सितंबर 28, 2012

देश-समाज के दौर पर तीन नज़्में - डॉ लोक सेतिया

  जो भूला लोकतंत्र आचार ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

जो भूला लोकतंत्र आचार 
हुई सत्ता की जय जयकार।

चुना था जिनको हमने , वही
बिके हैं आज सरे-बाज़ार।

लुटा कर सब कुछ भी अपना
बचा ली है उसने सरकार।

टांक तो रक्खे हैं लेबल
मूल्य सारे ही गए हैं हार।

देखिए उनकी कटु-मुस्कान
नहीं लगते अच्छे आसार।

कहने को तो बयान लगते हैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

कहने को तो बयान लगते हैं
खाली लेकिन म्यान लगते हैं।

वोट जिनको समझ रहे हैं आप
आदमी बेजुबान लगते हैं।

हैं वो लाशें निगाह बानों की
आपको पायदान लगते हैं।

ख़ुदकुशी करके जो शहीद हुए
देश के वो किसान लगते हैं।

लोग आजिज़ हैं इस कदर लेकिन
बेखबर साहिबान लगते हैं।

बेदिली से दुआ की है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया


बेदिली से दुआ की है
तुमने भारी खता की है।

मारकर यूं ज़मीर अपना
खुद से तुमने जफ़ा की है।

बढ़ गया है मरज़ कुछ और
ये भी कैसी दवा की है।

तुम सज़ा दो गुनाहों की
हमने ये इल्तिज़ा की है।

बिक गये चन्द सिक्कों में
बात शर्मो-हया की है। 

हमें आज खुद से हुई तब मुहब्बत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें आज खुद से हुई तब मुहब्बत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें आज खुद से हुई तब मुहब्बत
किसी दिलरुबा की मिली जब मुहब्बत।

गये भूल जैसे सभी लोग जीना
कहो जा के उनसे करें सब मुहब्बत।

नहीं मिल रहा है सभी ढूंढते हैं
मिलेगा खुदा जब बनी रब मुहब्बत।

चले जो मिटाने वो खुद मिट गये थे
कोई लाख चाहे मिटी कब मुहब्बत।

सिखाया है उनको यही बोलना बस
कहेंगे हमेशा मेरे लब मुहब्बत।

नहीं नफरतों से मिलेगा कभी कुछ
उसे छोड़ कर तुम करो अब मुहब्बत।

किसे चाहते हो किसे दिल दिया है
कहेगी किसी से किसी शब मुहब्बत।

वही ज़िंदगी प्यार जिसमे भरा हो
है जीने का "तनहा" यही ढब मुहब्बत।

सितंबर 23, 2012

तीन नये दृश्य ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

तीन नये दृश्य ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

उसे निकाल दिया है
घर से उन्होंने
जो करते हैं
उसी की बातें 
ईश्वर खड़ा
चुपचाप कहीं बाहर ।

बहुत व्यस्त हैं लोग 
कर रहे तलाश सच की 
दफ्तरों में बैठकर ।

करते हैं बस यही चर्चा 
सच को बचाना है 
सच
घायल हुआ
आता है
जब उनके पास
करता उनसे सवाल
पहचाना मुझे ।

कौन हो तुम
क्यों आये हो
तुम हमारे पास
कहते हैं  वो
जो बने फिरते हैं
सच के  पैरोकार ।

लोकतंत्र का है मंदिर 
करते नेता
उसका गुणगान
जनता दर्शन को तरसी
छुपा कहां है वो भगवान
आ रही जाने किधर से
बचाने की फ़रियाद 
कराह रहा लोकतंत्र 
मुझको कर दो आज़ाद ।

समाप्त होने लगी
गूंगो बहरों की ये आशा 
देख रहे सारे नेता
खत्म हो कब तमाशा ।

हारने लगी अब ज़िंदगी 
लड़ते लड़ते मौत से
अब नहीं आता
कोई भी बचाने को उसे
हो रहा सामान
बस डुबाने को उसे 
सहमें सहमें हैं सभी
अब हमारे देश में
राज रावण हैं  करते
राम ही के भेस में ।

गावं गावं
शहर शहर
गली गली है डर
लोकतंत्र जिंदा है अभी
या वो चुका है मर ।

नाव डुबोते माझी 
माली चमन उजाड़ रहे 
कैनवास पर चित्रकार
कैसी  तस्वीरें उतार रहे
आलीशान घरों को 
सजाएंगी उनकी तस्वीरें
खो बैठेंगी
अपना वास्तविक अर्थ
रह जाएगा केवल बाकी
उनके ऊंचे दामों का इतिहास ।
 

 

सितंबर 21, 2012

ख़त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

खत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

फिर मिलें हम दुआ करते थे
जब कभी ख़त लिखा करते थे ।

प्यार करते हमें तुम कितना 
यूं कभी कह दिया करते थे ।

ख्वाब जैसी बना इक दुनिया
खुद वहां रह लिया करते थे ।

रूठ जाना मनाते रहना
और क्या हम किया करते थे ।

दूर से देखते रहते पर
पास हों जब हया करते थे ।

प्यार में रख दिये जो हमने
नाम अच्छे लगा करते थे ।

ख़त हमें रोज़ लिखना "तनहा" 
कौन थे जो ये कहा करते थे । 
 

            

सितंबर 20, 2012

काल्पनिक संसार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

काल्पनिक संसार ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

दर्द भरे गीत
पुरानी फ़िल्में 
कुछ  कहानियां
कविताएं
ग़ज़लें
लगती हैं मुझे अच्छी ।

उस काल्पनिक संसार के
कई  नायक
नायिका
बन गए हैं
मेरे लिए एक आदर्श 
खोजता हूं उनको
अपने आस पास जीवन में ।

क्योंकि उन सब में 
आती है नज़र मुझे झलक
प्यार
सदभावना व
मानवता के आदर्शों की ।

अपने रिश्तों की

वास्तविक दुनिया में 
नहीं खोज पाते
हम जिन्हें कभी
बस करते रह जाते हैं
सदा उनकी तलाश ।

काश हमें मिल जाते 
कविता
कहानी और पुरानी फिल्मों
के पात्रों जैसे
लोग वास्तविक जीवन में भी । 
 

 

दोहरा चरित्र ( व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

दोहरा चरित्र ( कविता )

खबर घोटालों की
हर दिन  नई
सबको सुनाते हैं
उन्हीं का साथ भी भाए
कभी घर उनके जाते हैं
कभी घर पर उनको बुलाते हैं।

उन्हीं का ही बस सहारा है
नहीं उन बिन गुज़ारा है
सच क्या है
झूठ कितना 
रूपये का खेल सारा है
सदा रहते बड़े भूखे 
विज्ञापन जिनका चारा है।

चोर चोर चिल्लाते हैं
देशद्रोही बताते हैं
सुबह शाम
उन्हीं के दर पे 
हाज़िरी खुद लगाते हैं।

