अक्तूबर 31, 2023

रुसवाईयां ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

                रुसवाईयां ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

न बार बार आज़माया करो 
यूं ही न दिल को जलाया करो । 
 
वो न बदलेंगे कभी 
न ये उम्मीद लगाया करो । 
 
जहां होती हो रुसवाई 
न उस गली में जाया करो । 
 
मिले जो चुरा के नज़र 
उसे न कुछ समझाया करो । 
 
झूठ के चाहने वालों को 
सच न कोई बताया करो । 
 
फ़रेब हर बात में है 
इन बातों में न आया करो । 
 
कभी जो प्यार से नहीं मिलता 
न उसे घर बुलाया करो । 
 
      ( 13 अक्टूबर 1995 ) 
 

 

सदाएं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

                    सदाएं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

ग़ैरों को हम अपना कहते हैं 
हमसे अपने ही खफ़ा रहते हैं । 
 
यहां कोई किसी का नहीं 
तेरे शहर में लोग कहते हैं । 
 
तूफ़ां उठता है कोई दिल में 
जब भी उनके अश्क़ बहते हैं ।
 
हक़ उन्हीं का है इस पे 
मुहब्बत के जो दर्द सहते हैं । 
 
कहीं न जा सकेंगे अब 
वो इस दिल में रहते हैं । 
 
आसमां के सितारे भला 
कब ज़मीं पे रहते हैं । 
 
                                ( 21 मार्च 1996 )  
 

 

अक्तूबर 30, 2023

तन्हाई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

               तन्हाई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

उनसे कोई मुलाक़ात तो हो 
ख़ामोशी में भी बात तो हो । 
 
हैं क़ाली घटाएं और बिजलियां 
कोई प्यार की बरसात तो हो । 
 
शबे-हिज्र और ये अंधेरा 
चांदनी कोई रात तो हो । 
 
अजनबी से मौसम की बात 
कुछ कहने की शुरुआत तो हो ।
 
कल जो भी होना हो जाए 
ख़त्म आज की रात तो हो ।   
 
                          ( 12  अगस्त  1995 )
 

 

खुदाओं की खुदाई का राज़ ( व्यंग्य - विनोद ) डॉ लोक सेतिया

     खुदाओं की खुदाई का राज़ ( व्यंग्य - विनोद ) डॉ लोक सेतिया 

विधाता ईश्वर अल्लाह भगवान समझ सका नहीं कोई इंसान , हम सभी हैं बड़े नादान , क्या देवता और क्या शैतान सबकी अपनी अपनी शान । ये दुनिया नहीं थी ऐसी कभी भी सुनते हैं कहते हैं सभी भले लोग हुआ करते थे धरती पर देवता बसा करते थे । जाने राक्षस किधर से आये शायद किसी ने दिखलाए खुद ही अपने बढ़ते हुए साये , सभी खुद अपने आप से रहते थे घबराए । हर युग में कुछ लोग जो बड़े महान और शासक कहलाए उन्होंने अपनी सुविधा से नियम कायदे खुद बनाए अपने लिए रास्ते बनाने को बचने को तरीके समझाए । कौन उनसे कैसे टकराए जिनकी लाठी इंसाफ कहलाए । उन्होंने अजब दस्तूर बनाए कभी वरदान कभी अभिशाप को लेकर मनचाहा जो भी किया सभी ढंग आज़माए । हम उस व्यवस्था को कभी नहीं समझे जाने कितने कितने भगवान बनाकर आखिर हैं लोग पछताए , उनकी मर्ज़ी हंसाए या रुलाए ये परंपरा हर किसी के मन भाए हर कोई उसके गुण गाये , खुद में सभी अवगुण देखे शरमाए । इक दिन ऐसा भी आया कुछ लोगों ने मिलकर अपना संविधान बनाया और शासनतंत्र का खेल रचाया ईश्वर खुदा देवता शरीफ इंसान कोई भी कुछ जाना नहीं पाया । राजनीति का ऐसा जाल बिछाया जिस में उलझा फिर नहीं बच पाया एक एक कर धीरे धीरे सब ने अपना वर्चस्व बढ़ाया अपना अपना खेल दिखाकर दुनिया को ऐसा उलझाया बस कोई जाल से बच नहीं पाया । हर शातिर ने खुद को मसीहा बाक़ी को ज़ालिम बताया इस तरह राजा सिंघासन पर बैठा सबने उसका भोग लगाया बचा खुचा बांट कर जनता में बड़ा दयावान शासक कहलाया । 
 
सुनो सुनाएं तुम्हें कहानी इक था राजा इक थी रानी लगाई आग और बरसा पानी नानी भी थी बड़ी स्यानी उसकी परियां भी ज़ाफ़रानी । पढ़ना लिखना जिनको आया उन्होंने दरबारी बन खूब नाम कमाया लेकिन कभी कभी कोई ऐसा भी आया जिस ने देखा राजा तो है नंगा और उस ने शोर मचाया । राजा को जब गुस्सा आया उस ने सच को सूली पर चढ़ाया , तब से सच लापता है झूठ है सच सब जानता है । अब इस धरती पर कोई भगवान नहीं रहता है मैं हूं बस ये  हर शैतान है कहता , आदमी बेबस और बेचारा फिरता है मारा मारा । नहीं यहां भलाई का होता गुज़ारा उपदेशक है कोई आवारा ,  इक वही है सौ से भारा तीन तेरहा का नहीं गुज़ारा । झूठ विजयी हुआ सच गया मारा जो जीता सब आखिर हारा ये दुनिया बड़ी निराली है इसकी फितरत ही काली है । सब कुछ वही रहता है कहने को बैसाखी है होली है दीवाली है किस्मत बड़ी मतवाली है जिस ने खून पिया है उस चेहरे पर लाली है ।  
 
कितने कितने ब्रांड बने हैं बंदे खुद भगवान बने हैं सारी दुनिया भूखी लेकिन बस कुछ लोग भोग विलास की खान बने हैं सत्ता की चौखट पर बंधे चाटुकार ऊंची शान बने हैं । ऊंची जिनकी हैं दुकानें फ़ीके सब पकवान बने हैं । नहीं किसी काम की संतों की बाणी रेत चमकती लगता पानी जिस ने समझी उसने जानी है किसी युग की काल्पनिक कथा कहानी । अब अच्छे बुरे का फल नहीं मिलता किसी सवाल का सही हल नहीं मिलता है कल क्या होगा किस ने देखा आज कहीं भी कल नहीं मिलता । शायद था इक खोटा सिक्का चोर लुटेरों ने खूब चलाया धर्म ईश्वर क्या क्या कहकर सब से छीना जमकर खाया ये कड़वा सच किसी को नहीं भाता है पर अपना भी क्या जाता है झूठ का सबका अपना बही-खाता है । सबने अपकर्मों को मिटा दिया है सब मीठा है खिला दिया है दुनिया में कोई भी शैतान नहीं है बुरा कोई इंसान नहीं है दानवीर हैं सब देश समाज की भलाई करते हैं पर कहां है ये कोई हैरान नहीं है । अब फूलों में खुशबू नहीं है पीतल का वो गुलदान नहीं है देखो आईना क्या कहता है सब खड़े हैं किसी सीढ़ी पर कद से कोई बड़ा नहीं है महामानव हैं मानवता का नाम नहीं है । स्वर्ग और नर्क की वास्तविकता कुछ ऐसी है , इक कविता पढ़ते हैं । नर्क में अब कोई पापी नहीं है सब पाप करने वाले इसी धरती पर हैं शेक्सपीयर कहते हैं । 
 

श्रद्धांजलि सभा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

 
टेड़ा है बहुत 
स्वर्ग और नर्क का सवाल 
सुलझाएं जितना इसे 
उजझता जाता है जाल ।

आपको दिखलाता हूं 
मैं आंखों देखा हाल 
देखोगे इक दिन आप भी 
मैंने जो देखा कमाल ।

बहुत भीड़ थी स्वर्ग में 
बड़ा बुरा वहां का हाल 
छीना झपटी मारा मारी
और बेढंगी थी चाल ।

नर्क को जाकर देखा 
कुछ और ही थी उसकी बात 
दिन सुहाना था वहां 
और शांत लग रही रात ।

पूछा था भगवान से 
स्वर्ग और नर्क हैं क्या 
और उसने मुझे 
ये सब कुछ दिया था दिखा ।

घबराने लगा जब मैं 
थाम कर तब मेरा हाथ 
बतलाई थी भगवान ने 
तब मुझे सारी बात ।

श्रधांजली सभा होती है 
सब के मरने के बाद 
सब मिल कर जहां 
करते हैं मुझसे फ़रियाद
स्वर्ग लोक में दे दूं 
सबको मैं कुछ स्थान 
बेबस हो गया हूं मैं 
अपने भगतों की बात मान ।

शोक सभाओं में 
ऐसा भी कहते हैं लोग 
स्वर्ग लोक को जाएगा 
आये  हैं जो इतने लोग ।

देखकर शोकसभाओं की भीड़ 
घबरा जाता हूँ मैं 
मुझको भी होने लगा है 
लोकतंत्र सा कोई रोग ।

कहां जाना चाहते हो 
सब से पूछते हैं हम 
नर्क नहीं मांगता कोई 
जगह स्वर्ग में है कम ।

नर्क वालों के पास 
है बहुत ही स्थान 
वहां रहने वालों की 
है अलग ही शान 
रहते हैं वहां 
सब अफसर डॉक्टर वकील 
बात बात पर देते हैं 
वे कोई नई दलील ।

करवा ली हैं बंद मुझसे 
नर्क की सब सजाएं 
देकर रोज़ मानवाधिकारों की दुआएं ।

बना ली है नर्क वालों ने 
अपनी दुनिया रंगीन 
मांगने पर स्वर्ग वालों को 
मिलती नहीं ज़मीन ।

