जुलाई 31, 2012

एक पत्नी ने बनवाया नया इक ताज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 एक पत्नी ने बनवाया नया इक ताज  ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

बनवाया होगा
किसी बादशाह ने
अपनी मुमताज के नाम
कोई ताजमहल
मुझे नहीं है
उसे देखने की
कोई चाहत।

मगर चाहता हूँ
किसी दिन मैं
जा कर देख आऊं
उस
ह्युम्निटी हस्पताल को। 

जिसे बनवाया है
एक मज़दूर की पत्नी ने
पति की याद में
पति के बिना इलाज
मरने के बाद।

अपने बेटे को
अनाथालय में भेजकर
की तपस्या
अपने सपने को
पूरा करने की
डॉक्टर बनाया उसको
ऐसा अस्पताल
बनाने के लिए।
 
ताकि अब और
किसी गरीब को
पैसा पास न होने के कारण
कोई कर न सके
इलाज से इनकार। 
 

 

जुलाई 26, 2012

हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले।
 
आज फिर ले के वो बारात चले 
अपनी दुल्हन को जलाने वाले।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले।

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले। 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले। 
 
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले।

काश हालात से होते आगाह 
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले। 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले।

तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले।

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ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।

तेज़ झोंकों में रेत के घर सा
ग़म का मारा बिखर गया कोई।

न मिला कोई दर तो मज़बूरन
मौत के द्वार पर गया कोई।

खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर
फिर से खुद ही संवर गया कोई।

ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।

और गहराई शाम ए तन्हाई
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।

है कोई अपनी कब्र खुद ही "लोक"
जीते जी कब से मर गया कोई।   
 

 

जुलाई 25, 2012

है अधूरी कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      है अधूरी कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी  नहीं है
कागज़ पे लिखी 
पर्दे पर दिखाई गई  
कोई पटकथा।

जिसे ले जाता है
मनचाहे अंत तक
लिखने वाला लेखक  
भटकने नहीं देता
कहानी के पात्रों को।

बचाये रखता है
अपने पात्रों के
वास्तविक चरित्र को
संबल बन कर।

छोड़ दिया है शायद
अकेला और बेसहारा 
विधाता ने
जीवन में हर पात्र को।

भटक जाती है ज़िंदगी 
धूप - छावं में
अनजान पथ पर चलते हुए
बार बार।

जाने कब कहाँ कैसे
भटक जाते हैं सभी पात्र
सही मार्ग से जीवन में।

सभी करते रह जाते हैं प्रयास 
कहानी को उचित परिणिति तक
ले जाने का
मगर आज तक
पहुंचा नहीं पाया कोई भी
पूर्णता तक उसको।

रह गयी है अधूरी
सब के जीवन की
वास्तविक कहानी
त्रिशंकु बन कर रह गये  हैं
जीवन में तमाम लोग।

जुलाई 24, 2012

रहें खामोश जब तक सब कहा जाता शराफत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    रहें खामोश जब तक सब कहा जाता शराफत है ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रहें खामोश जब तक सब कहा जाता शराफत है
कभी जब बोलता कोई उसे कहते बगावत है।

खुदा देता नहीं क्योंकर सभी को सब बराबर है
कभी खुद देखता आकर किसे कितनी ज़रूरत है।

नहीं उनकी खता कोई हुई जिनको मुहब्बत है
कभी पूछो ज़माने से , उसे कैसी अदावत है।

यहीं सब छोड़ना होगा सभी कुछ जोड़ने वाले
न जाने नाम पर किसके लिखी तुमने वसीयत है।

मिटा डाला सभी ने खुद कभी का नाम तक उसका
मुहब्बत मांगते सब लोग कब मिलती मुहब्बत है।

किसे फुर्सत यहाँ सोचे वतन कैसे बचेगा अब
सभी कुछ है उन्हीं का अब सियासत बस तिजारत है।

हसीनों की अदाओं को कहाँ समझा कभी कोई
दिखाना भी छुपाना भी यही उनकी नज़ाकत है।

नहीं हिन्दू यहाँ कोई नहीं मुस्लिम यहाँ कोई
यहाँ होती धर्म के नाम पर केवल सियासत है।

पिलाते और पीते हैं बड़े ही शौक से "तनहा"
जिसे जीना वो कहते हैं वही शायद कयामत है।

जुलाई 23, 2012

नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई ( ग़ज़ल ) लोक सेतिया "तनहा"

    नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई ( ग़ज़ल ) 

                            लोक सेतिया "तनहा"

नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई 
है अपनी जेब तक खाली कहीं पर घर नहीं कोई।

चले थे सोच कर कोई हमें उसका पता देगा 
यहाँ पूछा वहां ढूँढा मिला दिलबर नहीं कोई।

बताना हुस्न वालों को जिन्हें चाहत है सजने की
मुहब्बत से हसीं अब तक बना ज़ेवर नहीं कोई।

ग़ज़ल की बात करते हैं ज़माने में कई लेकिन
हमें कहना सिखा देता मिला शायर नहीं कोई।

