दिसंबर 27, 2021

समाज को किताबों से जोड़ना ( मेरा मकसद ) डॉ लोक सेतिया

  समाज को किताबों से जोड़ना ( मेरा मकसद ) डॉ लोक सेतिया 

   हर किसी का कोई मकसद अवश्य होना चाहिए। लिखते लिखते उम्र बिताई है अब आगे बढ़कर कुछ नया सार्थक करना चाहता हूं। लेखक का साहित्य सृजन नाम शोहरत हासिल करने को नहीं होता है अपने समय की वास्तविक तस्वीर दिखाई देनी चाहिए। किताबों से पढ़ने से लगाव ही नहीं मुहब्बत होनी ज़रूरी है अन्यथा हमारी जानकारी और विवेकशीलता कुंवे के मेंढक की तरह हो सकती है। सोशल मीडिया की पढ़ाई कुछ ऐसी ही है। कोई आपको विवश नहीं कर सकता अगर आपको प्यास नहीं है पढ़ने की आंखों पर कोई पट्टी बांध रखी है या किसी चश्मे से देखते हैं तो सावन के अंधे को हरियाली नज़र आती है जैसी हालत बन जाती है। जाने क्यों हम सदियों से चली आई मान्यता को भुला बैठे हैं कि किताबें आपका सच्चा दोस्त हितैषी और मार्गदर्शक होती हैं। अपनी संतान आने वाली पीढ़ियों को सही मार्ग पर चलकर उच्च आदर्शों और नैतिक मूल्यों का पालन करने का सबक सिखाना है तो किताबों से जोड़कर ही संभव है। 
 
   लिखना कभी भी खालाजी का घर नहीं रहा है सच को सच झूठ को झूठ कहना कांच के टुकड़ों पर चलना है और अन्याय अत्याचार असमानता के लिए निडरता पूर्वक विरोध करते लिखना तलवार की धार अपने सर पर लटकती अनुभव होती है। सर पर रोज़ कफ़न बांध कर निकलते हैं , वो लोग जो सच की राह चलते हैं। किताबों का स्वभाव है लिखा हुआ जो कभी बदलता नहीं है जो कहती हैं उस बात से मुकरती नहीं कभी किताबें , दुनिया में दोस्त मतलब की खातिर मुकर जाते हैं सिर्फ किताबें हैं जिनको कुछ फर्क नहीं पड़ता। आपसे नाराज़ नहीं होती न कोई उम्मीद होती है ज्ञान देकर कुछ हासिल करने को । मुंशी प्रेम चंद खुद को इक मज़दूर समझते थे कलम का और जिस दिन कुछ लिखा नहीं उनका कहना था कि मुझे रोटी खाने का अधिकार नहीं। ये संकल्प ही लेखक को अच्छा साहित्य रचने के काबिल बनाता है। मैं क्या लिखता हूं से अधिक महत्वपूर्ण है क्यों लिखता हूं। ये मेरा आजीविका का साधन नहीं बल्कि घर फूंक तमाशा देखना है। 
 
  लिखने की शुरआत हुई इक पत्रिका का हर अंक में इक कॉलम छपता था उसको पढ़कर। संपादक लिखते थे अगर आप शिक्षित हैं तो सिर्फ अपना कारोबार नौकरी कर घर बनाना शादी कर संतान को जन्म देना सुखी जीवन बिताना काफी नहीं है।  ये सब अनपढ़ ही नहीं पशु पक्षी जीव जंतु तक कर लेते हैं पढ़ लिखकर आपको अपने समाज और देश को बेहतर बनाने को बिना किसी स्वार्थ कुछ योगदान देना ही चाहिए। उनकी कही बातों में इक विकल्प ये भी था समाज की समस्याओं पर ध्यान देकर उनके समाधान की कोशिश करना। मेरा लेखन जनहित की बात उठाना जहां जो अनुचित दिखाई दे उसका विरोध करना इक जूनून बन गया। सामाजिक विडंबनाओं को देख ख़ामोश रहना नहीं सीखा जब तक लिखता नहीं सांस लेना कठिन महसूस होता। कठिनाईयां हर क्षण सामने खड़ी थीं अधिकांश लोग मुझे क्या कुछ भी होता रहे सोच कर अनदेखा करते हैं। जब तक खुद अपनी समस्या नहीं हो सब कहते हैं ये सामान्य बात है ऐसा हर जगह घटित होता है बस अपना घर सुरक्षित होना ज़रूरी है। अनुचित का विरोध करना लोग नासमझी मानते हैं। 
 
साहित्य की हर विधा में मेरा लेखन बड़े कथाकारों रचनाकारों के सामने भले सामन्य लगे लेकिन इसको पढ़कर पाठक को हमारे युग वर्तमान काल की सही तस्वीर अवश्य नज़र आएगी ये यकीन है। और यही मेरे लिए सार्थक लेखन की कसौटी है। अगर मेरी ग़ज़ल , कविता , व्यंग्य रचनाएं , कहानियां , सामाजिक विषयों पर तार्किक ढंग से लिखे आलेख इस पर खरे उतरते हैं तो ज़िंदगी की मेरी सबसे बड़ी पूंजी है ये।
 
  

