जून 28, 2021

खोखले आदर्श झूठी संवेदनाएं ( आधुनिक समाज ) डॉ लोक सेतिया

  खोखले आदर्श झूठी संवेदनाएं ( आधुनिक समाज ) डॉ लोक सेतिया

आंसू बहाना रो देना वास्तव में कायरता नहीं होता है मगर तब जब हमारी भावनाएं सच्ची हों जो पल भर को नहीं हमेशा स्वभाव में नज़र आएं। बार बार देखते हैं टीवी शो में किसी की दुःख भरी घटना सबकी पलकें भिगो देती है तथाकथित नाम वाले लोग मंच पर टिशू पेपर से अपने आंसू पौंछते हैं लगता है सारे जहां का दर्द हमारे सीने में है। मगर ऐसा वास्तविक जीवन में होता नहीं है हम वही दर्शक बेहद निष्ठुर बन जाते है अपने करीब कुछ भी घटता देखते हुए। और टीवी पर किसी को झट से लाख रूपये का चैक देने वाले किसी गरीब को मांगने पर भीख भी नहीं देते है। जनाब आर पी महृषि जी कहते हैं " ये हादिसा भी हुआ इक फाकाकश के साथ , लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिए। अजीब बात है असली भिखारी नहीं मिलते नकली भिखारी हर तरफ दिखाई देते हैं कौन किस किस बात का चंदा मांगता है और चंदे से क्या शान से रहता है कोई हिसाब नहीं है। भिखारी हैं जो नौकरी काम करने का वेतन सुविधाएं पाने के बाद रिश्वत और बेईमानी करते हैं देश समाज अपने कर्तव्य के साथ। लेकिन धर्म का चोला पहन मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जाकर भगवान तक को अपने पाप का भागीदार बनाते हैं अमर अकबर ऍंथोनी के अमिताभ बच्चन की तरह लूट चोरी का आधा दान पेटी में डालकर खुद को मसीहा समझते हैं। 
 
दावे करते हैं सत्ताधारी राजनेता जनता का कल्याण और गरीबी मिटाने को लेकर जबकि आज़ादी के 74 साल होने को हैं और आधी आबादी भूखी है अधिकांश को बुनियादी सुविधाएं नहीं हासिल हैं। कारण ये नहीं कि देश के पास संसाधन नहीं हैं बल्कि वास्तविक कारण ये है कि कुछ लोगों को अधिक पाने की हसरतें खत्म ही नहीं होती है शासक वर्ग रईस लोग धनवान कारोबारी उद्योगपति फिल्म टीवी वाले टीवी चैनल अख़बार से समाज सेवा और धर्म की दुकान चलाने वाले महल बनाने और देश विदेश जाकर अपना डंका पीटने पर पैसा बर्बाद करते हैं। इक पागलपन है नाम शोहरत और किसी तरह इतिहास में ख़ास होने को दर्ज होने को। सरकार आलीशान भवन सभागार और ऊंची मूर्तियां जाने क्या क्या आडंबर करती है फिर भी सड़क पर सोशल मीडिया पर इश्तिहार छपवाने पर बेतहाशा धन खर्च किया जाता है खुद के गुणगान पर। असल में अच्छे कार्य करते तो इनकी ज़रूरत नहीं पड़ती वास्तव में शोहरत पाने को इन बातों की कोशिश करना खुद किसी अपराध से कम नहीं है। 
 
लोग समझते हैं अमुक नेताओं ने अधिकारी कलाकार खिलाडी धनवान लोगों ने देश समाज को दिया है जबकि सच इस के विपरीत है उन्होंने जनता से पाया है और केवल दिखाने को नाम भर को वापस जनता को देकर उपकार एहसान करने की बात कहकर अपराध किया है। आपको बड़ी बड़ी कथाओं कहानियों से सबक सिखलाने वालों ने खुद कोई सबक सच्चाई ईमानदारी का सीखा नहीं है अन्यथा अपने लिए नहीं देश के नागरिकों के जीवन को बेहतर बनाने को काम करते। जिन को लाखों करोड़ के शाही विमान और शानदार घर दफ्तर की चाहत है उनको गरीब जनता की भूख रोटी शिक्षा स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए थी। ये सब राजा बने बैठे हैं कोई राजा नहीं हैं सेवक हैं खुद कहते थे चौकीदार हैं फिर मालिक बन बैठे किस तरह। चलो आपको फिर इक बार असली और नकली धर्म दान की पहचान करवाते हैं। रहीम का नाम सुना तो होगा , कवि के साथ साथ खानदानी नवाब थे जिनको ज़रूरत होती उनकी सहायता किया करते थे। उनकी सभा में इक कवि गंगभाट देखा करते कि रहीम सहायता देते समय अपनी आंखों को झुकाए रहते थे। उनको समझ नहीं आता था नवाब जी ऐसा क्या सोचकर करते हैं। इक दिन उन्होंने दोहा पढ़कर ये बात रहीम से पूछ ली। 

सिखियो कहां नवाब-जू , ऐसी देनी दैन 

ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें , त्यों त्यों नीचे नैन। 

रहीम ने उनके सवाल का जवाब अपना दोहा पढ़कर दिया। 

देनहार कोऊ और है , देत रहत दिन रैन 

लोग भरम मो पै करें , या ते नीचे नैन।

 

 


