फ़रवरी 25, 2020

अतिथि फिर मत आना ( आदर्शों मानवीय मूल्यों से भटके हम लोग ) डॉ लोक सेतिया

 अतिथि फिर मत आना ( आदर्शों मानवीय मूल्यों से भटके हम लोग )

                                   डॉ लोक सेतिया 

     धूम मची है सरकारी महमान की राजसी आवभगत करने की। हर कोई महमान तो भगवान होता है कहता दिखाई देता है। कल मैंने कुछ ऐसे दोस्तों से कहा आपसे मिलने आपके निवास आना है हर कोई बहाने बनाता मिला आज तो बाहर जाना है कोई ज़रूरी काम है सब की विवशता थी। घर आये बिना बुलाये महमान को कब जाओगे नज़र पूछती है। ये सत्ताधारी नेता और सरकारी अधिकारी देश के खज़ाने को जम कर लुटाते हैं अपने संबंध बनाने को। सामाजिक संस्थाओं के समाजसेवी कहलाने वाले लोग भी चंदा देने से लेकर नेताओं अफसरों को सभाओं में बुलाकर उपहार देने तक सब संस्था के खाते से करते हैं। किसी पद पर आसीन होते ही उस का धन संसाधन निजी स्वार्थ की खातिर खूब उड़ाते हैं। माले-मुफ्त , दिले -बेरहम। 

     शासक राजा रहे हों या अब जनता के निर्वाचित कहने को जनता के सेवक सभी पाषाण हृदय होते हैं जिनको किसी पर भी दया नहीं आती है। देश का खज़ाना बर्बाद करते उनको कोई संकोच नहीं होता कोई अपराधबोध नहीं होता कि जिनकी खातिर ये धन है उनकी दशा अभी भी कितनी बदहाल है। और ये बात केवल इक विदेशी महमान पर सौ करोड़ खर्च करने की नहीं है हर दिन कितने आयोजन समारोह मानते हुए वास्तव में आप अपनी अमानवीयता का ही सबूत देते हैं। आपकी बनाई करोड़ों की मूर्ति या फिर किसी राजा का बनाया ताजमहल दोनों की कहानी इक जैसी है। अपने आखिरी समय में वही शासक अपने बनवाये ताजमहल को कैद में बंद झरोखों से देखता था तब शायद सोचा हो कितने गरीबों की भलाई हो सकती थी अपनी झूठी मुहब्बत की इक निशानी बनाने की आरज़ू ने कितना बड़ा गुनाह करवा दिया। 

      अपने घोटालों की कितनी कहानियां सुनी हैं मगर घोटाले और भी हैं जैसे जिनकी लाशें नहीं मिलीं उनके कत्ल करने वाले भी मसीहा बने बैठे रहे। जितना धन सरकारों ने आडंबरों पर आये दिन बर्बाद किया और अपनी शोहरत के झूठे सच्चे इश्तिहार छपवाने पर खर्च किया किसी अपराध से कम नहीं था। करोड़ों लोग भूख से मर जाते है याद है भात भात करती इक बच्ची मर गई थी वो इक उदारहण था अकेली वही नहीं मरी। सरकारों को इस लिए माफ़ नहीं किया जा सकता कि उनके गुनाह साबित नहीं किये जा सके। किसी शायर का इक शेर है जो समझाता है :-

                वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता ,

                  यो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं।

     इस देश की बदनसीबी है शासकों ने कभी समय पर जनता की समस्याओं का समाधान नहीं किया है। बल्कि शायद उनकी राजनीती ही समस्याओं को बढ़ाये रखने की रही है। मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है क्या मेरे हक में फैसला देगा। धर्म और ईश्वर की बात करना मत अगर उनसे डरते तो शासक अपने वास्तविक धर्म से कभी नहीं भटकते।