दिसंबर 21, 2021

बुरा हूं मगर इतना बुरा नहीं ( ब्यान अर्ज़ है ) डॉ लोक सेतिया

   बुरा हूं मगर इतना बुरा नहीं ( ब्यान अर्ज़ है ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने कब कहा कि मैं अच्छा हूं , बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय। लेकिन इतना भी बुरा नहीं जितना साबित किया गया मुझको। जुर्म करता तो सज़ाएं मंज़ूर भी कर लेता पर बेगुनाही को भी जुर्म समझ सूली पर चढ़ाना भला कैसे चुपचाप इंसाफ़ समझता ज़ुल्म को। क़ातिल को दुआ देने की रस्म आखिर कोई कब तक निभाए। बात मेरी भी पहले सुनलो फिर सज़ा दो मेरे गुनाहों की। दोस्ती को ईबादत समझा जुर्म तो है इंसानियत को धर्म माना बगावत ही तो की है झूठ के सामने सर नहीं झुकाया सच की ख़ातिर जान तक दे सकता हूं सियासत से अदावत ही तो है। ज़माना हर रोज़ बदलता है चाल अपनी हम नहीं रुकते न दौड़ते न कभी थकते चलते हैं अपनी रफ़्तार से आदत ही तो है। हम तो चलाते हैं कलम शमशीर से डरते नहीं , कहते हैं जो बात कहकर अपनी बात से मुकरते नहीं। जाने कैसे समाज की बनी बनाई आसान राहों से अलग नई रह बनाकर चलने की चाह दिल दिमाग़ पर सवार हुई और कांटो पर तपती ज़मीन पर पत्थरीली राहों बढ़ता रहा। सच का दर्पण समाज का आईना और अभिव्यक्ति की आज़ादी के झंडाबरदारों से निडरता पूर्वक आवाज़ उठाने का सबक सीख लिया तो वापस मुड़कर नहीं देखा जबकि इन सभी बातों का दम भरने वाले खुद बाज़ार में बिकने लगे ज़मीर को मारकर। मैंने उन्हीं से सवाल पूछने का जुर्म भी किया है। बिका ज़मीर कितने में जवाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते। जुर्म-बेलज्ज़त साहित्य समाज की सच्ची तस्वीर दिखलाना कर बैठे और हर किसी की निगाह में खटकने लगे हैं। 
 
चाटुकारिता करना नहीं पसंद और सत्ता से टकराना उनकी वास्तविकता और इश्तिहार का विरोधाभास सामने लाना तलवार की धार पर कांच के टुकड़ों पर चलना जैसा होना ही था। सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुज़रना पड़ता है कौन किस से फ़रियाद करे गुनहगार बच जाते हैं बेगुनाह फांसी चढ़ते हैं। फैसले तब सही नहीं होते , बेगुनाह जब बरी नहीं होते। जो न इंसाफ़ दे सकें हमको , पंच वो पंच ही नहीं होते। सोचना ये लिखने से पहले , फैसले आख़िरी नहीं होते। उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़ , 'लोक ' राजा को वो कहता है निपट नंगा है। अपराध है राजा नंगा है बोलना कहानी पुरानी अभी तक हक़ीक़त है। ये सभी अल्फ़ाज़ ग़ज़ल के हैं मेरी लिखी हुई , पहली कविता की शुरुआत जिन शब्दों से हुई उनकी बात करते हैं। पढ़कर रोज़ खबर कोई मन फिर हो जाता है उदास। कब अन्याय का होगा अंत , न्याय की होगी पूरी आस।  कब ये थमेंगी गर्म हवाएं , आएगा जाने कब मधुमास। कैसी आई ये आज़ादी , जनता काट रही बनवास। ये तहरीर है इक़बाल ए जुर्म है। मैंने उनको आईना दिखाने की जुर्रत की है जो आईनों का बाज़ार लगाकर दुनिया को दिखाते हैं बदशक़्ल है मगर खुद अपने आप को नहीं देख सकते । अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग , आईने से यूं परेशान हैं लोग। शानो-शौकत है वो उनकी झूठी , बन गए शहर की जो जान हैं लोग। मैंने अपना जुर्म कबूल कर लिया है मुश्क़िल उनकी है जिन्होंने कटघरे में खड़ा किया है उन नाख़ुदाओं ने कश्ती को डुबोया है। चंद धाराओं के इशारों पर , डूबी हैं कश्तियां किनारों पर। हमे सूली चढ़ा दो हमारी आरज़ू है ये , यही कहना है लेकिन मुझे कहना नहीं आता।
 

 

दिसंबर 17, 2021

किस को सुनाएं से सुन ज़माने तक ( कागज़ कलम स्याही पुस्तक का सफर ) डॉ लोक सेतिया

          किस को सुनाएं से सुन ज़माने तक 

             ( कागज़ कलम स्याही पुस्तक का सफर )

                                डॉ लोक सेतिया 

शीर्षक संक्षेप में नहीं संभव इस पोस्ट का क्योंकि 1973 में पहली ग़ज़ल कही थी ' हम अपनी दास्तां किस को सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं '। करीब आधी सदी का लंबा सफर साहित्य से चाहत का मुहब्बत से जूनून होने तक का जिया है हर दिन परस्तिश की है। किताबें छपवाने की शुरुआत देर से सही मगर सोच विचार कर करने चला हूं ताकि सिर्फ मेरी ही नहीं सभी लिखने वालों की मुश्किलों दुश्वारियों और हौंसलों की बुलंदी से थकान तक का एहसास पाठक वर्ग को हो सके। जाने कितने सोच विचार अंतर्द्वंद से गुज़रते हुए कलम हाथ में उठाते हैं विचार भावना को शब्दों में पिरोना रचना का आंखों से मस्तिष्क और रूह तलक पहुंचना सिर्फ रचनाकार जानता है तपस्या क्या होती है। आपको ग़ज़ल की 151 रचनाएं पढ़ने में कुछ घंटे लगेंगे लिखने में सालों हर हर्फ़ के मायने समझने में बीते हैं। लिखना ऐसे समय में जब हर कोई सोशल मीडिया टीवी चैनल अनगिनत ऐप्प्स और गूगल पर दुनिया देखना समझना चाहता है साहस का कार्य है। इसलिए पुस्तक से साहित्य से समाज को जोड़ना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि ज़िंदगी की वास्तविकता और सामाजिक समस्याओं की वास्तविक भावनाओं को महसूस करने को यही एक विकल्प बचा लगता है। किताब से अच्छा दोस्त कोई नहीं दुनिया में और अच्छे साहित्य से बढ़कर मार्गदर्शन कोई अन्य नहीं कर सकता है। पुस्तक के पन्ने निर्जीव वस्तु नहीं होते हैं पाठक से संवाद करते हैं कभी हमदर्द लगते हैं कभी निराशा के अंधकार से बाहर निकाल रौशनी से मिलवाते हैं। किताबें बंद अलमारी की शान बढ़ाने को नहीं हो सकती हैं बेशक इधर बहुत मशहूर जाने माने लोग सिर्फ खुद के गुणगान जीवनी और अधिकांश अनावश्यक घटनाओं की व्यर्थ चर्चा कर ख्याति हासिल करने को इसका अनुचित उपयोग करते हैं। और सरकारी संस्थान संघठन ऊंचे दाम खरीद लायब्रेरी की शोभा बढ़ाते हैं। सच्चा कलम का सिपाही अपनी नहीं समाज की बात कहता है।  

