का महत्व नहीं है आपने  क्यों समझ लिया मानव जीवन पाकर आपको सार्थक ढंग से जीने को इनकी ज़रूरत है। भगवान को इन सबकी चाहत नहीं हो सकती है आपको ईश्वर की काल्पनिक तस्वीर बनाने उसकी वंदना करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। आपको दुनिया को रंगीन रौशन और शांत बनाने को आपसी भाईचारा प्यार मुहब्बत बढ़ाने को कल्याण का मार्ग निर्माण करना था। ईश्वर से शिकायत या विनती नहीं बल्कि उसका आभार व्यक्त करना था आदमी को सबसे समझदार और विवेकशील बनाने के लिए। किसी के उपदेश को बिना समझे मानकर अनावश्यक अंधविश्वास की बातें करना अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करना उचित नहीं था। आपको सबसे बड़ा अधिकार महत्वपूर्ण वस्तु मिली अपने व्यर्थ गंवा दिया। कभी किसी ईश्वर ने कोई किताब नहीं लिखी न लिखवाई है उसको अपने खुद को साबित क्यों करना था और किसको करना था। आपको खुद खुश रहना था और सबको खुशियां बांटनी थी जबकि अधिकांश लोग खुदगर्ज़ बन कर ऐसे कार्य करते रहे जिनसे किसी और को परेशानी दुःख दर्द मिलता हो। ऐसे जिन्होंने कांटे उगाने बबूल बोने का काम किया उनको फल भी वैसे मिलते रहे इसको विधाता की तकदीर की बात नहीं अपने कर्म का नतीजा समझ सकते हैं। 
 
ऐसे ही किसी अन्य को बताया गया है अपने उपरवाले की तस्वीर मुर्तियां जाने क्या क्या अलग अलग ढंग से शक़्ल देकर तमाम निर्माण कार्य किये मगर वास्तव में ये संभव ही नहीं था। जिस ने खुद आपको इंसान को जीव जंतुओं पशु पक्षियों को करोड़ों ढंग से बनाया उसको कोई इंसान कल्पना से बना ही नहीं सकता है। वास्तव में तमाम लोग मंज़िल और रास्ते खोजने में जीवन भर इधर-उधर भटकते रहे और जीना भूल कर कितनी बार मरते रहे। आपको जैसा भेजा था बिना कोई निर्देश बिना कोई जमाराशि बिना कोई क़र्ज़ जैसे मर्ज़ी ज़िंदगी जीने को आपने ज़िंदगी का उपयोग कर दोस्त हमराही अपने चाहने वाले हमदर्द बनाने थे। अपनी जीवनी को प्यार के रंगों से भरपूर कहानी का आकार देना था लेकिन शायद अधिकांश खुद ही अपनी कथा के अनावश्यक किरदार बन कर रहे। नायक बनना कठिन था खलनायक कहलाना नहीं चाहते थे। सभी इंसान बराबर हैं इंसानियत सभी का धर्म नहीं बल्कि जीवन का सही मार्ग है मिल जुलकर आपसी सदभावना बढ़कर ख़ुशी से रहना था औरों को भी ख़ुशी से जीने देना था। ये ढाई अक्षर की पढ़ाई थी सबको समझाई थी आपको दोस्ती समझ नहीं आई थी किसलिए दुश्मनी निभाई थी। सबको खुद लिखना है और सिर्फ सच लिखना है झूठ नहीं चलता उपरवाले के दरबार में कितनी सच्चाई है आपके किरदार में। बाद मरने के ये राज़ खुलेगा बंदा गुनहगार नहीं खुदा का , मुजरिम है खुद अपनी कहानी का ऊपरवाला कभी किसी को सज़ाएं नहीं देता है वफ़ाएं नहीं करते जो उनकी सदाओं की कभी बालाएं नहीं देता है।
 
