जनवरी 29, 2023

दर्द भरी दास्तां ( अफ़साना ग़ज़ल का ) डॉ लोक सेतिया

       दर्द भरी दास्तां ( अफ़साना ग़ज़ल का ) डॉ लोक सेतिया 

ग़ज़ल की हालत देख कर आंसू निकल आए , इतने शानदार सभागार में मुशायरा आयोजित किया गया था , ग़ज़ल की उदासी देखी नहीं गई । देखा खड़ी थी अकेली इक कोने में अपने दर्द को अकेले सहती छुपती हुई , दुःख को छुपाती हुई । हाथ जोड़ निवेदन किया चलो आपकी जगह सामने सजे मंच पर है यहां नहीं आप को सुनने आये हैं हज़ारों चाहने वाले । ग़ज़ल कहने लगी ठीक से पढ़ो कहीं लिखा है मेरा नाम सब को किसी नाम वाले शायर को सुनना है देखो कितने शायरों के नाम उनकी तस्वीर लगी हैं बैनर पर ग़ज़ल की कोई तस्वीर कोई नाम होता नहीं है एहसास हुआ करते हैं । ग़ज़ल की बात कोई नहीं करता इन दिनों कुछ लोग जिनकी शोहरत है उनकी बात होती है मेरे अपने हैं लेकिन मुझसे अनजान हो गये हैं नाम शोहरत पहचान दौलत मिली तब से बेगाने बन गए हैं । ग़ज़ल ने अपनी दर्द भरी दास्तां मुझे सुनाई शायद किसी और को ग़ज़ल को क्या हुआ क्या क्यों हो रहा उसको घायल किया जा रहा कि क़त्ल किया जाने लगा है समझने की फुर्सत नहीं थी । तालियां बजती रहीं वाह वाह लोग कहते रहे और शायर लोग ग़ज़ल से बढ़कर जाने क्या क्या करते रहे । अब उसकी हिक़ायत खुद ग़ज़ल की ख़ामोश लबों की ज़ुबानी लिखी नहीं कही है उसने समझना चाहो तो समझना पढ़कर भूल मत जाना । 
 
महफ़िल में मुझे टुकड़े टुकड़े कर हिस्सों में बांटकर सुनाने वाले क्या मेरे आशिक़ हैं कोई शेर किसी ग़ज़ल का कोई मतला कोई बीच का भाग जैसे किसी महबूबा माशूका के मुखड़े जिस्म के अंगों की नुमाईश बाजार में कोई करे ।  ग़ज़ल आधी-अधूरी क्या मुकम्मल अच्छी नहीं लगती जैसे होंट आंखें कमर छाती हाथ पांव सब मिलाकर उसकी शख़्सियत की बात नहीं करते जिस्म को देखते हैं रूह से वाकिफ़ नहीं जो लोग । कोई किसी आयोजक को मुख़ातिब होकर पढ़ता है कोई अपनी किसी बात से जोड़ता है । ग़ज़लियत की ग़ज़ल की नफ़ासत की नाज़ुकी की ईशारों की मुहावरेदार भाषा की स्वभाव की बात को दरकिनार कर पथरीली आवाज़ में किसी जंग किसी नफरत की राजनीति से धर्म की चर्चा होती है जबकि ग़ज़ल का इस सब से कोई भी सरोकार कोई रिश्ता नहीं होता है । शासक राजनेता अधिकारी वर्ग संवेदना शून्य लोग मानवीय दुःख दर्द से जिनका कोई नाता नहीं मंच से शायरी करते हुए शायर और उसके अल्फ़ाज़ को बेरहमी से क़त्ल करते हैं । भला मेरा उनसे कोई संबंध मुमकिन है ग़ज़ल सच का आईना है सोने चांदी के गहनों से झूठ को सजाकर कुछ हासिल नहीं हो सकता हैं । अब न तो ग़ज़ल कहने का शऊर है शायरों में और न सुनने वालों में सुनने का सलीका और कोई पैग़ाम भी नहीं देती आधुनिक युग की रास्ता भटकी ग़ज़ल नाम की रचनाएं । 
 
