सितंबर 26, 2014

एक नीति कथा ( न्याय ) डॉ लोक सेतिया

          एक नीति कथा ( न्याय ) डॉ लोक सेतिया

कोई राजा था जिसका न्याय बिलकुल सही माना जाता था। एक बार एक साथ तीन लोग एक ही अपराध करते हुए पकड़े गये और राजा की कचहरी में पेश किये गये। राजा ने तीनों को अलग अलग सज़ा दी , ये देख इक मंत्री को अचरज हुआ।  तब मंत्री की दुविधा को समझ राजा ने उसको अपने तीन आदमी उन तीनों के पीछे भेजने को आदेश दिया ताकि समझ सके कि किस पर उसको दी गई सज़ा का क्या असर होता है।

       तीनों का पीछा करने वालों ने वापस आकर बताया जो उनको नज़र आया था। पहले एक व्यक्ति को राजा ने केवल इतना ही कहा था "आपने भी ऐसा अपराध किया " और कोतवाल को उसको छोड़ने का आदेश दे दिया था। उसका पीछा करने वाले ने आकर बताया था कि उसने घर जाते ही खुद को फांसी पर लटका ख़ुदकुशी कर ली थी।

                 दूसरे व्यक्ति को राजा ने ये सज़ा सुनाई थी कि वो भरी सभा में खुद अपनी पगड़ी उतार घर जा सकता है। उसका पीछा करने वाले ने बताया था की वो शहर को छोड़ कहीं और चला गया है , खुद को अपमानित महसूस कर के।

                        तीसरे को सज़ा सुनाई गई थी कि कोतवाल उसका मुंह काला कर नगर में सात चक्कर लगवाये। उसका पीछा करने वाले ने बताया था कि जब उसको नगर में घुमाया जा रहा था तब नगर के लोगों में उसकी अपनी पत्नी भी तमाशा देखने में शामिल थी अपने घर के बाहर खड़ी होकर। जब उसका पांचवा चक्कर लगवा रहे थे तब उस व्यक्ति ने अपने घर के पास से गुज़रते हुए अपनी पत्नी से कहा था कि क्या यहां खड़ी तमाशा देख रही हो , बस दो चक्कर बाकी हैं पूरे करते घर आता हूं तुम जाकर मेरे लिये स्नान का पानी गर्म करो।

                          मंत्री समझ गया था राजा ने उचित निर्णय किया था।

          ( नीति कथाओं के लेखक कौन थे ये नहीं पता चलता क्योंकि ये सदियों से                                      इक दूजे की ज़ुबानी सुनी और सुनाई जाती हैं शिक्षा देने को ) 

 

सितंबर 21, 2014

रसीली ( कहानी इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग एक )

   रसीली ( कहानी इक वेश्या की ) डा लोक सेतिया ( भाग एक )

           रसीली मर गई भूख से , जाने कितने दिन से भूखी थी रसीली। कोई नहीं जान सका कि वो किस तरह तड़प तड़प कर अपने छोटे से घर में मरी होगी अकेली। उसके मरने के बाद बस्ती के लोगों , कॉलोनी के धनवान लोगों , जो खुद को बड़ा दयालू समझते हैं , और पुलिस वालों ने देखा कि रसीली के घर अनाज का एक दाना तक नहीं था। उसके पर्स में इक पैसा तक नहीं मिला , खाली था। बस्ती वालों ने बताया कई दिन से उसके घर का चूल्हा जलता बहुत कम ही दिखाई दिया था। जब से उसके साथी कमाल , जो हमेशा उसके साथ रहा , का निधन हुआ , तब से रसीली के पास  उसके खरीदार कम ही नज़र आने लगे थे। रसीली की वो खनकती आवाज़ और कहकहों वाली हंसी सुनाई दी ही नहीं कमाल की मौत के बाद।  जाने ये कैसा रिश्ता था उनके बीच , कोई नाम नहीं था उनके नाते का। सारी रौनकें खत्म हो गई थी कमाल के जाने से और एक ख़ामोशी सी छा गई थी रसीली के घर में। रसीली हरदम गुमसुम सी रहने लगी थी , कहीं भी आती जाती नहीं थी , गली से गुज़रती तो लगता कोई लाश चली जा रही है। जाने कैसे अपने ही ख्यालों में खोई रहती थी , मगर तब भी उसकी आंखों में वही चमक थी , कुछ कहना चाहती थी दुनिया से रसीली की नज़रें। अब समझ सकता हूं  उन आँखों में कैसा दर्द था क्या संदेश था , वो बताना ज़रूरी हो गया है मेरे लिये। रसीली भले जिस्म फरोश थी , मगर उसके जीवन में कमाल को छोड़ कोई दूसरा कभी नहीं आ सका था। किसी को साथी बनाना तो क्या अपने पास तक नहीं आने दिया उनको जो चाहते थे उसके प्यार बेचने के कारोबार में सहयोगी बनना। रसीली की ज़िंदगी में कमाल की जगह दूसरा कोई ले भी नहीं सकता था , कोई नहीं समझ सकता था कि रसीली वैश्या का कारोबार करने वाली बाकी औरतों जैसी नहीं थी। वो तो सब को हमेशा खुशियां बांटती रहती थी , प्यार  देती थी बेशुमार जो किसी की प्यास बुझा देता था। कमाल के बाद खरीदार  आते भी कैसे , बिना दलाल के  मिलते कहां हैं , जो भी बस्ती में आता जिस्म बेचने वाली बाकी औरतों के दलाल खड़े रहते थे पटाने को।

