दिसंबर 06, 2023

मेरी तलाश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

              मेरी तलाश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया  

जाने कैसा जहां है ये कहीं , 
आकर जिस में खो गया हूं मैं 
करते करते इक प्यार भरे , 
जीवन की तलाश युग युग से । 
 
भूल गए हैं यहां सभी लोग ,
जीने का वास्तविक अंदाज़  
हर शख़्स अकेला खड़ा है 
भीड़ में अजनबी लोगों की ।
 
ढूंढती फिरती है सबकी नैया ,
भंवर में डोलती कोई किनारा
मांझी गए पार छोड़ के पतवार
तूफानों के हवाले है सब संसार । 
 
नहीं है चाह धन दौलत की थी  ,
कभी नहीं मांगे हीरे और मोती  
ज़माने भर से रही है अभिलाषा 
हो विश्वास दो थोड़ा सा प्यार । 
 
सब कुछ मिल सकता था मुझे , 
शोहरत नाम अपनी इक पहचान 
मिलता काश स्नेह किसी का तो
मेरा बस इक वही तो था अरमान ।
 

         ( बहुत साल पुरानी डायरी से इक रचना प्रस्तुत की है। )  


 

   

नींद नहीं ख़ूबसूरत सपनों से प्यार ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  नींद नहीं ख़ूबसूरत सपनों से प्यार ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

नींद आती है लेकिन चैन की गहरी नहीं आती है बड़े होने की यही सबसे बड़ी परेशानी है । बचपन में दादी नानी या कोई भी सबको परियों की प्यार भरी दुनिया की कहानी सुनाते हैं तभी उम्र बढ़ने पर हम ढूंढते हैं कहीं तो मिलेगा वो प्यारा सा जहां । अब हम बड़े हो चुके हैं लेकिन अभी भी हमको सुंदर सपने जो ख़ुशी देते हैं वास्तविक जीवन में नहीं मिलती । धीरे धीरे हमने सपनों में जीना सीख लिया है ज़िंदगी की समस्याओं से नज़रें चुरा कर ख़्वाब को सच समझने लगते हैं । कुदरत ने इंसान को सपने देखने का उपहार दिया था और आदमी ने अपने साहस और बार बार कोशिश कर अपने सपनों को हक़ीक़त में बदलना शुरू किया तभी आज दुनिया में सब संभव हुआ है । जो भी आदमी ने अपनी कल्पना से बनाया कभी इक सपना ही था । हमारे देश को आज़ाद देखना जिनका सपना था उन्होंने अपना जीवन देश समाज के नाम समर्पित कर दिया । कितने फांसी का फंदा चूम कर हंसते हंसते मर कर अमर हो गए क्योंकि उनको हम पर भरोसा था कि हम उनके अधूरे सपनों को सच करने का फ़र्ज़ निभाएंगे । कितनी कोशिशों और कुर्बानियों के बाद देश को आज़ादी मिली और हमारे पूर्वजों ने इक संविधान बनाकर देशवासियों को भविष्य का इक नक़्शा दिखलाया और इक रास्ता बतलाया जिस पर चलकर हमको ऐसा समाज बनाना था जिस में समानता न्याय और सभी को जीने का अधिकार हासिल हो । अफ़सोस उनका वो सपना कभी सच नहीं हुआ और कुछ खुदगर्ज़ स्वार्थी लोगों ने जनता को इक खूबसूरत जाल में फंसा कर रोज़ झूठे सपने बेचने का कारोबार करना शुरू कर दिया जबकि उनको खुद कभी नहीं पता था कि सपनों को हक़ीक़त कैसे बनाया जा सकता है । 
 