 कोई दिन पंडित जी बताया करते हैं कि आने जाने को अशुभ होता है। मैंने कभी इन बातों पर यकीन नहीं किया था। जाने क्यों याद आया यही तारीख थी नमस्ते नमस्ते का शोर था भारत से अमेरिका तक। आज दो महीने बाद अपने इस आलेख को पढ़कर लगा ये कैसा महमान आया था जिसके जाने के ठीक एक महीने बाद देश भर को घर में बंद रहने का फरमान जारी किया गया था पिछले महीने 24 मार्च को और आज 24 अप्रैल को भी हम सभी घर में बंद हैं या छुपकर बैठे हैं। कोई अतिथि आता भी नहीं और कोई किसी को बुलाता भी नहीं। हर कोई हर किसी से दूर रहने को विवश है दिल से दिल मिलने की बात क्या करें हाथ से हाथ मिलाना छोड़ दिया है। नमस्ते ट्रम्प से शुरुआत हुई और ऐसा हुआ कि दूर ही से हाथ जोड़ नमस्कार करने की विवशता बन गई है। नमस्ते आदर सूचक शब्द हुआ करता था जो आजकल विवशता का अभिप्राय बन गया है। आज के युग की भी कोई नई महाभारत लिखता तो कोई यक्ष अंतिम सवाल बदलकर  पूछता कि हैरानी क्या है तो जवाब मिलता सब जानते हैं मौत घर पर छुपने से भी लौटेगी नहीं और जब भी आमना सामना होगा भागकर नहीं बच सकते हैं किसी दुश्मन से लड़ाई लड़कर ही जीती जाएगी।



फ़रवरी 22, 2020

भगवान किस के कितने भगवान ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

    भगवान किस के कितने भगवान ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

 सबसे पहले ईश्वर को लेकर सबसे बढ़कर अज्ञानता उन्हीं लोगों में है जिनका दावा कि हम धर्म और ईश्वर की बात करते हैं। मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा अथवा ऐसे तमाम स्थान धर्म की दुकानदारी करते हैं अगर ईश्वर को समझते तो इंसान इंसानियत की बात करते अपने अपने भगवान देवी देवता नहीं बनाते फिरते। जिनको इतना भी नहीं मालूम कि भगवान एक ही हो सकता है जो सभी का है इनका उनका नहीं और उसका जन्म अंत नहीं हो सकता। जिनको लेकर जाने कितनी कथा कहानियां घड़ी गई हैं उन के बारे में अच्छी भी और कुछ ऐसी जो अच्छी नहीं समझी जानी चाहिए हर तरह की बातें होती हैं जबकि ईश्वर में ऐसा हो कहना ही अनुचित होगा। दुनिया एक ही है और दुनिया के सभी इंसान उसी ने पैदा किये हैं मगर जो भी इंसान इंसान में अंतर करते भेदभाव करते हैं उनको ईश्वर को लेकर रत्ती भर भी जानकारी नहीं है। 

ईश्वर को लेकर तमाम संतों महात्माओं साधु ज्ञानी लोग एकमत रहे हैं कि " सत्य ही ईश्वर है "। जिनको सच की राह चलना नहीं आता उनको भगवान भी नहीं समझा सकता है। वास्तव में तथाकथित धर्म वालों खुदा ईश्वर अल्लाह यीसु मसीह किसी को भी लेकर समझने की चाहत नहीं है उनको अपने अपने हित साधने हैं। हमने धार्मिक किताबों में सच्चाई फरेब झूठ पाप पुण्य देवता दानव मसीहा शैतान जैसे कितने किरदार पढ़े समझे हैं। सवाल उनका काल्पनिक या वास्तविक होने का नहीं बल्कि उनको समझने का है। इस दुनिया में हम देखते हैं तरह तरह के लोग कभी विचार किया जाए तो यहीं वो सब किरदार जीते जागते दिखाई देते हैं।

