दिसंबर 30, 2019

तुम नहीं मालिक मेरी है ये दुनिया ( अध्यात्म ) डॉ लोक सेतिया

 तुम नहीं मालिक मेरी है ये दुनिया ( अध्यात्म ) डॉ लोक सेतिया 

        आपको समझना है धर्म क्या है और ईश्वर अल्लाह खुदा भगवान क्या है। चलो आज मिलकर उसी से पूछते हैं जिस ने दुनिया बनाई है। आपको बाहर नहीं नज़र आएगा अपने भीतर झांकना है। आंखें बंद करते हैं और सुनते हैं इक आवाज़ सुनाई दे रही है , अगर आपको सुनाई नहीं दे रही तो आपका विश्वास अभी पूर्ण नहीं है। आवाज़ आ रही है , ये जो सब धर्म धर्म का शोर है कौन कर रहा है धर्म वालों को खुद नहीं पता मैं कौन हूं। उनको ऊपरवाला इक सामान जैसा लगा जिसको बाज़ार में बेचकर इनको अपने स्वार्थ साधने हैं। इक बात बड़ी आसान है और सीधी भी कि मेरी मर्ज़ी से जन्म मृत्यु से लेकर सभी कुछ होता है निर्माण विनाश सब कोई और नहीं कर सकता है जो लोग मिट्टी के खिलौने बनाना जानते हैं खुद को निर्माता मानते हैं मगर उनकी बनाई रचना को पल भर में जो मिट्टी बना देता है उस का उनको पता ही नहीं है। इंसान विज्ञान लाख कोशिश कर ले जीवन का संचार कदापि नहीं कर सकता है। धर्म के नाम पर दंगे फसाद क़त्ल करने वाले सिर्फ गुनाहगार हो सकते हैं परमात्मा को समझने वाले नहीं। मैंने किसी इंसान को क्या पशु पक्षी पेड़ पौधे भी बनाने में कोई भेदभाव नहीं किया है और जो आदमी आदमी में अंतर करते हैं झगड़ा करवाते हैं उन्हें क्या समझ अच्छाई और सच्चाई किसे कहते हैं। रटते हैं ईश्वर सत्य है मगर सच बोलने का साहस नहीं और झूठ को सच साबित करते हैं। 

           अदालत में मुकदमा चल रहा था मंदिर मस्जिद के झगड़े को लेकर। हर कोई किसी को अपराधी मानता है अपने अपने खुदा ईश्वर का घर तबाह करने का और गर्व करते हैं खुद किसी की इबादतग़ाह को तोड़ने का। अदालत जाने किस किस को पक्ष बनाती है असली पक्षकार का कोई नाम तक नहीं जानता। मुझ ऊपरवाले से नहीं पूछते सच क्या है मुझे क्या चाहिए। भला मुझे इन सभी इमारतों की क्या ज़रूरत है और कब किस को मैंने अपना हितेषी या वकील घोषित किया है। मुझे कोई चढ़ावा कोई इबादत कोई दान कोई वस्तु इन से क्यों चाहिए जिनको सभी को खुद मैंने बनाया है और दिया है जो भी जिस के पास है। क्या मुझे नासमझ समझते हैं जो खुद हज़ार देकर एक मांगता हो उसी से जिसे दे दिया। ये तो विश्व की जनता है जो अपने अपने देश की सरकार से अपने दिए धन का छोटा सा हिस्सा भीख की तरह मांगती रहती है। इन धर्म वालों ने मुझे भी राजनेताओं की तरह ठग बनाने का काम किया है ये कहकर कि धार्मिक स्थल बनाने को या कोई आडंबर अनुष्ठान करने को पैसे सामन देकर मुझे खुश कर सकते हैं। अदालत किसी को नियम तोड़ने का दोषी घोषित करती है किसी को अपराधी या क़ातिल। मगर क्या किसी ने विचार किया कि मैं अपनी मर्ज़ी से जिसे भी जब चाहूं अपने पास बुला लेता अथवा उसका जीवन का अंत कर देता हूं। भगवान की मर्ज़ी है कहने के इलावा कोई कुछ नहीं कर सकता। किसी भी देश की किसी भी अदालत में कोई केस दायर नहीं हो सकता है। आंधी तूफ़ान भूकंप बाढ़ कितनी आपदाओं को मेरे नाम करते हैं फिर कोई तो मेरे ख़िलाफ़ एफआईआर लिखवाता कहीं। मगर ये सब होता इंसान की अपनी गलती से है। 

    विधाता एक ही है और एक ही हो सकता है फिर किसने नाम बदल कर अपने अपने भगवान देवी देवता घोषित कर लिए हैं। वास्तव में उनको ईश्वर को समझने जानने की चाहत नहीं थी उनको मेरे नाम का दुरूपयोग करना था अपने मकसद हासिल करने को। उनको लगता है कोई ऐसा नहीं है और होगा भी तो ऊपर बैठा आराम करता होगा उसे क्या करना कोई क्या कर रहा है। मगर कहते हैं ऊपरवाला जानता है सब देखता है अगर ये भरोसा करते तो फिर मुझे लेकर नफरत का धंधा नहीं करते। उपदेश देते हैं औरों को जिन बातों को लेकर खुद उन्हीं पर नहीं चलते हैं। धरती पर आये हैं कुछ लोग जिन्होंने चिंतन और मनन और अध्यन से समझना चाहा समझाना चाहा जैसे नानक जैसे विवेकानंद जैसे लोग या किसी भी धर्म की शुरुआत करने वाले गुरु मगर बाद में उन्हीं के अनुयाई चेले खुद को भगवान बताने लगे और सत्य की खोज ईश्वर की तलाश छोड़ मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा बनाने लगे। कोई बुत कोई मूर्ति कोई शब्द लिख उसको पूजा ईबादत का साधन बना लिया बिना समझे कि जिसने दुनिया बनाई कोई भी उसको नहीं बना सकता है। ये दुनिया बनाने वाले को बनाने वाले बन बैठे हैं मगर मुझ दुनिया बनाने वाले का कोई अंत नहीं है कोई ओर छोर नहीं शुरुआत नहीं जानते पर इनका जन्म इनका अंत मेरी इच्छा से है। 

अब आप समझना चाहते हैं आपको क्या करना है पूजा आरती ईबादत और कैसे मुझे खुश करना है। नहीं मुझे कोई अपना गुणगान नहीं करवाना है कोई चढ़ावा कोई उपहार कोई घर रहने को नहीं चाहिए। मैंने आप सभी को इंसान बनाया है आपको अच्छे कर्म करने हैं अच्छे इंसान बनकर जीना है। कोई आपसी भेदभाव बड़े छोटे का धर्म जाति का रंग का देश का नहीं रखना है। नफरत की जंग की  अहंकार की सब बातें छोड़कर प्यार से मिलजुलकर रहना और अपने पास अधिक जमा नहीं कर बांटकर खाना इक दूजे के सुःख दुःख को समझना इंसानियत का पालन करना यही आदेश है उपदेश है और मुझे पाने को खुश करने को यही रास्ता भी है। 
 

 

दिसंबर 29, 2019

दान का चर्चा है कमाई पर पर्दा है ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया

  दान का चर्चा है कमाई पर पर्दा है ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया 

   कल की बात कोई सुनी सुनाई नहीं सामने देखी और खुलकर समझी समझाई बात है। इक बड़ा सा विज्ञापन लगा था किसी आयोजन का सत्ताधारी नेता का नाम फोटो मुख्य अतिथि के रूप में दे रखा था। जो लोग आयोजन कर रहे थे उनसे जाकर पहचान की अपना परिचय दिया। आप लेखक हैं पचास हिंदी अख़बार मैगज़ीन में चालीस साल से रचनाएं छपती हैं हमारे साथ जुड़ें आपका स्वागत है। मैंने कहा पहले आप मुझे समझ लें मैं भी आपको जान लेता हूं और तमाम वास्तविक घटनाओं की बात हुई। उनकी जानकारी पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता मगर फिर भी जब विषय आया सत्ताधारी नेताओं अधिकारियों के गुणगान का तो कहना पड़ा मुझे नहीं आता ये काम। उनको शायद इस की उम्मीद नहीं थी कि कोई ऐसा भी बेबाक सच कह सकता है , मैंने कहा आपने जिनको मुख्य अतिथि बनाया है उनको जो उपहार देने वाले हैं उनकी किस विशेषता को देखकर। समाज को देश को उन्होंने क्या दिया है बल्कि सत्ता पर रहते खूब ऐशो आराम से देश सेवा के नाम पर शान से रहते हैं। अपने उनके सचिव से जो मोलभाव किया है सांसद निधि से आपको धन मिलने का बाकायदा इक हिस्सा उनके दल को देने का वो भी बिना किसी रसीद या चेक द्वारा न देकर नकद दो नंबर से ही वास्तव में देश भर में चलते भ्र्ष्टाचार का ही उद्दाहरण है। मैंने उनको बताया कि कभी हमारे शहर के उपायुक्त ने तबादला होने पर खुद मुझे फोन किया घर बुलाया था और जाने पर कुछ हज़ार का इक चेक थमाया था सरकारी खाते से और ऐसा अन्य सौ लोगों को सहायता के नाम पर दे रहे थे बदले में उनको विदाई करते हुए सम्मानित और पुरुस्कृत करने की बात थी। मैंने उनको चेक लौटा दिया था और हमने विदाई में उनको स्मृति चिन्ह दिया था सदस्यों ने अपने पास से राशि खर्च कर के क्योंकि वो हमारे लेखक सदस्य थे संस्था के। 

      यहां कल की इक और बात याद आई है मोदी जी के इक अंध समर्थक ने लिखा मुझे भेजा व्हाट्सएप्प पर कि मोदी जी ने पिछले पांच साल में उनको मिले उपहार और इनाम की राशि दान कर दी है। साथ ये भी था पिछले सत्ताधारी दल वालों ने कितना दान किया था बताओ। उनकी जानकारी सोशल मीडिया से हासिल की हुई है न उन्होंने देश के पिछले इतिहास को पढ़ा न कभी समझने की कोशिश की है। पहली बात उनको धर्म की जानकारी बहुत होने का दावा है तो समझ लेना चाहिए दान देकर इश्तिहार देना दान नहीं नाम पाने को कारोबार कहलाता है जो तमाम लोग करते हैं। वास्तविक दान कहते हैं एक हाथ से दो और दूसरे को भी
पता नहीं चले ऐसा होना चाहिए। मगर इस परिभाषा को भी छोड़ देते हैं हालांकि आखिर में रहीम और गंगभाट का वार्तालाप फिर दोहराना होगा। मोदी जी को देश विदेश से जो भी उपहार मिले हैं कोई खैरात में नहीं मिले अगर उनकी काबलियत से मिलने होते तो राजनेता बनने से पहले ही मिल जाते। उनके हर ऐसे उपहार की कीमत देश ने चुकाई है उनको जिन्होंने भी उपहार दिए बहुत कीमत वसूली है जो हम आप नहीं जानते हैं। उनकी सारी शोहरत देश के ख़ज़ाने को खर्च नहीं बर्बाद कर के हासिल की गई है। इक बात आपको कोई नहीं बताएगा कि जब नेहरू जी देश के प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने अपनी सब जायदाद देश को दे दी थी जिसकी कीमत का आप अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं क्योंकि जैसा सब जानते हैं उनके पिता और दादा इतने बड़े अमीर थे जो नेहरू को विदेश भेजा था शिक्षा पाने को। उनकी काबलियत और देश को आधुनिक बनाने ही नहीं देश में लोकतंत्र स्थापित करने में उनका योगदान ऐसा महान कार्य है जो आजकल के तथाकथित महान नेता करना तो क्या उसको सुरक्षित तक रखने को सक्षम नहीं हैं। मोदी जी ने खुद पर अपने नाम का शोर का डंका पीटने पर देश का पैसा बर्बाद किया है जिस का कोई हिसाब नहीं है। कोई नहीं बताएगा उनके खुद के रहन सहन सैर सपाटे पर कितना खर्च किया गया 375 करोड़ केवल विदेशी दौरों में किराए के विमान पर खर्च हुए ये साल पहले जानकारी मिली थी। देश में 75 शहरों में भाजपा के दफ़्तर बनाये गए हैं जिन पर कितना खर्च हुआ और वो पैसा किस ने कैसे दिया कोई नहीं जान सकता क्योंकि उन्होंने अपने लिए नियम कानून बदल दिए थे दल को विदेशी दान की बात गोपनीय रखने से। 