ग़ज़ल किसी को बड़ा छोटा नहीं समझती और न किसी की महिमा का गुणगान करती है न ही किसी से टकराव करना जानती है ।  ग़ज़ल प्यार मुहब्बत इंसानियत का संदेश देती है उसको किसी सरहद की दिवारों में कैद करना मुमकिन ही नहीं है । ग़ज़ल ने इक सवाल पूछा है दुनिया भर में ग़ज़ल की महफ़िल सजाने वालों से कि वहां ग़ज़ल सुनने कहने पढ़ने कौन आते हैं और कौन किसी नाम वाले शायर को सुनने आते हैं । अगर ग़ज़ल की बात है ग़ज़ल से इश्क़ है तो बस ग़ज़ल का ज़िक्र हो बाक़ी सब को छोड़कर । ग़ज़ल कहने वालो मुझे अल्फ़ाज़ से बहर में छंद का ख़्याल रखते हुए बयां करना सीख लिया और मधुर स्वर में गाकर सुनने वालों को मुग्ध कर लिया लेकिन तौर तरीका अंदाज़ मेरे साथ मेल खाता नहीं तो बनाव श्रृंगार किस काम का । कवि सम्मेलन मुशायरे शोर लगते हैं ग़ज़ल से जो सुकून मिलता है वो नहीं दिखाई देता है । जो सुनकर लोग भीतर अंतर्मन तक महसूस कर स्तब्ध नहीं हो जाएं और ताली बजाना वाह वाह करना भूल खामोश रह जाएं वो लाजवाब ग़ज़ल सुनाई नहीं देती जो सभा से उठकर घर जाने पर भी ज़हन में गूंजती रहती हो ।  
 

 आखिर में मेरी डॉ लोक सेतिया 'तनहा' की इक ग़ज़ल पेश है  :-

दिल पे अपने लिख दी हमने तेरे नाम ग़ज़ल
जब नहीं आते हो आ जाती हर शाम ग़ज़ल ।

वो सुनाने का सलीका वो सुनने का शऊर
कुछ नहीं बाकी रहा बस तेरा नाम ग़ज़ल ।

वो ज़माना लोग वैसे आते नज़र नहीं
जब दिया करती थी हर दिन इक पैगाम ग़ज़ल ।

आंसुओं का एक दरिया आता नज़र मुझे
अब कहूँ कैसे इसे मैं बस इक आम ग़ज़ल ।

बात किसके दिल की , किसने किसके नाम कही
रह गयी बन कर जो अब बस इक गुमनाम ग़ज़ल ।

जामो - मीना से मुझे लेना कुछ काम  नहीं
आज मुझको तुम पिला दो बस इक जाम ग़ज़ल । 
 

 

जनवरी 23, 2023

दुनिया बनाने वाला हैरान परेशान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     दुनिया बनाने वाला हैरान परेशान ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ बात ऐसी हुई कि ऊपरवाला खुद अपने निवास स्थान को छोड़ नीचे धरती पर चला आया । सोचा था शायद वहीं चैन सुकून मिला तो वापस आसमानों की तरफ भूले से भी देखना नहीं । धरती पर आकर देखा तो दुनिया बदल चुकी थी जैसी उसने बनाई और जिस भविष्य की कल्पना कर धारणा बनाकर छोड़ दिया था दुनिया को खूबसूरत से भी बढ़कर शानदार सभी के जीने ख़ुशी से रहने को तमाम चीज़ें उपलब्ध करवा कर उसका कोई वजूद ही नहीं था । उसने कभी ऐसी दुनिया बनाने की चाहत नहीं की थी ये कोई और किसी शैतान की बनाई दुनिया लगती है । घूमते फिरते अजनबी लोगों से पूछता रहा ये कौन सी दुनिया है किस ने बनाया है ये सब तबाही का मंज़र दिखाई देता है कोई भी यहां जितना भी हासिल है उस को पाकर संतुष्ट नहीं है । चलते चलते कितने बड़े बड़े महल जैसे मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरजाघर कितने धर्मों के धार्मिक स्थल नज़र आये काफी तहकिक़ात के बाद पता चला ईश्वर अल्लाह जीसस वाहेगुरु रहते हैं उन जगहों पर । देवी देवता पीर पय्यमबर फ़रिश्ते मसीहा संत साधु उपदेशक असंख्य नाम वाले गली गली शहर शहर बस्ती बस्ती गांव गांव विराजमान हैं जिनकी आराधना पूजा ईबादत आरती महिमा का गुणगान होता है । धन दौलत चढ़ावा तरह तरह के व्यंजन उनको भोग लगाए जाते हैं हीरे जवाहरात सोना चांदी के ज़ेवरात पहनाए जाते हैं । खुदा को अल्लाह को बंदे मनाए जाते हैं किस बात से खफ़ा हुआ दुनिया का मालिक कोई नहीं जानता भजन आरती अरदास क्या क्या नहीं जिस को रोज़ सुबह शाम दोहराए जाते हैं । इक पहेली है विधाता ईश्वर ख़ुदा कितने नाम हैं सभी सुलझाने की बात नहीं करते उलझन को बढ़ाए जाते हैं । इक दुनिया बनाने वाले के अनगिनत तस्वीरें बुत क्या क्या नहीं बनाकर बाज़ार में सिक्का जमाए मुनाफ़ा कमाए कारोबार चलाए जाते हैं ।  किसी कंपनी की तरह शाखाएं खोलते जाते हैं ख़रीददार को जो मांगोगे मिलेगा की तरह झांसा देकर उल्लू बनाए जाते हैं । 
 
