तुम ही न मिले एक ज़माना तो मिला है ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
तुम ही न मिले एक ज़माना तो मिला हैये मेरी वफाओं का मिला खूब सिला है।
इक बूँद को तरसा किये हम प्यास के मारे
ऐसे तो बरसता न ये सावन से गिला है।
आती रही यूं तो बहारें ही बहारें
बिन तेरे मगर दिल का कोई फूल खिला है।
मिल जाते हैं हमदर्द यहां कहने को लेकिन
बांटे भी वो हम किससे जो ग़म तुम से मिला है।
हंसता है खुदा जाने ये क्यूं हम पे ज़माना
आंसू कोई शायद तेरी पलकों पे ढला है।
दो पल ही गुज़ारे थे तेरे साथ ब-मुश्किल
इक उम्र बड़ी पा के मगर "लोक" चला है।
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