मार्च 14, 2024

सब शरीक़े जुर्म हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया { चुनावी बॉन्ड की चुप्पी की आवाज़ की गूंज }

        सब शरीक़े जुर्म हैं  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

पाक़ीज़ा खुले आम इल्ज़ाम लगाती है , किसी को नहीं बख़्शती सिपहिया से रंगरजवा तक सभी दुपट्टा बेचने वाले से बजजवा तक । असली विषय पर आएं उस से पहले इस को जान लेना आवश्यक है कि इक मान्यता है कि राजनीति और वैश्यावृति दुनिया के सब से प्राचीन धंधे हैं और इन दोनों में काफी समानताएं हैं । अमर प्रेम का नायक कहता है कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना , हमको जो ताने देते हैं हम खोए हैं इन रंगरलियों में , हमने उनको छुप छुप के आते देखा इन गलियों में । बदनाम बस्ती में शरीफ़ लोग रात को अंधेरे में छुपते छुपाते जाते थे , रईस खानदानी लोग घर पर महलों में बुलवा नचवाते थे । खिलौना फिल्म में तो नाचने वाली पागलपन की दवा बन गई थी । ख़ामोशी से उमराव जान तक कितनी फ़िल्में अपने देखी हैं । वैश्या जिस्म बेचती है कुछ लोग अपना ईमान बेचते हैं और कुछ उनका ईमान ख़रीद कर बदले में मनचाहा वरदान देते हैं । लोकतंत्र में कुछ लोग हैं जो न रोटी बनाते हैं न रोटी खाते हैं वो रोटी से खेलते हैं , किसी कवि ने पूछा ये तीसरा व्यक्ति कौन है , देश की संसद इस पर मौन है । चुनावी बॉन्ड शायद वही चुप्पी है जिस की आवाज़ की गूंज अभी भी साफ सुनाई नहीं देगी भले चुनाव आयोग की वेबसाइट पर नाम लिख भी दिए जाएं ।
 
 
चुनावी बॉण्ड किसी खरीदार और भुनाने वाले की गोपनीय राज़ की बात घोषित की गई थी बैंक का काम था किसी बिचौलिए की भूमिका निभाना । बैंक राज़ी हो गए अपनी आंख बंद कर खरीदार और जिसको मिला और जिस ने भुनाया उसकी पहचान किसी को खबर नहीं होने देने पर । अंधेर नगरी चौपट राजा की निशानी नहीं है सिर्फ बल्कि जिस को देश के संविधान कानून और लोकतंत्र की सुरक्षा का फ़र्ज़ निभाना था उसको ये दिखाई नहीं दिया तब तक जब तक किसी ने उसकी चौखट पर दस्तक नहीं दी ।  
 
2017 में 2017 - 2018 के बजट में प्रावधान किया गया और 2 जनवरी 2018 को वित्त मंत्रालय ने घोषणा जारी की , 15 फरवरी 2024 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस को असवैंधानिक बताया और इसे देश की जनता के सूचना के अधिकार का उलंघन बताया । गंभीर सवाल ये है कि सत्ताधारी अथवा सभी राजनैतिक दल जब चाहे मनमानी करते रहें लेकिन जिन संस्थाओं को न्याय और जनता के अधिकारों एवं लोकतान्त्रिक प्रणाली की सुरक्षा करनी है जिनको संविधान ने बनाया ही इस मकसद से है उनको खुद ये सब देखना नहीं चाहिए बल्कि कोई गैर सरकारी संस्था असोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटिक राईट को अदालत जाकर मुकदमा दायर करना चाहिए ऐसी अंधेर नगरी बन गया है देश । अब भी सिर्फ नाम बताने से क्या सब ठीक हो गया मान लिया जाएगा । अनुचित असंवैधानिक ढंग से हुए लेन देन पर कोई करवाई नहीं तो आम नागरिक पर ही हमेशा तलवार लटकती रहना किसलिए जो अपनी आमदनी का हिसाब नहीं बता सकता तो अपराधी घोषित किया जाता है । ई डी क्या सिर्फ सत्ता विरोधी को पकड़ने को बदले की भावना से कार्य करती है किसी सत्ताधरी किसी सरकार समर्थक कारोबारी की तरफ देखती तक नहीं है । 
 
भारतीय स्टेट बैंक पहले महीनों लगने का बहाना बनाता है बाद में इक दिन में आंकड़े दे सकता है जब अदालत कड़ा रुख अपनाती है यही अपने आप में किसी की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । अब तो दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल सच साबित होती लग रही है । 
 

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहाऱ । 

आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं ,

रहगुज़र घेरे हुए मुरदे  खड़े हैं बेशुमार । 

रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें ,

इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले - बहार । 

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं ,

बोलना भी है ,मना सच बोलना तो दरकिनार । 

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ,

आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार । 

हालते इनसान पर बरहम न हों अहले-वतन , 

वो कहीं से ज़िंदगी भी मांग लाएँगे उधार । 

रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं ,

मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार । 

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर ,

हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार ।  

( साये में धूप से आभार सहित ) अब वास्तव में दरख़्तों के साये में धूप लगती है । 





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मार्च 06, 2024

आदमी से जानवर बनते जा रहे हैं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

        फेसबुक व्हाट्सएप्प का तराज़ू ( बद अच्छा बदनाम बुरा ) 

                                    डॉ लोक सेतिया  

पहले रग रग से मेरी खून निचोड़ा उसने  , 

अब ये कहता है कि रंगत ही मेरी पीली है । 

मुज़फ़्फ़र वारसी । 

अपने गिरेबान में नहीं झांकते वर्ना चुल्लू भर पानी में डूब मरते , क्या हाल बना दिया है फेसबुक की बात मत पूछो गंदगी परोसते हैं लाज शर्म को छोड़ कर । अब जब मुझे व्हाट्सएप्प ने स्पैम घोषित किया तो समझ नहीं आया कि माजरा क्या है । कोई बेहूदगी की बात नहीं कोई अभद्रता की भाषा नहीं संदेश भेजता रहा सिर्फ सामाजिक सरोकार और झूठ और सच का अंतर समझने को । अपने इतने लोगों को संदेश भेजा क्या ये गुनाह है लोग अंधकार मिटाने को कितने चिराग़ जलाते हैं और ये जो सोशल मीडिया पर अंधेर मचा रहे हैं मनमाने ढंग से निर्णय कर सकते हैं । उनका अपराध नहीं है उनको समझ ही नहीं किस बात का अर्थ क्या है महत्व कितना है । लेकिन इन आधुनिक युग के धनपशुओं को पैसे की भाषा के बिना कुछ भी नहीं आता है । देश समाज विश्व का भला बुरा ये उनकी सोचने की बात ही नहीं उनको अपना धंधा बढ़ाना है किसी भी तरह से आमदनी चाहिए भले जिन्होंने उन पर भरोसा किया उनकी जानकारी बेच कर या विज्ञापन से ठगी का माध्यम बन कर । 
 
आपको क्या लगता है अगर ये सब नहीं होंगे तो हमारा जीवन दुश्वार बन जाएगा या फिर उल्टा ही है इन आधुनिक संचार माध्यमों का अनुचित और अत्यधिक उपयोग करने से हमने सोचना समझना छोड़ दिया है और ऐसे लोगों के भरोसे सब छोड़ दिया है जिनको सही गलत उचित अनुचित का भेद नहीं मालूम बल्कि तमाम नैतिकता के मूल्यों को तार तार कर रहे हैं । हमने भूल की है इन पर इतना आश्रित हो गए हैं कि बगैर सोशल मीडिया खुद को बेबस समझने लगते हैं जबकि वास्तविकता इस के विपरीत है । काश हम इनको छोड़ कर कुछ सोचते समझते कुछ सार्थक विमर्श करते समय की बर्बादी नहीं करते । सच तो ये है कि इनसे हमको कुछ भी अच्छा नहीं मिला बल्कि हमारी सोचने परखने की क्षमता कुंद हो गई है । हम भूल गए हैं कि हमारे पूर्वज इन सब के बिना कितने महान विद्वान और विवेकशील हुआ करते थे और बगैर किसी शोर तमाशे के देश समाज को बेहतर बनाते रहे और बदलाव करते रहे । जबकि आजकल हम कहने को दौड़ रहे हैं लेकिन वास्तव में हम कोल्हू के बैल की तरह उसी सिमित दायरे में घूमते रहते हैं , सोशल मीडिया का ज्ञान किसी छल से कम नहीं मगर हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है और दोस्तों फॉलोवर्स की झूठी संख्या से खुद को लोकप्रिय समझते हैं जबकि उन सभी का अभिप्राय कुछ और होता है । 
 
कभी विचार किया है कि इन सभी ने आदमी को आदमी की तरह नहीं किसी बेजान मशीन की जीने को विवश कर दिया है । मानवीय संवेदना रहित समाज बनता जा रहा है जिस में भावनाओं का रत्ती भर भी महत्व नहीं समझा जाता है । विज्ञान विकास जब मानवता की भलाई करे तभी उचित है लेकिन जब बंदूक तोप हथियार और बंब विध्वंसक साज़ो सामान बनाते हैं तो हैवानियत को बढ़ावा मिलता है । भारत देश की संस्कृति और सभ्यता या पुरातन परंपरा जिस का हम शोर मचाते हैं ऐसा करने को कभी स्वीकार नहीं कर सकता है । इक बात सभी जानते हैं कि किसी भी चीज़ का नशा अच्छा नहीं होता है और ये सोशल मीडिया की झूठी चमक दमक तो समाज को भटका रहे हैं । इनकी आवश्यकता कम है उपयोगिकता की सीमा तक ठीक है अन्यथा समय ऊर्जा ही नहीं सामाजिक संसाधनों की भी बर्बादी है । आजकल ये किसी बंदर के हाथ में उस्तरा होने जैसी चिंताजनक हालत है । कभी ध्यान से देखना आपको इंसान कम बंदर अधिक दिखाई देंगे यहां पर , बंदरों की आदत सभी जानते हैं , टोपी वाले की कहानी याद है जो भी किसी को करते देखता है नकल करने लगता है ।  आदमी पहले बंदर था कि नहीं कहना कठिन है लेकिन सोशल मीडिया ने इंसान को बंदर बनने पर विवश ज़रूर कर दिया है । कभी बंदर की तरह कभी कुत्ते की तरह कभी लोमड़ी कभी गिरगिट कभी मगरमच्छ की तरह दिखाई देते हैं । कई लोग तो किरदार बदलते क्षण भर भी नहीं लगने देते हैं । आदमी का आदमी बनकर रहना आसान नहीं इस युग में ।
 
   
 
 बरेली: लाखों जिंदगी पर भारी है कुत्ते-बंदरों का खौफ... हल्के में मत लीजिए -  Amrit Vichar

मार्च 04, 2024

इश्तिहाऱ बन गए हैं जनाब ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      इश्तिहाऱ बन गए हैं जनाब ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

क्या से क्या हो गया , बेवफ़ा तेरे प्यार में । सत्ता की कुर्सी भी गाइड फ़िल्म की नर्तकी जैसी है जनाब उसकी ख़ातिर कुछ भी बन सकते हैं । रोज़ लिबास की तरह किरदार बदलते हैं दिल की बात छोड़ो सरकार हैं जब चाहे दिलदार बदलते हैं । घर बार परिवार की बात क्या उनकी अलग बात है खूबसूरत सपने दिखला कर सोचते हैं दुनिया बदलना छोड़ अख़बार टीवी पर पुराना इश्तिहाऱ बदलते हैं । गुलामों की मंडी के हैं इक वही सिकंदर कोई ताज बनाते हैं सरताज़ बदलते हैं लोकतान्त्रिक तौर तरीके बदल डाले हैं इस बार इरादा है ऐतबार नहीं करते ऐतबार बदलते हैं कुछ दोस्त नहीं ज़रूरत जिनकी दामन छुड़ा मतलब की दोस्ती करते हैं दुश्मन से यार बनाते सब यार बदलते हैं । हम लोग तमाशा पसंद स्वभाव वाले हैं हर किसी का तमाशा देख खुश होते हैं लेकिन जब इक दिन खुद ही तमाशा बन जाते हैं तो हैरान परेशान होते हैं । ऐसा जादूगर कभी नहीं देखा पहली बार जितने भी तमाशाई हैं खुद अपने आप को जमूरा कहलाना गर्व की बात समझते हैं । कल उनके आका तालियां बजवाने को अजीब पागल जैसे करतब दिखलाएं तो सभी अपने आप को पागल मैं भी साबित करने लग सकते हैं । सोशल मीडिया पर खुद को जो भी घोषित करने का अर्थ वो कार्य करना नहीं होता है , विज्ञापन या इश्तिहाऱ की विशेषता यही है उनको खरा साबित नहीं करना पड़ता सिर्फ दावा करना होता है । अपने आप को सर्वश्रेष्ठ घोषित करना वास्तव में कोई महान कार्य नहीं होता बल्कि कहावत है कि बड़े बढ़ाई ना करें बड़े ना बोलें बोल , रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरो मोल । 
 