Insaaf Shayari In Hindi - 'इंसाफ' पर 10 बेहतरीन शेर... - Amar Ujala Kavya

अक्तूबर 27, 2021

दुरूपयोग करना सीखा है ( पागलपन ) डॉ लोक सेतिया

       दुरूपयोग करना सीखा है ( पागलपन ) डॉ लोक सेतिया 

पैसा धन दौलत ताकत शोहरत कायदा कानून अधिकार आज़ादी से लेकर शिक्षा साधन जानकारी अथवा जो कुछ भी हमारे पास उपलब्ध होता है उन को सही इस्तेमाल करने का मकसद नहीं समझते लेकिन अवसर मिलते ही हर चीज़ का अनुचित उपयोग करना शायद हम भारतीय से अधिक कोई नहीं जानता है। शुरुआत खुद से करता हूं मुझे फेसबुक व्हाट्सएप्प सोशल मीडिया की समझ नहीं है खिलवाड़ कर रहा मनमाने ढंग से उपयोग करता हूं और सोचता हूं जानकार बन गया हूं। बहुमत ऐसे लोग सोशल मीडिया पर समय और साधन का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन समस्या उनकी है जिनको देश की समाज की बड़ी कठिन समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी मिली है पर वो सभी अपना दायित्व निभाना छोड़ ऐसे पागलपन करते रहते हैं जिनसे हासिल कुछ भी नहीं होता है। कोई भी शासक हर कार्य नहीं कर सकता है फिर किसलिए हर जगह शासक को उपस्थित होकर दिखाने को आडंबर करना ज़रूरी है। बहाना जो भी हो सत्ताधारी नेताओं अधिकारी वर्ग को शिलान्यास से उद्घाटन करने तक अपना नाम दर्ज करवाना ज़रूरी लगता है। वास्तव में जैसे कोई मज़ाक लगता है किसी जनसुविधा के निर्माण भवन सड़क पुल स्कूल अस्पताल का बन जाने के बाद इंतज़ार करना किसी वीवीआईपी के हाथ से मुहूर्त होने का। उनका वास्तविक मकसद ज़रूरत पीछे रह जाता है और राजनेताओं का शोहरत पाना अपना नाम लिखवाना महत्वपूर्ण बन जाता है। और ऐसा हर जगह हर दिन होता है कभी कभी लगता है देश में कुछ मुट्ठी भर बड़े नाम वाले लोग सब करते हैं बाकी करोड़ों लोग कोई काम नहीं करते हैं। शायद इसकी शुरुआत फ़िल्मी कहानियों से हुई होगी जिस में अभिनेता सब कर सकते थे नाचना गाना लड़ना झगड़ना ही नहीं गुंडागर्दी करने से लेकर मासूमियत भोलापन गरीब से धनकुबेर तक अभिनय में सब कर दिखाना। भोला भाला गंवार महानगर में डॉन बन सकता था और खाली जेब नायक पलक झपकते ही रईस बन कर शोहरत की बुलंदी को छू सकता था। दर्शक की सबसे बड़ी नासमझी ऐसे काल्पनिक असंभव को सच होता देख विश्वास करना और स्वीकार कर तालियां बजाना था। लगता है फ़िल्मी टेलीविज़न की काल्पनिक कथाओं का पागलपन इक नशा बनकर छाया हुआ है और सबको देश और समाज की वास्तविक तस्वीर जो बदसूरत है को अनदेखा कर झूठी दिलकश मनमोहक छवि देखना राहत देता है। जैसे नर्कीय जीवन जीते हुए कोई ख्वाबों में स्वर्ग की कल्पनाओं में खोया रहे मगर उसको बदलने की कोशिश नहीं कर झूठी उम्मीद करता रहे कि कोई मसीहा आएगा और उसका कल्याण कर देगा। बिना समझे जाने सोचे विचारे हमने उन को मसीहा समझ लिया है जिनके पास किसी को देने को कुछ भी नहीं है जो खुद जितना हासिल है उस से अधिक पाने को व्याकुल रहते हैं। ऐसे सत्ता धन दौलत के पुजारी देश समाज को लूटने वाले मसीहाई का दिखावा कर हमको उल्लू बनाते रहते हैं और हम उनकी नकली चमक दमक को वास्तविक समझ धोखा खाते रहते हैं। 