आज़ादी के बाद लोकतंत्र के नाम पर जनता से हमेशा छल धोखा और षड़यंत्र का खेल खेला जाता रहा है ।  हमको तरह तरह से कोई नशा दिया गया और मदहोश कर राजनैतिक दलों के झांसों में फंसकर बर्बाद किया जाता रहा है । कुछ लोग फिर भी ऐसे हुए हैं जिन्होंने हमको इस मदहोशी की नींद से जगाने की कोशिश कितनी बार की है लेकिन हमको उनकी बातें अच्छी नहीं लगीं हमने उनको अनसुना कर दिया कभी भी समझने की कोशिश नहीं की । अधिकांश लोगों ने विश्वास कर लिया कि कोई ईश्वर कोई मसीहा आएगा और हमारे देश से समाज से बुराई अपराध और अन्याय असमानता का अंत कर देगा । सब जानते हैं कि भगवान भी उनकी सहायता करते हैं जो खुद अपनी सहायता करते हैं अपने हालात को बदलने को अपने हाथ की लकीरों तक को मिटाने और अपनी तकदीर खुद लिखने का दम रखते हैं । लेकिन हमको तो नींद से प्यार है और बस ख़ूबसूरत सपने देख दिल बहला लेते हैं । कौन जागे और ज़ालिमों से टकराये हमने तो ज़ालिम के ज़ुल्म को अपनी किस्मत समझ समझौता कर लिया है । हमको सपने बेचने वाले सौदागर ज़हर पिलाते हैं अमृत कहकर और हम पीते हैं जीने की चाह में रोज़ मरते हैं । हमारी उलझन है कि कभी कोई डरावना ख़्वाब हमको नींद से जगाता है तो हम बेचैन हो जाते हैं जबकि मनभावन सपना दिखाई देता है तो हम उसी में खोये रहना चाहते हैं जागना नहीं चाहते हैं । विडंबना है कि हम ऐसे लोगों की छत्रछाया में सुकून ढूंढते हैं जिन के भीतर कितनी ज्वालाएं सुलगती रहती हैं जो सबको जलाकर ख़ाक करना चाहते हैं । सभी जानते हैं कि राजनीति का खेल कितना गंदा है इक कालिख़ की कोठड़ी जैसा जिस में सभी का दामन दाग़दार है । जंग सिर्फ इक बात की है कौन अपनी चमक से अपने करिश्में से अपने दाग़ों को दुनिया से छुपा सकता है और कब तलक । राजनेता मसीहा नहीं होते हैं और राजनीति की हालत वैश्यावृत्ति जैसी है उनका धंधा बनावट से चलता है । 
 
कभी इक छोटी सी कहानी पढ़ी थी जिस का सार था कि हम लोग आज़ाद होना नहीं चाहते क्योंकि कहीं न कहीं इक गुलामी की मानसिकता हमको विवश करती है किसी को अपना मालिक समझ उस की जय जयकार करने की । शायर कैफ़ी आज़मी ने इक नज़्म लिखी थी , कुछ लोग अंधे कुंवें में कैद थे और आवाज़ें लगा रहे थे हमको आज़ादी चाहिए , हमको रौशनी चाहिए । जब उनको अंधे कुंवें से बाहर निकाला गया और आज़ादी और रौशनी दिखाई गई तब वो इस को देख घबरा गए और उन्होंने फिर से उसी अंधे कुंवें में छलांग लगा दी और दोबारा वही शोर करने लगे , हमको आज़ादी चाहिए , हमको रौशनी चाहिए ।  
 

 

दिसंबर 05, 2023

गर्व से कहो हम सभी भिखारी हैं ( खरी-खोटी ) डॉ लोक सेतिया

  गर्व से कहो हम सभी भिखारी हैं ( खरी-खोटी ) डॉ लोक सेतिया 

शुरुआत करते हैं जनाब जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल से , उनका परिचय क्या बताएं मुझे समझ नहीं आता है , उनकी शायरी की किताब शायर निदा फ़ाज़ली जी ने सम्पादित की ' जाँनिसार अख़्तर - एक जवान मौत '  । जन्म ग्वालियर में 18 फरवरी 1914 और मृत्यु 19 अगस्त 1976 को मुंबई में हुई । 
 साहिर लुधियानवी से कौन परिचित नहीं जाँनिसार अख़्तर उनके साथी और उनकी महफ़िल का इक ख़ामोश कोना थे जो बुलंदी पर नहीं पहुंच सका क्योंकि मुंबई नगरी के तौर तरीके उनको कभी नहीं आये । लेकिन 1973 में हिंदुस्तानी बुक ट्रस्ट मुंबई से प्रकाशित ' हिन्दोस्तां हमारा ' राजकमल प्रकाशन ' से 75 साल प्रकाशन के पूर्ण होने पर दो भाग में 2023 में फिर से पेपरबैक में छापा गया जिस को पढ़ कर कोई भी हमारे हिंदोस्तां को वास्तव में समझ सकता है । उनकी ग़ज़ल पेश है और आख़िरी शेर मुंबई नगरी पर कहा गया था बस अब उस को देश पर कहें तो कुछ भी गलत नहीं होगा । 
 
ज़िन्दगी ये तो नहीं तुझको सँवारा ही न हो 
कुछ न कुछ हमने तेरा क़र्ज़ उतारा ही न हो । 
 
कूए - क़ातिल की बड़ी धूम है चल कर देखें 
क्या खबर कूच - ए - दिलबर से प्यारा ही न हो । 
 
दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी 
चौंक उठता हूं कहीं तूने पुकारा ही न हो । 
 
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर 
सोचता हूं तेरे अंचल का किनारा ही न हो । 
 
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ 
न मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । 
 
राजनीति का खेल तमाशा अजब ग़ज़ब होता है , सबसे बड़ा मदारी कहते हैं ऊपरवाला है जो दिखाई नहीं देता दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाता है , लेकिन उसका किसी को पता नहीं पर सत्ता पर आसीन राजनेता कमाल करता है । आपको सुनहरे सपने दिखलाता है और खुद अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करने में कोई कसर नहीं रहने देता कभी । वोटों की भीख मांग कर खुद शासक बनकर सिंघासन पर बैठ मौज मस्ती करता हुआ जनता को उसी के अधिकार अधिकार नहीं भीख की तरह दे कर समझाता है कि वही इक दाता है भिखारी सारी दुनिया । भीख की महिमा , भिखारी सारी दुनिया , मोबाइल वाले भिखारी , भिक्षा सरचार्ज , ये सभी मेरी 2003 में लिखी और छप चुकी रचनाएं हैं । आज की रचना उसी विषय पर है मगर नई लिख रहा हूं पुरानी याद आ रही हैं ।
 
इक विज्ञापन है कुछ नहीं कर के बड़ा अच्छा किया क्योंकि उन्होंने जो करना था किया होता तो अनहोनी होने का अंदेशा था लेकिन फाइव स्टार चॉकलेट खाने वाले यही करते हैं । पहले उन्होंने 35  साल तक भीख मांग कर गुज़ारा किया मोदी जी ने बताया था 2014 को इक साक्षात्कार में उस के बाद उन्होंने शायद साक्षात्कार देना ही छोड़ दिया है । अब सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 80 करोड़ जनता को मुफ़्त में अनाज और ज़रूरत की अन्य वस्तुएं मिल रही हैं अर्थात दो तिहाई लोग बेबस हैं जीने को खैरात पर निर्भर हैं , मगर देश आत्मनिर्भर बन रहा है और जाने कितने अरब खरब की अर्थव्यस्था बनने की राह पर अग्रसर है । हमने इक कहानी सुनी थी इक भिखारन को रानी बना दिया गया तब भी उसको भीख मांगना ख़ुशी देता था उसकी आदत थी बंद कमरे में दीवार के सामने हाथ फैला भीख मांगती थी । क्या अपने ऐसी खबरें नहीं पढ़ीं किसी भिखारी के पास करोड़ों रूपये मिले । आपको हैरानी हो सकती है जबकि यही सच है भीख मांगना आजकल बहुत बड़ा धंधा है फर्क सिर्फ इतना है कि भीख मांगते नहीं किसी और नाम से हासिल करते हैं अगर नहीं मिलती तो छीन लेने में संकोच नहीं करते हैं । मैंने कई साल पहले इक रचना लिखी थी सबसे बड़ा घोटाला जो इक पत्रिका को छोड़ किसी भी अख़बार पत्रिका ने नहीं छापी थी । अभी भी देश में उस से बड़ा घोटाला शायद ही हुआ होगा , सरकारी विज्ञापन जनता के धन की अथवा सरकारी खज़ाने की इक लूट है जिस से देश समाज को कुछ नहीं मिलता बस कुछ लोगों की तिजोरी भरती रहती हैं और बदले में सरकार अधिकारी राजनेताओं की वास्तविकता को सामने नहीं लाने और उनका गुणगान करने का कार्य कर पत्रकार विशेषाधिकार हासिल कर अपने को छोड़ सभी को कटघरे में खड़ा करने लगे हैं । इक शेर मेरा भी है पढ़ सकते हैं । 
 

    ' बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । '  


