मार्च 31, 2013

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता
हो जीना मौत से बदतर , न इतनी बेबसी देता।

मुहब्बत दे नहीं सकते अगर , नफरत नहीं करना
यही मांगा सभी से था , नहीं कोई यही देता।

नहीं कोई भी मज़हब था , मगर करता इबादत था
बनाकर कश्तियां बच्चों को हर दिन कागज़ी देता।

कहीं दिन तक अंधेरे और रातें तक कहीं रौशन
शिकायत बस यही करनी , सभी को रौशनी देता।

हसीनों पर नहीं मरते , मुहब्बत वतन से करते
लुटा जां देश पर आते , वो ऐसी आशिकी देता।

हमें इक बूंद मिल जाती , हमारी प्यास बुझ जाती
थी शीशे में बची जितनी , पिला हमको वही देता।

कभी कांटा चुभे ऐसा , छलकने अश्क लग जाएं
चले आना यहां "तनहा" है फूलों सी नमी देता। 

मार्च 28, 2013

मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल ( ग़ज़ल ) 

                           डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मुहब्बत कर के टूटा है सभी का दिल
कहां संभला ,संभाले से किसी का दिल ।

भुला बैठा , तुम्हारी बेवफ़ाई जो
हुआ बर्बाद फिर फिर बस उसी का दिल ।

तुम्हें दिल दे दिया हमने , तुम्हारा है
नहीं समझो उसे तुम अजनबी का दिल ।

मनाया लाख इस दिल को नहीं माना
लगा लगने पराया सा कभी का दिल ।

हुए थे पार कितने तीर उस दिल से
मिला इक दिन मुहब्बत की परी का दिल ।

बहाये अश्क दोनों ने बहुत मिलकर 
मिला जब ज़िंदगी से ज़िंदगी का दिल ।

किसी की इक झलक आई नज़र "तनहा"
बड़ा बेचैन रहता है तभी का दिल । 
 

 

मार्च 27, 2013

ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ऐसी होली फिर से आये ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

एक घर है बहुत प्यारा हमारा
कोई अकेला नहीं न है बेसहारा
खुला है आंगन  दिल भी खुले हैं
और ऊपर बना हुआ इक चौबारा ।

मिल जुल खेलते सारे हैं होली
है मीठी कितनी लगती घर की बोली
पड़ा झूला भी अंगने के पेड़ पर इक
भैया भाभी सभी की भाती ठिठोली ।

गांव सारा लगे अपना सभी को
चाचा चाची मौसी नानी सहेली
सभी को आज जा कर मिलना
मनानी है सभी के संग ये होली ।

सभी अपने लोग, घर सब अपने
खिलाते हैं खुद बना घर की मिठाई
गिला शिकवा था गर भुलाकर
लगे फिर से गले बन भाई भाई ।

प्यार से रंग उसको भी लगाया
हमारा रंग खूब उसको था भाया
शरमा गई सुन प्यार की बात
सर हां में लेकिन उसने झुकाया ।

नहीं झूठ ,न छल कपट किसी में
जो कहता कोई सब मान लेते
मिलजुल कर बना लेते सभी काम
हो जाता जो मिलकर के ठान लेते ।

कभी फिर से वही पहले सी होली
आ जाये कभी यही सपना है देखा
हटी हो आंगन की सभी दिवारें
मिटे हर मन में खिंची हुई रेखा । 
 

 

मार्च 24, 2013

रोज़ इक ख्वाब मुझको आता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रोज़ इक ख्वाब मुझको आता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रोज़ इक ख़्वाब मुझको आता है
जो लिखूं मिट वो खुद ही जाता है ।

कौन जाने कि उसपे क्या गुज़री 
दोस्त दुश्मन को जब बताता है ।

आ गया फिर वही महीना जब  
दिल किसी का किसी पे आता है ।

बस यही हर गरीब कर सकता
अश्क पीता है , ज़हर खाता है ।

सिर्फ मतलब के रह गये रिश्ते 
क्या किसी का किसी से नाता है ।

एक दुनिया नयी बसानी है  
ख़्वाब झूठे हमें दिखाता है ।

बात तनहा अजीब कहता है 
मौत को ज़िंदगी बताता है । 
 

 