कहो उनसे ज़रा सोचें
हैं क्या
वो क्या खुद को दिखाते हैं
हमें कितना बताते हैं 
कहां कितना छुपाते हैं।

है बेदाग़ क्या उनका  दामन 
दाग़ सबके जो दिखाते हैं। 

सितंबर 19, 2012

कवि नहीं मर सकता ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

कवि नहीं मर सकता  ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

चला रहे हो कविवर
शब्दों के तुम तीर
आखिर कब समझोगे
श्रोताओं की पीर।

कविता से अनजान थे लोग
बस कवि से परेशान थे लोग
क्या क्या कहता है जाने
सुन सुन कर हैरान थे लोग
कविता से बच न पाते
कुछ ऐसे नादान थे लोग।

खुद ही बुला आए उसको
अब जिससे परेशान थे लोग।

कविताओं से लगता डर
वो भी आखिर इंसान थे लोग 
उनको भाता नहीं था कवि 
पर कवि के दिलोजान थे लोग।

कवि ने मरने का भी
कई बार इरादा किया
लेकिन हर बार फिर
जीने का वादा किया।

कवि की हर कविता
फटा हुआ थी ढोल
खोलती थी रोज़ ही
किसी न किसी की पोल।

कवि ने भाईचारे पर
कविता एक सुनाई 
हो गई जिससे घर घर में
थी लड़ाई
बाढ़ में डूबे हुए थे
कितने तब घर
जब लिखी कवि ने
कविता सूखे पर
कविता बरसात से
बरसा ऐसा पानी
आ गई तब याद
हर किसी को नानी।

धर्म निरपेक्षता समझा कर
लिया कवि ने पंगा
भड़क उठा उस दिन
साम्प्रदायिक दंगा।

प्रेम रोग पर
कविता क्या सुनाई
कई नवयुवकों ने थी
कन्या कोई भगाई।

झेल रहे थे सभी
जब सूखे की मार
शीर्षक तब था
कविता का बसंत बहार।

सुन ख़ुशी के अवसर पर
उसकी कविता धांसू
निकलने लगे श्रोताओं के आंसू।

इतनी लम्बी कविता
उसने इक दिन सुनाई
मुर्दा भी उठ बोला
बस भी करो भाई।

श्रोताओं पर कवि ने
सितम बड़े ही ढाए
जिसके बदले में उसने
जूते चप्पल पाए।

कहीं से इक दिन
लहर ख़ुशी की आई
कवि के मरने की
वो खबर जो पाई 
कवि की मौत का
सब जश्न मना रहे थे 
बड़े दिनों के बाद
सारे मुस्कुरा रहे थे
उसने फिर से आ
सब को डराया
जिन्दा जब वापस
कवि लौट आया।

प्यार करते मुझसे
समझ लिया कवि ने
दुखी देखा जब
सबको वहां कवि ने।

सब ने मिलकर कहा
करो इतना वादा
कविता तब सुनाना
जब हो मरने का इरादा
तेरे मरने की अच्छी खबर थी आई
इसी बात पर थी
ख़ुशी की लहर छाई।

कवि ने समझाया बेकार हंसे
बेकार ही तुम सब हो रोये
कवि को मरा तभी मानिये
जिस दिन तेरहवां कवि का होय।

तेरे साथ हम सब की होती भलाई
अपनी ख़ुशी का ये राज़ जब सबने खोला
मैं नहीं अभी मरने वाला तब कवि था बोला।

कवि मरा ये जानकर खुश न होना कोय
कवि मरा तब मानिये जिस दिन तेहरवां होय। 

सितंबर 18, 2012

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है ( ग़ज़ल ) 

                       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है
करें क्या ज़िंदगी की बात कहना भी ज़रूरी है ।

मिले हैं आज हम ऐसे नहीं बिछुड़े कभी जैसे
सुहानी शब मुहब्बत की हुई बरसात पूरी है ।

मिले फुर्सत चले जाना , कभी उनको बुला लेना
नहीं घर दोस्तों के दूर , कुछ क़दमों की दूरी है ।

बुरी आदत रही अपनी सभी कुछ सच बता देना
तुम्हें भाती हमेशा से किसी की जीहजूरी है ।

रहा भूखा नहीं जब तक कभी ईमान को बेचा
लगा बिकने उसी के पास हलवा और पूरी है ।

जिन्हें पाला कभी माँ ने , लगाते रोज़ हैं ठोकर
इन्हीं बच्चों को बचपन में खिलाई रोज़ चूरी है ।

नहीं काली कमाई कर सके "तनहा" कभी लेकिन
कमाते प्यार की दौलत , न काली है न भूरी है । 
 

 

सभी को दास्तां अपनी बयां करना नहीं आता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     सभी को दास्तां अपनी बयां करना नहीं आता ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सभी को दास्तां अपनी ,  बयां करना नहीं आता
कभी आता नहीं लिखना , कभी पढ़ना नहीं आता।

बड़ी ऊंची उड़ाने लोग भरते हैं , मगर सोचें
जमीं पर आएंगे कैसे अगर गिरना नहीं आता।

कभी भी मांगने से मौत दुनिया में नहीं मिलती
हमें जीना ही पड़ता है , अगर मरना नहीं आता।

सभी से आप कहते हैं बहुत ही तेज़ है चलना
कभी उनको सहारा दो , जिन्हें चलना नहीं आता।

हमें सूली चढ़ा दो अब ,  हमारी आरज़ू है ये
यही कहना हमें है पर , हमें कहना नहीं आता।

न जाने किस तरह दुनिया ख़ुशी को ढूंढ़ लेती है
हमें सब लोग कहते हैं कि खुश रहना नहीं आता।

तमाशा बन गये "तनहा" , तमाशा देखने वाले
तमाशा मत कभी देखो , अगर बनना नहीं आता।

क्या बतायें तुम्हें लोग क्या हो गये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        क्या बतायें तुम्हें लोग क्या हो गये ( ग़ज़ल ) 

                       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या बतायें तुम्हें लोग क्या हो गये 
आदमी थे वो सब जो खुदा हो गये ।

सब हमारा ये अंजाम देखा किये
हम हमेशा नई इब्तिदा हो गये ।                                ( इब्तिदा = शुरुआत )

क्या हुआ था हमें , हम नहीं जानते
बस उन्हें देख कर हम फ़िदा हो गये ।

जब सुनाने लगे हम कहानी नई
छोड़ महफ़िल सभी अलविदा हो गये ।

हर नज़र आपको देखती रह गई
आप सब को लुभाती अदा हो गये ।

उनकी नज़रों के सब जाम पीते रहे
वो पिलाते रहे , मयकदा हो गये ।                         ( मयकदा =शराबखाना )

जिनको आया नहीं मांगने का हुनर
अनसुनी रह गई इक सदा हो गये ।                            ( सदा =प्रार्थना )

