नवंबर 28, 2022

बेजान बेज़ुबान की बेबसी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     बेजान बेज़ुबान की बेबसी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कितने दिनों से तैयारी चल रही थी जिस खूबसूरत महबूबा की मिलन की अपने चाहने वालों से मगर हम ढूंढते ही रहे उसके निशां तलक नहीं दिखाई दिए । शायद मुझे छोड़ किसी को ज़रूरत ही नहीं थी तभी किसी ने उस के अस्तित्व को लेकर कोई शब्द तक नहीं बोला घंटों इधर उधर की चर्चा करते रहे सभी । जैसे हर कोई अपने आप में गुम हुआ हुआ था , मंच पर बैठे डायस पर खड़े संबोधित करने वाले सभी संवेदनारहित बुत जैसे लगे किसी कठपुतली की तरह धागे कोई और थामे अपने इशारों पर नचा रहा उनको । जिन को लेकर शोर था साक्षात दर्शन करवाते हैं खुद अपने आप को नहीं पहचान सकते थे ऐसा लगा । विवाह समारोह जैसी रौनक लगी थी लेकिन शोक सभा सा मातम छाया हुआ था ख़ुशी की जगह झूठी मुस्कुराहट सिर्फ दिखावे को होंटों पर टांग रखी थी । अभी तक उसके निधन की खबर नहीं सुनी पढ़ी थी फिर ये उदासी हर चेहरे पर क्यों नज़र आ रही थी । अधिकांश उपस्थित लोग अपने अपने स्मार्ट फोन पर सोशल मीडिया कोई गेम खेलने या तस्वीर लेने में व्यस्त थे सभा में बैठे चल रही गतिविधि से अनभिज्ञ अनजान । शायद लोग अपने अपने उद्देश्य से आये थे और इंतज़ार कर रहे थे मकसद पूरा होते जाने की वापस , यहां औपचरिकता निभानी थी बस यही होता रहा । 
 
  बड़े लोग छोटे दिल वाले होते हैं तभी नहीं समझते सोचते क्या बोला जो कदापि नहीं बोलना चाहिए था । कुर्सी पद धन अधिकार का नशा छाया हुआ था । कोई सभा की संख्या कितनी थोड़ी है बता कर खुद मिले करोड़ रूपये की पुरुस्कारों की धनराशि और लाखों की भीड़ की बात करने के साथ किसी और जगह होने वाले आयोजन की आलोचना करते हुए आरोप लगा रहे थे वहां गलत लोग होते हैं शामिल । कोई हद से बढ़कर कहने लगे उनको लोग स्वार्थ मतलब से मिलते हैं जबकि उनको सरकारी पद मिला ही इसी उद्देश्य की ख़ातिर है । छाज तो छाज छलनी भी बोली थी व्यर्थ इतना सब लिखने की ज़रूरत क्या है नासमझ इतना नहीं सोचा कहां किस कारण क्यों पधारे हैं । अजीब विवाह समारोह था दुल्हन का अता पता नहीं था और सभी शुभकामनाएं भी इस तरह दे रहे थे जैसे संवेदना जताने आए हैं । 
 
   ये इक दिन इक शहर की घटना भर नहीं है देश समाज में संविधान धर्म संस्कृति को लेकर जश्न का आयोजन किया जाता है मगर चर्चा होती है मातम की तरह । खुद ही क़ातिल हैं क़त्ल खुद किया जानकार या भले अनजाने में और उसी को ज़िंदा रखने की कसमें खाते हैं । 
   मुझे अपनी ग़ज़ल का शेर याद आया है :-
 
                 ' तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं , मेरी अर्थी को उठाने वाले। '
 
ज़िंदा लाश की तस्वीर पर फूलमाला पहनाना ये कैसी अजीब रिवायत इस दौर की बन गई है ।  
आखिर में इक नज़्म पेश करता हूं । 

बड़े लोग ( नज़्म ) 