मार्च 22, 2013

हमें खुद से शिकायत क्या करें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें खुद से शिकायत क्या करें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें खुद से शिकायत क्या करें हम
है चुप रहने की आदत क्या करें हम ।

बड़े मगरूर देखे हुस्न वाले
किसी से फिर मुहब्बत क्या करें हम ।

लिखे हर दिन नहीं भेजे किसी को
जला डाले सभी ख़त क्या करें हम ।

हमारा जुर्म बोला सच हमेशा
मिली ज़िल्लत ही ज़िल्लत क्या करें हम ।

बहुत तनहाईयां लाती है दौलत
ज़माने भर की दौलत क्या करें हम ।

बड़ा है शहर लेकिन लोग छोटे
हमें लगती है आफ़त क्या करें हम ।

ये दिल उनको नहीं देना था "तनहा"
लगी भोली वो सूरत क्या करें हम । 
 

 

मार्च 21, 2013

होगा संभव पांचवें युग में ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

होगा संभव पांचवें युग में ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

मिल कर सभी देवता गये प्रभु के पास
सोच सोच कर जब हुए देवगण उदास।

कैसे खुश हों उनकी पत्नियां समझ नहीं आता
सफल कभी न हो पाए किए कई प्रयास।

जाकर किया प्रभु से अपना वही सवाल
बतलाओ प्रभु हो जाये ये हमसे कमाल।

सब है देव पत्नियों को मिलता नहीं खुश कोई
पूरी कर पाते नहीं   देव तक उनकी आस।

विनती सुन देवों की प्रभु को समझ न आया
कोई भी हल समस्या का जाता नहीं बताया।

सुनो देवो बात मेरी  सारे दे कर ध्यान
बदल नहीं सकता विधि का कभी विधान।

जो खुश पत्नी को कर सकता होगा कोई महान
सच मानो नहीं कर पाया ये मैं खुद भगवान।

असम्भव कार्य है करना मत कभी भी प्रयास
जो कोई कर दिखाये बन जाऊं मैं उसका दास।

खुद ईश्वर में जो नारी खोज ले अवगुण सभी
कहलाया करती है औरत पत्नी बस तभी।

मैं ईश्वर सब कर सकता कहता है ज़माना
असम्भव कहते किसको ये भी था समझाना।

पत्नी नाम सवाल का नहीं जिसका कोई जवाब
भूल जाओ उसको खुश करने का मत देखो ख्वाब।

पत्नी को खुश करने वाला हुआ न कोई होगा
चार युगों में सम्भव नहीं  पांचवां वो युग होगा। 

मार्च 18, 2013

क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं 
बिक गया सब झूठ सच तोलता कोई नहीं । 

शहर में रहते हैं अंधे उजाला क्या करे 
खिड़कियां हैं बंद दर खोलता कोई नहीं । 



मार्च 15, 2013

ज़माना झूठ कहता है ज़माने का है क्या कहना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     ज़माना झूठ कहता है  ज़माने का है क्या कहना ( ग़ज़ल ) 

                  डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ज़माना झूठ कहता है , ज़माने का है क्या कहना
तुम्हें खुद तय ये करना है , किसे क्यों कर खुदा कहना।

जहां सूरज न उगता हो , जहां चंदा न उगता हो
वहां करता उजाला जो , उसे जलता दिया कहना।

नहीं कोई भी हक देंगे , तुम्हें खैरात बस देंगे
वो देने भीख आयें जब , हमें सब मिल गया कहना।

तुम्हें ताली बजाने को , सभी नेता बुलाते हैं
भले कैसा लगे तुमको , तमाशा खूब था कहना।

नहीं जीना तुम्हारे बिन , कहा उसने हमें इक दिन
उसे चाहा नहीं लेकिन , मुहब्बत है पड़ा कहना।

हमें इल्ज़ाम हर मंज़ूर होगा , आपका लेकिन
मेरी मज़बूरियां समझो अगर , मत बेवफ़ा कहना।

हमेशा बस यही मांगा , तुम्हें खुशियां मिलें "तनहा"
हुई पूरी तुम्हारे साथ मांगी ,  हर दुआ कहना। 

मार्च 14, 2013

उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उसी मोड़ पर आप हम फिर मिले हैं
जहां ख़त्म होते सभी के गिले हैं ।