आप उसको देश सेवा नहीं कह सकते जिस में आप करते क्या हैं नहीं पता मगर आपको सरकारी खज़ाने से अपने धार्मिक दान देने की अनुमति है। गुजरात से दिल्ली आते हुए भी दावा किया गया था कुछ लाख जो बचत थी मोदी जी दान कर आये थे। और आने के महीने बाद नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर जाकर 2500 किलो चंदन की लकड़ी करोड़ रूपये की दान दे आये थे। आपको मालूम है धर्म आपको दान अपनी ईमानदारी की कमाई से करने की हिदायत देता है जो पैसा भारत सरकार के खज़ाने से खर्च हुआ मोदी जी उस दान को अपने नाम से संकल्प लेकर नहीं दे सकते थे और संकल्प कोई संस्था संगठन नहीं व्यक्ति करता है। आप को पता है मोदी जी के चुनाव आयोग को दिए ब्यौरे में कितना धन दौलत है उनके पास देख लेना। जिस ने 35 साल भीख मांग कर पेट भरा ऐसा बताया गया और वेतन भी दान दे देते हैं उनके पास पैसा कैसे जमा है कोई जादू की छड़ी या अलादीन का चिराग़ है तो उस से देश के करोड़ों लोगों की गरीबी मिटाते। आपको सच नहीं बताया जाता है फिर भी जिस पर रोज़ लाखों रूपये राजसी शान से जीने पर खर्च होते हैं उस जैसी देश सेवा और गरीबी कौन नहीं चाहता करना। ये सब माफ़ होता अगर देश की जनता को अच्छे दिन न भी मिलते ऐसे बदलाल खराब दिन तो नहीं भोगने पड़ते। कहने को बहुत है मगर जिनको नहीं समझना कितना विवरण दे कर भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है। 

   रहीम इक नवाब से कवि थे मगर रईस थे और दान दिया करते थे दरबार में जो भी ज़रूरतमंद मांगने आता। उनकी दरबार के इक सदस्य कवि गंगभाट थे , उनहोंने ध्यान दिया कि दान देते समय रहीम अपनी नज़रें ऊपर नहीं रखते झुकाये रहते हैं। विचार किया और इक दोहा पढ़कर सवाल किया था। 

सिखिओ कहां नवाब जू ऐसी देनी देन , ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचे नैन। 

रहीम ने उनके दोहे का जवाब दोहा पढ़ कर दिया था। 

देनहार कोऊ और है देवत है दिन रैन , लोग भरम मोपे करें या ते नीचे नैन। 

बात मोदी की हो या किसी भी सत्ताधारी शासक की उनके इश्तिहार उनकी जिस बढ़ाई की चर्चा करते हैं कि मनोहर उपहार या मोदी योजना अदि बेहद अनुचित और धर्म नैतिकता के विरुद्ध है क्योंकि जो भी खर्च किया जाता है उनकी खुद की कमाई नहीं देश राज्य की आमदनी से किया जाता है। 
 

 

दिसंबर 28, 2019

प्यास नहीं पीने को बहुत है ( आजकल का समाज ) डॉ लोक सेतिया

 प्यास नहीं पीने को बहुत है ( आजकल का समाज ) डॉ लोक सेतिया 

    हर साल की तरह इस साल भी विचार करने लगा बीत रहे साल क्या पाया क्या खो दिया और भले निभा नहीं सकूंगा अगले वर्ष का संकल्प क्या होना चाहिए। पहली बात समझ आई सोशल मीडिया फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर समाज की देश की गंभीर जागरूकता की बात करना। बचपन की सुनी बात याद आई कि आप हम या कोई भी बैल को तालाब पर ले जा सकता है मगर छी-छी कहने से पानी नहीं पिला सकते हैं। जिनको नहीं मालूम उनको बता देता हूं गांव में जानवरों को पानी के पास ले जाकर छी-छी बोलते हैं ताकि जानवर को इशारे से समझाया जा सके कि पानी पिओ। बात आजकल की है तो आजकल की तरह समझनी होगी , बाहर अंट शंट चाट पकोड़े जिसको गंद शंद कहते हैं चाव से खाते हैं पेट भरने से भी दिल नहीं भरता है और फिर कहते हैं थोड़ा ज़्यादा भर गया पेट आज अब कोई हज़्म करने को पाचक भी लेना होगा। यही हालत आजकल सभी लोगों की है अनाप-शनाप बोलते पढ़ते लिखते हैं व्यर्थ की बहस और अपने को जानकर साबित करने अन्य को मूर्ख अज्ञानी समझने की मानसिकता बन गई इसलिए भौंकते हैं सुनाई कुछ नहीं देता। ऐसे शोर में सार्थक संवाद संभव नहीं तभी सोचा है जिनको प्यास नहीं उनको पीने की बात कहना बंद यही अगले साल का संकल्प है। 

    मुझे सबसे अधिक प्यार जिन से है और जिनसे सच्चा प्यार मिला और जिनसे बहुत सीखा समझा जाना वो हैं मेरे दादाजी झंडारामजी और मां माया देवी जी। विशेष बात है दोनों को हमेशा अपने पर भरोसा रखते हुए देखा और जीवन की विषम समस्याओं में भी घबराते नहीं पाया। क्या लोग थे आज उनकी याद भी मुझे इक आशावादी एहसास देती है। जबकि उन दोनों का जीवन बेहद कठिन हालात में रहा होगा। दादजी दस साल के थे जब पिता का साया सर से उठ गया और मां को बचपन में कोई रोग माता का जैसा कहते हैं लगने से उनकी आवाज़ और सुनाई देने की शक्ति कम हो गई थी। उनकी शादी करने के बाद मायके के नाते रिश्ते नाम को साथ थे इक मामाजी और मामीजी को छोड़कर। हमारे घर अर्थात ससुराल में दादाजी की छोटी बहु का रुतबा किसी असहाय और खामोश गाय की तरह था। पिता जी अवश्व उनका ख्याल रखते थे मगर उन्होंने कभी नहीं समझना चाहा उनकी पत्नी को घर में समानता बराबरी का अधिकार नहीं मिलता है। शायद उनकी काबलियत जानकर भी काबिल समझना नहीं चाहते थे लोग। फिर भी मां को शायद ही कभी किसी से तकरार करते देखा उदास नहीं देखा हमेशा इक सहज मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी। मैंने इक बार उनकी आंखों में आंसू देखे थे मगर तब भी उन्होंने मुझे कारण नहीं बताया था। किसी की बुराई करते नहीं देखा उनको अपने बच्चों से शिकायत भी हंसते हुए लहज़े में करती थी , तुम्हें नहीं मिलती फुर्सत कि बहु ने मिलने आने नहीं दिया और हंस देती। अपनी दो बहुओं से कभी कोई तीखी बात जीवन भर नहीं की आज भी दोनों याद करती हैं उनके सासु मां बड़ी मधुर सवभाव की महिला थी। 

  मां 80 साल से अधिक जीवन जिया और बड़ी शान से रही हमेशा। सभी बच्चे दिल से चाहते थे और उनकी हर बात आदेश समझ प्यार से मानते थे। अपने व्यवहार से अपने घर को बिना आदेश देने की आदत घर की महारानी जैसा रुतबा पा लिया था। जबकि विवाह कर आई थी जैसे कोई वजूद ही नहीं था। मां चिट्ठी लिखती थी अर्थात पढ़ी लिखी थी और गाया करती थी इक भजन जो अपने आप में इक मिसाल था। मैंने याद कर उस भजन को लिखा हुआ है ब्लॉग पर , उस भजन जैसा कोई और भजन मैंने नहीं सुना आज तक। भगवन बनकर अभिमान न कर तेरा मान बढ़ाया भक्तों ने। तुझे भगवान बनाया है भक्तों ने। कोई ऐसे कह सकता है ईश्वर है इस बात पर अकड़ना मत तुझे मानते हैं हम तभी है ये ध्यान रखना। शायद सच्चा आस्तिक और भक्त जिसे पूर्ण विश्वास हो वही कह सकता है। कोई डर नहीं घबराहट नहीं जैसे अपने करीबी दोस्त बेहद अपने से प्यार से बात करते हैं। उनको धागे से कुरेशिये से कितनी तरह के रुमाल बनाने की बड़ी खूबसूरत कला आती थी जो कम महिलाओं को आती थी और इतने लाजवाब ढंग डिज़ाईन कि हर कोई कहता था चाची जी मुझे भी बना दो और सबकी चाची उनको बना देती थी महीने लगते थे। भोली थी और लोग भोलेपन को नासमझी समझने की भूल करते हैं मगर हम हैरान हो जाते थे जब जो पुरानी बात किसी को याद नहीं होती वो बताती थी ये उस दिन उस जगह उस तारीख़ की बात है। मिला जुला संयुक्त परिवार था और बारह भाई बहन की सबकी जन्म की तिथि बताती थी और बचपन की बातें भी। मेरा भरोसा है और दावा भी कि दुनिया में कोई भी ऐसा नहीं हो सकता जो ये कह सके कि मेरी मां ने कभी उसके या किसी के साथ कोई अनुचित व्यवहार किया हो। इस से बढ़कर तपस्या नहीं हो सकती कि भले आपके साथ किसी ने कैसा भी अच्छा बुरा किया हो अपने कभी मन में कोई भेदभाव की भावना नहीं रखी हो। 

दादाजी भी 90 साल से अधिक जीवन जिया और बड़ी शान से रहे किसी शहंशाह की तरह। उनकी विशेषता थी बच्चों को भी नाम के साथ जी कहकर बुलाते थे। आवाज़ ऊंची शायद ही कभी होती मगर बात का असर कमाल का हुआ करता था। घर की बैठक या गांव की डयोढ़ी में बैठे होते तो हर कोई पांव छूकर आदर से दादजी नमस्कार कहते हुए भीतर जाता , कोई महमान आये जो रोज़ की बात थी तो बिना खाना नहीं जाने देते थे। अपने दम पर और अपने उसूलों पर चलकर बहुत बनाया मगर हर किसी को बांटते रहते थे। जाने कितने करीबी क्या दूर दराज के नाते रिश्ते वाले आये और बोला दादाजी कोई कमाई का साधन नहीं और उनको नौकर चाकर नहीं भागीदार बनाते गए। बहुत बार लोग धोखा देकर भाग जाते तब भी कोई शिकन नहीं आती थी माथे पर बस कहते उसका नसीब था जो ले गया। तायाजी और पिताजी को आदेश था जो बेईमानी कर चले गए कभी मिलें तो कोई बात नहीं कहना न वापस मांगना। और दोनों भाईओं ने ये बात हमेशा याद रखी निभाई भी। दादजी स्कूल नहीं गए थे मगर उनको इक भाषा जिसको लंडे कहते हैं लिखनी आती थी और हिसाब चुटकिओं में गिन लेते थे। मगर उनको धार्मिक किताबों को सुनने का बेहद शौक था और सभी भाई बहनों में ये मुझे ही करना होता था जब बाकी खेल कूद में लगे होते मैं दादजी की इच्छा पूरी करने को बैठा रहता और उनको शायद सबसे अधिक प्यारा भी लगता था। 

  बात हुई थी प्यास की और आजकल किसी को भी अच्छी मुहब्बत की बातों की चाहत नहीं है। इक दौड़ है आपसी खुद को सबसे अच्छा साबित करने की। ये बात कोई नहीं जानता कि वास्तव में सम्पूर्ण कोई भी नहीं है और अपने आप को ऐसा समझना नासमझी की हद है। मुझे बहुत सीखना है समझना है और करना भी है। अभी तक कुछ भी नहीं कर पाया , अब सार्थक करने को समय भी कम ही है। बात खत्म नहीं हुई विराम देता हूं बाकी अगली पोस्ट पर। 
 

 

दिसंबर 26, 2019

सोचिए क्या आप वापस जाना चाहते हैं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

  सोचिए क्या आप वापस जाना चाहते हैं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

  आजकल ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ मानवीय  पक्ष की बात कहने पर अपशब्दों का उपयोग करते हैं और उनकी भाव भंगिमा हिंसक दिखाई देती है। जिनको लगता है कि भारत एक कट्टर हिंदू देश होना चाहिए और बाक़ी धर्म वालों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाना चाहिए जिन्हें इक डर और असुरक्षा की भावना से जीना चाहिए। ये बेहद खेद और चिंता की बात है कि पिछले कुछ सालों में इस मानसिकता को बढ़ावा मिला है और तमाम संकुचित सोच वाले लोगों की दबी छुपी आंकाक्षा उभर आई है। मगर हैरानी इस बात की है कि जिस हिंदू धर्म की ये बात कहते हैं उसको इन्होने न तो पढ़ा है और न ही समझा है। स्वामी विवेकानंद का नाम सुना है उन्होंने विदेश जाकर अपने धर्म और विचारधारा को जिस तरह समझाया और विदेशी लोगों को प्रभावित किया उस को नहीं पढ़ा न जानते हैं। आओ पहले उनकी बात को सुनते हैं जो बताते हैं कि हम उस विचारधारा हिंदुत्व से हैं जिसने हमेशा सभी अन्य धर्म के लोगों और उनकी बातों को अपनाया है। 