बड़बोला होना कोई गुण नहीं समझा जाता है , इक कवि की कविता है जिस में कवि कहता है कि बौने किरदार वाले लोग पर्वत की चोटी पर चढ़ कर समझते हैं कि उनका रुतबा उनका क़द बढ़ गया है जबकि वास्तव में वो और भी बौने दिखाई देते हैं । बड़ी बड़ी बातों से कोई महान नहीं बनता है महान नायक वही कहलाते हैं जो बड़ी सोच और ऊंचे आदर्श की कसौटी पर खरे उतरते हैं सादा जीवन और आचरण से इक कीर्तिमान स्थापित करते हैं । विज्ञापन की दुनिया चमकीली लुभावनी शानदार आकर्षित करती प्रतीत होती है जबकि ये झूठ बनावट धोखा और कपट से बुना इक जाल होता है । जनाब का नया इश्तिहाऱ भी परिंदों को पकड़ने और उनके परों को काट कर अपने स्वार्थ के पिंजरे में कैद करने की चाल है । ज़माना बदल गया है लोग अब समझने भी लगे हैं राजनीति की चालों को और नेता बचने लगे हैं जवाब नहीं दे सकते जीना उन सभी सवालों से । जनाब से सवालात करना मना है मगर कभी कोई सवाल दागता है तो सरकार जवाब नहीं देते सवाल के बदले इश्तिहाऱ की तरह ब्यान देते हैं । मैं इश्तिहाऱ हूं आप सभी मेरा इश्तिहाऱ   हैं , भरी सभा से कहलवाते हैं सभी कहो आप सब मेरे इश्तिहाऱ हैं , और चाटुकार इश्तिहाऱ   बन कर गौरव का अनुभव करते है ।  आख़िर में अपनी ग़ज़ल संग्रह की किताब ' फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी ' से इक ग़ज़ल पेश है ।

अब लगे बोलने पामाल लोग 
देख हैरान सब वाचाल लोग ।
 
कौन कैसे करे इस पर यकीन 
पा रहे मुफ़्त रोटी दाल लोग ।

ज़ुल्म सहते रहे अब तक गरीब 
पांव उनके थे हम फुटबाल लोग ।

मुश्किलों में फंसी सरकार अब है
जब समझने लगे हर चाल लोग ।

कब अधिकार मिलते मांगने से
छीन लेंगे मगर बदहाल लोग ।

मछलियां तो नहीं इंसान हम हैं  
रोज़ फिर हैं बिछाते जाल लोग । 

कुछ हैं बाहर मगर भीतर हैं और
रूह "तनहा" नहीं बस खाल लोग । 
 
पामाल =  दबे कुचले  
वाचाल = बड़बोले





               

मार्च 02, 2024

किताबें पढ़ने का महत्व ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

           किताबें पढ़ने का महत्व ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया  

हम भटक गए हैं इधर उधर से सुनकर अथवा सोशल मीडिया से लेकर टीवी सीरियल यहां तक कि हर किसी के भाषण उपदेश से प्रभावित होकर अपनी सोच को किसी सकरी गली में धकेल रहे हैं । अधिकांश लोगों ने किताबें पढ़ना छोड़ दिया है खरीदना तो शायद ही ज़रूरी लगता है । किताबें सबसे विश्वसनीय दोस्त तो होती ही हैं और इनकी विशेषता ये भी है कि आप जब चाहें इनसे जीवन की सभी समस्याओं परेशानियों का हल ढूंढ सकते हैं । क्या आपको लगता है कि किताब पढ़ना सिर्फ परीक्षा में उत्तीर्ण होने अथवा अपने कार्य में उपयोग करने को ही उपयोगी है तो आपकी जानकारी सही नहीं है । अपने मतलब की ज़रूरी किताबों के साथ आपको अपने देश समाज की विविध जानकारी को हासिल करने ही नहीं समझने को भी पढ़ना बेहद आवश्यक है । शिक्षक से पंडित मौलवी पादरी से उपदेशक तक सभी किताबों ग्रंथों का अर्थ अपनी सुविधा से घड़ते हैं और समझाते हैं तभी ये लोग आपको धार्मिक ग्रंथ से अन्य वास्तव में जीवन उपयोगी पुस्तकों को हर किसी को खुद पढ़ने और समझने को नहीं कहते हैं । हमारी समझ धर्म संविधान और नैतिक आदर्श से अपने सामाजिक मूल्यों तक सिमित दायरे में सिमटी हुई है । किताबें हमारी सोच और बुद्धि का भोजन होती हैं और उनको पढ़ना आपको किसी खुले आसमान में विचरण करवाता है । देखते हैं आजकल लोग पढ़ने की आदत को तिलांजलि दे चुके हैं दूसरे शब्दों में अपनी सोचने की क्षमता पर रोक लगा दी है , बोलते अधिक हैं पढ़ते नहीं और सुनते हैं सिर्फ अर्थहीन बहस गप शप इधर उधर की ऐसी बातें जिन से कुछ सार्थक नहीं मिलता है । कहने को हम आज़ाद हैं मगर वास्तविकता में हमारी मानसिकता आज भी गुलामी की है और हम किसी न किसी को अपना भगवान बना कर उसका गुणगान करते हैं । क्या आपको लगता है ईश्वर का गुणगान उसकी स्तुति करने से ईश्वर मिलते हैं तो अपने ईश्वर की परिकल्पना को जाना नहीं समझा नहीं । भगवान को हमने दाता से भिखारी ही नहीं बना दिया बल्कि उसे बेबस समझ लिया है जिसे इंसान से कुछ चाहिए , सोचना सब बनाने वाले को आदमी से क्या चाहिए पैसा भोजन या कोई घर रहने को । आदमी भगवान से बड़ा समझने लगा है या ऐसा तो नहीं कि हमने मान लिया है कि कोई ईश्वर विधाता नहीं सिर्फ आडंबर करते हैं आस्तिकता का । और कुछ लोग खुद को नास्तिक कहते हैं और ज़िद पर अड़े रहते हैं संवाद भी नहीं करते बस अपनी मनवाना चाहते हैं । 
 
अच्छा साहित्य आपको अच्छा इंसान बनाता है अगर आप पढ़ते हैं ध्यान पूर्वक और पढ़ने के बाद उस पर चिंतन भी करते हैं ।  कैफ़ी आज़मी की इक कविता है , आदत ,  मैं इक अंधे कुंवे में कैद था और शोर मचा रहा था मुझे आज़ादी चाहिए मुझे रौशनी चाहिए , जब मुझे बाहर निकाला गया तो मैंने घबरा कर फिर वापस उसी अंधे कुंवे में छलांग लगा दी , और फिर वही आवाज़ लगाने लगा मुझे आज़ादी चाहिए मुझे रौशनी चाहिए । आजकल सभी की हालत ऐसी लगती है । कैसी खेदजनक हालत है हर कोई जिन बातों पर घंटों तक बोलना जानता है खुद उनका अर्थ तक नहीं समझता ये अज्ञानता की पराकाष्ठा है , कोई भी कितना भी जानकर हो दुनिया की जानकारी के अथाह समंदर के इक कतरे जैसा है । कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन में आपका पाठन कभी थमता नहीं है आपको निरंतर अध्यन करना होता है अन्यथा आप पिछड़ जाते हैं । ये जितना भी हमारा पुरातन साहित्य और इतिहास है वही हमारी असली विरासत है जिस को केवल कहीं रखना सुरक्षित बंद अलमारी में उचित नहीं है बल्कि उसे हमेशा वक़्त के साथ जोड़ते रहना उपयोगी बनाता है । किताबों की विशेषता है कि उनमें लिखा बदलता नहीं है और वो आपसे कोई शिकायत भी नहीं करती चाहे कितने अंतराल तक अपने उनको देखा पढ़ा नहीं । जब भी चाहो उठाओ और उनसे सीख सकते हैं , युग चाहे कोई भी हो पुस्तकों का महत्व कभी कम नहीं होता है ।   
 
जीवन साल दिन और आयु से नहीं निर्धारित किया जा सकता , आपने क्या सार्थक जिया ये आपकी सोच और बुद्धिमता पर निर्भर करता है । बहुत लोग हुए हैं जिन्होंने छोटी सी ज़िंदगी में खुद अपने ही लिए नहीं परन्तु समाज की खातिर बहुत कुछ किया है । कुछ लिखने वाले जितना भी लेखन कार्य किया उस से ऐसे शिखर पर पहुंच गए जहां अन्य सैंकड़ों किताबें लिख कर भी नहीं पहुंच पाए । उच्च कोटि का साहित्य वही होता है जो अपने समय की सही तस्वीर पूरी ईमानदारी से दिखलाता है । साहित्य का मकसद मनोरंजन नहीं बल्कि मार्गदर्शन करना और सत्य की राह चलना बताना होता है । आधुनिक सिनेमा टीवी सीरियल से लेकर सोशल मीडिया तक अपने ही मार्ग से भटके हुए हैं और हर कोई उपदेशक बना फिरता है जिस राह पर कभी पांव नहीं रखा उस पर चलने की नसीहत सभी को देता है । ख़ुदपरस्ती का आलम है हर ज़र्रा अपने को आफ़ताब समझता है ।  
 
 20+ Best Aaftab Shayari in Hindi in March 2024
 

फ़रवरी 05, 2024

जनता के नेता कहां हैं ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया

      जनता के नेता कहां हैं ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया    

आपको हैरानी हुई होगी शीर्षक पढ़ कर जबकि सच्चाई यही है , राजनेताओं के पास जनता है , जब भी उनको ज़रूरत होती है ढूंढना नहीं पड़ता , जब जैसे जहां चाहते हैं  , जनता की भीड़ खड़ी तालियां बजाती है । लेकिन कभी जनता को आवश्यकता पड़ जाए तो समस्या खड़ी हो जाती है , समझ नहीं आता कौन जनता की बात सुनेगा उसकी सहायता करना तो बाद की बात है । आपको बताते हैं कभी नेता किसी दल किसी परिवार किसी वर्ग किसी संघठन के नहीं हुआ करते थे जनता जिनको खुद अपना नायक मानती थी तभी वो लोग नेता कहलाते समझे जाते थे । ऐसे लोग मतलब पड़ने पर नहीं जनता से संपर्क करते थे बल्कि जब भी लोगों को कोई समस्या होती वो खुद आया करते थे अपना फ़र्ज़ निभाने बदले में वोट या सत्ता की अपेक्षा नहीं रखते थे । आपको ये कोई सपना लगता हो मुमकिन है क्योंकि आजकल जनता की सेवा देश की सेवा कोई नहीं करना चाहता है बल्कि इस का तमगा लगाकर धन दौलत नाम और सत्ता का मनचाहा उपयोग करने की कामना राजनीति कहलाती है । इस राजनैतिक दल उस राजनैतिक दल के नेता कार्यकर्ता सभी मिलते हैं जनता का नेता होना कोई नहीं चाहता है । तभी उनको सभाएं रैलियां करने पर कितने ही तौर तरीके संसाधन उपयोग करने पड़ते हैं , करोड़ों रूपये इश्तिहार और जनता की भीड़ जमा करने की खातिर खर्च करने पड़ते हैं । विडंबना इस से बढ़कर ये भी है कि उनकी बात कोई क्या समझे जब खुद उनको समझ ही नहीं होती कि जनता वास्तव में चाहती क्या है । प्रयोजित भीड़ की तालियां सोशल मीडिया पर झूठे दावे और नकली लोकप्रियता से खुद और समाज को छलने का नाम राजनीति बन गया है । 
 