                            शहर की सब से पॉश कॉलोनी के ठीक सामने ये बदनाम बस्ती कॉलोनी के आबाद होने से भी पहले की बसी हुई है। खाली सरकारी भूमि पर अपना सर छुपाने को अपने हाथों से बनाये थे अपने अपने घर रसीली जैसी औरतों ने। कब्ज़ा कर बनाई ये बस्ती बदनाम है अवैध कामों के लिये , कॉलोनी वालों ने कितनी बार जतन  किया बस्ती को हटवाने का मगर सफल नहीं हो सके। ये माना जाता है कि जब भी बस्ती को हटाने की कोशिश होती , वैश्यावृति करने वाली औरतें इसको बचा लेती , नेता , अफ्सर , पुलिस वालों का बिस्तर गर्म करके। हर दिन इक दूजे से लड़ने झगड़ने वाली सब इक साथ खड़ी हो जाती ऐसे में। पापी पेट का सवाल जो आ जाता था , मगर तब भी रसीली अपनी ज़िद पर कायम रहती थी , किसी की रातें रंगीन करने कभी किसी के घर , होटल या फार्म हॉउस नहीं जाती थी। उसका कहना था जिसको उसकी ज़रूरत है वो बेझिझक चला आये उसके घर का दरवाज़ा खुला रहता है सब के लिये। जिसको डर लगता हो , शर्म आती हो , या जिसको ये बुरा काम लगता हो वो रहे अपने घर में। रसीली जो भी करती थी उसको उसमें कोई झिझक नहीं थी , कोई ग्लानि या अपराधबोध नहीं था। अपना बदन है जो चाहे करे किसी को कोई ज़बरदस्ती थोड़ा बुलाती है। वो ये गीत हमेशा गुनगुनाया करती थी "प्यार बांटते चलो -प्यार बांटते चलो।