    क्या उनको बात से कोई असहमत हो सकता है। फिर भी जिनको लगता है उनको देश की हिंदुत्व की चिंता औरों से अधिक है और उनको किसी नेता की संकुचित मानसिकता पसंद है और बिना ये समझे कि देश और खुद उन्हीं के धर्म के लिए क्या उचित है जो किसी के अंधसमर्थक बने हैं जैसे कई लोग कभी किसी और के लिए यही समझते थे और   . . . . . .  इंडिया है और इंडिया  . . . . .  है कहते थे उनकी राह चलना चाहते हैं। उनको समझना होगा क्या विश्व आज सदिओं पुरानी गलतिओं को दोहरा सकता है और इसी तरह से अपने देश में किसी इक धर्म या वर्ग को स्थापित करने की बात कर सकता है। विश्व में कितने देशों में जो हिंदू सिख या अन्य धर्म वाले हैं उनको किनारे कर सकता है। क्या आप चाहते हैं बाकि देश भी इसी राह पर चल सके और उन देशों में रहने वाले हिंदू वापस देश आएं भले उनको यहां हासिल इक नफरत भरा समाज हो और कोई सुरक्षा देश की सरकार शिक्षा रोज़गार क्या शराफत से रहने को भी नहीं मुहैया करवाने को प्रतिबद्ध हो। जिस देश की राजनीति अपराधी सांसदों से भरी पड़ी हो और सत्ताधारी नेताओं को संगीन जुर्म करने पर सीबीआई तक बचाने का कार्य करती रही हो ये बाद देश की सबसे बड़ी अदालत को कहनी पड़ी है। अगर यही आपका हिंदू धर्म है जिस में भगवा धारण कर जो भी चाहे अपराध करने की छूट है तो आपको मुबारिक हो क्योंकि अपने ऐसे अपराधी नेताओं के खिलाफ कभी अपशब्द नहीं उपयोग किये मगर जो मानवता की बात कहते हैं उनको आप गाली देते हैं। नहीं देश को स्वामी विवेकानंद जी का हिंदू धर्म चाहिए उन का नहीं जिनको धर्म सत्ता की सीढ़ी लगता है।

    आप विदेश जाते हैं कई जाकर बसना चाहते हैं मगर आपकी संकुचित विचारधारा हर देश अपनाये तो क्या आपका विदेश जाना संभव होगा और जाकर बसना तो दुश्वार ही हो जाएगा। इतना ही नहीं आपको अन्य देशों से कारोबार भी बंद करना होगा , न आपकी कोई वस्तु विदेश बिकेगी न आपको किसी देश से कुछ भी मिलेगा। ऐसे देश हैं जो चीन की तरह सब अपना बनाते हैं उनको फेसबुक गूगल या व्हाट्सएप्प की कोई ज़रूरत नहीं है उनके पास खुद अपने बनाये विकल्प हैं। अगर इस तरह धर्म या किसी अन्य आधार पर विश्व से अलग संकुचित मानसिकता से चले तो आपका जीवन कठिन हो जाएगा। आपके पास बहुत कुछ है जो भारत में नहीं बनता है यहां तक की जिस पटेल की मूर्ति की बात करते हैं इस आधुनिक युग में वो भी हम अपने देश में नहीं बना पाए न ही बुलेट ट्रैन खुद बनाने की बात करते हैं। सोचना आपके देश के जिस नेता की नीति को आप पसंद करते हैं उसको विश्व के पचास देशों की सैर करने की ज़रूरत क्या थी। अपने देश के गांव शहर को जाकर समझते देखते तो कुछ मकसद भी था। लेकिन वो क
ठिन था और जाते हैं तो भाषण देने को आम लोगों से कोई संवाद नहीं करते हैं। उनको चाहत है विश्व की शोहरत की जो देश के खज़ाने से धन बर्बाद कर मिलेगी नहीं क्योंकि सच्ची शोहरत वास्तविक आचरण से मिलती है। शोर विज्ञापन से कीमत चुकाकर कदापि नहीं।

आज जिस राह पर देश की सरकार चल रही है क्या पश्चिम देशों अमेरिका जापान जाकर कुछ बात कर सकते हैं। हम नहीं समझ सके पिछले पांच साल में करीब चार सौ करोड़ मोदी जी ने विदेशी सैर सपाटे पर जो खर्च किये उन से देश की अर्थव्यवस्था का कोई भला नहीं हुआ क्योंकि उनकी हर विदेशी यात्रा विदेशी सरकारों की शर्तों पर होती रही है। बहुत कीमत चुकाई है देश की जनता ने इक व्यक्ति की नाम और शोहरत की चाहत की। सबसे पहली बात हमारे देश की पहचान , सत्यमेव जयते , सच ही ईश्वर है की रही है। क्या कोई इनकार कर सकता है कि कभी किसी भी नेता ने उच्च पद पर रहते इतने झूठ नहीं बोले होंगे। सच धर्म है और झूठ पाप है। आपको सोचना है आपको किधर खड़े होना है।

दिसंबर 22, 2019

दादाजी की ज़ुबानी बहुरानी की कहानी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  दादाजी की ज़ुबानी बहुरानी की कहानी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

 पता नहीं कैसे पचास साल पुरानी सुनी कहानी याद आई है। अनपढ़ थे मेरे दादाजी मगर सब उनकी समझदारी का लोहा मानते थे। मैंने दादी नानी को नहीं देखा दादाजी से बहुत कुछ सीखा समझा है। तब उनकी बातों की गहराई कहां समझ आई थी उनकी मौत 1970 या 1971 में हुई थी जब मेरी आयु 20 की रही होगी। गीता रामायण सब उनको याद थे सुनते रहते थे और मैंने उनको बचपन में सब धार्मिक किताबों की कथा पढ़कर सुनाई है। मुझे उनसे बहुत प्यार मिला और समझ भी उनकी बातें तब नहीं अच्छी लगती थी कि धन दौलत नहीं इंसानियत भाईचारा और सादगी से मिलकर रहना वास्तविक जीवन का आधार है। भूमिका को छोड़ उनकी सुनाई कहानी बताता हूं। 

परिवार में नई बहुरानी लाने को उसको चुना गया जिसने घर को स्वर्ग बनाने और सभी की सेवा करने दासी बनकर रहने की मीठी मीठी बात से होने वाली सास का दिल जीत लिया जिसने घर भर को उसकी तारीफ कर इक सपना देखने को विवश कर दिया कि बस यही इक कमी है और नई बहुरानी के आने से सबकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगी। आते ही घर की खज़ाने की चाबी अपने हाथ ले ली थी और समझाया था अभी तक सभी घर के लोग कहने को खुश रहते रहे हैं वास्तविक आनंद को जानते भी नहीं हैं। मधुर भाषा और सज धज नाज़ नखरे हर नई दुल्हन के शुरू शुरू में लुभाते हैं। हर कोई उसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आकर उसी का गुणगान करने लगा था। चार दिन में उसने बढ़े बूढ़े सभी पुराने लोगों को साबित कर दिया था कि उन्होंने जो भी किया गलत था और जो करना था उनको पता ही नहीं था। मगर अब मैं आई हूं तो सब ठीक कर दूंगी। आधुनिकता के नाम पर बदलाव का नाम लेकर सब पहले का किया हुआ बर्बाद करने लगी थी मगर इक जादू था जो सबको नशे में रखता था सुंदर सपने वाली दुनिया दिखलाने का। उसकी बातों से लगता था सच उसने सब तरह की पढ़ाई की हुई है जबकि कोई नहीं जानता था उसने कब किस स्कूल कॉलेज से क्या किस अध्यापक से पढ़ा था। 

सेवा दासी की बात कोई कह नहीं सकता था और उसने घर की सभी तरह की देखभाल अपने पीहर से ला ला कर अपनी पसंद के लोगों के हाथ सौंप दी थी। दो चार साल में वही घर की वास्तविक मालकिन बन गई थी और घर के असली मालिक बेबस होकर रह गए थे। पति-पत्नी का नाता क्या है उसको मालूम ही नहीं था। बस मनमानी करती गई और घर की हालत बिगड़ती गई थी। जो लगता था सीधी सादी भोली भाली है उसने अपने असली रंग दिखला कर सबको अपने आधीन कर लिया था और सब अपने अधिकार में लेती गई थी। हर कोई उसकी चाल में फंसकर घर के बाकी लोगों से लड़ने झगड़ने नफरत करने लगा क्योंकि उसने सभी को इक दूसरे की मनघड़ंत बातों से भेदभाव की दीवार खड़ी कर अलग अलग कर दिया था। जिस महल बनाने की बात करती थी उसकी कोई नींव ही नहीं थी आसमान में हवा में कोई जादू का नगर बसाने की झूठी बात से सभी को ठगने का कार्य कर दिया था। तमाम तरह से अपने गुणगान के चर्चे अपने खास लोगों को आर्थिक फायदा पहुंचा कर करवाने लगी थी। धीरे धीरे घर का सब बिकने लगा था हरा भरा घर किसी तपते रेगिस्तान में बदल गया था। उसकी हर योजना असफल होती रही मगर सबको भरोसा दिलाती रही अब बस सब ठीक होने वाला है कुछ दिन सहन करो मगर खुद उसने अपने खुद पर बेतहाशा धन शौक पूरे करने पर बर्बाद करने में कोई सीमा नहीं बाकी रहने दी। हल ये हुआ कि पहले सब चैन से रहते थे अब हर कोई बेचैन है घबराया हुआ है। आपसी मेल जोल बचा नहीं भरोसा कोई किसी पर नहीं करता और हर कोई अकेला उसकी चालों का शिकार होकर परेशान है। 

   माफ़ करना दादाजी ने आगे की कहानी सुनाई थी मगर मुझे नींद आ गई थी। आप भी आजकल किसी नींद की खुमारी में लगते हो नहीं जानते कल क्या होने वाला है। भविष्य का कुछ पता नहीं है और कोई आपको जगाने वाला भी नहीं। घनी गहरे अंधेरे की रात है मगर कहते हैं हर रात का अंत होता है और सुबह होती है। चलो इक गीत सुनते हैं जाने माने शायर का है। 

मौत कभी भी मिल सकती है , 

लेकिन जीवन कल न मिलेगा।

रात भर का है महमां अंधेरा , 

किस के रोके रुका है सवेरा। 

रात जितनी भी संगीन  होगी , 

सुबह उतनी ही रंगीन होगी। 

ग़म न कर गर  है बदल घनेरा , 

किस के रोके रुका है सवेरा। 

लब पे शिकवा न ला अश्क़ पी ले , 

जिस तरह भी हो कुछ देर जी ले। 

अब उखड़ने को है ग़म का डेरा , 

किस के रोके रुका है सवेरा।

आ कोई मिलके तदबीर सोचें , 

सुख के सपनों की ताबीर सोचें। 

जो तेरा है वही ग़म है मेरा , 

किस के रोके रुका है सवेरा। 

आपको याद है फिल्म का नाम था , सोने की चिड़िया।


दिसंबर 14, 2019

शासकों की मनमानी जनता की मज़बूरी आज़ादी नहीं है ( सच और केवल सच ) डॉ लोक सेतिया

       शासकों की मनमानी जनता की मज़बूरी आज़ादी नहीं है 

                           ( सच और केवल सच ) डॉ लोक सेतिया 

 सरकार ऐलान जारी करती है देश की जनता को स्वीकार करना होता है।  लोग परेशान हों या उनके लिए कितनी समस्याएं खड़ी हों सत्ताधारी नेताओं और सरकारी अधिकारियों की बला से। अभी फ़ास्ट टैग की ही बात ले लो जिस देश की आधी आबादी अनपढ़ है जिसको अभी आधुनिक ऑनलाइन या स्मार्ट फोन की सही जानकारी तो क्या अपनी सुरक्षा को लेकर समझ नहीं है और गरीब अशिक्षित नागरिक से उनके कार्ड या अन्य कागज़ कोई और ले कर उपयोग करता है क्या ये सब के लिए आसान होगा।  कदापि नहीं मगर सरकार को अपनी साहूलियत और सुविधा देखनी है। आपको इतने दिन में ये अपनाना ही होगा। लगता ही नहीं कि किसी भी नेता या सरकार में शामिल दल को नागरिक परेशानी से कोई सरोकार हो। बस ये महत्वपूर्ण है और तय सीमा में लागू करना ही होगा। हर बार जब शासक को फरमान जारी करना अधिकार उपयोग करना हो तब कहते हैं इस को करना लाज़मी है। 

