सितंबर 27, 2022

अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां ( इंसानियत के खण्डर ) डॉ लोक सेतिया

अंधकार की निशानियां हैं , ये चकाचौंध रौशनियां  ( इंसानियत के खण्डर )

                                   डॉ लोक सेतिया 

किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता केवल अपनी सोच को व्यक्त करना चाहता हूं । तमाम लोग किसी शहर की रंग बिरंगी रौशनियां देख का आनंद और रोमांच का अनुभव करते हैं । कभी किसी जगह किसी दिन ख़ास अवसर पर सजावट और रौशनी का भव्य आयोजन किया जाता है । मुझे न जाने क्यों ये सब देख कर अलग तरह का एहसास होता है । सोचता हूं इन सब चमक दमक से देश समाज की बदहाली अंधकार क्या छुप गया है या शायद और भी अधिक दिखाई देता है । कुछ लोग बहुत सारा धन साधन कुछ पलों की इक दिखावे की ख़ुशी पर खर्च करते हैं पानी की तरह पैसा बहाते हैं वास्तव में बर्बाद करते हैं जबकि उनके हमारे आस पास गरीबी भूख बेबसी का जीवन जीते हैं करोड़ों लोग । इतना अंतर अमीर और गरीब का कोई विधाता की देन नहीं है बल्कि ये हमारी सामाजिक और सरकारी अमानवीय व्यवस्था के कारण होता रहा है हो रहा है और हम होने देना चाहते हैं । मेरी बात निराशाजनक लग सकती है जबकि निराशाजनक पहलू ये है कि हम अधिकांश से अधिक अथवा आवश्यकता से ज़्यादा पाकर खुद को भाग्यशाली और उन लोगों से बड़ा या बेहतर समझते हैं जिनको दो वक़्त रोटी भी नसीब नहीं है । लेकिन इस के बावजूद हम मानवता की देश दुनिया के कल्याण की बातें करते हैं और खुद को सभ्य मानते हैं । ये अजीब मंज़र है कोई नंगे बदन है भूख से बिलखता है जीने की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है तो कुछ हैं जिनकी चाहतें हसरतें ख़्वाहिशें बढ़ती जाती हैं ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती । धर्म की बात करें तो हर धर्म बताता है वास्तविक धर्म दीन दुःखियों की सहायता करना है संचय करना और व्यर्थ के आडंबर पर बर्बाद करना धर्म नहीं होता है , सबसे महत्वपूर्ण बात जिन के पास सब कुछ है लेकिन तब भी उनको और अधिक हासिल करने की चाहत है वो सबसे दरिद्र लोग होते हैं । 
 
पुरानी ऐतहासिक इमारतों को देखने लोग आते हैं और आचम्भित होते हैं शासकों के शानदार ठाठ बाठ और शाही तौर तरीके की निशानियां देख कर । मुझे वहां जाना अच्छा नहीं लगता है जाना होता है कभी किसी कारण तो देख कर सोचता हूं उन राजाओं ने शासकों ने इतना पैसा केवल अपनी विलासिता पर खर्च किया तो कितने आम नागरिक से कर वसूल कर और क्या उसी से देश राज्य समाज को ख़ुशहाल नहीं बनाया जा सकता था । ऐतहासिक स्थलों पर ये रईसी देख कर , और हाथी घोड़े पालकी की सवारी का लुत्फ़ उठाकर क्या समझते हैं कि हम शहंशाहों की तरह है जबकि वास्तव में हमको आधुनिक लोकतंत्र में सोचना कुछ और चाहिए वो ये कि ऐसा करना देश समाज राज्य के साथ अनुचित आचरण करना था और है । अन्यथा किताबों में ग्रंथों में नीति निर्धारक कथाओं में राजा को जनता का पालक और रक्षक नहीं बताया गया होता । जिन कार्यों का हमको विरोध करना चाहिए उन्हीं का गुणगान करते हैं इसी से समझ आता है कि हमको गुलामी दास्ता और आज़ादी का अंतर नहीं मालूम या उनके अर्थ नहीं समझते हैं । कितना अजीब विरोधाभास है हम महानगरीय जीवन जीना चाहते हैं शानदार बड़े बड़े राजमार्ग पर तेज़ गति से वाहन चलाना चाहते हैं लेकिन खण्डर जंगल को देखना चाहते हैं खेल तमाशा समझ कर । हमको जो बताया जाता है वो किसी सत्ताधारी द्वारा लिखवाया इतिहास का एक पक्ष है और उसका वास्तविक पहलू शायद कभी सामने नहीं आता है । उसको समझना ज़रूरी है इन सब बातों पर चिंतन विमर्श कर खुले दिमाग से । लेकिन हम नहीं करते ऐसा कभी भी क्योंकि ये हमें चिंतित और परेशान उदास कर सकते हैं जबकि हम ख़ुशी और आनंद की तलाश करते हैं चिंताओं से भागते हैं चिंतन से घबराते हैं । 
 