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।
 
 
 जिंदा लाश | Hindi Tragedy Poem | Nitu Arora

नवंबर 17, 2022

भारत सरकार को ज़रूरत है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

     भारत सरकार को ज़रूरत है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया 

कितने साल हो गए हैं  देखते सुनते , सोचा ही नहीं समझा ही नहीं भारत देश को आर्थिक दशा भूख गरीबी तमाम जनता की बुनियादी ज़रूरतें ख़्वाहिशें मनोकामनाएं आरज़ूएं सपने पूर्ण करने को आवश्यकता है तो बस इक विभाग की       ' करोड़पति बनने बनाने के खेल की '  अमिताभ बच्चन जी हैं इस सब की परिभाषाएं समझने वाले विभाग उन्हीं के हवाले किया जाना उचित होगा । उनको अगर  सरकार कहेगी तो वो अवश्य मान ही जाएंगे , सदी के महानायक कहलाने वाले । चलो शायद इसी बहाने देश समाज को कुछ वास्तव में सार्थक उन्होंने दिया भी है उसका भी प्रमाण भी उपलब्ध होगा , अन्यथा अभी कोई नहीं जानता उनका देश समाज को सकारात्मक योगदान क्या है । जब भी उनका खेल टीवी पर देखते हैं लगता है हम अपनी दुनिया से अलग किसी दुनिया में हैं जहां सब वास्तविकता से विपरीत सुनहरा रंगीन और लाजवाब है । दर्शक तक जिनको शो में साक्षात दर्शन का सौभाग्य मिल गया होता है अपना जीवन सफल हुआ समझते हैं जिस प्रतिभागी को साहब के सामने बैठने का मौका मिलता है खुद जनाब इशारों में समझाते हैं दुर्लभ है बार बार क्या जीवन में दोबारा नहीं मिलता है । यकीन करें डेढ़-दो घंटे तक सभी सम्मोहित रहते हैं इक जादूगर का जादू अपना असर दिखलाता है तो बाहरी सारी दुनिया व्यर्थ की लगने लगती है । कुछ क्षण कुछ पल सब परेशानियां सारे दुःख दर्द उड़नछू हो जाते हैं । अक्सर लोग कहते हैं अमिताभ बच्चन जी से मिले बात की उनके करीब बैठे स्वर्ग-सुख़ की अनुभूति हो गई उसके बाद कुछ हासिल करने को बचा ही नहीं मगर पैसा फिर भी पैसा है लक्ष्मी का आदर करना चाहिए बस इसी ख़ातिर सवाल जवाब होते हैं अन्यथा तथाकथित हॉटचैयर पर बैठना सिंहासन पर विराजमान होने से कम नहीं है । खिलाड़ी और खेल खिलाना वाला दोनों जतलाते बतलाते रहते हैं कि ऐसा होने से किसी की काबलियत का लोहा मान लेते हैं सभी मान सम्मान प्रतिष्ठा बढ़ जाती है और व्यक्ति सातंवे आसमान पर होने का गर्व गौरव अनुभव करता है । 