    मगर कभी भी जो कर्तव्य देश की सरकार को पूरे करने हैं उनको लेकर ऐसा नहीं होता है। क्या कभी घोषणा की गई कि इतने दिन बाद कोई गरीबी की रेखा से नीचे नहीं रहने दिया जाएगा। सरकार को ये उस से पहले करना ज़रूरी है। कोई बना घर नहीं रहेगा की बात छोडो कोई भूखा नहीं रहेगा ये भी कब होगा किसी सत्ताधारी को चिंता नहीं है। वीवीआईपी लोगों को स्वस्थ्य सेवा तुरंत ऐम्स जैसे अस्पताल में मिलती है मगर आम नागरिक कतार में खड़ा अधमरा होकर मौत का इंतज़ार करता है कब इस भेदभाव की व्यवस्था का अंत होगा क्या कोई दिन तय है। अर्थात देश की जनता को बुनियादी अधिकार मिलने को लेकर कोई भी सरकार कभी अपने कर्तव्य को निभाने को संकल्प नहीं निभाती है। सत्ता जनसेवा नहीं इक हथियार है डंडे से हांकने को नागरिक को गुलामों की तरह। 

    राजनेता सांसद विधायक बनकर देश की जनता के पैसे से करोड़ों रूपये पाने के हकदार बन जाते हैं और इनको कोई लज्जा शर्म नहीं आती ऐसा करते देश सेवा के नाम पर ऐशो आराम और लूट करते हुए। कोई बोलता नहीं ये अनुचित ढंग कब बंद होगा और सेवक कहलाने वाले कब देश की गरीब जनता पर बोझ नहीं बनेंगे। कोई भी राजनीतिक दल हो अपनी महत्वकांक्षा या वोटों की गंदी राजनीति की खातिर आम नागरिक को तमाम अन्य परेशानियों के बीच और परेशानी देने में संकोच नहीं करते हैं। 

संसद को इक अखाड़ा बना दिया गया है। 13 दिसंबर को संसद पर हमला हुआ था और सुरक्षाकर्मी मारे गए थे उनकी याद औपचारिक ढंग से कुछ क्षण करने के बाद जिस तरह संसद में सांसद विपक्षी नेता के ब्यान को लेकर हंगामा करते रहे अपने राजनीतिक मकसद की खातिर उसे ब्यान को आपत्तिजनक मान कर भी ज़रूरी नहीं समझा जा सकता है। वैसे भी ऐसे घटिया ब्यान खुद सत्ताधारी भी विपक्ष में रहते करते रहे हैं तब यही लोग ताली बजाया करते थे , आज भी बहुत नेता हैं जो सत्ताधारी दल में होते हुए अक्सर बेहद अनुचित और आपत्तिजनक भाषण ब्यान देते हैं मगर अपने दल के नेता की बात पर खामोश रहते हैं। जिन महिला सांसदों को महिलाओं के साथ अपराध पर आवाज़ उठानी चाहिए मगर नहीं कुछ भी बोलती सत्ता उनकी है इसलिए वही विपक्षी दल के नेता के ब्यान पर उत्तेजित हो जाती हैं। काश यही भाव महिलाओं के अधिकार उनके आरक्षण या उनसे भेदभाव को लेकर भी नज़र आता। मगर अपनी दलगत राजनीति से इतर उनको देश की वास्तविक चिंता कभी नहीं दिखाई देती है। 

 ये बेहद खेद की बात है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था इतनी स्वार्थी और सत्ता के मोह में अंधी हो चुकी है कि शासन करने वाले नेताओं सत्ताधारी दल सरकारी अधिकारियों को नेताओं सांसदों विधायकों को देश सेवा की नहीं सत्ता की चाहत होती है और इनकी जनसेवा देशभक्ति सिर्फ कहने या दिखाने को है आडंबर है। वास्तविक जनता की भलाई या उनकी समस्याओं से किसी को कोई मतलब नहीं है। हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्तां क्या होगा। 

 

दिसंबर 09, 2019

नारद जी सुन रहे आधुनिक गीता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  नारद जी सुन रहे आधुनिक गीता ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

  अचानक आकाश मार्ग से विचरण करते हुए नारद मुनि जी को गीता गीता का शोर ऊंची ऊंची आवाज़ में सुनाई दिया। जिज्ञासा हुई फिर से गीता का ज्ञान देने कौन आया है धरती पर जाकर दर्शन करने चाहिएं। अपना पुराना रूप बदल इंसान बनकर उपदेश देने वाले के कक्ष में चले आये , नारद जी की ये आदत बदलती नहीं जब जिस जगह चाहा बिना सूचना दिए चले जाते हैं। दरवाज़े के बाहर पहुंचे तो भीतर से वार्तालाप सुनाई दे रहा है उत्सुकता हुई समझने की और चुपचाप खड़े होकर चर्चा का आनंद लेने लगे। 

    कितने इश्तिहार बंटवा दिए स्वागत द्वार बनवाये हैं कितने ख़ास लोग शामिल होंगे सरकारी सहयोग से क्या क्या हासिल होगा। उनकी अपनी लिखी हुई घोषित गीता कितने ऊंचे दाम पर कौन कौन खरीदेगा और अभी तक किस सरकार ने कितनी गीता की किताबें उनकी ऊंची कीमत पर खरीदी हैं। नेताओं से सरकार से गठजोड़ से पिछले साल से कितना अधिक मुनाफा कारोबार में होने की संभावना है। अपने नाम को कितना अधिक आसमान से अधिक ऊपर विश्व भर में उपदेशक होने का सबसे बड़ा जानकर होने वाला घोषित किया जाना अभी बाकी है। नारद जी को जिस बात की आशा थी गीता ज्ञान को लेकर इक शब्द भी सुनने को अभी तक नहीं मिला था। जनाब क्या मैं आपसे मिलने भीतर आ सकता हूं दरवाज़े से बाहर खड़े नारदजी ने पूछा तो अंदर आने की अनुमति मिल गई। जाकर जो भी आसन दिया गया नारदजी बैठ गए। बहुत चेले चपटे तमाम तरह की बातें अपने उन गुरूजी से करते रहे नारदजी को लग रहा था कोई कारोबार चल रहा है। नारदजी से पूछा गया आपको क्या कार्य है क्या शिष्य बनने की इच्छा से आये हैं या चरण छूने की अभिलाषा है। शाम को उपदेश से पहले आपका भी नाम घोषित किया जा सकता है अगर चाहते हैं तो तय राशि देकर नाम लिखवा सकते हैं। आपको मंच पर बुलाकर गुरूजी की फोटो के साथ सम्मान दिया जाएगा। नारदजी बोले भाई आपको ग़लतफ़हमी हुई है मेरे पास पैसे नहीं हैं कुछ भी खरीदने को। गीता के ज्ञान की कोई बात करते हैं तो सुनने की चाहत थी। 

    उपदेशक ने पास बुलाया और समझाया कि शाम को सभा में गीता का पाठ सुनाते हैं अवश्य आईयेगा। नारदजी ने कहा श्रीमान क्या थोड़ी बात करने को अभी समय है मुझे कुछ सवाल परेशान किये हुए हैं। हां ज़रूर पूछ सकते हैं आपके हर सवाल का उतर यहीं मिलेगा। नारदजी ने अपने झोले से ताज़ा अख़बार निकाला और खबरें पढ़कर सुनाने लगे। हत्या बलात्कार लूट दंगे फसाद और देश की राजनीति की गंदगी और शासकवर्ग के जनसेवा से भटकने और सत्ता का मनमाना दुरूपयोग करने को लेकर पूछा क्या आप लोगों को इस अधर्म को लेकर कोई चर्चा करते हैं ताकि सबको धर्म अधर्म का भेद समझाया जाये। उपदेशक जी कहने लगे नासमझ इंसान आप किस युग में रहते हैं भला किसी की शामत आई है जो इन सभी ताकतवर लोगों के बारे में ज़ुबान भी खोले। नारदजी ने सवाल किया तो क्या आपको गीता से कायरता का ज्ञान मिला है। जब अपने साधु  भेस धारण किया है और गीता का पाठ करते हैं तो किस बात का डर है कैसी चिंता है। क्या जीना है क्या मरना है क्या पाया है खोना क्या है। उपदेशक बोले भाई अभी जाओ शाम को आकर सभा में ध्यान पूर्वक सुनना फिर समझ जाओगे। ठीक है बोलकर नारदजी बाहर चले आये। 

शाम को नारदजी आठ बजे ही सभा स्थल चले आये जबकि उपदेशक ने बताया था आठ बजे मुझसे पहले छोटे गुरु उपदेश देते हैं मैं एक घंटा बाद नौ बजे आता हूं। ये अपने महत्व को समझने या समझाने का ढंग होगा मगर नारदजी आठ बजे ही सही समय पर चले आये। देखा इक बाज़ार लगा हुआ है हर सामान पर उपदेशक गुरूजी का नाम फोटो अंकित है और महंगे दाम बिकता है। दुकानदार से जाकर पूछा भाई यहां लोग गीता ज्ञान का सार समझने अर्थ जानने आते हैं और आप इस जगह व्यौपार करने आये हैं। धर्म की बात छोड़ अर्थ का मोह लिए हुए हैं। दुकानदार ने बताया कितने नासमझ हैं ये सारा धंधा उन्हीं का है पांच दिन के उपदेश की कीमत पांच लाख लेते हैं। शुद्ध कारोबार है इसमें धर्म की खोज मत करना , ये जो भी लोग खड़े हैं कतार लगाकर कोई धर्मात्मा नहीं हैं सब दो नंबर की आमदनी से कुछ दान देकर दानवीर और धर्मात्मा होने का तमगा खरीद ले जाते हैं। आपको गीता को समझना है तो इनकी हज़ार रूपये वाली ज़रूरी नहीं है बाज़ार से सौ दो सौ की खरीद पढ़ लेना। इधर कोई गीता पढ़ने सुनने नहीं आता है सबके मकसद कुछ और ही हैं। हैरान मत होना यहां किसी ने आपको नहीं पहचाना मगर मैंने आपको पहचान लिया है। नारद जी बोले क्या और कैसे मुझे पहचान लिया है। दुकानदार बोला कि आपके पास आते ही बिना आपके मुख खोले ही , नारायण -नारायण की ध्वनि सुनाई दी थी मुझे तभी समझ लिया था नारदजी हैं आप। ये उचित जगह नहीं है गीता को सुनने समझने के लिए आपको किसी और जगह जाना होगा। 

    तभी ऊपर से आते उपदेशक मिल गए तो नारदजी ने उनके सजाए बाज़ार को देख कर कहा था , अपने बुलाया था चला आया मगर ये सब गीता से आपको समझ आया होगा मुझे नहीं समझना है।



नवंबर 27, 2019

कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है - डॉ लोक सेतिया

 कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है - डॉ लोक सेतिया 

जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल से दो शेर उधार ले रहा हूं। आज 27 नवंबर सच की खातिर जान देने वाले एक आईएएस अधिकारी का जन्म दिन भी है और उनका क़त्ल भी इसी दिन किया गया था। 

                   इन्कलाबों की घड़ी है , हर नहीं हां से बड़ी है।

                 कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है। 

कल संविधान दिवस था और हर साल की तरह संसद में इक औपचारिकता रस्म की तरह निभाई गई। संविधान की भावना की बात छोड़ो उसकी अस्मत से खिलवाड़ करने वाले बड़ी बड़ी बातें बिना किसी लज्जा संकोच कह रहे थे। जबकि लोकतन्त्र की रूह तक परेशान थी उसको कितनी बात कत्ल किया और दफ़नाया जा चुका है और जैसे किसी रोगी को अस्पताल वाले अपनी कमाई की खातिर धड़कन बंद सांस नहीं चलती फिर भी वेंटीलेटर पर मुर्दा लाश की तरह ज़िंदा रखे हुए होते हैं ठीक उस तरह नेता सत्ता की खातिर करते रहे हैं। ये विडंबना की बात है कि हम लोग ऐसे वास्तविक ईमानदार देशभक्त और भ्र्ष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले अधिकारी को याद नहीं रखते और जिन लोगों ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया उनको सच के क़ातिल होने की कोई सज़ा नहीं दिलवा सके हैं। आज आपको उस आदर्श आईएस अधिकरी की वास्तविक जीवनी से अवगत करवाते हैं। 