राक्षस अथवा शैतान अपनी ज़रूरत हवस की खातिर औरों से छीनते हैं और मसीहा देवता वो हैं जो अपने पास जितना है दूसरों की भलाई सहायता को देते हैं। ईश्वर में दुनिया में इतना सब उपलब्ध किया है जो सभी की ज़रूरत को काफी है लेकिन किसी की हवस को पूरा करने को काफी नहीं है। विचार करना होगा भगवान ने हवा पानी और कुदरती तमाम संसाधनों को किसी के लिए कम या अधिक नहीं दिया उसने हम सबको इक जैसा बनाया सब को समान हवा धूप रौशनी पानी हाथ पांव दिमाग़ बराबर दिए हैं। यकीनन उसने धरती किसी के नाम नहीं लिखी है न किसी को अलॉट की है कि आपको जो चाहे करने का अधिकार है। मगर क्योंकि चालाक और जालसाज़ लोगों ने औरों को समान नहीं देने और खुद अधिक पर कब्ज़ा जमाने को कई ढंग अपना कर ऊपर वाले की मर्ज़ी को बिना समझे खुद जितना अधिक हो सका हथिया लिया है इसलिए बाकी को उनके हिस्से का मिलता नहीं है। अपने देखा है जिनको उद्योगपति राजनेता धर्म उपदेशक बन कर बातें भली भली करते हैं मगर असल में सबको दान धर्म करने संचय नहीं करने की बात करते हुए खुद सब अपने अधिकार में लेते हैं जमा करते हैं , जैसे कोई लुटेरा डाकू साधु बनकर छलता है लूटता है। नाम राम का रख कर कर्म रावण जैसे करते हैं। कारोबारी लोग जब मनमाने ढंग से अनुचित मुनाफ़ा कमाते हैं मगर जब कभी उनको अपनी वस्तु मनमाने मूल्य पर बिकती नहीं तब उनको लगता है बदहाल हैं। अभी ऐसे कुछ लोगों की बात सामने आई जिनको व्यौपार धंधे में घाटे की नौबत हुई मगर जब उन्होंने पास कुछ भी नहीं था और समय का अनुचित उपयोग करते हुए अकूत दौलत कमाई थी उनको नहीं विचार आया था कि ऐसा उन्होंने जाने कितनों की जेब पर डाका डालकर हासिल किया है।

  जनता की सेवा के नाम पर देश के खज़ाने को अपने आप पर राजसी ढंग से खर्च करने वाले चाहते हैं उनको मसीहा माना जाए जबकि उनका आचरण शैतान जैसा है जो अपनी भूख अपनी हवस की खातिर गरीब नागरिक के हक पर डाका डाल रहे हैं। बाहर से पहनावे से मीठी मीठी बातों से मसीहा होने का अभिनय करते हैं मगर हैं लोभी लालची सत्ता के भूखे लोग। धर्म के नाम पर करोड़ों के चढ़ावे को वास्तविक धर्म दीन दुःखी लोगों की सहायता करने की बात भूलकर अंबार लगाए हुए हैं सोने चांदी और दौलत अपनी तिजोरियों में भरकर। शायद तभी इस को कलयुग कहना उचित है जहां अच्छाई पर बुराई की विजय सत्य पर झूठ और आडंबर की जीत होती है। आपको अगर लगता है कोई मसीहा कोई भगवान जन्म लेकर इन सबको खत्म करेगा तो ये इन अत्याचारी लुटेरे लोगों को समझाई बात है क्योंकि वास्तव में ईश्वर ने अपनी व्यवस्था इस तरह बनाई है कि आपको अच्छा खराब करते खुद सामने आकर नहीं रोकते हैं। जब भी हम कुछ भी गलत करते हैं तब हमारा विवेक या आत्मा हमें अवश्य समझाती है ये हम पर है कि अपने ज़मीर की बात को सुनते हैं समझते हैं या फिर अपने ज़मीर को मार देते है अथवा बेच देते हैं। अख़बार टीवी चैनल मीडिया जब पीत पत्रकारिता करता है खबर पैसे की खातिर लिखता दिखाता है तब खुद को सच का पैरोकार बताने वाला झूठ को सच साबित कर असली तस्वीर नहीं कुछ और पेश करता है। ये आईना सच नहीं दिखलाता इसको देखने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है।  मुझे आजकल कहीं भी ढूंढने से कोई देवता जैसा किरदार नज़र नहीं आता है किस को आदर्श बनाने की बात की जाए। लगता है ईश्वर अपनी बनाई दुनिया की ऐसी दुर्दशा देख सोचता अवश्य होगा मैंने कुछ और बनाया था ये वो संसार वो दुनिया तो रही नहीं है। अंत में भगवान को लेकर दशा इस कदर अजीब है कि उसके होने पर सवाल उठने लगे हैं।