मृगतृष्णा की बात होती है , मुझे लगता है हमारा समाज और लोग उसी का शिकार हैं । चमकती हुई रेत को पानी समझ कर दौड़ रहे हैं उम्र भर भागते रहते हैं और आखिर प्यासे ही मर जाते हैं । कहीं ये किसी का अभिशाप तो नहीं जो हम सोचते हैं कोई वरदान मिला है । लिखने को बहुत है समझने को इतना काफी है। 
 

 

सितंबर 13, 2022

हर ख़ुशी हमारे लिए ( राज़ की बात नहीं ) डॉ लोक सेतिया

     हर ख़ुशी हमारे लिए ( राज़ की बात नहीं ) डॉ लोक सेतिया  

राज़ की बात नहीं थी खुद हम ही नादान और नासमझ थे जो इतनी सी बात समझने में सालों लग गए कि जिनको हमारी ख़ुशी हमारी पसंद से कोई मतलब नहीं था सिर्फ अपनी ख़ुशी चाहते थे बदले में मुझे क्या किसी को भी खुश देखना नहीं चाहते थे उनकी चाहत में दुःखी होने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । चलो देर ही से सही ये नुस्खा समझ आया तो सही । अश्कों से रिश्ता निभाता रहा बिना बात मुस्कराया तो सही । ख़ुशी कब से खड़ी हुई थी उसको बुला कर खुद अपने दिल में बिठाया तो सही । दुनिया से जो प्यार कभी मिलता नहीं वही अपने आप से पाया तो सही । हम अकेले नहीं खुद साथ हैं अपने ज़माने को कर के दिखाया तो सही । ग़मों से दामन छुड़ाया भी नहीं खुशी को गले से लगाया तो सही । चमन कुछ उदास था मुद्दत से बहारों का मौसम आया तो सही । कोई सूरज कोई चांद नहीं दिखाई देता इक छोटा जुगनू टिमटिमाया तो सही । निराशा के घने बदल छाए हुए थे पर आशा का दीपक जलाया तो सही । तकदीर ने लिखी नफ़रतें ही नफ़रतें साहस से लकीरों को मिटाया तो सही । दर्द के गीत कितने मधुर लगते थे ख़ुशी का नग़्मा महफ़िल को सुनाया तो सही ।
 
