क्या तलाश कहां होगी कैसे पूरी ( पुरानी डायरी ) डॉ लोक सेतिया
अभी नहीं मालूम अगली ही पंक्ति में लिखना क्या है सुबह सुबह ये ख़्याल आया कि इस दुनिया में सभी कुछ तो है फिर भी सभी की झोली ख़ाली दिखाई देती है तो किसलिए । बहुत सारी पुरानी डायरियां संभाल कर रखी हुई है अक़्सर जब कोई सवाल परेशान करता है तो उनको पढ़ता हूं और न जाने कैसे मुझे जो बात नहीं समझ आ रही थी पल भर में समझ आ जाती है । आज विचार आया मन में बातचीत में व्यवहार में सोशल मीडिया से लेकर साहित्य फ़िल्म टीवी सीरियल सभी में ऐसा लगता है देख सुन कर जैसे जहां में प्यार वफ़ा ईमानदारी भरोसा जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं ऐसा कुछ मिलता ही नहीं किसी को भी ढूंढते ढूंढते सब का जीवन गुज़र जाता है । कुछ रचनाएं आधी अधूरी डायरी में लिखी पढ़ी जिनको किसी न किसी कारण से मुकम्मल नहीं किया जा सका लेकिन उनकी शायद दबी हुई भावनाओं को खुद ही आकार देने की क्षमता अभी तक नहीं रही खुद मुझी में तो किसी को क्या बताता और कोई कैसे समझता । उम्र के इस मोड़ पर जो मुझे समझ आया वो इक वाक्य में कहा जा सकता है ' मैंने सही लोगों में सही जगह उचित तरीके से जिन बातों की चाहत थी बेहद ज़रूरत थी दोस्ती प्यार अपनेपन की नहीं की और जिन लोगों जिन जगहों पर उनका आभाव था वहां उन सब को ढूंढता रहा '। तभी मैंने अपने जीवन को रेगिस्तान में पानी की तलाश ओएसिस जैसा बार बार कहा है रचनाओं में । आसानी के लिए वही कुछ पुरानी कविताएं नज़्म या जो भी है सार्वजनिक कर रहा हूं विषय की ज़रूरत है ऐसा सोच कर ।
ज़िंदा रहने की इजाज़त नहीं मिली ,
प्यार की सबसे बड़ी दौलत नहीं मिली ।
मिले दोस्त ज़माने भर वाले लेकिन ,
कभी किसी में भी उल्फ़त नहीं मिली ।
नासेह की नसीहत का क्या करते हम ,
लफ़्ज़ों में ख़ुदा की रहमत नहीं मिली ।
तेरा होने की आरज़ू में खुद अपने भी न बन पाए ,
गुलों की चाहत थी कांटों वाले चमन पाए ।
मुहब्बत की गलियों में में यही देखा सब ने वहां ,
ख़ुद मुर्दा हुए दफ़्न हुए खूबसूरत कफ़न पाए ।
अजनबी अपने देश गांव शहर में लोग सभी थे ,
जा के परदेस लोगों ने अपने हमवतन पाए ।
अपने अपने घर बैठे हैं सब ये कैसा याराना है ,
मिलने की चाहत मिट गई फुर्सत नहीं का बहाना है ।
फूलों सी नमी शोलों में लानी है हमने तो अब ,
पत्थर दिल दुनिया को बदलने का करिश्मा दिखाना है ।
ढूंढता फिरता हूं खुद ही अपने क़ातिल को मैं ,
मुझको कोई तो नाम बताओ किस किस को बुलाना है ।
कुछ यहां तो कुछ वहां निकले ,
नासमझ सारे ही इंसां निकले ।
मैंने दुश्मनी का सबब पूछा जब ,
दोस्त खुद बड़े पशेमां निकले ।
उस का इंतज़ार करते रहे वहीं पे ,
जहां से सभी कारवां निकले ।
कोई अपना होता गर तो कुछ गिला करते ,
ज़माना गैर है किसी से बात ही क्या करते ।
बेवफ़ाई शहर की आदत थी पुरानी बनी हुई ,
हमीं बताओ आख़िर कब तलक वफ़ा करते ।
ज़ख़्म नहीं भरें कभी यही तमन्ना अपनी थी ,
चारागर पास जाके क्योंकर इल्तिज़ा करते ।
इतना काफ़ी आज की बात को समझने को और नतीजा निकला जवाब समझ आया कि जिस को जो चाहिए पहले ये सोचना समझना होगा वो है कहां मिलेगी कैसे किस से तब अपनी उस को हासिल करने को कोई रास्ता बनाना होगा । चाहत बड़ी कीमती चीज़ होती है सब को इसकी समझ होती नहीं है जब मनचाही चीज़ मिले तो दुनिया की दौलत के तराज़ू पर नहीं रखते हैं दिल के पलड़े पर पता चलता है सब लुटा कर भी कोई दौलतमंद बनता है तो पैसे हीरे मोती सब किसी काम नहीं आये जितना इक शख़्स जीवन में मिल जाए तो किस्मत खुल जाती है । तय कर लिया है जहां प्यार वफ़ा ईमानदारी और विश्वास नहीं हो उस तरफ भूले से भी जाना नहीं है । मुझे अपनापन प्यार और हमदर्द लोग मिले जिनसे मिलने की उम्मीद ही नहीं की थी । उसी रेगिस्तान में पानी कुछ हरियाली को ढूंढता हूं मैं मुझे मालूम है चमकती हुई रेत को पानी समझना इक मृगतृष्णा है उस से बचना है और यकीन है जिस दुनिया की तलाश है वो काल्पनिक नहीं वास्तविक है और मिल जाएगी किसी न किसी दिन मुझे ।