खुद बनाया  कभी था हसीं   कारवां
छोड़ कर खुद ही "तनहा" जुदा हो गये । 
 

 

बेचते झूठ सच के नाम पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बेचते झूठ सच के नाम पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बेचते झूठ सच के नाम पर
बिक गये खुद भी पूरे दाम पर ।

कल थे क्या आज क्या हैं हो गये 
लोग हैरान इस अंजाम पर ।

पी गये खुद उठा कर हम ज़हर
नाम अपना लिखा था जाम पर ।

ढूंढने पर भी मिलते जो नहीं
आ गये  खुद ही देखो बाम पर ।

भेजना वन में सीता को पड़ा
राम जाने जो बीती राम पर ।

हम शिकायत कहां जा कर करें
हो रहे ज़ुल्म खासो-आम पर ।

इस तरह जी रहा "तनहा" कभी
सुबह रोया करेगी शाम पर ।
 

 

सितंबर 17, 2012

मिलने को दुनिया में क्या न मिला ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मिलने को दुनिया में क्या न मिला ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मिलने को दुनिया में क्या न मिला
मझधार में नाखुदा न मिला।

सब को दिखाई थी राह मगर
मंज़िल का अपनी पता न मिला।

हमने बनाये थे घर तो कई
इक दिन हमें आसरा न मिला।

ढूंढा किताबों में हमने बहुत
जीने का पर फ़लसफ़ा न मिला।

चलता रहे साथ साथ मिरे
अब तक वही हमनवा न मिला।

मिल के रहें लोग सब जिस में
उस घर का "तनहा" पता न मिला। 

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सरकार है  , बेकार है , लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है। 

सितंबर 16, 2012

पूछा उन्हें जाना किधर चाहते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

पूछा उन्हें जाना किधर चाहते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

पूछा उन्हें जाना किधर चाहते हैं
कहने लगे बनना खबर चाहते हैं ।

जिस आशियां को बेच डाला कभी था
अब फिर वही प्यारा सा घर चाहते हैं ।

इस शहर की करते शिकायत सभी से
आ कर यहीं रहना मगर चाहते हैं ।

कुछ भी नहीं चाहा किसी से कभी भी
बस धूप  में कोई शजर चाहते हैं ।      

मांगें जो मिल जाये वही ज़िंदगी से
सब लोग कुछ ऐसा हुनर चाहते हैं ।

खोना पड़ेगा आपको कुछ तो पहले
पाना यहां सब कुछ अगर चाहते हैं ।

मिलते ही जैसे पा लिया था सभी कुछ
"तनहा" वही पहला असर चाहते हैं । 
 

 

लोग कहते हैं कुछ सोचते और हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लोग कहते हैं कुछ सोचते और हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लोग कहते हैं कुछ , सोचते और हैं
हर किसी के हुए यूं अजब तौर हैं ।

जा रहे हैं किधर ,कुछ न आता नज़र
समझ आता नहीं ,क्या नये दौर हैं ।

इन मशीनों से जाने किसे क्या मिला
छिन गये कुछ गरीबों से बस कौर हैं ।

भूख से मर रहे लोग कैसे जियें 
क्या कभी आप सब कर रहे गौर हैं ।

बात दस्तूर की जब हो कहते नहीं
बन गए किसलिये आप सिरमौर हैं ।

अब सभी पूछते हैं पता आपका
कुछ तो "तनहा" कहो अब कहां ठौर हैं ।  
 

 

जो देश में हो वो होने दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जो देश में हो वो होने दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जो देश में हो वो होने दो
पहरेदारों को    सोने दो।

कानून उधर काम अपना करे
अपराध इधर कुछ होने दो।

लोग उनको झुक के सलाम करें
ये नशा भी उनको होने दो।

तब होगा बचाव का काम शुरू
घर बाढ़ को और डुबोने दो।

वो कुछ न हकीक़त जान सकें
ख्वाबों में उन्हें तो खोने दो।

रहने दो न क़त्ल का कोई निशां
उन्हें खून के धब्बे धोने दो।

क्यों फ़िक्र है इतनी जनता की
जनता    रोती है      रोने दो।  

सितंबर 15, 2012

बस यही इक करार बाकी है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बस यही इक करार बाकी है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बस यही इक करार बाकी है
मौत का इंतज़ार बाकी है।

खेलने को सभी खिलाड़ी हैं
पर अभी जीत हार बाकी है।

दिल किसी का अभी धड़कता है
आपका इख्तियार बाकी है।

मय पिलाई कभी थी नज़रों से
आज तक भी खुमार बाकी है।

दोस्तों में वफ़ा कहां बाकी
बस दिखाने को प्यार बाकी है।

साथ देते नहीं कभी अपने
इक यही एतबार बाकी है।

हारना मत कभी ज़माने से
अब तलक आर पार बाकी है।

लोग सब आ गये जनाज़े पर
बस पुराना वो यार बाकी है।

चैन आया कहां अभी "तनहा"
कुछ दिले-बेकरार बाकी है।

कलाकृति ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कलाकृति ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

राह में पड़ा हो
कहीं कोई पत्थर बेजान
हर कोई लगा जाता
ठोकर उसको  
इतराता कितना है देखो
ताकत पर अपनी इंसान ।

उठा कर राह के पत्थर को 
ले आना घर अपने कभी तुम
तराशना उस पत्थर को
अपने हाथों से 
देना नई उसको
इक पहचान ।

देखो करके ये भी काम 
मूरत बन जाए
जब वो पत्थर
कोमल कोमल हाथ तुम्हारे 
खुरदरे हो जाएं 
और लगें दुखने 
सुबह से हो जाए जब शाम 
देना तुम तब उसे कोई नाम ।

करना फिर खुद से सवाल 
जिसे लगाई थी सुबह ठोकर 
शाम होते झुका क्यों है 
उसी के सामने ही तुम्हारा सर । 
 

 

अनबुझी इक प्यास हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अनबुझी इक प्यास हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अनबुझी इक प्यास हैं
बन चुके इतिहास हैं।

जब बराबर हैं सभी
कुछ यहां क्यों ख़ास हैं।

जुगनुओं को देख लो
रौशनी की आस हैं।

कह रहा खुद आसमां
हम जमीं के पास हैं।

नाम उनका है खिज़ा
कह रहे मधुमास हैं।
       
लोग हर युग में रहे
झेलते बनवास हैं।

हादिसे आने लगे
अब हमें कुछ रास हैं।

बेटियां बनने लगी
सास की अब सास हैं।

कह रहे "तनहा" किसे
हम तुम्हारे दास हैं। 

सितंबर 14, 2012

सहमा हुआ है बचपन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सहमा हुआ है बचपन ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया

उसे ढूंढती रहेंगी
मेरी नज़रें
शायद अब वो
आए न कभी नज़र
छुप गया है कहीं ।

अपने घर गया है
अथवा गया स्कूल
क्या मालूम ।

अभी अभी
थोड़ी देर पहले
मेरे घर के सामने
पार्क के कोने में
बैठा था
सहमा हुआ लगता
वो छोटा सा इक बच्चा ।

पहने हुए स्कूल की वर्दी
नंगे पांव
पीठ पर लादे 
किताबों का बोझ
बुलाने पर
चाहता था सबसे 
दूर भाग जाना
मानों डरता हो
हमारी दुनिया से ।

गया था मैं उसके पास 
करना चाहता था
बातें उससे
जानना चाहता था
उसकी परेशानी ।

शायद कुछ कर सकूं 
उसके लिए 
मगर खामोश रहा 
मेरी हर बात पर
नहीं दिया था
मेरे किसी सवाल का
कोई भी जवाब
क्यों डरा हुआ है मुझसे
इस सारे समाज से 
निराश
अकेला
बेसहारा
देश का ये नन्हा बचपन । 
 

 

सितंबर 13, 2012

गीत प्यार का गुनगुनाऊं ( गीत ) डॉ लोक सेतिया

 गीत प्यार का गुनगुनाऊं ( गीत ) डॉ  लोक सेतिया

गीत प्यार का गुनगुनाऊं कैसे।

लोग पूछते हैं तुम्हारी बातें
याद कौन रखता हमारी बातें
आसमां पे तुमने बसाया है घर
मैं तुम्हें ज़मीं पर बुलाऊं कैसे।
गीत प्यार का ......................

खुद से खुद को जब दूर करना चाहा
और ग़म से घबरा के मरना चाहा
मौत ने मुझे किस तरह ठुकराया
आज वो कहानी सुनाऊं कैसे।
गीत प्यार का ........................

छोड़ कर मुझे लोग धीरे धीरे
चल दिए कहीं और धीरे धीरे
साथ साथ चलने के वादे भूले
रूठ कर चले जब मनाऊं कैसे।
गीत प्यार का .....................

कब वफ़ा निभाई यहां दुनिया ने
हर रस्म उठाई यहां दुनिया ने
जिस्म भी हुआ और दिल भी घायल
ज़ख्म आज सारे दिखाऊं कैसे।
गीत प्यार का गुनगुनाऊं कैसे। 

दीप जलता ही रहा ( गीत ) डॉ लोक सेतिया

 दीप जलता ही रहा ( गीत ) डॉ लोक सेतिया

आंधियां चलती रहीं , दीप जलता ही रहा।

ज़िंदगी के फासले कम कभी हो न सके 
दर्द तो मिलते रहे हम मगर रो न सके
ग़म से पैमाना भरा जब न खाली हो सका
वो समंदर बन गया बस उछलता ही रहा।
आंधियां चलती ........................

पूछते सब से रहे आपका हम तो पता
है हमारा ख्वाब कोई तो देता ये बता
छोड़ कर हम कारवां आ गए खुद ही यहां
इक सफ़र था ज़िंदगी जो कि चलता ही रहा।
आंधियां चलती ...........................

जब किसी ने साथ छोड़ा ,नहीं कुछ भी कहा
शुक्रिया आपका आपने जो भी दिया
जब भी वो देता रहा जाम भर भर के हमें
जाम हाथों से मेरे बस फिसलता ही रहा।
आंधियां चलती ............................

पास हमको लोग सारे बुलाते तो रहे
और हम रस्मे वफा कुछ निभाते तो रहे
दिल हमारा तोड़ डाला किसी ने जब भी
आंसुओं का एक सागर निकलता ही रहा।
आंधियां चलती रहीं ,दीप जलता ही रहा।

 मेरे दोस्त जवाहर लाल ठक्क्र जी ने मिसरा दिया था गीत का। 





              

सितंबर 12, 2012

दर्द अपने हमें क्यों बताये नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द अपने हमें क्यों बताये नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द अपने हमें क्यों बताये  नहीं
दर्द दे दो हमें ,हम पराये  नहीं ।

आप महफ़िल में अपनी बुलाते कभी
आ तो जाते मगर , बिन बुलाये  नहीं ।

चारागर ने हमें आज ये कह दिया
किसलिए वक़्त पर आप आये नहीं ।

लौट कर आज हम फिर वहीं आ गये 
रास्ते भूल कर भी भुलाये  नहीं ।

खूबसूरत शहर आपका है मगर
शहर वालों के अंदाज़ भाये  नहीं ।

हमने देखे यहां शजर ऐसे कई
नज़र आते कहीं जिनके साये  नहीं ।

साथ "तनहा" के रहना है अब तो हमें
उनसे जाकर कहो दूर जाये  नहीं ।



सपने हमारे सच अगर होते नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सपने हमारे सच अगर होते नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सपने हमारे सच अगर होते नहीं
हम मुस्कुराते हैं कभी रोते नहीं।

हैं तीरगी से प्यार करने लग गये
अब रात भर कुछ लोग हैं सोते नहीं।

हो राह ग़म की या ख़ुशी की हो डगर
बस ज़िंदगी में नाखुदा होते नहीं।

तुम मत समझ लेना उसे इक बागबां
जो फूल चुनते हैं मगर बोते नहीं।

जीना यहीं है और मरना भी यहीं
पर ज़िंदगी में और समझौते नहीं।

"तनहा" रहो आज़ाद उनकी कैद से
जैसे भी हो, अपनी खुदी खोते नहीं।

सितंबर 11, 2012

जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ  लोक सेतिया

है अपना तो साफ़ विचार
है लेन देन ही सच्चा प्यार।

वेतन है दुल्हन
तो रिश्वत है दहेज
दाल रोटी संग जैसे अचार।

मुश्किल है रखना परहेज़
रहता नहीं दिल पे इख्तियार।

यही है राजनीति का कारोबार
जहां विकास वहीं भ्रष्टाचार।

सुबह की तौबा शाम को पीना
हर कोई करता बार बार।

याद नहीं रहती तब जनता
जब चढ़ता सत्ता का खुमार।

हो जाता इमानदारी से तो
हर जगह बंटाधार।

बेईमानी के चप्पू से ही
आखिर होता बेड़ा पार।

भ्रष्टाचार देव की उपासना
कर सकती सब का उध्धार।

तुरन्त दान है महाकल्याण
नौ नकद न तेरह उधार।

इस हाथ दे उस हाथ ले
इसी का नाम है एतबार।

गठबंधन है सौदेबाज़ी
जिससे बनती हर सरकार।

वर्कशॉप भगवान की ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

वर्कशॉप भगवान की ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

होली का था वो त्यौहार
भंग का चढ़ा हुआ था खुमार
जा पहुंचा मैं उस पार
जहां चल रहा अजब था कारोबार।