भीख में क्या क्या नहीं मिलता बल्कि सब कुछ मिलता है , धार्मिक उपदेशक पुराने साधु संतों की तरह घर घर गली गली भिक्षा मांगने नहीं जाते उनका सारा विस्तार किसी कंपनी की तरह कारोबारी तौर तरीके से दिन दुगनी रात चौगनी रफ़्तार से चलता है । लोभ लालच संचय नहीं करने का उपदेश अनुयायियों को देते हैं खुद उनकी महत्वांकाक्षा आसमान से ऊंची उड़ान भरना होता है । लोकतंत्र का खेल जिस चंदे से खेला जाता है वो इस हाथ ले उस हाथ दे की नीति पर निर्भर है सत्ता मिलते कई गुणा मुनाफ़ा की शर्त होती है । अधिकारी राजनेता से मधुर संबंध किसी प्यार की भावना या आदर स्नेह से नहीं मतलब से रखते हैं सभी ख़ास लोग । अपना ज़मीर गिरवी रख कर अमीर बनना ज़रा भी मुश्किल नहीं है और सच्चाई ईमानदारी आपको कब बदहाली की चौखट तक पहुंचती है आपको खबर नहीं होती है । साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं अन्य संगठनों के पदों की सौगात उन्हीं को मिलती है जो सत्ता की चौखट पर माथा टेक झूठ की जयजयकार करते हैं ।  बन गए चोरों और ठगों के  , सत्ता के गलियारे दास । मेरी पहली नज़्म बेचैनी चालीस साल बाद भी कम नहीं हुई बढ़ती ही जा रही है ।

       बेचैनी ( नज़्म )  

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास । 

अब भीख मांगना गरीबी की मज़बूरी नहीं होकर अमीर बनने का तरीका हो गया है और सभी बिना किसी मेहनत के धनवान होना चाहते हैं सिर्फ कौन बनेगा करोड़पति शो ही नहीं जाने कितने लोग दुनिया को नाम शोहरत दौलत हासिल करने को संसद विधानसभाओं की सदस्यता से ठेकेदारी और तमाम अच्छे बुरे धंधे करने की राह दिखलाते हैं । अपराध राजनीति और टीवी मीडिया सिनेमा का गठजोड़ देश को अपने स्वार्थ की खातिर इक ख़तरनाक खाई में धकेलने का कार्य कर रहे हैं और ये सभी दानवीर कहलाने वाले वास्तव में किसी न किसी तरह से भीख पाकर ऊंचाई पर खड़े हैं तब भी आपको झूठे प्रलोभन भ्रामक विज्ञापन से इक जाल में फंसवा पैसा बनाते हैं । आजकल आपको भिक्षा जेब से हाथ से सिक्के निकाल नहीं देनी पड़ती बल्कि आपको कब कैसे किस ने चपत लगाई आपको पता ही नहीं चलता है । भीख खैरात शब्द अपमानजनक लगते थे आजकल ऐसा करने को समाजसेवा जैसा कोई ख़ूबसूरत नाम दे देते हैं रईस लोग हाथ फैलाकर नहीं लेते लोग खुद विवश होकर उनको देते हैं बदले में अपना नाम किसी सूचि में शामिल करवा खुश हो जाते हैं । भीख की महिमा अपरंपार है देने वाला इक वही मांगता सारा संसार है । हम गरीब देश भी किसी को भीख देते हैं किसी से भीख लेते हैं यहां हर कोई किसी न किसी से मांगता उधार है क़र्ज़ लेकर घी पीने का हमारा चलन कितना शानदार है । इस सब के बावजूद किसी भूखे को डांटना सब जानते हैं ऐसा कहते हैं भले चंगे हो मांग कर खाने से शर्म नहीं आती जबकि कौन है जिसे मांगते हुए लज्जा आती है राजनेता और अमीर तो क्या सरकार से बैंक तक सभी की झोली फैली हुई है । मीना कुमारी ने कहा है जिसका जितना अंचल था उतनी ही सौगात मिली । अंत में मेरे गुरूजी राम प्रसाद शर्मा महरिष जी की इक ग़ज़ल प्रस्तुत है । 

बने न बोझ सफ़र इक थके हुए के लिए 
हो कोई साथ उसे मिलके बांटने के लिए । 

हज़ार देखा किया जाने वाला मुड़ मुड़ कर 
मगर न आया कोई उसको रोकने के लिए । 

ये हादिसा भी हुआ एक फ़ाक़ाकश के साथ 
लताड़ उसको मिली भीख़ मांगने के लिए । 

तू आके सामने मालिक के अपनी दुम तो हिला 
है उसके हाथ में पट्टा तेरे गले के लिए । 

ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आख़िर 
नमक ही ठीख रहेगा जले-कटे के लिए । 

बहानेबाज तो महफ़िल सजा रहा था कहीं 
घर उसके हम जो गए हाल पूछने के लिए । 

फ़क़ीर वक़्त के पाबंद हैं बड़े " महरिष "
अब उनके हाथ में घड़ियाँ हैं बांधने के लिए ।