आखिर उपरवाले को एहसास हुआ कि दुनिया को बनाकर उसे अपने हाल पर छोड़ आज़ादी से सबको मनमानी करने की छूट देना बड़ी गलती थी और उसको खुद हर दिन पल पल संभालना भी उसका दायित्व था । कुछ सहायकों को देखभाल करने को नियुक्त करने से सब सुचारु ढंग से नहीं चल सकता था । बहुत सोचने चिंतन करने के बाद विधाता ने निर्णय लिया जब तक तमाम समस्याओं को समझ नहीं लेते और समाधान नहीं खोज लेते उस आकाशलोक में नहीं लौटना है । बहुत दिन से दुनिया का मालिक फुटपाथ पर रह रहा है । उधर ऊपर जब मालिक बहुत समय तक दिखाई नहीं दिए तो उस लोक में सबको चिंता होने लगी ढूंढते ढूंढते थक गये सभी तब राज़ खुला किसी ने कटाक्ष किया था मालूम भी है जिस दुनिया को बनाया था किस हाल में है । भारत देश के लोकतंत्र की तरह सिंघासन पर विराजमान शासक अधिकारी सोचते हैं सब बढ़िया है शानदार है क्योंकि सरकारी आंकड़े योजनाएं सभी दिखलाते हैं चारों तरफ हरियाली है फूल ही फूल खिले हैं । भूख गरीबी बदहाली अन्याय अपराध भेदभाव जनता की समस्याएं कब की मिटाई जा चुकी हैं उन फाईलों को दीमक चाट गई है और अधिकारी कर्मचारी सरकारी अनाज के गोदामों को पेट भरकर खाते खाते मस्ती में झूमते रहते हैं । देश का सारा धन दौलत साधन पांच फ़ीसदी अमीरों का  है बाकी को कुछ नहीं मिला और उनको समझाया गया है कि ये उनकी फूटी किस्मत है बदनसीबी है । सरकार समाज का कोई दोष नहीं है दुनिया बनाने वाले ने सबको एक समान देने का प्रावधान नहीं किया है तभी जिसकी लाठी उसकी भैंस का शासन कायम है । मुश्किल अजीब है ऊपरवाला अपनी बनाई दुनिया को  देख कर दंग है और जिनको बनाया था वो बंदे उसको पहचानते नहीं मानते ही नहीं खुद ईश्वर धरती पर आया है अपने आप बगैर किसी कर्मकांड आयोजन किये ।  