ग़ज़ल संग्रह के बाद कविताओं की उसके बाद व्यंग्य रचनाओं पर आधारित पुस्तक और चौथी किताब ज़िंदगी की कहनियों की हाज़िर करनी है। मकसद दौलत शोहरत पाना कदापि नहीं है बल्कि आपको खुद अपने आप से मिलवाने का उद्देश्य है। ये आपको निर्णय करना है खुद से नज़रें मिलाना चाहते हैं अथवा नज़र बचाना चाहेंगे। बुद्धिजीवी लोगों से समीक्षा लिखवाना अनावश्यक होगा पाठक को रचनाएं खुद से जुड़ती हुईं लगती हैं और सामाजिक सरोकार की चिंता जागृत करने को सफल होती हैं तभी सार्थकता होगी रचनाओं की। इंतज़ार नहीं स्वागत नहीं करें लेकिन निवेदन है पुस्तक जिस भी किसी लेखक की हो आपको मिलती है तो उसको रद्दी की टोकरी में फैंक कर सरस्वती का निरादर कदापि नहीं करें। पढ़ना नहीं पसंद तो जैसे अख़बार पत्रिका के संपादक खेद सहित लौटाते हैं ताकि अन्य किसी के लिए उपयोगी हो सके जैसा कदम उठाना बुरा नहीं है। लिखने वालों को इसकी आदत होती है दस जगह भेजी रचना एक जगह छप जाती है तब भी ख़ुशी मिलती है बेशक रॉयल्टी तो क्या उचित मानदेय भी हमेशा नहीं मिलता। 
 

 

दिसंबर 15, 2021

ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

शहंशाह के चाहने वाले ग़मज़दा हैं उदास हैं बड़े बेचैन हैं। कहते हैं सरकार इतनी कठोर तपस्या किसलिए। पहले जितने शासक हुए हैं सभी ने मौज मस्ती सैर सपाटे शाही अंदाज़ से सजना संवरना रोज़ मनचाहा खाना जश्न मनाना जैसे ऐशो आराम पर खज़ाना लुटाया है। सरकार आपने बस इक धोती कुर्ते एक समय पेट भरना एक समय उपवास रखना गांधी लालबहादुर की राह चल सादगी से रहकर देशसेवा की मिसाल कायम की है। अपने अपनी शान दिखाने को कोई महल नहीं बनाया है गरीबी से नाता छोड़ा नहीं हमेशा इक झौंपड़ी में घर बसाकर गुज़ारा किया है। अफ़सोस चाहने वालों को इस बात का है कि जिन की खातिर जनाब कांटों का ताज पहन शूलों भरे सिंघासन पर विराजमान हैं वही देशवासी आपको बुरा भला कहते हैं। उनको नहीं पता आपको सत्ता की रत्ती भर चाहत नहीं है आप तो भिखारी बनकर जीवन बिताते रहे हैं बस बीस साल से कुर्सी से रिश्ता इस तरह निभाया है जैसे कोई आशिक़ अपनी महबूबा से दिल से प्यार करता है तो किसी और की कभी नहीं होने देता। ग़ुलाम लोग चाटुकारिता से बहुत आगे बढ़कर शहंशाह को अपना आराध्य और खुद को उपासक मानते हैं। उनके दिलो-दिमाग़ में चिंता और डर महसूस होने लगा है कहीं देश की नासमझ जनता उनको चुनाव में पराजित करने का गुनाह नहीं कर बैठे। ठीक है इस से पहले बड़े बड़े अहंकारी तानाशाहों को देशवासियों ने उनकी सही जगह पहुंचाया है धूल चटाई है। लेकिन गुलामों को डर है उनका भगवान सत्ता से बाहर हुआ तो क्या होगा वो घड़ी क़यामत की घड़ी होगी। 
 
गुलामों की हालत ऐसी है कि उनको लगता है देश को आज़ादी पहले नहीं मिली थी अब जब से इस शासक को सत्ता हासिल हुई तब मिली है आज़ादी। देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी जान की कुर्बानियां जाने क्यों देते रहे। उस इतिहास को मिटाना चाहते हैं जिस में ऐसे कई नाम आते हैं जिन्होंने आज़ादी की जंग में विदेशी शासकों का साथ दिया आज़ादी की ख़ातिर लड़ने वाले शहीदों की मुखबरी और जासूसी करते रहे लेकिन इस शासन के लोगों को आदर्श लगते हैं। माजरा कुछ और है शहंशाह के दरबार में सजाएं इस कदर खूबसूरत मिलने लगी हैं कि हर कोई गुनहगार होने को बेताब है। सब अपने गुनाहों का इकरार करने लगे हैं ग़ुलामी को बरकत समझने लगे हैं। 
 

 

दिसंबर 14, 2021

हमारी मज़बूरी है लिखना ( कलम का सिपाही ) डॉ लोक सेतिया

  मुश्किल चुप रहना आसां नहीं कहना ( उलझन ) डॉ लोक सेतिया 

लिखने का मकसद क्या है सवाल पूछते हैं सभी दोस्त अपने जान पहचान वाले अजनबी लोग यहां तक बेगाने भी। हर किसी का अपना अलग नज़रिया है कोई समझता है पैसा मिलना चाहिए वर्ना किसलिए जोखिम उठाना सच लिखना और दुश्मन बना लेना ज़माने भर को। किसी को लगता है छपने पर नाम शोहरत मिलती है समाज में बुद्धिजीवी कहलाने से रुतबा बढ़ता है। किताबें छपने पर साहित्यकार की उपाधि हासिल कर ख़ास होने का एहसास मिलता है सरकारी संस्थाओं में जगह ईनाम पुरूस्कार पाने की कतार में खड़े होने का सौभाग्य मिलता है। ये सभी कारण लिखने की वजह नहीं बन सकते और इन सब की खातिर लिखने वाला कलमकार नहीं होता है। लेखक इक सिपाही होता है कलम का सिपाही जो सामाजिक सरोकार और सच्चाई की खातिर निडरता पूर्वक जीवन भर अपनी अंतिम सांस तक लड़ता है तलवार के साथ अन्याय अत्याचार के विरुद्ध देश समाज की वास्तविकता को उजागर कर आडंबर विडंबनाओं विसंगतियों पर चोट करने को। जब कोई लेखक कलम उठाता है उसका दायित्व बन जाता है सार्थक लेखन करना अपना धर्म निभाना अन्यथा संकीर्णता पूर्ण रचनाकार आखिर रोता है जैसा नौवें सिख गुरु तेगबहादुर जी अपनी बाणी में कहते हैं , करणो हुतो सु ना कियो परियो लोभ के फंद , नानक समियो रमी गईयो अब क्यों रोवत अंध। थोड़ा इस विषय को विस्तार से समझते हैं अन्य सभी लोगों को सामने रखते हुए। 
 