धन दौलत शोहरत और ताकत पाने की ऐसी अंधी दौड़ में तमाम लोग शामिल हैं और भागते भागते आखिर रेगिस्तान में मृगतृष्णा से प्यासे ही मरने को अभिशप्त हैं । राजनीति साहित्य कला और बुद्धिजीवी शिक्षित लोग समाज की भलाई उसको बेहतर बनाने की जगह अपने स्वार्थ की ख़ातिर और भी गंदा कर अपने अनुचित कार्यों पर शर्मसार होने के बजाय गर्व करने लगे हैं । इक आसान ढंग है ख़ुद की गलती को छुपाने की जगह कौन नहीं करता ऐसा सभी नहीं तो अधिकांश लोग यही करते हैं कहकर कुतर्क घड़ते हैं । जनता भी थक चुकी है हार मान ली है कि इस एक सौ तीस करोड़ की आबादी में निर्वाचित करने को भरोसा करने को एक प्रतिशत लोग भी नहीं हैं ईमानदारी से देश समाज को समर्पित होकर जनता का कल्याण करने को । हर किसी को अपना ही कल्याण करना है और उस की ख़ातिर नीचे से नीचे गिरने में संकोच नहीं है । ऊंचे ऊंचे पद पाकर भी लोग अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते बल्कि पद पर बने रहने को ही महत्वपूर्ण समझने लगते हैं । देश के माननीय सांसद विधायक और सत्ताधरी शासक बनकर उस की गरिमा को कायम नहीं रखते तथा मर्यादा के विपरीत आचरण करते हैं । बड़े अधिकारी सरकार शासक दल की कठपुतली बनकर देश के प्रति ईमानदारी निभाना छोड़ अपने अधिकारों का अनुचित उपयोग करते हैं । अदालत न्याय पालिका से सुरक्षा करने को नियुक्त लोग सत्ता से गठजोड़ कर जनता से निरंतर होते अन्याय को देख कर भी कुछ नहीं करते हैं । संविधान की शपथ देशसेवा की कसम सब भुलाकर राजनेता अधिकारी पुलिस अदालत जनता पर ज़ुल्म करते हैं लूट कर पैसा जमा कर ऐशो आराम से रहते हैं हर योजना हर तथाकथित विकास कार्य से रिश्वत या कमीशन पाकर । 
 
जिन महान देशभक्त लोगों ने देश की आज़ादी की खातिर बलिदान दिए और जिन्होंने आज़ादी के बाद देश समाज को शानदार बनाने को जतन किए खुद अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा , आज उनको हमने भुला दिया है । आज का शासन प्रशासन पुलिस न्यायालय सभी निरंकुश और संवेदनारहित हो चुके हैं जिनको लगता ही नहीं कि उचित क्या अनुचित क्या है । अपराधी और विवेकहीन लोग पैसे और बाहुबल का उपयोग कर सत्ताधरी बन कर साबित कर रहे हैं कि सत्यमेव जयते अब आदर्श नहीं रहा है बल्कि झूठ की जय-जयकार होने लगी है । सब से खेदजनक बात ये है कि जिनको समाज को रौशनी दिखलानी थी वही अंधियारे के पुजारी बनकर रात को दिन साबित कर रहे हैं आज की राजनीति पर कुछ दोहे उपयुक्त हैं पढ़ कर समझ सकते हैं कि हम कहां खड़े हैं ।  
 
लेकिन उस से पहले आपको बताना चाहता हूं कि हमारे देश में हमने बहुत अच्छे राजनेता अधिकारी और समाजसेवक देखे हैं उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और हम उन की बातों को भाषण को सुनने जाते थे अपनी ख़ुशी से किसी के बुलावे से नहीं । गांव की चौपाल में साथ बैठ कर बहुत खुले मन से चर्चा होती थी और उनको खरी खोटी सुनाने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं करते थे आम लोग । बड़ी सभाओं में भी कभी कोई हाथ खड़ा करता कुछ कहने को तब भी जनता से जुड़े नेता बाद में उनको मंच के समीप आने को कहते और उसकी समस्या सुनते थे । देश का प्रधानमंत्री राज्य का कोई मुख्यमंत्री अथवा कोई सरकारी अधिकारी शिकायत का पत्र लिखने पर ध्यान देते और जवाब दिया करते थे । आम और बेहद ख़ास वीवीआईपी जैसा चलन कब क्यों शुरू हुआ समझ नहीं आया , क्यों अपने ही देश की जनता से राजनेताओं अधिकारियों को खतरा लगने लगा । आजकल नेता अधिकारी धनवान उद्योगपतियों से कुछ जाने पहचाने टीवी फिल्म वालों से मिलते हैं जनता से कभी नहीं मिलना चाहते । जनता उनकी है मगर तभी जब उनकी मर्ज़ी हो तब भाषण सुन कर ताली बजाने वोट देकर कुर्सी पर बिठाने की ज़रूरत पड़ने पर , उस के बाद जनता को उस के हाल पर छोड़ना उनकी आदत बन गई है । राजनेता चुनाव लड़ते हैं जिन से खूब सारा धन चंदे में लेकर बाद में उनकी खातिर सब करते हैं , जैसे किसी का ज़मीर कोई खरीद लेता है तो उसे खरीदार की मर्ज़ी माननी पड़ती है । अर्थात जनता चुनती है लेकिन नेता उनके नहीं होते बल्कि उनकी निष्ठा धनवान कारोबार करने वाले लोगों के प्रति पूर्णतया रहती है । अब दोहे पढ़ सकते हैं :-  
 

देश की राजनीति पर वक़्त के दोहे ( डॉ  लोक सेतिया ) :-

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान । 
 

 आओ फिर से दिया जलाएं | Aao fir se diya jalaye | अटल बिहारी वाजपेयी कविता |  Basant Bhardwaj - YouTube

जनवरी 28, 2024

राजनीति के दलदल अध्याय नौवां ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

राजनीति के दलदल अध्याय नौवां ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

हरियाणा से जो हवा चली थी आया राम गया राम की उस से देश की दलबदल की राजनीति को कितनी बार नया आयाम प्रदान किया जाता रहा है । बात 1967 की है जब पलवल से निर्वाचित विधायक जिनका नाम गया लाल था उन्होंने पहली बार कुछ ही घंटों में तीन बार दलबदलने का इतिहास रचा था और आखिर में जिस दल से निकले उसी में वापस आने पर उस राजनैतिक दल के नेता ने घोषणा करते हुए कहा था कि      " गया राम अब आया राम है " । आया राम गया राम की कहानी का ये पहला अध्याय था । हरियाणा में इस को कितनी बार सफलपूर्वक दोहराया जाता रहा है , 1980 - 1990 - 1996 - 2009 - 2016 सबसे प्रमुख हैं । बिहार में जो भी नहीं हो वही बहुत , ऐसे में एक ही राजनेता तीन पारियों  में तीन तीन बार एक ही पद मुख्यमंत्री की खातिर उसी से त्यागपत्र दे कर उसी पर साथ साथ शपथ लेने का कारनामा अंजाम लाये घठबंधन बदल बदल कर तो ये हरियाणवी कथा का संशोधित संस्करण कहला सकता है । आप इसको मर्यादा से जोड़ सकते हैं इसका ढंग उनको आता है बातों बातों में तुमने बात बदल दी है हम फिर बात बदल देंगे आज नहीं दिल कल देंगे । संविधान लोकतंत्र और जनता सभी किसी किनारे खड़े हैं तमाशा बन कर और कोई मदारी है जो भीड़ को तमाशा दिखला रहा है नाच जमूरे नाच । 
 
शर्म उनको मगर नहीं आती ये शीर्षक था जो इक उच्चतम न्यायलय के वकील ने तब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन शासक को लिखे इक पत्र में लिख कर सार्वजनिक कर दिया था । जब जनता खुद ऐसी अनैतिक राजनीति की घटनाओं को भूल जाती है तब सत्ता के भूखे राजनेताओं को शर्मिंदा होने की ज़रूरत क्या है । जिनको अगले चुनाव में भगवान की आवश्यकता थी उन्होंने मंदिर में नई प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा कर पहले की प्रतिमा को किसी अन्य जगह सुरक्षित रख छोड़ा उन्होंने इस बार उसी पुरानी तस्वीर को फिर से प्राण प्रतिष्ठा कर उसी जगह स्थापित कर दिया । चेहरा भी नहीं बदला चरित्र भी वही पहले जैसा कभी इधर कभी उधर का कायम है । पंजाबी में कहावत है जिथे देखी चौपड़ियां उथे मारी धरोकड़ियां । मतलब है जिस तरफ घी से चुपड़ी रोटी दिखाई दी उसी तरफ दौड़ कर पहुंच गए । ये भविष्य बताएगा कि चुपड़ी मिलने की आरज़ू में रूखी सूखी से भी कहीं रह गए तो क्या होगा , क्या दसवीं बार की संभावना अभी भी है । कुछ नहीं बदला सब बदलने पर भी समीकरण बदलने की उम्मीद है । देश की जनता को राजनेताओं ने कभी समझदार नहीं माना है उनको लगता है जिधर चाहे लाठी से भेड़ बकरी या भैंस गाय की तरह हांक सकते हैं । ये घड़ी मातम मनाने की नहीं है दूल्हा बारात सभी हैं दुल्हन की मर्ज़ी मत पूछना ऐसे में संगीत की धुन पर ठिठोली वाले गीत गाते हैं झूमते नाचते हैं । हास्य रस की कविताएं पढ़ते हैं । 
 
 

  1      लाठी भैंस को ले गई (  हास्य कविता )  डॉ लोक सेतिया

भैंस मेरी भी उसी दिन खेत चरने को गई
साथ थी सारी बिरादरी संग संग वो गई ।

बंसी बजाता था कोई दिल जीतने को वहां
सुनकर मधुर बांसुरी  सुध बुध तो गई ।

नाचने लग रहे थे गधे भी देश भर में ही
और शमशान में भी थी हलचल हो गई ।

शहर शहर भीड़ का कोहराम इतना हुआ
जैसे किसी तूफ़ान में उड़ सब बस्ती ही गई ।

तालाब में कीचड़ में खिले हुए थे कमल
कीचड़ में हर भैंस सनकर इक सी हो गई ।

शाम भी थी हुई सब रस्ते भी बंद थे मगर
वापस नहीं पहुंची भैंस किस तरफ को गई ।

सत्ता की लाठी की सरकार देखो बन गई
हाथ लाठी जिसके भैंस उसी की हो गई । 
 
    

  2     वतन के घोटालों पर इक चौपाई लिखो ( हास्य-व्यंग्य कविता )  डॉ लोक सेतिया

वतन के घोटालों पर इक चौपाई लिखो
आए पढ़ाने तुमको नई पढ़ाई लिखो ।

जो सुनी नहीं कभी हो , वही सुनाई लिखो
कहानी पुरानी मगर , नई बनाई लिखो ।

क़त्ल शराफ़त का हुआ , लिखो बधाई लिखो
निकले जब कभी अर्थी , उसे विदाई लिखो ।

सच लिखे जब भी कोई , कलम घिसाई लिखो
मोल विरोध करने का , बस दो पाई लिखो ।

बदलो शब्द रिश्वत का , बढ़ी कमाई लिखो
पाक करेगा दुश्मनी , उसको भाई लिखो ।

देखो गंदगी फैली , उसे सफाई लिखो
नहीं लगी दहलीज पर , कोई काई लिखो ।

पकड़ लो पांव उसी के , यही भलाई लिखो
जिसे बनाया था खुदा , नहीं कसाई लिखो ।
 



​​आया राम गया राम राजनीति का केंद्र रहा है हरियाणा

जनवरी 27, 2024

संविधान लोकतंत्र का भगवान ( वास्तविक ज्ञान ) डॉ लोक सेतिया

  संविधान लोकतंत्र का भगवान ( वास्तविक ज्ञान ) डॉ लोक सेतिया 

पढ़ते थे ,सुनते थे , ईश्वर मिलता है मुश्किल से तलाश करने से जबकि वो सामने रहता है बस हम ही समझ नहीं पाते हैं । जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ , मैं बपुरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ । कुछ ऐसे ही मुझे गहराई से चिंतन मनन करने पर असली भगवान की पहचान मालूम हो गई है । अभी तक हम इधर उधर भटकते फिरते थे कोई ईश्वर मिले जो हमको सही और गलत का अंतर समझाए और हमारी सभी चिंताओं परेशानियों समस्याओं का कोई समाधान सुझाए । जाने कितने भगवान खुदा ईश्वर वाहेगुरु कितने पीर पय्यमबर कितने अवतार कितने पंडित ज्ञानी कितने मौलवी कितने पादरी हम को बतलाते रहे और सभी का कहना था उनकी शरण में आओ सब कुछ पाओ हर कष्ट चिंता से मुक्त हो जाओगे । दुनिया का हर इंसान मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे हज़ारों तीर्थ स्थल पूजा पथ आरती धार्मिक अनुष्ठान सब करते रहे मगर मिला कुछ नहीं सिर्फ झूठी उम्मीद और अंतहीन निराशा ही मिली । सभी समझते हैं मानते हैं वो एक ही है तो फिर ये तमाम अलग अलग नाम से इंसानों को अलग अलग बांटता क्यों है कोई तो हो जो सभी प्राणियों को एक समान मानता हो समझता हो अपनाता भी हो । 
 