                         सत्येंदर दुबे जी


             






                                   जन्म              2 7 नवंबर 1 9 7 3

                                   कत्ल हुआ        2 7 नवंबर  2 0 0 3

सत्येंदर दुबे जी एक अधिकारी थे , इंडियन इंजिनीरिंग सर्विस ऑफिसर , प्रोजेक्ट डायरेक्टर नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया कोडरमा। उनको गया बिहार में जान से मार दिया गया था क़त्ल कर उनके ठीक जन्म दिन को ही तीस साल की आयु में।

   हुआ ये था कि उन्होंने जब राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना में बहुत भ्र्ष्टाचार देखा और तमाम कोशिश करने के बाद भी रोकना संभव नहीं लगा तब उन्होंने एक सरकारी आला अधिकारी रहते एक गोपनीय पत्र पीएमओ को भेजा विस्तृत जानकारी देते हुए। नियमानुसार उस खत को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी को ही पढ़ना था। मगर उस गोपनीय सूचना की बात को पीएमओ से सड़क माफिया तक पहुंचाया गया और उन भ्र्ष्टाचारी लोगों ने सत्येंदर दुबे जी को क़त्ल कर दिया था। मगर कभी भी वास्तविक दोषी उन लोगों को कोई सज़ा नहीं मिली जिन्होंने उनके गोपनीय पत्र को माफिया तक पहुंचाया। और आज भी ये व्यवस्था उसी ढर्रे पर चलती है क्योंकि उसमें रत्ती भर भी बदलाव लाने की कोशिश ही नहीं हुई है।  आखिर में इक शेर मेरी ग़ज़ल से लेकर सत्येंदर दुबे की आत्मा जो सवाल पूछती है कहना चाहता हूं।

                                  तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं ,

                                   मेरी अर्थी को उठाने वाले।




नवंबर 25, 2019

खज़ाना ले भागा खजांची बन ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   खज़ाना ले भागा खजांची बन ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

   ये कहानी अलग है और बिल्कुल नई है इस का चौकीदार चोर है कथा से कोई संबंध नहीं है। इक परिवार के मुखिया चाचा और चाचा के भरोसे के भतीजे की आपसी बात है। घर की तमाम जायदाद के 54 दस्तावेज़ राजनीतिक दल के विधायकों की तरह अनमोल सत्ता की चाबी जैसे भतीजे की जेब में सुरक्षित रखने को चाचा ने सौंपे थे। मगर अचानक नीयत खराब होने से भतीजे ने उन दस्तावेज़ों को चुपके से किसी दुश्मन को ऊंची कीमत लेकर बेच दिया। चाचा को जब तक खबर होती दस्तावेज़ उपयोग कर दुश्मन की मालिकाना हक कानूनी ढंग से हासिल हो चुका था। कुछ खास लोग अपनी शिकायत पुलिस थाने नहीं लिखवाते हैं उनकी सीधी पहचान कमिश्नर तक होती है और उनका मुकदमा बड़ी अदालत छुट्टी के दिन भी सुनवाई करने को मंज़ूर करती रहती है। यहां भी वही बात है अदालत को सब खबर है फिर भी उसको संविधान न्याय से अधिक चिंता इस बात की है कि जिनके दस्तावेज़ चोरी हुए उन्होंने अर्ज़ी उस की नहीं बल्कि ये की थी कि जिस ने उन दस्तावेज़ों को देख कर किसी को सत्ता के ताले की चाबी सौंपी थी उस के आदेश को अनुचित घोषित कर निरस्त करना है। जबकि संबंधित अधिकारी के वकील अदालत को बता रहे हैं कि ये उनके मुवकिल का सरदर्द नहीं है कि जिन लोगों ने दस्तावेज़ हस्ताक्षर कर भतीजे को दिए थे उनकी सहमति उचित थी या नहीं थी। और अगर चाचा की जायदाद के कागज़ात किसी पावर ऑफ़ अटॉर्नी का अनुचित ढंग से उपयोग है तो ये चाचा भतीजे का आपसी मामला है। मगर अदालत को ऐसे दस्तावेज़ों से मिले अधिकार को लेकर कोई विचार नहीं करना चाहिए और अगर ये कोई धोखा है हेराफेरी है तो खुद वही अधिकारी इस पर उचित करवाई करने की आज़ाद है मगर कोई समय सीमा अदालत को तय नहीं करनी चाहिए। उधर हर कोई कीमती जायदाद की तरह अपने पास के सामान की सुरक्षा करने का काम कर रहा है ताकि दुश्मन कोई छीनाझपटी जैसी गुंडागर्दी या फिर कोई और ढंग नहीं अपना सके। जिनको सत्ता की चाबी मिली है जानते हैं उनकी ज़मीन पांव तले से निकल चुकी है मगर समय मिल जाये तो संभलने की उम्मीद रखते हैं या फिर चाबी वापस करने की ईमानदारी नहीं कर सकते क्योंकि नीयत खराब हो जाती है तो लाज शर्म की परवाह नहीं करते हैं। धड़कन सभी की बढ़ी हुई है सांसे फूलने लगी हैं जान अटकी हुई है और अदालत ने मामला और चौबीस घंटे को टाल दिया है।
    
   अदालत कहती है कोई उसको ये सुझाव नहीं दे सकता कि जो भी अनुचित कार्य किया जा चुका है उसको किस तरह से सुधारा जा सकता है। अदालत को अपने आदर की चिंता हमेशा रहती है और ज़रा सी बात अदालत की अवमानना की तलवार का शिकार हो सकती है इस डर से सभी सच बोलने की जगह खामोश रहना उचित समझते हैं। जान है तो जहान है कोई ओखली में सर नहीं डालना चाहता खासकर जब ऊपर सुनवाई की कोई उम्मीद ही नहीं हो। अदालत को पता चल चुका है कि आज जिन लोगों ने किसी को लिखित अपने अधिकार सौंपे थे इरादा बदल चुके हैं और कानून ये भी साफ है कि पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी देने वाला जब भी भरोसा नहीं रहे अपने दिए अधिकार वापस लेने का ऐलान कर सकता है। अगर ऐसा हुआ तो जिस ने भी भरोसा तोड़ा उसको भविष्य में कोई भी कार्य करने की इजाज़त नहीं होगी। मगर यहां दग़ाबाज़ भतीजा दस्तावेज़ के दम पर बयनामा कर चुका है और अभी जायदाद को उनके नाम कर सकता है जिनसे सौदेबाज़ी की है। ये इक अजब ढंग की मिसाल बन जाएगी अगर अदालत जानते समझते हुए किसी के अनुचित तरीके से दस्तावेज़ का गलत उपयोग करने वाले लोगों को रोकने को कठोर कदम नहीं उठती बल्कि उनका साथ देती है न्याय की साख को दांव पर लगाकर। वास्तविक अधिकारी लोग बंधक बन जाएंगे और जिसे खज़ाने की रखवाली को खजांची नियुक्त किया था दस्तावेज़ हथिया कर खुद को असली मालिक घोषित कर सकेगा। अर्थात खुद अदालत और कानून खज़ाने की हेराफेरी लूट या उस पर कब्ज़े को अनदेखा कर बंदरबांट की आधुनिक कथा लिख सकती है। और मुमकिन है भविष्य का इतिहास अदालत को गलत परंपरा कायम करने का मुजरिम करार देने की बात कहे।

नवंबर 21, 2019

उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं ( ग़ज़ल ) 

                       डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं 
पांव चलते हुए अचानक फिसल जाते हैं। 

अब मुहब्बत कहां , तिजारत सभी करते हैं 
अब तो क़िरदार रोज़ सारे बदल जाते हैं। 

ढूंढती हर शमां नहीं मिलते वो परवाने 
आग़ में प्यार की जलाते हैं जल जाते हैं। 

आस्मां पे नहीं ज़मीं पर नज़र रखते हैं 
राह फ़िसलन भरी कदम खुद संभल जाते हैं। 

फिर उसी मोड़ पर मुलाकात नहीं हो उनसे 
हम झुका कर नज़र उधर से निकल जाते हैं। 

दब गई राख में चिंगारी बनी जब शोला 
तेज़ आंधी चले महल तक भी जल जाते हैं। 

अब वहां कुछ नहीं न शीशा न साकी फिर भी 
देख कर मयक़दे को "तनहा" मचल जाते हैं।

नवंबर 20, 2019

शायरी हमने की , आशिक़ी हमने की ( ग़ज़ल ) लोक सेतिया "तनहा "

शायरी हमने की , आशिक़ी हमने की ( ग़ज़ल ) लोक सेतिया "तनहा "

शायरी हमने की , आशिक़ी हमने की 
इस तरह उम्र भर , बंदगी हमने की । 

हर सफर पर नये दोस्त बनते रहे 
जो जहां पर मिला दोस्ती हमने की । 

ज़ख्म भी दर्द भी हर किसी से मिले 
पर न घबरा कभी ख़ुदकुशी हमने की । 

मैं खिलौना सभी मुझसे खेला किए 
आप अपने से भी दिल्लगी हमने की । 

सी लिए लब सदा कुछ नहीं कह सके 
बोलने की नहीं ,  भूल भी हमने की ।

हम सितारे , ज़मीं पर बिछाते गए
चांदनी कह रही , बेरुखी हमने की ।

की वफ़ा फिर भी खुद बेवफ़ा बन गया 
भूल हर बार "तनहा" वही हमने की ।
 

 


नवंबर 18, 2019

गर्दिश में सितारे ( लघु कथा ) डॉ लोक सेतिया

     गर्दिश में सितारे ( लघु कथा ) डॉ लोक सेतिया 

 साहिल की ज़िंदगी में पांच लड़कियां आईं मगर जाने क्यों किसी से भी बात जीवन भर को साथ निभाने तक नहीं पहुंची। पचास का होने पर भी अविवाहित ही है। अपनी डायरी से अपने नाकाम इश्क़ के किस्से पढ़ता रहता है। ऐसे में जब पहली बार इक महिला से कहानी अंजाम तक पहुंचने लगी तो उसने मालिनी को अपने अतीत की हर बात बताने को अपनी निजि डायरी जिसे कभी किसी को पढ़ने तो क्या छूने भी नहीं देता था दे दी और कहा शायद ये मेरा आखिरी इश्क़ है क्योंकि इस से पहले मैंने कभी किसी को ऐसे पागलपन की हद तक नहीं चाहा था। और जब भी जिसने रिश्ता नहीं निभाना चाहा मैंने स्वीकार कर लिया था कि शायद मेरे नसीब में मुहब्बत मिलना नहीं है। तुम मेरी डायरी पढ़ कर फिर सोच कर निर्णय करना कि क्या तुम भी वही पुरानी कहानी नहीं दोहरानी है। मालिनी भी साहिल को उतना ही चाहती है मगर फिर भी उसने सोचा कि यही अच्छा होगा साहिल की ज़िंदगी की वास्तविकता को जानकर ही विवाह का फैसला किया जाये। 

   अभी कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं की थी जब बिंदु जो पड़ोस में रहती थी उसने खुद प्यार की बात करने को पहल की थी। मगर साहिल ने अभी सोचा ही नहीं था और पढ़ाई पूरी करने के बाद विचार करने को कहा था। हंसी मज़ाक की बात होती रहती थी मगर कुछ महीने बाद बिंदु की सगाई हो गई और विषय का अंत हो गया था। कुछ समय बाद किसी रिश्तेदार ने हंसिनी से उसके दफ्तर में साहिल को ले जाकर मुलाकात करवाई और कहा जब तक साहिल की नौकरी नहीं लगती खत लिख कर संबंध रख सकते हैं। फिर साल भर बाद हंसिनी के विवाह का निमंत्रण पाकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि खत का जवाब मिलना बंद होते ही आशंका होने लगी थी। अमृता से अचानक मिलना हुआ जब एक साथ इक जगह काम करने पर साथ आना जाना पड़ा और राह चलते बात होने लगी मगर दिल की बात कह नहीं सके दोनों ही। अचानक अमृता ने दफ्तर आना बंद कर दिया और जैसे कोई खो जाता है कुछ भी बताये बिना , मगर कोई वादा नहीं हुआ था दोनों में कभी। साहिल को थोड़ा एहसास हुआ जैसे कोई दोस्त नहीं मिले कुछ दिन तो याद आती है। फिर शायद पहली बार खुद किसी ने पसंद करती हूं कह कर हैरान कर दिया था। दो साल नाता रहा और लगता है जैसे बहाने बनाकर रचना इंतज़ार करती रही साहिल के और अच्छी नौकरी मिलने का मगर जब इंतज़ार नहीं किया गया तब इक कारोबारी से घरवालों की मर्ज़ी से शादी कर ली थी। साहिल अपनी नौकरी छोड़ दूर चला आया था और दस साल से अकेला रहने लगा मन से विवाह की बात ही भुला दी थी। उर्मिला से जान पहचान हुई तो उसने शर्त रखनी चाही जो साहिल ने मंज़ूर नहीं की थी। हर नाता कुछ दिन महीने या एक साल भर बाद टूट गया था। 