                                      रसीली और कमाल ने ज़िंदगी में इतनी ठोकरें खाई थी कि अब उनको किसी भी मुसीबत से कोई डर नहीं लगता था , उन्होंने कभी भी ये चिंता नहीं की कि अगर बस्ती उजड़ गई तो क्या होगा उनका। जब दूसरे बस्ती वाले घबरा रहे होते थे तब भी रसीली सब को हौसला देती , खिलखिला कर मस्ती भरी बातें किया करती। जिंदादिल थी रसीली। सब से प्यार और अपनेपन से बात करती थी वो। कुछ सालों से वो बिमार सी , मुरझाई सी लगती थी , तब भी उसके घर रौनकें लगी रहती , ठहाकों की आवाज़ गूंजती रहती। कमाल दिन भर उसके लिये खरीदार  ढूंढ कर लाता रहता , वो बहुत आसानी से पहचान लेता था कि कौन अपनी हवस मिटाना चाहता है और उससे बात कर ले आता था रसीली के घर। जो एक बार रसीली के घर आता वो बार बार आता ही रहता ,रसीली की बातों उसके अपनेपन में कोई बाज़ारूपन नहीं होता था। बस्ती की बाकी औरतें अपने पास आने वालों से अखड़पन से बात किया करती थी और जैसे भी हो अधिक पैसा छीन लेना चाहती थी , मगर रसीली को ये पसंद नहीं था। उसने जिस्म भी बेचा मगर पूरी ईमानदारी से। उसका व्यवहार अपने खरीदार  से ऐसा रहता जैसा कोई महमान आया हो उसके घर। ये रसीली के घर ही हो सकता था कि जो भी आया हो उसको कमाल साथ शराब का जाम पेश करता अगर पीता हो और जब खुद खाना खाती तब रसीली महमान  को भी अपने हाथ से बना कर रोटी खिलाती। वहां वैश्या के घर जैसा माहौल नहीं था , ये हिसाब नहीं लगाती थी रसीली कि किसने क्या दिया क्या नहीं। धंधा अपनी जगह और घर आये लोगों से व्यवहार अपनी जगह। आने वालों को वो वैश्या का कोठा नहीं कोई घर लगता था जिसमें उन दो को छोड़ रोज़ नये सदस्य होते थे।  बस्ती वाली कई औरतों ने कमाल पर डोरे डालने का जतन  भी किया कई बार उसको अपना दलाल बनाने को मगर उसकी ज़िंदगी में रसीली के सिवा किसी के लिये भी कोई जगह नहीं थी। बस्ती की बाकी औरतों का साथ देना तो दूर की बात , उनसे बात तक करना जुर्म था कमाल के लिये। रसीली को जब पता चलता किसी ने उसके कमाल पर डोरे डालने का जतन  किया तो वो अपना सवभाव बदल कर चंडी का रूप बन जाती थी। सालों आमने सामने रहते बस्ती वाले और कॉलोनी वाले इक दूजे को अच्छी तरह पहचानते थे। बस्ती वाले कॉलोनी वालों को आते जाते सलाम साहब सलाम मेम साहिब कहते रहते मगर उनके कार्यों को जान कॉलोनी वाले उनसे नफरत करते थे। फिर भी जब कोई मेहनत मज़दूरी का काम होता तब बस्ती वाले कभी इनकार नहीं करते थे , मांगते तक नहीं थे अपनी मज़दूरी , जो कोई दे देता चुपचाप रख लेते। आज सोचता हूँ जिन बस्ती वालों का नाम तक नहीं जानते थे उनसे कॉलोनी वाले किसलिये नफरत करते थे।  कुछ भी बुरा उनके साथ नहीं किया था कभी बस्ती वालों ने। कितनी अजीब बात है कि कॉलोनी में बहुत लोग ऐसे रहते थे जो किसी को धोखा देने , अन्याय करने , अपने से कमज़ोर का अधिकार छीनने जैसे अनैतिक काम करते थे तब भी उनसे कोई नफरत का व्यवहार नहीं करता था। वैश्या तो जिस्म बेचती है ये लोग तो दीन ईमान तक बेचते हैं , क्या ये कम बुरे हैं। जैसे अपराधों का कॉलोनी वालों को भय था वो बस्ती वालों ने कभी किया ही नहीं था। खुद को सभ्य और उनको असभ्य मान कुछ लोगों ने बस्ती वालों को उन अपराधों की भी सज़ा दी जो किया ही नहीं था बस्ती में रहने वालों ने। आज अगर पुलिस का अधिकारी आकर कॉलोनी वालों से इस बारे बात न करता और रसीली के परिवार का सदस्य रसीली की ज़िंदगी की उसकी खुद की प्रेम कहानी सब को नहीं बताता तो किसी को पता ही नहीं चलता रसीली के जीवन की सच्चाई। रसीली ने जब कमाल की मौत की खबर उसके घर वालों को भेजी थी तब उसको नहीं पता था वो रसीली के साथ ऐसा भी करेंगे। कमाल के परिवार वाले आये थे , उसकी लाश को कैंटर में डाल कर ले गये थे। रसीली रोई थी गिड़गिड़ाई थी मगर उसको साथ नहीं जाने दिया था। तुम उसकी विवाहिता पत्नी नहीं हो , तुम्हारा न उसके साथ कोई रिश्ता है न ही हमारे साथ। दुनिया वाले कभी नहीं समझ सकते उनके बीच क्या रिश्ता था और कितना गहरा था। कमाल की मौत के बाद रसीली वो रसीली नहीं रह गई थी , पूरी तरह टूट गई थी बिखर गई थी। अकेली पड़ गई थी ,  और ऐसे बहुत समय जी नहीं सकती थी। अब सोचता हूँ जब भी वो सामने से गुज़रती थी उसकी आंखे क्या कहना चाहती थी सब लोगों से। हमने ये महसूस किया था कि कुछ बोलना चाहती हैं दो आंखें , मगर हमें वो भाषा समझना नहीं आता था और रसीली को वही भाषा ही आती थी। हम यूं कहने को इंसानियत के धर्म की बातें करते हैं मगर क्या कभी जाकर जाना है किसी का दुःख दर्द , पूछा किसी से कभी हाल उसका। बस्ती में जो रहते वो भी हैं तो इंसान ही ,  उनका उनकी मज़बूरी उनकी परेशानी किसी कॉलोनी वाले ने जानी , समझी। इसी कॉलोनी में रहते हैं वो भी जो समाज सेवक होने का दम  भरते हैं ,  कई महिलायें हैं जो महिला शक्ति और महिला उद्धार की बात किया करती हैं। उनको सब मालूम था उनके सामने की इस दलदल के बारे में , नहीं किया किसी ने जतन  उनको इस दलदल से बाहर निकालने का। कॉलोनी वाले बचा हुआ खाना जानवरों को खिलाते हैं पुण्य समझ , कूड़ेदान में भी फैक देते हैं पर इन बस्ती वालों का पेट भरने को नहीं देते। कहते हैं ये गंदे हैं इनको पास नहीं रहने देना , एक बार दिया तो बार बार चले आयेंगे। ऐसे लोग क्या कभी समझ सकते हैं कि  कैसे अपना और अपने अपाहिज साथी कमाल का पेट भरने को रसीली ने अपना बदन वासना के भूखे भेड़ियों के सामने परोसा होगा। कितना दर्द  कितनी पीड़ा झेल विवश होकर।