बगल में छोरा गांव में ढिंढोरा यही हुआ , संविधान है देश का जिसे खुद हमने बनाया अथवा हमारे बड़े और महान जानकर लोगों ने मिलकर अथक मेहनत सोच विचार कर देश को अर्पित किया सभी देशवासियों ने अपनाया और जनता ही देश की विधाता है जनतंत्र की भावना ही सभी का कल्याण कर सकती है इतना आसान और उचित मार्ग प्रशस्त किया 26 जनवरी 1950 से प्रभावी है । हमारी भूल है जो हमने उस वास्तविक ग्रंथ का महत्व समझा नहीं , जानते तक नहीं और सच कहा जाए तो हमने उस पर भरोसा करना ही छोड़ दिया । अगर हम अपने वास्तविक रक्षक और मार्गदर्शक संविधान की बातों को समझते पालन करते तो , जो भी लोग हमको अपने अपने स्वार्थ सिद्ध करने को आपस में विभाजित करते हैं उनको ऐसा कभी करने ही नहीं देते । कितनी विडंबना की और खेद की बात है कि हमने ऐसे लोगों को अपना आदर्श बना लिया और उनके पीछे पीछे गलत राह पर चलने लगे , जिनको देश समाज जनता और संविधान की नहीं चिंता थी तो बस किसी भी ढंग से सत्तारूढ़ होकर मनमानी करने की । हैरानी है कि राजनैतिक दल या किसी संगठन या कोई धर्म का चोला धारण कर उन्होंने जिस संविधान ने उनको अधिकार दिए उसी के चीथड़े करने को लग गए हैं ।  आज हमारा संविधान मसला कुचला और बेबस कर दिया गया है मगर जिनको संविधान की सच्ची भावना को सुरक्षित रखना था वो सभी अपनी आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बांध कर ख़ामोशी से लोकतंत्र का जनाज़ा उठते देख रहे हैं । समर शेष है , नहीं पाप का भागी केवल व्याध ,  जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध । कवि रामधारी सिंह दिनकर जी कहते हैं । 

घबराओ मत जिनसे कभी कुछ भी नहीं मिला उन को रहने दो उनको , अपने हाल पर । कोई गिला शिकवा करना कोई हाथ जोड़ना झोली फैलाना ज़रूरी नहीं है वास्तविक सभी कुछ मिल सकता है जिस से बस उस संविधान का महत्व समझ कर अपनी सोच को सही दिशा दे कर उसे समझ कर जो भी उस को क्षति पहुंचाते हैं उनको सबक सिखाना शुरू करना है । अपनी शक्ति को पहचान लेना ज़रूरी है ये जितने भी शासक हैं उनकी कोई ताकत नहीं असली ताकत खुद जनता आप है , राजनेताओं की अधिकारी वर्ग की कितनी बड़ी संस्था या धनबल की संसाधनों की पूंजी किसी काम नहीं आएगी जब जनमत एक होकर खड़ा होगा और अपने लिए समानता और न्याय पाने को निडर होकर आवाज़ उठाएगा । संविधान को समझो जानो और पहचानो फिर किसी से कोई भीख नहीं बल्कि खुद अपने अधिकार हासिल कर सकते हैं । हम भारतवासी हैं यही हमारी वास्तविक पहचान है , हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई या कोई भी धर्म हमको अलग नहीं कर सकता न ही विभाजित कर सकता है , और संविधान के रहते किसी भगवान ईश्वर खुदा वाहेगुरु यीशु की कोई आवश्यकता नहीं है ।  
 
मेरी बात पढ़ कर इक मित्र जो खुद को नास्तिक कहता है ने सवाल किया कि संविधान को भगवान कहने की क्या आवश्यकता थी । अब थोड़ा और चिंतन करने की ज़रूरत है , ज़रा कड़वी बात है लेकिन सच है कि शायद ही कोई भी मंदिर मस्जिद इतने स्वच्छ दिमाग़ और सोच ही नहीं जनकल्याण की ईमानदार भावना से कहीं भी बनाया गया होगा । सभी धर्मों के धार्मिक स्थल बनाए जाते हैं उनकी कथाएं कहानियां सुनाई जाती हैं लोगों को आकर्षित करने प्रभावित करने का मकसद पहले निर्धारित करने के उपरान्त । इतना ही नहीं उनको बनाने में आचरण और साधन भी शुद्ध एवं पावन हों इस का भी ध्यान नहीं रखा जाता है , अक्सर मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे अवैध निर्माण या किसी भी ढंग से अनुचित कमाई करने वालों से दान या अन्य सहयोग प्राप्त कर बनवाने से परहेज़ नहीं किया जाता बल्कि झगड़े और मनमुटाव की बुनियाद की बात होती हैं । लेकिन संविधान का स्वरूप बनाने में न केवल कोई टकराव की मानसिकता थी न ही किसी का कोई स्वार्थ ही बहुत ही खुले मन से विचारों का आदान प्रदान करते हुए और अन्य तमाम देशों के संविधान को पढ़ कर समझ कर इक ऐसे संविधान को आकार दिया गया जो सिर्फ राजनीतिक आज़ादी की नहीं सामाजिक समानता और सभी की आर्थिक समानता को महत्व देता हो । करीब तीन साल तक चली संविधान सभा की करवाई को कोई भी पढ़ कर समझ सकता है कि उन सभी की मंशा कितनी अच्छी और सभी की हित पर केंद्रित थी । सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात थी उसे किसी सरकार या संस्था संघठन ने नहीं बल्कि देश की जनता ने खुद ही समर्पित एवं अपनाया था । कहीं ऐसी दूसरी कोई मिसाल नहीं है बल्कि हर कोई अपना नाम शिलालेख लगवाना और श्रेय लेने को व्याकुल दिखाई देता है ।  
 
अंत में बहुत से संक्षेप में बात करते हैं , भगवान की परिकल्पना इंसान ने जब भी की थी तो यही कारण था कि हर व्यक्ति जब अकेला होता है ज़िंदगी की कठिन दशा में तब चाहता है कोई उसका साथ खड़ा हो । देश का संविधान उस आवश्यकता को पूर्ण करता है चाहे किसी भी विचारधारा से हो या किसी भी आर्थिक सामाजिक परिवेश से । छोटा बड़ा ऊंच नीच का किसी तरह का भेदभाव किसी से नहीं और शासक कभी खुद को संविधान से ऊपर समझने लगते हैं उनको भी देश का संविधान आकाश से पाताल पहुंचाता रहा है ।
 

 

जनवरी 26, 2024

अंधों की नगरी का सूरज ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

      अंधों की नगरी का सूरज ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

उस नगरी में लोग हमेशा से दृष्टिहीन नहीं थे सब को कुछ नहीं बहुत कुछ दिखाई देता था । जाने कौन था जिस ने उनको करीब से निरंतर सूरज को देखने का उपदेश दिया था जीवन का अंधकार मिटाने की चाह पूर्ण करने का उपाय समझाया था , बस उसी अंधविश्वास ने उनका जीना दुश्वार कर दिया । अंधेरों की दुनिया में कोई भेदभाव नहीं होता कोई छोटा बड़ा नहीं होता सभी एक समान होते हैं । वही सूरज जिस की रौशनी की चकाचौंध ने उनको अंधा बनाया उसी से फिर से उजाला करने की विनती करते हैं सब नगरवासी । सूरज इक आग का गोला है जो भी टकटकी लगा उसे देखता है अंधियारा उसका नसीब बन जाता है । उसे जलाकर राख करना ही आता है शीतलता उस का स्वभाव नहीं है धरती जानती है निरंतर घूमना आवश्यक है सभी को कभी दिन कभी रात मिलना ज़रूरी है जीने और बढ़ते रहने के लिए । धरती को ये सबक किसी ने कभी सिखाया नहीं खुद अपने अनुभव से अपने पर बसने वाले प्राणियों जीव जंतुओं की रक्षा को समझा है । इक दार्शनिक विचार कर रहे हैं कैसे साधारण लोगों को ये बात समझाई जाए कि किसी से भी अधिक करीबी होना या किसी की चमक पर आसक्त होकर लगातार उसी पर निगाह रखना कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है । ये भी ग़ज़ब की बात है कि असंख्य लोग अंधे होते नहीं फिर भी उनको सामने की सच्चाई दिखाई देती नहीं है क्योंकि उनकी बुद्धि पर किसी की शोहरत का इक पर्दा पड़ा होता है जो सावन के अंधों की तरह हर तरफ हरियाली ही हरियाली देखता है । कितने पढ़ लिख कर समाज में सभी कुछ हासिल कर लेने के बाद भी मानसिक गुलामी और चाटुकारिता व्यक्ति को विवेकहीन बना देती है । ये ऐसा रोग है जो जितना उपाय करते हैं और अधिक बढ़ता जा रहा है सूरज अपने अनुयाईयों की बर्बादी पर इतरा रहा है अपनी ताकत से सब को डरा रहा है ज़ुल्म ढा कर मुस्करा रहा है । कोई एक आंख वाला अंधों का राजा बनकर शासन चला रहा है । देखो काना देख रहा बहरा सुन रहा गूंगा क्या मधुर स्वर में गीत गा रहा है । आखिर में इक ग़ज़ल पढ़ते हैं । 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 
हैं उधर सारे लोग भी जा रहे
रास्ता अंधे सब को दिखा रहे ।

सुन रहे बहरे ध्यान से देख लो
गीत सारे गूंगे जब गा रहे ।

सबको है उनपे ही एतबार भी
रात को दिन जो लोग बता रहे ।

लोग भूखे हैं बेबस हैं मगर
दांव सत्ता वाले हैं चला रहे ।

घर बनाने के वादे कर रहे
झोपड़ी उनकी भी हैं हटा रहे ।

हक़ दिलाने की बात को भूलकर
लाठियां हम पर आज चला रहे ।

बेवफाई की खुद जो मिसाल हैं
हम को हैं वो "तनहा" समझा रहे ।
 
 अंधों की नगरी | Kingdom of Blinds - YouTube
 

जनवरी 25, 2024

मत का है , मतदाता का मोल कुछ नहीं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   मत का है , मतदाता का मोल कुछ नहीं  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

आज 25 जनवरी 2024 है 14 वां राष्ट्रीय मतदाता दिवस है , देश में 25 जनवरी 1950 को चुनाव आयोग का गठन किया गया था 26 जनवरी से गणतंत्र दिवस मनाया गया जो तभी से हर वर्ष धूम-धाम से मनाते चले आ रहे हैं । 2011 में देश की सरकार या चुनाव आयोग को प्रतीत हुआ की वोट अथवा मतदान का रुतबा और कीमत आसमान छूने लगा है लेकिन जो नागरिक मतदान करता है उसकी हालत बद से बदत्तर होती जा रही है । हरिशंकर परसाई जी कहते हैं जो कमज़ोर होते हैं उनका दिवस मनाना पड़ता है ताकतवर का हर दिन होता है । मतदाता भगवान है मगर भगवान सबको मनचाहा वरदान देता है उसे कुछ भी चाहिए नहीं हां दिखावे को पकवान बनाकर भोग लगाते हैं लेकिन भगवान खाते कुछ नहीं बस औपचरिकता निभा वही सब कुछ लोग आपस में बांट कर खा लेते हैं । भगवान मोटे  होते हैं न ही पतले ही क्योंकि वो हाड़ मांस के नहीं पत्थर के या किसी धातु के बनी प्रतिमा होते हैं । मतदाता भी बेजान होते तो क्या बात थी लेकिन इंसान होते हैं कोई रोबेट नहीं । लेकिन राजनेताओं और चुनाव आयोग या लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर टिप्पणी करने से पहले खुद अपने गिरेबान में झांकना उचित होगा तभी आज का वोटर दिवस सार्थक हो सकता है । दान कभी लोभ लालच या बदले में कुछ पाने को देना चाहिए , मतदान भी सोच विचार कर सही गलत का आंकलन कर दिया जाना चाहिए । जो बिक गया वो ख़रीदार नहीं हो सकता है मतदाता बिकने लगे या उचित अनुचित की परवाह नहीं कर अपने नाते रिश्ते जाति धर्मं समुदाय को ध्यान में रख देने लगे तभी अपराधी गुंडे बाहुबली सांसद विधायक बन कर हर किसी पर ज़ुल्म ढाने लगे । सांसद बंधक बनने लगे बिकने लगे विधायक से जनता के चुने सभी प्रतिनिधि पार्षद सरपंच इत्यादि सत्ता के तराज़ू के पलड़े पर बैठ तुलने लगे तो भाव जितना भी बढ़े औकात दो टके की समझी जाने लगी है । चलिए अल्लामा इक़बाल जी जो आज़ादी से पहले कह गए थे उन शेरों को पढ़ते हैं । 
 