दिसंबर 04, 2023

परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

        परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

आवाज़ अल्फ़ाज़ अंदाज़ लाजवाब लगते हैं मगर फिर भी सोचने पर अजीब लगता है कि उनका मौलिक नहीं है किसी जाने माने व्यक्ति की बात को थोड़ा अदल बदल कर पेश किया गया है । आपने किसी की आवाज़ की नकल करते देखा होगा किसी की शक़्ल सूरत मिलती हुई दिखाई देती है कहने का अर्थ असली की हूबहू प्रतिलिपि बनाना , साफ शब्दों में नकल । वास्तविक दस्तावेज़ की फोटोकॉपी की बात नहीं है क्योंकि उस में कोई छेड़छाड़ बदलाव नहीं किया गया होता लेकिन किसी शायर की ग़ज़ल की लोकप्रियता को भुनाने को कोई उनकी रचना में कुछ नये अंतरे या शेर जोड़ कर उस शायर को याद नहीं कर रहा होता न ही कोई श्रद्धाभाव समझना चाहिए बल्कि इसको चोरी नहीं तो हेराफेरी करना समझना चाहिए । बात इतने तक भी ठहरती तो छोड़ देते लेकिन जब कोई उनकी निजि ज़िंदगी प्यार की सुनी सुनाई या दुनिया की काल्पनिक मनघड़ंत कहानी को लेकर अपनी रचना लिखने की बात कर दावा करता है वास्तविकता की तब सीमा लांगने की बात बन जाती है । विशेषकर जो लोग दुनिया में नहीं उनको लेकर मनमाने ढंग से किस्से सुनाना कम से कम साहित्यिक दृष्टि से ईमानदारी नहीं कहला सकती है । तमाम ऐसे लोगों का उपयोग खुद को स्थापित करने या कारोबार अथवा शोहरत हासिल करने को करना अनुचित एवं अनैतिक आचरण है । 
 
इधर धार्मिक ग्रंथों का उपयोग कुछ लोग खुद को ऊंचे शिखर पर दिखाने की खातिर करने लगे हैं । अजीब बात है कोई मंच से धार्मिक ग्रंथ पढ़ उपदेश देने का कार्य भी व्यवसायिक तरीके से करता हुआ दिखाई देता है लेकिन संवाद करते हैं तो पाप अपराध और बुराई को गलत कहने का साहस करने से घबराता है और इतना ही नहीं शासक सरकार से हर संभव लाभ उठा कर खुद को बुलंदी पर खड़ा करने में अनुचित उचित की चिंता नहीं करता है । सबको अहंकार की भावना छोड़ने का पाठ पढ़ाता मगर खुद अपने आप को अन्य तमाम सभी संतों महात्माओं साधुओं से बड़ा ज्ञानवान मानते हुए खुद ही अपने इश्तिहार लगवाने का कार्य करता है । कभी किसी ग्रंथ को जो पुरातन है प्रमाणित समझा जाता है उसी को खुद फिर से दोबारा लिखने का काम करता है तो कभी किसी अन्य व्यक्ति की सभाओं में विख्यात प्रार्थना या ईश्वर के गुणगान की तर्ज़ पर इक अपनी रचना बनाकर उसकी जगह हासिल करना चाहता है । आजकल कितने ही धर्म उपदेशक इक दूजे से प्रतिस्पर्धा  कर प्रतिद्विंदी बने हुए हैं जो हमको कहते हैं किसी से ईर्ष्या द्वेष से बचने को कहते हैं क्योंकि ये ऐसा ज़हर है जो आपसी रिश्ते संबंध का अंत कर देता है । सबको महान धार्मिक ग्रंथ का महत्व समझाने वाला शायद उस का अर्थ कभी नहीं समझ पाया है । दीपक तले अंधेरा है ।
 
 

    1             मैं ( नज़्म ) 

मैं कौन हूं
न देखा कभी किसी ने
मुझे क्या करना है
न पूछा ये भी किसी ने
उन्हें सुधारना है मुझको
बस यही कहा हर किसी ने ।

और सुधारते रहे
मां-बाप कभी गुरुजन
नहीं सुधार पाए हों दोस्त या कि दुश्मन ।

चाहा सुधारना पत्नी ने और मेरे बच्चों ने
बड़े जतन किए उन सब अच्छों ने
बांधते रहे रिश्तों के सारे ही बंधन
बनाना चाहते थे मिट्टी को वो चन्दन ।

इस पर होती रही बस तकरार
मानी नहीं दोनों ने अपनी हार
सोच लिया मैंने
जो कहते हैं सभी
गलत हूंगा मैं
वो सब ही होंगें सही
चाहा भी तो कुछ कर न सका मैं
सुधरता रहा
पर सुधर सका न मैं ।

