जुलाई 26, 2024

हमको मिली सज़ाएं हर बार तेरे दर पे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

  हमको मिली सज़ाएं हर बार तेरे दर पे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

  
हमको मिली सज़ाएं , हर बार तेरे दर पे 
आये हैं आज फिर हम सरकार तेरे दर पे । 
 
कोई नहीं यहां जो फ़रियाद अपनी सुनता 
दिल कह रहा मिलेगा वो प्यार तेरे दर पे । 
 
हमदर्द कौन किसका , बीमार दुनिया तेरी 
आते हैं लोग होकर लाचार तेरे दर पे । 
 
भगवान बन के बैठे इंसान हमने देखे 
कैसे बनी इबादत बाज़ार तेरे दर पे । 
 
सब झूठ के पुजारी मुजरिम हों जैसे सच के 
लेकिन बदल रखे हैं रुख़सार तेरे दर पे ।
 
दस्तूर है निराला बस शोर करते रहना 
होती नहीं मधुर अब झंकार तेरे दर पे । 
 
' तनहा ' कभी जनाज़ा अपना उठेगा आख़िर 
उल्फ़त बुला ही लेगी इक बार तेरे दर पे ।  
 



 
 
 

जुलाई 24, 2024

खेल है नसीबों का ज़िंदगी ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

      खेल है नसीबों का ज़िंदगी  ( अफ़साना  ) डॉ लोक सेतिया  

नाम में क्या रखा है की बात पुरानी है नाम क्या है से नामकरण तक कितना कुछ बदल गया है । आस्था विश्वास अंधविश्वास से चलते चलते सरकार बदलने की बात होती रहती थी मगर सरकार नाम बताने की आड़ में नाम बदनाम करने बदलने की कोशिश करती है तो देश की बड़ी अदालत को दखल देना पड़ता है । लेकिन यहां माजरा कुछ और ही है किसी को जिस भी हसीना से इश्क़ होता वही बेवफ़ा निकलती किसी और की बन जाती । आशिक़ ने कितनी बार क्या क्या नहीं किया नतीजा वही पंछी पिंजरा छोड़ कब उड़ गया खबर नहीं हुई तो पंडित नजूमी सभी के दर की ख़ाक़ छान डाली आखिर में इक विशेषज्ञ से मुलाकात हुई तो उसने घर गली शहर नाम सभी का मिलान किया तब बताया आपको प्यार मिलेगा तब जब आप किसी महानगर में जा कर किसी शॉपिंग मॉल में खरीदारी करोगे दस दिन लगातार वही एक ही चीज़ खरीदनी है और जितने भी दाम मांग रहे हों चुपचाप देते रहना है छूट की बात कभी नहीं करनी अगर खुद कोई छूट देने को कहे तब भी मना कर देना है । चाहत बड़ी अजीब होती है आशिक़ी सब करवाती है ख़ाली जेब हाथ जोड़ उधर मांग कर जाने किस किस की खातिर सब खरीद कर जिस किसी को ज़रूरत थी दे दिया , कोई भी खुश नहीं हुआ हर किसी को महसूस हुआ जितना मांगा था नहीं बहुत थोड़ा मिला । नसीब इंसान का उम्र भर साथ साथ चलता है कौन है जो हालात बदलता है जिस से भी दिल लगाया रास्ता बदलता है । दोस्ती वफ़ा प्यार सब छोड़ ही जाते हैं दुश्मन हैं अपनी जां के वही आकर समझाते हैं मतलब की ख़ातिर सभी करीब आते हैं मतलब जब निकल जाता है जाने कहां खो जाते हैं । बर्बाद हो गया कोई घर बार बेच कर फिरता है ढूंढता ख़ुदा इक संसार बेच कर अपना ज़मीर बचा लिया हमेशा लोग शोहरत की बुलंदी पर खड़े हैं किरदार बेच कर । 
 
खुद को जिस शख़्स को बदलना नहीं आता है इस ज़माने के साथ चलना नहीं आता है संभलना आता है फिसलना नहीं आता है । रिश्तों में हर किसी को छलना नहीं आता है अनाड़ी है भरी दुनिया में अकेला है ज़िंदगी खेल नहीं इक झमेला है कोई क्या बताए क्या क्या सितम कैसे झेला है । उम्र भर यही लगता है थोड़ी दूर खड़ी हुई है ज़िंदगी करीब आ रही है पर ओझल हो जाती है पलक झपकते कोई खेल समझा रही है । किसी दिन इक सवाल आता है ज़हन में जीने से मरना अच्छा मलाल आता है दिल में ज़िंदगी का कुछ भी हासिल नहीं है इक नदी के इस पर कोई खड़ा है उस पर खड़ी है शायद वही ज़िंदगी है जाने का कोई पुल नहीं है । तैरना सीखा नहीं डूबना मुश्किल नहीं है ख़ुदकुशी नहीं करनी है बुज़दिल नहीं है हर कश्ती का होता कभी साहिल नहीं है ये दर्द का अफ़साना है अपना है दुनिया में न कोई भी बेगाना है पतवार नहीं मांझी नहीं लहरों को देखता है । अजब छोर है ज़िंदगी ठहरी हुई है लौट कर वापस जाने को भी नहीं कोई ठिकाना है । 
 
चम्बल नदी कहा से निकलती है? - Quora

जुलाई 17, 2024

क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया

    क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया 

 

   मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा ( सुदर्शन फ़ाकिर )  

     इस वर्ष का 17 जुलाई अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस का थीम है फासलों को मिटाना , सांझेदारी बनाना । 

 

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद , जो नहीं जानते वफ़ा क्या है , सच कहा जाए तो आजकल इंसाफ़ की परिभाषा बदल चुकी है अन्याय करना जब इंसाफ़ कहलाने लगे तब समझ लेना चाहिए कि हम ज़ालिम से ज़ख्म पर मरहम लगाने की झूठी आस लगाए हैं । कौन हैं जो समाज में फासले बढ़ाते हैं , शासक सरकार तथाकथित वीवीआईपी लोग और अमीर साधन संपन्न धनवान लोग जो अमीर बनते ही शोषण कर अथवा सामान्य नागरिक की विवशता का लाभ उठा कर उस से उत्पाद का मनचाहा मोल पाकर । सरकार भी उन पर मेहरबान होती है इनको खुली छूट होती है नियम कानून से मानवता तक को ताक पर रख कर ये कुछ गिने चुने लोग बड़ी बेशर्मी से छल कपट से आर्थिक हिंसा तक सब करते हैं । इतना सब करने पर भी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती न ही इनके लिबास पर कोई दाग़ क्या छींटा भी नज़र आता है । अपने अपकर्मों को ये सभी पैसे सत्ता ताकत वाले धनवान लोग धार्मिक अनुष्ठान दान इत्यादि कर ढक लिया करते हैं । अमीर गरीब शासक और आम नागरिक की दूरी घटाना उनको कैसे मंज़ूर हो सकता है बल्कि ये तो बड़े छोटे ख़ास आम की खाई और अधिक चौड़ा और गहरा करने को किसी भी सीमा तक जाकर समाज से खिलवाड़ कर सकते हैं । राजनेता ही नहीं अधिकारी से लेकर बड़े बड़े खिलाड़ी अभिनेता उद्योगपति पैसे ताकत वाले दिखावा समाज सेवा का करते हैं भाषण देते हैं जबकि आचरण बिल्कुल विपरीत होता है , किसी साधारण इंसान से मिलना तो दूर इनको उनकी तरफ देखना भी पसंद नहीं है । आज भी यही लोग और कानून व्यवस्था न्याय की कुर्सी पर बैठे बड़ी बड़ी बातें करेंगे सभाओं में जबकि ये उनकी कठोर सोच और समझ ही है जिस से देश में न्याय पर भरोसा घटता ही नहीं जा रहा अपितु अब निराश हो गए हैं लोग । इनकी कथनी और करनी एक समान नहीं है जैसे कोई समाज में शराफ़त का मुखौटा लगाए हुए जीवन में गुनाह करने से कोई संकोच नहीं करता हो । हज़ारों करोड़ की बर्बादी उनके  आयोजन सभाओं योजनाओं प्रचार प्रसार पर की जाती है जिसका उपयोग समाज के उत्थान पर की जानी चाहिए । लेकिन इनकी बेशर्मी की सीमा ही नहीं है क्योंकि इतने अन्याय ज़ुल्म कर के भी ये आपको कितना कुछ मिल रहा है समझा कर तालियां बजवाते हैं । धर्म उपदेशक भी इनके सामने अपना सर झुकाते हैं हमको संचय नहीं करने की कथा प्रवचन सुनाने वाले खुद कितना जमा किया किसलिए किया कभी नहीं बताते हैं । आपको अजीब लगा क्या न्याय दिवस से इन बातों का क्या मतलब है तो आपको अर्थशास्त्र का साधरण सा नियम बताते हैं , अधिकांश लोग इसी कारण शोषित वंचित बदहाल बेहाल भूखे गरीब हैं ये लोग उनके हिस्से का सब किसी न किसी तरह छीनकर खा जाते हैं । ये जब भी जो भी दिन मनाते हैं हालात से नज़रें चुराते हैं झूठ बोलकर खुद अपना ही राग गाते हैं ।  ये क़त्ल भी करते हैं और शोकसभा में आंसू भी बहाते हैं वास्तव में खुद हंसते है सभी को रुलाते हैं । 
 
 World Day for International Justice 2020: अंतरराष्ट्रीय न्याय दिवस का क्या  है महत्व और क्यो मनाते हैं इसे, जानिए

जुलाई 16, 2024

ये दुनिया ये महफ़िल ( खाना - ख़ज़ाना ) डॉ लोक सेतिया

  ये दुनिया ये महफ़िल  ( खाना - ख़ज़ाना  ) डॉ लोक सेतिया 

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
 कोई भी किसी से कम नहीं है , किसी को भी कोई ग़म नहीं , सब  हमराज़ हैं अपने  , अपना कोई भी हमदम नहीं । सितम है जश्न बहार का पर झूठे ऐतबार का है , ये करिश्मा कारोबार का है , शायद ख़त्म नहीं होने वाले इंतिज़ार का है ।  छोटा नहीं यहां कोई शख़्स  , हर कोई सबसे बड़ा होने का तमगा लगाए था , ध्यान सभी का था उसकी तरफ जो इस महफ़िल को सजा कर सभी की औकात समझाए था । द्वार पर खड़ा था लेकिन कोई नहीं जानता कौन कितना बड़ा था कौन छोटा नहीं इस ज़िद पर अड़ा था । भीड़ में सभी लोग अकेले अकेले थे दुनिया जहान के हर किसी के सौ झमेले थे । कुबेर का खज़ाना जिसको मिल गया था इक नगर सोने का बना साथ पाया था दिल फिर भी नहीं माना किसी को देख मचल कचल गया था । दौलत के सभी पुजारी बड़ी शान से चले आये पैसा ख़ुदा है मानकर कदमों में सर झुकाये , कुछ लोग जाने क्यों बुलाने पर भी नहीं आये उनकी कमी खल रही थी दिल चाहता था बिना मनाये काश सभी मान जाएं आबरू को कैसे बचाएं दुनिया को किस तरह समझाएं थमती नहीं गर्म हवाएं । सब ख़ाली हाथ लौटे झोली भरी हुई थी सोचा नहीं था ऐसा दिल ही दिल में बहुत पछताये । 
 
कुछ दिन कुछ महीने का खेल तमाशा था आकाश ज़मीं पर कैसे चला आया कोई नहीं समझा वो था किसी बादल का आवारा साया जिस ने सच को छुपाया झूठ खुद अपने आप पे फिरता था इतराया । कितना बड़ा ख़ज़ाना जलाया था राख़ की चाहत में जब राख का ढेर छू कर देखा कोई चिंगारी बची थी अपना हाथ खुद जलाया । क्या बताएं कौन नाचा किस ने किस किस को नचाया मेरे अंगने में तेरा काम क्या कोई नहीं बता सका सवाल सुनते ही सीस को झुकाया करोड़पति से शानदार खेल ये है समझ आया । सभी अपने घर पर राजा दरबार में सवाली सब जानते है किस किस की जेब कैसे काटी , मांगी सभी ने थाली सोने चांदी वाली पर भूख कैसे मिटती बजाते रहे ताली सब भरा मगर ख़ाली ख़ाली । बुझ चुकी आग की बची राख की अलग बात थी दुल्हा दुल्हन बैंड बाजा बरात थी पिया मिलन की आस थी चांदनी साथ थी ।  
 