भूल हुई जो हमने बेदिल बेरहम दुनिया वालों से जीने की इजाज़त मांगी , मरने की सज़ाएं देने वाले भला किसी को अपनी ज़िंदगी पर इख़्तियार देते हैं । हमको हंसता मुस्कराता देख पूछते हैं माजरा क्या है कैसे ऐसे हालात में खुश रहते हो , रोने की आदत नहीं फिर भी कभी आंखें नम हों तो ज़माना उस पर भी तंज कसता है । हमदर्द ज़माना नहीं है किसी के लिए भी । चतुराई चालाकी चालबाज़ी झूठ का आडंबर नहीं सीखा हमने कभी जिन्होंने इन सभी को आज़माया बहुत कुछ छीना चुराया आखिर उनका अंजाम भी सामने नज़र आया इक दिन उनको खाली हाथ पाया । सच से नज़रें चुराने वाला हमेशा है पछताया दुनिया वालो ने जाने क्यों झूठ का परचम लहराया । हमने कभी नहीं दोस्तों को परखा न कभी आज़माया फिर भी अफ़सोस नहीं है भरोसा किया और धोखा खाया । ऐतबार पर ऐतबार करते हैं ये ख़ता है तो हो हम तो खताएं बार बार करते हैं । आखिर इक बात कहनी है अपनों-बेगानों सभी से , बस और कुछ नहीं चाहता किसी से भी ।
 

         जीने के मुझे पहले अधिकार दे दो , मरने की फिर सज़ाएं सौ बार दे दो।  

 

 
           

सितंबर 12, 2022

एहसासों के फूल ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : अमृत लाल मदान

   एहसासों के फूल  ( पुस्तक समीक्षा ) समीक्षक : अमृत लाल मदान 

                           रचनाकार कवि : डॉ लोक सेतिया  

गत वर्ष मुझे डॉ सेतिया ने फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी शीर्षक से अपनी पहली किताब भेजी थी , जिसकी भूमिकासमझाने इक हस्ती आई से मुझे एक पंक्ति अभी तक नहीं भूली है । वह कहते हैं :- लिखना मेरा जूनून है , मेरी ज़रूरत भी है और मैंने इसको इबादत की तरह समझा है । इसी वर्ष उनकी तीन किताबों का सुंदर ढंग से छपकर आना वाकई उनके जूनून को दर्शाता है , उन्हें बधाई । और उनकी जुनूनी इबादत को सलाम । 
 
उनके ताज़ा कविता संग्रह ' एहसासों के फूल ' में लगभग 75 छंदबद्ध कविताएं एवं मुक्तछंद रचनाएं संग्रहीत  हैं जो सहज सीधी ज़बान में बदलती अनुभूतियों और एहसासों को ईमानदारी से अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं । उनमें कोई शब्दाडंबर नहीं , कोई गूढ़ दर्शन की बोझिल बातें नहीं लेकिन सब में ठोस ज़िंदगी की तरल बातें हैं , जो उनके 71 वर्ष के जीवन अनुभव से निचुड़ी हुई आई हैं । 
 
 
प्रेम अनुभूतियाँ ज़िंदगी की सबसे तरलतम और सघनतम , उदास किंतु सुखद , और सृजन की अपार संभावनाओं से परिपूर्ण अनमोल अनुभूतियाँ होती हैं । ऐसी कविताएं सिरहाने के नीचे रखी जाती हैं , युवावस्था में  , और प्रौढ़ावस्था में हृदय की तहों के नीचे या स्मृतियों में । ऐसी कुछ कविताएं और ग़ज़लें हैं : वो दर्द कहानी बन गया , जाने कब मिलोगी तुम , मन की बात , उमंग यौवन की , मेरे ख़त , मेरी खबर आदि ।    
 
 
कवि केवल प्रेमिका की याद से उपजी उदासी को ही नहीं उकेरता बल्कि वृद्धावस्था में हर उस मां की उदासी को भी शिद्दत से महसूस करता है जो युवा संतान की उपेक्षा सहती है । यह ऐसा है जैसे कोई किसान युवा हुई फसलें काट लेता है और पीछे कटी हुई जड़ों का दर्द ही टीसता रह जाता है  , माँ के आंसू ऐसी ही कविता है । 
 
 
कवि का जीवन संघर्षों में और संघर्षशील मनुष्य के जीवट और आत्मविश्वास में पूरा विश्वास है । वह एक कविता में लिखता है : जीवन इक संग्राम तो क्या \ नहीं पल भर आराम तो क्या । ' थकान ' में कहता है : जीवन भर चलता रहा \ कठिन पत्थरीली राहों पर \ पर मुझे रोक नहीं सके \ बदलते मौसम भी । 
 
