जून 28, 2023

ज़माने तुझे सच दिखाएं तो कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 ज़माने तुझे सच दिखाएं तो कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  ' तनहा ' 

ज़माने तुझे सच दिखाएं तो कैसे 
सियासत है कैसी बताएं तो कैसे । 
 
हुए हम भी बर्बाद बेचैन तुम भी 
ये इल्ज़ाम किस पर लगाएं तो कैसे । 
 
सभी मर चुके हैं कहां जी रहे हैं 
हैं अहसास मुर्दा जगाएं तो कैसे । 
 
चली तेज़ आंधी यहां नफरतों की 
सबक प्यार वाला पढ़ाएं तो कैसे । 
 
वो आवाज़ देने लगी फिर सुनाई 
उसे पास फिर से बुलाएं तो कैसे ।
 
नहीं भूल पाए मुहब्बत तुझे हम 
बताओ तुम्हें भूल पाएं तो कैसे । 
 
अकेले खड़े बीच बाज़ार  ' तनहा '   
है जाना किधर और जाएं तो कैसे । 
 

 



 

जून 27, 2023

ख़्वाब में कौन मुझको है देता सदा ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 ख़्वाब में कौन मुझको है  देता सदा  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

ख़्वाब में कौन मुझको है देता सदा 
है वफ़ा कुछ नहीं है जफ़ा का मज़ा । 
 
प्यार करना बड़ा जुर्म साबित हुआ 
बज़्म में लोग सारे हैं मुझसे खफ़ा । 
 
चारागर ज़ख्म पर ज़ख़्म देने लगे 
दर्द की कौन देता किसी को दवा । 
 
इस जगह मत करो बात इंसाफ़ की 
ज़ुल्म ढाती सियासत की हर इक अदा । 
 
कौन थे वो जिन्हें मंज़िलें मिल गईं 
सब रहे पूछते रास्तों का पता । 
 
क्या बताएं कि अच्छा बुरा कौन है
कह रहे हैं सभी हम यहां के ख़ुदा । 
 
फ़लसफ़ा ज़िंदगी का है ' तनहा ' नया 
हम वफ़ादार हैं आप सब बेवफ़ा ।  
 

 

जून 26, 2023

सुनो गर दास्तां तुमको सुनाएं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' { 1973 की लिखी अपनी पहली ग़ज़ल को सुधारा है फिर से }

     सुनो गर दास्तां तुमको  सुनाएं  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

सुनो गर दास्तां तुमको सुनाएं  
तुम्हें हम मेहरबां अपना बनाएं ।

नज़र आये नया कोई  सवेरा   
डराने लग गई काली घटाएं ।
 
सभी इंसान हों इंसानियत हो   
यही मज़हब चलो अपना बनाएं ।  
                                           
है दिल ऊबा हुआ तनहाइयों से
कोई अपना मिले घर पर बुलाएं ।

हमें रुसवा नहीं करना है उनको  
किसी को ज़ख्म कैसे हम दिखाएं ।

चलेंगे साथ मिलकर ज़िंदगी भर  
सभी शिकवे गिले हम भूल जाएं ।

तुम्हारा साथ मिल जाए हमें तो
मुहब्बत क्या ज़माने को दिखाएं । 




जून 22, 2023

अंधेरों में शमां रौशन करेंगे हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

  अंधेरों में शमां रौशन करेंगे हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

अंधेरों में शमां रौशन करेंगे हम 
चढ़ा दो आप सूली पर चढ़ेंगे हम । 
 
बड़ा ही बेरहम बेदर्द ज़ालिम है 
जो है क़ातिल मसीहा क्यों कहेंगे हम ।  

नहीं पीना दवा के नाम पर विष को 
नहीं बेमौत ऐसे तो मरेंगे हम । 

किसी आकाश से मांगे इजाज़त क्या 
परों को खोलकर अपने उड़ेंगे हम । 
 
समझने लग गया जैसे ख़ुदा तू है 
तुम्हारे इस सलीके पर हंसेंगे हम ।
 
है बढ़ते कारवां को रोकना मुश्क़िल 
जंज़ीरें तोड़ कर अपनी चलेंगे हम । 
 
नहीं तूफ़ान से डरता कभी ' तनहा '
बदलते मौसमों से क्या रुकेंगे हम ।   




 