 
  पैसे का सब खेल है शोहरत की झूठी माया है हर किसी ने मेरे यार की शादी है लगता है जैसे सारे संसार की शादी है गीत की धुन पर नाचकर दिखाया है । अर्थ हर बात का समझ आया है , धर्म काम मोक्ष योग कला खेल राजनीति कौन है जो नहीं शामिल बरात में , खोया है खुद को तभी सब कुछ हाथ आया है । साकी खुद मयकदा बन सभी की प्यास बुझाता है कौन करीब कौन दूर है जाम से जाम टकराया है । हमको बिना पिए नशा छाया है सूरज को क्यों पसीना आया है । इक आईनाख़ाने की बड़ी चर्चा है शीशे का महल बनवाया है सब को सब दिखाई देता है चेहरा जिस ने छुपाया है आईना भी शर्माया है । शायद ये किसी जादूगर का कोई करिश्मा है देखने वालों को अपना गुज़रा ज़माना नज़र आया है , सच और झूठ जुड़वां भाई हैं गले से एक दूजे को लगाया है । कोई अमर्त्य सेन कहीं छुप कर खड़ा है अर्थव्यस्था को समझ रहा है सभी ने उसको भुलाया है भारत रत्न है नोबेल पुरुस्कार भी पाया है लेकिन उसका जीवन जिस मकसद की खातिर बिताया है देश समाज को नहीं भाया है । असमानता भेदभाव अन्याय लूट खसूट इतना अधिक बढ़ाया है कि कोई हिसाब नहीं याद सब कुछ मगर इंसानियत शराफ़त को भुला कर इक ऐसा समाज बनाया है जिस में रूह नहीं जिस्म भी नहीं सिर्फ इक धुंधला सा छाया हुआ साया है । कुछ भी नहीं पढ़ने को रहा लिखा था जितना आज सब मिटाया है ।
 
 भयावह है अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई - Sarita Magazine
 

जुलाई 13, 2024

चश्मदीद गवाह क़त्ल का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        चश्मदीद गवाह क़त्ल का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इतने साल तक खामोश रहने के बाद शायद उसकी अंतरात्मा जागी होगी तभी उस ने सार्वजनिक सभा में ये बताया कि जिस की तमाम लोग चिंता कर रहे हैं उसका तो कभी का क़त्ल किया जा चुका है । चारों तरफ सन्नाटा पसर गया और हर कोई उन के इस रहस्य को खोलने पर सकते में है । कोई उनसे सवालात ही नहीं कर सकता कि आपने खुद अपनी नज़रों के सामने ये हादिसा होते देखा फिर भी खामोश रहे । खुद उनको ही बताना पड़ा कि उस समय जिस का क़त्ल किया गया उस से मेरा कोई संबंध नहीं था अगर जान पहचान थी भी तो उस तरह की जिस तरह से दुश्मन से होती है । उसका ज़िंदा रहना मर जाना मेरे लिए कोई मायने ही नहीं रखता था , फिर आज जब समझ आई कि उसका वारिस बनकर मुझे मनचाहा सभी कुछ हासिल हो जाएगा तब करीबी रिश्ता बनाना ही पड़ा । 
 
  टीवी पर इस खबर को सुन कर मुझे भी इक घटना की याद आई है । इक सांध्य दैनिक अख़बार की गूंज शहर में सुनाई देती थी , उस को जाने कैसे इक गोपनीय पत्र मिला जिस में किसी बाबा के अपराधों का विवरण था । बिना किसी डर के अपनी औकात को समझे उस पत्रकार ने वो जानकारी अख़बार में छाप कर इक ऐसी भूल की जिस का अंजाम उस का सभी कुछ जलाकर राख होना सामने आया । पुलिस विभाग ने बाबा के अनुयाईयों पर रपट दर्ज करवा आगजनी करने वालों को मौके से ही गिरफ़्तार कर अदालत में पेश कर दिया । बाबा की पहुंच सरकार तक थी इसलिए दंगईयों को बचाने को पुलिस ने तमाम हथकंडे अपनाये लेकिन अदालत को यकीन कौन दिलाए । तब जिस का सब कुछ जलाया गया था उस को समझा कर समझौता करवाया गया और उस से झूठा ब्यान दिलवा कर आरोपी को बचाया गया । आंखों देखा हाल कविता उस घटना की वास्तविकता है कवि गोष्ठी में सरकारी मंत्री की उपस्थिति में ये कविता पढ़ी गई थी खूब तालियां बजी थी विडंबना की बात थी । 

कोई विश्वास करे चाहे नहीं करे उस घटना का कोई चश्मदीद कभी सामने नहीं आया , समझौता भी अमल में नहीं लाया गया था । आज जिस का क़त्ल हुआ बताया गया है उस अपराध का दोषी भी क़त्ल किया जा चुका है ऐसे में इंसाफ़ या सच्चाई की बात नहीं है ये आपदा का अवसर बनाना है लेकिन कब जब सभी कड़वी बातों को पीछे छोड़ वहां से कितना आगे निकल चुके हैं । अधिक नहीं कहते पुरानी हास्य-व्यंग्य कविता दोबारा पढ़ते हैं । याद करना चाहता नहीं मगर भूल भी नहीं सकते कि अभी भी किसी अदालत में कुछ लोगों पर अपराध का मुकदमा चल ही रहा है कोई फ़ैसला हुआ तो नहीं । पता चला है कि उस घटना के भी वही शख़्स चश्मदीद गवाह हैं मगर उसकी गवाही देने को अंतरात्मा से अभी कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी शायद । कहते हैं कि किसी और पर लांछन लगाने से पहले खुद अपने गिरेबान में अवश्य झांकना चाहिए । किसी को अपराधी मानकर उस पर पत्थर फैंकना हो तो शुरुआत वो शख़्स करे जिस ने कभी कोई पाप नहीं किया हो । ये सुनकर सभी के हाथ से पत्थर गिर गए थे कोई साक्ष्य कोई बेगुनाही का प्रमाणपत्र नहीं अपने भीतर से सभी जानते हैं इस दुनिया में सभी से कभी न कभी गुनाह हुआ होता है । राजनीति वैसे भी इक ऐसी दलदल है जिस में धंसा कोई भी साफ़ सुथरा रह पाए बहुत कठिन है , हुए हैं कुछ थोड़े से ऐसे लोग जिनको सत्ता से अधिक सामाजिक मूल्यों की कदर थी । अजब हाल है जिन के घर कांच के बने हैं वो भी दूसरों पर पत्थर उछालने का कार्य करने लगे हैं । दर्पण कोई नहीं देखता अन्यथा चेहरे पर दाग़ किसी से कम नहीं दुनिया भले आपकी नकली चमक दमक से प्रभावित हो इक अदालत है ऊपरवाले की जिस से कुछ भी छिपा नहीं है ।
 

आंखों देखा हाल ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुबह बन गई थी जब रात
ये है उस दिन की बात
सांच को आ गई थी आंच 
दो और दो बन गए थे पांच।

कत्ल हुआ सरे बाज़ार 
मौका ए वारदात से
पकड़ कातिलों को
कोतवाल ने
कर दिया चमत्कार।

तब शुरू हुआ
कानून का खेल 
भेज दिया अदालत ने 
सब मुजरिमों को सीधा जेल।

अगले ही दिन
कोतवाल को
मिला ऊपर से ऐसा संदेश
खुद उसने माँगा 
अदालत से
मुजरिमों की रिहाई का आदेश।

कहा अदालत से
कोतवाल ने
हैं हम ही गाफ़िल 
है कोई और ही कातिल।

किया अदालत ने
सोच विचार 
नहीं कोतवाल का ऐतबार
खुद रंगे हाथ 
उसी ने पकड़े  कातिल 
और बाकी रहा क्या हासिल।

तब पेश किया कोतवाल ने 
कत्ल होने वाले का बयान 
जिसमें तलवार को 
लिखा गया था म्यान।

आया न जब 
अदालत को यकीन 
कोतवाल ने बदला 
पैंतरा नंबर तीन।

खुद कत्ल होने वाले को ही 
अदालत में लाया गया 
और लाश से
फिर वही बयान दिलवाया गया।

मुझसे हो गई थी
गलत पहचान 
तलवार नहीं हज़ूर 
है ये म्यान  
मैंने तो देखी ही नहीं कभी तलवार
यूँ कत्ल मेरा तो 
होता है बार बार 
कहने को आवाज़ है मेरा नाम 
मगर आप ही बताएं 
लाशों का बोलने से क्या काम।

हो गई अदालत भी लाचार 
कर दिये बरी सब गुनहगार 
हुआ वही फिर इक बार
कोतवाल का कातिलों से प्यार।

झूठ मनाता रहा जश्न 
सच को कर के दफन 
इंसाफ बेमौत मर गया
मिल सका न उसे कफन।  
 
 बाबरी मस्जिद विध्वंस का आंखों देखा हाल - saw the condition of babri masjid  demolition with my own eyes-mobile

जुलाई 12, 2024

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी { हत्या हुई फिर भी ज़िंदा है } ( सरकारी फ़रमान ) डॉ लोक सेतिया

  हत्या हुई फिर भी ज़िंदा है ( सरकारी फ़रमान ) डॉ लोक सेतिया  

अध्यादेश जारी किया गया है कि उस दिन संविधान की हत्या हुई थी , इमरजेंसी लगी थी इस विषय पर बहुत कुछ सभी ने लिखा है पहले भी । मैंने भी हमेशा उसका विरोध किया है खुद गवाह रहा हूं 25 जून 1975 की दिल्ली में रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की सभा में भाषण सुनने वाली भीड़ में शामिल था । लोकतंत्र को लेकर सवाल उठते रहते हैं कितना स्वस्थ है कितना बीमार है लेकिन संविधान की हत्या का प्रमाण जारी करना किसी नीम हकीम का ज़िंदा को मुर्दा बताना जैसी बात नहीं है । संविधान की शपथ उठाकर सरकार बनाने संसद का सदस्य बनने वाले क्या किसी निर्जीव किताब की बात कर रहे थे अर्थात उनको भरोसा ही नहीं था कि देश ने जिस संविधान को अपनाया उसे कभी किसी राजनेता ने अगर क़त्ल किया तो सभी खामोश बैठे देखते रहे होंगे । तमाम लोग आपात्काल में भी तमाम तरह से विरोध जताते रहे लेकिन जो जेलों में बंद थे उनकी चिंता संविधान होनी चाहिए थी जबकि आपात्काल हटते ही वो तमाम लोग संविधान को भूलकर सत्ता का शतरंज का खेल खेलने लगे थे और कुछ ही महीने बाद आपसी खींचतान ने जनता को निराश कर दिया और विपक्षी दलों की जनता पार्टी सरकार को अपने स्वार्थों की खातिर गिरा दिया गया । आज भी कुछ लोग जो कहते हैं उन्होंने आपात्काल में संघर्ष किया वास्तव में जेल जाने से डरे हुए छिपते फिरते थे , मैंने तब निडर होकर ऐसे लोगों को अपने घर में रखा था । 
 
संविधान ज़िंदा है कभी कोई उसकी हत्या नहीं कर सकता है  झूठा है ये सरकारी अध्यादेश । महात्मा गांधी की हत्या की जा सकती थी इंदिरा गांधी की भी हत्या की जा सकती थी लेकिन कोई तानाशाह कितना भी खुद को ताकतवर समझता हो देश के संविधान की हत्या की कोशिश भी नहीं कर सकता है । भारत एक शांति का संदेश दुनिया को देने वाला देश है लेकिन अपने संविधान की रक्षा खुद जनता करना जानती है । संविधान है लोकतंत्र ज़िंदा है तभी जो भी आज सत्ता पर बैठे हैं उनको अवसर मिला है जैसा ये हत्या हुई की घोषणा करता अध्यादेश समझाना चाहता है वैसा कदापि संभव नहीं अन्यथा क्या पिछले करीब 49 साल तक संविधान कोई मुर्दा लाश था ऐसा कहना शोभनीय नहीं अचरज की बात है । सत्ता की लड़ाई में भी इक मर्यादा का पालन किया जाना चाहिए लेकिन लगता है कुछ लोगों को संविधान सिर्फ सत्ता हासिल करने को इक मार्ग है कोई जीवंत आदर्श ग्रंथ नहीं जैसा सिख धर्म में गुरुग्रंथ साहिब को मानते हैं । वास्तव में हमने अपने सभी धर्म ग्रंथों को इसी तरह समझ लिया है उन से कोई सबक नहीं लेते केवल कहने को शीश झुकाते हैं पूजा करते हैं उन की समझाई राह पर चलते नहीं कभी । धर्मों का हाल सामने है कोई एक मिसाल देने की ज़रूरत नहीं है मगर उस ढंग से संविधान को हत्या हो चुकी है ऐसा सोचना भी देश समाज को रसातल में धकेलना है । 
 