 
कवि नये ज़माने की नयी नारी का उद्यघोष सीता के पश्चाताप की आवाज़ में करता है , मुझे नहीं करनी थी चाहत \ सोने का हिरण पाने की ,  और एक अन्य कविता 'औरत ' में जो संग्रह की पहली कविता है वह उसकी आवाज़ यूं बनता है : " तुमने देखा है \ केवल बदन मेरा \ प्यास बुझाने को अपनी हवस की \ बांट दिया है तुमने टुकड़ों में मुझे \ और उसे दे रहे हो चाहत का नाम । एक और खूबसूरत कविता है ' हमारा अपना ताज ' पति-पत्नी का अपना प्यार का छोटा सा बसेरा । 
 
 
सामाजिक सरोकारों की कविताओं में ' काश ' शीर्षक से कविता मुझे बहुत अच्छी लगी जिसमें कवि सच्ची धर्मनिरपेक्षता सर्व धर्म समभाव का पक्षधर तो बनता है लेकिन उससे बढ़कर वह समूची मानवता के दर्द के एहसास को प्रमुखता देता है न कि मंदिर मस्जिद जाने को । कवि प्राकृतिक परिवेश का प्रेमी है और पर्यावरण संरक्षण में विश्वास रखता है । ' ठंडी ठंडी छाँव ' वृक्ष कहता है : काटना मत मुझे कभी भी \ जड़ों से मेरी \ जी नहीं सकूंगा \ अपनी ज़मीन को छोड़कर  , मैं कोई मनी प्लांट नहीं हूं । मानि वह प्राकृतिक उत्पाद के बाज़ारवाद का भी आलोचक है । 
 
 
साहित्य में कागज़ के फूल सजाने वाले कई लोग पत्थर के फूल भी बन कर नफरती बोल बोलकर बाल श्रमिकों का कैसे दिल दुखाते हैं , ये पीड़ा एहसासों के फूल खिलाने वाले डॉ सेतिया जी बखूबी समझते हैं । उनकी दृष्टि में वो साहित्य कहीं गुम हो गया है जो सद्भावना और संवेदना से खुशियों की महफ़िलें सजाता था ।  अब तो घुटन में उन्हें इस तालाब का जल प्रदूषित लगता है और सब फूल कुम्हलाए हुए । 
 
 
समाज में फैली इन दुष्प्रवृतियों से दुःखी हो कर वह कृष्ण को उनका वायदा याद दिलाते हैं जो उन्होंने अधर्म  जाने पर नया अवतार ले कर आने को कहा था । यहां उनका संस्कृति प्रेम झलकता है ।  इस प्रकार कविता दर कविता सेतिया जी जीवन यात्रा की अच्छी बुरी अनुभूतियों की सशक्त अभिव्यक्ति करते चलते हैं । हां कहीं कहीं उनकी घिसी-पिटी उपमाएं अखरती भी हैं , यथा , फूल ही फूल खिले हों \ हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।  फिर भी बहुत ताज़गी है उनकी कविताओं में शिल्प तथा सादी ज़बान में।  उनके लिए साधुवाद की कामना करता हूं ।  
 
  अमृत लाल मदान 
अध्यक्ष , साहित्य सभा 
कैथल ( हरियाणा ) 136027 
मोबाइल नंबर - 94662-39164 