           पुलिस वालों ने हम सबको ये बताया कि आपके सामने बस्ती में रहने वाली रसीली नाम की औरत की मौत दो दिन पहले ही हो चुकी है और कोई नहीं है जो उसकी लाश को ले कर अंतिम संस्कार कर सकता हो। दो दिन पहले बस्ती में रहने वालों ने रसीली के परिवार को और कमाल के घर वालों को फोन पर बताया तो जवाब मिला था उनका रसीली से कोई नाता नहीं रहा है , वो कब की मर चुकी है उनके लिये। आज जब बदबू होने लगी तब बस्ती वालों ने पुलिस थाने रपट दर्ज करवाई है कि कोई शव सड़ रहा दो दिन से बिना किसी देखभाल के। अब पुलिस को ही उसको लावारिस घोषित कर सब करना होगा , मगर उसके लिये आपको रसीली की पहचान कर कुछ कागज़ी करवाई में सहयोग देना होगा। पुलिस वाले सुन कर हैरान रह गये थे कि जो कब से उनके घरों के सामने रहती थी किसी कॉलोनी वाले को उसका नाम भी मालूम नहीं था। जानते भी कैसे जब वो उनसे बात करना तक पसंद नहीं करते थे। बस्ती वालों ने बताया था एक रिश्तेदार रहता है जो मिलने आता है कभी कभी रसीली से जब कोई मतलब होता है। पुलिस वाले खोज लाये थे उसको मगर उसने भी इनकार कर दिया रिश्ता निभाने से। हमने उसको कहा था कि जो भी बात रही हो वो तुम्हारी अपनी थी , मरने के बाद तो सब भूल कर उसका अंतिम संस्कार कर दो , हम तुम्हें आर्थिक मदद देने को तैयार हैं। हमारी बातों ने उसको विवश कर दिया था रसीली की ज़िंदगी की पूरी दास्तां सुनाने के लिये। बात कई साल पुरानी है।

                           ( जारी है कहानी  बाकी आगे की पोस्ट पर )

सितंबर 12, 2014

जीवन की पहचान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         जीवन की पहचान ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कभी सोचा है
कभी जाना है
खुद को कब
पहचाना है ।

ये टेड़ी सीधी
जीवन की राहें
जाती हैं किधर
किधर जाना है ।

खुद को खिलाड़ी
समझने वालो
कोई खेल रहा है
और खेलते जाना है ।

तकदीर का लिखा
न जनता कोई भी
लकीरें हैं पानी पे
बस उसको मिटाना है ।

इक नाटक है ज़िंदगी
किरदार सभी इसमें
जब तक हैं पर्दे पर
किरदार निभाना है ।

औरों से शिकवा
खुद से गिला करना
हासिल नहीं कुछ भी
झूठा ही बहाना है ।

जीने का तरीका
केवल है इतना ही
खोना है खुद को जब
तब ही सब पाना है । 
 

 