बिगड़ा मैं कितना
कितनी बिगड़ी मेरी तकदीर
कितने जन्म लगेंगें
बदलने को मेरी तस्वीर 
जैसा चाहते हैं सब
वैसा तभी तो मैं बन पाऊं ।

पहले जैसा हूं
खत्म तो हो जाऊं
मुझे खुद मिटा डालो 
यही मेरे यार करो
मेरे मरने का वर्ना कुछ इंतज़ार करो । 
 

   2      हर किसी का अलग ख़ुदा है ( ग़ज़ल ) 

हर किसी का अलग ख़ुदा है 
अब ज़माना बहुत नया है ।  
 
प्यार की बात कर रहे हो 
प्यार करना बड़ी ख़ता है । 
 
जाम भर भर मुझे पिलाओ 
ज़हर ये दर्द की दवा है ।
 
हम से दुनिया ख़फ़ा है सारी 
बोलते सच मिली सज़ा है ।  

मौत भी जश्न बन गई है 
रोज़ होता ये हादिसा है । 

साथ हर बार और कोई 
आजकल की यही वफ़ा है । 

झूठ ' तनहा ' से कह रहा है
ये बता सच का हाल क्या है ।  
 
मैंने अपने बारे में जो महसूस किया वही लिखा वही कहा वही समझा है किसी और की परछाई नहीं बनाया अपने आप को इतना तय है । 
 

सबको लगता नहीं उन जैसा हूं मैं ,

मैं सोचता हूं खुद अपने जैसा हूं मैं । 

   डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 


 

दिसंबर 03, 2023

ईमानदारी की किताब ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया - भूमिका

    ईमानदारी की किताब ( व्यंग्य  ) डॉ लोक सेतिया  -   भूमिका 

आप देख सकते हैं मैंने इस विषय पर दो साल पहले अपनी फेसबुक पर लिखने की शुरुआत की थी , सभी से सवाल पूछा था कि बताना कोई किताब उपलब्ध है ईमानदारी का सबक सीखने की । ईमानदारी की बात थी तभी किसी ने कोई लाइक कमेंट नहीं किया था । विचार आया था कोशिश कर मैं खुद इक किताब इस विषय की लिखूं मगर फिर ईमानदारी सामने आकर खड़ी थी मुझसे सवाल करती क्या मैं ईमानदार हूं सच में या बस सोचता हूं कि ईमानदार व्यक्ति हूं । जैसे लोग खुद को देशभक्त समझते हैं धार्मिक समझते हैं जाने क्या क्या समझते हैं जबकि वो सब क्या होता है मतलब तक नहीं जानते हैं । काफी चिंतन मनन करने के बाद मैंने निर्णय किया कि किसी विषय पर लिखने के लिए आपको उस की समझ जानकारी होना काफी है ऐसा लाज़मी नहीं है कि आपको जो मालूम हो आप वास्तविक आचरण में जीवन में उसी पर अमल भी करते हों । अब आपको पता चल गया होगा कि मैं कोई दावा ईमानदारी का कदापि नहीं कर रहा । हर किताब की शुरुआत इक भूमिका या प्राक्कथन से की जाती है यही कर रहा हूं अभी आगे की रब जाने या सब जाने । अचानक इक दार्शनिक से मिलना हुआ तो लगा उनसे विषय पर सार्थक संवाद किया जा सकता है । थोड़ी देर ख़ामोशी छाई रही उस के बाद उन्होंने समझाना शुरू किया । 
 
कहने लगे ईमानदारी बड़ी कीमती चीज़ होती है हर किसी की हैसियत नहीं होती उस से रिश्ता बनाने की जान तक देनी पड़ती है उसकी ख़ातिर । आजकल चलन से बाहर है जैसे सरकार जिन जिन करंसी नोटों को बंद कर देती है उनकी कीमत रद्दी जैसी हो जाया करती है । हमारे समाज देश ही नहीं पूरी दुनिया में ईमानदारी को ज़िंदा दफ़्न कर दिया गया है क्योंकि ऐसा मान लिया गया है कि इस से दुनियादारी चल नहीं सकती है लेकिन इसको त्यागने से दुनिया बड़ी तेज़ी से भाग सकती है । बुलेट ट्रैन और जेट विमान से चंद्रयान तक के युग में कछुआ चाल से चलना कौन चाहता है । उन्होंने समझाया कि ईमानदारी की कथाएं और कहानियां पढ़ सकते हैं सुना सकते हैं मगर उसकी किताब कौन छापेगा कोई नहीं ख़रीदेगा मुफ़्त में भी नहीं । उपहार की तरह बांट भी दोगे तो लोग कहीं किसी कोने में रखी बेकार चीज़ों के साथ रख कर भूले से उठाएंगें नहीं कभी जीवन भर । 
 