नर्क ने बनवा ली हैं
ऊंची ऊंची दीवारें 
स्वर्ग में लगी हुई हैं 
बस कांटेदार तारें
नर्क में ही रहते हैं 
सब के सब बिल्डर 
स्वर्ग में बन नहीं सकता कोई भी घर ।

स्वर्ग नर्क से दूर भी 
बैठे थे कुछ नादान 
फुटपाथ पे पड़ा हुआ था 
जिनका सामान
उन्हें नहीं मिल सका था 
दोनों जगह प्रवेश 
जो रहते थे पृथ्वी पर 
बन कर खुद भगवान ।

किया था भगवान ने 
मुझसे वही सवाल 
स्वर्ग नर्क या है बस
मुक्ति का ही ख्याल ।

कहा मैंने तब सुन लो 
ए दुनिया के तात 
दोहराता हूँ मैं आज 
एक कवि की बात ।

मुक्ति दे देना तुम 
गरीब को भूख से 
दिला सको तो दिला दो 
मानव को घृणा से मुक्ति
और नारी को 
दे देना मुक्ति अत्याचार से 
मुझे जन्म देते रहना 
बार बार इनके निमित ।

मित्रो
मेरे लिये  स्वर्ग की 
प्रार्थना मत करना 
न ही कभी मेरी 
मुक्ति की तुम दुआ करना
मेरी इस बात को 
तब भूल मत जाना 
मेरी श्रधांजली सभा में 
जब भी आना । 
 

 

अक्तूबर 29, 2023

फिर नहीं लौटते हैं जाने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

      फिर नहीं लौटते हैं जाने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

फिर नहीं लौटते हैं जाने वाले 
याद आते बहुत भुलाने वाले । 
 
हम अगर साथ-साथ मिलकर चलते 
क्या सताते हमें ज़माने वाले । 
 
हम वफ़ा कब तलक निभाते आख़िर 
जब गए रूठ सब मनाने वाले । 
 
लोग जिन पर यकीन करते पूरा 
झूठ को वो थे सच बताने वाले । 
 
उनकी बातें हसीन लगती सबको 
जुगनुओं को शमां बनाने वाले । 
 
नींद आई उन्हें बड़ी गहरी जो 
सबको थे नींद से जगाने वाले । 
 
दर्द ' तनहा ' हमें मिले सब उनसे
वो ज़माने के ग़म मिटाने वाले । 
 

  

अक्तूबर 28, 2023

आप की खातिर ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

           आप की खातिर ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

सहे ग़म उसकी ख़ुशी की खातिर 
तो मुस्कराए उसी की खातिर । 
 
हमारा मरना जो चाहता था 
जिये हम उस आदमी की खातिर । 
 
जो शहर में तेरे लौट आये 
है दिल की ये बेबसी की खातिर । 
 
ये ज़िंदगी जिसकी है अमानत 
पिया है ये ज़हर उसी की खातिर । 
 
मुआफ़ करना कि डूब कर की 
ये ख़ुदकुशी आप ही की खातिर । 
 

 

दफ़्न आवाज़ रूह की कर गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

    दफ़्न आवाज़ रूह की कर गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

दफ़्न आवाज़ रूह की कर गया 
रह के ज़िंदा भी शख़्स इक मर गया । 
 
उस के वादे नहीं कभी सच हुए 
डूबे सब लोग बस वही तर गया । 
 
उसको कोई भी रोक पाया नहीं 
वो कुचलता हरेक का घर गया । 
 
है मसीहा नहीं न वो चारागर 
ज़ख़्म गहरे ही कर के ख़ंजर गया । 
 
आप समझो ज़रा सियासत है क्या 
साथ रहजन के मिल वो रहबर गया । 
 
पूछ मत जुर्म कौन करता यहां 
किस का इल्ज़ाम किस के सर पर गया । 
 
जब भी ' तनहा ' नकाब उठने लगी
हुक्मरानों का दिल बड़ा डर गया ।   
 
    (   2001 की डायरी से हास्य कविता से ग़ज़ल बन गई है ।  )
 

 

अक्तूबर 27, 2023

ये दुनिया दोस्ती का बाज़ार नहीं है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

        ये दुनिया दोस्ती का बाज़ार नहीं है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

ये दुनिया दोस्ती का बाज़ार नहीं है 
यहां कोई किसी का दिलदार नहीं है । 
 
हुई ख़ामोश महफ़िल सारी बिन तेरे 
पड़े हैं साज़ कितने झंकार नहीं है । 
 
गई खो रौनकें सब सुनसान नज़ारे 
महकता था सदा जो गुलज़ार नहीं है । 
 
वो रातें चांदनी हम तुम साथ वहां पर 
बिना बोले समझ ले ग़मख़्वार नहीं है । 
 
तुझी को याद कर के सब उम्र कटेगी 
कि तुझसा और कोई भी यार नहीं है । 
 
बड़ी अच्छी हमें लगती गलियां लेकिन 
ठहरने को वहां पर घर बार नहीं है । 
 
बहुत ' तनहा ' रहेंगी शामें भी सहर भी 
लगे दिल अब कभी भी आसार नहीं है ।  




 
 

अक्तूबर 26, 2023

किया है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

              किया है ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

उसने कहा तुमने भी कभी प्यार किया है 
कहा मैंने इक बार नहीं हर बार किया है ।  
 
पूछा उसने क्या दिल का ऐतबार किया है 
दिल का क्या इकरार कभी इनकार किया है । 
 
बताओ ज़रा मुहब्बत में क्या यार किया है 
जाने दो ये सब कुछ किया बेकार किया है ।
 
क्या इश्क़ में किसी का इंतज़ार किया है 
यही उम्र भर को और लगातार किया है । 
 
आसां तो नहीं हर किसी पर यकीं करना
हमने तो हमेशा सब कुछ दुश्वार किया है ।
 
तुमने कभी खुदाओं की ईबादत भी की है 
हमने इंसानों से मुहब्बत की प्यार किया है ।  
 

   
 
 

अक्तूबर 20, 2023

अपनी बात पर रहो कायम ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      अपनी बात पर रहो कायम ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

आज शुरुआत इक पुरानी ग़ज़ल से करते हैं :- 
 

( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से
गर्दन झुकाये से नहीं ।

कैसे कहें सच झूठ को
हम ये गज़ब करते नहीं ।

दावे तेरे थोथे हैं सब
लोग अब यकीं करते नहीं ।

राहों में तेरी बेवफा
अब हम कदम धरते नहीं ।

हम तो चलाते हैं कलम
शमशीर से डरते नहीं ।

कहते हैं जो इक बार हम
उस बात से फिरते नहीं ।

माना मुनासिब है मगर
फरियाद हम करते नहीं ।
 
अभी थोड़ी देर पहले जो ईश्वर खुदा भगवान के स्थल पर सर को झुकाये कह रहा था मैं गुनहगार हूं मुझसे कितनी गलतियां हुई हैं आपको सब पता है मैं कितना झूठा फरेबी और बुरा हूं पर आप दयावान हैं हमारी सभी गलतियों को माफ़ करते हैं सब की लाज बचाए रखते हो सबके पर्दे ढके रखते हो दया करो । कौन था वो क्या मैं ही था या फिर वहां हर शख़्स परवरदिगार के सामने इक बहरूपिया बन कर खड़ा था । हां वही आदमी बाहर निकलते दुनिया वालों से कह रहा है कि मुझ पर भरोसा करो मैं कभी कुछ भी गलत नहीं करता कोई अपराध कोई छल कपट कभी नहीं करता । सच में अगर ऐसा है तो ऊपरवाले से नज़र से नज़र मिलाकर बात करता और सवाल करता बता मैंने क्या गुनाह किया है मुझे क्यों इतनी सज़ाएं मिलती हैं क्यों मेरा सुःख चैन मिलता नहीं मुझको । कभी खुद अपना भी हिसाब देखता है क्या क्या तेरी बनाई दुनिया में सब ठीक है भलाई का बदला भलाई और बुराई का अंजाम बुरा होता है या ये अवधारणा इक धोखा है बस लोगों को बहलाने को वो भी इसलिए कि तुझ पर ऐतबार करते रहें और तेरी पूजा ईबादत अरदास आरती गुणगान करते रहें । कैसे कोई विधाता सिर्फ अपना गुणगान करवाने को किसी दुनिया को बनाकर उसे उसके हाल पर छोड़ सकता है । या फिर कहीं वही बात तो सच नहीं कि तेरा कोई वजूद कोई अस्तित्व नहीं सिर्फ इक कल्पना है और कुछ लोगों ने तुझे अपने हाथ की कठपुतली बना कर अपना कारोबार करना शुरू कर दिया है और उनको विश्वास है वो जो भी करते रहें कोई उनका हिसाब नहीं करने वाला अर्थात उनको तेरे नहीं होने का यकीन है ।  

है कि नहीं है तू ही जाने किस ने देखा किस ने पाया कौन जाने । लेकिन जैसा हम सभी मानते हैं कि कोई तो अवश्य है जिस ने दुनिया को बनाया है तब इतना तो कहना ही पड़ेगा कि बनाकर उसका ठीक से रख रखाव संचालन करने में नाकाम रहा है । यहां संसार में हम इंसान भी क्या क्या नहीं बनाते सरकार से लेकर कितना कुछ सब व्यवस्था नियम कायदे हिसाब किताब सही करने के लिए , लेकिन हर जगह कहीं कोई चूक रह जाती है और संविधान से संसद तक न्यायपालिका से कार्यपालिका तक सब व्यर्थ साबित होते हैं । और तो और धर्म उपदेश से धार्मिक किताबों तक जैसा होना चाहिए वैसा करने में सफल नहीं होते हैं । जैसे राजनीति कितने विचारों के आवरण ओढ़े लोकशाही तानाशाही समाजवाद पूंजीवादी व्यवथा के नाम पर शासन की आड़ में कुशासन चलाते हैं और जनता को बेबस कर ज़ुल्म ढाते हैं और वास्तविक मकसद को भूलकर अपना स्वार्थ साधने लगते हैं । दुनिया की हालत भी उसी तरह की है शायद अपनी बनाई दुनिया को तुमने भी भुला दिया है अगर इसको उचित ढंग से नहीं चलाना था तो बनाना ही नहीं था । कभी सोचना अधिकांश लोग बिना किसी जुर्म मुजरिम की तरह जीने को बाध्य हैं और जो पापी अपराधी गुनहगार हैं उनको कोई सज़ा देना तो क्या पकड़ता तक नहीं है बल्कि झूठ का गुणगान महिमामंडन किया जाता है हर जगह । 