प्रभु तो करते थे विश्राम
कारीगर बना रहे थे इन्सां  हज़ार
हाथ पैर सर का लेबल लगे
मसाले रखे थे नम्बरवार।

बोला इक कारीगर
अब थक गया
बना दिए आज कई हज़ार
प्रभु बोले और बनाओ तुम 
धरती पर हैं अभी दरकार।

यूं जल्दी की गड़बड़ में 
बना कोई बेवकूफ कोई समझदार
एक बैच ऐसा बन गया 
लगा जाएगा मसाला बेकार।

बुलाकर प्रभु को दिखलाया
देखो ये क्या हुआ सरकार
कुछ दिमाग बन गए जरा बड़े
खोपड़ी में जाने से करते इनकार।

प्रभु बोलो कोई बात नहीं
करो इनके सरों का भी विस्तार
यूं ही नहीं अब ये मानेंगे 
इनको बना दो तुम साहित्यकार
कुछ लेखक और कवि बना दो
शायर कुछ बाकी पत्रकार।

सुन कर प्रभु के शुभ विचार
खोपड़ी में जाने को हुए दिमाग तैयार
देखा था छिपकर मैंने
जब हो रहा था ये चमत्कार।

प्रभु ने बुलाया मुझे अपने पास
कहा प्यार से
सुन बरखुरदार
मैं नहीं करता इंसानों का 
करता क्यों इन्सान मेरा कारोबार
इंसानियत का सबक नहीं पढ़ते
बने हुए धर्म के ठेकेदार। 

सितंबर 10, 2012

नयी कविता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

     नयी कविता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

दुनिया के लोग
अपने भी बेगाने भी
आते रहते हैं जाते रहते हैं।

पल पल हर दिन
घटती रहती हैं घटनाएं
निरंतर घूमता रहता है
समय का पहिया।

किसे क्या पसंद है क्या नापसंद
इस बात से होता नहीं
किसी को सरोकार।

कभी बन के दर्शक
देखते हैं तमाशा
कभी स्वयं
बन जाते हैं तमाशा भी
तमाशाई भी।

हर दिन इस कोलाहल में
शामिल रहता हूं 
मैं भी चाहे अनचाहे
हर सांझ चाहता हूं 
भुला दूं वो सब बातें
अच्छी बुरी दिन भर की।

सो जाता हूं 
बिस्तर पर अकेला
रात भर
बदलता रहता हूँ करवटें।

ऐसे में लगता है मुझे
हर रात जैसे 
सो गया है
कोई मेरे करीब आ कर।

प्यार से थपथपा रहा है मुझे
पल पल रहता है
इक मधुर सा एहसास
किसी के पास होने का।

बीत जाती है
हर रात  यूं  ही
देखते हुए नये स्वप्न।

आ जाती है नयी सुबह
हर रात के बाद
भोर के उजाले में
ढूंढता हूं  मैं उसे
जो था रात भर पास मेरे।

और मिल जाती है
हर सुबह मुझे
तकिये के नीचे
इक नयी कविता।

जिधर देखो सभी लगते अकेले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिधर देखो सभी लगते अकेले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिधर देखो सभी लगते अकेले
न जाने क्या हुए दुनिया के मेले ।

नहीं चलती हमारी चाल कोई
कभी हमने कई थे खेल खेले ।

तुम्हारा प्यार मांगा था तुम्हीं से
सितम कितने ज़माने भर के झेले ।

कभी पाए बिना मांगे थे मोती
मिले हैं आज बस मिट्टी के ढेले ।

तुम्हें दिल आज कोई दे गया है
अमानत आज दिल अपना भी दे ले ।

ज़माना बेचता है ख्वाब कितने
हकीकत कुछ नहीं सब ख्वाब से ले ।

बहुत डर लग रहा है आज "तनहा"
ज़रा हाथों में मेरा हाथ ले ले । 
 

 

जाने कब मिलोगी तुम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      जाने कब मिलोगी तुम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

दूर बहुत दूर
आती है मुझे नज़र
हंसती मुस्कुराती हुई।

छू लूं उसे प्यार से
सोचता हूं मैं 
किसी दिन ले ले मुझे
अपनी बाहों में वो।

कब से मैं उसकी तरफ
बढ़ाता रहा हूं कदम
मगर लगता है जैसे
बढ़ता ही जा रहा है
फासला
हम दोनों के बीच।

एक तरफा
चाहत है शायद
उसने चाहा नहीं मुझे कभी भी
मैंने उसे देखा है
प्यार से मिलते सभी से
रूठी हुई है क्यों मुझ से ही।

लगाया नहीं
मुझे कभी गले
तड़प रहा हूं उसके लिए मैं
क्यों भाग रही है मुझसे
दूर और दूर ज़िंदगी। 

राजा नंगा है ( व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

राजा नंगा है ( व्यंग्य कविता ) डॉ  लोक सेतिया

भ्रष्टाचार की बहती गंगा है
लेकिन प्रधान मंत्री चंगा है।

सत्यमेव जयते का इक नारा
देखो दीवार पे टंगा है।

सब मंत्री निर्वस्त्र हुए 
खुद राजा तक भी नंगा है।

पैसे ने किया बस अंधा है
देशभक्ति उनका धंधा है।

लोहा बेचा, खाया कोयला
कैसा फ़हराया झंडा है।

बिकते नेता  सरकार बिकी
काम आता उनका चंदा है।

फस गई सरकार बेचारी है
चेहरे पर कालिख कारी है।

सीखा नहीं लेकिन घबराना
जब चोरों से ही यारी है।

अब दाग़ सभी लगते अच्छे
बेची सब शर्म हमारी है।

सच को हम नहीं छिपाते हैं
हम अपना धर्म निभाते हैं।

घोटालों की  ख़बरों को बस
कुछ छोटा कर दिखलाते हैं।

मुखप्रष्ट की खबर को हम 
कहीं भीतर छपवाते हैं। 

सितंबर 09, 2012

चल रहे हैं धूप में छाया करो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

चल रहे हैं धूप में छाया करो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

चल रहे हैं धूप में छाया करो
गेसुओं को हमपे लहराया करो ।

जैसे सूरज को छिपाती है घटा
उस तरह आंचल का तुम साया करो ।

और भी हो जाएंगे पत्ते हरे
प्यार की शबनम से नहलाया करो ।

प्यास के मारों को तुम झरना बनो
यूं न दरिया बन के बह जाया करो ।

तिनके चुन चुन कर बने हैं घौंसले
बिजलियो उनपर तरस खाया करो ।
 

 