सितंबर 08, 2014

सखी ( कहानी ) डा लोक सेतिया

                 सखी ( कहानी ) डॉ लोक सेतिया

             सखी कहकर पुकारा था मैंने इक दिन किरन को। कुछ साल ही रहा हम दोनों का साथ। मगर मुझे मालूम था कि वो मुझसे कहीं ज़्यादा किसी और को चाहती थी वा सब से अधिक खुद को चाहती थी। खुद को चाहना बुरा भी नहीं होता है , भले कोई आपको प्यार करे न करे आप तो अपने आप से प्यार करो। मैं शायद किरन के लिये उन खिलौनो की तरह थी जिनसे वो खेला करती जब भी चाहती और जब मन भर जाये तब उनको छुपा कर अपनी अलमारी में रख देती थी। अपने खिलौनो से बहुत प्यार था किरन को , जाने क्यों उसको लगता था कोई उससे उसके खिलौने छीन लेगा। बस मुझपर विश्वास था कि मैं कभी उसके खिलौने नहीं छीन सकती , वो जानती थी मैं नहीं खेलती कभी भी खिलौनो के साथ। खिलौने क्या मुझे किसी के साथ भी खेलना पसंद नहीं था। मैं तो हमेशा खामोश रहती थी और जो भी कुछ कोई बोलता हो चुपचाप सुना करती थी। अकेले में यूं ही कुछ सोचती रहती और अपनी पसंद के गीत गुनगुनाती रहती थी। रेडियो पर रात दिन पुराने दर्द भरे गाने सुना करती और उन में खुद को महसूस किया करती थी। अक्सर किसी गीत को सुनते मेरी आंखे भर आती थी और मैं सब से छुप कर रोया करती थी। इक और पागलपन किया करती थी मैं , अपना रोता हुआ मुखड़ा दर्पण में देखती और उसको देख और भी अधिक रोना मुझे आ जाता था। मुझे याद है हॉस्टल में किरन के कमरे से बाहर निकल रही थी मैं और मेरी पसंद का गीत , दस्तक फिल्म का रेडियो पर आ गया था। हम हैं मताये कूचा ओ बाज़ार की तरह , उठती है हर निगाह खरीदार की तरह। वहीं बुत बनी खड़ी रह गई थी मैं , मेरी पलकें भर आई थी आंसुओं से , मुझे किरन ने पहली बार रोते हुए देखा था। हैरान थी , पूछने लगी क्या हुआ तुझे पगली , कुछ भी नहीं मैंने कहा था। जानती थी इक पागलपन था वो सपनों की दुनिया बना कर उसी में जीना , खो जाना। किरन जैसे कोई तितली जैसी थी , हमेशा उड़ती रहती इधर उधर , अभी यहां थी अब कहीं और पल भर में। सभी की दुलारी थी वो , बहुत प्यार करते थे सब उसको , हॉस्टल कॉलेज घर में हर जगह। मगर उसकी खुशनसीबी भी अधूरी थी , जिसको वो चाहती थी दिलोजान से वही किरन की ज़रा भी परवाह नहीं करता था। किरन को ये उसकी इक अदा लगती थी , शायद वो मान ही नहीं सकती थी कि कोई उसकी चाहत को भी ठुकरा सकता है। उसका साथ पाते वो सब को भूल जाती थी , भुला सकती थी। हम दोनों का नसीब एक सा था , मैं उसकी सखी थी , उसको अपनी सखी बनाना चाहती थी मगर उसको किसी दूसरे की सखी बनना पसंद था। कई बार मेरे मन में भी ये बात आती थी कि क्यों नहीं मैं किसी और को सहेली बना उससे घुल मिल कर रहती हूं। किया ये भी प्रयास मगर उसकी जगह किसी को नहीं रख सकी।