जून 18, 2023

कला के सौदागर ( बहती गंगा में नहाना ) डॉ लोक सेतिया

     कला के सौदागर ( बहती गंगा में नहाना ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने टीवी चैनेल पर खबरें देखना छोड़ दिया है , जब से उनका मकसद विज्ञापन और अनावश्यक राजनीति धर्म की बहस में उलझा कर दर्शकों को वास्तविकता से भटकाए रखना बन गया है । ' बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते  , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते '। मेरी ग़ज़ल का मतला है  , कभी कभी कोई आपदा विपदा घटना दुर्घटना की जानकारी पाने को टीवी चैनेल पर नज़र चली जाती है कुछ ऐसा ही हुआ कल तो ख़बर पता चली कोई फ़िल्म बनी है भगवान राम को लेकर । एंकर और फ़िल्मकार लगा जैसे इक प्रियोजित बहस का आनंद उठा रहे हैं क्योंकि सबकी बोलती बंद करवाने वाली एंकर खुद थोड़ा नाप तोलकर बोलती दिखाई दी पहली बार । जिस पर फ़िल्म में अनुचित शब्दों का उपयोग करने के आरोप की चर्चा हो रही थी उसका रुख आक्रामक और चोर मचाए शोर की बात को चरितार्थ करता लगा । खुद ही अपना गुणगान करने लगे ये कहकर की उन्होंने क्या खूबसूरत गीत लिखे हैं पंक्तियां बोलीं तो हैरान हुआ कि कई बड़े पुराने गीतों में उपयोग किये शब्दों को अदल बदल कर अपने मौलिक घोषित करने की कोशिश है । अधिक सफाई देने वाले अक़्सर गुनहगार होने का आभास करवाते हैं । कोई बात नहीं ये कोई वास्तविक गंभीर विषय नहीं है असली बात कुछ और है कि वो जनाब अपनी फ़िल्म की आलोचना करने वालों को घोषित कर रहे थे ये वही लोग हैं जो भगवान राम को मानते नहीं हैं आदि आदि । अर्थात टीवी स्टुडियो में बैठ कर आप अपनी बात की सफाई नहीं दे कर आरोप लगाने वालों पर लांछन लगाने की बात कर रहे थे । उनको गर्व था जिस भी किरदार को महान या नीचा दिखाना चाहें उनका अधिकार है लेकिन उनको कोई ये नहीं पूछता कि फिर आप कोई नई कथा कहानी क्यों नहीं लिखते किसलिए पुरानी लिखी हुई कथाओं से जो जहां से आपको सुविधा जनक लगी उठा ली और कह दिया कथावाचकों से रामलीला से आपने ऐसा सुना हुआ है । ये कमाल की बात है अजीब तौर है कि आप आरोपी भी गवाह भी और वकालत से लेकर फैसला करने वाले न्यायधीश भी खुद ही बन बैठे । यही चलन सबसे ख़तरनाक है जो इधर चल पड़ा है ।  
 
आजकल बड़े बड़े कलाकार सत्ता की चौख़ट पर गर्दन झुकाए अनुकंपा की आस लगाए हैं मगर नहीं जानते कि सत्ता कभी किसी पर रहम नहीं करती है आज किसी की बारी है तो कल आपकी भी बारी आएगी । जो आज किसी शासक को बड़ा साबित करने को पिछले शासक को बौना साबित करने को साहित्य और इतिहास से छेड़छाड़ करते हैं क्या कल उनकी लिखी बात कोई बदलेगा कभी तो खुद वो भी शासक के साथ कटघरे में खड़े नज़र नहीं आएंगे । सच लिखना साहस का काम है चाटुकारिता तो ग़ुलामी की निशानी है । कला को बेचने वाले अभिनेता लेखक फ़िल्मकार खुद को बड़ा छोटा बना लेते हैं चंद सोने चांदी के सिक्कों या कोई ईनाम पुरूस्कार पद की लालसा में । वास्तविक मकसद छूट जाता है समाज को सही मार्गदर्शन देने का , क्या कल्पना लोक की कथाओं कहानियों जैसे झूठे किरदार दिखला कर दर्शकों का मनोरंजन कर रहे हैं या उनको गुमराह कर रहे हैं । धार्मिक कथाओं ने लोगों को कायर बना दिया है और सभी अन्याय अत्याचार ख़ामोशी से सहते हैं ये मानकर कि कोई मसीहा आएगा उनको इंसाफ़ दिलाने और बचाने इक दिन । रावण की कमियां ढूंढना चाहते हैं तो राम को भी कसौटी पर खरा साबित करने की कोशिश करते , क्या पत्नी की अग्निपरीक्षा और त्याग करना  बन भेजना राजा या पति का न्याय होना चाहिए । आज इनकी उपयोगकिता कितनी है और आधुनिक संदर्भ में कितनी सार्थक है । अपने समय की बात को भूलकर पुरातन काल के यशोगीत गाना भविष्य को संवारता नहीं है जानते हैं इतना सभी लोकतंत्र में जनता की छोड़ शासक की बात करना किसी अपराध से कम नहीं है । कल्पनाशीलता का आभाव है जो आप अपने इस  समय की बात कहने का साहस तक नहीं करते और खुद भी उलझे हुए हैं सबको उलझाने की कोशिश करते हैं ।  
 