  मालिनी ने साहिल की डायरी से उसके जन्म की तारीख समय स्थान देख कर लिख लिया और अपने पंडित जी को जाकर कुछ भी नहीं बता कर ज्योतिष के अनुसार साहिल को लेकर कुंडली बनवाई। पंडित जी ने बताया कि साहिल का रिश्ता जिस भी लड़की से टूटता रहा वास्तव में ऐसी पांच लड़कियों की कुंडली में विधवा होने की संभावना रही है। मगर साहिल की आयु लंबी है तभी उन से विवाह तय नहीं हुआ और वो लड़कियां विवाह के कुछ साल बाद सुहागिन नहीं रही। वास्तव में साहिल के सितारे गर्दिश में कभी नहीं थे बल्कि खुशनसीबी है जो अविवाहित रहा अभी तक। मगर तुम उनसे अलग हो क्योंकि तुम सदा सुहागिन होने के सितारे पाकर आई हो साहिल के जीवन में। और ऐसे उनका विवाह हो गया था और अब दोनों साथ साथ ख़ुशी से रहते हैं। साहिल के सितारे अच्छे हैं तभी पांच पांच बार उन कश्तियों से किनारे लगने से पहले किसी मझधार में डूबने से बचता रहा है।

पुरानी मुहब्बत की तलाश में ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

     पुरानी मुहब्बत की तलाश में ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

तुम मेरी महबूबा हो ,
मुझे प्यार है तुमसे दिल्ली। 

कभी नहीं भूलती पहली मुहब्बत ,
मेरा दिल हमेशा यहीं कहीं रहा है ,
माना 45 साल बीत गए हैं बिछुड़े ,
जैसे कोई मुसाफिर भटक गया हो ,
अपनी मंज़िल की राह से किसी दिन ,
और भूल गया हो राह अपने घर की ,
मगर याद अपनी मुहब्बत की साथ ,
लेकर करता रहा लौटने की दुआएं। 

फिर ढूंढता फिरता हूं बिछुड़े कारवां ,
के धुंधले से कदमों के निशानों को अब ,
इधर भी उधर भी चला था जिधर भी ,
वो अचानक आना यहीं रह जाना मेरा ,
तुम भूल गईं हो नहीं भुलाया है मैंने ,
कहीं बहुत दूर से कितनी बार तुझको ,
देकर आवाज़ दिल्ली बुलाया है मैंने। 

जाने क्यों बदनाम करते हैं तुझको लोग ,
बदल गई है पुरानी ग़ालिब की दिल्ली ,
मुझे अभी तक तेरी हर गली कूचे में ,
हवा में भीनी भीनी पहचानी खुशबू वो ,
कहीं न कहीं से कोई झौंका बनकर के ,
सांसों को महकाती है ताज़गी देकर के ,
लगता है फिर से जीने लगा हूं जैसे ,
मिलते हैं दो आशिक़ कहानी में आखिर। 

मुझे अपनी आगोश में फिर से ले लो ,
गले से लगा लो अपना बना लो तुम ,
माना बाल मेरे सफ़ेद हो गए हैं और ,
ढलती उम्र के निशां चेहरे पे उभर आए ,
अपनी बाहें पसारे सबको अपनाती रही ,
तुम मेरी चाहत हो जानती हो ये बात ,
कोई कैसे समझे किस किस को समझाए ,
वो दिन वो समां था कितना सुहाना जब ,
जवानी के पल साथ साथ हमने बिताए। 

तुम्हीं मेरी मंज़िल हो मेरी जान दिल्ली ,
मुझे कोई गैर अजनबी मत समझ लेना ,
तेरी मिट्टी की खुशबू अभी तक भी मुझे ,
वही बारिश के मौसम सी महकती हुई सी ,
धड़कन में नाम तेरा दोहराता रहा हूं मैं ,
कितनी बार आने की आरज़ू में करीब आ ,
बिछुड़ता रहा  दूर तुझसे जाता रहा हूं मैं।

पर मेरा आखिर ठिकाना है मेरी दिल्ली ,
तू रूठी हुई है तुझको मनाना है दिल्ली ,
नहीं बिन तेरे मुझे कोई  भाया है दिल्ली ,
ये सच है यकीं तुझे दिलाया है दिल्ली ,
कोई नहीं मैंने बहाना बनाया है दिल्ली ,
लग रहा फिर तुम्हीं ने बुलाया है दिल्ली।


नवंबर 16, 2019

सर्वोच्च न्यायालय के गांव की पंचायत की तरह का फैसला ( मत-अभिमत ) डॉ लोक सेतिया

     सर्वोच्च न्यायालय के गांव की पंचायत की तरह का फैसला 

                ( मत-अभिमत ) डॉ लोक सेतिया 

खामोश रहना उचित नहीं होता है मगर कभी अत्याधिक शोर से भी बचना चाहिए। तभी इस संवेदनशील विषय पर कुछ समय विचार करने के बाद अपना मत रखने जा रहा हूं। आस्तिक हूं मगर धर्म को लेकर कभी भी कट्रता को स्वीकार नहीं किया है। मुझे मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे इक समान लगते हैं और मेरा अभिमत है कि धार्मिक आस्था व्यक्ति का निजि विषय है और सरकार कानून अदालत को निरपेक्ष होकर कार्य करना चाहिए। 

     ये उचित परंपरा नहीं हो सकती कि बिना नियम कानून और तर्क के बहुमत की राय को स्वीकार कर लिया जाये। संविधान सबको बराबर की आज़ादी देता है इसलिए बिना सोचे समझे किसी की बात को विरोधी समझ कोई अनुचित आरोप नहीं लगा देना चाहिए। मगर ऐसा लगता है अब कुछ लोग यही करते हैं और उचित बात कहने पर देशभक्ति पर सवाल खड़े करने लगते हैं। 

  इक आई एस अधिकारी ने अपना पद छोड़ दिया सरकारी निर्णय को अनुचित समझते हुए। उनका भाषण उनकी बात सुनने लायक हैं। 


   इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के अयोध्या विवाद पर निर्णय पर इक रिटायर न्यायधीश ने विचार व्यक्त किये हैं जो सोचने को विवश करते हैं। उनकी कही बातों को समझने की कोशिश करते हैं। कुछ बातें हैं जिन पर विचार करते हुए अपनी आस्था विश्वास और चाहत को किनारे रख कर देश के संविधान की भावना को समझना ज़रूरी है। 

      अदालत एक तरफ कहती है उसको आस्था को लेकर कोई निर्णय नहीं करना और विवाद कानूनी मालिकाना अधिकार का है। फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ए एस आई का जांच करना आधार बनाना इस को लेकर कि सैंकड़ों साल पहले उस जगह क्या था क्या होता था निर्णय को प्रभावित कैसे कर सकता है। देश की आज़ादी के बाद संविधान लागू किया गया और देश की अदालत और कानून को उसके बाद उसके अनुसार विचार करना उचित होता क्योंकि इस तरह से देश भर में कितनी इमारतें भवन निर्मित हुए कितने शासकों के शासनकाल में। केवल इस बात को सोचकर कि बहुमत की अवधारणा और राय किस पक्ष में होगी निष्पक्ष होकर निर्णय नहीं किया जा सकता है। पहले भी सत्ताधारी शासक नेताओं द्वारा अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त कर अपनी मर्ज़ी के सुविधाजनक निर्णय करवाए जाते रहे हैं। 

 इतिहास की आंखों ने वो मंज़र भी देखे हैं 

लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सज़ा पाई।


नवंबर 09, 2019

कौन हैं मेरे मम्मी-पापा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     कौन हैं मेरे मम्मी-पापा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   बड़ी प्यारी सी बच्ची है तुतली ज़ुबान में बोलती हुई सवाल पूछती है कोई मेरे मम्मी-पापा का नाम पता बताओ मुझे अनाथालय में छोड़ गया जो जन्म देते ही वो कौन था। स्कूल में पढ़ाई करने जाना चाहती है आधार कार्ड बनवाना ज़रूरी है समझो कितनी मज़बूरी है। सरकारी ऐलान है नोटबंदी हुई बदनाम है काली कलूटी उसका नाम है पर उसका रंग गुलाबी है छुपे खज़ाने की चाबी है काला धन कहां छिपा है तूं तूने की सब बर्बादी है। धन काला मिला नहीं इसका कोई गिला नहीं पर जो तीन साल की बच्ची है ये अक्ल की कच्ची है राजनीति से वाकिफ़ नहीं सरकार से पहचान नहीं ये जायज़ संतान नहीं। सच इसको समझाए कौन काला धन खोज लाये कौन। रोटी से जो खेलता है उसका पता बताये कौन संसद इस सवाल पर आखिर रहेगी कब तलक मौन। चलो हम मिलकर जन्म दिन मनाते हैं हैप्पी बर्थडे टू यू गाते हैं बच्ची का दिल बहलाते हैं। 

        मोदी जी आएंगे आकर तुझे खिलाएंगे जब रात आठ बज जाएंगे गले तुझको लगाएंगे। तुझे पढ़ाया जायेगा तुझको सबसे बचाया जायेगा बच्ची तू इतिहास नहीं वर्तमान है भविष्य बनाया जायेगा। हम गुब्बारे बहुत फुलाएंगे पार्टी राह पर मनाएंगे केक भी कटवाना है मोमबत्ती बुझवाना है ताली बजाकर हैप्पी बर्थडे टू यू गाना है। मोदी जो तोहफ़ा लाएंगे सबको ये सच बतलाएंगे खाते में कितना धन डलवाएंगे हम मालामाल हो जाएंगे। मोदी जो ने फ़रमाया है पांच साल व्यर्थ गंवाया है अब दूर की कौड़ी लानी है की अब तक मनमानी है। अध्यापक जी समझाएंगे नोटबंदी की बात बताएंगे पूरी कहानी सुनाएंगे हम झूमेंगे और गाएंगे तीन साल का जश्न मनाएंगे। जन्म दिन तुम्हारा मिलेंगे लड्डू हमको गीत बजवाएंगे , तुम जियो हज़ारों साल जिओ वाले मुस्कुराएंगे। थक कर खुद सो जाएगी ये बच्ची भूखी प्यासी सपनों में खो जाएगी। सरकार आपको बधाई हो प्यारी सी बिटिया आई है गूंगी नहीं है खामोश है लगता है देख आपको घबराई है। 

    मोदी जी कहते हैं नोटबंदी करने का फायदा तीन साल बाद नज़र आया है। दुश्मन मुल्क़ में महंगाई आसमान छूने लगी है। अब अपने देश का इस में क्या भला हुआ अपनी समझ से बाहर है ये कुछ उस तरह है कि मेरी पोशाक मैली है मगर देखो मैंने दुश्मन की गंदी कर दी है। अर्थात मोदी जी चले थे सफाई करने मगर मैल छुड़ाने नहीं आता था गंदगी करना आसान था औरों को अधिक मैला कर खुद की चमक बढ़ाने का दावा कर लिया। मैल कपड़े का धुल जाता है मन का मैल साफ करने को कोई साबुन नहीं बना है। संसद की चौखट पर माथा टेका था याद होगा अब मन से सोचना पांच साल में कितना मन का मैल छुड़ाया , बस कपड़े बदलते रहे दिल की सफाई नहीं की। अब मानो न मानो नोटबंदी आपकी दी सौगात है और अपने किसानों को फसल का दुगना दाम देने का वादा किया था मगर हरियाणा के सीएम साहब पानीपत की अनाज मंडी में आकर किसानों की बर्बादी की बात पर बोलते हैं तो हम क्या करें। भले भी हम बुरे भी हम समझिओ न किसी से कम , हमारा नाम बनारसी बाबू। बनारस के ठग मशहूर हुआ करते थे ये गुजरती तो बनारस वालों का भी बाप निकला। बनारस वालों को गंगा मईआ के नाम पर ठग गया और शरद जोशी के मामा जी की तरह हम घाट किनारे खड़े हैं तौलिया लपेटे पूछते हैं देखा है उसको जो हमारे कपड़े सामान ले गया उल्लू बनाकर।