  फ़िलहाल   कुछ साल पहले लिखी मेरी ये ग़ज़ल पढ़ कर कोशिश करते हैं समझने की।


 ढूंढते हैं मुझे मैं जहाँ नहीं हूँ ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

ढूंढते हैं मुझे , मैं जहां  नहीं हूं 
जानते हैं सभी , मैं कहां नहीं हूं ।
  
सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं
और कोई वहां , मैं वहां नहीं हूं ।

मैं बसा था कभी , आपके ही दिल में
खुद निकाला मुझे , अब वहां नहीं हूं ।
 
दे रहा मैं सदा , हर घड़ी सभी को
दिल की आवाज़ हूं ,  मैं दहां  नहीं हूं ।

गर नहीं आपको , ऐतबार मुझ पर
तुम नहीं मानते , मैं भी हां  नहीं हूं ।

आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों
मैं कभी आपका इम्तिहां  नहीं हूं ।

लोग "तनहा" मुझे देख लें कभी भी
बस नज़र चाहिए मैं निहां  नहीं  हूं।

 (  खुदा , ईश्वर , परमात्मा , इक ओंकार , यीसु ) 
 

 

फ़रवरी 19, 2020

जनता के शासन में राजाओं महाराजाओं जैसे तौर तरीके ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  जनता के शासन में राजाओं महाराजाओं जैसे तौर तरीके ( आलेख ) 

                                       डॉ लोक सेतिया 

 भारत और अमेरिका विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाते हैं। जब भारत में चुनाव होने वाले थे तब कुछ भारतीय अमेरिका में हौडी मोदी नाम से आयोजन करते हैं जिस में अमेरिका के शासक मोदी जी के समर्थक की तरह सहयोग करते हैं।  जबकि दो देशों के संबंध दो लोगों के बीच की दोस्ती से बहुत ऊपर देशों की जनता के साथ साथ और सहयोग से बनते हैं। अब बदले में या फिर उस क़र्ज़ को चुकाने को भारत देश की सरकार नमस्कार ट्रम्प नाम से गुजरती में केम छो आयोजित करने जा रहे हैं अमेरिका में चुनाव से ठीक पहले इक शुरुआत की तरह से। कोई सौ करोड़ खर्च कर लाख लोगों की भीड़ जमा कर भव्य आयोजन किया जाना है। शायद इस से बढ़कर उपहास नहीं हो सकता कि ऐसे आयोजन में देश की वास्तविकता गरीबी अथवा झुगी झोपड़ी को छिपाने को इक सात फ़ीट ऊंची दीवार बनाई गई है ये बेशर्मी की हद है। सौ करोड़ में ऐसे गरीबों के घर भी बन सकते थे मगर जब सत्ता की राजनीति की विचारधारा ही जनता के शासन में अपने आप को राजा समझने जैसी बन गई है तब राजनेताओं से आम नागरिक के लिए संवेनशीलता की बात बेमायने हो जाती है। 