है रस्ता वही और मंज़िल वही है
मुसाफिर नये ,कुछ नये काफ़िले हैं ।

मिले रोज़ कांटे जिन्हें नफरतों से
हुआ प्यार जब फूल कितने खिले हैं ।

नया दौर कहता मुझे प्यार करना
सदा टूटते सब पुराने किले हैं ।

नहीं घास को कुछ हुआ आंधियों में 
जो ऊंचे शजर थे , वो जड़ तक हिले हैं ।

मुहब्बत में मिलती रहेंगी सज़ाएं 
रुके कब भला इश्क के सिलसिले हैं ।

कहा आज उसने कहो कुछ तो "तनहा"
था कहना बहुत कुछ , मगर लब सिले हैं । 
 

 

मार्च 11, 2013

कहीं दिल के है पास लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहीं दिल के है पास लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहीं दिल के है पास लगता है
ये दिल फिर क्यों उदास लगता है ।

बहुत प्यासा , उसे पिला देना
समुन्दर की वो प्यास लगता है ।

अंधेरी रात जब भी आती है
वही मुखड़ा उजास लगता है ।

जिसे ख़बरों में आ गया रहना
ज़माने भर को ख़ास लगता है ।

न तो चन्दरमुखी , न है पारो
अकेला देवदास लगता है ।

उसे तोड़ा बहुत ज़माने ने
नहीं टूटी है आस लगता है ।

हुये जब दूर चार दिन "तनहा" 
हमें इक दिन भी मास लगता है । 
 

 

मार्च 09, 2013

बात हर इक छुपाने लगा मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात हर इक छुपाने लगा मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात हर इक छुपाने लगा मैं
कुछ हुआ ,कुछ बताने लगा मैं।

देखकर जल गये लोग कितने
जब कभी मुस्कुराने लगा मैं।

सब पुरानी भुलाकर के बातें
दिल किसी से लगाने लगा मैं।

मयकदे से पिये बिन हूं लौटा
किसलिये  डगमगाने लगा मैं।

बात करने लगे दिलजलों की
फिर उन्हें याद आने लगा मैं।

बेवफ़ा खुद मिलाता है नज़रें
और नज़रें झुकाने लगा मैं।

ख़त जलाकर सभी आज "तनहा"
हर निशां तक मिटाने लगा मैं। 

मार्च 08, 2013

खामोशी का आलम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

ख़ामोशी का आलम ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कुछ भी नहीं है पास
पाना चाहता भी नहीं
अब कुछ भी

नहीं है अपना
दुनिया भर में कोई
अकेला भी नहीं हूं मैं

खोने का नहीं ग़म भी बाकी
पाने की तम्मना अब नहीं है
न चाहत है जीने की मुझको

नहीं मांगनी दुआ भी मौत की
कोई शिकवा गिला नहीं लेकिन
किसी से नहीं अपनापन कोई

अकेला हूं न महफ़िल है
न राह कोई न कोई भी मंज़िल है
नहीं भूला मुझे कुछ भी

नहीं याद अपनी कहानी भी मुझको
कहीं कोई नहीं है अपना खुदा
नहीं रहता मैं दुनिया में भी

किसी से प्यार नहीं दिल में
नहीं मन में नफरत का निशां
सभी एहसास मर चुके जब

समाप्त हर संवेदना हुई जैसे
खामोशी का है आलम
नहीं कुछ भी अब मुझे कहना है

मत पूछना कोई कुछ मुझसे
कहूं क्या
बचा क्या है कहने को ।  
 

 

मार्च 05, 2013

तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम्हारा सभी से बड़ा दोस्ताना
किसी रोज़ मिलने हमें भी तो आना।