     कहावत है इक बार सच और झूठ नदी में नहाने को गए। झूठ जल्दी से बाहर निकला और सच के कपड़े पहन चल दिया। सच बाहर निकला तो उसके कपड़े नहीं थे और झूठ के पहन नहीं सकता है तभी से सच नंगा है। नोटबंदी बिटिया की दर्द भरी कहानी ऐसी ही है , तीन साल से हर कोई उसको बुरा बता रहा है और धुत्कार खाती फिरती है अपने जन्मदाता को ढूंढती जो शायद उसको अपना समझना तो क्या पहचानना भी नहीं चाहता है। जन्मदिन पर भी उदास है रोते रोते सो गई है।

नवंबर 02, 2019

इक नज़र बीते ज़माने पर और इक नज़र कल के भविष्य पर ( बदलते हुए एहसास ) डॉ लोक सेतिया

   इक नज़र बीते ज़माने पर और इक नज़र कल के भविष्य पर 

                         ( बदलते हुए एहसास ) डॉ लोक सेतिया

 रिहाई की बात नहीं है रिहा होने की आरज़ू भी कभी की भूल गई। थोड़ा बदलते समय के दौर पर सोचा तो फुर्सत में किसी फिल्म की तरह फ्लैशबैक की तरह यादें चली आईं। ज़िंदगी अपनी हरदम किसी कैद में रहते गुज़री है कैदी यही रहा सय्याद बदलते रहे। आदमी को इतना भावुक और संवेदनशील भी नहीं होना चाहिए कि जीना दूभर होता जाये। हंसना चाहो तब भी आंखें नम हो जाएं और हर किसी से अश्क़ छिपाने की ज़रूरत हो या फिर ख़ुशी के आंसू हैं बताना पड़ जाये। मगर कुदरत भी कभी ठोस पत्थरीली ज़मीन पर कोई नाज़ुक सा फूल उगा देती है शायद मुझे यही मिला नसीब से। पत्थरों में रहकर भी फूल कोमलता बरकरार रखता है नहीं बन सकता पत्थर दुनिया की तरह। 

     कैद खुद अपनी भी बनाई हुई है और रिहा होने को कोशिश भी खुद ही करनी होगी इस बात को जानता हूं मगर होता है कभी जीवन भर पिंजरे में रहते रहते पिंजरा भाने लगता है। कोई पिजंरे का दरवाज़ा खोल देता है फिर भी मन बाहर नहीं निकलता और मुमकिन है कोई पकड़ कर खुली हवा में उड़ा दे तब भी पंछी खुद अपने पिंजरे में वापस लौट आये। बोध कथा की तरह। पर ये भी सच है पिंजरा चाहे सोने का हो या चांदी का बना पिंजरा पिंजरा ही होता है पंछी उड़ने को बेताब रहता है। मगर सय्याद ने जब पंख ही तोड़ डाले हों तब पंछी छटपटा भी नहीं सकता उड़ना तो दूर की बात है। 

   मुझे कैद रखने वाले समझते रहे मुझसे मुहब्बत करते हैं मेरा ख्याल रखते हैं मुझे सब दुनिया से बचाकर रखना ज़रूरी है। पिंजरे में बंद पंछी का चहकना अपने अंदर कितना दर्द छुपाये रहता है कोई नहीं समझता है। आज़ाद होने की ख्वाहिश रहती थी कभी अब नहीं बची शायद नियति को मंज़ूर कर लिया है। कितने साल जिस घर में रहा अपना था मगर लगता नहीं था अपना उस से बिछुड़ते समय पता नहीं उदासी का अर्थ क्या था मगर मन उदास उदास था अवश्य। 

    दुनिया की तेज़ रफ़्तार ने सुबह से शाम तक कितना लंबा सफर तय कर लिया और मैं खुद अपने पिंजरे को साथ लिए नई अजनबी दुनिया में चला आया नहीं सोचा समझा कुछ भी। अब उलझन पड़ी है सब बदला बदला है और मुझे समझाया जा रहा है नए माहौल में बदले तौर तरीके यहां की भाषा तहज़ीब सीखनी होगी। उनकी बात सुन सकता हूं अपनी कहनी नहीं आती है ऐसे में किस तरह बताऊं सीखने को जितना है जीने को उतना वक़्त भी शायद बचा नहीं है। आपके इशारे समझते समझते जाने कब कोई इशारा मिल जाये और भीतर का पंछी उड़ जाए अपनी आखिरी मंज़िल की तरह सुहाने सफर पर। 
 

 

 


अक्तूबर 31, 2019

मेरा लिखना क्या क्यों कैसा ( आलेख-अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया

 मेरा लिखना क्या क्यों कैसा ( आलेख-अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया 

   कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है , करें क्या ज़िंदगी की बात करना भी ज़रूरी है। 

   मेरी ग़ज़ल का मतला है बहुत पहले लिखा था। कई बार पहले सोशल मीडिया पर और व्यक्तिगत तौर पर भी मिलने वालों को बताया है कि मैंने लिखने की शुरुआत 1974 में नियमित रूप से इक मकसद को लेकर की थी। इक मैगज़ीन में कॉलम पढ़कर जिस में संपादक ने सभी से कहा था की शिक्षित होने पर अपने खुद घर परिवार को छोड़कर कोई न कोई काम देश समाज की भलाई को लेकर करना भी इक कर्तव्य है समाज से जो भी मिला उसका क़र्ज़ उतारने के लिए। डॉक्टर होने से साहित्य को पढ़ने का अवसर कम मिला बस इधर उधर से थोड़ा बहुत ही पढ़ा है। समाज की जनहित की बात लिखते लिखते व्यंग्य कविता कहानी ग़ज़ल आलेख लिखता गया जब जिस विषय पर जो भी विधा उचित लगती रही। लिखने के स्तर को लेकर हमेशा से मुझे मालूम रहा है कि ग़लिब दुष्यंत परसाई शरद जोशी मुंशी प्रेमचंद अदि को सामने कुछ भी नहीं हूं न बन सकता हूं। साहित्यकार होने का भ्र्म नहीं पाला दिल में और नाम शोहरत ईनाम पुरुस्कार की चाहत रही नहीं। लिखना मेरे लिए जीना है सांस लेने की तरह ज़रूरी है। नहीं रह सकता लिखे बिना। मैंने जितना जो भी लिखा ज़िंदगी की बातों से अनुभव से और निष्पक्षता से समाज की वास्तविकता को उजागर करने को लिखा और बगैर इसकी चिंता किये लिखता रहा कि किसी और के तो क्या खुद मेरे भी ख़िलाफ़ तो नहीं। मेरा पहला व्यंग्य " उत्पति डॉक्टर की " अपने ही व्यवसाय पर तीखा कटाक्ष था। अभी तक कोई किताब नहीं छपवाई मगर अख़बार मैगज़ीन लोगों को समाजिक संस्थाओं से नेताओ अधिकारियों को लिख कर जहां जो भी समस्या थी विसंगति थी गलत हो रहा था लिखकर भेजता रहा। 

        जो लोग किताबें पढ़कर दुनिया समाज को समझते हैं किताबी साहित्य के मापदंड और नियम आदि की चिंता करते हैं उन्हें कभी मेरे लिखने पर उलझन होती है। सीखा है कई तरह से लिखने को सुधारने की कोशिश करता रहता हूं मगर उपदेशकों की ज़रूरत नहीं लगती है। खुद विचार चिंतन और अभ्यास से कोशिश करता रहता हूं और अच्छा लिखने की।  मगर सबसे महत्वपूर्ण बात लगती है सच और सही बात ईमानदारी से निडरता से लिखने की। भले मेरा लेखन जैसा भी जिस भी विधा में हो उसमे वास्तविक्ता है आडंबर नहीं बनावट झूठ या बात को उलझाने की कोशिश कभी नहीं की है। इतना काफी है। खुद को किसी तथाकथित साहित्यगुरूओं के तराज़ू पर उस इस पलड़े पर रखकर तोलना ज़रूरी नहीं लगा है उनसे कोई प्रमाणपत्र पाने को जिसकी मुझे कोई चाहत नहीं है। 
 

 



अक्तूबर 22, 2019

शराफ़त की नकाब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       शराफ़त की नकाब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   कल चुनाव में चर्चा थी फलां व्यक्ति शरीफ है इसलिए लोग उसको वोट देंगे। मुझे ये वास्तविकता अनुभव से कई साल पहले समझ आ गई थी कि राजनीति में आने वाले नेताओं की शराफ़त नई नवेली बहु की तरह होती है लाज का घूंघट दो दिन में उतर जाये या कुछ महीने लग जाएं हालात पर निर्भर होता है। ससुराल में बहुरानी और राजनीति में आदमी आता है मन में छुपाकर सबको उनकी औकात दिखाने की भावना को। साफ शब्दों में शराफत की नकाब नेता लोग सत्ता मिलते ही उतार फैंकते हैं और असली रंग दिखाने लगते हैं। ये राजनीति का बाज़ार वैश्या का कोठा है जिस पर आकर अस्मत का सौदा होते ही शर्म का पर्दा उतारना ही पड़ता है। विधायक संसद बनते ही लोग किसी बड़े राजनेता के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। कठपुतली करे भी क्या नाचना तो पड़ेगा डोर किसी और के हाथ है उसकी मर्ज़ी है जिस तरह मर्ज़ी नचवा सकता है। आनंद का नायक नाम बदलता रहता है हंसी मज़ाक में दोस्त बनाने को समझाता है जॉनी वाकर जैसा कलाकार कि दुनिया के रंगमच पर हम सभी कठपुलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है कौन कब कैसे उठेगा कोई नहीं जानता। डॉयलॉग सुपर हिट है फ़िल्म का अंत भी टेप रिकॉर्डर की आवाज़ से होता है। नायक अंतिम सांस लेता है और टेप रिकार्डर चालू होता है , दोस्त आता है और आवाज़ सुनाई देती है। 
 
" बाबूमोशाय हम सब तो रंगमंच की कठपुलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ है , कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जानता   .................... ( थोड़ी ख़मोशी )  हाहाहाहा। 

            अंतर है फ़िल्मी कहानी में सच्चाई विचलित करती है दिल दर्द से भर जाता है। राजनीति में सत्ता का रावण अट्हास करता है तो आपकी रूह कांप जाती है। कल की बहु आपको नाकों चने चबाबे का सुना हुआ मुहावरा समझा देती है। मुल्तानी भाषा की कहावत है उहो अच्छा जेड़ा कोयनी डिट्ठा। आज़ादी के बाद देश की राजनीति ने शराफ़त का चोला उतार दिया था बीस साल बाद तो बिलकुल नंगी हो गई थी। अपने फ़ैशन बदलते देखा महिलाओं को कपड़े तन ढकने को नहीं दिखाने को पहनते हैं की सोच बदलते देखा। आपको भीतर राजनीति कैसे बदलती रही पता ही नहीं चला आपको जो लगता है जश्न है पार्टी चल रही है वास्तव में कोई किसी को नंगा करने को आतुर है तो कोई खुद अपने को परोस रही होती है बेहूदगी का नाच दिखला कर। कला के नाम पर फ़ैशन की आड़ में वासनाओं का खेल जारी है अब फ़टे हुए कपड़े चीथड़े उधड़े हुए अमीर और आधुनिक होने की निशानी है। सत्ता की राजनीति इन सबसे बढ़कर है ज़मीर बेचने को तैयार हैं सब के सब कीमत लगवाने की होड़ लगी है। देश सेवा जनता की भलाई की अच्छी बातें चुनाव तक ठीक विवाह से पहले लड़की की ससुराल को ही अपना घर सास ससुर माता पिता अदि जैसी बातें मगर सत्ता मिलते नेता और शादी होते ही पड़की असली रंग दिखलाते हैं। दामाद भी तब पता चलता है जो कहता था कितना सच झूठ था , चांद तारे के सपने चुनावी वादे साबित होते हैं और खींचातानी होती है पति पत्नी में कौन भला कौन चालाक का खेल जारी रहता है अनंत काल तक।