सबसे अधिक विडंबना की बात ये है कि अभिनेता खिलाड़ी धर्म-उपदेशक  फ़िल्मकार संगीत निर्देशक से समाजसेवक तक सभी पर्दे पर सार्वजनिक मंच पर जो किरदार दिखाई देता है वास्तविक जीवन में उस के विपरीत आचरण करते पाए जाते हैं तब भी शर्मसार नहीं होते है । कभी साहित्य राजनेताओं को गिरने से संभालता था सभी ने सुना होगा इक दिन इक बड़े राजनेता सत्ता के भवन की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते गिरने लगे तब इक जाने माने साहित्यकार ने उनको थाम लिया था , धन्यवाद करने लगे तो लिखने वाले ने कहा था ये तो उनका कार्य ही है जब भी राजनीति फ़िसलती है साहित्य उसको संभालता है । अब वो बात नहीं है शायद उल्टा होने लगा है राजनीति ने साहित्य को अपने माया जाल में उलझा दिया है । आधुनिक फिल्म टीवी सीरियल आपको आदर्शवादी नहीं बनाते बल्कि हिंसक और चरित्रहीन बनाने का कार्य करने लगे हैं । आजकल इनको नंगा होने पर शर्म नहीं आती नग्नता को अपनी पहचान बना उस पर गौरान्वित हैं । कभी किसी ने सोचा तक नहीं कि क्यों आधुनिक काल की वास्तविक समाजिक समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं पर कोई उपन्यास कोई कहानी कोई फिल्म कोई टीवी सीरियल बनाया नहीं जाता है । कितना बासी भोजन कब तक परोसा जाता रहेगा और देश समाज को और बीमार करते रहेंगे । 
 


 

जून 11, 2023

ये दिल हर किसी को दिखाएं तो कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 ये दिल हर किसी को दिखाएं तो कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ  लोक सेतिया ' तनहा '

ये दिल हर किसी को दिखाएं तो कैसे
है वीरान कितना , बताएं तो कैसे ।

हमीं जब नहीं ख़ुद मुहब्बत के काबिल 
नज़र को नज़र से मिलाएं तो कैसे ।

कहां ढूंढते हो फ़रिश्ते ज़मीं पर 
ज़मीं आस्मां पास आएं तो कैसे ।
 
यही आख़िरी सांस हम जानते हैं 
किसी चारागर को बुलाएं तो कैसे । 
 
ख़ुदा से ख़ुदाई नहीं मांगते हम
हां उन से रसाई भी पाएं तो कैसे ।  

घड़ी आ गई जब विदा हो रहे हैं 
बताओ ज़रा मुस्कुराएं तो कैसे । 

जिसे भूलना लाज़मी शर्त ' तनहा '
कहानी वो सबको सुनाएं तो कैसे । 





जून 10, 2023

ज़हर खुद ही आकर पिला दे कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

   ज़हर खुद ही आकर पिला दे कोई  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

ज़हर खुद ही आकर पिला दे कोई
मुहब्बत करने की सज़ा दे कोई ।
 
नहीं कोई शिकवा ग़मों का फिर भी 
कहां रहती खुशियां बता दे कोई । 
 
गुज़ारी हमने उम्र हंसते गाते 
रहें चुप हम कैसे सिखा दे कोई । 
 
मेरे सीने में आग जलती कब से 
कभी आ कर उसको बुझा दे कोई । 
 
यही दिल की इक आरज़ू है बाक़ी 
मुझे गा कर लोरी सुला दे कोई । 
 
अंधेरों ने बर्बाद कर दी दुनिया 
बुझे सारे दीपक जला दे कोई । 
 
लिखा जो तुमने उम्र सारी ' तनहा '
नहीं कोई पढ़ता मिटा दे कोई । 
 

 
 


जून 08, 2023

कौन किस तरह जीता , सोचता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

   कौन किस तरह जीता , सोचता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया ' तनहा '  

कौन किस तरह जीता , सोचता कोई नहीं 
बदनसीब जनता को  , देखता कोई नहीं । 
 
हाथ जोड़ कर तुम सरकार से खैरात लो 
लूट को अमीरों की रोकता कोई नहीं । 
 
अब नहीं मिलेगा उनको खुला आकाश जब 
पर उड़ान भरने को खोलता कोई नहीं ।  

छटपटा रहे जकड़े बेड़ियों में लोग हैं
कुछ रिवायतों को अब तोड़ता कोई नहीं । 

कौम के मुहाफ़िज़ होते नहीं ऐसे कभी 
बेज़मीर सारे सच बोलता कोई नहीं । 
 
दौर नफ़रतों का ऐसी सियासत देश की 
चोर सब सिपाही हैं मानता कोई नहीं । 

देशभक्त होने का टांग तमगा जो लिया 
कौन दे गया  ' तनहा ' पूछता कोई नहीं । 




 

ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है 
हो गई हर दास्तां ख़ामोश है । 
 
रात जैसे दिन हैं सभी लगने लगे 
हो गया अपना जहां ख़ामोश है । 
 
बात करने को कई दिल में अभी 
हम भी चुप वो मेहरबां ख़ामोश है । 
 
हैं बड़े साये नहीं आवाज़ पर 
चुप ज़मीं है आस्मां ख़ामोश है । 
 
सरसराहट सी सुनी हमने यहां 
हर गली हर इक मकां ख़ामोश है ।
 
धूल भी होने लगी बेचैन क्यों 
रास्ते का कारवां ख़ामोश है । 
 
तोड़ दिल को पूछते ' तनहा ' बता
हो गया क्यूं जानेजां ख़ामोश है ।     
 
 ख़ामोशी पर शायरी की २० मशहूर शेर | रेख़्ता


जून 07, 2023

हुनर है अपना सभी नाज़ उठा लेते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

 हुनर है अपना सभी नाज़ उठा लेते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

हुनर है अपना सभी नाज़ उठा लेते हैं 
कहीं भी कोई मिले दोस्त बना लेते हैं । 
 
हसीन वादी में हमसफ़र मिले कोई गर 
तो रेगिस्तान में फूल खिला लेते हैं । 
 
उठा दुआ के लिए हाथ नहीं कुछ मांगा 
नसीब बिगड़ा हुआ खुद ही बना लेते हैं । 
 
जिन्हें अकेले में जीने का सलीका आता 
वो लोग ख़्वाबों की दुनिया को सजा लेते हैं । 
 
कभी हमारी वफ़ा को भी परखना इक दिन 
रस्म मुहब्बत की हर एक निभा लेते हैं । 
 
कहीं किसी से मिलें मिल के मुस्कुराते हैं 
ये अश्क़ अपने ज़माने से छुपा लेते हैं । 
 
कभी भी बेदर्द मत तुम बन जाना ' तनहा '
यकीन करते हैं तुम से जो दवा लेते हैं । 
 
 बंजर रेगिस्तान में खिले इतने सारे दुर्लभ फूल, कुदरत का करिश्मा या वजह कुछ  और? - South Africa Dessert Namaqualand Flower Show In Dessert - Amar Ujala  Hindi News Live
 
 

जून 06, 2023

ग़ज़ल पहले प्यार की ( नहीं कहते ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

   ग़ज़ल पहले प्यार की ( नहीं कहते ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

दिल धड़कने को मुहब्बत नहीं कहते 
सर झुकाने को इबादत नहीं  कहते ।  
 
गर कभी तकरार हो दोस्ती में तब 
भूल जाते हैं अदावत नहीं कहते । 
 
दिल लगाना दिल्लगी मत समझ लेना 
साथ रहने को ही उल्फ़त नहीं कहते । 
 
बेक़रारी ख़त्म होती नहीं मिलकर 
चैन आ जाए तो राहत नहीं कहते । 
 
प्यार को दुनिया ख़ता मानती क्यों है 
है दिलों की उनकी चाहत नहीं कहते । 
 
दूर होने से वफ़ा और कम नहीं होती 
हो गई उनसे है नफ़रत नहीं कहते । 
 
ये मुहब्बत इक तराना सुनो ' तनहा '
हर फ़साने को हक़ीक़त नहीं कहते । 
 
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जून 05, 2023

एक दिन ज़िंदगी मुझे दे दे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

        एक दिन ज़िंदगी मुझे दे दे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

एक दिन ज़िंदगी मुझे दे दे 
पल दो पल की ख़ुशी मुझे दे दे । 
 
क्यों है रूठी नहीं पता मुझको 
कुछ तेरी बंदगी मुझे दे दे । 
 
प्यार बिन कुछ कभी नहीं मांगा 
सब नहीं इक वही मुझे दे दे । 
 
राह सच की नहीं है आसां पर 
चल सकूं दिल्लगी मुझे दे दे । 
 
लोग अपने हैं देश अपना सब 
आशिक़ी इक यही मुझे दे दे ।
 
जिस से सारा जहां रहे रौशन 
सुरखुरु रौशनी मुझे दे दे । 
 
सबको खुशबू सदा मिले जिस से
फूल सी ताज़गी मुझे दे दे ।
 
लोग मेरी हंसी उड़ाते हैं 
और दीवानगी मुझे दे दे । 
 
बस ये हसरत बची हुई ' तनहा ' 
कुछ न दे सादगी मुझे दे दे । 



 
 