                     किरन की शादी की बात चल रही थी , उसको कोई लड़का पसंद ही नहीं आता था। मां बाप की लाड़ली बेटी को हमेशा मिलता जो रहा था अपनी पसंद का सभी कुछ। वो लोगों को भी कपड़ों और खिलोनो की तरह रंग और चमक देख पसंद करती थी। उसको देखने जब कभी कोई लड़का और उसका परिवार आता तो मुझे पास बुला लिया करती थी , थोड़ी दूरी पर ही तो मेरा घर। शायद मेरे होने से उसे अपने सुंदर होने का , अच्छे पहनावे का , सब से खुल कर बातचीत करने का आत्मविश्वास बढ़ जाता था। इसलिये कि मैं साधारण नज़र आने वाली हरदम चुप रहने वाली , हमेशा बहुत ही आम से कपड़े पहनने वाली लड़की थी। जाने क्या देख कर किरन को सूरज पसंद आ गया था , मैंने देखा वो शरमा रहा था किसी लड़की की तरह , उसने किरन से कोई सवाल नहीं पूछा था। जैसे सूरज हम दोनों को कनखियों से देख रहा था उससे लगता था किरन का जादू उसपर चल गया था। जब दोनों से पसंद है का सवाल किया गया और हां हो चुकी तब किरन उसको अपने कमरे में लाई थी , और सूरज को मुझसे मिलवाते हुए कहा था ये मेरी सब से प्यारी सखी है। मैं यही जाने कब से सुनना चाहती थी , वो पल मेरे लिये ऐसे था जैसे मुझे पूरी दुनिया ही मिल गई है। मैंने उसको भावावेश में गले लगा लिया था और चूम कर बोली थी मेरी जान हो मेरी सखी , दुआ करती तुम यूं ही खुश रहना। किरन का परिवार इस बात को लेकर खुश था कि उनकी लाड़ली यहीं इसी शहर में रहेगी , सूरज की नौकरी यहीं लगी थी। मुझे भी ख़ुशी थी कि मैं जब भी चाहूंगी मिल सकूंगी उससे। किरन और मैं हमेशा हर नई फिल्म इक साथ देखते थे , किरन की सगाई के बाद आनन्द फिल्म रिजीज़ हुई थी वा मैंने उसको सूरज के साथ प्रोग्राम बनाने को कहा था , उसने मुझे तीन टिकट मंगवा लेने को कहा था , और सूरज को साथ लाने की बात की थी। किरन को घर से अनुमति मिल गई थी सूरज और मेरे साथ सिनेमा जाने की। जाने क्यों किरन के होने वाले दूल्हे के साथ फिल्म देखने को लेकर मैं बेहद उत्साहित थी , मैं खुद जाकर तीन टिकेट एडवांस बुकिंग से ले आई थी। किरन की बात फोन पर सूरज से हो गई थी , सिनेमा हाल पहुंच कर किरन ने बताया था कि उनके पास बॉक्स की टिकट हैं और वो दोनों अकेले बैठ कर उसमें फिल्म देखना चाहते हैं। मैं अलग अकेली ड्रेस सर्कल में बैठ देख लूं , और बाकी दोनों टिकट किसी को बेच दूं। शायद मुझे खुद समझना चाहिये था कि मुझे कवाब में हड्डी नहीं बनना चाहिये। मगर मैं उसकी बात से बहुत नाराज़ हो गई थी और जब वो दोनों अंदर चले गये थे तब मैंने वो तीनों टिकट फाड़ कर फैंक दी थी। दूसरे दिन मैंने किरन से अपनी नाराज़गी जता भी दी थी , उसको इतना ही बोली थी कि जब तुमको अलग बैठ कर फिल्म देखनी थी तो मुझे नहीं बुलाना चाहिये था। वो जान गई थी मैं बिना फिल्म देखे ही लौट आई हूं। किरन ने कहा था कि सच में ये फिल्म तो दोस्त बनाने के विषय पर है और ये उसको सूरज के साथ नहीं मेरे साथ ही देखनी चाहिये थी। उसने मुझसे वादा किया था मुझे खुद साथ ले जा कर आनन्द फिल्म दिखायेगी , मगर हमेशा की तरह वो भूल गई थी मुझसे किया हुआ वादा। मैंने कई साल तक वो फिल्म नहीं देखी थी , जब टीवी पर घर में अकेले बैठ सालों बाद देखी तब आनंद से खुद को मिला कर सोचती रही , लेकिन मेरी किस्मत में कोई बाबू-मोशाय जैसा दोस्त कहां था।