       अच्छे दामाद अच्छी बहुरानी किस्मत वालों को नसीब से मिलती है और ख़ुशनसीन थोड़े लोग होते हैं। बदनसीबी अधिकांश के हिस्से में आती है। अच्छे सच्चे ईमानदार राजनेता विरले ही दिखाई देते हैं बेशक मां के पेट से कोई खराब नहीं पैदा होता की तरह राजनीति में आने से पहले कभी सभी शरीफ लोग हुआ करते थे मगर फिर शरीफों ने ही बदमाश लोगों को साथ मिलाने का काम शुरू किया और बदमाश लोगों ने शरीफ लोगों को अपने जैसा बना लिया। शराफत आजकल चेहरे को ढकने को नकाब की तरह है अपने अंदर सभी गुंडागर्दी करने का इरादा छिपाए रहते हैं। सोने में धतूरे से हज़ार गुणा नशा होता है सबने दोहा सुना है सत्ता धन दौलत का नशा उस से लाख करोड़ गुणा अधिक होता है। पैसा ताकत शोहरत और सत्ता का अहंकार वो ताकत हैं जो विवेक को रहने नहीं देते हैं। भले बुरे की परख रहती नहीं है राजनीति के दरबार की रौशनी की चकाचौंध अंधा कर देती है। भाषण ऐसी कला है जिस में मीठा झूठ जनता को बेचकर नेता लोग सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हैं और अच्छे भाषण की विशेषता यही है कि नेता जो कहता है हम देखते हैं उसके विपरीत आचरण करता है फिर भी ऐतबार करते हैं झूठी बातों पर जब तक कोई बड़ा कारनामा सामने नहीं आता जिस में उसकी असलियत पता चलती है तो हैरान होते हैं कि जिस ने महिला सुरक्षा की बात से मोहित किया था उसी के हरम में महिलाओं से वासना का गंदा खेल खेला जाता रहा बंदी बनाकर। सच्चे आशिक़ और सच्चे देशभक्त नेता इतिहास की कथा कहानियों की बात रह गई है। अब हम्माम में सभी नंगे हैं।      

अक्तूबर 18, 2019

महत्वहीनता की बात ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

     महत्वहीनता की बात ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

  शुरुआत भले कहीं से करें अब मुझे महसूस होने लगा है तमाम चीज़ें अपनी उपयोगिकता खो चुकी हैं। कल शाम पढ़ा अख़बार में इक तथाकथित सन्यासी स्वामी जी अपने अनुयाईओं को किसी दल को समर्थन देने की बात समझाते हुए कह रहे थे जाति वर्ग से ऊपर उठकर विचार करो। जबकि वही हमेशा उसी जाति वर्ग की रहनुमाई की बात शान से किया करते थे और कुछ लोग आपसी विवाद सुलझाने को उन्हीं को बुलाया करते थे। विषय उनकी बात या किसी एक घटना को लेकर नहीं है बस मिसाल देने को अभी की बात ध्यान आई है। वास्तव में बहुत कुछ अपना महत्व खो चुका है और धर्म सामजिक संस्थाएं आदर्श नैतिक मूल्य से लेकर देश समाज की ज्ञान की बात इसी गति को पा चुके हैं। मुमकिन है ऐसा मुझे अपनी निराशा के कारण लगता हो। 

  आप फेसबुक पर पढ़ रहे हैं ये बात या व्हाट्सएप्प पर पढ़ते हैं कभी अख़बार मैगज़ीन में पढ़ते थे किताब में पढ़ते थे ध्यान से। अब गंभीर चिंतन नहीं करते लोग सरसरी नज़र डालते हैं जो पोस्ट चार लाइनों की होती हैं पढ़ते हैं विस्तार से लिखी पोस्ट को पढ़ना मुसीबत लगता है क्योंकि पढ़ना अब समझने का मकसद से नहीं बस समय बिताने मनोरंजन को करते हैं। मुझे लगता है पढ़ने का मकसद ही खो गया है। आडंबर बनकर रह गई हैं तमाम संस्थाएं भी चुनाव सरकार सरकारी विभाग संस्थाएं संविधान न्याय देशभक्ति समाजसेवा सभी लगता है मकसद कुछ था और बन कुछ और ही गए हैं। 

     धर्म कितने हैं कोई भी वास्तविक मानवता इंसानियत की बात वास्तव में नहीं सिखलाता है। इक होड़ सी लगी है खुद को अच्छा किसी को खराब साबित करने में , कितनी खेदजनक दशा है ये तो धर्म के खिलाफ है। अपने चोला पहन लिया है उपदेशक संत साधु सन्यासी या कोई धर्मगुरु होने का मगर सब को दुनिया छोड़ने की बात लोभ लालच मोह माया त्याग की बात बताने वाले संचय करने में लगे हैं। पढ़ लिख कर या फिर किसी भी तरह बड़े पद पर बैठकर कर्तव्य की बात भूलकर अधिकार और अहंकार की सोच से खुद को जाने क्या समझने लगे हैं जबकि वास्तव में सब की हैसियत समंदर में बूंद की भी नहीं है और ये बात नेताओं अधिकारियों से लेकर लिखने वाले साहित्यकारों से धनवान लोगों ही नहीं कलाजगत की बड़ी हस्तिओं खेल टीवी अख़बार सभी आदर्शवादी बातें करने वालों पर लागू होती है। हर ज़र्रा खुद को आफ़ताब समझता है।  आधुनिकता ने हमको जितना दिया है उस से अधिक मूलयवान था जो छीन लिया है। हमने जो जो भी जिस जिस मकसद को लेकर बनाया था वही अपने ही मकसद के विपरीत आचरण करता लगता है। जिनका उपयोग करना था हम उन्हीं के हाथ का खिलौना बन गए हैं। आदमी आदमी नहीं सामान बन गया है।

         
    बात कभी सीधी तरह समझ नहीं आती , जब कोई सीमा लांघ जाता है तब सोचते हैं ये कोई सही राह दिखाने वाला नहीं है अपने मकसद को सच को झूठ और झूठ को सच बताता है। आखिर कब तक कोई गुरुआई की आड़ लेकर कमाई की मलाई खा सकता है। देर से ही सही सन्यासी की बात कुछ लोगों को बेहद अनुचित लगी है। कभी कभी कायर लोग भी अपने अस्तित्व की खातिर ख़ामोशी तोड़ने लगते हैं और खलनायक को नायक मानने से इनकार कर देते हैं। ऐसा पहले किया होता तो अपने अस्तित्व पर सवाल खड़ा नहीं होता। मगर चालाक लोग अभी भी कुछ न कुछ तरीका अपनाकर उनको मनवा लेंगे ऐसा कुछ समय का गुबार थोड़ी देर में गुज़र जाता है। जब तक अपने अंदर की ताकत को जगाते नहीं और विवेक से काम लेकर अच्छे बुरे को समझ कर हिम्मत नहीं करते सच्चाई का साथ और झूठ का विरोध करने को तब तक बात बनेगी कैसे। अपने जिस के हज़ार ज़ुल्म ख़ामोशी से सहे आज दर्द से कराह उठे जब सूली पर चढ़ाने की नौबत सामने है। खुद हम बुराई को बढ़ने देते हैं जब पहाड़ बनकर खड़ा होता है कोई तब होश आता है। मगर जब चिड़िया खेत चुग गई तो हाथ मलने पछताने से फायदा क्या। सबसे महत्वपूर्ण बात है हम आदर्श को लेकर नहीं अवसर के कारण खड़े होते हैं जबकि सच और झूठ की लड़ाई हर रोज़ लड़नी होती है। इंसाफ की डगर पर चलना है तो मुश्किलें रोज़ आएंगी और सामना करना होगा। अन्यथा आपको विभाजित करने को उनके पास कई चालें हैं आपको हर चाल को समझना भी होगा और टकराना भी होगा समझदारी से। दीवार से सर टकराने से कुछ नहीं हासिल होता आपको ज़ुल्म की दीवार भले फौलाद की हो उस में छेद दरार कमज़ोर जगह देख उस पर वार करना होगा। ये महत्वपूर्ण बात ध्यान रहे।



              

अक्तूबर 15, 2019

दिल्ली का चोर बाज़ार ( आज की राजनीति ) कटाक्ष - डॉ लोक सेतिया

        दिल्ली का चोर बाज़ार ( आज की राजनीति ) 

                                 कटाक्ष - डॉ लोक सेतिया 

  अपने भी नाम तो सुन रखा होगा , खुलेआम लगता था पुरानी दिल्ली में चोर बाज़ार नाम से सब मिलता था सस्ते दाम पर। आज की राजनीति को समझना चाहा तो याद आई कभी जाकर देखा तो नहीं था। आपको अपना बेहद कीमती अधिकार पांच साल बाद उपयोग करना है मगर आपको खरा सोना तो क्या शुद्ध पीतल भी किसी भी दुकान पर नहीं दिखाई दे रहा। हर दल नकली मिलावटी या इधर उधर से सस्ते दाम खरीदे माल को अपना लेबल चिपका कर आपको बेचना नहीं ठगना चाहते हैं। संभल कर चोर बाज़ार में जेबतराश भी बहुत हैं और चेतावनी भी जगह जगह लिखी हुई है जेबकतरों से सावधान।  चोर बाज़ार अब देश भर में फ़ैल चुका है राजनीति का चोखा धंधा इतना बढ़ता गया है कि चोरी और सीनाज़ोरी यही होने लगा है। चलो आपको शुरू से चोर बाज़ार चोरों की टोली और चोरों के सरदार से अली बाबा चालीस चोर की वास्तविककता बताते हैं।

         तब एकाधिकार जैसा था उनकी धाक थी और गांव शहर उन्हीं का नाम बिकता था। विकल्प तलाश करने की हमारी आज भी आदत नहीं है बिना समझे इस नहीं तो उस को चुन लिया मगर हमारी कसौटी पर खरा कोई भी नहीं उतरा कभी। सब एक थैली के चट्टे बट्टे हैं हमने भी हार मान ली उसी गलती का सिला चुका रहे हैं कभी खुद ढूंढते सच्चे लोगों की कमी नहीं थी मगर हमने कोशिश की ही नहीं अच्छे बुरे की पहचान करने की। ऐसे में गंगा उल्टी बहती रही जनता के चुने लोग कहीं नहीं रहे और तथाकथित ऊपरी आलाकमान की मर्ज़ी के लोग मनोनीत होते रहे। नतीजा लोकतंत्र की जगह चाटुकारिता और मनमानी का बोलबाला होने से तानाशाही फलने फूलने लगी थी। भीड़ की आवाज़ में सच किसी को सुनाई नहीं देता था और धीरे धीरे ये रोग देश से राज्य तक फैलता गया और कुछ लोगों ने देश की आज़ादी और लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था।

       स्थनीय स्तर पर लोगों ने कुछ विकल्प बनाने की कोशिश की तो सत्ता की चाहत ने उनको स्वार्थी बिना विचारधारा के गठबंधन की राजनीति ने भटका दिया और ऐसे दल किसी व्यक्ति की निजि जायदाद बन गए। जो लोग स्वार्थ से साथ जुड़े उनके स्वार्थ समय समय पर बदलते रहे और ऐसा लगने लगा जैसे ये राजनीति काजल की कोठरी है जिस में भीतर जाते ही कालिख लगना नियति है। मगर नहीं देश की चिंता करने वाले लोग अडिग होकर बदलाव की कोशिश करते रहे। एक समय आया जब जनमत ने ख़ामोशी से तानाशाही को हराकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था। मगर उसके बाद सत्ता की चाह ने गठबंधन के धर्म को छोड़कर लालच की राह चल कर जनता को देश को फिर अंधी गली में ला दिया। तब से केवल सत्ता की स्वार्थ की राजनीति ने लोकतंत्र के आसमान को ढक दिया है और उम्मीद की कोई किरण नहीं नज़र आती है।

    हम लोग बार बार रौशनी की खोज करते हैं और किसी को सूरज समझ लेते हैं मगर जैसे ही सत्ता के सिंहासन पर बिठाते हैं वो घना अंधकार साबित होता है। जो रौशनी लाने की बात करता है वही अंधेरे को बढ़ाता जाता है और जितने भी चोर लुटेरे जिस भी जगह होते हैं उनको साथी बनाकर देश के खज़ाने की लूट में शामिल कर लेता है। देशभक्ति ईमानदारी का तमगा लगाकर राजनेता खुद अपने लिए सुख साधन हासिल कर शान से रहते हैं और जनता को अधिकार नहीं खैरात बांटने का आडंबर करते हुए और भी बेबस कर देते हैं क्योंकि उनका शासन कायम तभी रह सकता है।

                                     ( अभी बात अधूरी है )