जून 24, 2021

ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु गॉड चर्चा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु गॉड चर्चा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

आपने मंच पर नाटक में जैसा देखा होगा बस ठीक उसी तरह कहीं आसमान या जाने कोई और लोक है वहां सभी धर्म वाले भगवान मिलकर चर्चा कर रहे हैं। एक ही अभिनेता अपना किरदार बदल कभी कुछ कभी कुछ बन जाता है दर्शक समझते हैं कब नायक किस किरदार को निभा रहा है। दुनिया के मंच पर हम सभी भी ज़िंदगी और जीने का अभिनय ही करते हैं शायद खुद अपने किरदार को कभी नहीं समझते कोशिश करते रहते हैं हर किसी को समझने की। समझदारी कहते हैं अपने पागलपन को। समझ नहीं आया तो चलो दर्शक की तरह मंच पर जारी चर्चा विचार विमर्श को ध्यानपूर्वक सुनते हैं। इक धर्म का रूप धारण कर भगवान कह रहा है मैं एक हूं मेरे रंग मेरे चेहरे मेरे तौर तरीके अनेक हैं आज मुझे अपने हर अवतार को धारण कर चर्चा में सभी तरह के ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु गॉड बन कर सभी को लेकर बातचीत करनी है। पलक झपकते ही रूप बदल जाता है दूसरे धर्म वाला भगवान बन कहता है माफ़ करना बीच में टोकना पड़ा है पहले इस युग कलयुग की बात करनी है क्या कलयुग में कोई भगवान होता है कौन अवतार लेता है किस रूप में समझना कठिन है कितने भगवान बन बैठे हैं लेकिन किसी भी भगवान के मानने वालों को मिलता कुछ भी नहीं कोई भी तथाकथित भगवान भक्तों की झोली भरता नहीं है सबकी झोली खाली है भरी हुई झोली वाले अपने भगवान के दर पर आते हैं मगर जाते हैं लौट कर खाली झोली हाथ जोड़े निराश हमेशा। 
 
अचानक तीसरे धर्म वाले भगवान दिखाई देते हैं कहते हैं कलयुग में मसीहा पय्यम्बर नहीं जन्म लेता कभी भी। शैतान को भगवान ने ये वरदान दिया हुआ है कि लोग दुनिया कलयुग में उसको ही अपना विधाता भाग्यविधाता समझ उसका गुणगान करेंगे। भगवान बेबस होकर ये तमाशा देखते रहते हैं लोग सब जानकर देख कर समझ कर भी शैतान की अनुचित अनैतिक बातों को भी सही मानकर उसकी जयजयकार करते हैं। जिस जिस को मसीहा भगवान पय्यम्बर समझते हैं वही उनको ठगता है लूटता है धोखा देता है तब भी उसी की वंदना करते हैं। रोज़ टीवी चैनल वाले इस समय की माहमारी का कारण वायरस के नये नये अवतार की बात करते हैं भला कीटाणु विषाणु के भी कभी अवतार होते हैं मगर देखो हर कोई भगवान से बढ़कर कोरोना के नाम की माला जपता है। जिसकी माला जपते हैं उस से ही बचना भी चाहते हैं। फ़िल्मी लगता है ख़लनायक को खुश करने को उसकी महिमा का गुणगान करते हैं। 
 
किसी अभिनेता को सदी का महानायक नाम दिया है किसी को धन दौलत का अंबार लगाने पर उसकी बढ़ाई करते हैं टीवी अख़बार वाले खुद को सबसे महान सच्चा बताकर उल्लू बनाते हैं। ये सभी चोर चोर मौसेरे भाई हैं मिलकर बांटकर खाते मौज मनाते हैं झूठ का दरबार लगाकर सच के पैरोकार कहलाते हैं। मापदंड इनके सुविधा से बदल जाते हैं जिसको गुंडा बदमाश कहते हैं उसी की हाज़िरी लगाते हैं उसके पांव दबाते हैं। भोगी लोभी योग सिखाते हैं खूब धन कमाते हैं जनता को रोगमुक्त होने के उपाय समझते मगर खुद दवा की दुकान चलाते हैं। समझ नहीं आता क्या किसको समझाते हैं खुद को सच्चा और बाकी सभी को झूठा बताते हैं इस तरह खोटा सिक्का अपना दुनिया भर में चलाते हैं। ऐसे लोग भिखारी से जाने कैसे शासक बन जाते हैं देश को विकास और भले वक़्त की बातों से बहलाते हैं मगर वास्तव में सत्यानाश विनाश और बर्बादी लेकर आते हैं। कलयुग में हंस दाना दुनका चुगता है कौवे मोती खाते हैं। जनता की झौपड़ी भी नहीं रहती और सरकार जनाब आलिशान घर महल दफ्तर बनवाते हैं। मंच पर कोई नहीं है नेपथ्य से आवाज़ आने लगी है भगवान को गहरी नींद आ गई है उसको नहीं जगाते लोरी गाकर सुलाते हैं। आखिर में इक फ़िल्मी भजन से कथा का अंत कर विराम देते हैं और घर पर रहो सुरक्षित रहो दो गज़ की दूरी मास्क है ज़रूरी का संदेश सुनते हैं खामोश होकर नाटक के दर्शक अपने स्मार्ट फोन पर समय बिताते हैं। 
 

 

