जनवरी 27, 2013

सच जो कहने लगा हूं मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सच जो कहने लगा हूं मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सच जो कहने लगा हूं मैं
सबको लगता बुरा हूं मैं ।

अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।

बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।

अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।

अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।

आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।

सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं । 
 

 

जनवरी 25, 2013

हमें भी है जीना , नहीं रोज़ मरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें भी है जीना , नहीं रोज़ मरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें भी है जीना नहीं रोज़ मरना
ज़माना करे अब उसे जो है करना।

सियासत तुम्हारी मुबारिक तुम्हीं को
नहीं अब हमें हुक्मरानों से डरना।

लगे झूठ को सच बताने सभी अब
अगर सच कहेंगे सभी को अखरना।

किनारे उन्हीं के थी पतवार उनकी
हमें था वहां बस भंवर में उतरना।

बुझाते कभी प्यास पूरी किसी की
पिलाना अगर अब सभी जाम भरना।

लुभाना पिया को सभी चाहते हैं
है मालूम किसको हो कैसे संवरना।

हैं दुश्मन यहां सब नहीं दोस्त कोई
कभी भी यहां पर न "तनहा" ठहरना।  

जनवरी 24, 2013

दोस्त अपने हमें बुला न सके ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दोस्त अपने हमें बुला न सके ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दोस्त अपने हमें बुला न सके
हम भी गैरों के पास जा न सके ।

प्यार तो प्यार है इबादत है
पर सभी ये सबक पढ़ा न सके ।

जो कभी साथ साथ गाये थे
हम ख़ुशी के वो गीत गा न सके ।

आप करते गये सितम पे सितम
हम लबों तक भी बात ला न सके ।

कह रहा है हमें ज़माना भी
सीख जीने की तुम अदा न सके ।

मत कभी रूठ कर चले जाना
हम  किसी को कभी मना न सके ।

तुम हमें दे गये कसम "तनहा"
अश्क हम चाह कर बहा न सके ।
 

 

दोस्ती इस तरह निभाते हैं ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

दोस्ती इस तरह निभाते हैं( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

दोस्ती इस तरह निभाते हैं
रूठ जाते कभी मनाते हैं ।

रोज़  घर पर हमें बुलाते हैं
दर से अपने कभी उठाते हैं ।

वो कहानी हुई पुरानी अब
इक नई दास्तां सुनाते हैं ।

रात आते नज़र सितारे भी
और जुगनू भी टिमटिमाते हैं ।

लोग मिलते नहीं कभी खुद से
आज तुम से तुम्हें मिलाते हैं ।

मंज़िलें पास पास लगती हैं
बोझ मिलकर अगर उठाते हैं ।

जब भी "तनहा" उदास होते हैं
दीप आशा के कुछ जलाते हैं । 
 

 

जनवरी 23, 2013

फूलों के जिसे पैगाम दिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

फूलों के जिसे पैगाम दिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

फूलों के जिसे पैग़ाम दिये
उसने हमें ज़हर के जाम दिये।

मेरे अपनों ने ज़ख़्म मुझे 
हर सुबह दिए हर  शाम दिये।

सूली पे चढ़ा कर खुद हमको
हम पर ही सभी इल्ज़ाम दिये।

कल तक था हमारा दोस्त वही
ग़म सब जिसने ईनाम दिये।

पागल समझा , दीवाना कहा
दुनिया ने यही कुछ नाम दिये।

हर दर्द दिया यारों ने हमें
कुछ ख़ास दिये , कुछ आम दिये।

हीरे थे कई , मोती थे कई
" तनहा " ने  सभी बेदाम दिये।

जनवरी 20, 2013

खूबसूरत अदाओं पे आता है प्यार ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 खूबसूरत अदाओं पे आता है प्यार ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खूबसूरत अदाओं पे आता है प्यार
महकी महकी फिज़ाओं पे आता है प्यार।

उनका दामन हवाओं में उड़ने लगा है
हमको ऐसी हवाओं पे आता है प्यार।

रात भर हम नहीं सो सके डर के मारे
उनको काली घटाओं पे आता है प्यार।

वक़्त आने पे सब छोड़ जाते हैं साथ
यूं तो सारे खुदाओं पे आता है प्यार।

उनको सिजदा करो, सर झुका के हज़ूर
ऐसे उनको दुआओं पे आता है प्यार।

देख लो ये कहां पर है लाई हयात
अब हमें इन कज़ाओं पे आता है प्यार। 

अब हर किसी को अपना बताने लगे हैं (ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        अब हर किसी को अपना बताने लगे हैं (ग़ज़ल ) 

                              डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब हर किसी को अपना बताने लगे हैं
लेकिन हमीं से नज़रें चुराने लगे हैं।