   मगर असली सवाल ये है कि लोकतंत्र में जनता के शासन में कोई भी शासक राजा की तरह आचरण कैसे कर सकता है और क्या तमाम संवैधानिक संस्थान अपनी आंखें और कान बंद कर खामोश तमाशाई बने हुए हैं। लगता है किसी बड़े अमीर देश का महाराजा इस गरीब देश में अपनी शान बढ़ाने को आने वाला है। क्या अमेरिका नहीं जनता कि इस समय भारत की सरकार देश की अर्थव्यवस्था को अपने स्वार्थ में उपयोग कर कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचा बर्बाद करने के बाद देश की जनता को दमन पूर्वक दबाने का कार्य कर रही है और पुलिस न्यायपालिका सत्ता के हाथ की कठपुतली बनकर न्याय कानून को अपनी मनमानी से इस्तेमाल कर रहे हैं। अमेरिका की निति लोकतंत्र को लेकर कितनी उचित या अनुचित है ये उस देश के नागरिक भली तरह से समझते हैं। लेकिन भारत देश में कोई अच्छे दिन के सुनहरे सपने दिखला कर सेवक और चौकीदार होने की बात करने वाला नेता जब देश की गरीबों की कमाई अपने शानो शौकत आडंबर और झूठे गुणगान पर खर्च करता है तो कथनी करनी का विरोधाभास साफ हो जाता है। 

भविष्य के भारत की राजनीति को साफ स्वच्छ करने की बात छोड़ धर्म के नाम पर आपस में नफरत की दीवार खड़ी कर बांटने का कार्य सत्ता हासिल करने को देश भक्ति नहीं हो सकती है। और देश के कई राज्यों की जनता ने इस को समझा है और ऐसे विचार वाले लोगों को हाशिये पर पहुंचाया है। अभी दिल्ली में उनका ये ढंग पूरी तरह असफल हुआ है। जाने ये कैसी मानसिकता है जो देश के संसद में बैठे लोग बड़े बड़े पद पाने के बाद अपने देश के नागरिकों को हो गाली अपशब्द बोलकर जो मर्ज़ी कहते हैं मगर न्याय कानून चुपचाप खड़ा रहता है। मगर जब संसद में करीब आधे लोग आपराधिक छवि के हों तो उनसे गीता रामायण पाठ की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जब हम लोग ख़लनायक के कारनामों पर तालियां बजाते हैं तब केवक किसी फिल्म की कमाई और सफलता की बात होती है मगर जब आपराधिक छवि के लोगों को संसद चुनते हैं तब कांटे बोने का काम करते है और बबूल बोकर आम नहीं खा सकते हैं। 

इस देश को इक गुलशन फूलों का चमन बनाना था मगर अब इसको कांटों भरा रेगिस्तान बनाने की राह जाने लगे हैं। वक़्त फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां कोई सत्तानशीन खुद को देश समझने लगा है मगर देश केवल ज़मीन का टुकड़ा नहीं देश की जनता उसके नागरिक आवाम होते हैं। ये बात रेखांकित करने की ज़रूरत है कि जनता के निर्वाचित लोग देश के सेवक बनकर कर्तव्य निभाने को होते हैं शासक बनकर राजाओं की तरह मनमानी दमन और ऐशो आराम शानो शौकत दिखाने की कदापि नहीं। 
 

 



फ़रवरी 07, 2020

मैं मेनका हूं पहचानो मुझे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     मैं मेनका हूं पहचानो  मुझे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