उपरोक्त पुस्तक समीक्षा आदरणीय मदान जी ने 11सितंबर 2022 आर के एस डी ( पी जी ) कॉलेज में विमोचन करते समय पढ़ कर सुनाई । मुझे याद नहीं उनसे कभी पहले आमने सामने मुलाक़ात हुई या कोई वार्तालाप हुई हो । शायद कोई बेहद संवेदशील साहित्य सृजक ही ऐसा कर सकता है केवल पुस्तक को पढ़ कर रचनाकार की मन की भावनाओं को समझ कर इतनी सही सार्थक समीक्षा करना । मुझे अपनी रचनाओं की इस से बढ़कर कोई कीमत नहीं मिल सकती है । अमृत लाल मदान जी का धन्यवाद शब्दों में नहीं किया जा सकता है । 

(   पाठक वर्ग की सुविधा के लिए ' एहसासों के फूल ' कविता संग्रह की पुस्तक व्हाट्सएप्प नंबर 
8447540078 पर संदेश भेज मंगवा सकते हैं । जल्दी ही अमेज़न पर भी उपलब्ध करवा दी जाएगी। )
 

 

सितंबर 06, 2022

कौन समझेगा कहानी मेरी ( कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया

   कौन समझेगा कहानी मेरी ( कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया 

शब्द नहीं एहसास हैं , मैंने अपनी दास्तां सुनाने को कुछ फ़िल्मी गीत कुछ और बातें उधार ली हैं । मेरे अल्फ़ाज़ जाने कैसे कहां गुम हो गए हैं । मैं कौन हूं कहां हूं देखता कोई नहीं , रहता हूं जिस बस्ती में मुझे जानता कोई नहीं । बंद हूं इक कैद में ज़िंदगी की चाह में , कफ़स के परिंदों को उड़ने को छोड़ता कोई नहीं । कभी बेवजह हंसता अश्क बहाता कभी जाने क्यों , इस दुनिया की भीड़ में मेरी तरफ देखता कोई नहीं । दोस्त खुद का नहीं , दोस्ती का घर बना लिया , दुश्मन बहुत मेरे यहां , मुझे मांगने पर मगर मारता कोई नहीं । ये इक नज़्म है जिसकी कोई बहर नहीं मिली कोई मीटर काफ़िया नहीं मिल सका लाख कोशिश करने पर भी । जिस डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखी हुई थी खो गई आज ढूंढी तो नहीं दिखाई दी । उसी तरह जैसे इधर उधर घर बाहर ज़माने भर के अपने बेगाने लोगों में प्यार की चाहत की इक ओस जैसी बूंद भी मेरे लिए कभी नहीं थी । इक दोस्त अजीब लगता था उसकी बातें अच्छी लगती थीं मगर समझ नहीं आती थीं शायद अब थोड़ा थोड़ा समझने लगा हूं । याद आया उस की तबीयत खऱाब थी मिलने गया तो उसकी पत्नी ने जैसे इक शिकायत की थी बोली थी भाई साहब देखना आपका दोस्त इस तस्वीर बनाकर क्या समझाना चाहता है । बड़ी सी पेंटिंग दीवार पर टांगी हुई थी निजी कक्ष में जिस में कोई बदन पर कांटेदार तारों से बंधा हुआ था । शायद सबकी नज़र नहीं जाती थी वहां जहां इक छोटा सा दिल का निशान बना हुआ था । कॉलेज के समय से ही उसको ऐसे पेड़ों की पेंटिंग बनानी पसंद थी जिस की शाखाओं पर कोई पत्ता तक नहीं होता था सूखे ठूंठ जैसे दरख़्त की तस्वीर बनाता रहता था । उस ने अपने घर में गमलों में पौधे लगा रखे थे जिन में फूलदार कम और कंटीले कैक्टस अधिक थे । मुझे घर बनाने पर कुछ कैक्टस गमले में उपहार दे गया था कोई कुछ भी समझे मैं जानता हूं उसके दामन में मेरे लिए एक भी शूल नहीं था फूल खिलाना चाहता था शायद मगर साथ साथ कांटे भी होंगे गुलाब में छुपे हुए इस वास्तविकता को समझाना भी चाहता था । 
 