वास्तविक जीवन में कुछ भी बनने को समय महनत लगन और कितनी बाधाओं कठिनाईयों को लांघना होता है। सैनिक किसान मज़दूर बनकर कार्य करना भी आसान नहीं होता है डॉक्टर शिक्षक वकील न्यायधीश धर्मगुरु बनना किसी तपस्या से कम नहीं होता है और सिर्फ इतना ही नहीं ये बनकर अधिकार मिलने के बाद अपने पेशे का फ़र्ज़ पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाना किसी तलवार की धार पर चलने जैसा है। पांव ज़मीर डगमगाने लगते हैं लोभ लालच स्वार्थ खुदगर्ज़ी को देख कर। साधु संत बनकर भी लोभ मोह अहंकार से बचना आसान नहीं होता है। सच को समझने वालों से सच के झण्डाबरदार बने लोग झूठ की महिमा का गुणगान करने लगते हैं आम से ख़ास बनने गरीब से अमीर बनने की लालसा में। मगर जिन्होंने कोई शिक्षा कोई महनत कोई मुश्किल पार नहीं की बड़े पद पर पहुंच कर सिर्फ चोला पहन लिबास धारण कर डॉक्टर वकील न्यायधीश से सैनिक किसान होने का अभिनय कर खुद को समाज को छलने का कार्य करते हैं। धर्म उपदेशक समाजसेवक बनकर नाम शोहरत पाने के इच्छुक लोग दानवीर कहलाने को लालायित लोग भी शामिल हैं फोटो करवाने वीडियो बनवाने इश्तिहार बंटवाने को सबसे महत्वपूर्ण कार्य समझने में। काश अपना कर्तव्य निभाते तो इन व्यर्थ कार्यों की ज़रूरत कभी नहीं पड़ती। शासन के सर्वोच्च शिखर पर भी खुद को बड़ा महान और सबसे विशेष जतलाने का मतलब भीतरी खोखलापन ही है। साधु संतों से योगी सन्यासी कहलाने वाले अपनी महिमा अपना गुणगान करवाने को छोड़ नहीं पाते हैं अर्थात दुनिया की मोह माया लोभ लालच अहंकार से ऊपर उठते नहीं कभी वास्तविक रूप से। आदर्श को आचरण नहीं खेल तमाशा बना दिया है। मदारी बनकर हमको अपने खेल से आचंभित कर उसे जाने क्या क्या समझते हैं जो सही मायने में किसी पागलपन की निशानी है। 
 
लेकिन समस्या खुद हमारी है जो आज़ादी का महत्व नहीं जानते और आज़ाद होकर भी मानसिक तौर पर गुलामी के शिकार हैं। राजनेता अभिनेता खिलाड़ी धनवान लोग जिन्होंने वास्तव में सिर्फ खुद अपने लिए सफलता हासिल की किसी को कुछ देने नहीं सिर्फ हासिल करने को लगे रहते हैं उनको अपना आदर्श मसीहा क्या आराध्य तक समझने की मूर्खता करते हैं जबकि उन्होंने हमारे लिए देश समाज की भलाई के लिए कुछ नहीं किया होता है जो किया जो करते हैं केवल अपने खातिर करते हैं। ख़ास नाम शोहरत वाले लोगों के सामने नतमस्तक होकर उनकी चाटुकारिता करना आदत बन गया है घर गांव में हर किसी से अहंकार पूर्वक पेश आने और आपस में कुशल क्षेम पूछने में संयम बरतने वाले क्षण भर में बदले रंग ढंग में दिखाई देते हैं। शायद हमने सीखा ही नहीं अच्छाई सच्चाई और काबलियत का आदर करना बस उगते चढ़ते सूरज को सलाम करते हैं जबकि मालूम है समय बदलते यही सूरज शाम को खो जाता है रात के अंधेरे में। नकली सितारों को देखते देखते असली आसमान पर चमकते सितारों का दिलकश नज़ारा देखना हमने कभी का छोड़ दिया है । 
 

 
 


 
 

