राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैंजिस पर निशान गालिबो दाग़ो जिगर के हैं ।
जाने कहां कहां के हमें जानते हैं लोग
हमको तो ये गुमां था कि तेरे नगर के हैं ।
वो काफिले तो जानिबे मंज़िल चले गये
बाकी रही है गर्द वहां हम जिधर के हैं ।
मिलते हैं अजनबी की तरह लोग किसलिये
हम सब तो रहने वाले उसी एक घर के हैं ।
ये दर्दो ग़म भी खुद को करें किस तरह जुदा
रिश्ते हमारे इनसे तो शामो - सहर के हैं ।
साहिल की रेत को भी भला इसकी क्या खबर
बिखरे पड़े हैं जो ये महल किस बशर के हैं ।
सुनसान शहर सारा अंधेरा गली गली
थोड़ा जिधर उजाला है "तनहा" उधर के हैं ।
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