इक बात कही जाती है कि जब पाप बढ़ जाता है तब उसका अंत करने आते हैं भगवान मगर पाप बढ़ने ही क्यों देते हैं कब तक गहरी नींद में सोए रहते हैं शाहंशाहों की तरह और फिर कभी थोड़ी राहत का दिखावा दे कर अपना रुतबा बुलंद करते हैं । ऐसा विधाता ऐसा भगवान भला कैसे मंज़ूर हो सकता है और जो खुद अपनी दुनिया को बनाकर उचित ढंग से नहीं रखता उसकी किसी बात का यकीन कैसे करे कोई । 



अक्तूबर 17, 2023

बंद हैं रास्ते लौटना मुश्किल ( सड़क से घर तलक ) डॉ लोक सेतिया

 बंद हैं रास्ते लौटना मुश्किल ( सड़क से घर तलक ) डॉ लोक सेतिया  

ये हर जगह की बात है गांव से शहर नगर से महानगर अपनी बस्ती अपने घर से किसी सभा समारोह में कहीं भी प्रवेश किया और भूले से इधर उधर चले गए या बाहर निकले तो फिर से वापसी कोई आसान नहीं होती है । कभी कोई घर से निकलता तो कोशिश करते रोकने की तब भी जाना चाहे तो जल्दी वापस लौट आना इंतज़ार रहेगा कहते थे । अब तो कभी चाहते हैं कोई चला जाए छोड़ कर तो उसका कमरा उसका सामान औरों को मिल जाए , रूठना मनाना नहीं होता अब आपस में बल्कि हमको क्या अपनी बला से सोचते हैं । हालत ऐसी हुई है कि ज़ोर चले तो जिस को पसंद नहीं करते उसे धक्के मारकर बाहर निकाल देते हैं । सभ्याचार शिष्टाचार की बात किसी और ज़माने की बात है आजकल मुलाक़ात नहीं जनाब घूंसा - लात है । होती हर दिन बेमौसम बरसात है दिन भी लगता कोई रात है भला ये भी कोई कहने की बात है । कितने बड़े बहुमंज़िला घर हैं मगर दिल छोटे हैं किसी अपने के लिए जगह नहीं भले घर सूना सूना लगता हो बस दिखाई देना चाहिए आधुनिक और शानदार महंगी वस्तुओं से सजाया गया । दिखाने को ख़ुशहाली पर वास्तव में कोई खामोश सी उदासी छाई लगती है बेशक कभी कभी कोई आयोजन या पार्टी या कोई समारोह निर्धारित समय और नियमों के बंधन से बंधा हुआ जिस में बिना बुलाया कोई मेहमान प्रवेश नहीं कर सकता । बढ़ते सामाजिक दायरे में सोच और मानसिकता इतनी तंग और संकुचित है कि अक्सर हवा बोझिल लगती है दम घुटता है और लोग बाहर निकलने को बेताब होते हैं । गुज़रा ज़माना क्या था जब अजनबी को भी जगह देने का तौर तरीका और सलीका निशानी होती थी ख़ास और शिक्षित अभिजात्य वर्ग की । 
 
चलिए घर समाज से सड़कों तक पर नज़र डालते हैं तो खुली खुली सड़कों का फ़्लाईओवर अंडरपास डिवाईडर का कोई जाल दिखाई देता है जिस में समझना कठिन लगता है कितने रास्ते कितनी मंज़िलें हैं और कितनी रफ़्तार से कौन कहां भाग रहा है ।  इस तरफ से उस तरफ जाना बड़ा दुश्वार है कभी यूटर्न लेने को लंबा फ़ासला तय करना होता है तो कभी भटकते भटकते मंज़िल खो जाती है आसानी की तलाश ने मुश्किलें खड़ी कर दी हैं । धार्मिक संगठन से राजनीति तक सभी जगह भीतर जाने को व्याकुल हैं लोग लेकिन वहां जाने पर कभी वो नहीं मिलता जिसका शोर मचा हुआ था । मीडिया का भी बाहरी आवरण बड़ा लुभावना लगता है अंदर जाने पर पता चलता है किसी धातु की प्रतिमा की तरह खोखला है । हक़ीक़त यही है जिनका जितना विस्तार दिखाई देता है उन सभी के भीतर का खोखलापन उतना ही अधिक है । सरकार से प्रशासन तक बड़े उद्योग कारोबार से भाषण देने तक खोखली बातें झूठे आश्वासन और सिर्फ बातों से बहलाने की कोशिश होती है । 
 
विकास के आंकड़े और गरीबी भूख से बदहाल लोग दोनों आमने सामने खड़े हैं इक दूजे से ऊंचे पायदान पर मगर इस विडंबना पर कोई कुछ नहीं बोलता है । टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक खबरों में विदेशी हालात जंग और तमाम जानकारियां मिलती हैं बस खुद अपने देश की वास्तविकता पर किसी की नज़र नहीं जाती है । अंधा है धृतराष्ट्र तो गांधारी ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है अजीब रिश्ता है पति पत्नी का जिस में दूसरे की सहायक नहीं बनना बल्कि खुद को महान साबित करना है कोई इस को नासमझी नहीं कहता है । शासक का गुणगान उस के प्रति अपनी भक्ति आपको मनचाहा फल प्रदान करती है टीवी अख़बार वाले विज्ञापन की बैसाखियों से तेज़ दौड़ रहे हैं सत्ता ने उनको लूला लंगड़ा अपाहिज बना दिया है चंद सिक्कों में ईमान बिकते हैं । उनकी चौखट पर जनता के अरमान कुचले जाते हैं और उनके बनाए भगवान मुंहमांगे दाम बिकते हैं । मानवता का विनाश हो रहा है जिसे आधुनिक विकास कहते हैं प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दुरूपयोग इक अंधकारमयी भविष्य की ओर जाने का कारण है । इक ग़ज़ल से बात को विराम देते हैं ।
 

गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) 

             डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव  अपना छोड़ कर , हम  पराये हो गये 
लौट कर आए मगर बिन  बुलाये हो गये ।

जब सुबह का वक़्त था लोग कितने थे यहां
शाम क्या ढलने लगी ,  दूर साये हो गये ।

कर रहे तौबा थे अपने गुनाहों की मगर 
पाप का पानी चढ़ा फिर नहाये  हो गये ।

डायरी में लिख रखे ,पर सभी खामोश थे
आपने आवाज़ दी , गीत गाये  हो गये ।

हर तरफ चर्चा सुना बेवफाई का तेरी
ज़िंदगी क्यों  लोग तेरे सताये  हो गये ।

इश्क वालों से सभी लोग कहने लग गये 
देखना गुल क्या तुम्हारे खिलाये हो गये ।

दोस्तों की दुश्मनी का नहीं "तनहा" गिला
बात है इतनी कि सब आज़माये  हो गये । 
 

 

अक्तूबर 16, 2023

वो अफ़साने कहां जाएं ( अनकही ) डॉ लोक सेतिया

         वो अफ़साने कहां जाएं ( अनकही ) डॉ लोक सेतिया  

पहले इक पुरानी कविता जो ' एहसासों के फूल ' कविता संग्रह में शामिल है । 
 

भाग्य लिखने वाले ( कविता ) 

विधाता हो तुम
लिखते हो
सभी का भाग्य 
जानता नहीं कोई
क्या लिख दिया तुमने
किसलिए
किस के भाग्य में ।

सब को होगी तमन्ना
अपना भाग्य जानने की
मुझे नहीं जानना
क्या क्यों लिखा तुमने 
मेरे नसीब में
लेकिन
कहना है तुमसे यही ।

भूल गये लिखना
वही शब्द क्यों 
करना था प्रारम्भ जिस से
लिखना नसीबा मेरा ।

तुम चाहे जो भी
लिखो किसी के भाग्य में 
याद रखना
हमेशा ही एक शब्द लिखना 
प्यार मुहब्बत स्नेह  प्रेम ।

मर्ज़ी है तुम्हारी दे दो चाहे 
जीवन की सारी खुशियां
या उम्र  भर केवल तड़पना
मगर लिख देना सभी के भाग्य में 
अवश्य यही एक शब्द
प्यार प्यार सिर्फ प्यार ।
 
कल पढ़ा इक महिला मित्र ने फेसबुक पर लिखा हुआ था जब भी हम निराश हो जाते हैं तब कहीं से किसी के प्यार की रौशनी हमको नज़र आती है जो अपने कुछ प्यार भरे बोलों से हमारी निराशा को आशा में परिवर्तित कर देती है । मैंने हमेशा विश्वास किया है कि जिसे प्यार सच्चा दोस्त मिल जाए उसको जीवन में कोई कठिनाई उसे कभी विचलित नहीं कर सकती है । मैंने हमेशा कहा है कि मेरा लेखन इक दोस्त की तलाश है बल्कि उसी के नाम है । अपनी जीवनी को लेकर इक बार मैंने इक संकलन ' कैसे होते हैं साहित्यकार ' में मैंने जो लिखा था दोहराता हूं । 
 