 

जून 03, 2023

बेख़बर हैं कुछ ख़बर ही नहीं ( ख़ामोश दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

  बेख़बर हैं कुछ ख़बर ही नहीं ( ख़ामोश दास्तां ) डॉ लोक सेतिया 

आज सुबह की ही बात है पार्क में सैर करते करते किसी को कहते सुना देश अमुक अमुक के शासन के बाद तरक़्क़ी करने लगा है नहीं तो उनसे पहले इतने सालों में कुछ भी नहीं किया गया था । उन्होंने जो संख्या बोली थी उसको नहीं शामिल किया क्योंकि खुद बोलने वाले को समझ नहीं थी कि कुछ साल उनकी घोषित गिनती के उन्हीं के शासन का भी कार्यकाल है जिनको वे अच्छे नहीं बल्कि इक वही अच्छे बाक़ी सब बेकार बताने की कोशिश कर रहे थे । बेशक उनकी उम्र अभी अधिक नहीं शायद चालीस के करीब होगी अर्थात उनको देश समाज की समझ साधारण तौर से अनुमान लगाएं तो पिछले बीस साल से खुद अपने अनुभव से हासिल हुई होगी उस से पहले की जानकारी उन लोगों से मिली होगी जिन से उनका मेल जोल और नाता रहा होगा । उनके जन्म लेने से पहले तीस या पैंतीस साल में देश आज़ादी के बाद किस तरह था और किस किस ढंग से कितनी मुश्किलों और कोशिशों से भविष्य की बुनियाद की कल्पना की गई और उसे साकार करने को देश की जनता सामान्य नागरिक से लेकर मज़दूर किसान शिक्षक वैज्ञानिक और कारीगर से सर पर बोझ उठाने वाले अनपढ़ लोगों डॉक्टर्स सभी स्वास्थ्य सेवा करने वाले वैद हकीम जैसे अनगिनत काम करने वालों की लगन और महनत का नतीजा है जिस देश में सुई तक नहीं बनती थी सब करना संभव हुआ तो कैसे । ये सब हुआ क्योंकि जो भी शासक लोकतांत्रिक व्यवस्था से निर्वाचित हुए उन्होंने अपना कर्तव्य यथासंभव निभाया और जो करने को उनको नियुक्त किया गया था उस पर सही साबित होने का भरसक प्रयास किया । गलतियां होती हैं और शासक हो या कोई भी प्रशासक सभी से होती हैं मगर उनको स्वीकार करना उनको ठीक करना एवं भविष्य में नहीं दोहराना ये ज़रूरी होता है समाज को बेहतर बनाने को । यहां इस बात का उल्लेख इस कारण किया जाना अतिआवश्यक है क्योंकि देश की आज़ादी से 1947 से 1975 तक सत्ता पक्ष की आलोचना उनकी नीतियों का विरोध करना कोई मुश्किल कार्य नहीं था बल्कि अधिकांश समय तक विपक्ष के विरोध की बात को आदर देना और महत्वपूर्ण समझना इक लोकतांत्रिक परंपरा थी । देश का प्रधानमंत्री संसद में खुद वरोधी दल की बात को सुनते थे और इतना ही नहीं जब कभी किसी जनसभा में भाषण देते तब उपस्थित जनता से अनुरोध किया करते थे कि भले हमारे विचार अलग अलग हैं लेकिन उनकी सभा में उनकी बात भी अवश्य जाकर सुनिए वो बड़े लाजवाब व्यक्ति हैं । आज शायद बहुत लोगों को इस पर विश्बास ही नहीं होगा लेकिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी बाजपेयी जी जैसे कितने नेताओं को लेकर ऐसा सदन में और चुनावी सभाओं में कहा जाता रहा है । आपको इस बारे में 11 साल पुरानी पोस्ट मिल जाएंगी जो आपको ये भी समझने को विवश करेंगी कि लेखक किसी का प्रशंसक या समर्थक नहीं है न ही किसी का विरोधी है समाज की बात कहता है  और जब जिस समय जैसा सामाजिक माहौल रहा उस पर निष्पक्षता से मत प्रकट करता रहा है । अब असली बात कब क्या हुआ और कब क्या नहीं हुआ होना चाहिए था बड़े संक्षेप में । 
 