                          जमहूरियत  - अल्लामा इक़बाल

इस राज़ को इक मर्दे-फिरंगी ने किया फ़ाश ,
हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते । 
 
जमहूरियत इक तर्ज़े - हुक़ूमत है कि जिसमें 
बन्दों को गिना करते हैं टोला नहीं करते । 
 
( अर्थ है कि इक यूरोपवासी ने ये राज़ प्रकट किया की बुद्धिमान इस बात को खोला नहीं करते हैं , की 
लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जिस में बन्दों की गिनती की जाती है उनकी काबलियत की परख नहीं की जाती है।  )  

                        नई तहज़ीब -  अल्लामा इक़बाल 

उठाकर फैंक दो बाहर गली में  
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गंदे । 

इलेक्शन मिम्मबरी कैंसिल सदारत 
बनाए खूब आज़ादी के फंदे । 

मिंयां नज़्ज़ार भी छीले गए साथ 
निहायत तेज़ हैं युरूप के रंदे । 

( अर्थ है ये सभी आधुनिक ढंग की व्यवस्था सड़ी गली है खराब अण्डों की तरह इनको उठाकर बाहर गली में फैंकना उचित है । चुनाव प्रतिनिधि सभा का गठन और उनका मुखिया बनाना ये जनता की आज़ादी को छीनने को फंदे बनाये गए हैं । ये विलायती रंदे अर्थात आरी बड़ी तेज़ है जो बढ़ई लकड़ी को छीलता है खुद उस के हाथ भी छिलने से बचते नहीं हैं । )
 
 

बलबीर राठी जी के कुछ शेर :-

न मंज़िल की खबर जिनको न राहों का पता है ,
जिधर भी जाओगे तुमको वही रहबर मिलेंगे । 
 
जो सच को झूठ कर दें झूठ को सच बना दें ,
मेरी बस्ती में तुमको ऐसे जादूगर मिलेंगे । 
 
अंधेरों की सियासत भी समझ लो ,
उजाले ढूंढ कर लाने से पहले । 
 
हिसाब अपने सितम का भी तो कर लो ,
ये अहसानात गिनवाने से पहले ।
 
यारो खूब ज़माने आए ,
ज़ालिम ज़ख्म दिखाने आए । 
 
ज़ुल्म से लड़ने जब निकले हम ,
लोग हमें समझाने आए । 
 
अभी तक आदमी लाचार क्यों है सोचना होगा ,
मज़ालिम की वही रफ़्तार क्यों है सोचना होगा ।
 
 मज़ालिम : ज़ुल्मों 
 
ये दुनिया जिसको इक जन्नत बनाने की तमन्ना थी ,
अभी तक इक जहन्नुमज़ार क्यों है सोचना होगा । 
 
रूठ गया हमसाया कैसे ,
तुमने वो बहकाया कैसे । 
 
इतना अंधेरा मक्कारों ने ,
हर जानिब फ़ैलाया कैसे । 
 
तुमने अपने जाल में इतने ,
लोगों को उलझाया कैसे ।
 
सभी ने देश समाज की पुरानी इतिहास की बातों को पढ़ना समझना छोड़ दिया है  , इक अतीत था जिसे हमने और भी रौशन करना था लेकिन हमने अपनी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध ली है कि हम झांककर भी नहीं देखते कि नैतिकता और आदर्श पर हम ऊंचा चढ़े हैं या कि नीचे गिरते जा रहे हैं । जिन्होंने सूरज को चुरा लिया है उन से रौशनी की उम्मीद करना व्यर्थ है । कद बढ़ा है या फिर ढलते सूरज से साया लंबा होता जा रहा है गौर से देख लेना । शासक बनते ही देश की जनता को ख़ैरात देने की बात करने वाले नहीं जानते खुद सफेद हाथी की तरह बोझ बन गए हैं गरीब जनता की कमाई से शान से जीना गर्व की नहीं शर्म  की बात होती है । हमने देखा है उन महान राजनेताओं को जो सत्ता पर बैठ कर भी सादगी पूर्ण जीवन जीते थे , जब देश की आधी आबादी गरीबी और बदहाली में रहती हो उनका निर्वाचित प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री खुद पर और अपने नाम के प्रचार पर करोड़ों रूपये रोज़ खर्च करता हो तब इसे देश सेवा देश भक्ति नहीं कुछ और कहते हैं । मैंने बीस साल पहले लिखा था कि आज तक का सब से बड़ा घोटाला सरकारी विज्ञापन हैं जो अख़बार टीवी चैनल को इश्तिहार के नाम पर सत्ता की चौखट पर नतमस्तक होने को विवश करते हैं , आज तो सत्ता से सांठगांठ कर कारोबार उद्योग से लेखक कलाकार तक अपना ज़मीर बेच धनवान बनना चाहते हैं और बन रहे हैं । 
 
विडंबना देखिए जो जो भी इस लोकतंत्र के चीरहरण में शामिल हैं वो सभी आज वोटर दिवस पर आयोजित सभाओं गोष्ठियों में मंच पर बैठे दिखाई दे रहे हैं और जनता रुपी द्रोपती की लाज बचाने कोई नहीं आएगा । चुनाव आयोग अन्य संघटन न्याय का जनाज़ा उठते देख मौन हैं ।   
 

 

National Voter's Day in Ratlam | राष्ट्रीय मतदाता दिवस: जिले में उत्कृष्ट  कार्य करने वाले 15 बूथ लेवल अधिकारी होंगे सम्मानित - Dainik Bhaskar

 

जनवरी 24, 2024

गरीबों का भगवान कहां है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      गरीबों का भगवान कहां है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

वो ऊपर बैठा क्या जाने सब कुछ कितना बदल चुका है , ईश्वर भी सब खुद देखना भूल गया होगा । धरती पर भगवान भगवान का इतना प्रचार इतना शोर देख सुनकर यकीन करने लगा होगा सब बढ़िया है । बल्कि समझता होगा कि जो उसको जानते समझते हैं पहले धरती पर दीन हीन दुःखी लोगों की सहायता कर उनकी दशा सुधार कर बाद में इतना कुछ भगवान की पूजा अर्चना करने को कोई इमारत बनाने उसे संवारने सजाने और कितने पकवान बना कर भोग लगाने पर खर्च करते होंगे । शायद ईश्वर को धरती लोक की जानकारी और हाल चाल की सूचनाएं देने वाले सरकारी विभागों की तरह आंकड़ों को सुविधानुसार बदल कर कुछ भी चिंता की बात नहीं है कहते होंगे अपने आका को खुश रखने को । या अगर सब देखता है जान कर भी अपनी ही दुनिया की अधिकांश आबादी की भूख और बदहाली को अनदेखा करता है तो वो कुछ ख़ास बड़े लोगों और पैसे वाले धनवान लोगों का भगवान बन गया है अथवा उन्होंने ही अपना भगवान अपनी शान ओ शौकत के हिसाब से बना लिया है । 
 
  शानदार महल जैसा घर रहने को और चौबीस घंटे अपना गुणगान सुनते हुए उसे अपने इंसानों की परेशानियों की चिंता ठीक उसी तरह नहीं होती होंगी जैसे राजनेताओं को सत्ता मिलते ही हर तरफ हरियाली दिखाई देती है और सरकारी अधिकारी कर्मचारी उनके आदेश का पालन करते समय उचित अनुचित की परवाह नहीं करते हैं । फटे पुराने कपड़े पहने गरीब भगवान की चौखट पर अपनी व्यथा बताने तो क्या उस ईश्वर को मनाने ही को आए भी तो सभी उसको शंका की नज़र से देखते हैं , बस चले तो बाहर निकाल देते हैं । अब तो भगवान के दरवाज़े पर भिखारी भी आने से घबराते हैं हां बड़े आलीशान महल जैसे धार्मिक स्थल पर भिखारी खड़े रहते हैं व्यवस्था चलाने वालों की अनुमति से उनका आश्रय पाकर । आजकल धर्म और ईश्वर कारोबार से लेकर राजनीति तक बड़े काम आते हैं , भगवान का प्रचार प्रसार किया जाता है कुछ पाने की खातिर खोने की बात कोई नहीं करता आजकल । संचालन करने वाले नियम कायदे बनाते हैं कैसे कौन दर्शन करेगा किस श्रेणी में कितना शुल्क चुका कर पहले ख़ास कतार में भगवान के कितना पास जाकर वंदना करेगा और प्रसाद पाएगा । भगवान कुछ नहीं कर सकता न ही उस से अनुमति ले कर ये सब तय किया जाता है शायद भगवान को चुप चाप आंखें मुंह कान बंद रखने की हिदायत की आवश्यकता नहीं तभी पत्थर या धातु की मूर्ति प्रतिमा बनवाते हैं । मिट्टी से इंसान को बनाने वाले को मिट्टी से बचाकर रखना पड़ता है अन्यथा मिट्टी मिट्टी की खुशबू को पहचान सकती है । 
 
दो नन्हें - मुन्हें बच्चे चले आये गुरु जी से पढ़कर सीखकर ईश्वर की गाथा गाते हुए ।  सुरक्षा जांच करवानी पड़ी उनके वाद्य-यंत्र कहीं कोई ख़तरनाक शस्त्र नहीं हों । अपनी माता को देखा था हूबहू ऐसी ही इक प्रतिमा की पूजा आरती करते । कभी उनको उस में छवि दिखाई देती थी खुद से मिलती हुई लेकिन ये जैसा सभी समझ रहे हैं उनकी प्रतिमा प्रतीत नहीं होती थी शायद जैसे वो पास बुलाती लगती थी बाहें फैलाए ये कदापि नहीं लग रही थी । ये भगवान की मूर्ति अपनी संतान को पहचान नहीं रही थी इक परायापन महसूस हुआ दोनों भाईयों को उस जगह । उस शानदार महल नुमा इमारत में भगवान से अधिक चर्चा देश के अमीर लोगों और बड़े उद्योगपतियों पूंजीपतियों ख़ास दानवीर कहलाने वाले जाने माने व्यक्तियों की सुनाई दे रही थी । उन दो मासूमों की मधुर मगर दर्द भरी आवाज़ किसी को आकर्षित नहीं कर सकी थी । किसी ने उनको ध्यान पूर्वक देखा तक नहीं कोई महत्व नहीं था उनके किसी भी संबंध का । 
 
    लौट कर आश्रम आये और माता जी एवं गुरूजी को बताया कि आपकी आज्ञा से उस शहर और इमारत ही नहीं उस भगवान को भी देख आये हैं ।  लेकिन ये वो दयानिधान कृपालु भगवान प्रतीत हुए नहीं बल्कि अति विशिष्ट लोगों ने खुद अपने लिए कुछ और निर्माण कर लिया है । उन दोनों भाईयों ने संकल्प लिया है हर साधारण सामान्य व्यक्ति के घर झौंपड़ी या मकान चाहे खुली सड़क फुटपाथ पर रहने वाले को वास्तविक भगवान की मिट्टी की बनी मूर्ति उपलब्ध करवाएंगे जो उनकी परेशानियां और दुःख दर्द मिटाएगी उनको सभी शुभ मनोकामनाओं का फल प्रदान करेगी।  भगवान का मंदिर हज़ारों करोड़ खर्च कर अभी भी आधा अधूरा है कितना और धन सोना चांदी हीरे जवाहरात ज़रूरत है और देने वाले भी उसी से और अधिक मांगते हैं भले कितने धनवान हों तब भी उनकी धन दौलत ताकत शोहरत की वासना पूरी नहीं होती ।  धार्मिक पुराणों में वही सब से दरिद्र कहलाते हैं । गरीबों की वहां कौन पूछे जहां तमाम अमीर धनवान अपनी झोली फैलाए दिखाई दिए । 
 
 Facts About Richest Tirupati Balaji Temple But God Balaji Is Poor - Amar  Ujala Hindi News Live - दुनिया का सबसे अमीर मंदिर लेकिन भगवान सबसे गरीब, आज  तक नहीं चुका पाए कर्ज

जनवरी 21, 2024

जो खोएगा सो पाएगा ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

    जो खोएगा सो पाएगा  ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया 

उनको भी अनुमति लेनी होती है
घर परिवार सभी और संसार की 
हर व्यवस्था का प्रबंध करते हैं जो
कहना पड़ा मुझ से पहले पूछा नहीं 
घोषित कर दिया मैंने आना है तब 
समझाया बस वही समझा सकती हैं 
बड़े महत्वपूर्ण प्रभावशाली लोग तो 
बिना कारण बतलाए या बहाना बना 
सूचित कर देते हैं कि उपस्थित नहीं 
हो सकते पहले से निर्धारित है कुछ 
अथवा झूठ नहीं बोल सकते तब भी 
मौसम सर्दी ठंड और घना कोहरा 
कुछ समय बाद देखेंगे कह सकते हैं ।  
 