  सबकी कहानी अलग अलग मिसाल होती है हर शाम कमाल से बढ़कर कमाल होती है । सबकी मुहब्बत जवान होती है खिला हुआ लाल गुलाब या कोई रेशमी रुमाल होती है । कुछ सवाल पर पर्दादारी है क्या ये खेल सच है फरेब है कोई हक़ीक़त है या छल है कहीं ये कोई लाईजाज रोग है मानसिक बिमारी है । कितने आबाद हुए कितने हुए बर्बाद आज किस की कल किस की आनी बारी है । मुझे ही नहीं मुमकिन है और भी तमाम लोगों को लगता होगा कि हमारी समझ और काबलियत पर सवालिया निशान है आज तलक केबीसी में चयन नहीं होना किसी अवगुण से कम नहीं है । टीवी चैनल और शो प्रस्तुतकर्ता का यकीन है कि हर समस्या का समाधान उनका खेल है देश की जनता की सभी चिंताओं आर्थिक परेशानियों से व्यक्तिगत तक का हल संभव है उनके मायाजाल में शामिल होकर । नौकरी कारोबार नहीं खेल खेल में धनवान बनने की बात होती थी लेकिन आजकल खेल को अलविदा कह चुके खिलाड़ी विज्ञापन से पैसा कमाते हैं और अपने प्रशसंसकों को पैसा बाज़ार की राह दिखलाते हैं और क्या क्या खरीदने को कहते हैं भले उनके घर खाने को दाने नहीं हों अम्मा चली भुनाने कहावत चतिरार्थ करते हैं । देश की महानता सरकारी योजनाओं का गुणगान करने वाले नहीं बताते आज़ादी के इतने साल बाद गरीबी बदहाली क्यों है अधिकांश जनता के लिए जबकि कुछ ख़ास लोगों के लिए धन दौलत नाम शोहरत ऐशो-आराम सब मुंहमांगी मुरादें मिलती हैं । जबकि इन सभी ने कभी शायद केबीसी खेल खेला क्या देखा भी नहीं होगा , तो क्या ये इक छल है झूठा दिलासा झूठे सुनहरे ख़्वाब दिखला कर उलझाए रखने को । 
 
  लेकिन अगर ये रामबाण तरीका है तो चलो यही सही इक विभाग इक मंत्रालय देश की राजधानी से है शहर नगर गांव की गली गली इसका प्रंबध करवा कर नया कीर्तिमान स्थपित किया जाना चाहिए । आधुनिक युग में कुछ भी मुमकिन है संभव हो सकता है इक ऑनलाइन ऐप्प की मदद से । 
 
 यहां हो मछली का निशान तो सम्मान और पैसा दोनों मिलेंगे

नवंबर 08, 2022

काले धन की आत्मकथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       काले धन की आत्मकथा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

मेरा नाम काला है जबकि वास्तव में मैं सबसे खूबसूरत और रंगीन हूं । मैं अजर अमर और हर युग काल देश में रहा हूं और हमेशा रहूंगा कोई मुझे मिटा नहीं सकता है । जिनको मुझसे जितना अधिक प्यार है वही मेरा नाम हर दिन जपते रहते हैं मुझे खत्म कोई नहीं करना चाहता बल्कि सभी मुझसे दिल जान से बढ़कर मुहब्बत करते हैं । जैसे कोई आशिक़ अपनी महबूबा को लेकर आहें भरता है उसको ज़ालिम क़ातिल कहता है मुझे प्यार करने वाले काला धन बर्बाद करता है की रट लगाते हैं लेकिन रात को नींद नहीं आती मेरी चिंता चाहत में जागते रहते हैं । कुछ साल पहले इक शासक को मेरे मोहजाल में इस कदर जकड़ लिया कि उसने इरादा कर लिया सारा का सारा काला धन अपने पास जमा करने का । फरमान जारी हुआ और जिस के पास जितना काला धन अपराध रिश्वत लूट घोटालों से जमा किया हुआ था बदल कर सफेद कर बदलवा दिया । शोर मच गया काला धन ख़त्म हो गया है जबकि मैं ऐसा राक्षस की तरह हूं जिस की हर खून की बूंद से इक नया दैत्य पैदा होता जाता है । 70 साल में जितना काला धन मेरे चाहने वालों की तिजोरियों में जमा हुआ था उस से दस गुणा पिछले सात सालों में इकट्ठा हो गया है और सबसे अधिक उसी के खुद के पास और उसके ख़ास दोस्तों के पास है जिस ने मुझे ख़त्म करने की कसम उठाई थी । झूठी कसमें मुहब्बत में खाना इक पुरानी रिवायत है । काला धन कोयले की खान जैसा है जो सोना बन जाता है बाज़ार में आकर शकल बदल जाती है । काले धन की तस्वीरें सुंदर लगती हैं जब रईस लोग शान से बड़े बड़े मंदिरों में चढ़ाते हैं गरीबों का लहू चूसकर धनवान बनने पर । हर सत्ताधारी शासक की सेज पर दुल्हन बनकर आलिंगन करती हुई भविष्य के दिलकश सपने संजोती हूं अगले चुनाव की रणनीति के रूप में । राजनेताओं धर्म उपदेशकों बड़े बड़े उद्योगपतियों ने मेरा दामन कभी छोड़ा नहीं है । पैसा बाज़ार से मुंबई के मनोरंजन कारोबार तक सिर्फ मेरा ही जलवा दिखाई देता है काला टीका बुरी नज़र से बचाता है इस बात से मेरा महत्व समझ सकते हैं । 