जून 14, 2021

ज़माने को बदलना चाहते ( अनसुलझी उलझन ) डॉ लोक सेतिया

 ज़माने को बदलना चाहते ( अनसुलझी उलझन ) डॉ लोक सेतिया 

मुमकिन है कोई अपना गांव शहर देश बदल किसी और जगह रहने लगे। मगर नामुमकिन है इस दुनिया ज़माने को बदलना सुबह शाम रात दिन बदलने से धरती आकाश नहीं बदलते हैं आपके चाहने से हालात नहीं बदलते हैं रिश्ते बनते बिगड़ते हैं दिल के जज़्बात नहीं बदलते हैं। इतिहास बदल जाते हैं नाम बदल जाते हैं नानक कबीर और सुकरात नहीं बदलते हैं। आदमी को अच्छा कुछ भी नहीं लगता सब कुछ बदलना चाहता है अपने आप को छोड़कर समस्या बाकी लोग सब दुनिया नहीं है आपका सोचने समझने का तरीका है जो आपको सबको उस तरह बनाना है जैसा आपको पसंद है। क्या क्या बदलोगे माता पिता भाई बहन दोस्त रिश्तेदार पति पत्नी पड़ोसी जान पहचान वाले गली मुहल्ले वाले कोई भी आपको मंज़ूर नहीं जो भी जैसा है और जब नहीं बदलते लोग आपकी ज़रूरत और चाहत से तब आप दुःखी परेशान चिंतित हो जाते हैं क्योंकि सभी अपनी नज़र से सबको देखते परखते हैं औरों के नज़रिये को कभी नहीं समझते हैं। हमारी उलझन हमारी खुद की मानसिकता है सिमित सोच है और हम समझते हैं जो हम जानते हैं सोचते हैं बस इक वही सही है संपूर्ण है। मगर हम सभी आधे अधूरे हैं बाकी सभी मिलते हैं तभी हमारी दुनिया पूर्ण होती है। अपने अपने खोखलेपन से घबराते हैं और भीतर से कमज़ोर बाहर से शक्तिशाली बनकर इतराते हैं। जीवन भर हम खुद से ही लड़ते लड़ते जीतने की उम्मीद में हारते जाते हैं हासिल कुछ नहीं होता है खुद को खो कर बाद में पछताते हैं। हम जागते हुए भी गहरी नींद में हैं खुद सोते हुए दुनिया भर को जगाते हैं। सबको जैसा है कोई स्वीकार करो बिना बदले अपनों को दिल से प्यार करो खत्म हर बहस हर तकरार करो। जीवन भर मत यही मेरे यार करो। 
 


 

जून 12, 2021

पशुओं से प्यार इंसान से तकरार ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  पशुओं से प्यार इंसान से तकरार ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  न उनकी दोस्ती अच्छी न उनसे दुश्मनी अच्छी। जाने क्या सोचकर मनोविज्ञानिक उन पर शोध कर बैठे अब पछताते हैं क्या जुर्म बेलज्ज़त कर बैठे। चर्चा कर उनके आचार व्यवहार को समझ कर नतीजा निकला उनको खुद अपना इंसान होना अजीब लगता है। बाहर से इंसान लगते हैं अंदर जानवर नहीं शैतान और हैवान रहता है उनको खबर नहीं होती कब उनके भीतर कौन सा जानवर सामने निकलने को बेताब रहता है। कुत्ता बिल्ली चूहा सभी के गुण शामिल हैं लोमड़ी और गिरगिट उनके लिए उस्ताद हैं जबकि शेर होने की उनकी हसरत है गधों से उनका लगाव सबसे बढ़कर है तभी गधे को अपना पूर्वज समझने में उनको संकोच नहीं है। मांसाहारी हैं जानवर को उनकी पसंद का खाना खिलाते हैं खुद उनको ज़िंदा इंसान का लहू पीकर उसकी बोटी बोटी से हड्डियां तक चबाना बड़ा ही मज़ेदार लगता है। इंसान इंसानियत जैसे शब्द उनको ज़रा भी पसंद नहीं हैं खुद अपने आप को जब कभी आईने के सामने खड़ा कर देखते हैं उनको दर्पण में किसी आदमखोर जानवर की छवि नज़र आती है। पशुओं को पालना और अपने इशारों पर नचाना उनको खेल लगता है जिस खेल को खेलकर उनको अपार सुःख की अनुभूति होती है। उनको लगता है शहर गांव में बड़े बड़े मकानों में पशुओं को रहना चाहिए नर्म बिस्तर और गर्मी में ढंडी हवा और सर्दी में हीटर लगे कमरे उनके लिए होने ज़रूरी हैं इंसान को फुटपाथ भी नहीं मिलना चाहिए जंगल जाकर बसना चाहिए। 
 