शुरुआत आदमी से करते हैं इंसान को इंसानियत और सभ्य समाज की संरचना के लिए जैसा आचरण करना चाहिए वैसा नहीं उसके विपरीत करने पर स्वार्थी खुदगर्ज़ और असमाजिक पापी अधर्मी समझा जाता है। सरकार राजनेता अधिकारी कर्मचारी अपना कर्तव्य देश कानून संविधान की मर्यादा का पालन कर नहीं करते हैं तो उनको पद पर रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। हालत कितनी खेदजनक और भयभीत करने वाली दिखाई देती है जब ये खुद को देश जनता का सेवक नहीं मालिक समझने लगते हैं। आज़ादी के बाद सामन्य नागरिक की हालत बिगड़ती गई है और मुट्ठी भर धनवान एवं राजनीति करने वालों धर्म के झण्डाबरदार बने लोगों तथा विशेषाधिकार प्राप्त टीवी चैनल अख़बार के सच के पैरोकार होने का दावा करने वाले शक्तिशाली बनकर अन्य लोगों की आज़ादी और जीने के अधिकारों का हनन करते हुए संकोच नहीं करते बल्कि अधिकांश गर्वानित महसूस करते हैं सबको जूते की नोक पर रखते हुए। कोई डॉक्टर किसी रोगी को दवा ही नहीं दे तो क्या रोगी की मौत का मुजरिम नहीं हो सकता , बस यही किया है देश की सरकारों ने अधिकारियों ने धर्म उपदेश समाज सेवा के नाम पर आडंबर करने वाले लोगों ने। किसी शायर ने कहा है ' वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता , तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं। '
 
वपस लेखन धर्म की बात पर आते हैं। कोई पढ़ता है चाहे नहीं कोई अखबार पत्रिका छापता है या नहीं हमारा कार्य है अपने समय की वास्तविकता को सामने लाने आईना बनकर जो अच्छा बुरा है उसे दिखलाना। कायर बनकर कलम नहीं चलाई जा सकती है। घर फूंक तमाशा देखना पड़ता है कबीर नानक जैसे संत शिक्षा देते हैं। चाटुकारिता नहीं करना काफी नहीं है आधुनिक काल में दुष्यन्त कुमार होना ज़रूरी है , पहली ग़ज़ल का पहला शेर कहता है ' कहां तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए '। आखिरी ग़ज़ल का शेर भी ज़रूरी है , ' मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं , मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं '। शासक आपको दिलकश खूबसूरत चकाचौंध रौशनियों की दास्तां सुनाते हैं जिनसे करोड़ों गरीबों के घरों में उजाला नहीं हो सकता है। सपनों की दुनिया से बाहर निकलना होगा सपनों का स्वर्ग किसी काम नहीं आता हमको जिस देश दुनिया धरती पर रहना है जीने को उसका अच्छा सुरक्षित और सबके लिए एक समान होना ज़रूरी है। बड़े संतों महात्माओं बड़े आदर्शवादी नायकों ने सदा यही कल्पना की थी भारत देश ही नहीं दुनिया को शानदार मिल जुलकर प्यार से रहने वाली जगह बनाने को जिस में छोटा बड़ा अमीर गरीब का अंतर नहीं हो भेदभाव की दीवार नफरत की भावना नहीं हो। 
 
साहित्य हमेशा सामाजिक पतन को रोकने और उत्थान की राह बनाने का कार्य करता रहा है। मुंशी प्रेम चंद की विरासत को आगे बढ़ाना है अपनी महत्वांक्षाओं को त्याग कर। हम किसी और पर दोष देकर बच नहीं सकते हैं खामोश रहकर ज़ालिम के डर से अथवा अपने लोभ लालच स्वार्थ से झूठ को सच बताना अपनी अंतरात्मा अपने ज़मीर से धोखा करना ज़िंदा रहते लाश बनना होगा। चलती फिरती लाश होना किसी कलम के सिपाही को स्वीकार नहीं हो सकता है। साहित्य कलम की उपासना करते चालीस साल हो चुके हैं अब जाकर पुस्तक छपवाने की शुरुआत करते हुए इस विषय पर चिंतन करना उचित लगा है। पुस्तकें पाठक को पसंद आएंगी खरीदेंगे या मुमकिन है पाठक को मनोरंजन रोचकता की चाह होने से साहित्य की गंभीर रचनाओं समाजिक वास्तविकता से अधिक काल्पनिक विषयों का आनंद भाएगा ये मेरी चिंता का विषय नहीं है। मुझे लिखना है और सिर्फ वास्तविकता को उजागर करने की कोशिश करनी है। और आधुनिक समय की सामाजिक वास्तविकता बेहद कड़वी है उसको मधुर बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।

दिसंबर 07, 2021

तुम्हारे अश्क़ मोती हैं ( मेरा लेखन ) डॉ लोक सेतिया

       