उपरवाले को खोजते खोजते उस लोक वासी धरती पर पहुंचे और बदली दुनिया के हालात उसके आधुनिक अंदाज़ को देख समझ कर विधाता को मनाने लगे ज़िद छोड़ अपनी आसमानी दुनिया को लौट चलें । बस अब बहुत देर कर दी तुमने दुनिया को बनाकर सुध बुध नहीं ली अब सब ने अपने अपने भगवान खुदा देवी देवता बना लिए हैं । दुनिया  को उनके खुद के बनाये नकली भगवानों के रहमो करम पर छोड़ कोई और नई असली दुनिया बनाओ  ये सब मानते भी हैं कि असली दुनिया कहीं कोई और है । लेकिन ऊपरवाला नहीं माना उस से अब कोई नई दुनिया बन ही नहीं सकती अपनी गलती की सज़ा झेलनी पड़ेगी उसको फुटपाथ पर रहना होगा प्रायश्चित करने को ।  टीवी पर देखा कोई फ़िल्मी अदाकारा को आरती कर रहे थे कोई किसी शातिर अपराधी को मन की बात समझने वाला समझ उसके पांव पकड़े थे कोई किसी राजनेता की तस्वीर के सामने सर झुकाए खड़े थे , कितने लोग अपना भगवान खुदा कितनी बार बदल रहे थे । दुनिया असली कैसे रहती जब दुनिया वालों ने अपनी पसंद से साहूलियत को देख ईश्वर नकली बनाकर उनकी भक्ति शुरू कर दी है ।



जनवरी 20, 2023

पानी का सफ़र ज़िंदगी भर ( चलते-चलते ) डॉ लोक सेतिया 

     पानी का सफ़र ज़िंदगी भर ( चलते-चलते ) डॉ लोक सेतिया  

   न जाने किसकी कही बात पढ़कर अपनी ज़िंदगी के सफर को बयां करने को शब्द मिले शीर्षक की तलाश थी पूरी हुई । अब क्या लिखना सोचने की ज़रूरत नहीं है लेकिन आसान भी नहीं जीवन की कड़ियों-लड़ियों को तरीके से जोड़ना सिलसिलेवार शुरआत से अभी तलक जारी सफर तक । इक बहता हुआ पानी जिसे खुद अपने उद्गमस्थल  का पता नहीं किधर जाना कब तक कहां तक चलते रहना कोई खबर नहीं । कहीं किसी ने शब्द लिखे हुए थे , पत्थरों पर पानी के निशां रहते हैं मगर पानी पर कोई निशां पत्थरों का नहीं रहता है । पत्थर ही पत्थर मिलते रहे नसीब से कोई रास्ते में रुकावट बनकर कभी कोई किसी ने हाथ से उछाल कर फैंका मुझे आहत करने को । राह के रोड़े पत्थर से टकराता बचता राह बनाता बढ़ता गया और जितने भी जिस जिस ने मेरे भीतर हलचल पैदा करने को फैंके पत्थरों को अपने भीतर संजोता गया उछालने वालों पर कुछ फुहार की तरह छींटे देकर भिगोता हुआ । कोई किनारा किसी नदी की तरह मुझे नहीं मिला बांध कर रखने को मेरी फितरत आज़ाद सफर जिधर मर्ज़ी चलते रहने की बनी रही । अभिलाषा है किसी रेगिस्तान में मरु उद्यान बनकर कुछ फूल कुछ पेड़ पौधे कुछ पंछियों पशुओं राह चलते गुज़रते आते जाते मुसाफिरों की प्यास बुझाने को उपयोगी बन कर रहने की । 
 
     मैंने पहले बताया था मैं इक पौधा हूं जो उग आया किसी तपते रेगिस्तान में जैसा लगता है जिस को कितनी बार कुचला गया पैरों तले कभी आंधियों तूफानों ने बर्बाद किया कभी जानवर खाते उजाड़ते रहे । मैं जाने क्यों और कैसे दोबारा उग जाता रहा भले बौना रहा कद मेरा और फ़लदार नहीं बन पाया हालात की सौग़ात के कारण । मैं प्यासा हूं खुद पानी होकर भी अपनी नियति पर हैरान भी हूं , मेरा कोई ठिकाना नहीं मेरा घर है जिस में दुनिया बसती है कितने अपने पराये रहते हैं बस अनचाहा महमान भी मैं ही हूं । बहता पानी बनकर अपने निशां सभी पर छोड़े हैं ऊबड़ खाबड़ पत्थरों को सलीके से तराशा है उनकी शक़्ल को कितना नर्म मुलायम बना दिया है । कभी कभी तो कोई पत्थर कीमती बन कर ऊंचे आलीशान भवनों की शान बन गया या किसी महल की गुंबद होकर खुद पर इतराने लगा है । पत्थर को देवता भगवान बनाया मैंने अपने हाथ से तराशकर और वही मुझ से मेरी निशानी मांगते हैं जब मैं उनको नहलाने को लाया जाता हूं पावनता की कसौटी पर जांचा परखा जाता हूं । कितने नामों से जाना जाता हूं लेकिन इन्हीं सब बातों में वास्तविक अस्तित्व को खो जाता हूं । 
 
