बेजान बेज़ुबान की बेबसी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
कितने दिनों से तैयारी चल रही थी जिस खूबसूरत महबूबा की मिलन की अपने चाहने वालों से मगर हम ढूंढते ही रहे उसके निशां तलक नहीं दिखाई दिए । शायद मुझे छोड़ किसी को ज़रूरत ही नहीं थी तभी किसी ने उस के अस्तित्व को लेकर कोई शब्द तक नहीं बोला घंटों इधर उधर की चर्चा करते रहे सभी । जैसे हर कोई अपने आप में गुम हुआ हुआ था , मंच पर बैठे डायस पर खड़े संबोधित करने वाले सभी संवेदनारहित बुत जैसे लगे किसी कठपुतली की तरह धागे कोई और थामे अपने इशारों पर नचा रहा उनको । जिन को लेकर शोर था साक्षात दर्शन करवाते हैं खुद अपने आप को नहीं पहचान सकते थे ऐसा लगा । विवाह समारोह जैसी रौनक लगी थी लेकिन शोक सभा सा मातम छाया हुआ था ख़ुशी की जगह झूठी मुस्कुराहट सिर्फ दिखावे को होंटों पर टांग रखी थी । अभी तक उसके निधन की खबर नहीं सुनी पढ़ी थी फिर ये उदासी हर चेहरे पर क्यों नज़र आ रही थी । अधिकांश उपस्थित लोग अपने अपने स्मार्ट फोन पर सोशल मीडिया कोई गेम खेलने या तस्वीर लेने में व्यस्त थे सभा में बैठे चल रही गतिविधि से अनभिज्ञ अनजान । शायद लोग अपने अपने उद्देश्य से आये थे और इंतज़ार कर रहे थे मकसद पूरा होते जाने की वापस , यहां औपचरिकता निभानी थी बस यही होता रहा ।
बड़े लोग छोटे दिल वाले होते हैं तभी नहीं समझते सोचते क्या बोला जो कदापि नहीं बोलना चाहिए था । कुर्सी पद धन अधिकार का नशा छाया हुआ था । कोई सभा की संख्या कितनी थोड़ी है बता कर खुद मिले करोड़ रूपये की पुरुस्कारों की धनराशि और लाखों की भीड़ की बात करने के साथ किसी और जगह होने वाले आयोजन की आलोचना करते हुए आरोप लगा रहे थे वहां गलत लोग होते हैं शामिल । कोई हद से बढ़कर कहने लगे उनको लोग स्वार्थ मतलब से मिलते हैं जबकि उनको सरकारी पद मिला ही इसी उद्देश्य की ख़ातिर है । छाज तो छाज छलनी भी बोली थी व्यर्थ इतना सब लिखने की ज़रूरत क्या है नासमझ इतना नहीं सोचा कहां किस कारण क्यों पधारे हैं । अजीब विवाह समारोह था दुल्हन का अता पता नहीं था और सभी शुभकामनाएं भी इस तरह दे रहे थे जैसे संवेदना जताने आए हैं ।
ये इक दिन इक शहर की घटना भर नहीं है देश समाज में संविधान धर्म संस्कृति को लेकर जश्न का आयोजन किया जाता है मगर चर्चा होती है मातम की तरह । खुद ही क़ातिल हैं क़त्ल खुद किया जानकार या भले अनजाने में और उसी को ज़िंदा रखने की कसमें खाते हैं ।
मुझे अपनी ग़ज़ल का शेर याद आया है :-
' तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं , मेरी अर्थी को उठाने वाले। '
ज़िंदा लाश की तस्वीर पर फूलमाला पहनाना ये कैसी अजीब रिवायत इस दौर की बन गई है ।
आखिर में इक नज़्म पेश करता हूं ।
बड़े लोग ( नज़्म )
बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और
आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।
इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे
किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।
दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे
ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।