इक छोटी सी लघुकथा है , इक व्यक्ति किसी से एक घोड़ा खरीद कर लाया और अपने नौकर से कहा उस की काठी उतार कर अस्तबल में बांधने को । नौकर ने घोड़े की पीठ से काठी हटाई तो देखा इक पोटली छुपा कर नीचे रखी हुई है । मालिक को दिखाई पोटली जिस में कीमती हीरे थे कई , उस व्यक्ति ने कहा इस को जाकर घोड़ा बेचने वाले को लौटाना चाहिए क्योंकि मैंने घोड़ा ख़रीदा है उसकी कीमत चुकाई है ये हीरे तो बेशक़ीमती हैं । नौकर ने कहा कि जब बेचने वाले ने घोड़ा बेचा तो उसका सब सामान खरीदने वाले का हुआ आपको उसे बताने की ज़रूरत क्या है , लेकिन उस ने कहा ऐसा अनुचित है ये पोटली और हीरे घोड़े की वस्तुओं में शामिल नहीं है । और उस व्यक्ति ने पोटली ली और घोड़े बेचने वाले के घर चला गया और उसको पोटली थमाई और बताया कि ये काठी के नीचे से मिली है । घोड़ा बेचने वाला आचंभित और हैरान तथा खुश होकर बोला कि कल रात किसी नगर से ये हीरे खरीद कर आया था और जाने कैसे इस पोटली को काठी के नीचे से निकलना ही भूल गया ये एक से बढ़कर एक बहुमूल्य हीरा है । और उस ने पोटली से एक हीरा निकाल उस व्यक्ति को देते हुए बोला कि आप इस को भेंट समझ रख लें । लेकिन उस व्यक्ति ने ऐसा करने से मना कर दिया तब घोड़ा बेचने वाला कहने लगा आपको एक तो लेना ही होगा इनकार नहीं करें । उनकी बात सुनकर व्यक्ति ने कहा मैंने दो सबसे कीमती हीरे पहले ही अपने पास रख लिए हैं सुरक्षित , इस को सुनते ही घोड़ा बेचने वाला कहने लगा ये तो उचित नहीं और पोटली से सभी हीरे निकाल गिनती की ये देखने को कि कितने हीरे कम हैं । लेकिन हीरे तो पूरे के पूरे निकले गिनती करने पर , तब उस ने कहा पोटली के सभी हीरे सही हैं गिनने पर फिर आपने कैसे दो हीरे निकालने की बात कही है । उस व्यक्ति ने बताया कि मैं सभी हीरे रख सकता था और आप या किसी को बताता नहीं कि मुझे मिले हैं लेकिन मैंने इन से कीमती दो हीरे अपने बचा कर सुरक्षित रखना अधिक सही समझा । और वो हैं मेरा ज़मीर और मेरी ईमानदारी । 
 
दार्शनिक ने बताया कि आजकल धर्म राजनीति समाज कारोबार से आपसी संबंधों रिश्ते नातों तक तमाम तरह से झूठ छल कपट धोखा और आडंबर होता है । ईमानदारी कहीं भी दिखाई नहीं देती सब खुदगर्ज़ और सिर्फ अपने फ़ायदे की बात करते हैं । सत्ताधारी संविधान की झूठी शपथ उठाते हैं देशसेवा की झूठी तक़रीर करते हैं धर्म उपदेशक अपने मतलब की बात करते हैं भीड़ के शोर में कभी ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती है क्योंकि सैंकड़ों की आवाज़ एक साथ किसी इंसान या भगवान को समझ नहीं आ सकती बल्कि परेशान ही करती होगी । प्रार्थना अरदास प्रभु नाम सिमरण चुपचाप अकेले बैठ शांति पूर्वक मन ही मन किए जाते हैं और ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु अंतर्मन की आवाज़ सुनते हैं । उस विधाता को जो सबको सभी देता है कोई कुछ भी कैसे दे सकता है ये बात समझना कठिन नहीं कि जो सबको देने वाला है उसको भिखारी समझना उस का उपहास ही हो सकता है । धर्म के नाम पर जो लोग कारोबार करते हैं रोज़ कुछ न कुछ नया लुभावना ढंग आज़माते हैं कोई साधु संत नहीं धोखेबाज़ छलिया बनकर ठगने का कार्य करते हैं । उनके उपदेशों में कोई सच्चाई कोई ईमानदारी नहीं हो सकती है और वो राह नहीं दिखलाते भटकाते हैं सिर्फ अपने को सबसे ज्ञानवान साबित करने की भूल करते हैं । ऐसे शिक्षकों की बात समझने को इक पुराना चुटकुला सुनते हैं । 
 