मैंने सिर्फ लिबास बदला है जैसे अभिनेता राजनेता बाहरी आवरण बदलते हैं अंदर से वही रहते हैं झूठे बेईमान और बदचलन बदनीयत इंसान । शराफ़त से मेरा कोई रिश्ता न कभी था न कभी हो ही सकता है शरीफ़ लोग गरीबी और बदहाली का ज़ेवर पहनते हैं चांदी सोना उनकी किस्मत में नहीं होता है । बचपन में इक सहपाठी जिसका रंग सबसे गोरा चिट्टा था सब उसको काला कहकर बुलाते थे क्योंकि उसकी मां ने उसको यही नाम दिया था बुरी नज़र नहीं लगे इस की खातिर । काला धन बदनाम है खराब नहीं है खराब लगता है जब किसी और की जेब में होता है खुद अपनी तिजोरी का काला धन लक्ष्मी बनकर पूजा जाता है । अब की दीवाली भी काले धन वालों की शानदार रही है खूब रौशनी पटाखे और उपहार लेना देना जुआ खेलना शुभ समझते हैं ।
 
 
 black-money

नवंबर 07, 2022

सोच विचार कर , भीड़ बनकर नहीं ( सही-गलत निर्णय ) डॉ लोक सेतिया

सोच विचार  कर , भीड़ बनकर नहीं  ( सही-गलत निर्णय ) डॉ लोक सेतिया 

 इधर तमाम लोग समझते हैं कि मौजूदा शासक पुराने सत्ता के उच्च पदों  पर रहे राजनेताओं नायकों के नाम सड़कों भवनों पर लिखे हुए बदल कर हटवा कर कोई विशेष महत्वपूर्ण सराहनीय कृत्य कर रहे हैं । जबकि अधिकांश ऐसे नाम उनके देश समाज के नवनिर्माण को समर्पण और योगदान को समझते हुए रखे गए थे । किसी राजनितिक लाभ या गुणगान के लिए हर्गिज़ नहीं । अपनी विचारधारा के विरोधी लोगों के नाम अपनी संकीर्ण राजनीती की खातिर बदलने से उन लोगों की छवि को कोई फर्क नहीं पड़ता है बल्कि भविष्य में खुद अपनी मानसिकता को उजागर कर  प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं , कि हमने सत्ता हासिल कर निराशाजनक और नकारात्मक ढंग से कार्यशैली अपनाई थी । क्या खुद आपके पास सार्थक कर दिखाने को कुछ भी नहीं सूझता है ।  