अंदाज़ उनकी हर बात का अब नया है
लेकिन हमें मतलब समझ आने लगे हैं।

जब से कहानी अपनी सुनाई किसी को
सारे ज़माने वाले सताने लगे हैं।

हमने नहीं जाना अब किसी और घर में
बस आपके घर आए थे , जाने लगे हैं।

बेदाग़ कोई आता नज़र अब नहीं है
सब आईना औरों को दिखाने लगे हैं।

लिखवा लिया हमने बेवफा नाम ,जब से
"तनहा" हमें आकर आज़माने लगे है।

आज सोचा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 आज सोचा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

न सोचा कभी
न समझा
न कभी जाना
है बाकी रहा
अब तक
खुद को ही
मुझे पाना ।

किसलिये जीता रहा
मैं किसलिये मरता रहा
खो गया जीवन कहीं
क्या उम्र भर करता रहा
डर है भला कैसा मुझे
किस बात से डरता रहा
दुनिया में अपना कौन है
तलाश क्या करता रहा  ।

खुद को नहीं समझा कभी
क्यों काम ये करता रहा
खड़ा रहा नदी किनारे
गागर को नहीं भरता रहा
जीने से करना प्यार था
पर नहीं करता रहा ।

अब तो सोच ले ज़रा
हर पल ही तू मरता रहा
दिया किसे दुनिया ने क्या
दुनिया की बातें दे भुला
चलना है खुद के साथ चल
बस साथ अब अपना निभा
खुद से कर कुछ प्यार अब
सब दर्द दिल के मिटा ।

ऐसे है जीना अब तुझे
रहे तेरा दामन भरा
कहता यही है वक़्त भी
न लौट कर फिर आयेगा
पाना हो जो पा ले अभी
सब कुछ तुझे मिल जाएगा । 
 

 

जनवरी 18, 2013

बात पूछो न हम अदीबों की ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात पूछो न हम अदीबों की ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बात पूछो न हम अदीबों की
खाक उड़ जाएगी उमीदों की।

क्यों सज़ा बेगुनाह पाते हैं
आह निकली कई सलीबों की।

दौलतों से ख़ुशी नहीं मिलती 
बात झूठी नहीं फकीरों की।
 
घर बनाएं कहीं पहाड़ों पर  
छांव मिलती जहां चिनारों की।

याद अब तक बहुत सताती है
दिलरुबा की हसीं अदाओं की।

बात मेरी कभी सुनो मुझ से
फिर सज़ा दो मुझे गुनाहों की।

तुम जिसे ढूंढते रहे "तनहा" 
उड़ गई राख तक वफ़ाओं की।  

जनवरी 15, 2013

लब पे आई तो मुहब्बत आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लब पे आई तो मुहब्बत आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

लब पे आई तो मुहब्बत आई
भूल कर भी न शिकायत आई ।

बात कुछ ऐसी चली महफ़िल में
फिर हमें याद वो मूरत आई ।

हम से बिछुड़ी जो अभी शाम ढले
रात भर याद वो सूरत आई ।

कश्ती लहरों के हवाले कर दी
बेबसी में जो ये नौबत आई ।

आसमां रंग बदल कर बोला
लो ज़मीं वालो कयामत आई । 
 

 

जनवरी 13, 2013

आज खारों की बात याद आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आज खारों की बात याद आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आज खारों की बात याद आई
जब बहारों की बात याद आई ।

प्यास अपनी न बुझ सकी अभी तक
ये किनारों की बात याद आई ।

आज जाने कहां वो खो गए हैं
जिन नज़ारों की बात याद आई ।

साथ मिलके दुआ थे मांगते हम
उन मज़ारों की बात याद आई ।

कुछ नहीं दर्द के सिवा मुहब्बत
ग़म के मारों की बात याद आई ।

जब गुज़ारी थी जाग कर के रातें
चांद तारों की बात याद आई ।

दूर रह कर भी पास पास होंगे
हमको यारों की बात याद आई ।

आज देखा वतन का हाल "तनहा"
उनके नारों की बात याद आई । 
 

 

किसी मेहरबां की इनायत के लिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

किसी मेहरबां की इनायत के लिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

किसी मेहरबां की इनायत के लिये 
हमें अब है जीना मुहब्बत के लिये ।

दिखाओ खुदा का हमें कोई निशां
चलें साथ मिलके इबादत के लिये ।

सुनाओ हमें आज अपना हाले-दिल
तेरे पास आए हैं उल्फत के लिये ।

नहीं मिल सका आज उनसे कुछ हमें
तराशे थे बुत जो अकीदत के लिये ।

नहीं पास कोई न कोई दूर है
यहां सब खड़े हैं तिजारत के लिये ।

किसी को नहीं पार करते नाखुदा
कहां आ गए लोग राहत के लिये ।

यहां क्या मिला है किसे कर के वफ़ा
कहां आ गए आप चाहत के लिये ।

नहीं काम कोई भी "तनहा" का यहां
जहां ये बना है सियासत के लिये ।   
 

 

वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो भी जीता रहा ज़िंदगी के बिना
हम भी जलते रहे रौशनी के बिना ।

उनसे हम बात करते भला और क्या
कुछ भी आता नहीं आशिकी के बिना ।

बात महफ़िल में होने लगी होश की
कुछ न आया मज़ा बेखुदी के बिना ।

जब कभी हम मिलें , उस हसीं रात में
आ भी जाना वहां , तुम घड़ी के बिना ।

एक दिन  सामने   दे दिखाई खुदा
यूं ही "तनहा" मगर बंदगी के बिना ।
 

 

जनवरी 10, 2013

रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

    रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रुलाता सब ज़माना है , हमें रोना नहीं आता
हमें अश्कों से अपने दर्द सब धोना नहीं आता ।

सिखा जाना कभी आकर दिलों को जीतते कैसे
हमें सब और है आता , यही टोना नहीं आता ।

बढ़ाते जा रहे हैं सब कतारें खुद गुनाहों की
न बांधो पाप की गठड़ी अगर ढोना नहीं आता ।

यहां पर आंधियां चलती बहुत ज़ालिम ज़माने की
तुम्हें लेकिन संभल कर खुद खड़े होना नहीं आता ।

सभी कांटे हमें देना , उन्हीं को फूल दे देना
ख़ुशी का बीज जीवन में , जिन्हें बोना नहीं आता ।

हमेशा मांगते रहते , मगर कैसे मिले कुछ भी
जिन्हें पाना तो आता है , मगर खोना नहीं आता ।

चले आये हैं महफ़िल में , बिताने रात इक अपनी
अकेले रात भर "तनहा" हमें सोना नहीं आता । 
 

 

जनवरी 09, 2013

क्या बताएं हम खुदा क्या है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या बताएं हम खुदा क्या है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या बताएं हम ख़ुदा क्या है
मिल न पाये गर खता क्या है ।

सुन लिया सारे ज़माने ने
अब छुपाने को बचा क्या है ।

है बहुत मुश्किल समझ पाना
हुस्न वालों की हया क्या है ।

सब लुटाया प्यार में लोगो
हम से अब पूछो वफ़ा क्या है ।

मर्ज़ बढ़ता जा रहा हर दिन
चारागर इसकी दवा क्या है ।

लग रहा सब कुछ यहां बदला
कुछ हुआ तो है , हुआ क्या है ।

साथ जीना साथ मर जाना
और "तनहा" इल्तिजा क्या है ।
 

 

जनवरी 08, 2013

इन अंधेरों को मिटाता कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इन अंधेरों को मिटाता कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब अंधेरों को मिटाता कोई 
इन चिरागों को जलाता कोई ।

राह से भटके मुसाफिर ठहरे
रास्ता किसको बताता कोई ।

कारवां कोई नज़र आ जाता
हमको मंज़िल से मिलाता कोई ।

शब गुज़र जाती जिसे सुन कर के
इक कहानी तो सुनाता कोई ।

की खता हमने , कभी तुमने की
अब गिले शिकवे भुलाता कोई ।

क्यों झुका आंखें वहां जाते हम
दाग़ अपने जो मिटाता कोई ।

मौत से "तनहा" कहां डरते हैं
ज़हर आकर खुद पिलाता कोई । 
 

 

खो गया जब कभी किनारा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 खो गया जब कभी किनारा है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खो गया जब कभी किनारा है
नाखुदा को नहीं पुकारा है ।

इस जहां में सभी अकेले हैं
ज़िंदगी ने सभी को मारा है ।

फिर सुनाओ हमें ग़ज़ल अपनी
आपने कल जिसे संवारा है ।

कल तलक तो बड़ी मुहब्बत थी
आज क्यों कर लिया किनारा है ।

मुश्किलों से कभी न घबराना
कर रही हर सुबह इशारा है ।

उनसे कैसे ये हम कहें जाकर
बिन तुम्हारे नहीं गुज़ारा है ।

डर नहीं अब रकीब का "तनहा"
प्यार का जब मिला सहारा है । 
 

 

जनवरी 07, 2013

तुम सिखाते रहे दोस्ती ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम सिखाते रहे दोस्ती ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

तुम सिखाते रहे दोस्ती
लोग बनते गए अजनबी ।

आज हमसे मिले आप जब
मिल गई तब हमें ज़िंदगी ।

आपने क्या ये जादू किया
लूट दिल ले गई सादगी ।

हाल ऐसा हमारा हुआ
दूर होकर हुए पास भी ।

हम मिलेंगे कभी तो कहीं
देखनी बस है दुनिया वही ।

तुम न होना कभी अब जुदा
हमसे वादा करो तुम यही ।

आ भी जाओ खुला दर मेरा
इक यही बात "तनहा" कही ।
 

 