    मेरा मुकाबला किसी से नहीं है कोई भी मेरी तरह इतनी जगह इतने भेस इतने रंग इतने चेहरे एक साथ नहीं रख सकता है। सबको ज्ञान देने वाले भी मेरी आगोश में आकर अपनी सुध-बुध अपना विवेक अपनी सोच समझ खोकर मदहोश हो जाते हैं। मेरा अस्तित्व कण कण में बसता है। राजनीति में सत्ता मेरा ही रूप है और घर बार दुनिया के रिश्ते मोह माया छोड़ने वाले साधु सन्यासी संत महात्मा तक मुझे देखते ही सब को छोड़ मेरे बन जाते हैं। सत्ता किसी की नहीं हुई न कभी हो सकती है ये जानते हुए भी सभी आखिरी सांस तक मेरे आगोश में रहना चाहते हैं। मुझ बिन जीना नहीं चाहते मेरे लिए मरने को मारने को तैयार हैं मगर मैं भला किसी के साथ मरती हूं कभी नहीं। पुराने युग में राजा पिता की मौत युवराज पिता के लिए राजा बन गद्दी पाकर मुकट धारण करने का जश्न का अवसर हुआ करता था। सत्ता कभी विधवा नहीं होती है सदा सुहागन दुनिया में मेरे सिवा कौन है अर्थी उठती नहीं शासक की और डोली पहले सजने लगती है। आजकल बदला रूप है शपथ उठाने की रिवायत निभाई जाती है और संविधान की शपथ खाई जाती है। पल भर बाद कसम भुलाई जाती है और मुझसे निभाई जाती है। माना भारत देश गांधी और जेपी जैसे महान लोगों का देश है जो कभी सत्ता पर आसीन हुए नहीं मगर जो लोग भी सन्यास लेकर भी सत्ता की गद्दी पर आये उनका ईमान पल भर में डगमगा जाता रहा है। भारत के इतिहास में ऐसा उद्दाहरण एक ही है हरियाणा के गुलज़ारी लाल नंदा जी का जो तीन तीन बार कार्यवाहक पीएम बन कर भी सत्ता से मोहित हो नहीं सके। जब उनको आखिर में सरकारी आवास खाली करवाया गया तो उनके पास इक चारपाई एक बिछाने को दरी और पहने हुए धोती कमीज़ के ईलावा थैले में दो जोड़ी कपड़े थे जिस सामान को खुद ही बिना किसी सरकारी वाहन के उठा कर चले आये थे अपने नगर कुरुक्षेत्र समाज की वास्तविक सेवा करने। दिल्ली या किसी और महानगर जाकर बसने का विचार भी नहीं आया था। अब बड़े से लेकर छोटे पद पर बैठे सभी मेरे दीवाने हैं मसताने हैं मुझ शमां के सब परवाने हैं जल जाने हैं।

             सरकारी अधिकारी कर्मचारी सरकारी अमले के लिए भी मैं अधिकार सुविधा का रूप बनकर उनकी तपस्या भंग करती हूं। मेरे हम्माम में सभी नंगे हैं और लाज शर्म की बात क्या शिक्षा और प्रशिक्षण की सभी बातें त्याग देते हैं। हमने ईमानदारी से नौकरी करनी है की भावना किस दिन किस जगह छूट जाती है कोई सोचता भी नहीं है। डॉक्टर शिक्षक भी बनते उपचार करने की कसम उठाकर हैं मगर मेरा लक्ष्मी रूप देखते ही मुझे पाने को सब करने को तैयार हो जाते हैं। धंधा कारोबार उद्योग करने वाले लोभ लालच का मेरा दुपट्टा पकड़ कर आगे बढ़ने लगते हैं तो खरीदार क्या अपने बेगाने किसी को नहीं छोड़ते हैं। मुझसे लगन लगती है तो भाई भाई का दुश्मन बन जाता है। दुनिया में मेरे प्यार के सामने बाकी सभी की मुहब्बत टिकती नहीं है। तुम मुझे कोई दोष नहीं दे सकते हो , विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के समय विधाता ने मुझे वरदान दिया था कि मैं कोई भी रूप धारण कर किसी को अपने पर आसक्त करने को आज़ाद हूं और दोषी मेनका नहीं मेनका के संसर्ग में फंसने वाला माना जाएगा।

          बाकी छोटे मोटे लोगों की बात क्या आज का सबसे ताकतवर समझा जाता मीडिया टीवी अख़बार वाले सब मेरे ही जाल में फंसे हुए हैं। टीआरपी मैं ही हूं और विज्ञापन भी मेरा ही स्वरूप है। सब अपना ज़मीर बेचते हैं भाव कम अधिक मांगते हैं कोई भी अनमोल नहीं जिसको कोई खरीदार खरीद नहीं सकता हो। अपने दाम लगवाना बढ़वाना ऊंचे भाव बिकना हर अभिनेता नायिका खिलाड़ी तक चाहते हैं। मेनका ही मेनका सब कहीं मौजूद रहती हूं मैं।

                               ( पहला अध्याय समाप्त )