   इक हरियाणवी लोक कथा की बात याद आई पानी और प्यास को लेकर । अपने खेत पर कुंवे पर पानी की गागर भरती पणिहारिन से राह चलते चार राही पानी पिलाने की बात कहते हैं तो पणिहारिन पहले अपना परिचय बताओ तभी पिला सकती हूं अजनबी अनजान लोगों बात नहीं करती । पहला व्यक्ति जवाब देता है कि हम मुसाफ़िर हैं , पणिहारिन बोलती है कि मुसाफिर तो दो ही हैं सूरज और चांद तुम कैसे मुसाफिर कहला सकते हो । तब दूसरा व्यक्ति जवाब देता है कि हम प्यासे हैं , पणिहारिन बोलती है कि दुनिया में प्यासे तो दो ही हैं एक चातक पंछी और दूसरी धरती माता तुम प्यासे कैसे कहला सकते हो । तब तीसरा व्यक्ति जवाब देता है कि हम तो बेबस हैं ,  पणिहारिन बोलती है कि तुम बेबस कैसे कहला सकते हो बेबस तो दो हैं दुनिया में इक गाय और दूसरी कन्या । ऐसे में चौथा व्यक्ति कहता है कि हम तो मूर्ख हैं , तब पणिहारिन बोलती है कि मूर्ख तो दो होते हैं जगत में इस का जवाब कहानी के आखिर में देती है पणिहारिन न्यायधीश को । पानी को लेकर बहुत कुछ समझाया गया है फिर भी समझना बहुत बाक़ी है ।  तू पी - तू पी राजस्थानी लोक कथा है तो इक नीति कथा धरती का रस भी है मगर हम पानी पानी रटते हैं प्यास कैसे बुझेगी बिना पिये पानी । धरती समंदर पर पानी ही पानी है फिर भी पीने को पानी काफ़ी नहीं खारा और खराब प्रदूषित पानी बेकार है । कभी आंख का शर्म का पानी हुआ करता था इंसानों में सबसे मूलयवान आजकल ढूंढने से दिखाई नहीं देता । ज़िंदगी भर जारी रहता है जो सफर उस में पानी की अहमियत बहुत है । पानी और प्यास का रिश्ता क्या है कोई समझ नहीं सका अभी भी , ये किस की बात है कौन जाने । 



 
 

जनवरी 15, 2023

नकली की कीमत असली की चाहत नहीं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  नकली की कीमत असली की चाहत नहीं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   ये युग ये आधुनिक काल सब इक धोखा है छल है कुछ भी सच में असली नहीं है हम खुद असली इंसान नहीं हैं इंसान कहलाते हैं बन नहीं सकते इंसानियत झूठी है आडंबर करते हैं ज़रूरत पड़ने पर हैवानियत जाग जाती है और इंसानियत को क़त्ल कर क़ातिल हो कर भी मसीहा होने का दम भरते हैं । रिश्ते नाते खुशियां क्या दुःख-दर्द तक वास्तविक नहीं दिखावे को होते हैं । सोशल मीडिया पर सभी संदेश खोखले होते हैं जिन में भावनाएं नहीं औपचारिकताएं निभाते हैं हमदर्दी नहीं किसी के साथ न किसी से कोई वास्तविक एहसास ख़ुशी का आनंद का । मिलते नहीं मिलना ज़रूरी नहीं लगता बात तक करने की फुर्सत नहीं है हर कोई अकेला अपने आप में ग़ुम है अपने से अजनबी मगर अनजान अजनबी लोगों में अपनापन ढूंढता है । अपनी फेसबुक व्हाट्सएप्प पर लिखते हैं जो खुद भी शायद समझ नहीं पाते दुनिया को समझाते हैं और लाइक्स कमैंट्स को दौलत मनाते हैं कमाई हुई आसानी से । सोशल मीडिया से लेकर धार्मिक उपदेश तक सभी बेअसर साबित होते हैं अनुचित आचरण अनैतिक कार्य बढ़ते जाते हैं समाज नीचे गिरता जाता है । दोस्ती नकली है संख्या भर है हमेशा साथ निभाने वाला कोई नहीं मिलता है । प्यार इश्क़ मुहब्बत सब कुछ बाज़ार जैसा है कब क्या हो कोई नहीं जानता सभी ख़ुद को सच्चे आशिक़ समझते हैं और निभाने की बात पर हज़ार बहाने होते हैं । संग संग जीना मरना कोई नहीं समझता जब तक निभ सके ठीक है फिर अलग राह चुनते हैं दोनों आशिक़ मशूका । 
 