      तुम्हारे अश्क़ मोती हैं ( मेरा लेखन ) डॉ लोक सेतिया

        सभी लोग अपनी पुस्तक के पहले पन्ने पर अपने बारे में लेखन और किताब की बात कहते हैं। मुझे लिखते हुए चालीस साल और अख़बार मैगज़ीन में रचनाएं छपते तीस साल से अधिक समय हो चुका है देश भर में पचास से अधिक पत्र पत्रिकाओं में हज़ारों रचनाएं छपी हैं । ब्लॉग पर ये 1550 से अधिक पोस्ट हैं  दस साल से नियमित लिख रहा हूं और 320000 से अधिक संख्या अभी तक पोस्ट की पढ़ने वालों की है। किताब छपवाने की हसरत रही  है और काफी रचनाओं का चयन ग़ज़ल , कविता- नज़्म , व्यंग्य , कहानी , हास-परिहास की रचनाओं पांच हिस्सों में किया गया है जो इसी ब्लॉग पर लेबल से समझ सकते हैं। लेखक दोस्त और पहचान वाले किताब छपवाने पर चर्चा करते रहे हैं। हिंदी साहित्य को लेकर ये कड़वा सच कभी खुलकर सामने नहीं आया है कि हर किसी के दुःख दर्द की बात लिखने वाले खुद अपने अश्क़ किसी को नहीं दिखाते। तुम्हारे अश्क़ मोती हैं नहीं ये जानता कोई। क्या नाम दिया जाये इस को कि साहित्य का सृजन करने वाले को रचना छपने पर इतना भी उचित मेहनताना नहीं मिलता जिस से उसका पेट भर सके। हर कोई उस से काम लेना चाहता है बिना कीमत चुकाए। मुझे तभी सालों लगे समझने में कि खुद जेब से खर्च कर किताब छपवा उपहार में उनको बांटना जो मुमकिन है पढ़ना भी नहीं चाहते समझना तो दूर की बात है क्या हासिल होगा। मगर पाठक को पढ़ने को मिलना चाहिए ये सोच कर ब्लॉग पर पब्लिश तमाम जगह छपी रचनाओं को पुस्तक रूप में सुरक्षित रखना ज़रूरी लगता है। कभी किसी को अपने लेखन के कॉपीराइट नहीं दिया है अब कानून भी अनुमति नहीं देता है। ये घोषणा करना चाहता हूं मेरा लेखक मौलिक है और उस पर केवल मेरा लेखक डॉ लोक सेतिया का ही संपूर्ण अधिकार सुरक्षित है पंजीकृत है और रहेगा हमेशा। 70 साल की आयु में ये नई शुरआत है मुझे कुछ न कुछ करते रहना पसंद है।
 
    मैंने साहित्य पढ़ा भी बहुत कम है कुछ किताबें गिनती की और नियमित कई साल तक हिंदी के अख़बार के संपादकीय पन्ने और कुछ मैगज़ीन पढ़ने से समझा है अधिकांश खुद ज़िंदगी की किताब से पढ़ा समझा है। केवल ग़ज़ल के बारे खतोकिताबत से इसलाह मिली है कोई दो साल तक आर पी महरिष जी से। ग़ज़ल से इश्क़ है व्यंग्य सामाजिक विसंगतियों और आडंबर की बातों से चिंतन मनन के कारण लिखने पड़े हैं। कहानियां ज़िंदगी की सच्चाई है और कविताएं मन की गहराई की भावना को अभिव्यक्त करने का माध्यम। लिखना मेरे लिए ज़िंदा रहने को सांस लेने जैसा है बिना लिखे जीना संभव ही नहीं है। लिखना मेरा जूनून है मेरी ज़रूरत भी है और मैंने इसको ईबादत की तरह समझा है। 
 

                            मुझे चलना पसंद है ठहरना नहीं 

   कभी कभी खुद से अपने बारे चर्चा करता हूं। आत्मचिंतन कह सकते हैं। मुझमें रत्ती भर भी नफरत नहीं है किसी के लिए भी , उनके लिए भी प्यार हमदर्दी है जिनकी आलोचना करना पड़ती है सच कहने को। कोई व्यक्तिगत भावना दोस्ती की न विरोध की मन में रहती है। कुछ अधिक नहीं पढ़ा है मैंने जीवन को जाना समझा है और उसी से सीखा है। किताबों से जितना मिला समझने की कोशिश की है विवेचना की है। बहुत थोड़ा पढ़ा है शायद लिखा उस से बढ़कर है विवेकशीलता का दामन कभी छोड़ा नहीं है और खुद को कभी मुकम्मल नहीं समझा है। क्यों है नहीं जानता पर इक प्यार का इंसानियत का भाईचारे का संवेदना का कोई सागर मेरे भीतर भरा हुआ है। बचपन में जिन दो लोगों से समझा जीवन का अर्थ मुमकिन है उन्हीं से मिला ये प्यार का अमृत कलश। मां और दादाजी से पाया है थोड़ा बहुत उन में भरा हुआ था कितना प्यार अपनापन और सदभावना का अथाह समंदर। दुनिया ने मुझे हर रोज़ ज़हर दिया पीने को और पीकर भी मुझ पर विष का कोई असर हुआ नहीं मेरे भीतर के अमृत से ज़हर भी अमृत होता गया। और जिनको मैंने प्यार का मधुर अमृत कलश भर कर दिया उनके भीतर जाने पर उनके अंदर के विष से वो भी अपना असर खो बैठा। 

  मेरी कोई मंज़िल नहीं है कुछ हासिल नहीं करना है मुझे लगता है मेरे जीवन का मकसद यही है बिना किसी से दोस्ती दुश्मनी समाज और देश की वास्तविकता को सामने रखना। समाज का आईना बनकर जीना। भौतिक वस्तुओं की चाहत नहीं रही अधिक बस जीवन यापन को ज़रूरी पास हो इतना बहुत है। सुःख दुःख ज़िंदगी के हिस्सा हैं कितने रंग हैं बेरंग ज़िंदगी की चाह करना या सब गुलाबी फूल खुशबू और सदाबहार मौसम किसी को मिले भी तो उसकी कीमत नहीं समझ आएगी। हंसना रोना खोना पाना ये कुदरत का सिलसिला है चलता रहता है। लोग मिलते हैं बिछुड़ते हैं राह बदलती हैं कारवां बनते बिगड़ते हैं हमको आगे बढ़ना होता है कोई भी पल जाता है फिर लौटकर वापस नहीं आता है ये स्वीकार करना होता है। जो कल बीता उनको लेकर चिंता करने से क्या होगा और भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है नहीं मालूम फिर जो पल आज है अभी है उसी को अपनाना है जीना है सार्थक जीवन बनाने को। कितने वर्ष की ज़िंदगी का कोई हासिल नहीं है जितनी मिली उसको कितना जीया ये ज़रूरी है। 