 
भगवान अभी भी अवसर है 
सोच लो विचार कर लो कि
नहीं जाना , जाना कितने दिन 
सुना है आजकल संतान ख़ुद 
अपने माता पिता तक को भी 
इक बोझ समझने लगती है
सभी तब तक अपने होते हैं 
जब तक जमापूंजी रहती है । 
 
राजनेताओं की बात क्या है 
सत्ता की ख़ातिर धर्म ईमान 
शराफ़त इंसानियत भुलाकर 
शैतान से गठबंधन कर लेते
और जनता ठगी रह जाती है 
चुनाव में मतदान करने बाद । 
 
आपकी सभी संतानें मिलकर 
आपको आदर प्रेम और शांति 
हर स्वतंत्रता को अपनी सुविधा 
अपनी ख़ुशी अपने अधिकार भूल
अपनी दिनचर्या दरकिनार कर 
आपका वर्चस्व स्थाई रहने देंगे । 
 
कहीं ऐसा नहीं हो भविष्य में 
उनकी चाहत ख़त्म हो जाए 
मनचाहा आशिर्वाद हासिल कर 
और आप इक निर्जीव वस्तु बन 
किसी कोने में पुरानी तस्वीर की 
तरह इक सामान की तरह रखे 
अपनी बेबसी और बदहाली का 
ख़ामोश तमाशा अपनी नज़र से 
देख अश्क़ों को छुपाओ खुद से ।   
 
अचानक हर समस्या का समाधान 
करने वाले प्रकट हुए अभिवादन कर 
बताया हल ढूंढ लिया है सिनेमाई है 
दो हमशक़्ल जुड़वां भाई हरजाई हैं 
अपनी जगह जुड़वां को भेज देते हैं
चुपके चुपके मकसद जान लेते हैं 
पर्दे के पीछे का सच पहचान लेते हैं 
असली नकली कौन परखता है अब 
दुनिया में सब चलता है कौन सच 
बोलता है और सूली पर चढ़ता है । 
 
बन कर कोई छलिया धरती पर आ 
सही समय पर सबको ही चौंकाएगा
झूठे वादे झूठी बातें करने वालों को 
दो दूनी पांच का सबक जो पढ़ाएगा
हमेशा से जो होता है वही दोहराएगा
पाने वाला खोएगा खोने वाला पाएगा ।  
 

( रद्द भी हो जाते हैं दौरे कभी कभी कारण कुछ भी संभव है । )

 

 
 
 
  
  

जनवरी 20, 2024

सबकी अपनी रामकहानी ( लघुकथा ) डॉ लोक सेतिया

      सबकी अपनी रामकहानी ( लघुकथा ) डॉ लोक सेतिया 

पत्रिका आजकल कागज़ के पन्नों पर नहीं सॉफ्टवेयर द्वारा पीडीऍफ़ फ़ाइल पर प्रकाशित होने लगी है ऐसी ही इक पत्रिका जो स्वयं को विश्व प्रसिद्ध बताती है ने सभी लिखने वालों को अपनी अपनी रामकहानी आगामी अंक के लिए घोषित तिथि तक भेजने का अनुरोध किया । कुछ पल बाद नियम घोषित किया गया पंजीकरण का शुल्क सौ रूपये भेजना अनिवार्य है । पिछले अंक में तीन सौ रचनाएं छपी थी अर्थात तीस हज़ार पत्रिका की इक पीडीऍफ़ फ़ाइल बनाने की कीमत पहले आओ पहले छपवाओ की नीति निर्धारित हुई । जिनको सौ रूपये नहीं देने उनकी मर्ज़ी भला इतने नेक कार्य में इतना भी योगदान कोई नहीं करना चाहता । हम सिर्फ एक ही को जानते हैं उन्हीं से अनुमति मांगी ताकि कोई कॉपीराइट का झगड़ा बाद में नहीं खड़ा हो । उनकी जगह कोई प्रतिनिधि मिले सचिव जैसे पद की तरह हालांकि आजकल निजि सचिव नहीं ख़ास लोगों के प्रवक्ता प्रतिनिधि जनसंपर्क अधिकारी जैसे प्रभावशाली शब्द उपयोग किए जाते हैं । देखा वहां लंबी कतार लगी थी अनगिनत लोग उनके आयोजित होने वाले कार्यक्रम की जानकारी सब से पहले अपने टीवी चैनल पर दिखाना चाहते थे । हर कोई चाहता था पल पल की खबर जिस घड़ी वो आयोजन स्थल को चलें लाइव दर्शक को दिखला सकें सभी की सीधे प्रसारण की आई बी वैन प्रतीक्षा कर रही थी । 
 
जाने ये करिश्मा कैसे हुआ कि मैंने खुद को भगवान जी के विशेष कश में उनके सामने पाया । जैसा कि हम सभी को मालूम है ईश्वर बिना कुछ बोले हमारे अंतर्मन की बात सुन लेते हैं वही हुआ । प्रभु बोले पता है क्या चाहते हो आप लेखक , लेकिन जिस रामकहानी की अनुमति लेना चाहते हो उस का कोई अता - पता कोई ओर - छोर खुद मुझी को ख़बर नहीं है । राम तो एक ही है सृष्टि की शुरुआत से हर जगह कण कण में रहता है अब ये किस की बात हो रही है कौन कहां से कहां आने-जाने वाला है । मैंने भी इतना शोर अपने नाम को पहले कभी नहीं सुना है बस उत्सुकता है ख़ुद देखते हैं क्या खेल तमाशा किस की माया है । पूछने से पहले ही बता दिया किसी हाथी घोड़े रथ या विमान की आवश्यकता नहीं उनको जहां जाना पहुंच जाते हैं । कोई बुलाए तो सही शुद्ध अंत:करण से  , समय व्यतीत होता रहा प्रभु को कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी क्योंकि सभी मुख से जो बोल रहे थे भीतर अंत : करण से आवाज़ नहीं आ रही थी । मैंने कहा भगवन आप व्यर्थ पुरातन ढंग से अनुरोध पाने की राह देख रहे हैं आजकल व्हाट्सएप्प सोशल मीडिया पर संदेश भेजते हैं सभी और देख लो नगर नगर क्या उत्सव का माहौल है । भगवान मान गए और कहने लगे आप को जिस भी लोकेशन का पता है चलते हैं साथ साथ , और मैंने गूगल मैप से सही दिशा निर्देश पाने को जगह शेयर कर दी । 
 
पकल झपकते ही हम पहुंच गए लेकिन प्रवेश द्वार पर पहचान निमंत्रण पत्र की मांग सुरक्षाकर्मी करने लगे । भगवान ने समझाया भला भगवान जिस जगह रहते या रहने वाले उस जगह किसी को चिंता करने की क्या आवश्यकता है । जो सभी का रखवाला है उसकी रक्षा कोई इंसान करेगा , समझदार हो जानते नहीं उस की मर्ज़ी बगैर इक पत्ता नहीं हिल सकता तो उस का घर कोई तोड़ सकता है बल्कि किस इंसान की हैसियत है भगवान को रहने को कोई आवास बनवा कर दे सके । संसार को बनाने वाले को दुनिया का कोई इंसान कुछ भी देने योग्य नहीं है जो भी है उसी का है फिर ये तेरा मेरा का झगड़ा कौन कर रहा है । मुझे निराश देख प्रभु ने कहा लेखक काहे निराश हो जिस रामकहानी की ख़ोज कर रहे अभी शुरू ही नहीं हुई है बस इक सपना है जो लोग नींद में सोते हुए नहीं दिन को जागते देख रहे दिखलाना चाहते हैं । क्या तुमको मालूम है इन में किसी को कोई रामकहानी पढ़नी भी नहीं है , ये सभी तो बचपन की चित्रकथाओं से आगे कुछ भी जानते तक नहीं हैं । बड़ी बड़ी किताबें पढ़ना इनको पसंद ही नहीं मगर बिना किसी भी ग्रंथ को पढ़े समझे ये तमाम उन पर बहस चर्चा झगड़े करते हैं । कोई वास्तविक ज्ञानवान या संत इनको कुछ नहीं समझा सकता है । मेरी जो भी रामकहानी है उसका प्रारंभ कोई नहीं जानता और अंत कभी हो नहीं सकता है ये जितनी भी धार्मिक कथाओं की सभी बात करते हैं ये मेरी वास्तविक कहानी में किसी कहानी के किस्से हैं जो वाचक विषय को समझाने को घड़ते रहते हैं । जैसे धरती गगन का कोई सिरा नहीं मिलता ठीक उसी प्रकार विधाता की कोई कहानी किसी किताब में कैद नहीं की जा सकती न ही उसे किसी दायरे में सीमित किया जा सकता है । ये कोशिश करने वाले समझते हैं सब जानते हैं जबकि जो जानता है कि वो सब नहीं जानता कुछ जनता है , लेकिन जो सोचता है सभी कुछ जानता है वो कुछ भी नहीं जानता है । 
 
 छोटी विचित्रताएँ - मुझे अपनी कहानी बताओ

जनवरी 18, 2024

लक्ष्मणरेखा अग्निपरीक्षा सभी की ( सीता जी की शर्त ) डॉ लोक सेतिया

 लक्ष्मणरेखा अग्निपरीक्षा सभी की ( सीता जी की शर्त ) डॉ लोक सेतिया 

दोनों भाई जल्झन में पड़े थे सोशल मीडिया की बातों का क्या भरोसा लोग मुंह में राम बगल में छुरी की कहावत को दर्शाते हैं । कौन सच्चा है कौन झूठा है खुद भगवान भी समझने में नाकाम हो जाते हैं । सीता जी ने सोच विचार कर सही जांच का वही पुराना उपाय सुझाया है । सीता जी ने कहा ये सोने की हिरण की माया की तरह सोने से बने हीरे मोती से जड़े मानव निर्मित भवन की चमक-दमक से प्रभावित होने से असली नकली का अंतर समझना कठिन होगा । लक्ष्मण जी फिर इक रेखा खींच सकते हैं ताकि उस को लांघ कर कोई भी पापी रावण साधु बनकर छल बल से किसी का अपहरण नहीं कर सके । जो भी खुद को भगवान का सच्चा भक़्त कहता है उसे भी किसी बड़े धार्मिक अनुष्ठान में सहभागी बनाने से पहले इक अग्निपरीक्षा से गुज़रने की शर्त उसकी पावनता की परख की होनी चाहिए । ये त्रेता युग भी नहीं कलयुग है लोग वास्तविक थोड़े बनावटी ज़्यादा धर्म कर्म करते हैं । रामायण और महाभारत ही नहीं गीता बाईबल कुरआन जैसे ग्रंथों की बातों को सोशल मीडिया ने मनमाने ढंग से प्रस्तुत कर इक ऐसा झूठ का मायाजाल बुना है जिस में करोड़ों लोग ऐसे फंसे हैं कि उलझन से निकलने को कोई तरीका नहीं सूझता किसी को । तभी इक ऋषि ने आकर धरती की वास्तविकता समझाई थी कि आपको वहां जा कर कुछ भी उपाय करने की अनुमति नहीं है अगर आप कोई लक्ष्मणरेखा या अग्निपरीक्षा का प्रबंध करने लगे तो मुमकिन है आपको हिरासत में लेकर अपनी पहचान प्रमाणित करने को कहा जाए या आप पर कोई गंभीर आरोप ही लगा दिया जाए । आपको यकीन नहीं होगा कि उन सभी को पवित्र और सच्चे होने का प्रमाणपत्र देशभक्त और ईमानदार होने का प्रमाणपत्र सरकारी विभाग से सर्वोच्च न्यायललय तक से आसानी से मिल जाएगा । इतना ही नहीं उनके सभी गुनाहों के गवाह झूठे साबित हो जाएंगे और सभी सबूत मिटा दिए जाएंगे , पुलिस सीबीआई से लेकर संसदीय समिति तक सभी सत्ता की पसंद से रिपोर्ट देने को तैयार हैं । लेकिन आप को कोई नहीं पहचानेगा कोई नहीं विश्वास करेगा कि खुद ईश्वर हैं और वास्तव में दुनिया की बदहाली से परेशान हैं क्योंकि तमाम लोगों ने धर्म और ईश्वर को अपना कारोबार बनाकर अपने स्वार्थ साधने का ढंग बना लिया है । 
 