 उम्र बीत गई तब जाकर समझा खुद अपने आपको सबकी बात को । ये दुनिया किसी प्यासे जलते तपते रेगिस्तान की तरह है और हम लोग प्यासे हैं प्यार अपनापन और चैन सुकून की तलाश में दौड़ते रहते हैं ।  यही मृगतृष्णा जीवन का अभिप्राय है चमकती हुई रेत को पानी समझ भागते भागते आखिर प्यासे ही मर जाना है । मुझे फ़िल्में देखना बेहद पसंद रहा है , लोग अपने आनंद मनोरंजन के लिए सिनेमा देखते हैं मुझे जैसे किरदार भाते हैं आस-पास नहीं मिलते फ़िल्म देखता तब दिखाई देते हैं । पागलपन ही सही मुझे प्यार रहा है ऐसे किरदारों से अथाह मुहब्बत की है , आनंद फिल्म में एक दोस्त मिल जाता है जिसको बिना जाने पहचाने किसी नाम से पुकारने पर जवाब में उसी तरह का किरदार सामने खड़ा दिखाई देता है । आनंद किसी मुरारीलाल को नहीं जानता फिर भी कभी किसी से मिलने बात करने की चाहत हो तो इस नाम से आवाज़ देकर पुकारता है राजेश खन्ना को जॉनी वाकर गुरु बन जयचंद नाम से जवाब देता है । मुझ जैसे लोग कितने होंगे जिनको उनका मुरारीलाल जयचंद आनंद को मिले कितने दोस्तों की तरह वास्तव में मिलते नहीं हैं । 
 
लेकिन आजकल की फ़िल्में टीवी सीरियल की कहानियों में दोस्ती मुहब्बत हमदर्दी वाले किरदार नहीं होते हैं , दिखाई देते हैं चालाक चालबाज़ हिंसा को बढ़ावा देने वाले ख़लनायक वाले किरदार । खलनायक आजकल नायक से अधिक पसंद किए जाने लगे हैं , हमको सिनेमा टीवी अखबार से टीवी समाचार चैनल तक डराने लगे हैं । सपने सुहाने अब नहीं दिखाई देते भयानक ख़्वाब आधी रात को जगाने लगे हैं । फूलों की बात क्या बताएं इधर बाज़ार में ऊंचे दाम बिकते हैं । मैंने फूलों की बात जब भी किसी से की लगा सब को प्लास्टिक या पत्थर के फूल पसंद हैं गुलदान में सजाकर रखने को । मेरे खिलाए फूल भरी बहार में क्यों मुरझा जाते हैं मैं नहीं जानता कोई राज़ होगा छुपा इस में मुमकिन है । चलते चलते इक पुरानी ग़ज़ल सुनाता हूं ।
 

फूलों के जिसे पैगाम दिये ( ग़ज़ल ) 

फूलों के जिसे पैग़ाम दिये
उसने हमें ज़हर के जाम दिये ।

मेरे अपनों ने ज़ख़्म मुझे 
हर सुबह दिए हर  शाम दिये ।

सूली पे चढ़ा कर खुद हमको
हम पर ही सभी इल्ज़ाम दिये ।

कल तक था हमारा दोस्त वही
ग़म सब जिसने ईनाम दिये ।

पागल समझा , दीवाना कहा
दुनिया ने यही कुछ नाम दिये ।

हर दर्द दिया , यारों ने हमें
कुछ ख़ास दिये , कुछ आम दिये ।

हीरे थे कई , मोती थे कई
" तनहा " ने  सभी बेदाम दिये ।
 


 

सितंबर 05, 2022

सोशल मीडिया की पढ़ाई , शिक्षक दिवस है भाई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   सोशल मीडिया की पढ़ाई , शिक्षक दिवस है भाई ( हास-परिहास ) 