               किरन की शादी हो गई थी , वह बहुत खुश थी। अपने मायके वाले घर जब भी आती , मुझे झट बुला पास लिया करती। मुझे हर बार अपने घर आने को कहती थी , मगर मुझे संकोच होता था बिना कारण कैसे जाऊं। एक दिन अपनी कसम दे गई थी कि ज़रूर उसका घर देखने आऊं। जब किरन ने पूछा कब आओगी तब मैंने यूं ही सरप्राइज देने की बात कह दी थी। और एक दिन यही सोच किरन के घर चली गई थी उसकी ख़ुशी की खातिर। बैल देने पर दरवाज़ा सूरज ने खोला था , आओ अंदर आओ कहकर मुझे घर में प्रवेश करवाया था।  मैंने किरन को बुलाने को कहा था तो सूरज ने बताया कि वो घर के बाकी लोगों के साथ बाज़ार तक गई है आती ही होगी। मैं उठ कर वापस जाने लगी तो सूरज ने रोक लिया था ये बोलकर कि पहली बार आई हैं अपनी सखी के घर बिना कुछ लिये नहीं जा सकती। मैंने कहा था दोबारा फिर आउंगी , तो सूरज ने कहा की आप कोल्ड ड्रिंक पियें इतने में शायद आ ही जाये किरन। मुझे कोल्ड ड्रिंक देकर सूरज अपनी और किरन की शादी की एलबम्ब दिखाने का बहाना बना मेरे करीब आकर बैठ गया था। उसने बार बार मुझे जानबूझकर छूने का प्रयास किया था तो मुझे डर लगने लगा था , मेरी धड़कने बढ़ गई थी और मैं भाग जाना चाहती थी। उठ कर चलने लगी तो सूरज ने मेरा हाथ पकड़ लिया था। उसकी आंखो में वासना देख मैं घबरा गई थी , मगर जाने कैसे साहस कर सूरज को बोली थी आपको ऐसा सोचते हुए भी शर्म आनी चाहिये थी , आपकी बीवी की सहेली आपके लिये बहन जैसी होनी चाहिये। और अपना हाथ छुड़ा बाहर चली गई थी। ये मेरे साथ कभी नहीं हुआ था , मेरा बदन गुस्से से कांप रहा था व ये बात मैं किसी को नहीं बता सकती थी , किरन को बता कर पति पत्नी के नये नये रिश्ते में दरार नहीं डाल सकती थी। मुझे किरन पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मुझे अपनी कसम दी थी बुलाने को , जबकि इसमें उसका कोई दोष नहीं था। दूसरे दिन किरन अपने मायके वाले घर आई हुई थी , मुझे संदेशा भेजा था आने को , इनकार कर दिया था मैंने। कुछ ही देर में वो खुद चली आई थी , मस्ती के मुड़ में थी , उसको नहीं बताया था सूरज ने कि मैं उसको मिलने गई थी उसके घर। मुझे तब लगा किरन को उसके पति की उस हरकत के बारे बताना ही चाहिये , और मैंने उसको सब बता दिया था। बेचैन सी हो गई थी किरन और उसका चेहरा तमतमाया हुआ था , अचानक उसको जाने क्या हुआ कि उसने मुझे कई थपड़ जड़ दिये थे , और बुरा भला कह कर चली गई थी। मैं सन्न रह गई थी , समझ नहीं पा रही थी कि उसको बताना सही था या गल्त। मगर ये सोच लिया था अब कभी मिलना नहीं होगा किरन से ज़िंदगी भर।

              लेकिन अगले ही दिन जब मुझे किरन के नर्वस ब्रेकडाउन होने और अस्पताल में दाखिल होने का पता चला तब मैं खुद को रोक नहीं पाई थी। मुझे देखते ही मुझसे लिपट कर फूट फूट कर रोते हुए अपनी गलती की माफी मांगने लगी , मुझे बिना बात थपड़ मारने की और शायद अपने पति की गलती की भी। मेरे मुंह से अचानक निकल गया था सब भूल जाओ तुम , छोड़ो उस के लिये खुद को दोषी न समझो। जब मैं निकल रही थी कमरे से तब सूरज आया था मेरे पास और बोला था आई एम वेरी सॉरी , मुझसे अपराध बहुत बड़ा हुआ है फिर भी मुझे कर सको तो अपनी प्यारी सखी के लिये माफ कर देना। मुझे कुछ भी कहना ज़रूरी नहीं लगा था। बहुत दिन तक उस एक घटना ने मुझे बेचैन रखा था , लाख कोशिश करके भी उसे भुला नहीं पा रही थी। मुझे दूर अपने शहर से महानगर में जॉब मिली तो शायद इस सब से बचने के लिये मैंने नौकरी कर ली थी। कुछ दिन में मैंने खुद को संभाल लिया था , अपने काम में रात दिन जुटी रहती थी। मुझे पहले भी तनहाई पसंद थी और उस एक घटना के बाद तो किसी से जान पहचान बढ़ाना अच्छा नहीं लगता था। मगर समय के साथ मैं परिपक्व होती गई थी और अब सब से बेझिझक बात कर सकती थी। वो भय मिट गया था कि कोई मुझसे बदतमीज़ी कर सकता है।