सीता जी ने कहा आप उनको संशय का शिकार कर रहे हैं भला भगवान को अपनी पहचान साबित करने में कोई भी रुकावट कैसे आ सकती है । धरती की कोई भी अदालत चाहे तो ये वहां सब कर दिखला सकते हैं कुछ भी असंभव नहीं खुद भगवान क्या नहीं कर सकते । ऋषि ने कहा माता आपकी बात सही है लेकिन क्या आपको स्वीकार होगा कि खुद भगवान को किसी अदालत के कटघरे में खड़े होकर सच बोलने की शपथ उठानी पड़े वो भी ऐसी अदालत में जिस में न्यायधीश से वकील तक क़ातिल और गंभीर आरोप के मुजरिम को बेगुनाह और निर्दोष घोषित करने को किसी सीमा तक जाने को तैयार बैठे हों । भगवान को घोर कलयुग की निम्न स्तर की ओछी राजनीति से दूर रहना चाहिए बचना चाहिए ऐसे हालात से जहां कोई इंसान भगवान को बनाने की हास्यस्प्द घोषणा करता हो । सीता जी भी इक दोराहे पर खड़ी हैं और सोच रही हैं अपने पति या परिवार अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति देवी देवता के भरोसे रहने से अच्छा होगा जो तब नहीं किया अब खुद अपने दम पर अपनी शक्ति से खुद कर दिखाने का अवसर खोना नहीं है । सदियां बीत गई हैं मगर सीता का मन अभी भी पश्चाताप से मुक्त नहीं हुआ है अपने अपहरण की घटना से नारी को अपनी शक्ति और प्रयास को छोड़ किसी प्रियजन को पुकारने की भूल करते रहना जो अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है । दर्शन करने वाले सभी भक्तों को पहले अपनी धर्मपत्नी से माता पिता से अपने गांव गली के पास पड़ोस रहने वालों से इक सच्चा प्रमाणपत्र हासिल करना होगा कि वो इंसान वास्तव में भगवान की बताई शिक्षा और मर्यादा का पालन अपने जीवन में करता है । ऐसा नहीं कर पाने वाले को भगवान अपना भकत स्वीकार नहीं करेंगे । मंदिर प्रवेश से पहले इक दस्तावेज़ साथ लाना ज़रूरी है ।
 

सीता का पश्चाताप ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

मुझे स्वयं बनना था
एक आदर्श
नारी जाति के लिये ।

प्राप्त कर सकती थी
मैं स्वयं अपनी स्वाधीनता
अधिकार अपने ।

कर नहीं पाता
कभी भी रावण
मेरा हरण ।

मैं स्वयं कर देती
सर्वनाश उस पापी का
मानती हूँ आज मैं
हो गई थी मुझसे भयानक भूल ।

पहचाननी थी
मुझे अपनी शक्ति
मुझे नहीं करनी थी चाहत
सोने का हिरण पाने की ।

मेरे अन्याय सहने से
नारी जगत को मिला
एक गलत सन्देश ।

काश तुलसीदास
लिखे फिर एक नई रामायण
और एक आदर्श बना परस्तुत करे
मेरे चरित्र को
उस युग की भूल का
प्राश्चित हो इस कलयुग में । 
 
प्रमाणपत्र बनाम अनुभव के बारे में सच्चाई - किकस्टार्ट एलायंस - ग्राहक सफलता  परामर्श

जनवरी 14, 2024

नानक नीच करे विचार ( मनचाहा दर्पण ) डॉ लोक सेतिया

     नानक नीच करे विचार ( मनचाहा दर्पण ) डॉ लोक सेतिया 

 आज लिखने लगा था जिस विषय पर इक दोस्त ने मिलती जुलती कहानी का इक वीडियो मुझे व्हाट्सएप्प पर भेजा और मैंने अपनी बात लिखने से पहले उस को सुना और शुरुआत उसी से करना उचित समझा । जंगल में इक हाथी नदिया में नहाकर जा रहा था तो उस ने इक सूअर को सामने रास्ते पर आते देखा । कीचड़ से भरे सूअर से बचाव को हाथी ने रास्ता छोड़ दिया गंदगी से बचाव की खातिर । सूअर ने पूरे जंगल में जा कर ये बात इस तरह फैलाई कि सबसे बड़े जानवर ने उस से डरकर अपना रास्ता छोड़ दिया । जंगल के  सभी हाथी मिलकर उस हाथी के पास आये और कहा कि तुमने हमारी नाक कटवा दी सूअर को रास्ता दे कर । हाथी ने बताया ऐसे लोगों की बातों का कोई मतलब नहीं होता है जो वास्तविकता से अनजान अपनी झूठी बढ़ाई किया करते हैं । मैं अगर चाहता तो उसे अपने पांव के नीचे कुचल सकता था रास्ते से हटने की ज़रूरत नहीं थी , लेकिन मैं उसकी बात की तरह उसकी गंदगी और कीचड़ से अपने को गंदा नहीं करना चाहता था इसलिए ऐसा किया । इधर कितने आदमी कीचड़ उछालने का कार्य कर खुद को बलशाली समझ रहे हैं जबकि ये वास्तव में उनकी बौद्धिक दुर्दशा का प्रमाण है । आधुनिक युग में उन महान पुरुषों जिन के नैतिक आदर्शों और ऊंचे मूल्यों पर चलने का साहस तक नहीं को लेकर झूठा मनघड़ंत प्रचार करने वाले समझते हैं सूअर की बात जंगल वाले मान सकते हैं । हमको ऐसे लोगों की बातों का जवाब नहीं देना चाहिए बल्कि उनसे कभी सार्थक संवाद संभव ही नहीं है । हक़ीक़त तो ये है कि जो अपने पूर्वजों की निंदा करते हैं खुद कुछ भी बन ही नहीं सकते तभी ऐसा करते हैं । जिन महान लोगों ने जीवन भर देश समाज की भलाई प्रगति का कार्य किया उनकी आलोचना करना कुंठित मानसिकता की निशानी है । 
 
बात सबसे पहले ख़ुद को देखने समझने की होनी चाहिए मगर कमाल है सभी को हर किसी की चिंता है ख़ुद अपनी नहीं । जिसे भी देखते हैं सभी दुनिया भर की कमियां ढूंढते हैं कहीं अच्छाई भी किसी की दिखाई देती है तो उसका कोई महत्व नहीं समझते बल्कि कहते हैं इस में अचरज की कोई बात नहीं है । हालांकि सब को भटकना सहज लगता है बड़ा आसान होता है दुनिया जिस तरफ जा रही उसी ओर चलते जाना क्योंकि ऐसे में कोई सवाल नहीं करता सही क्या गलत क्या । दुनिया से अलग हटकर अपनी कोई राह बनाना सरल नहीं होता है । बहुत विरले लोग होते हैं जो बहती धारा के विपरीत तैरने का जोख़िम उठाते हैं भले लोग उनको नासमझ नादान ही नहीं पागल कहते हैं । सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन कंप्यूटर इंटरनेट ने एक तरफ सबको अपनी बात अपनी सोच विचार ज़ाहिर करने को माध्यम उपलब्ध करवाया तो दूसरी तरह अपनी नासमझी और बिना पढ़े समझे कुछ भी कहने पर ख़ुद अपनी ही कलई खुलने का भी कारण बन गया है यही मंच । कभी लोग बड़े और उच्च आदर्शवादी महान लोगों की बातें किया करते थे ताकि उन से कोई सबक सीख कर अपने जीवन का और समाज का कल्याण संभव हो । लेकिन आजकल जो होने लगा है बहुत ही अनुचित और नकारात्मक आपत्तिजनक है किसी भी बड़े व्यक्ति के व्यक्तत्व की विशेषताओं को भी गलत ढंग से प्रस्तुत कर उनकी छवि को धूमिल करने का जतन करना । शायद हमने भुला दिया है कि सूरज की तरफ थूकने से खुद अपने आप को गंदा करते हैं । आजकल यही काम अधिकांश लोग करते ही नहीं बल्कि समझते हैं कि उनका कार्य बहुत ही प्रभावशाली है क्योंकि तमाम लोगों को अपनी अतार्किक मनघड़ंत बातों से विवश कर दिया है रात को दिन समझने को । 
 
मुझे अजीब लगता है जब किसी की साहित्यिक रचना की अथवा शानदार उदाहरण की सराहना करता हूं तो तमाम लोग विषय और संदेश समझने की जगह कोई दूसरा कारण तलाश करने लगते हैं । मेरा स्वभाव है अनुचित या गलत का विरोध करने के साथ अच्छी और शिक्षप्रद बात की खुले मन से तारीफ़ करना । इस कार्य में जिस की बात है उस का किस विचारधारा से क्या संबंध है इस पर ध्यान नहीं देता । इक बड़ी हैरानी की बात आजकल दिखाई देती है हर कोई खुद अपने आप को महान समझने एवं साबित करने को व्याकुल लगता है । कुछ ख़ास कर दिखलाने की जगह ख़ास और समाज में महत्वपूर्ण दिखाई देने की चाहत ने लोगों को इक ऐसी राह पर चलने को विवश कर दिया है जिस की कोई मंज़िल ही नहीं कोई अंत नहीं है । ऐसा अक़्सर होता है बल्कि अधिकांश होता है जब भी किसी से कोई गंभीर विषय पर चर्चा करते हैं तब जैसे उनको सही घटना विवरण या वास्तविकता को समझने को उनके अभिमत से अलग कोई पक्ष का ज़िक्र करते हैं तो सभी समझने की जगह बचने की राह देखते हैं । किसी बहाने कोई अन्य बात करने लगते हैं या फिर कहते हैं बस कभी बाद में वार्तालाप करते हैं । विडंबना की बात है सार्थक संवाद भी लोग सोचते हैं जब भी उनको आवश्यकता सुविधा हो तभी होनी चाहिए । 
 
नानक और कबीर जैसे लोग दुनिया में सच्चाई और भलाई को खोजते थे और उनको सभी में कुछ न कुछ अच्छा दिखाई देता था । शायर कवि कथाकार लेखक लोग प्यार और मानवता की विचारधारा को सब से अधिक महत्व दिया करते थे और किसी से भी बैर की भावना नहीं रखने की ज़रूरत समझते थे । ये कितना अजीब खोखलापन है कि तमाम लोग प्यार मुहब्बत की नहीं टकराव की मनमुटाव की आपसी सदभाव की नहीं अपितु अकारण द्वेषभावना की सोच रखने लगे हैं । किसी को छोटा साबित कर नीचा दिखला कर कोई बड़ा या महान नहीं बन सकता है बल्कि ऐसा करना घटिया कार्य कहलाता है । मनुष्य में गुण अवगुण दोनों ही होते हैं और हमको हर किसी से अच्छाई सीखनी चाहिए और बुराई से बचना चाहिए । अपनी शारीरिक ही नहीं मानसिक पवित्रता को भी गंदगी से बचाना आवश्यक है ।    
 

 

जनवरी 10, 2024

धरती पर घर बनाया है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         धरती पर घर बनाया है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

ख़ुद भगवान का सुन कर सर चकराया है 
इंसान ने धरती पर घर उसका बनवाया है 
सोने के किवाड़ हैं स्वर्गवासी हुए हैरान हैं 
धूप भी छाया लगती अजब ग़ज़ब रंग रूप है
जाने किस की माया है खोया जो पाया है ।
 
चिंता भगवान की बड़ी कौन समझ पाएगा 
इतनी कीमती चीज़ों को कोई जो चुराएगा
सुःख चैन पुजारियों का उड़ ही नहीं आएगा 
सुरक्षा करने वालों का ऐतबार नहीं कोई भी 
मुकदमा चला भी अंतिम निर्णय कब आएगा ।
 
सोने चांदी से बनते सजते कितने भगवान हैं 
मिट्टी जिनकी पहचान है वही सिर्फ इंसान हैं 
शीशे का महल उसका पत्थर से घबराता है 
हाथ ख़ाली थे सिकंदर देखा सभी ने आख़िर
नादान है व्यर्थ ही संचय करता सब सामान है ।
 
पढ़ पढ़ शिक्षक बने तनिक किया नहीं विचार 
होगा गहरे पैठना जिसको जाना भवसागर पार 
प्रेम की भाषा अच्छी जिस का हो शुभ विचार 
करुणा और विवेक से ख़ुद मिलते हैं भगवान 
आडंबर से झूठे अहंकार से है डूबा सब संसार ।  
 
अपने मन को मंदिर बनाओ तब होगा कल्याण 
अपने भीतर झांको तभी मिलते हैं प्रभु श्री राम
हमको नहीं है  पता किस का कैसा ज्ञान ध्यान 
रहा नहीं कोई भी शहंशाह और किसी का दरबार 
उपदेशक खुद मार्ग भटके देते सिर्फ व्याख्यान ।
 