मैंने लिखना डायरी से शुरू किया था ,  अपने मन की बात किसी से कहना नहीं आता था , खुद अपनी बात अपने साथ करना आदत बन गया । जैसे कोई डरकर चोरी छुपे इक अपराध करता है मैंने अपना लेखन इसी ढंग से किया है मुझे हतोत्साहित करने वाले तमाम लोग थे बढ़ावा देने पीठ थपथपाने वाला कोई भी नहीं । इसलिए मुझे सभी पढ़ने वालों से ये कहना ज़रूरी लगता है कि पढ़ते हुए इस अंतर को अवश्य ध्यान रखना । आपको शायद ये फर्क इस तरह समझ आ सकता है । जैसे कोई इक पौधा किसी रेगिस्तान में उग जाता है जिसे राह चलते कदम कुचलते रहते हैं आंधी तूफान झेलता है कोई जानवर उखाड़ता है खाता है मिटाता है मगर फिर बार बार वो पौधा पनपने लगता है । कुछ लोग जिनको साहित्यिक माहौल और मार्गदर्शन मिलता है बढ़ावा देते हैं जिनको उनके आस पास के लोग , वे ऐसे पौधे होते हैं जिनको कोई माली सींचता है खाद पानी देता है उसकी सुरक्षा को बाड़ लगाता है ऊंचा फलदार पेड़ बन जाते हैं । मेरा बौनापन और उनका ऊंचा कद दोनों को मिले माहौल से है इसलिए मेरी तुलना उनसे नहीं करना ।
 
मैंने साहित्य पढ़ा भी बहुत कम है कुछ किताबें गिनती की और नियमित कई साल तक हिंदी के अख़बार के संपादकीय पन्ने और कुछ मैगज़ीन पढ़ने से समझा है अधिकांश खुद ज़िंदगी की किताब से पढ़ा समझा है । केवल ग़ज़ल के बारे खतोकिताबत से इसलाह मिली है कोई दो साल तक आर पी महरिष जी से । ग़ज़ल से इश्क़ है व्यंग्य सामाजिक विसंगतियों और आडंबर की बातों से चिंतन मनन के कारण लिखने पड़े हैं । कहानियां ज़िंदगी की सच्चाई है और कविताएं मन की गहराई की भावना को अभिव्यक्त करने का माध्यम । लिखना मेरे लिए ज़िंदा रहने को सांस लेने जैसा है बिना लिखे जीना संभव ही नहीं है । लिखना मेरा जूनून है मेरी ज़रूरत भी है और मैंने इसको ईबादत की तरह समझा है । 

अब जहां से बात शुरू की वहां से बात को बढ़ाते हैं , बड़े नसीब वाले होंगे जिनको असफल होने पर अथवा ज़िंदगी से संघर्ष करते समय कोई प्यार करने वाला हिम्मत बढ़ाने हौंसला देने वाला मिलता है । मैंने तो हमेशा पाया है नाकामी होने पर अपने पराये सब खामियां ढूंढते और आपके आत्मविश्वास को मिटाने की बात करते हैं किसी को आपके हालात असफलता के कारण या आपकी कोशिशों से कोई सरोकार नहीं होता है । इस समाज का बस इक पैमाना एक मापदंड रहता है धन दौलत या कुछ नाम शोहरत पाना अन्यथा कोई कितने सार्थक प्रयास करता है कितने आदर्श और मूल्यों पर अडिग रहता है कोई नहीं समझता है । कोई भला विश्वास करेगा कि हम भी दुनिया की तरह सभी हासिल कर सकते थे मगर हमने अपनी आत्मा अपने ज़मीर को बेचना स्वीकार नहीं किया । बचपन से आज तक आसपास तमाम लोग नफ़रत और तिरस्कार करते रहे किसी को हमारा दुःख दर्द दिखाई दिया ही नहीं क्योंकि हमने अपनी बर्बादी की नुमाईश कभी नहीं की और हर जगह हंसते मुस्कुराते रहे । दर्द सब को सुनाएं ये ज़रूरी तो नहीं , हर जगह हम मुस्कुराएं ये ज़रूरी तो नहीं इक बड़ी उम्र की शायरा की ग़ज़ल है ये । 

मुझे ऐसे कई लोग मिलते रहे हैं जिनको खुद उनके अपनों ने हमेशा ठोकरें लगाई जब भी गिर पड़े कोई हाथ बढ़ा नहीं बल्कि उपहास करने तमाशा बनाने को वो भी थे जिनको उन्होंने हमेशा सहारा दिया । लेकिन वो लोग ख़ामोशी से ज़िंदगी भर ज़हर पीते पीते दुनिया से चले गए किसी अपने को उनके होने से कोई फर्क पड़ता था और नहीं रहने से कोई कमी भी नहीं महसूस होती । कुछ दिन पहले इक दोस्त का हाल चाल पूछने गया तो पता चला इक अन्य दोस्त की पत्नी का निधन और उसके बेटे की बातों को लेकर बड़ा दुःख और हैरानी हुई क्योंकि जिस दोस्त के परिवार की बात थी उसे खोये हुए बरसों हो गए किसी को खबर नहीं कौन किस हाल में है या नहीं रहा । उनके जो सबसे करीबी लोग थे उन्होंने ज़रूरी नहीं समझा कि दोस्त की मौत के बाद खबर रखते उनकी ख़ैरियत की न ही उनके बेटे ने अपने पिता के संबंधियों दोस्तों से कोई मेल मिलाप रखा बस पत्नी और ससुराल की बातों में आकर माता बहन से जायदाद को लेकर झगड़ते रहे । जिस की बात कर रहा हूं कॉलेज का दोस्त था लिखता था डायरी पर बड़े भावपूर्ण रचनाएं , कई साल पहले कुछ दोस्तों को लेकर ब्लॉग पर लिखा था तब उन के घर गया पत्नी बेटा नहीं जानते थे उनकी डायरी कहां है जो हमेशा उनके इक छोटे से कमरे में अलमारी में रहती थी । किसी कूड़ेदान में फैंकी गई या कबाड़ी को बेच दी या पता नहीं किस तयखाने में पड़ी होगी । और कितना कुछ है जिसे लिखना लगता है उचित नहीं कुछ हासिल नहीं होगा और दिखावे की झूठी संवेदना मुझे पसंद नहीं , ऐसे अफ़साने कहां जाएं । 




अक्तूबर 13, 2023

पुतले के प्रयोजक की तलाश ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       पुतले के प्रयोजक की तलाश ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

सांध्य दैनिक समाचार पत्र के संपादक जी की चिंता मुझसे देखी नहीं जाती पुरानी दोस्ती है , उनका संपादकीय पढ़ा तो उनकी चिंता मिटाने की चिंता ने मुझे रात भर सोने नहीं दिया । सोचते सोचते समाधान ढूंढ ही लिया और उनको बताना चाहता हूं पर कोई बात को अन्यथा नहीं समझना । समस्या दशहरे पर रावण का पुतला जलाने की है और हैरानी हुई इस अच्छाई की बुराई पर जीत का त्यौहार मनाने को पैसे की कमी है । शहर में दानवीर धनवान बहुत हैं मगर रावण के पुतले को लेकर मुमकिन है कोई अड़चन सामने आती हो तब भी मुझे याद आया कुछ दिन पहले ही इक विराट कवि सम्मेलन शहीद भगत सिंह जी के जन्म दिवस के उपलक्ष में आयोजित किया गया था जिस के निमंत्रण पत्र पर शहीद भगत सिंह , प्रयोजक किसी कारोबार का नाम , नीचे विराट कवि सम्मेलन लिखा हुआ था । थोड़ा कठिन लगा समझने में कि कौन किस का प्रयोजक है । ये कोई अकेली मिसाल नहीं है हर रोज़ किसी हादसे की खबर का यूट्यूब पर वीडियो मिलता है जिस पर कोई न कोई प्रयोजक का प्रचार इश्तिहार दिखाई देता है । कत्ल दुर्घटना लूट हिंसा सभी अनहोनी खबरों के साथ लोग अपना नाम जोड़ने को राज़ी हैं कि धंधे का सवाल है तो रावण के पुतले पर कोई तो अपना नाम लिखवाना चाहेगा । 
 
आजकल आने वाले चुनाव की चर्चा है सभी वोटर को लुभाने को अपनी पहचान बनाने को लगे हुए हैं । ऐसे में कोई न कोई दल तो रावण के पुतले जलाने का प्रयोजक अवश्य बन सकता है बस उनको खबर मिलने की बात है और उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं अवसर को हाथ से जाने नहीं देंगें । इक उलझन भी दिखाई दे रही है कोई भी राजनैतिक दल अपने लिख कर लगाए नाम को जलता नहीं देखना चाहेगा मगर रावण का पुतला कुछ ही पल में धू-धू कर जलकर राख होना लाज़मी है । राजनेताओं का क्या भरोसा कोई अपने विरोधी की ऐसी बात पर व्यंग्य-बाण चला उपहास कर सकता है । हर शहर में उन बाबा जी जैसा कोई नहीं मिलेगा जिनको हर खबर के साथ अपना नाम अपना फोटो वाला इश्तिहार लगने से कोई परेशानी नहीं होती है । इधर आजकल जंग की आतंकवाद की खबर दिन भर दिखाई देती है तब भी उनकी शोहरत की आवश्यकता रहती है । रावण के पुतले को लेकर विवाद पहले भी रहा है इक संगठन के पत्र पत्रिका के इक अंक में सालों पहले रावण का पुतला जलाने का कार्टून बनाया गया था जिस में रावण के हर सर पर इक इक विरोधी नेता का चेहरा लगाया गया था । बस खुद उन के संगठन का नायक तीर कमान लिए खड़ा दिखलाया गया था । बिना सोच विचार कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए जिसे बाद में उगलते बने न निगलते बने ।    
 