जनवरी 06, 2013

सब के वादों का न एतबार करो (ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सब के वादों का न एतबार करो (ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सब के वादों का न एतबार करो
उनके आने का न इंतज़ार करो ।

कुछ नहीं मिलता यहां वफ़ा करके
तुम खता ऐसी न बार बार करो ।

उसने पूछा था बड़ी अदा से कभी
कह दिया हमने , हमें न प्यार करो ।

धड़कनों पर ही न इख्तियार रहे
इतना तो दिल को न बेकरार करो ।

भर के बाहों में उसे था चूम लिया
यूं तो ख़्वाबों को न गुनाहगार करो ।

बेवफा अहले जहां हुआ "तनहा"
तुम वफाएं अब न बार बार करो । 
 

 

हद से अब तो गुज़र गये हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 हद से अब तो गुज़र गये हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हद से अब तो गुज़र गये हैं लोग
जाने क्यूँ सच से डर गये  हैं लोग।

हमने ये भी तमाशा देखा है
पी के अमृत भी मर गये  हैं लोग।

शहर लगता है आज वीराना
कौन जाने किधर गये  हैं लोग।

फूल गुलशन में अब नहीं खिलते
ज़ुल्म कुछ ऐसा कर गये  हैं लोग।

ये मरुस्थल की मृगतृष्णा है
पानी पीने जिधर गये हैं लोग।

जनवरी 05, 2013

अपराधी महिला जगत के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 अपराधी महिला जगत के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

आप
हां आप भी
शामिल हैं
महिलाओं के विरुद्ध
बढ़ रहे अपराधों में
किसी न किसी तरह ।

आप जो
अपने
कारोबार के लिये 
प्रसाधनों के
प्रचार के लिये 
प्रदर्शित करते है
औरत को
बना कर
उपभोग की एक वस्तु ।
     
आपकी
ये विकृत मानसिकता
जाने कितने और लोगों को
करती है प्रभावित
एक बीमार सोच से ।

जब भी ऐसे लोग करते हैं
व्यभिचार
किसी बेबस अबला से
होते हैं आप भी
उसके ज़िम्मेदार ।

आपके टी वी सीरियल
फ़िल्में आपकी
जब समझते हैं 
औरतों के बदन को
मनोरंजन का माध्यम
पैसा बनाने
कामयाबी
हासिल करने के लिये 
लेते हैं सहारा बेहूदगी का
क्योंकि नहीं होती
आपके पास
अच्छी कहानी
और रचनात्मक सोच
समझ बैठे हैं फिल्म बनाने
सीरियल बनाने को
सिर्फ मुनाफा कमाने का कारोबार ।

क्या परोस रहें हैं 
अपने समाज को
नहीं आपको ज़रा भी सरोकार।

आप हों अभिनेत्री
चाहे कोई माडल
कर रही हैं क्या आप भी
सोचा क्या कभी
थोड़ा सा धन कमाने को 
आप अपने को दिखा  रही हैं 
अर्धनग्न 
सभ्यता की सीमा को
पार करते हुए
आपको अपनी वेशभूषा
पसंद से
पहनने का पूरा हक है
मगर पर्दे पर
आप अकेली नहीं होती
आपके साथ सारी नारी जाति
का भी होता है सम्मान
जो बन सकता है अपमान
जब हर कोई देखता है
बुरी नज़र से
आपके नंगे बदन को
आपका धन या
अधिक धन
पाने का स्वार्थ
बन जाता है 
नारी जगत के लिए शर्म ।

ऐसे दृश्य कर सकते हैं 
लोगों की
मानसिकता को विकृत
समाज की
हर महिला के लिये ।

हद हो चुकी है
समाज के पतन की
चिंतन करें अब
कौन कौन है गुनहगार । 
 

 

जनवरी 04, 2013

खुद को कितना तबाह कर बैठे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुद को कितना तबाह कर बैठे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुद को कितना तबाह कर बैठे
हम ये कैसा गुनाह कर बैठे।

कर रही ज़िंदगी यही शिकवा
क्यों उसे हम फनाह कर बैठे।

देखकर आपके सितम हम पर
आज दुश्मन भी आह कर बैठे।

उनके आने से जम गई महफ़िल
उस तरफ सब निगाह कर बैठे।

ग़ज़ल हमने उन्हें सुनाई थी
लोग सारे ही वाह कर बैठे।

दे रहा हर किसी को धोखा जो
तुम उसी की हो चाह कर बैठे।

राह चलता रहा वही "तनहा"
लोग सब और राह कर बैठे।