अक्तूबर 22, 2021

अंधेरे दिन रौशन रात ( अनसुलझे सवालात ) डॉ लोक सेतिया

    अंधेरे दिन रौशन रात ( अनसुलझे सवालात ) डॉ लोक सेतिया

सोशल मीडिया , लोग अपने बेगाने , टीवी शो फिल्म सीरियल की कहानी जाने कैसे कैसे इश्तिहार कितने जाने अनजाने ,  चाहे अनचाहे हम को नासमझ समझते हैं और समझाने की नाकाम कोशिश करते हैं। भगवान क्या है कैसे है , सरकार क्या है , कैसी क्योंकर है , सच्चाई भलाई से लेकर ज्ञान की , मूर्खता की उनकी खुद की घड़ी हुई परिभाषा , जिन पर तर्क वितर्क विचार विमर्श करना अनुचित बताते हैं भरोसा करने अंधविश्वास करने को सभी समझाते हैं। तमाम ऐसे विचार हैं जो सबको मानने ज़रूरी हैं , बेशक वास्तविकता में उनका विपरीत सामने दिखाई देता हो। जहां सरकार होने की बात होती है वहां लगता है सरकार नाम की चीज़ नहीं यहां कोई और जो विश्वास करते हैं ईश्वर है , सब अच्छा करता है फरियाद सुनता है सबको इक समान मानकर अपनाता है , उसका होना सच लगता नहीं है। रिश्ते नाते दोस्त समाज जैसे होने की बात होती है उस तरह के नहीं होते बल्कि मिलते हैं जैसे हम उम्मीद नहीं करते हैं। सोशल मीडिया ने हमको करीब लाने का झांसा देकर असल में दूर अकेला कर दिया है , हर शख़्स खुद कुछ नहीं समझना पढ़ना सुनना देखना चाहता औरों को बहुत कुछ समझाना दिखलाना पढ़वाना सुनवाना चाहता है। किसी भीड़ भाड़ वाले बाज़ार मेले या ऐसी सड़क जिस पर वाहनों की भरमार है सभी को जल्दी है अपनी अपनी मंज़िल पर पहुंचने की और हम किसी खोये राह पर रुके हुए हैं भटके मुसाफिर की तरह देखते हैं इधर उधर । ज़िंदगी जीने का वास्तविक मकसद भूले आसान रास्ता या कोई ढंग सब पल भर में पा लेने का तलाश करते दरिया किनारे खड़े रहते हैं ये सोचकर कि हीरे मोती अनमोल जवाहरात अपने आप हमारे कदमों में चले आएंगे किस्मत से। शानदार भविष्य के झूठे सपने दिखलाने वाले पूरी ज़िंदगी हमको तसल्ली देते रहते हैं सब उजाला होने वाला है कहकर मगर कोई चिराग जलाने की बात नहीं करता है। हमारा बढ़ता अंधकार उनके लिए बड़े काम आता है जो रौशनी का नाम देकर अंधकार का व्यौपार करते हैं। आधुनिक विज्ञान शिक्षा समय के साथ बदल चुके सामाजिक ढंग तौर तरीकों ने हमको अंधे कुंवे से निकलने की चाहत नहीं जगाई है इसलिए बाहर रौशनी है और हम खुद अंधेरे में रहकर सिर्फ रौशनी पर चर्चा करते हैं। अंधेरे में जीने की आदत हो गई है रौशनी से आंखे चुंधिया जाती हैं। कहने को आधुनिकता का लबादा पहने हुए हम अंधेरे के उपासक हैं यही हमारी विडंबना है। 
 

 

अक्तूबर 16, 2021

हाथ जोड़कर कोरोना खड़ा ( अंतिम अध्याय ) डॉ लोक सेतिया

   हाथ जोड़कर कोरोना खड़ा ( अंतिम अध्याय ) डॉ लोक सेतिया 

सरकार मुझ पर करो उपकार छोड़ो करना मुझसे झूठा प्यार बंद करो अपने इश्तिहार नहीं किसी को होता ऐतबार मेरा रहा नहीं नाम निशान मेरे नाम का हो गया बंटा धार। मेरा अंत घोषित कर दो अब मेरी कोई हैसियत नहीं रही इससे पहले कि लोग मुझे लेकर चुटकुले हंसी मज़ाक कॉमेडी की बातें बनाने लगें मेरा अंतिम क्रियाकर्म शान से कर श्रद्धांजलि सभा में मेरी शांति की प्रार्थना कर मेरा कल्याण कर दो। देवता दानव नहीं सही कोई शख़्सियत समझ सकते हैं जिसने दुनिया को सबक सिखलाने की नाकाम कोशिश की कितनों की जान लेने का गुनहगार बनकर बेमौत मर गया। सरकार दुविधा में पड़ी है उलझन छोटी नहीं है बहुत बड़ी है फैसले की घड़ी है ऐटमबंब बताया था निकली फुलझड़ी है बड़े ज़ुल्मी से आंख लड़ी है। कोरोना आईसीयू में है जीवनरक्षक उपकरण उसको ज़िंदा रखे हैं सभी परिजन इंतज़ार में खड़े हैं विरासत के झगड़े बड़े बड़े हैं। कोई उसको कांधा देगा कौन उसकी अर्थी को सजाएगा कौन राम नाम सत्य बोलेगा कौन उसको श्मशान में दफ़नायेगा। समाधिस्थल बनाना ज़रूरी है दास्तां उसकी अधूरी होकर पूरी है हाय ये कैसी मज़बूरी है। कोरोना कितने लोगों के काम आया है सत्तावालों का हमराज़ है कितने धनवान लोगों का रुतबा बढ़ाया है हर कोई खुद को वारियर कहलाता है सभी से नाता उसने निभाया है। मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा सबके करीब ठिकाना बना लिया था खुदा भगवान जीसस वाहेगुरु सभी का हमसाया है। तमाम लोगों ने कोरोना को बेचने का कारोबार किया है आपदा को अवसर बनाकर पैसा कमाया है। दुनिया भर के लोगों ने सुःख चैन खोया है चतुर हैं बस उन्होंने सोने चांदी का अंबार लगाया है ऊंची दुकान फीका पकवान करिश्मा दिखाया है। दरबार लगाया कभी मुकदमा चलाया है मुजरिम मिल गया पर हाथ नहीं आया है धोखा खाने वालों ने धोखा हर बार खाया है बेगुनाह को सूली पर सबने चढ़ाया है। 
 