सच तो ये है कि रावण कभी मरता ही नहीं है जिधर देखते हैं कितने रावण दिखाई देते हैं सरकारी कई विभाग रावण के उत्तराधिकार को अपनी विरासत समझ ढोने का कार्य कर रहे हैं । हर जगह रावण ही राम का भेस धारण कर खुद को सबसे अच्छा और महान कहलवा रहे हैं । राम का बनवास कभी ख़त्म नहीं होता है और सीता माता धरती में समाने को छोड़ कोई और आस नहीं लगाए हुए । ग़ज़ल कहने वाले तज़मीनें लिखा करते हैं किसी अन्य शायर का शेर लेकर अपना इक नया शेर लगा कर बात को और भी खूबसूरत बना देते हैं । मेरे गुरूजी आर पी महर्षि जी डॉ आर पी शर्मा ' तफ़्ता ' जी के शेर पर तज़मीन लिखते हैं :-
 

जिसको देखो वही हिर्सो - हवा का रोगी  , 

है सदाचार के बहरूप में कोई भोगी 

उसकी साज़िश का शिकार आज भी सीता होगी  ,

" ये अलग बात कि बाहर से बना है जोगी 

आज के दौर में हर शख़्स है रावण की तरह ।


 

  

अक्तूबर 12, 2023

सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा ( ख़ामोशी ) डॉ लोक सेतिया

    सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा ( ख़ामोशी ) डॉ लोक सेतिया 

मैं जानता हूं ये सब भूलकर भी अपनी जुबां पर नहीं ला सकता किसी से मन की भावनाएं सांझी करने का अर्थ है खुद को बुद्धू पागल नासमझ जाने क्या क्या कहलवाना । लिखने में कोई परेशानी नहीं क्योंकि इसे कौन पढ़ेगा और अगर पढ़ भी लेगा कोई गलती से भूले भटके तो भी समझेगा ही नहीं । ये दुनिया के लिए बेकार की बकवास है जिस का हासिल कुछ भी नहीं पर मुझे खुद नहीं समझ आ रहा कि जो लिखना है वो क्या था । कल रात इक जादू की दुनिया को देखा देखता रह गया टीवी पर असंख्य लोग किसी का जन्म दिन मना रहे थे उसकी महिमा उसकी महानता उसकी शोहरत का परचम लहरा रहे थे । विधाता ईश्वर ख़ुदा से बढ़कर उस फ़िल्मी अभिनेता कलाकार अदाकार को बना रहे थे । टीवी पर शो में शामिल लोगों से देखने वाले दर्शक तक सभी प्रेम की गंगा में डुबकी लगा कर मनचाहा वरदान पा रहे थे । जिधर देखो बस इक वही सिर्फ वही नज़र आ रहे थे वो मसीहा बनकर ज्ञान की इक अलग दुनिया दिखला रहे थे कुछ ही पलों में कंगाल व्यक्ति को करोड़पति बना कर दिखा रहे थे । 81 वर्ष में भी करोड़ों की आमदनी कुछ इस तरह से कमा रहे हैं कि सबको दिन में सितारे नज़र आने लगे हैं करिश्मा क्या होता है पहली बार सामने होता देखा हमने राग दरबारी लोग सुन रहे थे गा रहे थे । कुछ उल्टे सीधे सवाल मेरे ज़हन में आने लगे हैं बस आपको अपनी कथा हम सुनाने लगे हैं । 
 
उस सदी के महानायक ने क्या क्या नहीं कर दिखाया है जिधर देखो उनकी माया का दुनिया भर तक फैला हुआ साया है कितनों को सहारा दिया है क्या क्या सामाजिक कार्य से उनका नाता है भिखारी हैं तमाम बस इक वही दाता है तभी बड़े से बड़ा बिग बी कहलाता है । बस इक सवाल मेरे ख़्याल में आया है कुछ ख़ास है जो उसने हज़ारों करोड़ कमाया है पर कोई नहीं जानता कौन समझता है ये सब कैसे कमाया है । क्या यही हक सच की मेहनत की कमाई है शायद किसी ऊंचे पर्बत के साथ इक विडंबना है साथ साथ इक गहरी खाई है । किसी किसी के पास इतना है कि समाज में अधिकांश की खातिर कुछ भी नहीं बचता है कौन सोचता है दौलतमंदों का गरीबी से कितना ख़ास करीबी रिश्ता है । उसने कितनों को मालामाल किया है कितना कमाल किया है कोई राज़ छुपा हुआ है इस सागर में कितना पानी है किस किस की निशानी है । सागर बड़ा विशाल है खारा उसका पानी है कितनी नदियों की उस पर मेहरबानी है । समाज की बात करते हैं इसी समाज में हर रोज़ लोग जीने की खातिर मरते हैं दो वक़्त रोटी जिनको नहीं नसीब होती है उनकी तकदीर बुरी होती है । आप शाहंशाह कहलाने वाले मुकदर के सिकंदर हैं हम कुछ भी नहीं बापू के तीन बंदर हैं बुरा नहीं देखते बुरा नहीं सुनते बुरा नहीं बोलते हैं बस चुपचाप इक तराज़ू पर रखते हैं और तोलते हैं ।  
 
शायद कुछ को याद आया होगा कल किसी ने इक और लोकनायक का जन्म दिन कुछ अलग ढंग से मनाया होगा । ऐसा भी इक शख़्स धरती पर आया था जिस ने कभी खुद की ख़ातिर नहीं कुछ चाहा था जीवन भर गरीब बेबस शोषित वर्ग की खातिर प्रयास करता रहा समाजवाद का संदेश समझाया था । खुद उस ने कभी नहीं किसी को जतलाया था फिर भी सब जानते हैं उसने इक अलख जलाया था लोकतंत्र की रक्षा का बीड़ा उठाया था तानाशाही को मिटाने का संकल्प उठाया था सत्ता के भ्र्ष्टाचार पर इक सम्पूर्ण क्रांति की शुरआत की थी । बस इक वही था जिस ने पांच सौ खूंखार डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाया था कुछ ख़ास था उस में विरोधी भी जिस का मान करते थे । सत्ता का मोह नहीं ताकत से भय नहीं कुछ पाने की चाहत नहीं जिस ने कितने बड़े पदों को ठुकराया था बड़ी सादगी से जिया कितनी उलझनों से टकराया था जनता के मानस को जिस ने समझा भी और समझाया था कौन करेगा यकीन कोई ऐसा मनुष्य भी देखा था कौन उस से बड़ा दिखाई दिया वो खुद इक लंबी रेखा था । आज इस अंधेरी कोठड़ी में दिखता कोई रौशनदान नहीं है सब बराबर हों जिस में क्यों वो अपना हिंदुस्तान नहीं है , दुष्यंत कुमार नहीं कोई चुप करोड़ों लोग हैं अब किसी शायर की हर ग़ज़ल सल्तनत के नाम इक ब्यान नहीं है । हमारे देश ने समाजवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया था जिस में सभी को ज़रूरत का हिस्सा एक समान मिलना प्राथमिकता था , लेकिन कब भटक कर हमने पूंजीवादी व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि उसके गुलाम हो गए हैं । अब जिनके पास धन दौलत का अंबार लगा है वास्तव में उनका हिस्से को झपट लिया है जिनको कुछ भी नहीं मिलता है । ऐसे में ये कोई गौरव की बात नहीं है कि कोई भी किसी को इतना बड़ा साबित करने को इक सार्वजनिक तमाशा बनाए कि उस ने कितना कुछ सामाजिक कार्यों में सहायता देने को बांटा है जब सही में वो बड़े लोग ऐसा भी अन्य लोगों से अपने नाम शोहरत का उपयोग कर मांगते रहते हैं । अक्सर ऐसे कार्यों में उनका आर्थिक योगदान कम होता है और श्रेय अधिक मिलता है । चाहे जितना भी दान पुण्य कर लें बड़े धनवान लोग उनका ये अपराध कम नहीं हो जाता कि उन्होंने किसी तरह इतना एकत्र कर लिया है कि अधिकांश को पेट भरने को दो वक़्त रोटी नसीब नहीं होती है उनकी बदनसीबी के मुजरिम यही तथाकथित दानवीर लोग हैं ।

जयप्रकाश नारायण पर रामधारी सिंह दिनकर की लिखी गई कविता पढ़ते हैं ।

 
झंझा सोई , तूफान रुका ,
प्लावन जा रहा कगारों में ;
जीवित है सबका तेज किन्तु ,
अब भी तेरे हुंकारों में ।
 
दो दिन पर्वत का मूल हिला ,
फिर उतर सिन्धु का ज्वार गया ,
पर , सौंप देश के हाथों में
वह एक नई तलवार गया ।
 
’जय हो’ भारत के नये खड्ग ;
जय तरुण देश के सेनानी !
जय नई आग ! जय नई ज्योति !
जय नये लक्ष्य के अभियानी !
स्वागत है , आओ , काल-सर्प के
फण पर चढ़ चलने वाले !
 