1951 का जन्म है मेरा आज़ादी के करीब चार साल बाद का  1973  तक स्कूल कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म कर आयुर्वेदिक डॉक्टर बनकर दिल्ली में अपनी प्रैक्टिस शुरू की थी । बीस साल का युवक देश की राजधानी में रहते देश की समाज की बातों को समझने लगा और तमाम कारणों से कुछ बदलने की कोशिश करने की चाहत मन मस्तिष्क में आने लगी और पैसा नाम शोहरत की दौड़ को इक तरफ छोड़ अपनी अलग राह चल पड़ा । लेखक होना है ये सोचा ही नहीं जानता ही नहीं था बस विचार अभिव्यक्त करता कलम उठाता और कभी कोई पत्र किसी सामाजिक विडंबना पर किसी जनसमस्या पर लिख संबंधित विभाग को भेजता और कभी अपना काम छोड़ सामाजिक उद्देश्य से सरकारी दफ़्तर जाकर चर्चा करता शिकायत करता और तब तक लगा रहता जब तक कुछ ठीक नहीं हो जाता । ये कहना ज़रूरी था कि पढ़ लिख कर विवेकशील बन कर परिपक्व होने पर तर्कसंगत ढंग से आप सही और गलत की परख कर सकते हैं । सुबह सैर पर जिस ने कहा था पहले कुछ भी नहीं था , सुनते ही मैंने जवाब दिया था अच्छा मज़ाक है । पलटकर उस ने पूछा क्या मतलब , मैंने कहा बढ़िया है । मुझे नहीं पता वो कौन है कभी उनसे कोई परिचय हुआ हो ध्यान नहीं इसलिए अधिक कहना उचित नहीं था लेकिन घर आकर सोचना ज़रूरी लगा कि क्या वास्तव में इतने साल कोई उन्नति नहीं हुई और मैं डॉक्टर कोई इंजीनीयर कोई वैज्ञानिक कोई अर्थशास्त्री कोई वकील कोई सरकारी अफ़्सर कोई कितने बड़े उद्योग का मालिक बन सका । हम सभी की पढ़ाई लिखाई और कुछ बनने में देश और समाज का कितना बड़ा योगदान है शायद इस बेहद महत्वपूर्ण सवाल पर हमने विचार ही नहीं किया । मुझे याद है सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ पाक्षिक पत्रिका के हर अंक में यही सवाल उठाते थे , क्या आपको देश समाज ने जितना दिया आप उसे उतना तो क्या कुछ भी निःस्वार्थ लौटाना चाहते हैं । ये मेरा लेखन उसी दिशा में उठाया इक कदम है अपने देश समाज को संभव हो तो कुछ क़र्ज़ चुकाना कुछ कोशिश करना उसको बेहतर बनाने की । 
 
इक गांव में रहते थे जहां पहली बार इक स्कूल खुला था पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई और एक अध्यापक जिन्होंने अपना शहर छोड़ परिवार सहित गांव में सरकारी स्कूल के अध्यापक की नौकरी स्वीकार की जबकि ऐसा करना उनकी आर्थिक सामाजिक विवशता नहीं थी । मास्टर गुलाबराय जी अगर बहुत कठोर परिश्रम नहीं करते तो मुमकिन था हम जो डॉक्टर बैंक अधिकारी से न्यायधीश तक बन गए उस गांव में पढ़कर कभी नहीं संभव होता क्योंकि शायद ही शिक्षा का महत्व हमारे माता पिता समझते थे । जिस देश में शिक्षा का साधन नहीं कोई स्वास्थ्य सेवा नहीं पीने को पानी नहीं कोई सड़क नहीं बिजली नहीं कोई यातायात की सुविधा नहीं थी आज़ादी के बाद उन ऐसे लाखों गांवों का भारत देश अगर तमाम साधन सुविधाओं से और खेती की आधुनिक शैली साधन सुविधाओं से परिपूर्ण है अधिकांश तो क्या ये कोई आसान कार्य रहा होगा ये निर्माण करने का इक गरीब देश के लिए । हम देश की राजनीति के पतन की मूल्यविहीन और भ्र्ष्ट होने की चर्चा करते हैं लेकिन खुद अपने दायित्व की देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सही बनाए रखने को अपने वांछित योगदान की बात पर विचार विमर्श नहीं करते । स्वीकार करना होगा कि हम जिसे सुधार सकते थे उसे बद से बद्त्तर बनाने में मूकदर्शक या सहभागी रहे हैं । और अभी भी हम देशसेवा और देशभक्ति और अपने शासकीय धर्म का पालन नहीं करने वाले सत्तालोभी राजनेताओं को महान घोषित कर झूठ को सिंहासन पर बिठाना चाहते हैं देश समाज से अधिक किसी दल या व्यक्ति को समझना देश की आज़ादी और संविधान की अवहेलना करना है । कोई बुद्धिहीन ही कह सकता है कि देश में कितने बड़े बड़े अस्पताल विश्वविद्यालय आई आई टी संसथान से बांध सड़कों और नहरों का जाल देश के हर राज्य के कोने कोने तक स्कूल कॉलेज कोई गणना नहीं परमाणु बंब से आधुनिक अस्त्र शस्त्र तक और तकनीकी तौर पर विश्व में सब देशों के बराबर प्रगति करने का काम हुआ ही नहीं । 
 