                          डॉ लोक सेतिया 

इक फिल्म तक से संदेश पाया था , तीन महा मूर्खों की कहानी थी थ्री इडियट्स , ज्ञान की गंगा बहती है जिधर से मिले बटोर लो । अब करोड़पति का झांसा देने वाले आगाह करते हैं पहले टटोल लो । सुबह हो गई नानू अपना अपना फेसबुक , व्हाट्सएप्प खोल लो । दोस्तो मैंने सोशल मीडिया फेसबुक को जाना परखा और आज़माया है लौट कर बुद्धू बनकर हर समझदार घर वापस आया है । उलटी पढ़ाई पढ़ने पढ़ाने में इस आधुनिक युग ने उम्र गंवाई है , बाप नहीं कोई किसी का न कोई भाई है बिना बात की यहां लड़ाई है । किसी को वास्तविकता बिल्कुल समझ नहीं आई है फिर भी हर किसी ने अध्यापक उपदेशक बनने की कसम खाई है । सबक कितने हैं कोई हिसाब नहीं कोई कलम दवात नहीं कोई किताब नहीं दोस्ती क्या दुश्मनी किसको कहते हैं समझना चाहो तो इस से बेहतर कोई किताब नहीं । झूठ धोखा है इक तिलिस्म है ग़म नहीं कोई यही इक ग़म है जो नहीं नज़र आए बस वही कम है । खुशियां हैं और बड़ा मातम है क्या कहें बस ज़ुल्म ओ सितम है लबों पर मुस्कुराहट भी आंख भी नम है । पढोगे लिखी इक नई नज़्म है :-

झूठे ख़्वाब ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

जीवन भर महसूस होता रहा

अकेलापन लेकिन समझा यही  

मुझे चाहते हैं सभी लोग यहां ।

हादिसे नहीं इत्तेफ़ाक़ नहीं कोई 

छोड़ जाते हैं तोड़ जाते नाते सब 

अचानक बदल रास्ता कब कहां ।

कौन साथ कौन बिछुड़ा खबर नहीं

भीड़ भरे बाज़ार में ढूंढें कैसे भला 

धूल ही धूल कदमों के नहीं निशां ।

सबने ज़मीन से नाता तोड़ लिया 

और सपनों का बनाया इक आस्मां 

आंख खुली तो थे गायब दोनों जहां । 

कौन देगा सच के सच होने की गवाही 

झूठ का सिक्का चलता आजकल भाई

सभी पढ़ाते हैं यही पढ़ाई बधाई भाई । 



सितंबर 01, 2022

हमको राग-दरबारी नहीं आता ( तलवार की धार पर चलना - सच लिखना ) डॉ लोक सेतिया

     मेरी रचनाओं को लेकर खट्टी-मीठी यादें ( दिल से दिल तक ) 

                         डॉ लोक सेतिया 

अक्सर लेखक किताब छपवाते समय इनका उल्लेख किया करते हैं मैंने ऐसा नहीं किया क्योंकि आपसी निजी व्यक्तिगत बातों का उपयोग पाठक को पुस्तक पढ़ने को विवश करने को इस्तेमाल करना मुझे स्वीकार नहीं है । कितनी बार कोई किताब मिलती तो उस पर समीक्षा लिखवाई शुरुआत में दिखाई देती थी । पाठक को पढ़ कर राय बनाने से पहले प्रभावित करना सही नहीं लगता है । आज सैर करते करते याद आई इक घटना साथ चलते दोस्त की कही बात से , उनका कहना था राज्य के शासक को शुभारंभ करने को फुर्सत नहीं मिली कब से । मेरी व्यंग्य की किताब की पहली रचना  ' स्वर्ग लोक में उल्टा-पुल्टा ' की याद आई । मैंने जसपाल भट्टी जी के निधन के बाद उनको श्रद्धांजली देने को लिखी थी और उनकी धर्मपत्नी को भेजी थी डाक द्वारा । संक्षिप्त सा जवाब मिला था उन्होंने कहा था ये सबसे अच्छा ढंग है श्रद्धा-सुमन अर्पित करने का । 
 