स्वागत है , आओ , हवनकुण्ड में
कूद स्वयं बलने वाले !
मुट्ठी में लिये भविष्य देश का ,
वाणी में हुंकार लिये ,
मन से उतार कर हाथों में
निज स्वप्नों का संसार लिये ।
 
सेनानी! करो प्रयाण अभय ,
भावी इतिहास तुम्हारा है ;
ये नखत अमा के बुझते हैं ,
सारा आकाश तुम्हारा है ।
 
जो कुछ था निर्गुण , निराकार ,
तुम उस द्युति के आकार हुए ,
पी कर जो आग पचा डाली ,
तुम स्वयं एक अंगार हुए ।
 
साँसों का पाकर वेग देश की
हवा तवी-सी जाती है ,
गंगा के पानी में देखो ,
परछाईं आग लगाती है ।
 
विप्लव ने उगला तुम्हें , महामणि
उगले ज्यों नागिन कोई ;
माता ने पाया तुम्हें यथा
मणि पाये बड़भागिन कोई ।
 
लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की
आग भरी कुरबानी का ,
अब 'जयप्रकाश' है नाम देश की
आतुर , हठी जवानी का ।
 
कहते हैं उसको 'जयप्रकाश'
जो नहीं मरण से डरता है ,
ज्वाला को बुझते देख , कुण्ड में
स्वयं कूद जो पड़ता है ।
 
है 'जयप्रकाश' वह जो न कभी
सीमित रह सकता घेरे में ,
अपनी मशाल जो जला
बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में ।
 
है 'जयप्रकाश' वह जो कि पंगु का
चरण , मूक की भाषा है ,
है 'जयप्रकाश' वह टिकी हुई
जिस पर स्वदेश की आशा है ।
 
हाँ, 'जयप्रकाश' है नाम समय की
करवट का, अँगड़ाई का ;
भूचाल, बवण्डर के ख्वाबों से
भरी हुई तरुणाई का ।
 
है 'जयप्रकाश' वह नाम जिसे
इतिहास समादर देता है ,
बढ़ कर जिसके पद-चिह्नों को
उर पर अंकित कर लेता है ।
 
ज्ञानी करते जिसको प्रणाम ,
बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं ,
वाणी की अंग बढ़ाने को
गायक जिसका गुण गाते हैं ।
 
आते ही जिसका ध्यान ,
दीप्त हो प्रतिभा पंख लगाती है ,
कल्पना ज्वार से उद्वेलित
मानस-तट पर थर्राती है ।
 
वह सुनो , भविष्य पुकार रहा ,
' वह दलित देश का त्राता है ,
स्वप्नों का दृष्टा 'जयप्रकाश'
भारत का भाग्य-विधाता है ।'




 

अक्तूबर 11, 2023

आंखों पर पट्टी बंधी है ( ग़ज़ब लोग ) डॉ लोक सेतिया

    आंखों पर पट्टी बंधी है ( ग़ज़ब लोग ) डॉ लोक सेतिया 

क्या बताएं कैसे कैसे लोग हैं कुछ लोग हैं जो रोज़ संदेश भेजते हैं इन से सुनिए क्या कहते हैं हमारे देश की हालत कितनी शानदार है । उनका कहना है कि जो आपको आस पास दिखाई देता है इधर उधर यहां वहां देशवासी बताते हैं कि बदहाली है उन पर भरोसा मत करो वे छुपाने की बात को जगज़ाहिर करते हैं । हमको सिर्फ सावन के अंधे बन कर रहना सीखना चाहिए और पतझड़ में भी बहार है गीत गाकर दिल को बहलाना चाहिए । कुछ और हैं जो सोशल मीडिया से कोई तस्वीर ढूंढ कर अपनी टाइमलाइन पर लिखते हैं देखो ये उस देश में हमारे शासक की निशानी है जिस पर उनकी भाषा में जाने क्या लिखा है जबकि ऐसा तो हमारे सम्राट द्वारा बनाया हुआ तमाम जगह है फिर सवाल उठाते हैं क्या क्या इतिहास हम से छुपाया गया है । उनसे पूछो क्या उस निर्माण को ढक कर छुपाया गया था जिस को देखने कितने सैलानी जाते हैं । मान लो मैंने आगरा जाकर ताजमहल नहीं देखा और कभी उस को लेकर पढ़ा सुना नहीं तो क्या ये किसी और का दोष है या मैंने ही जानकारी पाने को कुछ नहीं किया अब कोई तस्वीर देख कर बोले कि मुझसे ये अभी तक क्यों छुपाया गया तो उसे नासमझ कह सकते हैं नादान नहीं कहना चाहिए । सोशल मीडिया पर बैठ सवाल करने वाले कभी इतिहास की किताबों को खरीदते तक नहीं पढ़ना ही नहीं चाहते अन्यथा इतना कुछ सामने आता है कि जीवन भर पढ़ कर भी इक कतरे को जान सकते हैं जिनको समंदर की थाह पाने का वहम है । अब इस पोस्ट को ही इतना ही पढ़ कर किसी को नहीं समझ आएगा कितना लिखना बाक़ी है कुछ देर बाद फुर्सत से पढ़ना तब जानोगे । 
 
 छुपाना पड़ता है गुनाहों को भले कर्मों को छुपाना नहीं पड़ता बेशक उनका ढिंढोरा भी नहीं पीटना चाहिए लेकिन जिनको अपनी असलियत को झूठ को ढकना होता है उनके पास ये इक पर्दा जैसा काम करता है कि जाली सर्टीफिकेट की तरह कोई नकली सबूत खोज कर निकाल कर दुनिया को उल्लू बनाया जाए । मुश्किल यही है कि कुछ लोग देख कर भी आंखें बंद कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने किसी की चाटुकारिता की अथवा गुलामी की परंपरा को निभाना होता है मगर बाकी सभी देख कर अनदेखा किसलिए करेंगे जब सामने हक़ीक़त दिखाई देती हो तो किसी की बात से दिल को नहीं बहला सकते उनकी तसल्ली की ख़ातिर । इश्क़ में सुनते हैं लोग अंधे हो जाते हैं कुछ समझ नहीं पाते कुछ भी नज़र नहीं आता इक उसी को छोड़कर । ज़माना कब का बदल गया है आजकल आशिक़ी का पुराना अंदाज़ नहीं नया तौर तरीका नए चलन होते हैं । जवानी का नशा अधिक साल तक रहता नहीं है दुनियादारी समझ आने लगती है जब हर कोई प्यार को धन दौलत से तोलता है आंकता है क्या हासिल होगा क्या खोना पड़ सकता है । अभी इक से शुरुआत हुई उधर कोई और दिल को लुभाने लगता है तो इधर जाएं कि उधर जाएं सोचने लगते हैं साथ नहीं तो मर जाएं वाली बात अब कोई नहीं करता है । 
 
पुराने ज़माने की बात अलग हुआ करती थी कोई दिल को भाने लगे उस से पहले किसी और के पिंजरे में ख़ुशी ख़ुशी कैद होकर ज़िंदगी बिताते थे , जब प्यार हुआ इस पिंजरे से तुम कहने लगे आज़ाद रहो , हम कैसे भुलाएं प्यार तेरा तुम अपनी ज़ुबां से ये न कहो । आजकल राजनीति भी किसी पिंजरे जैसी हो गई है किसी राजनेता का समर्थक कहलाना इक ज़ंजीर बन जाती है रिश्ते नाते दोस्त सभी को छोड़ सकते हैं जिस को मसीहा बना बैठे उसका खंजर भी दिखाई नहीं देता है । ज़ालिम ज़ुल्म भी करता है तो भी उस पर जान न्यौछावर करने को जी चाहता है ख़ुद को सौंप दिया उसके रहम ओ करम पर वो चाहे ठोकर भी लगाए प्रशंसक तलवे चाटते हैं । इंसान ऐसा वफ़ादार जाने किस जादू से बन जाता है कि जैसे सर्कस का शेर रिंगमास्टर के कोड़े से घबरा कर उस के इशारों पर कर्तब दिखलाता है दर्शकों का मनोरंजन करने को । सत्ता का चाबुक शासक में अहंकार भर देता है और जनता की करोड़ों की भीड़ उस से भयभीत होकर हर ज़ुल्म ख़ामोशी से सहने को विवश हो जाती है । कमाल ये है कि ये चाबुक खुद जनता ने सौंपा होता है राजनेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों पर भरोसा कर के । सुनते थे कभी या शायद आज भी कुछ महिलाएं अपने पति की मारपीट को उचित समझती हैं कि उनको हक है गलती करने पर सबक सिखाने का तभी हर दिन बार बार पिटने के बाद भी मानती हैं कि जैसा भी है मेरा पति मेरा स्वामी है । 
 
लोकतंत्र ने आम जनता को कुछ इसी तरह बेबस कर दिया है कि लोगों को शासक की मनमानी को स्वीकार करना अपनी बदनसीबी नहीं खुशनसीबी लगता है  यही समझते हैं कि किस्मत में यही लिखा था आज़ादी है लेकिन किसी खूंटे से बंधी हुई रस्सी की लम्बाई जितनी । खूंटा किस की हवेली की चारदीवारी में गड़ा है और रस्सी कितनी परिधि तक जाने देती है अपने बस में नहीं होता है कभी चुनाव जीत कर कोई अपने लोगों को विरोधी के आंगन में खूंटे पर बांध देता है । जिसकी लाठी उसकी भैंस यही आधुनिक राजनीति का मंत्र है । जनता कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर बंधी पट्टी के कारण नहीं जान पाती कि वो चलती जा रही है इक तय दायरे में जो उन्होंने बनाया है तेल निकालने को या उसे पीसने को जब तक सहन करते हैं चुपचाप लोग ।   
 

 
 

अक्तूबर 08, 2023

आधुनिक का पुरातन से साक्षात्कार ( विवेचना ) डॉ लोक सेतिया

  आधुनिक का पुरातन से साक्षात्कार  ( विवेचना  ) डॉ लोक सेतिया  

बीता हुआ कल वर्तमान के आज से आमने सामने मिले ऐसा वास्तव में संभव नहीं है सभी जानते हैं फिर भी लोग कभी कल्पनाओं में कभी पुरानी यादों में खोए रहते हैं । ये विषय कभी पुराना नहीं होता है दुनिया चाहे कितनी भी बदल जाए पुरानी अच्छी बुरी बातें पीछा नहीं छोड़ती कई बार इक घटना किसी परछाई की तरह साथ नहीं छोड़ती और जीवन भर क्या इंसान नहीं रहता तब भी उस व्यक्ति से उस घटना का नाता दुनिया हमेशा याद रखती है । जिसे इतिहास कहते हैं वो कुछ ऐसा ही क़ब्रिस्तान है जिस में दफ़्न मुर्दे कब अपनी कब्र फाड़ बाहर निकल आते हैं पता ही नहीं चलता । हमारी सभ्यता हमारा धर्म हमारी विरासत हमारी परंपरा कितनी पुरातन है तमाम लोग इस को लेकर गर्व अनुभव किया करते हैं । हक़ीक़त ये है कि सिर्फ पुरातन होने से सब अच्छा और शानदार नहीं हो जाता न ही नया होने से सब बढ़िया कहला सकता है । आसान तो बिल्कुल नहीं बल्कि दुश्वार है इक कसौटी पर रख कर देखना और निर्णय करना कि कब क्या सही और कब क्या सही नहीं होता है । कितनी पुरानी बातें इतनी शानदार थी जिनको लेकर सोचते हैं कि काश आज भी वही सब होता तो कितना अच्छा समाज हो सकता था वहीं तमाम पुरानी कुरीतियां भी होती थी जिन को लेकर अभी भी अफ़सोस होता है कि कैसे वो सब स्वीकार किया जाता रहा और कुछ तो ऐसा भी होता है जिनको लेकर शर्म आती है कि क्यों अभी भी हमारा समाज इतना पिछड़ा हुआ है । लेखक भगवान तक से साक्षात्कार कर सकता है लोकतंत्र संविधान से लेकर कितनी इमारतों से वार्तालाप कर सकता है अपनी सोच को इतना विस्तार देने वाला आधुनिक काल और पुरातन युग को साथ साथ आमने सामने लाकर बात क्यों नहीं कर सकता । यही होने जा रहा है मेरे सामने दोनों बैठे हैं और मैं सिर्फ इक सूत्रधार की भूमिका निभा रहा हूं । 
 