कोरोना बहुत पास है लेकिन दिल्ली दूर है टेढ़ी खीर है हुआ मज़बूर है। कहते हैं चाहने वाले तुझे मरने नहीं देंगे भरोसा किसी को खबर का करने नहीं देंगे डर के आगे जीत है डरना ज़रूरी है डराते रहेंगे सबको दिल से डर को ख़त्म करने नहीं देंगे। सब एक थाली के चट्टे बट्टे हैं कोरोना को लेकर सभी इकट्ठे हैं अभी उनको कोरोना की ज़रूरत बहुत है हसरत पूरी नहीं हुई रही बाकी हसरत बहुत है। बेबस है कोरोना लाचार हुआ है मत पूछो किस किस का शिकार हुआ है जाने क्या हुआ उसको बीमार हुआ है टीका फीका दवा नहीं असरदार हुआ है हालत पे खुद बेचारा शर्मसार हुआ है। शहंशाह था जो समझता ख़त्म अहंकार हुआ है आदमी के हौसले को देख घबरा गया है रुसवा होकर बेआबरू जाने को तैयार हुआ है। जाने नहीं देंगे तुझे कहते हैं भाई बंधु नहीं गुज़ारा तेरे बिन हमारा होगा मर कर तुझे छुपाकर दिल में है रखना ज़हर मीठा लगता है चखना सबको चखना। रुख़्सत की घड़ी आई जाना तो पड़ेगा वादा किया था निभाना तो पड़ेगा किसलिए उदासी है आखिर सबको जाना है ये दुनिया चार दिन का ठिकाना नहीं हमेशा को आशियाना है। सरकार मगर मानने को तैयार नहीं है जंग ख़त्म हुई ख़त्म उसके हथियार नहीं हैं। ऐलान किया है कोरोना छुप गया है मारा नहीं गया क़त्ल नहीं हुआ उसका गुमशुदा की तलाश है ये नहीं कोरोना की लाश है शायद कोई हमशक़्ल है बहरूपिया है कोई इसका ऐतबार नहीं करते बिना आधार कार्ड पहचान साबित नहीं होती मुर्दों की बातों पर यकीन कौन करता है मूर्ख कर लेते समझदार नहीं करते। सरकार समझदार बड़ी है कोरोना की सुनने की फुर्सत नहीं है समस्याओं की लंबी लड़ी है उनसे बचने को कोरोना है काम आया शाम हुई लगता है बढ़ता लंबा उसका साया।

अक्तूबर 13, 2021

खेल-तमाशा बना लिया मकसद { भटकते मुसाफ़िर } डॉ लोक सेतिया

खेल-तमाशा बना लिया मकसद  { भटकते मुसाफ़िर } डॉ लोक सेतिया 

हर कोई सभी जगह यही दिखाई देता है  लोग नतमस्तक हैं ,  जाने किस किस को क्या क्या कहने लगे हैं। कभी कभी तो हद हो जाती है गुणगान करते कहने लगते हैं धन्य हैं वे माता-पिता जिन्होंने आपको जन्म दिया। ऐसे में विचार आता है कि उस व्यक्ति या ऐसे अन्य तमाम लोगों ने देश समाज विशेषकर सामान्य नागरिक के कल्याण की खातिर क्या महान कार्य किया है। सिर्फ राजनीति खेल अभिनय कारोबार में सफलता अर्जित करना खुद के लिए परिवार के लिए अच्छा हो सकता है देश समाज सामान्य नागरिक के लिए नहीं। चढ़ते सूरज को सलाम करना मानसिक दासता की निशानी होती है। आये दिन जाने पहचाने अजनबी व्यक्ति के वीडियो मिलते हैं झूमते नाचते गाते रंगरलियां मनाते , कोई नहीं जानता वास्तव में आनंद ख़ुशी महसूस करते हैं अथवा सिर्फ सामाजिक दिखावे को कुछ पल केवल आडंबर होता है। वास्तविक ख़ुशी मन से महसूस की जाती है उसका इश्तिहार नहीं बनाया जाता है। शोहरत पाना कदापि महान मकसद नहीं होता है और देश समाज दुनिया को शानदार बनाने में जीवन व्यतीत करने वाले कभी महलों में धन दौलत के मालिक बनकर नहीं रहते हैं बल्कि अपना जीवन अपने साधन सुविधाओं को न्यौछावर करते हैं लोककल्याण के लिए। ये हमारी सोच की आदर्श मूल्यों के प्रति कोई हीनभावना हो सकती है जो हम उनको मसीहा समझते हैं जिनसे किसी को कुछ भी मिलता नहीं अपितु जो सामन्य जन से बहुत कुछ पाकर ऐशो आराम से रहते हैं। कोई झूठ बेचता है बातों से बहलाता है भाषण देकर उल्लू बनाता है कोई योग आयुर्वेद को माध्यम बनाकर कारोबार करता है कोई फिल्म टीवी संगीत कला में लेखन में शोहरत मिलने पर खुद को इक बाज़ारी सामान बना मालामाल होता है। ये सभी खोखले किरदार हैं जिनको देश दुनिया मानवता की नहीं सिर्फ खुद की चिंता रहती है। 