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी , सत्ता का मनमाने ढंग से उपयोग किस किस ने कितनी बार किया असली सवाल यही है । आपात्काल की घोषणा भी संविधान में प्रावधान का उपयोग कर की गई थी और धारा 370 भी संविधान के अनुच्छेद का हिस्सा था उसको हटाया भी गया संविधान में बदलाव कर । दोनों ही कार्य कितने सविधान की भावना और लोकतान्त्रिक मर्यादा को ध्यान में रख कर किए गए और कितना किसी और सत्ता की चाहत को महत्व देने को ऐसे सवाल अनगिनत हैं । विडंबना है कि हर मनोनीत अथवा निर्वाचित शासक अभी भी जब जैसा चाहता है नियम कानून को मनमाने तरीके से बदल या परिभाषित कर लेता है । संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा का राजनेताओं में नितांत अभाव रहा है , कोई चाहे परिवारवाद को बढ़ावा दे या किसी संगठन की विचारधारा को महत्व दे अंतर कुछ भी नहीं है । छाज तो बोले छलनी क्या बोले जिस में हज़ारों छेद हैं । संविधान को जो मानते नहीं थे बदलना चाहते थे जिन्होंने कभी देश की आज़ादी में कोई योगदान नहीं दिया बल्कि गुलामी को पसंद करते थे उनसे संविधान की चिंता की बात पचती नहीं है । 
 
कुछ पोस्ट पहले की लिखी हुई हैं नीचे लिंक दिया गया है :-
 
  https://blog.loksetia.com/2014/01/blog-post_2.html

https://blog.loksetia.com/2014/01/blog-post_26.html

https://blog.loksetia.com/2024/05/blog-post_9.html

https://blog.loksetia.com/2024/06/blog-post_27.html
 
देश में अब 25 जून को मनेगा संविधान हत्या दिवस, केंद्र सरकार ने जारी किया  नोटिफिकेशन - modi govt declares 25th june as samvidhan hatya diwas to  honour sacrifices of people during

जुलाई 11, 2024

झूठ ही अपनी पहचान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     झूठ ही अपनी पहचान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

ख़त्म हो चुकी सच की पहचान है , हर गली में खुली झूठ की दुकान है । दुनिया में सबसे बड़े झूठे हैं हम लोग अब यही अपनी असली पहचान है । सच कभी भूले से मुंह से निकला अगर झट निकाल फैंका उसी में जो दरवाज़े पर बाहर रखा इक पानदान है । झूठ का इतिहास लिखता कोई नहीं और हमारा इक वही अरमान है । हमने हमेशा झूठ को चुना है है अमर वही सच चार दिन का मेहमान है सच को करना है दफ़्न ऐसी जगह जिस जगह दफ़्न सभी का ईमान है । झूठ का देवता आपको दिखाएं हर जगह उसका घर हर बाज़ार उसका ही है कारोबार सबसे ऊंची उसकी आन बान शान है झूठ ही मुल्क़ बना कितना महान है । पाप पुण्य क्या हैं झूठ ऐसा बड़ा दान है जितना बड़ा झूठा है लगता है जैसे भगवान है । ज़िंदगी भी झूठ है मौत भी इक झूठ है आदमी अब आदमी ही नहीं झूठ का कोई सामान है देश अभी भी सोने की खान है कोयला महंगा सस्ती जान है । है कोई जो झूठ से अनजान है कोई मिले अगर सबसे बड़ा नादान है झूठ सबके मन को भाता है अपनी चाहत अपनी शोहरत अपनी दौलत पर वही इतराता है सच को झूठ जो बनाता है इस जहां का वही विधाता कहलाता है । सच आजकल झूठ से घबराता है हर किसी से दूर भाग जाता है झूठ बिना बुलाए चला आता है खुद भी खाता है दुनिया को खिलाता है बजट जब भी कोई बनाता है झूठ का बही खाता सबके मन भाता है । आप सभी कुछ भी मत यार करो सिर्फ और सिर्फ झूठों का ऐतबार करो , सच को हमेशा दरकिनार करो , झूठ को जी भर कर प्यार करो । 
 
सच खड़ा है बिल्कुल नंगा है उसको आती लाज है सर पर झूठ के सोने का ताज है पुराना युग ख़त्म हुआ सामने है जो भी जैसा भी वही आज है । संसद अदालत से प्यार मुहब्बत तक झूठी कसमें सभी खाते हैं जो सबसे बड़े झूठे हैं सत्यवादी कहलाते हैं । आशिक़ अपनी महबूबा को दुनिया की सब से हसीं कहते हैं प्यार और जंग में सब जायज़ है फ़रमाते हैं हुस्न वालों को आईना कभी नहीं दिखलाते हैं चेहरे पर मेकअप लगा किस किस पर सितम ढाते हैं । सच बोलना मना है जनाब खफ़ा हो जाते हैं तारीफ़ झूठी सुनाओ फिर से करीब आते हैं मान जाते हैं । झूठ की कीमत बढ़ती जाती है ईमानदारी हाथ मलती रह जाती बाद में बहुत पछताती है । झूठ की काली घटा सुबह शाम छाती है सच की धूप से आपको बचाती है झूठ की बारिश झूमती है गाती है दुनिया को रोज़ नया रंग समझाती है । सरकार है दुनिया में आती है लौट आती है झूठ की जो दौलत है ख़त्म कभी नहीं होती है सत्ता हंसती मुस्कुराती है जनता को जी भर रुलाती है । सच की जितनी पसलियां हैं टूट कर चूर चूर हो जाती हैं झूठ की छाती चौड़ी होकर जश्न मनाती है । सबसे समझदार वही है सब झूठों का सरदार वही है चोर भी है थानेदार वही है समझो सब संसार वही है । झूठ की तेज़ है रफ़्तार बहुत महंगी है उसकी कार बहुत कहानी लंबी कौन सुनता है हमने संक्षेप में समझा दिया है झूठ की कथा का सार बहुत । झूठ का होना है अभी विस्तार बहुत । अंत में इक मित्र शायर का शेर पेश है ' है कभी आसां कभी दुश्वार है ज़िंदगी तेरा अजब आकार है ' जवाहर ठक्कर ज़मीर  । 
 
 सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला Saiyan jhoothon - HD वीडियो सोंग - लता  मंगेशकर - दो आँखें बारह हाथ

जुलाई 10, 2024

दो किनारों की अनबन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        दो किनारों की अनबन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

नदिया के पुल आपसी तालमेल सहमति और दोनों की सहनशीलता पर टिके होते हैं , जब भी कभी कोई पुल ध्वस्त होता है अचानक गिर जाता है तो निर्माण की कमी ही नहीं होती है , आपसी तकरार भी कारण हो सकता है । विवाहित महिला पुरुष कितना एक दूसरे को समझते हैं रिश्ता कायम रहना इस पर निर्भर करता है । आदमी आदमी को जोड़ने वाले बंधन धीरे धीरे कमज़ोर होते जाते हैं कभी सात जन्म की बात हुआ करती थी आजकल चार दिन का भरोसा नहीं है । अख़बार टीवी चैनल वाले हर बात को बढ़ा चढ़ा कर कुछ भी नतीजा निकाल लेते हैं । सरकार पर इंजीनयर से अधिकारी और निर्माता कंपनी ठेकेदार तक को कटघरे में खड़ा कर देते हैं । ऐसे में इक उच्च स्तर की समिति से जांच करवानी अनिवार्य है उस में शामिल हैं इक अलग तरह के विशेषज्ञ जिनका जीवन ही आपसी संबंधों को लेकर शोध करते बीता है । किसी भी टूटे हुए पुल अथवा ध्वस्त इमारत के मलबे से कभी साबित नहीं किया जा सकता कि निर्माण सामिग्री कैसी थी । कभी किसी ने इस पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया कि सरकारी फाईलों में सभी बढ़िया हुआ ऐसा प्रमाणित है जिस के आधार पर शिलान्यास से शुरुआत तक सब खर्च और नियम पालन करने का लिखित प्रमाण उपलब्ध है ऐसे में केवल मौसम पर दोष देना उचित नहीं है । 
 
 ये बिल्कुल शादी संबंध जैसी बात है , लड़का लड़की की कुंडली स्वभाव पसंद सभी को परखा जाता है , सभी रीती रिवाज़ों और शुभ समय घड़ी पर सही जगह का चयन कर विवाह किया जाता है । दहेज से लेकर मंडप और होटल बैंक्वेट हाल की शानदार शोभा सजावट सभी आये मेहमानों की सुविधाओं तक कोई भी कमी कोई कसर नहीं होती और विवाह करवाने वाले भी सब ठीक से करवाते हैं खूब मनचाहा शुल्क लेते हैं बिचोलिये भी शुरू से आखिर तक सहभागी रहते हैं । इस सब के बावजूद शादी के बाद पति पत्नी में झगड़े अनबन होती रहती है कभी साथ रहते हैं कभी मनमुटाव बढ़ता है तो अलग अलग रहने लगते हैं कितनी बार समझौते होते हैं तब भी तलाक की ज़रूरत पड़ जाती है । कसूरवार दोनों खुद पति पत्नी होते हैं मगर झगड़े में आरोप झूठे सच्चे तमाम लगाते हैं निभ जाती तो कभी उन सब बातों का महत्व नहीं होता , टकराव होने पर खामियां ढूंढते हैं अच्छाई नहीं दिखाई देती । पुल भी बेबस हो जाते हैं जब दोनों किनारे तकरार करते करते पीछे हटकर फ़ासला बना लेते हैं ।
 
नदी क्या सागर पर कोई कितना बड़ा पुल बनाया जाए आखिर दोनों तरफ दो किनारों को सहना पड़ता है पानी का उतर चढ़ाव लहरों का किनारों से टकराव नियमित निरंतर होता ही है । पुल कैसे टिकेगा अगर दोनों किनारे आपसी फ़ासला बढ़ाने लग जाएं । पुलों का टूटना पहले भी होता था लेकिन इतना जल्दी नहीं जैसे आजकल इक चलन चल पड़ा है जिधर देखते हैं पुलों में गिरने की होड़ लगी है । किनारों की आपसी अनबन इतनी बढ़ती जाती है कि किनारों की हालत से परेशान पुल बेचारा ख़ुदकुशी कर अपना अंत कर लेता है । उस के बाद क्या होता है दोनों किनारों का फिर से गठबंधन करवाने को इक नया पुल बनवाने की चर्चा होने लगती है और जब पुनर्विवाह की तरह नया पुल नहीं बनता पुल टूटने की बात होती रहती है । जांच आयोग की समस्या का समाधान हो गया है अन्यथा कितना कठिन था फ़ैसला करना की जब पुल बनना शुरू हुआ और जब तक बनकर उद्घाटन हुआ कौन किस किस पद पर था किस की गलती थी । पहले भी कभी किसी को कोई सज़ा नहीं मिली केवल आरोप लगाकर बदनाम किया गया इस बार बदनाम भी क्यों किया जाए ये पहेली थी जिस का हल मिल ही गया है । आपसी रिश्तों का टूटना सामान्य घटना है ।
 
( अस्वीकरण :- इस रचना का किसी व्यक्ति घटना से कोई संबंध कदापि नहीं है ये इक काल्पनिक कथा है ) 
 
 
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जुलाई 09, 2024

आज हमने छोड़ दिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आज हमने छोड़ दिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

 सभी समझाते हैं और मैं भी मान जाता हूं छोड़ देना है , छोड़ना ही है किसी दिन , चलो आज से छोड़ देता हूं । कुछ ख़ास है भी नहीं मेरे पास जिसे छोड़ने से कुछ बदलेगा , हाथ में इक कलम की तरह स्मार्ट फोन या इक लैपटॉप ही तो रहता है मेज़ पर , किसी को इनकी ज़रूरत नहीं बस लिखना उन सभी को थोड़ा नागवार गुज़रता है । जब भी छोड़ने की तैयारी करता हूं कुछ बात कोई घटना कोई विषय सामने ख़ुद ही चला आता है तब चलो आज कसम तोड़ देते हैं छोड़ने की बात को ही छोड़ देते हैं । इक कहावत है नशा कोई भी हो जाता नहीं है सुबह तौबा करते हैं पीने वाले शाम होते ही आख़िरी बार जाम छलका लेते हैं सोचते सोचते उम्र बीत जाती है । ज़माने वाले कितना कुछ बटोरते रहते हैं जितना भी मिले थोड़ा लगता है रत्ती भर भी हाथ से फिसले कैसे मुमकिन है , लेकिन बड़े लोग बड़ी बड़ी बातें दुनिया को नसीहत देने का लुत्फ़ ही और है । हम क्या हैं लोग दामन बचा कर निकलते हैं हमने किसी का दामन कभी पकड़ा ही नहीं छोड़ना छुड़ाना क्या होता है क्या मालूम । महफ़िल सजाना छोड़ दिया हमने आना जाना रूठना मनाना छोड़ दिया दुनिया को समझना अपने को भी समझाना छोड़ दिया हर अफ़साना छोड़ दिया ज़िंदगी से रिश्ता नाता तोड़ लिया । कश्ती का रुख किनारे से और भी फ़ासला बढ़ाने को उधर मोड़ दिया दिल का किस्सा अनकहा रहने दिया मुंह मोड़ लिया जिस तरफ मुहब्बत बिकती उधर से गुज़रना छोड़ दिया । आज हमने निराशा को छोड़ आशा से रिश्ता जोड़ लिया है । 
 