झूठ को सच करे हुए हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

झूठ को सच करे हुए हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

झूठ को सच करे हुए हैं लोग
बेज़ुबां कुछ डरे हुए हैं लोग।

नज़र आते हैं चलते फिरते से
मन से लेकिन मरे हुए हैं लोग।

उनके चेहरे हसीन हैं लेकिन
ज़हर अंदर भरे हुए हैं लोग।

गोलियां दागते हैं सीनों पर
बैर सबसे करे हुए हैं लोग।

शिकवा उनको है क्यों ज़माने से
खुद ही बिक कर धरे हुए हैं लोग।

जितना उनके करीब जाते हैं
उतना हमसे परे हुए हैं लोग। 
 
आज़माया उन्हें बहुत "तनहा" 
पर न साबित खरे हुए हैं लोग। 



 
 

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे
बिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे।

रख दिये  इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे।

था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे।

हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे।

ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे।

आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे।

महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे।   

सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था।

गिला इसका नहीं बदला ज़माना
मगर वो शख्स तो ऐसा नहीं था।

खिला इक फूल तो बगिया में लेकिन
जो हमने चाहा था वैसा नहीं था।

न पूछो क्या हुआ भगवान जाने
मैं कैसा था कि मैं कैसा नहीं था।

जो देखा गौर से उस घर को मैंने
लगा मुझको वो घर जैसा नहीं था।
  
 
 

सितंबर 07, 2012

बड़े लोग ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

बड़े लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं ।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं ।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं ।  
 

 

सितंबर 06, 2012

संगीत से शोर होने तक ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

संगीत से शोर होने तक ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कभी जब गलियों से
गुज़रते हैं 
बहुत सारे बच्चे
मिल कर एक साथ
करते हैं कई आवाज़ें
हम सुन नहीं पाते
बोल उनके फिर भी
समझ लेते हैं हम
उनकी ख़ुशी उनकी मस्ती ।

भाता है हम सभी को
उन बच्चों का उल्लास
भर जाती है हमारे जीवन में
नई उमंग
देख कर मुस्कुराता बचपन ।

हमें मधुर संगीत सी लगती हैं
तब उन बच्चों की आवाज़ें ।

डराता है मगर हमें वो कोलाहल
जो गूंजता है
गाँव गाँव - शहर शहर - गली गली
सभाओं में व्याख्यानों  में ।

बांटता है जो  इंसानों को
अपने स्वार्थ की खातिर
कभी धर्म- कभी भाषा - कभी क्षेत्रवाद
के नाम पर ।

नफरत का ज़हर फैलाता हुआ
भर जाता है
एक घुटन सी
हमारे जीवन में ।

खो जाता है जाने कहां
बचपन  का मधुर वो संगीत
बड़े होने पर
क्यों बन जाता है बस
इक शोर ।

अच्छा होता दुनिया में सब
होते बच्चे अच्छे अच्छे । 
 

 

थकान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

          थकान ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

जीवन भर चलता रहा
कठिन पत्थरीली राहों पर
मुझे रोक नहीं सके
बदलते हुए मौसम भी।

पर मिट नहीं सका
फासला
जन्म और मृत्यु के बीच का।

चलते चलते थक गया जब कभी
और खोने लगा धैर्य
मेरी नज़रें ढूंढती रहीं
किसी को जो चलता
कुछ कदम तक साथ साथ मेरे।

और प्यार भरे बोलों से
भुला देता सारी थकान
जाने कहां अंत होगा
धरती - आकाश से लंबे
इस सफर का
और कब मिलेगा मुझे आराम।

सितंबर 05, 2012

लिखी फिर किसी ने कहानी वही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लिखी फिर किसी ने कहानी वही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लिखी फिर किसी ने कहानी वही है
मुहब्बत की हर इक निशानी वही है।

सियासत में देखा अजब ये तमाशा
नया राज है और रानी वही है।

हमारे जहां में नहीं कुछ भी बदला
वही चोर , चोरों की नानी वही है।

जुदा हम न होंगे जुदा तुम न होना
हमारे दिलों ने भी ठानी वही है।

कहां छोड़ आये हो तुम ज़िंदगी को
बुला लो उसे ज़िंदगानी वही है।

खुदा से ही मांगो अगर मांगना है
भरे सब की झोली जो दानी वही है।

घटा जम के बरसी , मगर प्यास बाकी
बुझाता नहीं प्यास , पानी वही है।  

हर हक़ीक़त हुई इक फ़साना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हर हक़ीक़त हुई इक फ़साना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हर हक़ीकत हुई इक फसाना है
बस रहा चार दिन हर ज़माना है ।

प्यार करने का दस्तूर इतना है
डूब जाये जिसे पार जाना है ।

हो रहे ज़ुल्म कितने ज़मीं पर हैं
आसमां के खुदा को बताना है ।

याद रखना उसे जो किया हमसे
एक दिन आ के वादा निभाना है ।

जा रहे हम नये इक सफ़र पर हैं
फिर जहां से नहीं लौट पाना है ।

भेजना ख़त नहीं अब मुझे कोई
ठौर अपना न कोई ठिकाना है ।

प्यार में हर किसी को यही लगता
उनसे नाता बहुत ही पुराना है ।

कुछ बताओ हमें क्या करें यारो
आज रूठे खुदा को मनाना है ।

बांटता ही नहीं दर्द को "तनहा"
पास उसके यही बस खज़ाना है ।
 

 

सितंबर 02, 2012

आंखों देखा हाल ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

आंखों देखा हाल ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुबह बन गई थी जब रात
ये है उस दिन की बात
सांच को आ गई थी आंच 
दो और दो बन गए थे पांच।

कत्ल हुआ सरे बाज़ार 
मौका ए वारदात से
पकड़ कातिलों को
कोतवाल ने
कर दिया चमत्कार।

तब शुरू हुआ
कानून का खेल 
भेज दिया अदालत ने 
सब मुजरिमों को सीधा जेल।

अगले ही दिन
कोतवाल को
मिला ऊपर से ऐसा संदेश
खुद उसने माँगा 
अदालत से
मुजरिमों की रिहाई का आदेश।

कहा अदालत से
कोतवाल ने
हैं हम ही गाफ़िल 
है कोई और ही कातिल।

किया अदालत ने
सोच विचार 
नहीं कोतवाल का ऐतबार
खुद रंगे हाथ 
उसी ने पकड़े  कातिल 
और बाकी रहा क्या हासिल।

तब पेश किया कोतवाल ने 
कत्ल होने वाले का बयान 
जिसमें तलवार को 
लिखा गया था म्यान।

आया न जब 
अदालत को यकीन 
कोतवाल ने बदला 
पैंतरा नंबर तीन।

खुद कत्ल होने वाले को ही 
अदालत में लाया गया 
और लाश से
फिर वही बयान दिलवाया गया।

मुझसे हो गई थी
गलत पहचान 
तलवार नहीं हज़ूर 
है ये म्यान  
मैंने तो देखी ही नहीं कभी तलवार
यूँ कत्ल मेरा तो 
होता है बार बार 
कहने को आवाज़ है मेरा नाम 
मगर आप ही बताएं 
लाशों का बोलने से क्या काम।