हीरे मोती सोना चांदी और कितने सुंदर परिधान
हलवा पूरी भोग लगाएं कितने बना मधुर मिष्ठान 
उसको क्या , जिसने खाये झूठे शबरी के हों बेर
बाहर उजाला भीतर अंधेरा है वाह रे ओ नादान 
खोजा नहीं मिल जाते हैं कण-कण में हैं भगवान ।   
 
भगवान को किया है सावधान बता नियम कानून
इतना सोना कैसे हुआ हासिल ये मत जाना भूल 
बड़े बड़े लोगों की होती है घर दफ़्तर की तलाशी 
लक्ष्मी जी भी नहीं बचा पाती कि उनका है वरदान
शपथ-पत्र देना चाहिए नहीं ये सब मेरा साज़-सामान 
दुनिया क्या जाने कांटों संग रहते कैसे सुंदर फूल । 
 

 
 
 
  
 
 
 

जनवरी 09, 2024

शीशा हो या दिल हो , आख़िर टूट जाता है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

शीशा हो या दिल हो  , आख़िर टूट जाता है ( व्यंग्य )  डॉ लोक सेतिया 

बनाने वाले ने हज़ारों तूफ़ान इक छोटी सी जगह भर कर नाम रख दिया दिल । इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई इधर गिरा कोई उधर गिरा । फिल्म वालों ने दिल का कारोबार खूब जमकर किया और ग़ज़ब ढाया दिल को बेचा दिल से दिल टकराया पैसा बनाया अश्क़ों का इक दरिया हर तरफ बहाया । दिल का क्या कसूर कब क्यों किस पर आया । सच्ची खरी बात तो ये है सभी सीने में दिल रखते हैं लेकिन सबका दिल धड़कता नहीं है प्यार के नाम से । कोई सोने के दिल वाला कोई चांदी के दिल वाला पत्थर का है मतवाला तेरा दिल । क्या लाजवाब गीत है 1961 की फ़िल्म माया का बस कोई नहीं जानता दिल से खेलने का ये सिलसिला कब कैसे किसने शुरू किया । यकीनन ये किसी दिमाग़ की खुराफ़ात रही होगी दिल बेचारा कब समझता है दिमाग़ वाले क्या क्या नहीं खेलते हैं । चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया इक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया । खिलौना जान कर तुम तो मेरा दिल तोड़ जाते हो कोई पागल गीत जाता है और अमीर पिता अपने बेटे का पागलपन दूर करने को बाज़ार से इक नाचने वाली को घर लाता है । मुन्नाभाई जब नकली डॉक्टर बन अस्पताल चलाता है तब इक शख़्स बार बार हर्ट अटैक का अभिनय दोहराता है । जाने ये कौन सा झोला छाप है कि हरजाई है जिस ने राम किट नाम से तीन दवा की सोची समझी चतुराई है । शायद उसको दिल को रोगों से कैसा बचाना है सबक नहीं समझाना अस्पताल में दिल के मरीज़ों को बुलावा भेजना पसंद आया है । राम का नाम सही समय याद आया है जिसे देखो हर कोई राम धुन गाता है प्रभु राम का आमंत्रण आया है , इक नई रामायण भी टेलीविज़न पर दिखला रहे हैं । राम बेघर थे उनको इक शानदार भवन में बसा रहे हैं दिल से राम कब के निकल चुके हैं अब पत्थर की प्रतिमा में प्रवेश करवा रहे हैं । अभी किसी को राम किट का प्रसाद बांटने का ख़्याल नहीं आया है ये भी किस्सा आपको नहीं सुनाया है । कलयुग में जो भी नहीं हो वही काफी है आपको मनमानी की छूट है हर बात की माफ़ी है । 
 
ये अभी इक सपना है कभी बस रेलगाड़ी में सस्ती दवाएं बिकती थीं सब को समझाते थे लाख मर्ज़ की एक दवा है क्यों न आज़मा ले । सच है आजकल बड़े बड़े डॉक्टर कुछ इसी तरह जिस जगह जैसे राह मिले रोगियों की तलाश करते हैं । बड़ा फैला हुआ ये व्यौपार है हर गली चौराहे पर कोई न कोई इश्तिहार है , सभी अस्पतालों में नर्सिंगहोम में रोगियों की भीड़ है जिधर जाओं भरमार ही भरमार है भटक रहे हैं लोग मिलता नहीं चैन लुट रहा दिल का करार है । हमारे देश की शिक्षा स्वास्थ्य सेवा प्रशासन पुलिस न्याय से हर राज्य की देश की सरकार भगवान भरोसे है । सोचने समझने वाले हैरान हैं भारत देश की जनता का कोई भी नहीं बस वही इक भगवान है । कुछ साल पहले ये सिलसिला शुरू हुआ था असली देसी घी ख़राब है बंद किया था कुछ और शुरू करवाया था , जब भैंस गई पानी में तब समझ आया था , किसी कंपनी ने ये कारनामा करवाया था और सभी को स्वस्थ्य रहने की चाह में धीमा ज़हर खिलाया था । आजकल हर कोई मासूम है हर कोई ही ज़ालिम है दिल तोड़ने का अजब ये सितम है ये रोग सभी ने पाला है हर कहानी में दिल की बात मिर्च मसाला है । दिल हमने भी कितनी बार जोड़ा है अब गिनती नहीं याद किस किस ने दिल अपना तोड़ा है , इश्क़ की राह में कौन दोस्त रकीब है ये सवाल कठिन थोड़ा है कौन है जिस ने ख़्वाब तोड़ा है कोई है जो रस्ते का रोड़ा है । 
 
इक फ़िल्म आई थी जिस में समझाई किसी ने बाबू भाई मोशाय को अपनी चतुराई थी , वहम का ईलाज कहते थे हमीम लुकमान के पास नहीं था उनको लड़नी गरीबी भूख से लड़ाई थी बस इसलिए ऐसे मरीज़ को गंभीर बिमारी बतलाई थी करनी तगड़ी कमाई थी । ये इक नई पहेली है कौन स्वास्थ्य से लेकर सब का बाज़ार लगाए है हर जगह इक वही नज़र आये है रोग को जड़ से मिटाना है कहने वाला हर रोग की दवा बनाए है । खोटा सिक्का जिस का खरा कहलाता है बस वही सच्चा सभी को झूठा साबित कर चोर चोर चिल्लाता है । तन मन दोनों रोगी हैं सभी जोगी हैं सभी भोगी हैं । शायर निदा फ़ाज़ली जी की ग़ज़ल से शेर अर्ज़ है ,  औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में  , कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है । आजकल ज़माना इसी तरह की जादूगरी का है झट पट अपनी सूरत बदल लेते हैं सीरत वही रहती है मक्कारी वाली ।  सीता को सब आता है रस्सी पर चलना नहीं आता गीता कुछ भी कर सकती है शक़्ल दोनों की एक जैसी है जब सभी बहरूपिए हों तो पहचानना आसान नहीं है । आजकल सब मिलता है सिर्फ दिल-ए - नादान नहीं । 
 

 

जनवरी 02, 2024

हैं हैरान हमारे भगवान ( मानो चाहे न मानो ) डॉ लोक सेतिया

   हैं हैरान हमारे भगवान ( मानो चाहे न मानो ) डॉ लोक सेतिया 

आज क्या हुआ जानने से पहले इक पुरानी घटना की जानकारी बतानी ज़रूरी है , वर्षों पहले कुछ शिक्षित विख्यात इंसानों की आत्माओं ने भगवान को आधुनिक ढंग से रहने को मना लिया था । उन समझदार लोगों को लगा था कि आधुनिक काल में भगवान का नया स्वरूप तौर तरीका शैली अपनाकर समयानुकूल बनना ज़रूरी है । लेकिन ये बदलाव धरती पर रहने वालों को मालूम नहीं था और आज भी वो सभी घिसी पिटी पुरानी कथाओं को आधुनिक संदर्भ में समझने की बजाय उनको और भी रहस्यमयी बनाते रहते हैं । भगवान की कथाएं लिखने वाले ये जानकार परेशान होते हैं मगर कुछ करने को सक्षम नहीं हैं क्योंकि जब उन्होंने लिखी कथाएं कहानियां तब कॉपी राईट करवाने का प्रावधान ही नहीं था । अभी अभी पधारी इक आत्मा ने भगवान से शिकायत की थी कि उनकी शांति के निमित आयोजित सभा में जो उनको दिखाई दिया उसे देख कर वो अशांत और बेचैन हो गई हैं । शोकसभा की बातें किसी कॉमेडी से कम नहीं थी और वातावरण भी जैसा था उनकी कल्पना में भी होना संभव नहीं था । जितने वक़्ता अपनी बात बोल रहे थे उनका मकसद कुछ और हो सकता था स्वर्गवासी आत्मा को श्रद्धांजलि देना बिल्कुल नहीं था । अब आज जो हुआ जो हो रहा है जो होना है वापस उसी पर आते हैं । 
 
जिन महान विद्वान महान आत्माओं ने भगवान को बदलकर आधुनिक परिवेश रहन सहन और आधुनिक साधनों को उपयोग करने का आदी बनाया था उन्हीं लोगों ने इक प्रस्ताव भेजा है आधुनिक शैली से नव वर्ष का उत्सव मनाने का । भगवान की दुनिया में समय दिन घंटे साल की कोई गिनती नहीं होती है वहां का कालचक्र का पहिया निरंतर घूमता रहता है । भगवान हैरान होते हैं जब उनके बनाये सोशल मीडिया अकाउंट पर हर दिन कुछ विशेष अवसर घोषित कर बधाई और शुभकामनाएं आदान प्रदान की जाती हैं । भगवान ने प्रस्ताव पर विचार करने को उन सभी को कक्ष में बुलाया है , बताएं इस का औचित्य क्या है क्या हासिल हो सकता है । विचार विमर्श कर बताया गया कि ज़रूरत या औचित्य की नहीं बात अलग है कि कुछ महीने बीत जाने उपरांत ये आंकलन किया जाए कि हमने इतने समय का समुचित उपयोग किया अथवा नहीं । भगवान ने पूछा ये चलन धरती पर है लेकिन मुझे नहीं दिखाई दिया कि सामान्य आदमी से संस्थान संगठन की बात छोड़ सभी सरकारें तक संवेदनशील भी हैं । मैंने तो देखा कोई सबको समझा रहा था कि आपकी उम्र इतने बरस की हो गई है तो आप भाग्यशाली हैं और आपको सौ बरस जीने को क्या क्या करना है । कोई नहीं सोचता सौ बरस जी कर किया क्या करना क्या है । सरकार सभी साल गिनती हैं जैसे कोई रोगी अंतिम सांसें गिनता है करती कुछ भी नहीं बस प्रचार इश्तिहार छपवाते रहते हैं ।  
 
जब से भगवान की दुनिया में बदलाव किया गया है देवियों को अपना महत्व समझ आया है । धरती से फ़िल्मी सितारे कुछ अनुभवी लोगों को लाये थे जो उनका मेकअप और वेशभूषा को लेकर सहयोग करते हैं । देवी देवता और भगवान को भी उनकी सेवाएं पाकर सुखद अनुभव हुआ है । अब आधुनिक साज़ो-सामान से लेकर वाहन तक सभी उनके पास हैं और धरती पर घटित पल पल की घटनाओं का सीधा प्रसारण भी उनको इक अनूठे आनंद का अनुभव करवाता है । सभी महिलाओं ने इक ऐसा नव वर्ष आयोजित करने पर सहमति प्रदान की है जिस पर भगवान ने सोच विचार कर जवाब दिया है । 
 
आप सभी चाहते हैं तो पहला सवाल यही होगा कि शुरुआत किस दिन से की जाए , ये भी निर्धारित हो जाएगा लेकिन तब सभी देवियों को हर साल अपनी बढ़ती उम्र का एहसास हुआ करेगा जो इक दिन की जश्न की ख़ुशी से कहीं बढ़कर परेशानी बढ़ाने वाला हो सकता है । लेकिन महिलाओं की ज़िद भला कोई किसी तरह से समझा सकता है देवियों की प्रमुख ने कहा भगवान आपको फ़ज़ूल ख़र्चे की फ़िक्र है ये बहाने नहीं चलने वाले । आपको हमारी बात मंज़ूर करनी पड़ेगी हम आधुनिक होने की राह पर आगे बढ़ते जाते हैं भले कुछ भी हो पीछे नहीं हटने वाले । भगवान जानते हैं यही धरती वासी मनुष्यों का भी है प्रगति के नाम पर विकास नहीं विनाश की तरफ बढ़ते जाते हैं सभी अंजाम जानते हैं मगर नहीं संभलने वाले । भगवान की दुनिया में भी नए साल का धूम धड़ाका जश्न होने लगा है ये खबर अच्छी है या नहीं है वही जानता है ।