वो जो मुझे बड़े ही प्यार से दोस्त बनकर समझा रहे थे छोड़ देने को , खुद कितना कुछ पकड़े जकड़े हैं अभी सागर को अपने भीतर भरने को व्याकुल हैं । कारोबार के साथ कितने और खेल खिलवाड़ उन्होंने फैलाए हुए हैं समाज सेवा से लेकर राजनीति का कितना बोझ उठाए हुए हैं । कितने घर बदल कर वापस जहां से चले लौट आये हुए हैं । पिछली बार मिले तो कहने लगे भाड़ में जाएं जो लोग उनको अपना भाग्य विधाता नहीं बनाते नहीं समझना चाहते । इतने प्यासे हैं जैसे खुद से उकताए हुए हैं । बोलते बहुत हैं बोल कर झट से दूर चले जाते हैं हमको लिखने को छोड़ जाते हैं । सौतन की बेटी फ़िल्म से सावन कुमार का लिखा गीत किशोर कुमार की आवाज़ में पढ़ने को प्रस्तुत है ।  लिखना नहीं बोलना भी नहीं कोई बात नहीं सोचने समझने को दुनिया की अजीब बातें सुनने से अच्छा है कुछ दिल को छूने वाले पुराने गीत सुन कर सभी को पढ़ने को दोहराये जाएं सुकून मिलेगा ।
 
कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?
कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?
 इसलिए चुप रहते हैं ,

हमसे अपने, रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 

मेरी सूरत देखने वालोंमैं भी इक आइना था
 
टूटा जब ये , शीशा ये दिलसावन का महीना था ,
 
टुकड़े दिल के किसको दिखाएँ ?इसलिए चुप रहते हैं
हमसे अपने, रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 


आज ख़ुशी की , इस महफ़िल मेंअपना जी भर आया है ,

ग़म की कोई बात नहीं हैहमे ख़ुशी ने रुलाया है ,

आँख से आँसू बह ना जाएँइसलिए चुप रहते हैं ,
हमसे अपने रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 

प्यार के फूल चुने थे हमनेख़ुशी की सेज सजाने को
 
पतजड़ बनकर आई बहांरेंघर में आग लगाने को ,

आग में गम की जल न जाएँ
इसलिए चुप रहते हैं । 

कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?

इसलिए चुप रहते हैं , इसलिए चुप रहते हैं ।


ये भी जैसे कोई अधूरा ख़्वाब था दोस्ती प्यार रिश्तों का सभी का बकाया चुकाना है असल साथ ब्याज भी जोड़कर हिसाब था कि कोई किताब था । उलझन नहीं थी बीत गई सो बात गई शिकवे गिले पुराने सभी छोड़ना ही पड़ता है दिल से दिल जोड़ने को यादों का दर्पण तोड़ना ही पड़ता है । ख़िज़ाओं का मौसम ज़िंदगी भर आस पास रहा है सूखे पत्तों को डाली से तोड़ना नहीं पड़ता ख़ुद ही शाख़ से टूट कर बिखर जाते हैं । यहां लोग मौसम की तरह मिजाज़ बदलते हैं , कभी अंदाज़ कभी अल्फ़ाज़ कभी अपनी आवाज़ बदलते हैं , हम जैसे लोग टूटा हुआ साज़ हैं सुर निकलता है साथी ढूंढते हैं दुनिया वाले हमदर्द बदलते हैं हमराज़ बदलते हैं । कभी बहुत पहले इक फ़िल्म देखी थी बहारें फिर भी आयेंगी उस में  कैफ़ी आज़मी का लिखा गायक महेन्दर कपूर का गाया गीत दिल को गहराई तक छू गया , बदल जाये अगर माली चमन होता नहीं ख़ाली आज आपको पढ़ने को पेश करता हूं ।

 

बदल जाये अगर माली  , चमन होता नहीं ख़ाली 

हारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

थकन कैसी घुटन कैसी , चल अपनी धुन में दीवाने 

खिला ले फूल कांटों में , सजा ले अपने वीराने

हवाएं आग भड़काएं , फ़ज़ाएं ज़हर बरसाएं 

बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

अंधेरे क्या उजाले क्या , ना ये अपने ना वो अपने 

तेरे काम आयेंगे प्यारे , तेरे अरमां तेरे सपने 

ज़माना तुझ से हो बरहम , ना आए राहबर मौसम 

बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

Niharika Haihayvanshi Quotes | YourQuote


जुलाई 08, 2024

की इनायत ठुकरा कर मुझे ( परायापन ) डॉ लोक सेतिया

      की इनायत ठुकरा कर मुझे ( परायापन ) डॉ लोक सेतिया  

दिल नाहक उदास रहता था ये सोच कर कि हर शख़्स मुझे ठोकर लगा कर चला जाता है काश कोई मुझे अपना बनाता गले से लगाता । आज ख़्याल आया ज़हन में इक सवाल आया ऐसी भी बात नहीं थी दुनिया की ठोकर खाने में किस लिए कोई मलाल आया । भला इस ज़माने में कौन किसी को लेकर चिंता करता है हर कोई खुद अपने लिए चाह रखता है आह भरता है अपनापन प्यार न सही मुझे सभी ने अपनी नफ़रत के तो क़ाबिल समझा । हर किसी पर निगाह नहीं जाती दुनिया वालों की पसंद नहीं किया तो कोई बात नहीं बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से देखा यही क्या कम है । सितम भी अपना समझ करते होंगे शायद कभी मोहब्बत की आरज़ू भी करते होंगे कभी तो लोग सितम कर के पछताते भी हों , तन्हाई में मुझे दिल से लगाते भी हों । हां मैंने हर किसी पर ऐतबार किया है ख़ुद को छोड़ सभी ज़माने वालों से बेइंतिहा प्यार किया है । लंबा है ज़िंदगी का सफ़र कोई आख़िर तक साथ निभाता कैसे रास्ते बदलते हैं दोहरे पर सब बिछुड़ जाते हैं गुज़री राहों को वापस मोड़ कर कोई लाता कैसे अलग अलग राहों की फिर मिलाता कैसे । कभी जिन राहों पर चले थे साथ कारवां बनकर बिखरे हुए तिनकों को अंचल में सजाता कैसे , दर्द में गैर के अश्क़ बहाता है कौन विरह की रात मिलन के गीत गुनगुनाता कौन है । घर छोड़ कर गया कभी लौट भी आये मुमकिन है दुनिया ही छोड़ गए जो उनकी राह देखना फ़ज़ूल है बीता वक़्त फिर नहीं आएगा ये समझाने भी आता कौन है । भूले बिसरे नग्में भूली बिसरी यादें कुछ ख़त कुछ तस्वीरें कितना अनमोल ख़ज़ाना है याद नहीं करते जो भुलाता कौन है ये कागज़ नहीं हैं आरज़ूएं हैं उन को जलाता कौन है । जाने क्यों किसी के कदमों की आहट सुनाई देती है नज़र जाती है दरवाज़ा ख़ुला है कब से आता जाता कौन है । 
 
ऐसा नहीं कि मुझे ये समझ ही नहीं आया कि सभी को मुझसे अनगिनत शिकायत हैं तो किस कारण से हैं । हर कोई मुझसे चाहता था जैसा हो जाना मुझे स्वीकार ही नहीं था बन सकता भी कैसे । हैरान थे कोई नहीं मुझे समझता मेरा साथ निभाता फिर भी मैं अपने हालात से परेशान होते हुए भी घबराता नहीं कभी किसी के सामने जाकर प्यार की अपनत्व की ख़ैरात नहीं मांगता अपना दुःख दर्द नहीं सांझा करता किसी से कभी । अपनी निराशा अपनी तन्हाईयां अपना खालीपन खुद ही मिटा लेता हूं कभी छुप कर रो लेता कभी महफ़िल में हंस मुस्कुरा लेता हूं । बोझ ज़िंदगी का खुद अपने कंधों पर उठा कर हौंसलों को आज़मा लेता हूं । ज़ुल्म सहना सीख लिया है अपने ज़ख्मों को खुद सहला लेता हूं कभी तक कर कुछ पल रुकता हूं फिर अपने कदम आगे बढ़ा लेता हूं कोई मंज़िल का पता है न ही राह से वाक़िफ़ हूं अपनी नई राहें नित बना लेता हूं । कौन इस दुनिया में अकेला नहीं है ये ज़िंदगी भर का मेला नहीं है चार दिन की बात है उजाला है चाहे अंधेरी रात है । मौसम मौसम की बात है पतझड़ सावन बसंत बहार हमने किया सभी से प्यार करते हैं हमेशा इंतज़ार ।   
 

                 कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ पुरानी डायरी से प्रस्तुत हैं :- 

पलकों पे अश्क़ लेकर इंतिज़ार करते रहते हैं हम
काश मिल जाए तेरा पैग़ाम अश्क़ सूख जाने तक ।   
 
फिर आज तेरी याद आई है उदासी सी छाई है 
कहीं से किसी ने आवाज़ दे कर पुकारा मुझको ।
 
ज़रा सी आहट पर जो उठ जाती हैं दोस्त क्या 
अभी भी मेरे आने का इंतिज़ार तेरी नज़रों को है । 
 
ये दोस्ती ये प्यार न रास आएगा हमें ही 
वर्ना ये सारा जहां तो बेवफ़ा होता नहीं । 
 
इक चाह नहीं होगी पूरी कोई तो अपना हो 
लगता है हर ख़ुशी मेरी जैसे कि सपना हो ।   
 
Accept as it is...
 
 

जुलाई 07, 2024

पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया

पत्थर के इंसान सोने-चांदी के परिधान ( मेरा देश महान ) डॉ लोक सेतिया 

ऊपरवाला भी अजीब खिलाड़ी है किसी को नज़र ही नहीं देता दुनिया का नज़ारा देखने की , उनको कुछ भी दिखाई नहीं देता , धन दौलत सोना चांदी के अंबार की ऊंची दीवारें उनको कैदी बनाए रखती हैं । मिलता है इतना कि कोई हिसाब नहीं मगर सब का सही इस्तेमाल कैसे करना है उनको सूझता ही नहीं । मिट्टी से खेलते तो मिट्टी की खुशबू का पता होता बेजान धातुओं का रंग होता है चमक होती है कोई खुशबू नहीं होती है । जब संवेदनाएं ही नहीं होती तब बदन आदमी औरत का होने पर भी आत्मा रूह उस में बचती रहती नहीं बस चाहतें ख़त्म नहीं होती ज़िंदगी का ख़ालीपन मौत तक भरता नहीं है । बादशाह शासक अमीर पैसे और ताकत वाले लोग दुःख दर्द को जानते ही नहीं इंसानियत उनको छोड़ चली जाती है जो सिर्फ और सिर्फ खुद की खातिर अधिक से अधिक जमा करते रहते हैं । कोई शाहजहां की तरह अपनी महबूबा को ताजमहल से कीमती उपहार जीवन में दे कर समझता है उस से महंगा इश्क़ कोई इस दुनिया में शायद ही करेगा । अब प्यार मुहब्बत इसी तरह दौलत के तराज़ू में तोलते हैं अन्यथा दिल विल प्यार व्यार अमीर लोगों को कभी किसी काम की चीज़ नहीं लगती है । आधुनिक अर्थव्यस्था में पुराने ज़माने की चाहत को नासमझी नादानी मानते हैं इतनी फुर्सत किसे है कौन किसी का इंतिज़ार करे दिल को बेकरार करे , व्यौपार करे कारोबार करे एक को दो को चार सौ को हज़ार करे । 
 
ईश्वर ने सभी कुछ बनाया है सब की आवश्यकताओं की पूर्ति को बहुत है लेकिन किसी की अथवा कुछ लोगों की हवस को पूर्ण करने को धरती आकाश क्या पाताल तक कम पड़ते हैं । इंसान बस माटी का खिलौना है माटी से बनना माटी में मिलना है लेकिन बदनसीब होते हैं जिनको माटी क्या क़फ़न तक नसीब नहीं होता आखिर में चाहे इस जिस्म को कितने सुंदर शानदार महंगे लिबास पहनाओ जितना चाहे भरपेट खाओ । हर चीज़ की सीमा होती है उपयोग की उस से अधिक का इस्तेमाल बर्बादी कहलाता है , बड़ी शान वाले बर्बादी को भी समझते हैं उनकी बड़ी औकात है । ये कुछ ऐसे बेदर्द लोगों की सच्ची बात है लोग प्यासे हैं उनके घर पैसों की बरसात है । अपनी नेक कमाई से नहीं तमाम अन्य की हिस्से की सभी चीज़ों की लूट और छीन कर हासिल की धन दौलत से झूठी शान ओ शौकत की ज़िंदगी जीना किसी धर्म में उचित नहीं बतलाया गया है । ईश्वर जिनको अधिक देता है उनको बांटना होता है उनको जिनके पास कुछ भी नहीं है । 
 