हुई भूल कैसी ,जुदा हो गये हम
थे जब साथ दोनों समां था सुहाना।

यही इश्क होता है , मिलने को उनसे
बिना नाखुदा के नदी पार जाना।

निराली हैं कितनी अदाएं तुम्हारी
हमें देखना , हम से नज़रें चुराना।

कहा था मेरा हाथ हाथों में लेकर
किया आपने क्या ,पड़ा दिल लगाना।

हमें चांद तारों से मतलब नहीं था
उन्हें देखने का था बस इक बहाना।

महीवाल सोहनी मिले आज फिर से
हुआ प्यार "तनहा" कभी क्या पुराना।

मार्च 04, 2013

बहुत है आरती हमने उतारी ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

बहुत है आरती हमने उतारी  ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

बहुत है आरती हमने उतारी
नहीं सुनता वो लेकिन अब हमारी।

जमा कर ली उसने दौलतें  खुद
धर्म का हो गया वो है व्योपारी।

तरस खाता गरीबों पर नहीं वो
अमीरों से हुई उसकी भी यारी।

रहे उलझे हम सही गलत में
क्या उसको याद हैं बातें ये सारी।

कहां है न्याय उसका बताओ
उसी के भक्त कितने अनाचारी।

सब देखता , करता नहीं कुछ
न जाने लगी कैसी उसको बिमारी।
 
चलो हम भी तौर अपना बदलें
आएगी तभी हम सब की बारी।

बिना अपने नहीं वजूद उसका
गाती थी भजन माता हमारी।

उसे इबादत से खुदा था बनाया
पड़ेगी उसको ज़रूरत अब हमारी।

मार्च 03, 2013

सर कहीं पर झुकाना न आया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

  सर कहीं पर झुकाना न आया ( ग़ज़ल ) डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

सर कहीं पर झुकाना न आया
उस खुदा को मनाना न आया ।

लोग नाराज़ हों या कि खुश हों
झूठ को सच बताना न आया ।

दोस्ती प्यार मज़हब था सबका
फिर वो गुज़रा ज़माना न आया ।

रात दिन याद करते हैं तुझको
प्यार हमको भुलाना न आया ।

ज़ख्म अपने भरें भी तो कैसे 
चारागर को दिखाना न आया ।

प्यार के गीत रहते ज़ुबां पर
और कोई तराना न आया ।

जां उसी की अमानत है "तनहा"
हर किसी पर लुटाना न आया । 
 


 

मार्च 01, 2013

असली नकली चेहरे ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

असली-नकली चेहरे ( हास्य व्यंग्य कविता ) लोक सेतिया

आज बदली- बदली लगती है उनकी चाल
आये हैं पास मेरे दिखलाने को इक कमाल
दोगुना दिला सकते हैं मुझको किराया
सरकारी बैंक के बन कर खुद ही दलाल।

दूर कर सकते हैं हर इक राह की बाधा
पूछने आये हैं हमसे क्या हमारा इरादा
समझा रहे हैं सारा गणित सरकारी
करवा देंगे काम ये है पक्का वादा।

बस देनी पड़ेगी रिश्वत काम कराने को
कुछ हिस्सा उनका कुछ औरों को खिलाने को
आये  हैं आज गंगा उलटी बहाने पर 
उन्हें आना चाहिये था भ्रष्टाचार मिटाने को।

हमने पूछा क्या वही हैं आप सरकार
बने हुए थे सचाई के जो कल पैरोकार
किसी नाम की पहनी हुई थी सफेद टोपी
कहते थे मिटाना है इस देश से भ्रष्टाचार।

बोले हो तुम बड़े नासमझ मेरे यार
हम दलालों का यही रहा है कारोबार
फालतू है इमानदारी का फतूर
निकाल उसे भेजे से और  दे गोली मार।

वो भाषण वो नारे जलूस में जाना
शोहरत पाने का था बस इक बहाना
भ्रष्टाचार मिटाना नहीं मकसद अपना
हमने तो सीखा है खाना और खिलाना।

छोड़ो बाकी सारी बातें सब भूल जाने दो
कमा लो कुछ खुद  कुछ हमको कमाने दो
सीख लो हमसे कैसे करते हैं अच्छी कमाई
खाओ खुद खाने दो उनको भी खिलाने दो।

कहानी पूरी जब किसी को थी सुनाई ,
उनकी सूरत है कैसी तब समझ में आई।

सुनकर बात उनके मुहं में आया पानी
हमको मिलवाओ उनसे होगी मेहरबानी
मंज़ूर है करना मुझे ऐसा अनुबंध भी
क्यों करें नये युग में बातें भला पुरानी।

क्या बतायें हैं कौन वो क्या उनका कारोबार
दुनिया कहती है उनको ही सच के पहरेदार।