उनको नहीं मालूम उनके अंदर का इंसान कब मरा पशुओं से प्यार होने से पहले या पशुओं से प्यार करते करते इंसान और इंसानियत को खुद क़त्ल किया उन्होंने। पर अब उनको इंसान देखना अच्छा नहीं लगता है जानवर उनको अपने लगते हैं इंसान किसी और दुनिया के वासी लगते हैं। हर जानवर पशु पक्षी को जैसा चाहे शिक्षित कर उनसे मनचाहा काम करवाना आता है इंसान को लाख कोशिश कर भी उस तरह का नहीं बना पाए जैसा उनको पसंद है। इंसान सवाल करते हैं तकरार करते हैं और उनको तकरार करने वाले बड़े खराब लगते हैं। ये उन्होंने पत्नियों से हुनर सीखा है अपने पतियों को अपना गुलाम बनाकर रखना और उन पर हुक्म चलाकर उनसे हर बात मनवाना मगर कभी न कभी ये पति नाम वाले भी इनकार कर देते हैं लेकिन पशु कभी ऐसा कर ज़िंदा नहीं रहते हैं उनको बीमार पागल घोषित कर मार कर उनका उपयोग कितनी तरह किया जाता है। इंसान की कीमत जीते जी भी कुछ भी नहीं होती और मौत के बाद उसको कोई नहीं चाहता है जबकि जानवर मौत के बाद भी हज़ार काम आते हैं। 
 
आधुनिक होना रईस धनवान और बहुत ख़ास होना सभी चाहते हैं और सब हासिल होने के बाद बस यही महत्वपूर्ण होता है इंसान और इंसानियत से रिश्ते छोड़ पशुओं जानवरों से संबंध बनाना। पुराने समय में कुत्ते घर के बाहर चौखट दरवाज़े पर बैठे होते थे और महमान पड़ोसी जानकर अजनबी लोग घर की बैठक में शोभा बढ़ाते अच्छे लगते थे। इधर मामला उल्टा हो गया है कुत्तों से गले लगते हैं गोदी में बिठाकर चूमते दुलारते हैं इंसान को दूर भगाते हैं धुधकारते हैं झूठी शान बघारते हैं। सुख सुविधा लोभ लालच ने आदमी को इंसान से खूंखार जानवर बना दिया है आजकल बड़े बड़े शहर महानगर में अमीरों की बस्ती में ऐसे लोग अपने जैसे भाई बंधु जानवर पशु पंछी को पालते हैं उनका भरोसा आदमी पर नहीं खुद से बढ़कर पालतू जानवर पर बचा है। यही उनको अपने लगते हैं। जिनको उनसे संबंध रखना हो उन्हें इंसान नहीं जानवर बनना पड़ता है आपको अपने जैसा बनाना उनका मकसद है।
 
 
 Can we live without love? - Quora
 

जून 11, 2021

मिट्टी जैसी ज़िंदगी ( ज़ुबां से दिल तक ) डॉ लोक सेतिया

    मिट्टी जैसी ज़िंदगी ( ज़ुबां से दिल तक ) डॉ लोक सेतिया 

ये आम होने का एहसास मेरा अकेले का नहीं बल्कि अधिकांश दुनिया भर के लोगों का है जिनकी कोई अलग पहचान नहीं होती है। शायद हम भी ख़ास हैं या ख़ास बन सकते थे मगर हमने कोशिश ही नहीं की आम से ख़ास बनने या होने की। हम मिट्टी के लोग मिट्टी से बनते हैं मिट्टी में मिल जाना है जान कर समझ कर खुद को हर किसी के पांव की धूल होने को स्वीकार कर लेते हैं कि यही नसीब है नियति है। सभी को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं जब जिसको जितनी ज़रूरत होती है। हम जैसे आम लोगों से सभी मिट्टी के खिलौने की तरह मन बहलाने को खेलते हैं और खेल खेल में तोड़ देते हैं मिट्टी का खिलौना टूटने का किसी को ज़रा भी अफ़सोस होता नहीं है। जिनको मिट्टी को आग में तपाकर पकाना आता है वो कुम्हार घड़े सुराही बनानकर मिट्टी को मनचाही कीमत में बेचते हैं भट्ठे वाले ईंट बनाकर खूब कमाते हैं मिट्टी का उपयोग सभी करते हैं मिट्टी से दामन सभी बचाते हैं। ज़िंदगी की चादर सभी मैली नज़र नहीं आने देना चाहते हैं कितने उपाय करते हैं अपने लिबास को साफ़ चमकदार और बेदाग़ बनाये रखने को। जिनके नाम की शोहरत के ढोल नगाड़े बजते हैं उनकी सारी ज़िंदगी अपनी चमक बरकरार रखने और छींटों से कीचड़ से सुरक्षित रहने में कट जाती है। कच्ची मिट्टी के घड़े से नदिया पार पिया से मिलने जाना हर किसी को मुहब्बत इबादत करना नहीं आता है। 
 
मिट्टी को छोड़ लोहा पीतल चांदी सोना सभी की कीमत होती है , सबसे महंगे दाम पत्थर बिकते हैं कभी रास्ते पर पांव की ठोकर खाने वाला पत्थर भी मूर्ति बनकर भगवान कहलाता है लोग सर झुकाते हैं आदमी भी मिट्टी का स्वभाव छोड़ जब कठोर पत्थर बन जाता है तभी हर कोई उसको पहचानता है उसका अस्तित्व समझता है। अन्यथा मिट्टी रेत बनकर उड़ती कभी कीचड़ बनकर पड़ी रहती है अनचाही चीज़ की तरह। घर में बहुत सामान ऐसा होता है जो हमेशा से रहता है उसकी ज़रूरत पड़ती है इस्तेमाल करते हैं और उसके बाद कहां रख छोड़ा कोई नहीं ध्यान रखता। फिर ज़रूरत पड़ती है तो इधर उधर यहीं कहीं मिल जाती है वस्तु कोई उसको संभालता नहीं कोई चुरा कर क्या करेगा कोई ध्यान नहीं देता भले उसके बगैर कोई कितना महत्वपूर्ण कार्य होना संभव नहीं हो। जाने कितने लोग दुनिया में इसी तरह के हैं जिनको रोज़ सभी उपयोग करते हैं उनकी जब भी ज़रूरत पड़ती है मगर उनका महत्व कोई नहीं समझता क्योंकि वो सस्ते हैं बहुतायत में मिलते हैं। 
 