रहीम और गंगभाट का संवाद  :-

 इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
अर्थात देने वाला तो कोई और है ईश्वर है जिसने मुझे समर्थ बनाया इक माध्यम की तरह , दाता तो वही है पर लोग समझते कि मैं दे रहा तभी मेरे नयन झुके रहते हैं । आज तक किसी नेता ने देश या जनता को दिया कुछ भी नहीं सत्ता मिलते ही शाही अंदाज़ से रहते हैं और गरीबी का उपहास करते हैं । कुछ लोग जो किसी तरह से धनवान रईस साहूकार बन गए उनको देखते हैं तो आडंबर पर पैसा बर्बाद कर गर्व का अनुभव करते हैं जो वास्तव में देश धर्म को समझते तो शर्म की बात लगती । उस पर कुछ धन दान देकर ढिंढोरा पीटते हैं बिना ये सोचे समझे की वो सब हासिल कैसे किया गया है ।

 ये नहीं आदमी न हैं ये कोई भगवान , इनकी कुछ और ही है पहचान इनसे डरते हैं इंसान इनसे घबराते हैं दुनिया भर के सभी शैतान । दुनिया होती है हैरान देख देख इनके परिधान लगते हैं चमकता सोना सजे हैं हीरे जवाहरात मोती लेकिन हैं कोयले की खान बस ये हैं चलती फिरती बाज़ार की इक दुकान । बिका हुआ है जिनका सब का सब भीतर का सामान , कोई दिल नहीं कोई धड़कन नहीं कुछ भी नहीं इनको होता कभी एहसास बस कोई मशीन हैं जैसे रहना बचकर ख़तरा बड़ा है इनके पास । पागलपन की बात मत पूछो दिन लगते हैं इनको रात , चैन की नींद ज़िंदगी का सुकून लगते हैं इनको कोई बकवास इनको नदियां और समंदर लगते हैं ख़ुद से छोटे बुझती नहीं कभी इनकी गहरी प्यास । ज़िंदा नहीं रूह नहीं है इन में मरना फिर भी लाज़िम होगा चाहतें हैं शाहंशाह जैसा आख़िरी अपना अंदाज़ , क़फ़न सिला हो सोने का जिस्म भी उनका बेशकीमती बन जाए भले ही राख । प्यार मोहब्बत ये नहीं समझते लेकिन अजब है इनकी कहानी खुद ही ताजमहल बनवाना है कहलाना है इक महादानी इनकी सोच पर होगी हैरानी , इनको अभी धन दौलत जमा करनी है अज्ञानता की सीमा तक दौड़ना है मृगतृष्णा में नज़र आता है रेत भी चमकती जैसे पानी । पढ़ी थी बचपन में इक कहानी इक था राजा ,  थी और इक रानी कठपुतली का खेल था शतरंजी चाल थी सोलह बरस की उम्र भी अभिलाषा सौ साल की तकदीर का था भरोसा आखिर ज़िंदगी दे गई धोखा बीच सफ़र में नैया डूबी , सब कुछ था नज़र के सामने सभी लोग खड़े थे दूर किनारे , हाथ भी छूटे आस भी टूटी किसको कौन क्या पुकारे सभी सहारे इस जीवन की बाज़ी को जीता कोई नहीं सभी हारे । 
 
आज़ादी मिली संविधान सबको बराबरी का हक़ देने की बात करता है , अजब लोकतंत्र है कोई महलों में कोई झौंपड़ी भी नहीं फुटपाथ पर रहता है । गरीब आदमी इस ज़ुल्म को ख़ामोशी से सहता है , सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान कहां है इक शायर कहता है । ये कैसा विधान है कुछ घरों के पास आधा जहान है जिसको आप नाम देते हैं शानदार गर्व करते हैं आधी आबादी को मिलता आखिर दो ग़ज़ ज़मीन जहां क़ब्रिस्तान है ।    आपको महल किसी की निशानी लगते हैं जो वास्तव में ज़ुल्मों की कोई एक नहीं कितनी दास्तानें होते हैं खंडहर होना ही है इक दिन । इतिहास झूठा भी होता है हक़ीक़त सामने नहीं दिखाई देती तब भी कोई शायर साहिर लुधियानवी कोई नज़्म ताजमहल लिख कर वास्तविकता उजागर कर देता है । हुए मर के हम जो रुसवा , हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया । न कभी जनाज़ा उठता , न कहीं मज़ार होता । ग़ालिब कहते हैं कि रुसवाई होती है मरने बाद लगता है कैसे शख़्स थे क्या करना था क्या करते रहे ज़िंदगी भर रोज़ जो लोग मरते रहे । धनवान लोगों ने शासक वर्ग राजनेताओं प्रशासन सभी ने देश को बर्बाद किया है इल्ज़ाम दिया है कि जनसंख्या अधिक है सदियां लगेंगी सब बनाने में , ये झूठ है कभी कोशिश ही नहीं की जाती जो लोग नीचे हैं पीछे हैं उनको ऊपर लाने आगे बढ़ाने की क्योंकि उनकी शान शौकत गरीब को और गरीब बनाने से ही बनी रह सकती है ।

मिर्ज़ा ग़ालिब पुण्‍यतिथि विशेष : "मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो  गईं" – News18 हिंदी
 

 
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क़ ए दरिया। न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता।। ग़ालिब
 

जुलाई 05, 2024

समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

   समझा नहीं जाना नहीं ईश्वर धर्म ( अज्ञानता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसा करने से पुण्य मिलेगा मनोकामनाएं पूर्ण होंगी समस्याएं दूर होंगी आदि आदि , ये तो लाभ हानि की बात हुई ईश्वर भगवान से इस का कोई मतलब ही नहीं है । कहीं जाकर कुछ करने से सभी पाप माफ़ हो जाते हैं क्या ये अच्छे कर्म करने की बात है कि बुरे कर्म पाप करते रहो जब मन में ग्लानि की भावना जागृत हो तो दिल को बहलाने को समझ लो ऐसा किया सब अपराध सारे गुनाह की सज़ा से बच गए । नहीं ऐसा किसी धर्म में नहीं समझाया गया है । ये सब जिन्होंने भी करने को कहा वास्तव में उनको धर्म ईश्वर से कोई मतलब नहीं था उनको किसी तरह से इस को इक कारोबार बनाकर अपना व्यवसाय चलाना था । जब शुरुआत हुई तब ये उनके पेट भरने का ढंग था लेकिन जैसे जैसे लोग स्वार्थी और खुदगर्ज़ बनते गए ये इक बड़ा कारोबार बन गया है । शायद ही संभव हो इसका पूरा गणित समझना लेकिन कोई भी अर्थशास्त्री आपको इतना बता सकता है कि देश में जितना धन धार्मिक आयोजनों पर समागम सत्संग धर्म उपदेश से सभी धर्मों के क्रियाकलाप पर खर्च किया जाता है अगर उतना धन गरीबी भूख और बेबस लोगों की सहायता पर खर्च किया जाता तो देश में कहीं भी कोई बदहाल नहीं दिखाई देता । दीन दुःखियों की सहायता करना वास्तविक धर्म होता है लेकिन हम उनको बड़ी ही हिक़ारत की नज़र से देखते हैं जाने क्या क्या कहते हैं ये लोग कुछ करते नहीं भीख मांगते हैं ।लेकिन हम खुद क्या करते हैं भीख़ भी देते हैं तो बदले में उस से कई गुणा अधिक पाने की कामना रखते हैं । दान धर्म पुण्य कुछ भी हम लोग निस्वार्थ भावना से नहीं करते हैं , शायद कई बार ऐसा भी मन में छुपी किसी आशा से करते हैं कि कोई आशिर्वाद दे कर हमको और धनवान या लोकप्रिय बना दे । 
 
धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते ही नहीं समझ कैसे सकते हैं और उन से कोई सबक सीख कर समाज की कोई भलाई करने का कोई प्रयास कैसे किया जा सकता है । हमको खुद अपने आप से फुर्सत ही नहीं जो आस पास समाज को देखें हम आत्मकेंद्रित बनते गए हैं । इतना तो सामने नज़र आता है कि हर तरफ भगवान और धर्म का शोर है तब भी वास्तव में अधर्म और पाप बढ़ते ही जा रहे हैं ख़त्म ही नहीं होते कभी । किसी एक की बात नहीं जितने भी लोग धर्म और ईश्वर के नाम पर धन दौलत हासिल कर खुद को महान कहलवाते हैं लगता नहीं उनको वास्तविक धर्म की स्थापना से कोई सरोकार भी है । तथकथित अनुयाई भी उन लोगों की असलियत को देखना समझना नहीं चाहते क्योंकि इस से उनकी खुद की मूर्खता और अज्ञानता सामने ही नहीं आती बल्कि उन्होंने जितना कुछ किया सब व्यर्थ था इस का भी पर्दाफ़ाश होता है । अज्ञानता मूर्खता पर इक आवरण है ये सब धार्मिक होने का दिखावा जो आपको सोशल मीडिया पर खूब दिखाई देता है हर कोई शायद बिना समझे पढ़े औरों को समझाता है आचरण करना कोई नहीं चाहता । लगता है जैसे इक घना कोहरा छाया हुआ है जिस ने ज्ञान और रौशनी के सूरज को छिपा दिया है और हम आंखों वाले अंधे बनकर उनकी बताई राह पर चलते जा रहे हैं जो खुद अपनी राह से भटके हुए हैं । आपको हैरानी नहीं होती जब आपके सभी गुरु धर्म उपदेशक खुद अपना कोई अभिमत नहीं व्यक्त करते बल्कि इधर उधर से साहित्य से चुराकर या फिर किसी कथा को अपनी सुविधा से बदलकर आपको प्रभावित करने की कोशिश करते हैं । कैसा लगता है जब धार्मिक सतसंग से श्रद्धांजली सभा तक में कोई फ़िल्मी गीत सुना रहा होता है आपको आनंद आता है तो फिर आपकी सोच पर तरस आता है । धर्म और ईश्वर को हमने क्या से क्या बना दिया है ये ऐसी विडंबना है जिस पर चिंतन किया जाना चाहिए अन्यथा परिणाम क्या होगा कौन जाने । 
 
अब थोड़ा सा सोच विचार करते हैं , जिस भी भगवान या परमात्मा ईश्वर ने दुनिया का सब कुछ बनाया होगा , उसको हमसे या किसी से कुछ भी चाहिए क्यों होगा जो सर्वशक्तिमान है उसे रहने पहनने खाने पीने को किसी इंसान जीव जंतु पक्षी जानवर पर आश्रित नहीं होना पड़ेगा । जो जब चाहे उपलब्ध हो जाएगा , रहने को उसे कोई जगह चाहिए तो खुद बन जाएगी आपके बनाए हमारे बनाए किसी भवन में रहना उसकी ज़रूरत होगी न ही विवशता । कौन हैं जिन्होंने उसे किसी मिट्टी पत्थर या अन्य वस्तु से बनाया ही नहीं बल्कि उसे जैसे कैदी बना कर अपने अधीन रख लिया जब चाहे सामने आये जब चाहे बंद कर दिया जाए । भगवान के साथ ये कैसा आचरण हो रहा है । ये दुनिया जिस भगवान ने बनाई कितनी खूबसूरत बनाई थी उसे किसी और जगह जाकर ठिकाना बनाने की चाहत क्यों होगी , लेकिन हम सभी ने उसकी बनाई दुनिया को तहस नहस कर दिया है उसे संवारा नहीं बर्बाद किया है तो हम उसे खुश कैसे कर सकते हैं । भगवान को अपना गुणगान करवाना क्या ज़रूरी लगेगा उसे इसकी आवश्यकता ही नहीं होगी , ये तो आदमी की फ़ितरत है उसे अपने को अच्छा कहलाना पसंद है । भगवान और इंसान में यही सबसे बड़ा फ़र्क है उसको किसी से कुछ भी नहीं चाहिए । अर्थात हमने भगवान और धर्म के नाम पर जो भी किया उसका कोई मकसद ही नहीं समझ आता । 
 
 दुनिया मेरे आगे: केंद्र और परिधि, सीमित दृष्टि में नहीं है जीवन का आनंद,  खुद को बड़ा बनाकर सोच के बंधन से मुक्त होना जरूरी | Jansatta

जुलाई 04, 2024

निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया

 निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया 

ये भजन मेरी माता जी हर समय गाती - गुनगुनाती रहती थी । मैंने फिल्मों में और सभी जगह बहुत भजन सुने हैं मगर मुझे जो अलग बात इस भजन में लगती है ,  कहीं और नहीं मिली अभी तलक । भजन का मुखड़ा ही याद है उसके बाद उस भजन की बात को खुद मैंने  , अपने शब्दों से सजाने का प्रयास किया है । ये भजन अपनी प्यारी मां को अर्पित करता हूं । मेरी मां श्रीमती माया देवी जी 5 जुलाई 2004 को दुनिया को छोड़ चली गई थी नहीं मालूम कहां फिर भी हमको उस का होने का एहसास हमेशा रहता है , वो जिस भजन गाया करती थी कुछ इस तरह से है । 29 मई 2017 को ब्लॉग पर लिखा है वही प्रस्तुत कर रहा हूं । 
                    