देखा कि दोनों कोशिश कर रहे हैं मगर समझ नहीं पा रहे कि सामने कौन है जान पहचान हुई ध्यान नहीं और अनजान अजनबी लगे ऐसा भी नहीं जैसा हमारे साथ कितनी बार होता है मुद्दत बाद मिलने पर । जानते हैं पहचानते नहीं और परिचय पूछना भी उचित नहीं लगता कहीं कोई बुरा नहीं मान जाए अच्छा अब नाम भी याद नहीं । मैंने कहा आप आधुनिक हैं और ये पुरातन हैं वो आप हैं और ये हैं समय से बदल कर ये बन गए हैं । खिल उठे दोनों के चेहरे अपनी सूरत आईने में देख कर । कितना अनुपम दृश्य बन गया इक जगह इक साथ नए बदलाव की नई सोच और पुरातन परिपक्व विचारों का अंतर्द्वंद जो अडिग था हालात की आंधी तूफ़ान से लड़ता हुआ । अपने आदर्शों ऊंचे मूल्यों की ख़ातिर जान देने वाले और  इधर अपना मकसद हासिल करने को चाहे जो भी बाधा सामने आए उसको मिटाने वाले किसी सामाजिक नैतिक बंधन की परवाह नहीं करने वाले समय ने कितना बदल दिया है । आज दिखाई देता है अपनी चाहत का ऊंचा फैला आसमान कुछ पुराने सदैव हितकारी और कुछ पुरातन सड़े गले मापदंड खड़े थे अपनी हालत की परिभाषा ढूंढते । कितने अच्छे आदर्श देश समाज को समर्पित वैचारिक एवं नैतिक हुआ करते थे जो अब केवल व्यक्तिगत आर्थिक एवं भौतिक उन्नति को महत्व देते हैं । सत्य और ईमानदारी की राह छोड़ झूठ आडंबर और नकली चमक दमक से प्रभावित हैं । 
 
प्रकृति पेड़ पौधे जीव जंतु सभी की चिंता करना छोड़कर विकास के लिए पर्यावरण का विनाश कर इक अंधकारमय भविष्य की तरफ अग्रसर हैं । पढ़ लिख कर शिक्षित होकर छायादार पेड़ की तरह फ़लदार वृक्ष की तरह झुके हुए नहीं बल्कि खजूर की तरह तने हुए पद पैसा नाम शोहरत धन दौलत और विशेषाधिकार पाकर अहंकारी बन समाज को रसातल को धकेल रहे हैं । कभी आपस में इक साथ मिल जुलकर प्यार से रहते थे थोड़े में मिल बांटकर खुश रहते थे वही ताकत और साधन हासिल होने पर नफरत और ईर्ष्या में अंधे हो कर लड़ाई झगड़े जंग की तैयारी करते हैं । विनाशकारी हथियार बनाकर बर्बादी को आमंत्रित करते हैं । हर राज्य हर देश की सरकार संसाधनों को जनकल्याण को उपयोग नहीं कर दुरूपयोग कर रहे हैं । शासक अत्याचारी और निरंकुश बन गए हैं मानवीयता की भावना बची नहीं है । कभी अमीर धनवान दयालु  होते थे असहाय की सहायता गरीब को आश्रय दान और सामाजिक कार्यों में स्कूल धर्मशाला धर्मार्थ औषधालय खोलने का कार्य किया करते थे अब सभी को अधिक से अधिक अमीर होने की लत लगी है । 
 
कला साहित्य नाटक फ़िल्म संगीत सार्थक उद्देश्य के लिए जगत कल्याण की बात करते थे सही दिशा दिखाया करते थे जो आजकल मनोरंजन के नाम पर समाज को भटकाने और गंदगी परोसने का अपराध कर रहे हैं । सिनेमा और टीवी जगत में विचारों की गिरावट इतनी बढ़ती गई है कि उनसे समाज को इक खतरा पैदा हो गया है । आजकल की फिल्मों को देख कर लोग हिंसक और अपराधी बनते जा रहे हैं लेकिन फ़िल्मजगत करोड़ों की आमदनी के नशे में चूर अपना अस्तित्व भुलाए बैठा है । घटिया कॉमेडी और गाली गलौच की भाषा का उपयोग जाने क्या मिलता है किसी को भी इन से अचरज की बात है । कभी पूरा गांव शहर अपना लगता था हर किसी को इक लगाव अपनापन महसूस हुआ करता था आजकल हर व्यक्ति अपने ख़ुद तक सिमटा हुआ अकेला है किसी और के सुःख दुःख परेशानी से कोई मतलब नहीं है किसी को भी । देखने को विज्ञान टेक्नोलॉजी ने सुविधाएं और संपर्क साधन बढ़ाए हैं लेकिन धीरे धीरे इन्हीं साधनों ने हमको अपना गुलाम बना दिया है । सोशल मीडिया स्मार्ट फोन कंप्यूटर आदि का अनावश्यक उपयोग हमारे जीवन में इक हस्ताक्षेप साबित हुआ है । आपस में मिलना जुलना कुशल क्षेम पूछना बंद हो गया है केवल फेसबुक व्हाट्सएप्प पर औपचारिक संदेश भेजते हैं । सैंकड़ों हज़ारों नंबर हैं संवाद किसी से नहीं बल्कि कभी कॉल आए तो कौन हैं पूछते हैं । 
 
चांद तारों की बात कविता की नहीं वास्तविक होने लगी है और हम हज़ारों किलोमीटर दूर किसी देश की सैर कर सकते हैं सबकी जानकारी रखते हैं लेकिन कोई तरीका नहीं खोजा जा सकता है जिस से अपने मित्र साथी हमसफ़र हमराही की मन की भावनाओं को जान सकते । कभी हर किसी पर भरोसा करना आसान था और लोग विश्वास पर खरे साबित हुआ करते थे अब तो भरोसा करना छोड़ दिया है और विश्वासघात करते देर नहीं लगती है । गिरगिट से अधिक रंग बदलने लगा है आदमी , सच झूठ और झूठ सच लगने लगता है । हम सभी भयभीत रहते हैं क्योंकि जिन्हें सुरक्षा की भावना जगानी है वही रक्षक भक्षक बन जाते हैं । सरकार कानून व्यवस्था न्यायालय सभी असफ़ल साबित हुए हैं अपना कर्तव्य निभाने में बल्कि इनके जाल में उलझा व्यक्ति छटपटाता रहता है चैन नहीं मिलता उसे कभी । बाढ़ खेत को खाने लगी है कहावत सच होने लगी है ।  
आधुनिक समाज में उन लोगों को नायक और जाने क्या क्या घोषित कर रखा है जिन्होंने देश समाज को कोई योगदान बेहतर बनाने को नहीं दिया है केवल अपनी व्यवसायिक सफ़लता का कार्य किया है धन दौलत सत्ता हासिल कर ऐशो- आराम से जीना सीखा है । किसी को कुछ भी देते नहीं ऐसे लोग सिर्फ बातें करते हैं पर्दे पर या सभाओं में बड़ी बड़ी महान आदर्शवादिता की , उनको जितना मिलता है उनकी भूख उतनी अधिक बढ़ती जाती है और धर्म कहता है जो लोग सब कुछ पास होने पर भी और ज़्यादा पाने की हवस रखते हैं वही सबसे दरिद्र होते हैं । दुनिया में सभी की ज़रूरत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है लेकिन किसी की अधिक पाने की चाहत की हवस को पूरा करने को कदापि नहीं है । आजकल अधिकांश लोगों के पास ज़रूरत को भी कुछ नहीं है क्योंकि कुछ लोगों ने किसी भी तरह से अपने पास इतना जमा कर लिया है कि सबको इक समान नहीं मिलता अपनी मेहनत का मूल्य । और उन लोगों की चतुराई से बना हुआ ये असमानता का जाल बढ़ता ही जा रहा है । जिनसे किसी को कुछ भी नहीं मिलता उनको महानायक बताना साबित करता है कि हमारे मापदंड कितने खोखले हैं । सैंकड़ों हज़ारों वर्ष पुरानी बात क्या कहें कि कितना बदल गया है अपना समाज का नज़रिया जब पिछले पचास साल में हमने अपने आदर्श अपने नायक के मापदंड इतने बदल डाले हैं कि कभी जयप्रकाश नारायण जी जैसे लोग लोकनायक कहलाते थे जिसने कभी कोई सत्ता धन की पद की चाहत नहीं रखी जीवन भर जनता और समाज की खातिर कार्य करते रहे और अब 11 अक्टूबर को हम उनको नहीं याद करते बल्कि इक फ़िल्मी अभिनेता को सदी का महानायक घोषित करते हुए ऐसे व्यक्ति का सोशल मीडिया टीवी चैनल पर गुणगान करते हैं जिन्होंने देश समाज को कुछ देना तो दूर की बात है सही दिशा ही नहीं दिखलाई बल्कि अपने किरदारों से युवा वर्ग को भटकाया ही है । शायद इस विडंबना से ही समझ सकते हैं आधुनिक और पुरातन का अंतर और उनके मकसद कितने अलग अलग रहे हैं ।  
 