    लोगों से अच्छे खराब होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहता हूं खुद अपनी नज़र में अपने को आंखे मिलाकर देख पाऊं तो बड़ी बात है। मगर यही कठिन है। मैली चादर है चुनरी में दाग़ है और अपना मन जानता है क्या हूं क्या होने का दम भरता हूं। वास्तविक उलझन भगवान से जाकर सामना करने की नहीं हैं अपने आप से मन से अंतरात्मा से नज़र मिलाने की बात महत्वपूर्ण है। और अब यही कर रहा हूं। मैंने खुद को कभी भी बड़ा नहीं समझा है बल्कि बचपन से जवानी तक कुछ हद तक हीनभावना का शिकार रहा हूं। कारण कभी मुझे समझ नहीं आया क्यों हर किसी ने मुझे छोटा होने अपने बड़ा होने और नीचा दिखाने की कोशिश की है। बहुत कम लोग मिले हैं जिन्होंने मेरे साथ आदर प्यार का व्यवहार किया है। जाने कैसे मैंने अपना साहस खोया नहीं और भीतर से टूटने से बचाये रखा खुद को। मुझे कभी किसी ने बढ़ावा देने साहस बढ़ाने को शायद इक शब्द भी नहीं कहा होगा हां मुझे नाकाबिल बताने वाले तमाम लोग थे। मुझे किसी को नीचा दिखाना किसी का तिरस्कार करना नहीं आया और नफरत मेरे अंदर कभी किसी के लिए नहीं रही है। ऐसा दोस्त कोई नहीं मिला जो मुझे अपना समझता मुझे जानता पहचानता और साथ देता। अकेला चलना कठिन था मगर चलता रहा रुका नहीं कभी भी।

    जब भी मुझे निराशा और परेशानी ने घेरा तब मुझे इस से बाहर निकलने को संगीत और लेखन ने ही बचाया और मज़बूत होना सिखाया है। अपनी सभी समस्याओं परेशानियों का समाधान मुझे ग़ज़ल गीत किताब पढ़ने से हासिल हुआ है। इंसान हूं दुःख दर्द से घबराता भी रहा मगर जाने क्यों अपने ग़म भी मुझे अच्छे लगते रहे हैं ग़म से भागना नहीं चाहा ग़म से भी रिश्ता निभाया है। ग़म को मैंने दौलत समझ कर अपने पास छिपाकर रखा है हर किसी अपने ग़म बताये नहीं। इक कमज़ोरी है आंसू छलक आते हैं ज़रा सी बात पर हर जगह मुस्कुराना क्या ज़रूरी है कभी ऐसा हुआ कि हंसने की कोशिश में पलकें भीग जाती हैं। अपने आप को पहचानता हूं और अब तन्हाई अकेलापन मुझे अच्छा लगता है उन महफिलों से जिन में हर कोई अपने चेहरे पर सच्चाई भलेमानस की नकाब लगाए इस ताक में रहता है कि कब अवसर मिले और अपनी असलियत दिखला दे। ये दुनिया और उसकी रौनक मुझे अपनी नहीं लगती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात मुझे बचपन से दोस्ती की चाहत रही है। बहुत दोस्त बनाए हैं साथ दोस्तों से कम रहा है बस इक सच्चे दोस्त की तलाश रही है जो मुझे समझता भी और जैसा हूं वैसा अपनाता भी शायद कहीं है कोई कभी मिलेगा भरोसा है या सपना हो सकता है। ज़िंदगी ने जितना दिया बहुत है। 
 

   फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ( अफ़साना बयां करती ग़ज़ल और नज़्म ) 

( सभी ग़ज़ल से प्यार करने वाले दोस्तों और साहित्य पढ़ने में रुचि रखने वाले बंधुओं को जानकार ख़ुशी होगी कि मेरी पहली पुस्तक ग़ज़ल एवं नज़्म की 151 रचनाओं की आपको पढ़ने को उपलब्ध करवा दी जाएगी। 

किताब की सिमित प्रतियां लागत मूल्य पर भेजी जा सकती हैं अथवा प्रकाशक से खरीद सकते है। 

फोन - 9992040688 

पर मुझसे बात कर मंगवा सकते हैं। 

विश्वास है आपको पसंद आएंगी मेरी चुनिंदा रचनाएं शामिल हैं। 

डॉ लोक सेतिया।  )

 
 
डॉ लोक सेतिया 
एस सी एफ - 30 
मॉडल टाउन ,
फतेहाबाद ,
हरियाणा - 125050 
मोबाइल नंबर - 9416792330 
 
Blog 
http://blog.loksetia.com 
 
Email:- drloksetia@gmail.com   
 
अपनी ग़ज़ल- नज़्म को यूट्यूब चैनल पर अंदाज़-ए -ग़ज़ल नाम से बनाकर कोशिश की है अधिक चाहने वालों तक पहुंचने की कुछ महीने पहले ही। लिंक नीचे दिया है।
 
 
 https://youtube.com/channel/UC5fgxqiYhBth2eRtsQF7oDw

 

दिसंबर 05, 2021

इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया

   नहीं मालूम मुलाक़ात कैसे हो ( लिखा जिनके लिए जीवन भर ) 

          इक कलमकार की चिंता ( पाठक की तलाश ) डॉ लोक सेतिया 

जैसे इक ईबादत इक परस्तिश इक सच्ची मुहब्बत होती है कुछ उसी तरह मैंने जीवन भर लेखन कार्य किया है निःस्वार्थ बिना किसी फायदे नुकसान की चिंता किए। मिलेगा क्या या कुछ भी हासिल नहीं होगा कभी इस पर विचार नहीं किया। पहले पहले अखबार पत्रिका में छपने की चाहत रहती थी धीरे धीरे उस पर ध्यान देना छूट गया जब लिखना इक जूनून बन गया ज़रूरत बन गया मज़बूरी है लिखे बगैर चैन नहीं आता। जैसे कोई खेत में ज़मीन तैयार करता है फसल बोता है पकने पर जिनको ज़रूरत है पहुंचाने को मंडी में सस्ते महंगे दाम बेच आता है लेकिन कभी ये भी होता है जिनको सबसे अधिक ज़रूरत होती है उन्हीं तक अनाज नहीं पहुंचता और अनाज कहीं गोदाम में सड़ता है और कहीं लोग भूखे रह जाते हैं। साहित्य कला की कोई मंडी होती तो नहीं ये कोई बाज़ारी चीज़ नहीं अनमोल वस्तु है दाम चुकाना मुमकिन नहीं लेकिन तब भी इक कारोबार इक बाज़ार बना हुआ है जहां चमकती चीज़ सोना हीरा जवाहरात बनकर खरीदी बेची जाती है। कला का कोई ऐसा मंदिर ढूंढना होगा जहां नाम शोहरत और बाज़ारी तौर तरीके से वाक़िफ़ नहीं जो रचनाकार उनको कीमत नहीं कम से कम उन लोगों से मुलाक़ात तो हो जिन पाठक वर्ग की खातिर उस की कलम तपस्या करती रही। आज ये खुद अपने लिए लिख रहा हूं जब सालों लिखने के बाद किताब छपवाने का कार्य करने लगा हूं। शायद बहुत लिखने वालों की यही चिंता रहती होगी पाठक की तलाश पढ़ने वालों से सीधा संवाद कैसे कायम हो। 
 