          (  तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने , इक भजन सब से अलग है  )


भगवन बनकर तू अभिमान ना कर ,
तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने ।

पत्थर से तराशी खुद मूरत फिर उसे ,
मंदिर में है सजाया हम भक्तों ने ।

तूने चाहे भूखा भी रखा हमको तब भी ,
तुझे पकवान चढ़ाया हम भक्तों ने ।

फूलों से सजाया आसन भी हमने ही ,
तुझको भी है सजाया हम भक्तों ने ।

सुबह और शाम आरती उतारी है बस ,
इक तुझी को मनाया हम भक्तों ने ।

सुख हो दुःख हो हर इक क्षण क्षण में ,
घर तुझको है बुलाया हम भक्तों ने ।

जिस हाल में भी रखा है भगवन तूने ,
सर को है झुकाया हम भक्तों ने ।

दुनिया को बनाया है जिसने कभी भी ,
खुद उसी के है बनाया हम भक्तों ने । 

 
आजकल तमाम जगह जैसे जश्न मनाना हो , भीड़ बनकर किसी इंसान को अपना भगवान समझ कर करोड़ो लोग इक अंधविश्वास के जाल में फंस कर भटकते भटकते कई बार जीवन से हाथ धो बैठते हैं । उसको खोजना या पाना नहीं जानना होता है चिंतन मनन कर खुद अपने आप अकेले शांत मन से लेकिन हम कठिनाई से डरते हैं और चाहते हैं ईश्वर को आसानी से मिल जाएं । ईश्वर हमको आसानी से नहीं मिलता कभी भी जो हमको कहीं आश्रम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा बुलाते हैं वो कुछ भी हो सकते हैं ख़ुदा या भगवान नहीं । हमने सोचा कि जैसा हम चाहते सोचते समझते हैं भगवान वैसा ही होगा , जबकि बात उल्टी है हमको उस तरह सा इंसान बनना होगा जैसा भगवान चाहता है । इतने भगवान बन गए बना लिए हैं कि बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं महंगाई में कौड़ियों के भाव भगवान बिकते हैं अचरज की बात है जो जब चाहे उसे देख कर आशिर्वाद प्राप्त कर सकता है , मानो भगवान भी सोशल मीडिया का संदेश है जितना चाहो फॉरवर्ड करते जाओ कोई सीमा नहीं । हादसा होने के बाद किसी को कुछ समझ नहीं आता कि ये किस का कर्तव्य था किस ने कोताही बरती कोई तो ज़िम्मेदार ज़रूर है । 

लाशों से कौन पूछे आये थे कहां चल दिए कहां 
समझा ही नहीं उस जगह उनकी दर्द भरी दास्तां ।
 
भीड़ थी जिस जगह भगवान वहां रहते नहीं कभी 
राह संतों की एकांत की भक़्तों का कैसा कारवां । 
 
ध्यान चिंतन मनन ईश्वर की उपासना होती नहीं 
महलों में धर्म सभाओं में हर तरफ होता कोई धुंवां । 
 
किसको है देखना आपको धरती नहीं वो है आस्मां 
तिनके को क्या खबर अपना कहीं भी नहीं है निशां । 
 
भगवान खुश नहीं होते रोज़ ये ही हादसा देख कर उनको लगता है कितने बेबस हैं , भगवान को भीड़ देख कर परेशानी होती है इतनी आवाज़ें इतना शोर कुछ समझ नहीं आता कुछ भी सुनाई नहीं देता । ऊपरवाला हैरान है ये कौन कैसा नादान है जो आदमी खुद को बना बैठा भगवान है । भगवान होना है हर किसी का अजब अरमान है भीतर मगर रहता छुपा हुआ शैतान है । भगवान जिस ने दुनिया बनाई सभी का अस्तित्व बनाया इक पहचान बनाई खुद उसी को लगता है जिसे देखो मेरा नाम ओ निशां मिट्टी में मिलाना चाहता है , विश्वास पर ईश्वर के कितने सवाल खड़े हैं कौन अपने भक्तों को बचाना चाहता कोई है जो ज़िंदगी का मातम मनाने को भीड़ बुलाना चाहता है । असली का कुछ अता पता नहीं अभी तक सभी काल्पनिक भगवान से नाता बनाए हैं सबको अपनी मर्ज़ी अपनी पसंद का सामान ही नहीं भगवान भी चाहिए , ये बात समझ कर तमाम लोगों ने भगवान का बाज़ार लगाया हुआ है आजकल यही सबसे अधिक मुनाफ़े का व्यौपार है हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा । भगवान देवी देवता सब कर सकते हैं तो अपने दर्शन करने आये अनुयाईयों श्रद्धालुओं की रक्षा कैसे नहीं कर सके सवाल तो है । खुद वास्तविक भगवान लोगों को इन सभी से बचाएं इतनी प्रार्थना है ।

कला दर्पण | • अहमद फ़राज़ 🥀 Follow : @kala.darpan Like comment share  ----------------------- #kaladarpan #कलादर्पण #ahmadfaraz  #ahmadfarazpoetry… | Instagram
 

जुलाई 03, 2024

उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी नहीं अक़्सर होता है आधी रात को नींद खुलती है और मन में कुछ घटनाओं को लेकर विमर्श होने लगता है बेचैनी में नींद आये भी कैसे हम सोना नहीं चाहते जागकर समझना अच्छा लगता है । अधिकांश मैं लिखने बैठ जाता हूं और विचार खुद ब खुद आते रहते हैं लेकिन आज , कल रात से लिख नहीं पाया क्योंकि मन में इतनी निराशा भरी थी कि सिर्फ़ अंधकार दिखाई देता लगता था । मगर चाहे कितना भी घना हो कोई अंधेरा कोई न कोई किरण उजाले की कहीं से चीरती अंधकार को मिटाती अवश्य है । जीवन में और समाज में हालात जितने भी खराब हों हमको उन से बाहर निकलना ही चाहिए घबरा कर हार नहीं मानते हैं । हर व्यक्ति कभी न कभी लगातार जूझते जूझते थकने लगता है ऐसे में उसे साहस को फिर से जगाना होता है बिखरे सपनों को टूटी आशाओं को जगाना पड़ता है । ज़िंदगी का यही संघर्ष ऊर्जा देता है उस सब बुराई बदसूरती को अच्छाई और ख़ूबसूरती में बदलने को , हर मोड़ से फिर से नया सफ़र शुरू करना होता है इस जीवन में कितने मोड़ आने अभी बाक़ी हैं कोई नहीं जानता है । 
 
विषय की विविधता की कोई सीमा नहीं है ये चर्चा देश समाज धर्म राजनीति से दोस्ती रिश्तों तक ही नहीं शायद इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया तक विस्तार लिए हुए है । वास्तविक जीवन में आस पास हर तरफ बातचीत आदर्शवादी विचारों और महान चरित्र की होती है लेकिन जब घड़ी आती है तो ये सब खोखले और झूठे साबित होते हैं । सोशल मीडिया पर भली भली बातें करने वाले वास्तव में भलाई करते कम और बुराई करने पर गर्व करते अधिक दिखाई देते हैं । भरोसा नहीं कि कब कौन पीठ में ख़ंजर घोपने का कार्य कर अपने स्वार्थ की ख़ातिर संबंधों को घायल कर दे । संसद विधानसभाओं में बैठ कर अथवा किसी संगठन संस्था के उच्च पद पर नियुक्त होने के बाद भी लोग संकीर्ण मानसिकता से उबर नहीं पाते हैं । जिनको न्याय और सत्य की रक्षा करनी है जब वही पक्षपात करने और दोषी को बचाने लगते हैं तब लोकतंत्र संविधान सभी का मकसद खो जाता है । 
 
अचरज की बात है जिनके पास आवश्यकता से अधिक है उनकी लालसा और हासिल करने की खातिर सही गलत को अनदेखा कर मनमानी करने की दिखाई देती है । राजनेता अधिकारी कर्मचारी व्यौपारी से बड़े प्रोफेशन में कार्यरत शिक्षक चिकित्सक उद्योगपति मानवता का धर्म भूलकर जो कभी नहीं करना चाहिए करने लगते हैं । कभी ऐसे लोग संख्या में कम होते थे उचित कर्तव्य निभाने वाले अधिकांश लेकिन अब दशा उल्टी हो गई है सही आचरण करने वाले विरले लोग नज़र आते हैं और विडंबना की बात है कि उनको समाज नासमझ और नादान कहता है । अधिक धनवान होना सफ़लता का तराज़ू बन गया है जबकि सामाजिक कर्तव्य निभाना और ईमानदारी को महत्व देना चाहिए था , सही मार्ग पर चलना जब मूर्खता कहलाए तो सामाजिक मूल्यों का कितना पतन हो चुका है समझना तो होगा । बड़ी ऊंची इमारतें बनाते हैं मगर जो अपने मूल्य और आदर्श थे उनको कितना नीचे ले आये हैं , खुली खुली सड़कें हैं लेकिन सोच कितनी तंग है कभी समझा ही नहीं ।  
 

एहसास ( कविता ) 1973 की पुरानी डायरी से फिर से याद आई है ।

यह कैसी उदासी है यह कैसी है तन्हाई 
गुलशन है वीराना फूलों की है रुसवाई । 
 
ख़्वाब सभी महलों के पड़े रेत के ढेरों में 
रह गए हैं दबकर सब सितारे इन अंधेरों में ।   
 
मेरा हर सवाल है ख़ुद अपना जवाब भी है 
था वो संगीत मेरा ही टूटा हुआ साज़ भी है । 
 
अपने ही महलों में अब सांस ये घुटती है 
मौत भी कैसी है ज़िंदगी पर जा रूकती है ।  
 
ज़िंदगी ले लो मुझसे इन मौत की सांसों की 
दे दो मुझे सपनों भरी नींद उन एहसासों की ।  
 
 कोई उम्मीद बर नहीं आती - ग़ालिब
 

जुलाई 02, 2024

ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

उनकी सियासत मुसीबत है हमारी सत्ता को लगी है इक ऐसी बिमारी , जनता की बड़ी भूल जो की उन्हीं से है यारी । सहयोग करें उनका फ़रमान है जारी , चाकू की शिकायत है मदद करती नहीं पसलियां हमारी ,  शायर दुष्यंत कुमार पढ़ पाये नहीं आदेश सरकारी । जाने खुद आये या बुलाया गया उनको खफ़ा थे किसी बात पे मनाया गया उनको सब लोग गुनहगार हैं , ये उनकी अदालत है कुछ भी किसी से पूछा नहीं सुना नहीं , बस फैसला था उनका सुनाया गया सबको । तलवार हैं या कि खऱीदार हैं , जाने किस किस बात से रूठे हुए खुद सरकार हैं , अपने मुंह मियां मिट्ठू मियां अपना पक्ष रखता इश्तिहार हैं जनाब , आपका नसीब हाथ जोड़ खड़े हैं सभी चुपचाप ख़ानाख़राब । वो आए कि बुलाए गए कोई फर्क नहीं पड़ता है , लेकिन वो शिकायत सुनने को नहीं खुद शिकयत करने को उत्सुक थे । शिकायतें शिकवे उनको सभी से थे कम नहीं जाने कितने थे लेकिन सब से बड़ी शिकायत थी लोग खामोश होकर उनकी सुन कर यकीन नहीं करते यही उनकी बेचैनी है उनकी नींद में खलल पड़ता है , नींद क्यों रात भर नहीं आती । जाने कब से उनको यही महानता लगती थी कि लोग ही नहीं दुनिया तक उनसे डरती है , किसी को भयभीत करना शूरवीरता नहीं होती है शूरवीर डर रहे लोगों को निडरता का भरोसा देते हैं सत्य हमेशा निडर होकर सच के पक्ष में खड़े होने का पाठ पढ़ाता है ।

सत्ता का रोग ही ऐसा है कि शासक बनते ही सभी अपने बेगाने लगने लगते हैं केवल हां जी कहने वाले चाटुकार अपने परिजन लगते हैं । ऐसा भी होता है हम खुद कुछ सोच कर किसी को आदर दे कर आमंत्रित करते हैं , मगर हम नहीं जानते कि जब किसी को सत्ता मिलती है तो वो शालीन होकर आपकी गरिमा की परवाह नहीं रख अपनी असलियत दिखला ही देता है । शायद शासक बनते ही सभी का आचरण बदल जाता है और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि खुद को जनसेवक नहीं दाता समझने लगते हैं । अख़बार में पढ़ने को मिलता है जनता की समस्याओं का निवारण करने को आयोजित सभाओं में किसी की परेशानी समझने की जगह शिकायत करने पर ही नाराज़गी जताई जाती है और जैसे फटकार लगाई जाती है । जनता सरकार बनाती है और जनता या कोई भी वर्ग शासक से कोई ख़ैरात नहीं चाहते हैं उनकी बात सुनना उनको इंसाफ़ दिलवाना जिनका कर्तव्य है उनकी भाषा अहंकारी होना बेहद आपत्तिजनक है । बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं । आपको इतिहास बदलना है तो कुछ सार्थक कर दिखाना होगा सिर्फ बड़बोलापन किसी को इतिहास में जगह नहीं दिलवा सकता है ।