हो गई अदालत भी लाचार 
कर दिये बरी सब गुनहगार 
हुआ वही फिर इक बार
कोतवाल का कातिलों से प्यार।

झूठ मनाता रहा जश्न 
सच को कर के दफन 
इंसाफ बेमौत मर गया
मिल सका न उसे कफन। 

श्रद्धांजलि सभा ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

श्रद्धांजलि सभा ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

टेड़ा है बहुत 
स्वर्ग और नर्क का सवाल 
सुलझाएं जितना इसे 
उजझता जाता है जाल।

आपको दिखलाता हूं 
मैं आंखों देखा हाल 
देखोगे इक दिन आप भी 
मैंने जो देखा कमाल।

बहुत भीड़ थी स्वर्ग में 
बड़ा बुरा वहां का हाल 
छीना झपटी मारा मारी
और बेढंगी थी चाल।

नर्क को जाकर देखा 
कुछ और ही थी उसकी बात 
दिन सुहाना था वहां 
और शांत लग रही रात।

पूछा था भगवान से 
स्वर्ग और नर्क हैं क्या 
और उसने मुझे 
ये सब कुछ दिया था दिखा।

घबराने लगा जब मैं 
थाम कर तब मेरा हाथ 
बतलाई थी भगवान ने 
तब मुझे सारी बात।

श्रधांजली सभा होती है 
सब के मरने के बाद 
सब मिल कर जहां 
करते हैं मुझसे फ़रियाद
स्वर्ग लोक में दे दूं 
सबको मैं कुछ स्थान 
बेबस हो गया हूं मैं 
अपने भगतों की बात मान।

शोक सभाओं में 
ऐसा भी कहते हैं लोग 
स्वर्ग लोक को जाएगा 
आये  हैं जो इतने लोग।

देखकर शोकसभाओं की भीड़ 
घबरा जाता हूँ मैं 
मुझको भी होने लगा है 
लोकतंत्र सा कोई रोग।

कहां जाना चाहते हो 
सब से पूछते हैं हम 
नर्क नहीं मांगता कोई 
जगह स्वर्ग में है कम।

नर्क वालों के पास 
है बहुत ही स्थान 
वहां रहने वालों की 
है अलग ही शान 
रहते हैं वहां 
सब अफसर डॉक्टर वकील 
बात बात पर देते हैं 
वे कोई नई दलील।

करवा ली हैं बंद मुझसे 
नर्क की सब सजाएं 
देकर रोज़ मानवाधिकारों की दुआएं।

बना ली है नर्क वालों ने 
अपनी दुनिया रंगीन 
मांगने पर स्वर्ग वालों को 
मिलती नहीं ज़मीन।

नर्क ने बनवा ली हैं
ऊंची ऊंची दीवारें 
स्वर्ग में लगी हुई हैं 
बस कांटेदार तारें
नर्क में ही रहते हैं 
सब के सब बिल्डर 
स्वर्ग में बन नहीं सकता कोई भी घर।

स्वर्ग नर्क से दूर भी 
बैठे थे कुछ नादान 
फुटपाथ पे पड़ा हुआ था 
जिनका सामान
उन्हें नहीं मिल सका था 
दोनों जगह प्रवेश 
जो रहते थे पृथ्वी पर 
बन कर खुद भगवान।

किया था भगवान ने 
मुझसे वही सवाल 
स्वर्ग नर्क या है बस
मुक्ति का ही ख्याल।

कहा मैंने तब सुन लो 
ए दुनिया के तात 
दोहराता हूँ मैं आज 
एक कवि की बात।

मुक्ति दे देना तुम 
गरीब को भूख से 
दिला सको तो दिला दो 
मानव को घृणा से मुक्ति
और नारी को 
दे देना मुक्ति अत्याचार से 
मुझे जन्म देते रहना 
बार बार इनके निमित।

मित्रो
मेरे लिये  स्वर्ग की 
प्रार्थना मत करना 
न ही कभी मेरी 
मुक्ति की तुम दुआ करना
मेरी इस बात को 
तब भूल मत जाना 
मेरी श्रधांजली सभा में 
जब भी आना। 

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का।

हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का। 

अपनी मज़बूरी बतायें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अपनी मज़बूरी बतायें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अपनी मज़बूरी बतायें कैसे
ज़ख्म दिल के हैं दिखायें कैसे ।

आशियाने में हमें रहना है
अपना घर खुद ही जलायें कैसे ।

छोड़ आये हम जिसे यूँ ही कभी
अब उसी घर खुद ही जायें कैसे ।

एक मुर्दा जिस्म हैं अब हम तो
अब दवा खायें तो खायें कैसे ।

नाम जिसका ख़ामोशी रखना है
दास्तां सब को सुनायें कैसे ।

दर्द दे कर भूल जाता हो जो
उस सितमगर को बुलायें कैसे ।

जब नहीं बाकी रहा ताल्लुक ही
बोझ यादों का उठायें  कैसे ।

जो सुनानी हो उसी को "तनहा"
ग़ज़ल महफ़िल में सुनायें कैसे । 
 

 

जिन के ज़हनों में अंधेरा है बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिन के ज़हनों में अंधेरा है बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिन के ज़हनों में अंधेरा है बहुत
दूर उन्हें लगता सवेरा है बहुत ।

एक बंजारा है वो , उसके लिये
मिल गया जो भी बसेरा है बहुत ।

उसका कहने को भी कुछ होता नहीं
वो जो कहता है कि मेरा है बहुत ।

जो बना फिरता मुहाफ़िज़ कौम का
जानते सब हैं , लुटेरा है बहुत ।

राज़ "तनहा" जानते हैं लोग सब
नाम क्यों बदनाम तेरा है बहुत । 
 

 