फ़रवरी 06, 2020

कौन करता भला उसूल की बात ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 कौन करता भला उसूल की बात ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कौन करता भला उसूल की बात , 
सब यहां  कर रहे फ़ज़ूल की बात। 

पतझड़ों ने बहार से कही आज , 
एक मसले हुए  से फूल की बात। 

उनकी खातिर बिछा हुआ है कालीन , 
उनको मालूम क्या है धूल की बात। 

कह रहे हम बहार की हैं सरकार , 
हर ज़ुबां बोलती है शूल की बात। 

ख़वाब टूटे हुए की देख ताबीर , 
याद उनको कहां है तूल की बात।

फ़रवरी 03, 2020

एक नई कहानी चाहत की ( लघु कथा ) डॉ लोक सेतिया

    एक नई कहानी चाहत की ( लघु कथा ) डॉ लोक सेतिया 

 हर बार की तरह सत्ता पर बैठे शासक ने सपनों का नया जाल बनाया है। जनता को लुभाने को शानदार भविष्य की तस्वीर बना कर समझाया है कि जो पहले नहीं हुआ मुझसे और किसी से भी मुमकिन नहीं था इस बार अवश्य संभव होगा। शर्त इतनी सी है जैसा मुझे करना पसंद है उसका बिना सोचे समझे समर्थन करना होगा। जो मेरी बात नहीं मानेगा उसको बेवफ़ा समझा जाएगा। इस तरह से सरकार ने अपने बजट में जनता की वफ़ा और अपनी ज़फ़ा का खुला सौदा सरेआम रख दिया है। जनता को इक सदियों पुरानी मुहब्बत की कहानी याद आई है जिसको सत्ताधारी को सुनाना चाहती है मगर डर लग रहा है अंजाम को सोचकर। फिर भी साहस कर सुना रही है। शासक जी अपने पहले भी वादा किया था सेवक बनकर रहोगे मगर कभी भी ऐसा लगा नहीं। हमेशा मालिक बनकर देश का ख़ज़ाना अपने खुद पे लुटाते रहे और जब खज़ाना ख़ाली हुआ तब घर मकान सामान बेचकर सपनों की दुनिया बसाने के ख्वाब दिखला रहे हो। आपको दो आशिक़ों की बात बताते हैं। 

इक औरत के दो चाहने वाले थे और हर दिन उसको खुश करने को बहुत कुछ करते रहते थे। आखिर दोनों को इक इम्तिहान से गुज़रना पड़ा और क्या कर सकते हैं विवाह के बाद बताना था। इक आशिक़ ने बहुत खूबसूरत घर बनवा कर दिखलाया दूजे ने दौलत का अंबार लगा कर दिखलाया। उस औरत ने दोनों को इनकार कर दिया ये कहते हुए कि तुम मुझे प्यार नहीं करते पाना चाहते हो और मेरी कीमत सिक्कों में लगा मुझे खरीदना चाहते हो। मुझे उसकी तलाश है जो मुझे वास्तव में खुश रखना चाहता हो आज़ाद होकर अपनी मर्ज़ी से जीने देना चाहता हो। किसी की कविता है जिस में बेटी अपने बाबुल से अपना विवाह किसी लौहार से करने को कहती है जो उसकी जंज़ीरों को काट सके। और वो औरत अभी भी उसी की तलाश में है जो अपनी शर्तें नहीं थोपना चाहे और नारी को सम्मान से जीने देना चाहता हो अधिकार की तरह न कि किसी का उपकार समझ कर। आपने भी सत्ता पर आसीन होकर देश की जनता को अपनी शर्तों में बांधना चाहा है मगर इस युग की जनता और आधुनिक महिला सोने चांदी के गहनों और महल की चाह नहीं रखती है उसको अपने हक और समानता सुरक्षा और आदर का महत्व पता है। अब मीठी मीठी बातों से बहलती नहीं है और घबराती भी नहीं इस बात से कि किसी के बगैर कैसे रह सकेंगे। अपनी ताकत को पहचानती है जानती है अपने अधिकार भीख में नहीं मिलते हासिल करने होते हैं।