ज़िंदगी की सार्थकता खुदगर्ज़ी पूर्वक आचरण करने में नहीं होती है सच्चे आदर्श नायक अपने लिए नहीं सबके लिए समानता और अधिकार के लिए कार्य करते हैं। जिनको सत्ता की भूख है नाम शोहरत अपने गुणगान की लालसा है वो खेल तमाशे दिखलाते हैं धनवान और ताकतवर कहलाने के लिए लालायित रहते हैं। समाज के लिए कार्य करने वाले लोग ढिंढोरा पीटने का काम नहीं करते कभी। ये हमारे विवेक की बात है कि हम क्या सोचते हैं , क्या किसी मनोरंजन खेल तमाशे झूठे संबोधन से हमारा रत्ती भर भी कल्याण हो सकता है। हर किसी को आदर्श मसीहा ईश्वर समझने वालों को आखिर निराशा ही मिलती है। आधुनिकता की होड़ में भागम-भाग में हम जीने का सलीका भुला बैठे हैं। अपने अंतर्मन की बात को नहीं समझते बस बाहरी परिवेश को सब कुछ समझने लगे हैं। शायद जिनके अभिनय डायलॉग भाषण पहनावा और भाव भंगिमा तौर तरीके हमको सम्मोहित करते हैं भले समझते हैं उनकी वास्तविकता से उल्ट है उनकी तरह बनने की चाहत में अपनी असलियत को खो बैठे हैं । 
 

 

अक्तूबर 11, 2021

झूठ के गुणगान का शोर है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  झूठ के गुणगान का शोर है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कल ही की बात है फेसबुक पर साहित्य के ग्रुप जिस में ताकीद की हुई है रचनाकार मौलिक रचना भेजें किसी ने कवि कालिदास से जोड़कर इक लोक कथा शेयर की हुई थी। पढ़ते ही ध्यान आया कि ये इक हरियाणवी लोक कथा है पणिहारी और मुसाफिर शीर्षक से जिस में एक नहीं चार लोग पानी पिलाने को कहते हैं। ये विचार कर ताकि शेयर करने वाले एवं पाठक सही जानकारी पा सकें मैंने कॉमेंट में लिख कर लिंक भी दिया साहित्य की साइट का पढ़ने समझने को , सच बताना आलोचना करना नहीं होता है। मगर हैरानी हुई जब रचना शेयर करने वाले ने जवाब दिया नीचे इतने सौ लोगों को जिन्होंने लाइक कॉमेंट किया पता नहीं था इक अकेले आपको जानकारी है बस आप अकेले समझदार हैं। ऐसी बहस व्यर्थ होती है इसलिए मैंने अपने कॉमेंट को मिटा दिया। कई दिनों से सोच रहा था इतिहास देश की राजनीति और धर्म आदि को लेकर तमाम बातें सच्चाई और प्रमाणिकता को जाने बगैर सोशल मीडिया पर शेयर की जाती रही हैं। लेकिन साहित्य का सृजन करने वालों से उम्मीद की जाती है तथ्यात्मक ढंग से विवेचना करने और कभी सही जानकारी नहीं होने पर वास्तविकता उजागर करने वाले का आभार जताने की। राजनेताओं के चाटुकारों की तरह झूठ को शोर मचाकर सच साबित करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। बहुत लोग किसी बड़ी शख़्सियत के नाम से कितनी बातें लिखते हैं जिन का संबंधित व्यक्ति से कोई मतलब नहीं होता है। पिछले साल भी लिखा था केबीसी में भाग लेने वाली इक महिला ने अमिताभ बच्चन जी को इक कविता उनके पिता की रचना है से प्रेरणा मिली कहा तब महानायक कहलाने वाले ने सच बताना ज़रूरी नहीं समझा कि रचना किसी और की है। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती , लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती। रचना सोहनलाल द्विवेदी जी की है। अपने ब्लॉग पर पिता के नाम से शेयर करने पर अमिताभ बच्चन पहले भी खेद जता चुके थे फिर टीवी पर सार्वजनिक मंच से जो सच नहीं खामोश रहकर उन्होंने अपने पिता की शान बढ़ाने की बात नहीं की थी। 
 