जुर्म किया जो उन पर ऐतबार किया उम्र भर बस यही इंतिज़ार किया , अभी तलक जनता को इतनी बात नहीं समझ आई कि चोर चोर होते हैं भाई भाई । सुनानी बांसुरी थी बजाने लगे वो शहनाई लगा जैसे विदाई की घड़ी करीब आई मिला दूल्हा नहीं दुल्हन नहीं यहां है सिर्फ तन्हाई । सलीके से बात नहीं करते समझेंगे क्या किसी की परेशानी जिनको हालत से होती है परेशानी वार्तालाप करना ही बेमानी वहां जाना है नादानी जहां क़द्र नहीं अपनी पहचानी । भले वो कितने बड़े सिंहासन पर बैठे हों अगर सभी का आदर नहीं करते बल्कि कोशिश करते हैं नीचा दिखाने खामोश करवाने की तो ध्यान देना  तुलसीदास जी कहते हैं :-
 
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं स्नेह
तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह ।

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सरकार है  , बेकार है , लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है ।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है ।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है ।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है ।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है ।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है ।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है ।  
 
 जो मिल गया वो अपना है और जो टूट गया वह सपना है।~ Heart Touching  Motivational Video ~"ज्ञानहोनाचाहिए"

जुलाई 01, 2024

लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान नहीं , समझना मुश्किल है , लिखना क्या है । कभी उम्र भर लिखने से भी जो अंदर है बात अधूरी रह जाती है तो कभी चंद मिसरे चार लाइने इतना कुछ समेटे हुए होते हैं कि अर्थ समझने में ज़माना लगता है । आपको दिल किसी से लगाना लगता है झूठा अफ़साना लगता है लिखने वाले को जीने मरने का बस वही इक बहाना लगता है । सार्थक लेखन की दुश्वारियां हैं दुनिया फूलों के गुलशन चाहती है प्यार मुहब्बत की कहानियां पढ़ती है , किताबें जिस राह से गुज़रती हैं पगडंडी के दोनों तरफ कंटीली झाड़ियां हैं । घायल जिस्म की लिखनी कोई कहानी है प्यास बहुत है समंदर भी है , पीना नहीं खारा पानी है । पाठक कब किताब पढ़ते हैं कीमत कितनी है बस वही हिसाब रखते हैं सवालों की झड़ी लगाते हैं लिखना कितना ज़रूरी था वही सवाल करते हैं , सवालों का जवाब रखते हैं । हम जो लिखना हो साफ शब्दों में लिख देते हैं , कुछ बहुत ही लाजवाब लिखते हैं पर्दे में रखते हैं हुस्न की बातें चेहरे पर नकाब रखते हैं , आजकल हसीन लोग कितने रंग के ख़िज़ाब रखते हैं । इश्क़ की किताब पढ़ने वाले छुप छुप कर दुनिया से रहने वाले रुख पर अपने हिजाब रखते हैं । सच लिखना झूठ लिखना सर पर किसी के ताज लिखना किसी के पांव की धूल लिखना लोग जो चाहते वही बात लिखना मतलब है कि , सब फ़िज़ूल लिखना , किसी मज़बूरी को गुनाह लिखना और किसी जुर्म को यही है उसूल लिखना , क़ातिल को मसीहा कहना क़त्ल जिस का हुआ उसकी भूल लिखना । लिखना कुछ भी लिख देना आसान है जो नहीं लिखा गया समझना ज़रूरी है उसे मिटा नहीं सकते छिपाना आसान नहीं है । अल्फ़ाज़ खामोश हैं जज़्बात बेज़ुबान नहीं है , किस के मुंह में ज़ुबान नहीं है जिस दुनिया में कहीं भी कोई भी आसमान नहीं है उस का रहता बाक़ी निशान नहीं है । अपने दिल का पूरा हुआ अभी तलक इक अरमान नहीं है दुनिया ने लगाया नहीं जो हम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है । 
 
लिखना शुरू होता है जब भीतर कोई भाव उपजते हैं , किसी से चाहत किसी को हासिल करने की हसरत से ईबादत तक दिल कब क्या महसूस करता है , कहना भी हो तो कोई समझने वाला नहीं होता ऐसे में कागज़ पर अपने जज़्बात अल्फ़ाज़ों में पिरोते हैं । ऐसी सुबह जिसकी कभी शाम नहीं होती मुहब्बत कभी बदनाम नहीं होती आरज़ू दिल की रहती है हमेशा पूरी नहीं हो तब भी नाकाम नहीं होती । कोई प्यार दोस्ती रिश्ते पर कोई कुदरत पर कोई पेड़ पौधे पक्षी और उड़ान पर कोई ज़मीन कोई आसमान पर लिखते हैं वतन की आन बान शान पर आदमी के आगाज़ पर ज़िंदगी के अंजाम पर गीत लिखते हैं अपनी तान पर । हर कोई अपने अपने रंग से इक तस्वीर बनाता है कोई धागा जोड़ता है कोई जंज़ीर बनाता है , हर मजनू की लैला होती है , हर कोई रांझा बनकर अपनी हीर की तकदीर बनाता है । कोई कविता कोई ग़ज़ल कोई नज़्म कोई कथा कहानी सभी करते हैं हमेशा ही कोई न कोई ऐसी नादानी कभी किसी ने लिखने वाले की कीमत नहीं पहचानी पढ़ने वाले कहता है लिखने वाला तुम्हारी बड़ी मेहरबानी । 
 
लिखना लिख कर फिर पढ़ना और पढ़ कर समझना समझ कर लिखे हुए को मिटाकर दोबारा लिखना ऐसा साहित्य की यात्रा का सफ़र जारी रहता है । यहां ईनामात सौगात पुरुस्कार कोई तराज़ू कोई पैमाना नहीं महत्व रखता है साहित्य की सफ़लता तभी मानी जाती है जब समाज को झकझोरती है बदलाव लाने का कीर्तिमान स्थापित करती है । अन्यथा जीवन भर कागज़ काले करते रहने का औचित्य कुछ भी नहीं होता है भला किसी की ख़ुशी किसी का दर्द कौन समझता है पपीहा जागता है रात भर पीहू पीहू की मधुर वाणी सुनाई देती है अपने पिया को ढूंढता है पी कहां पी कहां , बस यही संदेश है सच्चे लिखने वाले का भी जिसे तलाश रहती है किसी खूबसूरत दुनिया की जो उसके ख्यालों ख्वाबों में है कहीं सपने को वास्तविकता बनाने को चाहत में कलमकार जीवन भर खोया रहता है । 

लिखना आदत होती है किसी दिन बन जाती मज़बूरी है शायर कहता है :-
 

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है ( ग़ज़ल ) 

       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है
करें क्या ज़िंदगी की बात कहना भी ज़रूरी है ।

मिले हैं आज हम ऐसे नहीं बिछुड़े कभी जैसे
सुहानी शब मुहब्बत की हुई बरसात पूरी है ।

मिले फुर्सत चले जाना , कभी उनको बुला लेना
नहीं घर दोस्तों के दूर , कुछ क़दमों की दूरी है ।

बुरी आदत रही अपनी सभी कुछ सच बता देना
तुम्हें भाती हमेशा से किसी की जी-हज़ूरी है ।

रहा भूखा नहीं जब तक कभी ईमान को बेचा
लगा बिकने उसी के पास हलवा और पूरी है ।

जिन्हें पाला कभी माँ ने , लगाते रोज़ हैं ठोकर
इन्हीं बच्चों को बचपन में खिलाई रोज़ चूरी है ।

नहीं काली कमाई कर सके ' तनहा ' कभी लेकिन
कमाते प्यार की दौलत , न काली है न भूरी है ।
 
 जीवन की सबसे बड़ी कमाई है ज्ञान का पन्ना, किताबें दिखाती हैं सही राह |  Jansatta
 

जून 29, 2024

नियम स्वीकार , शर्तें नामंज़ूर ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया

    नियम स्वीकार , शर्तें नामंज़ूर ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया

 आपको सब मिल जाएगा अगर आप नियम और शर्तों को मंज़ूर करने को राज़ी हैं , नियम कितने भी कठोर लगते हों समझना कठिन नहीं है शर्तों की बात बिल्कुल अलग है अक़्सर शर्तें आपको ठगती हैं । शर्तों से बंधा बंधन आखिर बचता नहीं है नियम कायदा उचित हो सकता है शर्त कभी सही नहीं होती है । ज़िंदगी से लेकर राजनीति के खेल तक नियम बदलते रहते हैं टूट भी सकते हैं मगर शर्तों की हथकड़ी जिस किसी ने पहन ली मर्ज़ी से या मज़बूरी से बाद में पछताना पड़ता है । शर्तों पर जीना मुश्किल है दिल को ये समझाना मुश्किल है उनका मझको बुलाना मुश्किल है बिन बुलाये मेरा भी जाना मुश्किल है । सच बताना मुश्किल है सच को छिपाना भी आसान नहीं बहाना बनाना मुश्किल है , आस्मां से ज़मीं का रिश्ता निभाना मुश्किल है सरकार झुकती नहीं सरकार का देश की जनता को झुकाना मुश्किल है । सर कटवाने को तैयार हैं कुछ लोग उनके सर को झुकाना मुश्किल है । आपने जगह जगह लिखा हुआ देखा पढ़ा होगा नियम और शर्तें लागू दो अलग अलग बातें हैं इनको इक साथ लाना मुश्किल है । आपको घर में रहना है चाहे किसी सभा में दफ़्तर में अथवा किसी महफ़िल में आपको दिशानिर्देश का पालन करना अनिवार्य है अन्यथा आपको निकाला जाता है या निकलने की नौबत आ सकती है । दुनिया का पहरा हर सांस पर रहता है आपको खुली हवा में भी सांस लेनी है तो सावधान रहना चाहिए नफ़रत का ज़हर फ़िज़ाओं में घुला हुआ है कोई नहीं जान पाता अक़्सर । 
 
आजकल समाचार पढ़ कर चिंता होने लगती है कोई घर से भाग गया किसी ने अपनी जान ख़ुदकुशी कर लेकर ज़िंदगी से निजात पा ली । रिश्तों नातों की ही नहीं सामाजिक बंधनों की बेड़ियां इंसान को अपनी मर्ज़ी से जीने ही नहीं देती हैं । सरकार भी संविधान के नियमों की अवहेलना अनदेखी कर चलती रहती है लेकिन संख्या बल का गणित ऐसी शर्त है जिस से कभी भी लड़खड़ाने से गिरने की नौबत पेश आ सकती है । इस समाज में इंसान को चैन से जीने देना कोई नहीं ज़रूरी समझता लेकिन कोई गलती कोई भूल दिखाई दे जाए तो हर कोई जीना हराम कर देता है । जियो और जीने दो की बात किसी को समझ नहीं आती है कुछ इसी तरह से सरकार को खतरा रहता है कभी भी किसी समय पकड़े जाने पर हटाए जाने की चर्चा होने का । ऐसा कहते हैं सरकार नैतिक अधिकार खो चुकी है उसे लोकतान्त्रिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए सत्ता छोड़ देनी चाहिए । सत्ता का मोह कभी जाता नहीं है भले कोई कुछ भी कहता रहे सत्ता से इश्क़ सभी को पागल बना देता है और इश्क़ और जंग में सब चलता है । भाग कर ज़ोर ज़बरदस्ती से डरा कर बहला फुसला कर शादी करना अनुचित नहीं होता बस इसी तरह से जोड़ तोड़ कर खरीद कर धमका कर समर्थन हासिल करना सब किया जाता है । नीचे गिर कर ऊंचाई पाना राजनीति की रणनीति कहलाता है । जो समझौता नहीं करता फिर पछताता है ।  शर्त लगाना भी इक आदत होती है जुआ होता है जो बुरा है फिर भी खेलने वाले को मज़ा आता है , कौन है जो इस बात पर शर्त लगाता है । हार कर भी कोई जश्न मनाता है , गंधर्व राग गाकर कोई रूठी महबूबा को मनाता है ये हुनर किसी किसी को रास आता है । हर सामान सारा माल गरंटी का लेबल लगा मिलता है आखिर में नियम और शर्तें लागू आपको उल्लू बनाता है ।
 
 
 नियम एवं शर्तें - इंडियन एसोसिएशन ऑफ मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (IAMD)