     कुछ साल पहले के पी सक्सेना जी को इक रचना भेजी थी और उनका पोस्टकार्ड पर हरे रंग की स्याही से लिखा खत मिला था ,  ' हम सार्थक व्यंग्य लिखने वालों की बिरादरी बहुत कम है ' बनाए रखना । शब्द अंकित हैं अंतर्मन पर । कोई 600 से अधिक व्यंग्य रचनाएं प्रकाशित हुई हैं सभी अख़बारों पत्रिकाओं में । इक अखबार के संपादक जी ने फोन पर बात कर अनुबंध करने को कहा था मानदेय बढ़ा कर देने का प्रलोभन भी था , शर्त थी सबसे पहले हर रचना उनको भेजनी होगी और स्वीकृत नहीं होने पर कहीं और भेज सकते हैं । बंधनमुक्त रहना मेरी आदत है क्षमायाचना कर आग्रह स्वीकार करने में असमर्थता प्रगट कर दी थी । 
 
   लखनऊ की इक पत्रिका का पत्र मिला था कीमत घर की कहानी को लेकर नाराज़गी जताई थी , जब हमने स्वीकृत कर ली थी आपको किसी अन्य जगह नहीं भिजवानी चाहिए थी । मैंने जवाब दिया था मैं अपनी रचनाएं अलग अलग अख़बार पत्रिकाओं को एक साथ भेजा करता हूं किसी से कोई सहमति या लिखित अनुबंध नहीं किया और सवतंत्र लेखन करता हूं । साथ साथ भेजी रचना कोई पहले कोई बाद में पब्लिश करते रहते हैं अधिकांश लिखने वाले को मानदेय भी नाम भर को देते हैं इसलिए रचनाकार पर बंदिश लगाना अनुचित है । एकतरफा नियम नहीं होने चाहिएं । 
 
   व्यंग्यकार की समस्या यही है सबको कटाक्ष पढ़ कर आनंद आता है औरों को लेकर लिखा होने पर । जब भी जिस को अपनी संस्था संगठन को लेकर कड़वी वास्तविकता पढ़ने को मिलती सभी बुरा मानते हैं । ग़ज़ल की बात दूसरी है सभा में सामने बैठे लोग ताली बजाते हैं वाह वाह करते हैं बगैर समझे कि मतलब क्या है । मगर ऐसा अवसर कम मिलता है बेबाक सच कहने वाले को लोग सभाओं में बुलाने से घबराते हैं । कविता नज़्म का अपना एहसास होता है लेकिन वास्तविक सही जानकारी के आलेख लोग पढ़ना नहीं चाहते इसलिए किताबों को नहीं व्हाट्सएप्प फेसबुक को विश्वसनीय समझ गुमराह होते हैं । मैंने सबको लेकर निडरता पूर्वक सच लिखने की कोशिश की है और राजनीति धर्म समाजसेवा से पत्रकारिता पर ही नहीं खुद लिखने वाले लेखक और स्वास्थ्य सेवाओं डॉक्टर्स पर भी निसंकोच लिखा है । सात घर छोड़ने वाली और झूठ की चाशनी लगा सच बोलने वाली शैली नहीं अपनाई है ।
 
  सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि मुझे कभी भी राग-दरबारी नहीं भाया है किसी शासक किसी तथाकथित महानायक का गुणगान नहीं किया है । मुझे कुछ लोग आदरणीय लगते रहे हैं जिन्होंने अपना जीवन देश समाज को समर्पित किया और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत किया , लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी और लाल बहादुर शास्त्री जी जैसे गिने चुने लोग मेरे लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहे हैं । चाटुकारिता करने वाले लोग जिनको मसीहा बताते हैं अक्सर वो अच्छे इंसान भी साबित नहीं होते हैं । मेरी किताबों में आपको कोई भगवान कोई मसीहा कोई देवी देवता नहीं मिलेगा , शायद उनकी मसीहाई पर सवालात की बात अवश्य दिखाई देगी ।