   ऐसे कार्यों का समर्थन करने वाले लोगों ने  पुराने देश को समर्पित राजनेताओं एवं उनके समाज के प्रति सरोकारों को समझे बगैर उनको लेकर संकीर्ण विचार बना लिए हैं  , गहराई तक जाने उस समय की सामाजिक दशा को जाने बिना मनचाहे ढंग से । काश उनको मालूम होता कि देश समाज के हित में क्या ये उचित है कि पुराने बुद्धिजीवी समाजिक  चिंतक विद्वान लोगों की कोशिशों की सराहना करना छोड़ आधुनिक समय की नकारात्मक बातों को उचित ठहराया जाना चाहिए । शायद  बाद में इस सरकार के शासकों को भी पछतावा हो कि पिछले लोगों की आलोचना करने को छोड़ खुद कुछ सार्थक कल्याणकारी कार्य उन्होंने किया ही नहीं है । आजकल के युवाओं को हवा के साथ चलने वालों को धारा के विरुद्ध खड़े होकर बदलाव लाने का मतलब पता नहीं है । जो शासक सत्ता पर काबिज़ होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मर्यादा को नहीं समझता और चाहता है कि कोई विपक्ष रहना ही नहीं चाहिए क्या उसका समर्थन किया जाना देश और संविधान के अनुसार सही होगा अथवा जिस शासक ने अपने कार्यकाल में विपक्ष को आदर देना और महत्वपूर्ण समझा देश को एकता और शांति भाईचारे के मार्ग पर आगे बढ़ना जैसे मूल्यों को अपनाया उसका समर्थक होना चाहिए । सबसे पहला सवाल जिस धार्मिक विचारधारा की बात करते हैं क्या उसी के अनुसार किसी व्यक्ति के ज़िंदा नहीं रहने के बाद उसको लेकर असभ्य और अपमानजनक बातें करना क्या कहलाता है । अपनी सुविधा और साहूलियत से किसी एक को अच्छा और किसी एक को खराब साबित करने का प्रयास जबकि वास्तव में वो दोनों उस समय में साथ साथ मिलकर आपसी राय सहमति से निर्णय करते रहे हों क्या निम्न स्तर की कार्यशैली नहीं है । 

 बात निकली तो सामाजिक राजनैतिक से आगे साहित्य पर भी हुई । साहित्य के भव्य आयोजन का अर्थ उत्कृष्ट साहित्य को बढ़ावा देना नहीं होता है । साहित्य सृजन करने वाले लेखकों को अपने समय की देश समाज की सही तस्वीर दिखलानी चाहिए जबकि कुछ जाने माने ख़ास लोगों ने इस में दोहरे मापदंड अपनाए हैं और धन दौलत नाम शोहरत सत्ता से नज़दीकी हासिल करने को वास्तविकता को उजागर करने का कर्तव्य नहीं निभाया है । उनकी फिल्मों गीतों कथाओं कहानियों ने आम दर्शक को भटकाने का कार्य किया है , आधा सच आधा झूठ मिलाकर वास्तविकता को अफ़साना बना दिया है और जो हक़ीक़त नहीं उसको वास्तविकता बनाकर अपनी लेखनी के साथ अन्याय किया है । सच नहीं लिख सकती जो कलम उसको कागज़ काले करना छोड़ना बेहतर होगा । शिक्षित वर्ग को केवल अपने हित की ही नहीं समाजिक सरोकार की भी चिंता होनी चाहिए और संवेदनशीलता पूर्वक न कि औपचरिक हल्की फुलकी बातें करने तक । काश उनको ध्यान आये कि देश गुलामी की जंज़ीरों से ही नहीं सामाजिक आडंबरों और दिखावे की कुरीतियों से अभी मुक्त नहीं हुआ है और किसी भी राजनेता दल या व्यक्ति की चाटुकारिता स्वयं में इक समस्या है गंभीर सवालात खड़े करती हुई । ग़ालिब के अप्फाज़ में नींद क्यों रात भर नहीं आती । बदलाव होना चाहिए मगर कैसा ये सवाल अवश्य समझना सोचना होगा  , सड़कों इमारतों संस्थाओं के नाम बदलने से देश की तस्वीर नहीं बदलेगी न तकदीर ही बदल सकती है । 



 