जून 28, 2024

चलती का नाम गाड़ी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

        चलती का नाम गाड़ी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

सरकारी गाड़ी है , ढोती सवारी है , सफ़र लंबा है अधूरी तैयारी है , उस पर किस की कैसी गारंटी साफ़ बता दिया गया है अपने जान और सामान की रखवाली खुद करनी है । बड़े साफ शब्दों में चेतावनी भी है बगैर टिकट पकड़े जाने पर जुर्माना या सज़ा अथवा दोनों झेलनी पड़ सकती हैं । चालक प्रशिक्षण पर है ऐसा सामने पीछे घोषित किया हुआ है संभल संभल कर धीरे धीरे चलना है मुश्किल ये है कि निर्धारित समय तक नहीं मिली मंज़िल तो मुसीबत वापसी को कोई साधन नहीं मिलेगा । आप उनके भीतर का डर कभी नहीं समझ सकते ये बस वही जानते है इस गाड़ी की हालत कैसी है किसी का भरोसा नहीं कौन कब किस जगह साथ छोड़ दे । इंजन से लेकर पहिये तक कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा जैसी हालत है तभी अपना भय मिटाने को उस की कमियां ढूंढ रहे हैं जो अवसर मिलते ही ब्रेक लगते ही उनसे आगे बढ़कर मंज़िल पर कदम रख सकती है । कोई सवारी उतर कर उनकी सवारी में चढ़ जाए तो कयामत से पहले कयामत आ जाएगी । टैंकी भी मिलावटी तेल से भरी हुई है कब धोखा दे जाए नहीं मालूम विवशता है तेल भरवाना भी उन्हीं से ज़रूरी था जिन से लेन देन चलता है । गलती से उस पर आरोप लगा बैठे थे कि उनका टैम्पो किसी और को कितना देता देखा है । कारोबारी लोग भरोसे के काबिल नहीं होते हैं बदलते समय को देख धारा जिस तरफ जाती लगती है उधर रुख मोड़ लेते हैं । संकट से भगवान राम को भी हनुमान जी बचाते हैं हमने इस का ध्यान नहीं रखा लोग सफ़र करते हुए जगह जगह हनुमान जी का नाम जपते हैं । हनुमान चालीसा याद नहीं और कोई मंत्र मुश्किल में कष्ट से मुक्ति देता नहीं है सबको अपना मंत्र देते देते भूल गए मंत्र सही और शुद्ध उच्चारण से पढ़ना ज़रूरी है । एमरजेंसी में कोई नहीं जानता क्या क्या ज़रूरत आन पड़ती है शायद तभी उसकी याद सता रही है , गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है , चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है । 
 
दोस्त मुसीबत में काम आते हैं लेकिन उनकी मुश्किल यही है कि दोस्ती वाला सबक उनको कभी अच्छा ही नहीं लगता उनको दुश्मनी ही आती है । ऐसे ऐसे लोग खु.द अपनी गाड़ी में बिठाए हैं जिन का कोई भरोसा ही नहीं कब गर्दन पकड़ कर गाड़ी को किसी खाई में गिरते देख छलांग लगा अपनी जान बचा चलती गाड़ी का क्या हाल कर देंगे । खिड़की दरवाज़ा सब को बंद किया है ताज़ी हवा का झौंका भीतर नहीं आ सकता सब का दम घुटता है पर बंधन जकड़े हुए हैं हिलना डुलना मना है । सफर सुहाना है कहने को लेकिन अजब कदम कदम यातना है , रोना बेकार हैं हंसना भी मना है । रास्ते में कोई नहीं जानता किस किस जगह कोई कमज़ोर पुल बना है जिस से गुज़रना है जीना नहीं मरना है , कुछ भी नहीं करना बंद आंखें कर किस्मत से बचना है । 
पहाड़ों पर चढ़ाई करनी है मौसम से लड़ाई करनी है फिसलन भरी पत्थरीली सड़क है राम दुहाई है । इंजन पुराना है बदलना नहीं है इतिहास रचाना है दूर की कौड़ी खोज लाये हैं दो इंजन और जोड़ कर रफ़्तार बढ़ाये हैं छैंया छैयां झूमे नाचे गाये हैं दुश्मन जां के खुद गले लगाए हैं ।  खिज़ा का मौसम है आया मौसम ए बहार नहीं सरकार क्या नेता क्या करता कोई भी किसी पर ऐतबार नहीं , कल जाने क्या हो इस पर दुनिया का भी इख़्तियार नहीं । बीच भंवर हैं सभी कोई इस पार नहीं उस पार नहीं ।
 
कोई पीछे छूट जाए , कोई राह से भटकाए , लंबे बड़े हैं शाम के ढलते साये , सब लोग वही हैं हमको जब भी नहीं भाये जी भर कर हमने सताए । कहते हैं लोग सुबह का भूला शाम को घर लौट आये वो भूला नहीं कहलाये । आपने मीत सभी हमेशा थे भुलाये जब ख़ुद भंवर में पहुंचे हाथ पकड़ नाख़ुदा को मना लाये , उस दिल से निकली हाय अपने हुए पराये फिर भी हैं काम आये । ये कारवां है नौटंकी का तमाशा हर शहर दिखाना है ख़ाली पेट जनता को सपनों से बहलाना है , रुपया क्या है कीमत चार आना है परिंदों की खातिर इक जाल बिछाना है । चिड़िया को खबर है दाना खिलाने का बहाना है ये नया ज़माना है तेरा जाल पुराना है , दुनिया ने देखा है समझा है ये जाना है सभी मुसाफ़िर हैं चार दिन ठिकाना है । बाबू समझो इशारे हौरन पुकारे पम पम पम , यहां चलती को गाड़ी कहते हैं प्यारे पम पम पम ।  
 
 तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ…दुष्यंत कुमार – पवन  Belala Says❣
 
 
 

जून 27, 2024

घायल लोकतंत्र की चिंता ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

       घायल लोकतंत्र की चिंता ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 

जब शुरुआत ही विवादित प्रस्ताव से कर रहे हैं जिस में संविधान और लोकतंत्र की चिंता से बढ़कर सत्ता का स्वर बुलंद कर विपक्ष की आवाज़ को चुप करवाने की भावना दिखाई दे रही थी तब भविष्य में क्या नहीं होगा कोई भविष्यवाणी करना कठिन है । जिस आपात्कात के चीथड़े तक जनता ने अपने हाथ से ख़ाक में मिला दिए थे चुनाव में ऐसा सबक सिखाया था कि अच्छे अच्छों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई थी आज उसकी निंदा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा सिर्फ संसद को आमने - सामने खड़ा कर बांटने का प्रयास है ताकि शासक दल पर कोई संविधान से खिलवाड़ नहीं करने की अपेक्षा जताए तो ईंट का जवाब पत्थर से देना का कार्य किया जाए । कुछ लोग पुराने ज़ख्मों को कुरेदते रहते हैं भरने नहीं देना चाहते क्योंकि उनको मरहम लगाना नहीं आता है । निंदा करने को बहुत कुछ सत्ता पक्ष के खिलाफ भी है लेकिन समझदार लोग पुराने अनुभव और इतिहास से सबक लेते हैं उनको दोहराते हैं तो खुद शर्मसार होते हैं । सत्ताधारी कुछ कहे विपक्ष कुछ कहे तो सदन के अध्यक्ष को अपने पद की गरिमा कायम रखते हुए कोई रास्ता तलाश करना चाहिए । खुद अध्यक्ष जब टकराव की बात करने लगे तो देश संविधान लोकतंत्र की चिंता नहीं कोई छुपी हुई ऐसी मानसिकता है जो कदापि उचित नहीं है । आपको आग बुझानी है मगर आप चिंगारी को हवा देने लगे हैं बीते हुए कल की वर्तमान को ही नहीं भविष्य को भी सज़ा देने लगे हैं । कोई भी ऐसी शुरुआत की प्रशंसा कभी नहीं कर सकता है अर्थात संसद के नवनिर्वाचित अध्यक्ष का ये कार्य कोई शुभ संकेत नहीं है । 
 
किसी शायर की नज़्म है अख़बार में छपी हुई :- 
 

चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ( नज़्म ) दंडपानी नाहक

कहते हैं देश का मान सम्मान हूँ
मैं अन्नदाता हूँ गरीब किसान हूँ । 


मेरी फटेहाली का सबब कोई हो
चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ।  

 

ये नया सूरज पहले मुझे खायेगा
क्षितिज तक फैला जो आसमान हूँ ।  



मेरी स्थिति में परिवर्तन क्यों होगा
रहनुमां अंधे मेरे और मैं बेज़ुबान हूँ ।  


इज़्ज़त की मौत तो दे ऐ मुल्क मेरे
मैं सदियों से तेरा जो मेहरबान हूँ । 

 

अजीब दौर है इसका ग़ज़ब का तौर है , ख़ुद बनाने से पहले तोड़ने पर लगाया ज़ोर है । एकता भाईचारा समाज की समानता की नहीं परवाह किसी को बस यही लक्ष्य है बाहुबली है कौन कौन बड़ा कमज़ोर है । हर किसी से कई गलतियां हो जाती हैं लोग उनको सज़ा भी देते हैं और कभी आवश्यकता होने पर क्षमा भी कर इक अवसर भी देते हैं । जनता सभी का हिसाब रखती है कौन कितना गुनहगार है हर सवाल का जनता जवाब रखती है । यहां राजनीति में कोई भी मसीहा नहीं है कुछ के अपराध साबित हो गए कुछ के जुर्म साबित नहीं हुए मगर लोग जानते हैं किस ने दंगे करवाए किस ने धर्म के नाम पर लोगों को बांटने का अपराध किया । देश की आज़ादी से पहले जिस ने मुखबरी की खुद स्वीकार किया अपनी गलती को नादानी समझ सभी ने उस को इसी संसद में बड़े पद पर बिठाया भी , कभी किसी ने निंदा प्रस्ताव की बात नहीं की क्योंकि जो बीत गई सो बिसार आगे की सुध लेना समझदारी है । अभी भी कितने नेता हर दल में हैं जिन पर कितने ही गंभीर आरोप हैं मगर हर दल ने उनको किनारे नहीं लगाया जनहित और न्याय को महत्व देते हुए , चुनावी लाभ की खातिर पापियों का पाप धोते धोते ये संसद की गंगा कब की मैली हो चुकी है इस को अपराधियों से मुक्त करवाने का संकल्प किसी को याद नहीं है । अपनी सरकार बचाए रखने को अपने दल के नेताओं की निंदा नहीं कर उनका बचाव करते रहना क्या इस की निंदा नहीं की जानी चाहिए । सबसे पहले उनकी घोर निंदा का प्रस्ताव लाया जाना चाहिए जिन्होंने उन महान नेताओं की छवि खराब करने की कोशिश की जिन्होंने अपना सारा जीवन देश की आज़ादी और लोकतंत्र को कायम रखने में लगाया था । खुद अटल बिहारी बाजपेयी जी ने जिनको सबसे लोकप्रिय और शानदार बताया और जिस ने प्रधानमंत्री पद पर रहते सभी विपक्षी नेताओं को आदर दिया उनकी बातों को महत्व दिया कभी खुद को महिमामंडित नहीं करवाना चाहा आज कौन उनकी बराबरी कर सकता है । देश की राजनीति आज किस सीमा तक भटक कर आदर्श और नैतिकता के निचले पायदान पर खड़ी हुई लगती है । धरती के ज़ख्मों पर मरहम नहीं लगा सकते हैं तो नमक छिड़कने की बात मत करो , अहंकार को छोड़ कर भविष्य की सुंदर कामनाओं से सद्भावना पूर्वक आचरण अपनाने की ज़रूरत है । 
 
शायद लोग आईना नहीं देखते अन्यथा पता चलता कि खुद उन्होंने क्या क्या नहीं किया जो देश समाज और संविधान के अनुसार किया नहीं जाना चाहिए था । किसी और के चेहरे पर लगा दाग़ दिखाई देता है अपनी कालिख़ ढकी हुई दुनिया को दिखाई नहीं भी दे तब भी ज़मीर जानता है कौन दूध का धुला है । इतिहास की गलतियों से सबक सीखना उचित है मगर उनका उपयोग राजनीतिक द्वेष से करने से किसी का भी भला नहीं हो सकता है । अपने गुण अपने अच्छे कार्य को छोड़ किसी की कमियों का शोर मचाने से कोई व्यक्ति गुणी नहीं कहलाता है । नकारात्मक राजनीति से देश समाज का कभी कल्याण नहीं हो सकता है । लोकतंत्र में जीत हार को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए अन्यथा प्रतीत होता है कि जनमत को समझने के बजाय अपने वर्चस्व को किसी भी तरह कायम रखने की ज़िद में अनावश्यक दीवार खड़ी करने का प्रयास किया जा रहा है ।   डॉ बशीर बद्र कहते हैं ।
 

इस तरह साथ निभाना है दुश्वार सा , 

तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा । 

Ramdhari Singh Dinkar Famous Poem Kalam Ya Talwar - Amar Ujala Kavya - कलम  या कि तलवार:रामधारी सिंह "दिनकर"