हमें सब लोग कहते थे कभी हमको बुलाना तुम
ज़रूरत में पुकारा जब मिला आ कर नहीं कोई।

कहीं मंदिर बना देखा कहीं मस्जिद बनी देखी
कहाँ इन्सान सब जाएँ कहीं पर दर नहीं कोई।

वहां करवट बदलते रात भर महलों में कुछ "तनहा"
यहाँ कुछ लोग सोये हैं जहाँ बिस्तर नहीं कोई।

जुलाई 22, 2012

नाट्यशाला ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         नाट्यशाला ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मैंने देखे हैं
कितने ही
नाटक जीवन में
महान लेखकों की
कहानियों पर
महान कलाकारों के
अभिनय के।

मगर नहीं देख पाऊंगा मैं
वो विचित्र नाटक
जो खेला जाएगा
मेरे मरने के बाद
मेरे अपने घर के आँगन में।

देखना आप सब
उसे ध्यान से
मुझे जीने नहीं दिया जिन्होंने कभी
जो मारते  रहे हैं बार बार मुझे
और मांगते रहे मेरे लिये
मौत की हैं  दुआएं।

कर रहे होंगे बहुत विलाप
नज़र आ रहे होंगे बेहद दुखी
वास्तव में मन ही मन
होंगे प्रसन्न।

कमाल का अभिनय
आएगा  तुम्हें नज़र
बन जाएगा  मेरा घर
एक नाट्यशाला।

जुलाई 21, 2012

मन की बात ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

       मन की बात ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

देख कर किसी को
बढ़ गई दिल की धड़कन
समा गया कोई
मन की गहराईओं में
किसी की मधुर कल्पनाओं में
खोए  रहे रात दिन
जागते रहे किसी की यादों में
रात - रात भर करते रहे
सपनों में उनसे मुलाकातें ।

चाहा कि बना लें उन्हें
साथी उम्र भर के लिए
हर बार रह गया मगर
फासला कुछ क़दमों का
हमारे बीच ।

उनकी नज़रें
करती रहीं इंतज़ार 
खामोश सवाल के जवाब का
पर हम साहस न कर सके
प्यार का इज़हार करने का कभी ।

समझ नहीं सके वो भी
हमारी नज़रों की भाषा को
और लबों पे ला न पाए
दिल की बात कभी हम । 


                                                       

जुलाई 20, 2012

अलविदा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    अलविदा ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

तुम जा रहे हो आज
छुड़ा कर मुझसे हाथ
भुला कर उम्र भर
साथ देने का वादा
जब मिल गया है
तुम्हें किनारा ।

चलो अच्छा हुआ
मिल गया तुम्हें 
कोई तो ऐसा
जो कर सके
पूरे तुम्हारे सपने।

चाहा तो मैंने भी
यही था सदा
मगर कर न पाया कभी
मुझे और क्या चाहिये
तुम्हारी ख़ुशी से  बढ़कर।

मैं जूझता रहा
तेज़ हवओं से
लड़ता रहा तूफानों से
नहीं डरा कभी
किसी भी भंवर से।

समझा था मैंने सदा तुम्हें
अपनी  मंज़िल भी
किनारा भी
मैं खड़ा हूं वहीं उसी  कश्ती पर
थामे पतवार बन के माझी।

और देख रहा हूं  तुम्हें
आंसू लिये पलकों पर अपनी
कदम - कदम दूर जाते हुए
हाथ हिलाते हुए। 

जुलाई 18, 2012

उमंग यौवन की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   उमंग यौवन  की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ये मस्ती
ये अल्हड़पन
ये झूम के चलना
ये हर पल गुनगुनाना
ये सतरंगी सपने बुनना
ये हवाओं संग उड़ना
ये भीनी भीनी खुशबु
ये बहारों का मौसम
ये सब है तुम्हारा आज
ओर है सारा जहाँ तुम्हारा ।
जी भर के जी लो
आज तुम इनको
कुछ ऐसे कि
याद रह जाए उम्र भर 
इनका मधुर एहसास ।

यौवन में
कदम रखता हुआ 
अठाहरवां साल है ये ।

जुलाई 15, 2012

कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने 
खुद अपनी ही कैद से।

जुलाई 11, 2012

साया ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   साया ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

पी लेता हूं 
यूं तो अक्सर
ज़िंदगी का
मैं ज़हर।

जाने क्यों
फिर भी कभी
भर आती हैं आंखें 
और घुटने
लगता है दम।

रोकने से
तब रुकते नहीं
आंखों से आंसू
तनहाई में अक्सर।

मन करता है
जा कर पास तुम्हारे
चुप चाप बैठ कर
जी भर के रो लेने को।

सोचता हूं 
मैं कभी कभी
अकेले में ये भी
जिसकी तलाश है मुझे 
तुम वही हो कि नहीं।

भीगी पलकों के
हम दोनों के शायद
इस नाते को कभी
मैं नहीं कोई भी
नाम दे पाया।

तुम्हें भी
याद आता है कभी
छत के कोने में देर रात तक
राह तकता हुआ
गुमसुम सा
खड़ा कोई साया।