 

अक्तूबर 06, 2023

हुआ फ़ैसला थम गया शोर ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    हुआ फ़ैसला थम गया शोर  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

सरपंच जी दोनों मौसेरे भाईयों को देख कर हैरान परेशान थे , उनकी दोस्ती के कायल थे किस बात पर आपस में तकरार करते उनके पास आये हैं । दोनों से करीबी रिश्ता है हमेशा सुःख दुःख में काम आते हैं सरपंच जी किसी का पक्ष ले सकते हैं न विरोध ही कर सकते हैं । चोर शोर मचाए हुए था पहले उसी को खामोश करवाना लाज़मी था ये सोच कर सरपंच जी ने उसी से कहा घबराओ नहीं चिंता नहीं करो यहां इंसाफ़ किया जाएगा बस आप सारी झगड़े की बात सच सच और पूरी बताओ । चौकीदार जी आपको अभी चुप रहना है बीच में नहीं बोलना बाद में आपको भी अवसर मिलेगा । 
 
चोर ने बताया मामला कुछ महीने पहले का है शहर में चोरियां गुंडागर्दी बढ़ गई थी राज्य सरकार ने बड़ी शानदार मोटर बाइक्स पुलिस को मुहैया करवाई थी गश्त लगाने को । जैसा सरकारी तौर होता है अधिकारी ने बाकायदा झंडी दिखला कर उनकी शुरुआत की थी और थोड़े दिन बाद सिलसिला ख़त्म हो गया लोग भूल गए क्या हुआ क्या होता रहा आगे होगा क्या । मैं और मेरे साथी चौकीदार जी से मिले जैसे औपचारिक मुलाकात होती रहती हैं इक दूजे की ख़ुशी ग़म में शामिल होने की । चौकीदार जी के गोदाम में कितनी नई नवेली खूबसूरत बाइक्स देख हम आचंभित थे कीमत पूछी तो काफ़ी महंगी थी लेकिन सरकार को याद तक नहीं उनका क्या हुआ । चौकीदार जी हमेशा योजनाएं बनाते रहते हैं और हम मिलकर उनको लागू करते रहते हैं । उन्होंने हमें वो बाइक्स उपलब्ध करवा दी बदले में हर महीने इक राशि किश्त की भरते रहे हम लोग । चौकीदार का करिश्मा था कि सीसीटीवी कैमरे पर बाइक्स थाने में खड़ी नज़र आती थी और ऐसा तय किया गया था कभी अपराध करते पकड़े जाने पर चौकीदार की गवाही सीसीटीवी कैमरे के सबूत काम आएंगे । 
 
अचानक चौकीदार ने अनुबंध ख़त्म करने की बात कही है और सब साथियों से बाइक्स लौटाने का फ़रमान जारी किया है । चौकीदार जानता है चोरी का असूल है काम करते सबूत को ठिकाने लगाना इसलिए जब भी कोई बड़ा अपराध गंभीर जुर्म करते हैं उन बाइक्स का नामो निशान मिटाना ज़रूरी होता है । हालांकि सरकारी सभी विभागों में कर्मचारी बदलते रहते हैं लेकिन धंधा चलता रहता है नए नियुक्त लोग पुराने की चलती परंपरा को आगे बढ़ाए जाते हैं । ये पहली बार हुआ है इन्होने सबको मोटरबाइक्स वापस लाकर जमा करवाने और इक नया अनुबंध करने की शर्त रख दी है जो असंभव है । 
 
चोर की बात ख़त्म हुई तब चौकीदार की बारी आई तब उस ने कहा चोर की बात सही है लेकिन थानेदार जी का आदेश है अब उनके इलाके में उनके ख़ास प्रशिक्षित चोर ही कारोबार कर सकते हैं ये बाइक्स उनको उपलब्ध करवानी हैं । किश्त की बात नहीं अब बराबर हिस्सा बांटने की बात होती है लेकिन बाइक्स का कोई अता पता नहीं है कैसे कोई वापस जमा करवाए । सरपंच जी ने दोनों को शांत रहने को कहा है और खुद कोतवाल साहब से मिलकर रास्ता निकालने की बात की है । सरपंच जी जानते हैं समझौता कैसे करवाते हैं और बंदर बिल्लियों की रोटी कैसे ख़ुद खाता है  , दो लोग लड़ते हैं तब तीसरा भांजी मारता है यही रिवायत है । सियासत की यही शराफ़त है बस मुहब्बत है ईनायत है इक आफत है मुसीबत है ।  
 

( स्पष्टीकरण :-  

आजकल रोज़ स्कूटी और बाइक्स वाले राह चलते लोगों को घायल कर भाग जाते हैं ये उन की बात हर्गिज़ नहीं है उन पर कोई यातायात नियम लागू करना पुलिस की प्रथमिकता नहीं है क्योंकि कितने लोगों की रोज़ी-रोटी ऐसी दुर्घटनाओं से चलती है। )

 

 

अक्तूबर 05, 2023

अंधेरा है जिनके ज़हनों में ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

    अंधेरा है जिनके ज़हनों में ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

लकीर के फ़क़ीर लोग मिलते हैं तमाम जिधर जाएं जहां भी जाएं , उनको जो करना सीख लिया किसी से उम्र भर वही दोहराते रहते हैं । समय के साथ बातों की चीज़ों की उपयोगिकता बदलती रहती है उनको इस से कोई सरोकार नहीं । किसी की महिमा का गुणगान करने लगते हैं तो बस कुछ नहीं सोचते भले व्यक्ति जैसा सब मानते रहे उस से विपरीत आचरण करने लगता हो , उनको यही लगता है भले उस के कितने गंभीर अपराध साबित होते रहे जिसे अपना आदर्श समझ बैठे उसकी हर अनुचित बात का आंखें मूंद कर समर्थन करना ज़रूरी है । बात किसी धार्मिक गुरु की हो या बेशक किसी शासक राजनेता की उनको बस जय-जयकार करनी है इक शब्द उनकी बुरी बातों पर मुंह से निकलता नहीं है । ऐसे लोगों का सफेद झूठ भी उनको सत्य से बड़ा लगता है । उपदेश भाषण कुछ देते हैं जो महान कहलाने वाले लोग लेकिन वास्तविक जीवन में बिल्कुल उल्टा आचरण करते हैं फिर भी उनके प्रशंसक उनके चाहने वाले अनुयाई उन्हीं के भक्त बने रहते हैं । इक बार गलत रास्ते पर चल पड़े तो उसे छोड़ सही मार्ग की तलाश करना उनको ज़रूरी नहीं लगता है । 
 
राजनेता देशभक्ति का जनता की सेवा का भाषण देकर सत्ता मिलते ही संविधान कायदे कानून की धज्जियां उड़ाने में हिचकते नहीं हैं और अधिकारी देश सेवा की ईमानदारी की कर्तव्य निभाने की शपथ भुलाकर अपने पद का जमकर दुरूपयोग करते हैं सामान्य नागरिक को प्रताड़ित करते हैं पर शासक वर्ग धनवान पूंजीपति वर्ग के सामने नतमस्तक होते दिखाई देते हैं । अपना ज़मीर बेच कर अमीर बनने वाले टीवी चैनल अख़बार सोशल मीडिया वाले खुद को लोकतंत्र का रक्षक और अभिव्यक्ति की आज़ादी का पैरोकार घोषित करते हैं पैसे विज्ञापन और विशेषाधिकारों की चाहत में जितना भी संभव हो नीचे गिराते हैं । आपका संगठन आपका धर्म अगर आपको हिंसा नफ़रत की शिक्षा देता हो औरों से भेदभाव करने का गलत पाठ पढ़ाए तब भी आपको उन बातों को अनुचित कहने का साहस नहीं होता है और उन पर कोई सवाल उठाना तो बड़ी दूर की बात है । 
 
कभी कभी बड़ी हैरानी होती है कुछ लोग कहते हैं हमारे देश में कितनी आज़ादी है जो मनमर्ज़ी करने की कोई रोकने टोकने वाला नहीं है । अजीब बात है नियम कायदे तोड़ने की छूट को आज़ादी नाम देते हैं जबकि उनकी ये तथाकथित मनमानी की आदत कितनों का जीवन दूभर करती है । इस से लगता है की हम ने मानवीय मूल्यों को अपने स्वार्थ की खातिर ताक पर रख छोड़ा है और हर अनुचित कार्य बिना संकोच करते हैं तब भी कहलाते सभ्य बागरिक ही हैं । कड़वी बात है मगर खरी है कि देश के शासक राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी कर्मचारी अगर अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभाएं तो जनता की अधिकांश समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएं । कारोबार करने वाले व्यौपारी उद्योगपति से शिक्षक डॉक्टर अन्य शिक्षित वर्ग के लोग अनुचित कार्य नहीं कर उचित ढंग से अपनी सेवाएं प्रदान करें जनता को तो ये समाज बड़ा ही खूबसूरत और शानदार बन सकता है । पुलिस और कानून व्यवस्था लागू करने वाले अगर अपराध को बढ़ाने में सहायक नहीं बनकर अपराधमुक्त समाज बनाने का संकल्प निभाएं तो हर नागरिक चैन से निडर होकर सुकून से रह सकता है । संक्षेप में जिसे जैसा करना चाहिए वैसा करना आवश्यक समझने लग जाएं तो देश का हाल बदल सकता है बस अपने निजी स्वार्थ लोभ लालच को छोड़ने की ज़रूरत है ।