लेकिन सब अच्छा हुआ बढ़िया हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता है , गांधीवादी विचारधारा को छोड़ गांव के भारत को अनदेखा कर शहरीकरण को अपनाना सही नहीं था आसान लगा लेकिन कोई नहीं जानता उस की कितनी बड़ी कीमत हमने चुकाई है पर्यावरण से लेकर नदियों तक को प्रदूषित कर समाज को इक ऐसी दलदल में पहुंचा दिया है कि अब चाहें भी तो फिर से सब सही नहीं किया जा सकता है । राजनेताओं और सभी राजनैतिक दलों ने देश और संविधान के साथ जघन्य अपराध किया है देश की आधी आबादी की गरीबी भूख और धनवान लोगों उद्योगपतियों द्वारा उनके शोषण को बढ़ावा देने का कार्य करना अपराधी और धनवान लोगों की कठपुतलियां बनकर रह जाना । बुद्धिजीवी अख़बार टीवी चैनल से सिनेमा जगत और कलाकार तक समाज को आईना दिखाने उनको वास्तविकता से परिचित करवाने की जगह अपने स्वार्थों में लिप्त होकर इक और ही दिशा में दौड़ते भागते नज़र आते हैं । मार्गदर्शन करना छोड़ भटकाने का कार्य कर समाज को इक ऐसी गहरी खाई में ला खड़ा किया है जहां उनको खुद अपनी शक़्ल की पहचान नहीं होती है उनकी वास्तविकता छुपी हुई है और जो सामने दिखाई देता है वो झूठा कल्पनिक ऐसा किरदार है जीना उनके असली जीवन से कोई तअलुक्क ही नहीं है । समाजवाद की राह से भटक कर हमने पूंजीवादी व्यवस्था का पल्लू थाम लिया और इक कागज़ की नाव पर महासागर लांघने का ख़्वाब बुनने लगे हैं । सबको जगमगाती रौशनियां आकर्षित करती हैं लेकिन चकाचौंध रौशनी के पीछे कितना अंधेरा है कोई नहीं जानता जैसे मृगतृष्णा के शिकार हो गए हैं तमाम लोग चमकती रेत को पानी समझ दौड़ रहे हैं प्यास नहीं बुझेगी प्यासे मरने तक ये सिलसिला चलेगा ।   
 
 


  
 

जून 01, 2023

फ़क़ीर से अमीर होने तक ( बेढंगी चाल ) डॉ लोक सेतिया

   फ़क़ीर से अमीर होने तक ( बेढंगी  चाल )  डॉ लोक सेतिया 

आपने हम सभी ने सोशल मीडिया पर अनगिनत वीडियो या अन्य संदेश देखे सुने पढ़े शायद समझे भी होंगे , किसी किताब में भूल जाने और क्षमा करने की भी बात अवश्य पढ़ाई गई होगी पर क्या वास्तव में ऐसा संभव है कोई नहीं जानता है । बचपन में जाने कौन सी किताब थी जिस में कुछ अलग ढंग से कहानी की तरह समझाया गया था कि सफलता पाने को लोभ लालच में अंधे होकर या विवेकहीन होने पर व्यक्ति उचित अनुचित की परवाह नहीं कर जो भी चाहते हैं हासिल करने को सब कर गुज़रते हैं । देश राज्य समाज में प्रतिष्ठा मिल जाती है लोग झुक कर सलाम करते हैं मगर कभी कभी दिन में इक पल को अथवा रात को नींद से जाग कर अनजाना सा डर सताता है । कभी सपना आता है जितना हासिल किया धन दौलत ज़मीन जायदाद सब जैसे किसी कारण समाप्त हो गए हैं और कभी ये सपना आता है जिन गुनाहों का किसी और को तो क्या खुद को पता नहीं था कि अपने कारण कितने लोगों की ज़िंदगी का सब सुःख चैन लुट गया उनका सबको पता चल गया और छुपते फिरते हैं जगह नहीं मिलती है । ये इक अपराधबोध होता है जिस के साथ जीना सर पर भारी बोझ की गठड़ी की तरह है जो अनुचित तरीके से कमाई है मूलयवान है फैंक नहीं पाते और साहस ताकत नहीं उठा इक कदम आगे बढ़ाने को क्योंकि आत्मा खुद को कचौटती रहती है । ज़िंदगी का सफ़र कुछ ऐसा ही है कोई फ़क़ीर से अमीर होना चाहता है फिर इक दिन अमीर से फ़क़ीर बनना भी चाहे तो ज़मीर पीछा नहीं छोड़ता है ।
 