जुलाई 10, 2012

चुभन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

           चुभन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

धरती ने
अंकुरित किया
बड़े प्यार से उसे
किया प्रस्फुटित
अपना सीना चीर कर
बन गया धीरे धीरे
हरा भरा पौधा
उस नन्हें बीज से ।

फसल पकने पर
ले गया काट कर
बन कर स्वामी
डाला था जिसने बीज
धरती में
और धरती को मिलीं
मात्र कुछ जडें
चुभती हुई सी ।

अपनी कोख में
हर संतान को
पाला माँ ने 
मगर मिला उन्हें सदा
पिता का ही नाम
जो समझता रहा खुद को
परिवार का मुखिया
घर का मालिक ।

और हर माँ
सहती रही
कटी हुई जड़ों की
चुभन के  दर्द को
जीवन पर्यन्त ।

जुलाई 09, 2012

हमको तो कभी आपने काबिल नहीं समझा (ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      हमको तो कभी आपने काबिल नहीं समझा (ग़ज़ल ) 

                       डॉ लोक सेतिया  "तनहा"

हमको तो कभी आपने काबिल नहीं समझा
दुःख दर्द भरी लहरों में साहिल नहीं समझा।

दुनिया ने दिये  ज़ख्म हज़ार आपने लेकिन
घायल नहीं समझा हमें बिसमिल नहीं समझा।

हम उसके मुकाबिल थे मगर जान के उसने
महफ़िल में हमें अपने मुकाबिल नहीं समझा।

खेला तो खिलोनों की तरह उसको सभी ने
अफ़सोस किसी ने भी उसे दिल नहीं समझा।

हमको है शिकायत कि हमें आँख में तुमने
काजल सा बसाने के भी काबिल नहीं समझा।

घायल किया पायल ने तो झूमर ने किया क़त्ल
वो कौन है जिसने तुझे कातिल नहीं समझा।

उठवा के रहे "लोक" को तुम दर से जो अपने
पागल उसे समझा किये साईल नहीं समझा।    
 

 

नया दोस्त कोई बनाने चले हो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नया दोस्त कोई बनाने चले हो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नया दोस्त कोई बनाने चले हो
फिर इक ज़ख्म सीने पे खाने चले हो।

न टकरा के टूटे कहीं शीशा ए दिल
ये पत्थर को क्यों तुम मनाने चले हो।

उसी शाख पर जिसपे बिजली गिरी थी
नया आशियाँ क्यों बसाने चले हो।

यकीं कर के मौजों पे अपना सफीना
कहाँ बीच मझधार लाने चले हो।

छिपे हैं गुलों में हज़ारों ही कांटे
कि जिनसे घर अपना सजाने चले हो।

सितमगर हैं नश्तर से वो काम लेंगे
जिन्हें दाग़े-दिल तुम दिखाने चले हो।

ये हंसने हंसाने की तुम चाह लेकर
कहाँ आज आँसू बहाने चले हो। 
 

 

जुलाई 08, 2012

बिका ज़मीर कितने में , हिसाब क्यों नहीं देते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     बिका ज़मीर कितने में , हिसाब क्यों नहीं देते ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

बिका ज़मीर कितने में ,हिसाब क्यों नहीं देते
सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते ।


किसी ने घर जलाया था , उसी से जा के ये पूछा
जला के घर हमारा आप आब क्यों नहीं देते ।

 
सभी यहाँ बराबर हैं सभी से प्यार करना तुम
सबक लिखा हुआ जिसमें किताब क्यों नहीं देते ।

छुपा नहीं छुपाने से हुस्न कभी भी दुनिया से
हसीं सभी हटा अपना हिजाब क्यों नहीं देते ।

नहीं भुला सके हम खाव्ब जो कभी सजाये थे
हमें वही सुहाने फिर से ख्वाब क्यों नहीं देते ।

इश्क यहाँ सभी करते , नहीं बचा कभी कोई
न बच सका किसी का दिल जनाब क्यों नहीं देते ।

यही तो मांगते सब हैं हमें भी कुछ उजाला दो
नहीं कहा किसी ने आफताब क्यों नहीं देते ।

अभी तो प्यार का मौसम है और रुत सुहानी है
कभी किसी हसीना को गुलाब क्यों नहीं देते ।

उन्हें अभी बता देना यही गिला है "तनहा" को
हमें कभी सभी अपने अज़ाब क्यों नहीं देते ।

जुलाई 06, 2012

औरत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

           औरत    ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

तुमने देखा है
मेरी आँखों को
मेरे होटों को
मेरी जुल्फों को ,
नज़र आती है तुम्हें 
ख़ूबसूरती नज़ाकत और कशिश
मेरे जिस्म के अंग अंग में ।
 
तुमने देखा है 
केवल बदन मेरा 
प्यास बुझाने को 
अपनी हवस की ,
बाँट दिया है तुमने
टुकड़ों में मुझे
और उसे दे रहे हो 
अपनी चाहत का नाम ।

तुमने देखा ही नहीं 
कभी उस शख्स को 
एक इन्सान है जो
तुम्हारी ही तरह  ,
जीवन का हर इक 
एहसास लिये । 
 
 
जो नहीं है केवल एक जिस्म 
औरत है तो क्या ।