वास्तव में अमिताभ बच्चन जी को पैसों के लिए विज्ञापनों में अपने पिता के नाम का इस्तेमाल करने से भी परहेज़ करना चाहिए । बाबूजी ऐसा कहते थे बोलते हैं मगर कोई नहीं जानता अगर बच्चन जी की आत्मा देखती होगी तो अमिताभ जी के तमाम वस्तुओं का इश्तिहार देने पर क्या गौरान्वित महसूस करती होगी। मुझे अपना इक शेर उपयुक्त लगता है ऐसे समय , " अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में , देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई "। शायद आधुनिक काल में ग़लतबयानी झूठ बोलने पर ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी शर्मसार नहीं होते हैं ऐसे में उनके अनुयाई चाटुकार प्रशंसक झूठ का गुणगान करने में संकोच क्या करें। साहित्य जगत और समाजिक आदर्शों के अनुसार किसी की रचना को चुराना तो दूर उनके नाम से गलत उच्चारण करना भी अक्षम्य अपराध माना जाता है और यहां हर कोई खुद को जानकार समझदार साबित करने को सच को झूठ झूठ को सच बताता है। कुछ शेर मेरी ग़ज़लों से इस विषय को लेकर आपकी नज़र करता हूं। 
 

झूठ को सच करे हुए हैं लोग , बेज़ुबां कुछ डरे हुए हैं लोग। 

फिर वही सिलसिला हो गया , झूठ सच से बड़ा हो गया। 

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये , झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये। 

सच कोई किसी को बताता नहीं , यह लोगों को वैसे भी भाता नहीं। 

आई हमको न जीने की कोई अदा , हमने पाई है सच बोलने की सज़ा। 

उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़ , लोक राजा को वो कहता है निपट नंगा है। 

झूठ यहां अनमोल है सच का न व्यौपार , सोना बन बिकता यहां पीतल बीच बाज़ार।

 
 

अक्तूबर 04, 2021

मर गया , खाते पर लिख दिया { सबक चाचा चाय वाला } डॉ लोक सेतिया

   मर गया , खाते पर लिख दिया  { सबक  चाचा चाय वाला } 

                     डॉ लोक सेतिया 

     मुझे याद रहता है लोग भूल जाते हैं लेन देन हिसाब किताब क़र्ज़ उधार की बातों को। लेकिन जब भी पता चलता है किसी के निधन का तब उस से गिले शिकवे नाराज़गी से लेकर आपसी मतभेद और वादा नहीं निभाना जैसी बातों पर पूर्ण विराम लगा देता हूं।  हम जब दिल्ली में रहते थे क्लिनिक के नज़दीक चाय वाला खोखा लगाता था कोई , जिसको लोग चाचा कहते थे उसकी आदत थी जिनका बकाया वापस नहीं आता अपनी कॉपी पर उसके हिसाब पर लिख देता था मर गया। कई दुकानदार कहते चाचा बताओ क्या बकाया है चुकाना है ज़िंदा रहते मर गया लिखवाना नहीं चाहते हैं। मैंने कोशिश की है जिस किसी से लिया है उधार या क़र्ज़ लौटाना है समय पर और व्यवहार में हुई गलतियां भूल की क्षमा मांगनी है समय रहते ताकि किसी के मन में कोई खराब भावना नहीं बनी रहे। आज इस पर लिखना ज़रूरी लगा जब किसी के निधन की खबर पता चली। जिस घटना ने आपके जीवन को बड़ी क्षति पहुंचाई हो उसको भुलाना आसान नहीं होता है। बात 1983 दिसंबर की है , किसी राजनेता को उसी जगह विधानसभा उपचुनाव लड़ने को दफ्तर बनाना था जहां मैंने अपना कारोबार शुरू किया था कुछ महीने पहले ही। बड़े शरीफ समझे जाते नेता को अनुचित नहीं लगा कोई काम कर रहा जगह किराये पर लेकर कारोबार करता है उसको परेशान कर खुद महीने भर को जगह देने को विवश करने की बात करते। मैंने समझाया ये संभव नहीं धंधा चौपट हो जाएगा लेकिन शासक दल के नेता को मनमर्ज़ी की आदत होती है जो जैसे भी हो साम दाम दंड भेद आज़माते हैं। जब नहीं मानी बात तो तुरप का पत्ता उनके पास था उनका बेटा मेरा सहपाठी और कुछ दिन पहले जिस बैंक में कार्यरत उस से क़र्ज़ लिया था मैंने कारोबार करने को। 