घर महल ऊंची अटालिकाएं बनाने वाले मिट्टी के बिछौने पर रहते सोते जागते मिट्टी होकर मिट जाते हैं। चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना परिंदों की तरह अपना घौंसला अपनी नगरी बनाई बसाई छोड़ जाते है किसी और आने वाले की खातिर तिनकों को बिना अपने निशां छोड़े ही। मगर ख़ास बड़े लोग वास्तव में कोई नवनिर्माण करते नहीं है किसी पर मकान ज़मीन या इमारत पर अपना नाम लिखवा समझते हैं हम अमर हो जाएंगे जबकि उन्होंने खुद दिया कुछ भी नहीं छीना हासिल किया या अधिकार जमाया होता है। यही विडंबना है यहां हर कतरा खुद को दरिया समझता है और समंदर होना चाहता है जबकि समंदर या दरिया का अस्तित्व खुद कतरों से बना है। इक पागलपन की अंधी दौड़ है जिस में तमाम लोग अपनी वास्तविक पहचान सामान्य होने को छिपाकर ख़ास होने की बनावटी पहचान ढूंढते मिट्टी से पत्थर बन जाते हैं। पेड़ पौधे पशु पंछी जानवर सबकी पहचान बचाये रखने की बात करने वाले इंसान आदमी की वास्तविक पहचान को समाप्त होने से बचाना नहीं चाहता बल्कि उसको मिटाता जा रहा है। विकास कह रहे हैं विनाश को खुद बुलाते हैं। मुझे सभी ने बहुत समझाया मगर मुझे आम से ख़ास होना नहीं आया मुझे मिट्टी बनकर रहना पसंद है पत्थरों की नगरी में पत्थर दिल होना नहीं चाहा कभी। अब उड़ने की बेला है चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना। 
 
शायद बड़ी देर बाद समझ आया है कि हम जैसे आम लोगों ने खुद ही अपने चारों तरफ इक जाल बुना हुआ है। समाज के सारे नियम कायदे हमारे लिए हैं ख़ास बड़े लोग अपनी मर्ज़ी ज़रूरत और साहूलियत को देख कर नियम अच्छे बुरे की परिभाषा बदल लेते हैं उनका किया सितम भी एहसान कहलाता है। अपने मतलब की खातिर खराब से खराब आचरण भी करते उनको रत्ती भर अफ़सोस नहीं होता है। झूठ चालाकी जालसाज़ी या छल कपट सब इस्तेमाल कर उनको सफलता पानी होती है। शासक अधिकारी धनवान या धर्मगुरु जैसे ओहदे को पाकर उनको मनमानी की छूट ही नहीं मिलती बल्कि उनका यशोगान किया जाता है करवाया जाता है करना पड़ता है निचली पायदान पर खड़े शोषित वर्ग को किसी तरह ज़िंदा रहने उनके अन्याय अत्याचार से बचने के लिए।
 

 
 

जून 05, 2021

साहित्य का बाज़ार बनाये लोग ( सिर्फ सच ) डॉ लोक सेतिया

   साहित्य का बाज़ार बनाये लोग ( सिर्फ सच ) डॉ लोक सेतिया 

कोई बीस साल पहले की बात है मैंने " लेखक का दर्द " शीर्षक से रचना लिखी थी और तमाम जगह भेजी थी। बस इक जगह छपी थी बाकी सभी ने रद्दी की टोकरी में फैंक दी थी छपना मेरा मकसद था भी नहीं आईना दिखलाने वालों को सच का आईना दिखाना था। ताकि सच ज़िंदा रहे जैसे स्लोगन की बड़ी बड़ी बातें करने वाले झूठ पर सच का लेबल लगाकर ऊंचे दाम बेच मालामाल होते हैं। इक अख़बार ने मेरी रचना को पुर्ज़े-पुर्ज़े कर फाड़कर वापस भेजा था तब मैंने उनको लिखा था जब किसी के यहां कोई मर जाता है तब उधर से फाड़कर चिट्ठी भेजी जाती है अपने सूचना भेजी आपके दफ्तर में लगता है ज़मीर नाम का कोई असमय मर गया है। संवेदना जताना ज़रूरी है उसके बाद मैंने ऐसे लोगों को लेकर बहुत लिखा है जो औरों को तस्वीर दिखलाते हैं अपने खुद को नहीं देखते हैं। इक ग़ज़ल इस पर बड़ी पुरानी बहुत बार छपी है पेश है। 
    