पुस्तक छपवाने का फैसला लेना आसान नहीं रहा है इक बड़ा लंबा रास्ता तय किया है खुद अपनी डगर बनाना कोई खालाजी का घर नहीं है। कितने काफ़िले बने कितने हमराही बन चले साथ बिछुड़ते रहे लघुकथा क्या कहानी भी नहीं उपन्यास लिखना होगा। मेरे बस की बात नहीं फिर भी पाठक की तलाश का सफर कैसा था बताना तो पड़ेगा। कोई बीस साल पहले मुलाकात की बड़े नाम वाले शानदार साहित्यकार से दिल्ली में। पूछा आप महान कथाकार हैं किताबें भी छापने का कारोबार करते हैं मुझे सलाह दें ग़ज़ल की किताब छपवाना उचित होगा। जवाब हैरान करने वाला था , हिंदी में कौन पढ़ता है अपनी तसल्ली को पैसे खर्च कर छपवा जान पहचान के लोगों को उपहार दे देते हैं। अख़बार पत्रिका में समीक्षा खुद ही किसी से लिखवा भेजते हैं साहित्य अकादमी में निदेशक से मधुर संबंध बना कर नाम शोहरत ईनाम पुरूस्कार हासिल कर समझ लेते हैं लिखना सफल हुआ। मैंने कहा आपकी मेहरबानी खुल कर वास्तविकता समझाई लेकिन मेरा मकसद ऐसा हर्गिज़ नहीं है ये शोहरत नाम ईनाम पुरूस्कार नहीं चाहता उद्देश्य सार्थक सृजन है जो साहित्य में रूचि रखने वाले पाठक तक बात पहुंचे ताकि समाज की वास्तविकता उजागर होने एवं बदलाव लाने में उपयोगी हो। 
 
लिखने वाले कितने लोगों से मिलते मिलते लगने लगा साहित्य के नाम पर अधिकांश का ध्येय समाज की वास्तविकता और विसंगतियों को उजागर कर आईना दिखाना बदलाव कर अच्छे समाज का निर्माण करना नहीं बल्कि खुद अपने आप पर आत्ममुग्ध होना है। आगे बढ़ना ऊंचाई पर पहुंचने को हर तरह से चतुराई और समझौता कर इक मुकाम पाना रहा साहित्य जगत में जगह बनाना। जिस समाज की दुःख दर्द की असमानता अन्याय अत्याचार की बात लिखते हैं कविता कहानी ग़ज़ल उपन्यास में वास्तव में उन से सरोकार कहने को ही है वास्तविक संवेदना कहीं खो जाती है। जैसे किसी दर्द भरी दास्तां लिखने वाला कथाकार खाली पेट दर्द सहकर लिखता है लेकिन फ़िल्म में तालियां और दौलत अभिनेता के हिस्से में आती हैं जो गरीबी भूख बेबसी से अनजान होता है। 
 
अखबार पत्रिकाओं में रचनाएं छपना अच्छा लगता है लेकिन आपको छापने वालों का आभार व्यक्त करने के साथ उनकी उचित अनुचित बातों को लेकर खामोश रहना पड़ता है। जैसे आपने लेखक के अधिकार उस के जीवन यापन जैसी बात पर ध्यान दिलाया गलती से मेहनताना नहीं मिलने की बात अथवा उनके दोहरे मापदंड अपनाने को लेकर शब्द लिख दिया आपको सज़ा मिलना तय हो जाता है। चाटुकारिता उनको भी खूब भाती है खुद विज्ञापन देने वालों को भगवान की तरह मानते हैं और जो इनकी बढ़ाई का गुणगान करता है उन की रचनाओं को जगह देने को तैयार रहते हैं। आजकल सोशल मीडिया पर छापने वाले संपादक का आभार जताना रिवायत बन गया है। कोई ज़माना था संपादक फोन कर चिट्ठी भेज कर अनुरोध किया करते थे रचना भेजने को। अखबार पत्रिका टीवी सीरियल फिल्म अर्थात जहां कहीं भी विचार विमर्श समाज की जनहित जनकल्याण की बात होना ज़रूरी है लेखक जो आधार होता है बुनियाद की तरह पहली ज़रूरत उसका स्थान हाशिए पर होता है। जिनकी खुद की किताबों की रायल्टी मिलती है वो भी अपने संस्थान में रचनाकार को मानदेय तक नहीं भेजते कभी कभी तो लेखक का शोषण किया जाता है सदस्य्ता शुल्क नहीं भेजते तो रचनाएं नहीं छपती उनका चलन है। ऐसा लगता है साहित्य का उपयोग सभी करते हैं उसकी कीमत नहीं समझते बस साहित्य का कारोबार खूब बढ़ रहा है मकसद की धारणा छूट गई है। 
 
समाचार पढ़ते हैं अमुक साहित्यकार ने पुस्तक भेंट की सरकारी बड़े अधिकारी राजनेता किसी बड़े नाम वाले समाजसेवी अभिनेता आदि को। इतने व्यस्त रहते हैं और उनको साहित्य से सरोकार नहीं होता बल्कि बहुत लोग विपरीत आचरण करने वाले भी हो सकते हैं लिखने वाले को अवसर मिलना चाहिए फिर रामायण गीता की तरह आदर्शवादी कृति को रिश्वतखोर भ्र्ष्टाचारी को भी सच्चाई ईमानदारी पर लिखी पुस्तक भेंट करते उनसे प्रेरणा पाने की बात कहने में संकोच नहीं होता है। हज़ारों रूपये मूल्य की महान लोगों की जीवनी लिखने वाले की पुस्तक सरकारी अनुदान देने वाली संस्था विश्वविद्यालयों को खरीदने को लिखती देखी। काश यू जी सी से हम भी ऐसा सहयोग पा सकते , ये व्यंग्य रचना " मेरी भी किताब बिकवा दो "
छप चुकी है इरादा नहीं उस राह चलने का। 
 