      कई सालों बाद अचानक एक दिन मुझे पत्र मिला अपनी सखी किरन का। सूरज को यहां सुपर स्पेशलिस्ट को दिखाना था , मुझे अस्पताल से डॉक्टर की अपॉइंटमेंट लेनी थी और किरन को सूचित करना था। फिर एक बार मुझे पुरानी घटना याद आ गई थी जिससे मेरी दिमाग की नसें तनाव महसूस कर रही थी। मगर किरन को मैं मना नहीं कर सकती थी कभी भी , अब जब वो किसी परेशानी में थी तब तो हर हाल में उसका साथ देना ज़रूरी था। डॉक्टर से समय लेकर सूचित कर दिया था मैंने। किरन और सूरज अपने दो बच्चों को लेकर जब आये थे तब लगा जैसे वो सब भुला चुके हैं , मुझे भी यही करना था तभी साथ रह सकते थे इक परिवार की तरह। उनको अपने दो कमरों के छोटे से घर में रखना थोड़ा मुश्किल तो था मगर सब समझते थे वक़्त की नज़ाकत को। सदा की तरह किरन जो भी मुझसे चाहिये पूरे अधिकार पूर्वक लेती थी , ये भी बातों बातों में बता दिया था कि सूरज की बिमारी पर बहुत पैसा खर्च होने से वो आर्थिक तंगी में है। ऐसे में उनसे स्वाभाविक ही मुझे सहानुभूति हो गई थी। मैंने किरन को कह दिया था कि मेरे पास जो भी राशि जमा है वो जब भी चाहे ले सकती है। कई महीने तक सूरज का ईलाज चलता रहा और जितना भी मुमकिन था मैं खुद ही अस्पताल और दवाओं का खर्च करती रही , लेकिन सूरज की दशा में कोई सुधार नहीं हो सका था। डाक्टरों ने सूरज के दोनों गुर्दे खराब होने की बात बताई थी और किसी अपने को सूरज को अपना एक गुर्दा देकर उसकी जान बचाने की सलाह दी थी। सूरज के परिवार के लोग अलग अलग रहते थे और कोई भी गुर्दा देने को तैयार नहीं हुआ था। किरन चाहती थी किसी भी तरह अपने पति की जान को बचाना मगर उसका गुर्दा सूरज से मैच नहीं हो सकता था। जाने क्यों मैंने अपना गुर्दा देने पर विचार ही नहीं किया था , मुझे ये सोच कर ही अजीब लगा था कि मैं अपने शरीर का कोई अंग उसको दे दूं जिसने मुझे बुरी भावना से छुआ था।

              किरन की उम्मीद टूट रही थी हर दिन , मुझे उसका बुझा बुझा सा चेहरा देख कर घबराहट होने लगती थी , सूरज अस्पताल में दाखिल था , बच्चों को दादा दादी ले गये थे।  मैं और किरन अकेली थी घर में। किरन ने तब मुझे अपने गुज़रे हुए जीवन के बारे बहुत बातें बताई थी। कैसे सब अपनों के होते भी वो अकेली थी। अब भी उसको भरोसा था केवल बचपन की इस सखी पर तभी सूरज को लेकर मेरे पास आई थी। मैंने तभी निर्णय ले लिया था कि अपनी सखी को निराश नहीं होने दूंगी , और अगले ही दिन डॉक्टर से बात कर मैंने अपने सभी टेस्ट करवा लिये थे। सूरज को मेरा गुर्दा मैच कर गया था , हम दोनों का सफल ऑपरेशन हो गया और सूरज को डॉक्टर्स ने पूरी तरह सवस्थ घोषित कर दिया था। कुछ दिन आराम करने के बाद जब वापस जाने लगे तब किरन और सूरज दोनों की आंखों में आंसू छलक आये थे , सूरज की पलकों से पश्चाताप के आंसू और किरन की आंखों से कृतिज्ञता के। मेरी भी आंखें भर आई थी सखी भाव से। जाते जाते सूरज ने कहा था कि क्या मुझे अपना भाई समझ सकती हैं , मैं आपको दीदी बुला सकता हूं। मैंने भी मन से इस पवित्र रिश्ते को स्वीकार कर लिया था और अब मुझे जल्द ही अपनी सखी ही नहीं अपने भाई के घर भी जाना है।