इक आईना उनको भी हम दे आये
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
 
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।

सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।

देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।

कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं। 
 
तमाम लोग साहित्य को मुनाफे का कारोबार समझ इसका बाज़ार लगाकर कारोबार करते हैं मगर समझते हैं हम साहित्य की सेवा उसको बढ़ावा दे रहे हैं जबकि अख़बार पत्रिका में छपने वाली रचनाओं के लेखक को कुछ भी नहीं देते हैं। बहुत लोग भेजने का वादा करते हैं भेजते नहीं हैं इन सभी ने समझा है लेखक बंधक की तरह है ख़ामोशी से अपना धर्म निभाना उसकी मज़बूरी है। इस पर कुछ लिखेगा तो छापेगा कौन मतलब पानी में रहकर मगरमच्छ से पंगा कोई नहीं लेता। इक बात को उन्होंने हथियार बना लिया है। कोई भी धंधा घाटे में कब तक चल सकता है शुरुआत में लिखने वालों से सहयोग की विनती करना अनुचित नहीं मगर पचास साल तक नियमित अख़बार पत्रिका निकालना उस से तमाम तरह से नाम शोहरत पद ईनाम पुरुस्कार पाने के बाद खुद को अगली कतार में बैठ महानता का चोला पहन कर भी लिखने वालों का शोषण करते रहना किसी गुनाह से कम नहीं है। 
 
   कोई नेता अपने अनुचित कार्य को गलत नहीं समझता मज़बूरी नाम देता है अधिकारी और काला बाज़ारी भी धंधे में करना पड़ता है दुहाई देते हैं मिलवट से लेकर अपना सामान बेचने को इश्तिहार में झूठ बताने वाले सभी पैसे की खातिर ईमान बेचते हैं। ठीक इसी तरह साहित्य से कमाई कर घर दफ्तर शानो शौकत और सुख सुविधा हासिल करने वाले लोगों के पास लेखक को महनत का उचित मोल देना फज़ूल लगता है। उनका स्टाफ़ वेतन पाता है कागज़ की कीमत चुकानी पड़ती है छपाई करने वाले को भी पैसा देना होता है बिजली अदि सभी खर्चे भरते हैं क्योंकि उनको भुगतान नहीं किया तो दुकान बंद हो जाएगी। मगर लिखने वाले विवश हैं हाथ जोड़ उपकार समझते हैं छापने पर उनको रोटी की ज़रूरत नहीं होती है , शायद पब्लिशर समझते हैं लिखने वालों को खाली पेट रख कर दर्द की अनुभूति करवा वे साहित्य पर एहसान करते हैं क्योंकि बदहाली में लिखने वाला अच्छा लिख सकता है। 
 
बिल्कुल सरकार की तरह जनता की हालत खराब से और खराब होती जाती है और खाना- ख़राब ने गुलिस्तां किया बर्बाद सामने है। उनकी हर चाहत देशसेवा है ज़रूरी है आम नागरिक का ज़िंदा रहना जुर्म नहीं मज़बूरी है खासो-आम की बढ़ती जाती दूरी है। सच कहना मुसीबत को घर बुलाना है मगर मेरे लिए सच को सच कहना ज़रूरी है लिखना मेरा कारोबार नहीं है ज़रूरत है चुप रहना नहीं सीखा मज़बूरी है। साहित्य की बात करने वालों को सच में मिलावट कर बाज़ार में बेच अपने स्वार्थ पूरे नहीं करने चाहिएं सच की खातिर ईमानदार अधिकारी अपनी जान जोखिम में डाल शासक को जानकारी देते हैं और देश का पीएमओ उसकी शिकायत की जानकारी बेईमान भ्र्ष्ट लोगों को भेजते हैं सत्येंदर दुबे क़त्ल कर दिए जाते हैं। आप सच बोलने की कीमत नहीं चुकाते घबराते हैं। टीवी चैनल अख़बार पत्रिका वालों से बस इक बात कहनी है। 
 

                 बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते ,

                 सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । 



जून 04, 2021

इम्युनिटी बढ़ाने से निराशा भगाने तक ( मानसिक दिवालियापन ) डॉ लोक सेतिया

    इम्युनिटी बढ़ाने से निराशा भगाने तक ( मानसिक दिवालियापन ) 

                                        डॉ लोक सेतिया  

इंतज़ार करें आपको ये सब पाने का तरीका भी बताना हैं वो भी बिना कोई सामान बेचे कोई पैसा कोई कीमत कोई लागत खर्च किये। पहले सोचना ज़रूरी है ये क्या हो रहा है हर कोई खुद को खुदा से बढ़कर सब करने समझने वाला बताता है। जाने कितनी दवाएं कितनी चीज़ें हमेशा कितने अन्य कार्यों में उपयोगी बताई जाती थीं बिकती खरीदी जाती थीं किसी ज़रूरत मकसद की खातिर। अचानक कोरोना के आने के बाद समझाया जाने लगा कि उनसे इम्युनिटी बढ़ती है और कोरोना से बचने को अपनी इम्युनिटी बढ़ाना सबसे ज़रूरी है। लगता है पैसे ने सभी को पागलपन की सीमा तक खुदगर्ज़ बना दिया है तभी इस तरह अपना सामान बेचने को निराधार दावे किये जाने लगे हैं। सभी आपको इक डर दिखलाकर बचाने को उपाय बता रहे हैं जबकि कोई नहीं जानता वास्तव में उस से कोई लाभ होगा या नहीं और सिर्फ किसी की तिजोरी भरनी है। जहां तमाम लोगों ने ईश्वर तक को बाज़ार में बेचा है भोले भाले लोगों को डर और लालच के जाल में उलझाकर वहां ये होना अचरज की बात नहीं है। क्या हम ठगों की नगरी नहीं ऐसे देश में रहते हैं जहां हर कोई दूसरे को ठगने के ढंग तलाश कर रहा है और ऐसे में खुद भी ठगी करते करते किसी ठग का शिकार बन जाता है। हमने घटिया फ़िल्मी पटकथा में देखा था नकली डॉक्टर मरते हुए रोगी को नाच गाना दिखलाकर तालियां बटोरते हैं। क्या गंभीर जानलेवा रोग का उपचार करते समय ऐसा करना और उसका वीडियो बनाकर वॉयरल करना सही मानसिकता है या फिर इक दिखावे का पागलपन है। 
 