नवंबर 01, 2022

बिना शर्त कुछ नहीं कुछ भी ( ज़िंदगी ) डॉ लोक सेतिया

      बिना शर्त कुछ नहीं कुछ भी ( ज़िंदगी ) डॉ लोक सेतिया 

खुदा ईश्वर या विधाता जो भी है इंसान को जन्म देता है मगर बतलाता नहीं उसकी भी शर्त है दुनिया में जितना भी जैसे भी हासिल करते रहना आखिर मौत के बाद कुछ भी किसी का नहीं रहता है । लेकिन पैदा होते ही रिश्तों संबंधों की अनगिनत शर्तें लागू होती रहती हैं और लाज़मी होता है उनको मंज़ूर करना । जन्म देने वाले संतान को पालते हैं बड़ा करते हैं बहुत प्यार से तमाम तरह से शिक्षा विचार से बुद्धिमान शक्तिशाली बनाते हैं मगर साथ साथ इक अंकुश लगा रहता है उनकी बातों को बगैर कोई सवाल किये मानते रहना । बस जहां चुपचाप हां में हां नहीं मिलाई वहीं टकराव की शुरुआत हो जाती है । कोई समझ नहीं पाता है भविष्य में ऐसे कितने नियम कायदे स्वीकार करने होते हैं ज़िंदा रहने को कदम कदम । और ये सब इस तरह चलता रहता है कि इंसान जानता तक नहीं कैसे इक अजब अनचाहे मोहजाल में फंसता चला जाता है और उन सब में खुद का अस्तित्व दिखाई नहीं देता है । अधिकांश सोचते समझते नहीं उनका जीवन क्या है किसलिए जी रहे हैं बस साल दर साल उम्र की सालों की संख्या बढ़ती जाती है जबकि सौ बरस की ज़िंदगी में जिए कभी नहीं होते सही मायने में ।  

आज़ादी शब्द को लेकर इक जाल बुना गया है चालाक लोगों ने शासन करने को सबको गुलामी की जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है । कुछ मुट्ठी भर लोग मनमानी करने ऐशो आराम से शान ओ शौकत से रहने की कीमत भोले लोगों से वसूलते हैं छीनते हैं झूठे वायदे और उनकी देश समाज की भलाई की बातों वाले भाषण देकर । सब नियम सारे कानून संविधान दावा करते हैं अधिकार देने का जबकि दरअसल इसकी आड़ में आपको बेबस और कमज़ोर करते हैं कोई सरकार कोई अदालत कोई सुरक्षा व्यवस्था आपको अधिकार न्याय समानता देने को विवश नहीं है । आपको कायदे नियम पालन नहीं करने पर दंडित करने वाले खुद कर्तव्य नहीं निभाने पर किसी तरह से दंडित नहीं हो सकते हैं । समय बदलता रहता है मगर आम ख़ास बड़े छोटे का भेदभाव नहीं मिटता है । अमीर और अमीर ताकतवर अधिक ताकतवर बनता जाता है और शासक सत्ता बेरहमी से लूट का कारोबार करती रहती है । सामाजिक व्यवस्था समाज की भलाई नहीं करती और परंपराओं की बेड़ियां आदमी को अनचाहे अनुचित बंधनों रीति रिवाज़ों की कैद से मुक्त नहीं होने देती हैं ।
 
किसी आसमान पर कोई भगवान या खुदा ईश्वर है या नहीं लेकिन धरती पर जिसे देखते हैं खुदाई की बात करता है । खुद को साबित करने को कितने हथकंडे अपनाते हैं सभी तथाकथित महान बड़े लोग । माजरा यही समझ नहीं आया किसी को अच्छाई करने वाले को अच्छा कहलाने की चाहत नहीं होती है ।  खराब लोग बुराई करते हैं लेकिन कहलाना भले इंसान चाहते हैं तभी धनवान लोग शासक देशभक्ति का दम भरने वाले धर्म उपदेशक समाजसेवक होते कुछ हैं करते जो भी हैं दिखलाते उसका विपरीत हैं आडंबर करते हैं । लगता है बल्कि यकीनन ऐसा ही हो सकता है कि भगवान ने अपना गुणगान अपनी उपासना इबादत अर्चना की ज़रूरत ही नहीं समझी हो एवं कोई और हैवान जैसा भगवान बनकर अपने खराब कार्यों पर पर्दा डालने का कार्य कर रहा है । अपनी इस दुनिया की हालत देख कर यही लगता है कि यहां शैतान का शासन चलता है हैवान की हैवानियत फलती फूलती है और भलेमानुष लोग बर्बाद होते रहते हैं । शैतान भगवान को असहाय कर मौज मस्ती कर रहा है ।