    देश सेवा का कारोबार नकली है गरीब , साहूकार नकली है जनता की चुनी उसकी सरकार हर बार नकली है , टीवी चैनल का हर इश्तिहार नकली है । भगवान असली आजकल नहीं दिखाई देता है ईश्वर के नाम पर मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे में कोई और रहता है जो बड़े छोटे अमीर गरीब ऊंचे नीचे धनवान सबको दर्शन देता है चढ़ावा और शान ओ शौकत का सामान बनकर । मन मंदिर आत्मा और सच्चे ढंग से प्रार्थना करने की कोई शर्त नहीं है मनमर्ज़ी से अधर्म करते जाओ और तीर्थ स्थल पर करोड़ों दान दे कर धर्मात्मा कहलाओ । मौसम का मिजाज़ नकली है नकली हवाएं नकली दवाएं क्या दुआएं भी असली नहीं हैं संतों महात्माओं का आशिर्वाद नकली है आश्रमों का धर्म वाला हिसाब नकली है । कीमत ऊंची है नकली चीज़ों की असली का कोई चाहने वाला नहीं मिलता है । घर भी नकली हैं गलियां चौराहे सब नकली हैं रौनकें नकली हैं उत्स्व नकली हैं मनोरंजन असली नहीं फूहड़ता और असभ्य भाषा नग्नता को परोसना फिल्म टीवी सीरियल का गंदा कारोबार बन गया है । समाज को दिशा दिखाना नहीं भटकाना फ़ायदे का कारोबार हो गया है । उपचार करने वाला सबसे बड़ा बीमार हो गया है ।  दोस्त से नफरत , दुश्मन से प्यार हो गया है , झूठों का सरदार सच का झंडाबरदार हो गया है , सच  असाध्य रोग का रोगी बन गया है उसका नहीं संभव उपचार हो गया है ।  
 
   भाग दौड़ नकली है चाहतें ख़्वाहिशें नकली हैं नकली शोहरत नकली ऊंचाई नकली मसीहाई है असली की बात मत पूछो रामदुहाई है । दिन - रात नकली दूल्हा बरात नकली है गठबंधन नकली है रस्में-क़स्में नकली हैं  शहनाई की आवाज़ नकली है सर का हर ताज़ नकली है । नकली हंसी आंसू भी नकली संबंधों के वादे नकली हैं कौन निभाना याद रखता है । खुद हम सभी अपनी असलियत छुपाते हैं जो हैं नहीं वही होने का यकीन दुनिया को दिलाते हैं । सच से डरते हैं झूठ बोलकर इतराते हैं सच का दर्पण देखते नहीं कोई दिखा दे तो घबराते हैं । ज़िंदगी भर झूठ को सच साबित करते करते आखिर सच में मर जाते हैं मौत के बाद ज़िंदा रहने की आरज़ू में ज़िंदगी भर इक बोझ उठाते हैं खुद से नज़रें चुराते हैं । असली की बात से हम सब भागते हैं डरने लगे हैं असली चेहरे से नकाब को पहचान बना बैठे हम झूठे नकली दुनिया के बनावटी लोग ।