पहली किताब जल्द ही छपने वाली है ग़ज़ल और नज़्म की। और उस के बाद कविताओं की , फिर व्यंग्य रचनाओं की उसके बाद कहनियों की पुस्तक तैयारी की हुई है। सच कहना चाहता हूं मुझे नहीं मालूम कौन मेरी रचनाओं को पढ़ना चाहता है। इस पोस्ट के माध्यम से पाठक की तलाश है जिनको हिंदी साहित्य की ललक हो चाह हो। कीमत की चिंता मत करना लागत मूल्य पर भेजने का संकल्प है और भरोसा है कि आपको खेद नहीं होगा पढ़कर कुछ सार्थक मिलेगा उम्मीद है। 
 
संपर्क - 9992040688 पर बात कर सकते हैं पुस्तक मंगवाने के लिए। छपते ही सूचना आपको एवं सोशल मीडिया पर दी जाएगी।
 


दिसंबर 02, 2021

कांटो का गुलशन है ये ( सोशल मीडिया की बात ) डॉ लोक सेतिया

   कांटो का गुलशन है ये ( सोशल मीडिया की बात ) डॉ लोक सेतिया 

मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली , इसी तरह से बसर हमने ज़िंदगी कर ली। कैफ़ी आज़मी के अल्फ़ाज़ मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ अनोखी रात फिल्म का गीत नायक परीक्षित साहनी का किरदार असित सेन का निर्देशन सब पर्दे पर लाजवाब लगता है वास्तविक ज़िंदगी में बात अलग होती है। बशीर बद्र जी की बात सही लगती है , भूल शायद बहुत बड़ी कर ली , दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली। सोशल मीडिया पर चाहा था अच्छे सच्चे दोस्त की तलाश पूरी हो जाए शायद हुआ ऐसा कि दुश्मनी शब्द भी छोटा लगता है। घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए। हर कोई फेसबुक व्हाट्सएप्प को कचरा डालने की जगह समझता है मन की बात कम होती है अनबन की ज़्यादा। समय की बर्बादी होती है हासिल इतनी उलझन कि समझना मुश्किल हो जाता है सच क्या झूठ क्या , अफ़वाह का बाज़ार  सा है घबराहट होने लगती है लगता कोई पागलखाना है जिस में सभी मनोरोगी नासमझ फज़ूल की बकझक अजीब सी उल्टी सीधी हरकतें कर ख़ुशी से नाचते झूमते हैं। कोई पागल खुद को पागल नहीं मानता सबको लगता है बाक़ी दुनिया पागल है। खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो फ़िल्मी नायक का पागलपन ठीक करने को अमीर बाप बाज़ार से खिलौने की तरह नाचने वाली बुला लाते हैं। सोशल मीडिया के पागलपन का कोई ईलाज मुमकिन नहीं है इश्क़ के मरीज़ की तरह मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की , फेसबुकिया इश्क़ पर लानत खुदा की। इस नामुराद सोशल मीडिया का नशा उन पर और गहरा चढ़ता है जिनको शराब अफ़ीम चरस गांजा सिगरेट जैसे नाम से भी परहेज़ है , तौबा तौबा क्या कहते हैं भाई हम शाकाहारी धर्म संस्कार वाले नशे की बात करना गुनाह है। नाम लिया हुआ है गुरूजी के दर्शन करते हैं निहाल हो जाते हैं। 
 
सोशल मीडिया जानने समझने की जगह नहीं कोई मैदान ए जंग बन गया है भाई बंधु दोस्त रिश्तेदार सब को छोड़ सकते हैं किसी की चाटुकारिता अंधभक्ति कभी नहीं छोड़ सकते। जिनकी महिमा का गुणगान करते हैं उनके सौ खून हज़ार गुनाह करोड़ झूठ माफ़ किये जा सकते हैं उनकी आलोचना करने वालों का सच माफ़ी के काबिल नहीं उसकी सज़ा ज़रूरी है। क्या करें खुदा बना लिया जिसको जीहज़ूरी करना मज़बूरी है। इस सोशल मीडिया ने बढ़ाई आपस में दूरी है नफरत की खाई रास्ते में आई है चोर पुलिस ने मिलकर शपथ उठाई है। जो ईमानदार कहलाये सबसे बड़ा हरजाई है अधिकारी नेता माई बाप हैं गरीब जनता सबकी भौजाई है। अजब मुसीबत है गले पड़ा ढोल है बजाना पड़ता है स्टेटस कुछ भी नहीं स्टेटस बढ़ाना है तो बिना कारण मुस्कुराना पड़ता है बिना सोचे समझे बगैर जाने पढ़े बिना लाइक दबाना पड़ता है। कमेंट क्या लिखना समझते नहीं स्माइली से काम चलाना पड़ता है। फुर्सत नहीं काम कितने कोई करे मसरूफ़ हैं समझाना पड़ता है दिल नहीं लगता दुनिया में स्मार्ट फोन पर घंटों बैठ वक़्त बिताना पड़ता है। बस मज़बूरी हो पेट भरने को खाना और वाशरूम जाकर नहाना पड़ता है रिचार्ज करवाना मज़बूरी है वाई फाई लगवाना पड़ता है। 
 
हम आज़ाद नहीं गुलाम बन गए हैं सच कहें तो कागज़ी पहलवान बन गए हैं। कठपुतली सभी नादान इंसान बन गए हैं अजनबी लोग भाईजान मेहरबान बन गए हैं। चाय की प्याली के हम तूफ़ान बन गए हैं। अभिशाप मिला है हमको नासमझी को समझदारी मानते हैं आदमी थे पायदान बन गए हैं । आखिर में इक ग़ज़ल के बोल हैं।   
 

कोई समझेगा क्या राज़ ए गुलशन , जब तक उलझे न कांटों से दामन। 

गुल तो गुल खार तक चुन लिए हैं , फिर भी खाली है गुलचीं का दामन। 

   फ़ना निज़ामी कानपुरी ( शायर )