लेकिन कमाल की बात है यहां देश के नेताओं अधिकारियों सभी विभाग वालों की कब से आदत सी बन गई है अपने वास्तविक कर्तव्य अपने कार्य को छोड़ तमाम अन्य कार्यों में संलगन होकर मौज मस्ती को अपना मनोरंजन का माध्यम बनाकर लोगों का ध्यान अपनी विफलताओं से हटाना। कोई अधिकारी जनसमस्याओं को छोड़कर सांस्कृतिक आयोजन या मुख्य अतिथि बन कर भाषण देता है कोई नेता किसी जाति समुदाय की सभाओं में शामिल होकर समाज की एकता से खिलवाड़ करता है। पुलिस विभाग अपराध पर अंकुश लगाने की बात छोड़कर नृत्य संगीत का कार्यक्रम आयोजित करता है। ऐसा तब उचित होता अगर उन्होंने जनता की समस्याओं का निदान कर दिया होता। खेद की बात है तमाम बड़े राजनेता शोहरत पाने की होड़ में कुछ सार्थक बदलाव करने की जगह यही करते नज़र आते हैं। उस से भी बड़ा अनुचित कार्य इन सभी कार्यों पर जनता का धन खर्च करना किसी गुनाह से कम नहीं है। 
 
अधिक विवरण की ज़रूरत नहीं है समझने को इतना बहुत है। मगर आपको इम्युनिटी बढ़ाने और निराशा को छोड़ आशावादी दृष्टिकोण अपनाने को बेहद साधारण आम तरीका बताना है। सबसे पहले आपको नफ़रत करना किसी से ईर्ष्या जलन रखना और तथाकथित आगे बढ़ने ऊपर पहुंचने की अंधी दौड़ को छोड़ सादगी से जीवन जीना सीखना होगा। खुद को बड़ा किसी को छोटा बनाने की कोशिश आपको सही मायने में नीचे ले जाती है। पहाड़ पर खड़े होकर खुद को ऊंचा समझना सही नहीं है ऐसे में आपका कद बौना होता है। पैसा दौलत पद नाम शोहरत अगर अच्छे कार्यों से मिलती है अपनी काबलियत से तभी वास्तविक है अन्यथा अनुचित ढंग छल कपट से अर्जित नाम काले धंधे रिश्वत की कमाई लूट की आमदनी आपसे आपका व्यक्तत्व छीन लेती है और आप इंसान नहीं मशीन की तरह बेजान बन जाते हैं जो खराब होते ही कबाड़ की तरह शहर घर से बाहर फैंकी जाती है। केवल अपने लिए सब कुछ की चाहत इंसान को हैवानियत की तरफ लेकर जाती है। आदमी वही है जो सभी की भलाई की सोच रखकर समाज की खातिर देश की खातिर योगदान देना जानता हो। झूठ से कभी आपका कल्याण नहीं हो सकता है झूठ आपको भीतर से खोखला कर देता है गेंहूं को घुन की तरह मिटा देता है। सच की ईमानदारी की कठिन डगर ही आपको साहस देती है और आपके अंदर की शक्ति आपको हर अन्याय अत्याचार से टकराने लड़ने की इच्छाशक्ति की तरह समस्याओं से निपटने का हौंसला देती है। ऐसा व्यक्ति घबराता नहीं हालात से लड़ता है जीत जाता है। मुमकिन है ऐसा भरोसा करने वाला हर रोग हर दशा में आशा का दामन पकड़ शान से जीता ही नहीं मरता भी उसी शान से है। मौत से डरकर जीना ज़िंदगी नहीं है।  हम किसी पर भी भरोसा नहीं करते खुद भी भरोसे के काबिल नहीं बन सकते हैं जिस ढंग से हमने जीना शुरू किया है डर और अविश्वास को बढ़ावा देकर। सरकार वयवस्था संस्थाओं पर क्या अब भगवान पर भी भरोसा नहीं करते हैं। अपने आत्मविश्वास से बढ़कर कोई इम्युनिटी कोई सुरक्षा होती नहीं है और आत्मविश्वास सच्चाई भलाई ईमानदारी की राह चलकर मिलता है। आडंबर झूठ छल कपट या दिखावे की महानता से कदापि नहीं। 

 

जून 01, 2021

ज़िंदगी का अफ़साना ( जीने का फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया

   ज़िंदगी का अफ़साना ( जीने का फ़लसफ़ा ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी इसी को कहते हैं कभी ख़ुशी कभी दर्द कभी जीत कभी हार कभी बहार कभी पतझड़ कभी भीड़ अपनों की दुनिया भर का साथ कभी एकाकीपन सूनापन वीरानगी का मज़र। धूप भी छांव भी आंधी तूफ़ान बारिश और इक डर बिजली गिरने का सब ख़ाक हो जाने का। ज़िंदगी सालों की बड़ी छोटी संख्या नहीं होती है ज़िंदगी नाम है अंधेरी तूफानी रात में मझधार में डगमगाती नैया को किसी खिवैया के बगैर हौंसलों से उस किनारे लगाने अपनी मंज़िल को तलाश करने का। मंज़िल कभी किसी को नहीं मिलती है आखिरी मंज़िल वही है बस जीने का मतलब है चलना चलते जाना रुकना नहीं थक कर ठहरना नहीं। ज़िंदगी खेल है जंग भी इम्तिहान भी कभी मुश्किल है कभी आसान भी। जब कभी आप घिर गये घने अंधेरों में और जिन पर आपको भरोसा था साथ देंगे हाथ पकड़ सहारा देंगें वही आपको निराश कर छोड़ गये मज़बूरी के बहाने बनाकर तब अकेले अपने दम पर कैसे आपने खुद को टूटने बिखरने नहीं दिया उसी को जीना कहते हैं। यही इम्तिहान है सभी मेले छूट जाने हर कारवां उजड़ जाने के बावजूद निराशा में आशाओं को मन में जगाये रखने और चलते रहने का। दोस्त अपने पराये रिश्ते सभी आपको मीठे कड़वे अनुभव देते हैं आपको सुःख दुःख दोनों को गले लगाना सीखना पड़ता है ज़िंदगी के सफर में धूप ज़्यादा छांव कम मिलती है पल पल बदलती है , एक समान रहना जीवन नहीं कहलाता है बहते पानी का दरिया है और बहाव के साथ नहीं लहरों से टकराकर धारा के विपरीत तैर कर अपनी मर्ज़ी की दिशा में बढ़ते जाना वास्तविक ढंग है अपनी शर्तों पर जीकर दिखाने का। 
 
मुश्किलों से घबराना हार मानकर बैठना ज़िंदगी नहीं होती है मुश्किलों उलझनों से लड़ते हुए आगे बढ़ते जाना जीना कहलाता है। कब आपका साथ किसी ने नहीं निभाया ये चिंता की बात नहीं है ऐसे में आपने कठिनाइयों का सामना किस साहस से किया ये महत्वपूर्ण है। ज़िंदगी लंगड़ी किसी और के सहारे बैसाखी से चलना नहीं है गिरकर भी खुद संभलना ज़िंदगी को सही अंजाम तक पहुंचाना है। दुनिया आपको क्या मानती है किस रूप में देखती है उसकी परवाह छोड़ खुद आपको कैसे रहना है अपना अस्तित्व बचाकर ये ज़रूरी है खुद अपनी पहचान हैं हम किसी और की बताई पहचान बनकर रह जाना खो जाना है। कभी कभी कोई आपका साथ निभाता है खराब हालात में बस वही अपना है बाकी सब दुनिया बेगानी है और अजनबी लोगों में खुद को बचाये रख कोई हमराही कोई हमदर्द कोई हमख़्याल मिलना नसीब की बात है। सबका नसीब शानदार नहीं होता है अपनी बदनसीबी बदहाली में भी संयम से काम लेकर कोशिश करते रहना पतझड़ में फूल खिलाना इसी को वास्तविक जीना कहते हैं। 
 
जब तक आप इसी बात को लेकर परेशान निराश होते रहेंगे कि सबने आपको क्या दिया क्या आपको उम्मीद थी तब तक आप जी रहे हैं लेकिन ज़िंदगी से भागकर उसका साक्षात्कार नहीं किया है। दुनिया से क्या मिला सोचना व्यर्थ की बात है आपने दुनिया को क्या दिया है ये सोचने की बात है खाली हाथ आना खाली हाथ जाना कोई मतलब नहीं हम रहे आकर चले गए। सार्थकता जीवन की इसी में हैं हम देश दुनिया को क्या योगदान देकर जाएंगे। हमने अपनी दुनिया को पहले से सुंदर खूबसूरत और बेहतर बनाया है या उसको और भी बर्बाद किया है ये तय करता है हमारा दुनिया में आना क्या था। हंसना रोना मौज मस्ती और अपने लिए सुख सुविधा आनंद और ऐशो-आराम से बसर करना ज़िंदगी नहीं सिर्फ जीने का अभिनय करना है ज़िंदगी है आस पास अंधेरे मिटाकर उजाले करने का काम। प्यार बांटना जीवन है मुहब्बत भाईचारा वास्तविक कल्याण की राह मानवता का धर्म है। झूठ अहंकार और हर किसी से टकराव की आदत ज़िंदगी को नर्क बनाना है  खुद जीते जी घुट घुट कर जीना खुदगर्ज़ी की सोच किसी को कुछ नहीं मिलता इन से। ज़िंदगी से नेमतें मिलीं हमने उनको समझा नहीं खुद शिकायत और जो नहीं हासिल उसकी चाहत करने में जितना भी पास उसको संवारा संजोया नहीं खो दिया सब कुछ। किस तरह जीते हैं ये लोग बता दो यारो , हमको भी जीने का अंदाज़ सिखा दो यारो।