बात को अन्यथा और व्यक्तिगत नहीं लें निवेदन है ये अधिकांश होता है मन अपने भीतर की भावनाओं से नज़रें चुराता है और व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण करता है । किसी को लूटकर फिर धार्मिक कर्म दान करना धोखा दे कर किसी मंदिर मस्जिद जाकर भूल की माफ़ी मांगना वास्तव में सिर्फ आडंबर होता है क्योंकि फिर वही बार बार दोहराते हैं अपना स्वभाव नहीं बदलते हैं । विचार करें अगर मैंने आपको घायल किया हो अकारण आपका नुकसान किया हो अपनी किसी ज़रूरत की खातिर और आप बेबस हो सब चुपचाप सहते रहे हों तब मुझे धार्मिक अनुष्ठान मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे जा पूजा पाठ करते देख क्या अनुभव करेंगे । जिस को इंसान में ईश्वर नहीं दिखाई देता उसको धार्मिक विचार नैतिक आदर्श मूल्यों से कोई मतलब नहीं होता है । आस्तिक होने भगवान पर विश्वास रखने के लिए किसी पूजास्थल किसी तीर्थ यात्रा की आवश्यकता नहीं , सब जानते हैं मन चंगा तो कठोती में गंगा । विश्लेषण करें तो समझ आएगा जितना समाज में ईश्वर धर्म को लेकर दिखावा प्रचार प्रसार बढ़ रहा है उतना समाज का उत्थान या उद्धार नहीं दिखाई देता बल्कि पतन की ओर अग्रसर है हमारा समाज । सोशल मीडिया कोई पावन स्थान हर्गिज़ नहीं है गंदगी भरी पड़ी है क्या आप घर में किसी की तस्वीर उस जगह रखते हैं जहां दुनिया भर का कूड़ा रखा हो , नहीं करते तो देवी देवताओं की तस्वीर कहां नहीं होनी चाहिए बताने की आवश्यकता नहीं है । 
 
कुछ लोगों ने इस का उपयोग किया है नासमझ लोगों को गुमराह किया है कि उनकी शरण में आओगे तो आपको भवसागर से पार लगवा देंगे । आपने कभी कश्ती चलाने वाले को ऐसा कहते नहीं सुना होगा मांझी और पतवार तूफ़ान और मझधार सब से भरोसेमंद होता है खुद हौंसले से तैर कर पार जाना । आजकल नाख़ुदा कश्ती को खुद डुबोते भी हैं रहबर रास्ते से भटकाते भी हैं रहनुमा कारवां लुटाते भी हैं । हमने अभी सही गलत अच्छे बुरे को ठीक से पहचानना नहीं सीखा है जो हमारी मनचाही बातें करते हैं हम   उनके पीछे -  पीछे चलने लगते हैं और खबर ही नहीं होती कब किसी के चाहने वाले समर्थक प्रशंसक मानसिक दिवालियापन के शिकार हो कर तर्क से उचित अनुचित को समझना छोड़ भेड़चाल चलने लगते हैं । चाहे कोई व्यक्ति हो धर्म उपदेशक या कोई भी राजनैतिक विचारधारा सभी हमेशा सही नहीं होते हैं और जब बात समाज की धर्म की भगवान की या लोकतंत्र की हो तब सच को सच और झूठ को झूठ कहना हमारा कर्तव्य बन जाता है ख़ामोशी से अपराध का साथ देना किसी दिन अपराधबोध बन जाता है जब गुनहगार बच जाते हैं और बेगुनाह सूली चढ़ाए जाते हैं । आख़िर में इक ग़ज़ल इस विषय से मेल खाती हुई पेश है ।  

ग़ज़ल 

फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते ।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।

क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।

जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते । 
 


 

पास रह के वो कितनी दूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

  पास रह के वो कितनी दूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

               ( पुरानी डायरी से 2009 वर्ष की लिखी रचना )

दिल की धड़कन नज़र के नूर रहे 
पास रह के वो कितनी दूर रहे ।

प्यार करते मुझे सब लोग पता 
हुस्न वाले बड़े मगरूर रहे । 
 
बस यही बेख़्याली छाई रही 
चढ़ गया इक नशा सा था सुरूर रहे । 
 
रास बेशक मुहब्बत आ न सकी 
उसके किस्से कई मशहूर रहे । 

दर्द-मंद इक तुम्हीं ' तनहा ' तो नहीं 
मीर ग़ालिब कभी थे सूर रहे ।