दोस्त बन बन कर मिले मुझको मिटाने वाले। आया मेरे पास दोस्ती की लाज रखने को विनती की आपको जगह खाली नहीं करनी है बस महीने के बचे दिन अपने कारोबार की जगह के अंदर से ख़ास ख़ास लोगों को जाने का रास्ता देना है थोड़ा इंडोर बंद कर। अगर आपका कोई नुकसान होगा तो ज़िम्मेदार होंगे भरोसा रखो। विश्वास कर लिहाज़ किया और दो दिन बाद किसी गुंडे अपराधी की तरह साज़िश कर उसके कज़न भाई ने मेरी अनुपस्थिति में मेरा सब फिटिंग फ़र्नीचर ढांचा तोड़ फोड़ डाला। मुझे घर से मेरा कर्मचारी बुलाने गया मगर मेरे पहुंचने तक जिसको क़त्ल करना था कर के चंपत हो चुका था। शाम को मैं बदहाल बेबस घायल और इस अपने शहर में असहाय अकेला अपने सहपाठी से मिला और कहा आपने वादा किया था देख लो कितना बर्बाद कर दिया है। उसने कहा ये जिसने किया है मेरा भाई है पिता का चुनावी कार्य कर रहा है बेहद अनुचित है मगर आप अभी इस विषय पर कोई कठोर कदम मत उठाना अन्यथा पिता को चुनावी नुकसान होगा , जो हुआ ठीक नहीं किया जा सकता , लेकिन आपकी भरपाई और भविष्य की सुरक्षा मेरा कर्तव्य है। लेकिन अपनी कही बात कभी निभाई नहीं उस ने। उसको शायद एहसास नहीं रहा जीवन भर अपनी बात और वादा नहीं निभाने एवं मेरी ज़िंदगी की तबाही पर क्षमा मांगना भी ज़रूरी नहीं समझा। उनके पिता चुनाव जीत गए मगर उन्हें अपने अनुचित आचरण पर कोई शर्मिंदगी नहीं हुई दिखाई दी। बदले की भावना आदत नहीं अन्याय सह कर भी खामोश रहता रहा। कभी मैंने अपने साथ अन्याय करने वालों से कभी अनुचित व्यवहार नहीं किया बल्कि जतलाया तक नहीं कि आपने मुझे अच्छाई के बदले क्या दिया है। ऐसे लोग पाप अन्याय ज़ुल्म करने पर खेद नहीं जताते हैं धार्मिकता का चोला पहन समाज सेवा का आडंबर अपनी दौलत से जो अनुचित ढंग से अर्जित की होती है करते रहते हैं। बड़े दानवीर समाजसेवक होने का दिखावा करने वाले झूठे और अत्याचारी होते हैं। शायद ऊपरवाला सब हिसाब रखता है वहां कोई चालाकी काम नहीं आती होगी सब उस पर छोड़ना उचित है।

पिछले जन्म अगले जन्म की बात नहीं जानता मैं मगर तीन लोगों ने जो किया उसको पाप अपराध से बढ़कर अमानवीय कृत्य समझता हूं। उनके दुनिया से जाने के बाद अपने मन याददास्त से उस गुनाह को मिटाना पड़ता है। ये वास्तविक घटना है सच्ची कहानी या हादिसा हुआ मेरे साथ उसको लेकर इक नज़्म लिखी थी डायरी पर 1983 के हादिसे के नाम उसको दोहराता हूं। ये उस घटना का असर है जो मुझे किसी राजनेता पर भरोसा करना कभी ठीक नहीं लगता है। राजनेता बेरहम और मतलबी ही नहीं अहंकारी और अत्याचारी भी होते हैं। अंत में वही नज़्म। 

बड़े लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।