क्या तलाश कहां होगी कैसे पूरी ( पुरानी डायरी ) डॉ लोक सेतिया

  क्या तलाश कहां होगी कैसे पूरी ( पुरानी डायरी ) डॉ लोक सेतिया 

अभी नहीं मालूम अगली ही पंक्ति में लिखना क्या है सुबह सुबह ये ख़्याल आया कि इस दुनिया में सभी कुछ तो है फिर भी सभी की झोली ख़ाली दिखाई देती है तो किसलिए । बहुत सारी पुरानी डायरियां संभाल कर रखी हुई है अक़्सर जब कोई सवाल परेशान करता है तो उनको पढ़ता हूं और न जाने कैसे मुझे जो बात नहीं समझ आ रही थी पल भर में समझ आ जाती है । आज विचार आया मन में बातचीत में व्यवहार में सोशल मीडिया से लेकर साहित्य फ़िल्म टीवी सीरियल सभी में ऐसा लगता है देख सुन कर जैसे  जहां में प्यार वफ़ा ईमानदारी भरोसा जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं ऐसा कुछ मिलता ही नहीं किसी को भी ढूंढते ढूंढते सब का जीवन गुज़र जाता है । कुछ रचनाएं आधी अधूरी डायरी में लिखी पढ़ी जिनको किसी न किसी कारण से मुकम्मल नहीं किया जा सका लेकिन उनकी शायद दबी हुई भावनाओं को खुद ही आकार देने की क्षमता अभी तक नहीं रही खुद मुझी में तो किसी को क्या बताता और कोई कैसे समझता । उम्र के इस मोड़ पर जो मुझे समझ आया वो इक वाक्य में कहा जा सकता है ' मैंने सही लोगों में सही जगह उचित तरीके से जिन बातों की चाहत थी बेहद ज़रूरत थी दोस्ती प्यार अपनेपन की नहीं की और जिन लोगों जिन जगहों पर उनका आभाव था वहां उन सब को ढूंढता रहा '। तभी मैंने अपने जीवन को रेगिस्तान में पानी की तलाश ओएसिस जैसा बार बार कहा है रचनाओं में । आसानी के लिए वही कुछ पुरानी कविताएं नज़्म या जो भी है सार्वजनिक कर रहा हूं विषय की ज़रूरत है ऐसा सोच कर । 
 
ज़िंदा रहने की इजाज़त नहीं मिली , 
प्यार की सबसे बड़ी दौलत नहीं मिली ।
 
मिले दोस्त ज़माने भर वाले लेकिन , 
कभी किसी में भी उल्फ़त नहीं मिली । 
 
नासेह की नसीहत का क्या करते हम , 
लफ़्ज़ों में ख़ुदा की रहमत नहीं मिली ।   
 
तेरा होने की आरज़ू में खुद अपने भी न बन पाए ,  
गुलों की चाहत थी कांटों वाले चमन पाए । 
 
मुहब्बत की गलियों में में यही देखा सब ने वहां ,  
ख़ुद मुर्दा हुए दफ़्न हुए खूबसूरत कफ़न पाए ।  
 
अजनबी अपने देश गांव शहर में लोग सभी थे ,   
जा के परदेस लोगों ने अपने हमवतन पाए ।
 
अपने अपने घर बैठे हैं सब ये कैसा याराना है ,  
मिलने की चाहत मिट गई फुर्सत नहीं का बहाना है ।  
 
फूलों सी नमी शोलों में लानी है हमने तो अब , 
पत्थर दिल दुनिया को बदलने का करिश्मा दिखाना है ।  
 
ढूंढता फिरता हूं खुद ही अपने क़ातिल को मैं  , 
मुझको कोई तो नाम बताओ किस किस को बुलाना है ।
 
कुछ यहां तो कुछ वहां निकले , 
नासमझ सारे ही इंसां निकले ।
 
मैंने दुश्मनी का सबब पूछा जब  , 
दोस्त खुद बड़े पशेमां निकले ।  

उस का इंतज़ार करते रहे वहीं पे , 
जहां से सभी कारवां निकले । 
 
कोई अपना होता गर तो कुछ गिला करते , 
ज़माना गैर है किसी से बात ही क्या करते । 
 
बेवफ़ाई शहर की आदत थी पुरानी बनी हुई , 
हमीं बताओ आख़िर कब तलक वफ़ा करते । 
 
ज़ख़्म नहीं भरें कभी यही तमन्ना अपनी थी , 
चारागर पास जाके  क्योंकर इल्तिज़ा करते ।  
 
इतना काफ़ी आज की बात को समझने को और नतीजा निकला जवाब समझ आया कि जिस को जो चाहिए पहले ये सोचना समझना होगा वो है कहां मिलेगी कैसे किस से तब अपनी उस को हासिल करने को कोई रास्ता बनाना होगा । चाहत बड़ी कीमती चीज़ होती है सब को इसकी समझ होती नहीं है जब मनचाही चीज़ मिले तो दुनिया की दौलत के तराज़ू पर नहीं रखते हैं दिल के पलड़े पर पता चलता है सब लुटा कर भी कोई दौलतमंद बनता है तो पैसे हीरे मोती सब किसी काम नहीं आये जितना इक शख़्स जीवन में मिल जाए तो किस्मत खुल जाती है । तय कर लिया है जहां प्यार वफ़ा ईमानदारी और विश्वास नहीं हो उस तरफ भूले से भी जाना नहीं है । मुझे अपनापन प्यार और हमदर्द लोग मिले जिनसे मिलने की उम्मीद ही नहीं की थी । उसी रेगिस्तान में पानी कुछ हरियाली को ढूंढता हूं मैं मुझे मालूम है चमकती हुई रेत को पानी समझना इक मृगतृष्णा है उस से बचना है और यकीन है जिस दुनिया की तलाश है वो काल्पनिक नहीं वास्तविक है और मिल जाएगी किसी न किसी दिन मुझे ।  
 
 


सितंबर 01, 2012

शून्यालाप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    शून्यालाप ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

अंतिम पहर जीवन का
समाप्त हुआ अब बनवास
त्याग कर बंधन सारे
चल देना है अनायास
राह नहीं कुछ चाह नहीं
समाप्त हुआ वार्तालाप।

विलीन हो रही आस्था
टूट रहा हर विश्वास
तम ने निगल लिया सूरज
जाने कैसा है अभिशाप।

फैला है रेत का सागर
जल रहा तन मन आज
शब्द स्तुति के सब बिसरे
छूट गया प्रभु का साथ।

मनाया उम्र भर तुमको
माने न तुम कभी मगर
खो जाना एक शून्य में
बनाना है शून्य को वास।

अब खोजना नहीं किसी को
न आराधना की है आस
करना है समाप्त अब
खुद से खुद का भी साथ।

वतन के घोटालों पर इक चौपाई लिखो ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

  वतन के घोटालों पर इक चौपाई लिखो ( हास्य-व्यंग्य कविता ) 

                                 डॉ लोक सेतिया

वतन के घोटालों पर इक चौपाई लिखो
आए पढ़ाने तुमको नई पढ़ाई लिखो।

जो सुनी नहीं कभी हो , वही सुनाई लिखो
कहानी पुरानी मगर , नई बनाई लिखो।

क़त्ल शराफ़त का हुआ , लिखो बधाई लिखो
निकले जब कभी अर्थी , उसे विदाई लिखो।

सच लिखे जब भी कोई , कलम घिसाई लिखो
मोल विरोध करने का , बस दो पाई लिखो।

बदलो शब्द रिश्वत का , बढ़ी कमाई लिखो
पाक करेगा दुश्मनी , उसको भाई लिखो।

देखो गंदगी फैली , उसे सफाई लिखो
नहीं लगी दहलीज पर , कोई काई लिखो।

पकड़ लो पांव उसी के , यही भलाई लिखो
जिसे बनाया था खुदा , नहीं कसाई लिखो।