  कुछ बच्चे मैदान में खेल रहे थे कि तभी उनके अध्यापक वहां से गुज़रे और उन से पूछा बच्चो क्या खेल खेल रहे हैं आज सभी मिलकर । बच्चों ने बताया मास्टरजी हमारे पास ये इक पिल्ला है और हमने इक शर्त लगाई हुई है कि सब झूठ मूठ की बातें बताएंगे और जो भी सबसे बड़ा झूठा साबित होगा उसी को ये पिल्ला ईनाम में दिया जाएगा । उनकी बात सुनकर अध्यापक बोले कैसे छात्र हैं आप जब हम आपकी उम्र के थे हमको पता ही नहीं था झूठ क्या होता है कैसे बोलते हैं । अध्यापक की बात सुनते ही सभी बच्चे कह उठे मास्टरजी लो ये पिल्ला आपको मिलता है , क्योंकि इस से बढ़कर झूठ कोई नहीं बोल सकता सबको मालूम था । 



 
 
  

नवंबर 24, 2023

बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

इक छोटी सी घटना ने मुझे वो समझा दिया जिस को समझने में मैंने सालों बिता दिए । इक व्यक्ति जिस को मैंने हमेशा अपना दोस्त माना रास्ते पर चलते फिरते मिल गया । मुझे इक रोग का इंजैक्शन लगा कर मुझसे उसकी कीमत वसूल कर ली जबकि लगाने से पहले अपनी संस्था की समाजसेवा की खातिर उस रोग से बचाव का कार्य समाजसेवा की खातिर कर रहे हैं घोषित किया था । लेकिन मुझे ध्यान आया कि तभी तभी मैंने एटीएम से पैसे निकलवाए थे अन्यथा अपमानित महसूस करता कि जेब ख़ाली थी । तभी उस ने इक और रसीद भी पकड़ा दी कुछ महीने के उस के बिल की जो मैंने कभी मंगवाया भी नहीं और मुझे कभी मिला भी नहीं । आपको अजीब लगेगा कि मुझे उसको पैसे देने से पहले ये बात पूछने का ख़्याल तक नहीं आया । बाद में सोचा ये तो मैं खुद ही मूर्ख बन गया , समझदार होता तो बिना संकोच कहता भाई मुझे इस इंजैक्शन की कोई ज़रूरत नहीं और जिस की रसीद आप ने बना रखी है मैंने कभी मंगवाया नहीं मुझे कभी भेजा ही नहीं गया । आज मुझे अपने सवाल का जवाब मिल ही गया कि जीवन भर मैंने दोस्तों की दोस्ती की खातिर क्या क्या नहीं किया लेकिन तब भी आज कोई भी दोस्त मेरे साथ खड़ा नहीं है । ज़िंदगी ग़ुज़ार दी दोस्ती को ईबादत समझते समझते मगर हासिल कुछ भी नहीं हुआ अब सोचता हूं कहां मुझसे क्या ख़ता हुई जो मुझे ऐसी सज़ा मिली कि अब सोच रहा ' कोई दोस्त है न रकीब है , तेरा शहर कितना अजीब है '।  

आजकल दोस्ती शुद्ध लेन - देन का कारोबार है कुछ आपको चाहिए कुछ उसको जिस से आपको दोस्ती करनी है ये मैंने कभी सोचा तक नहीं था । मैंने दोस्ती की खातिर सब किया जो शायद मेरे बस में नहीं था मगर इक चीज़ कभी नहीं की झूठ फ़रेब और अपनी आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर किसी की गलत बात को सही बताकर रिश्ते बचाना । लेकिन यहां सभी दोस्ती का मतलब दोस्त बनना नहीं दोस्त कहलाना है तो सबको अनुचित और झूठ की राह पर चलने पर भी शाबास बहुत बढ़िया कर रहे हैं बोल कर हौंसला बढ़ाना होता है । सही रास्ता दिखलाना गलत रास्ते जाने से रोकना और सच कहना कि ऐसा क्यों करते हैं आप जब जानते हैं कि ये तरीका ठीक नहीं आपको सभी आलोचक नहीं विरोधी और कभी दुश्मन समझने लगते हैं । दोस्ती निभाने की कीमत सभी चाहते थे जो उनको पसंद है वही बोलना वही करना वही समझना भी , खुद को जो बिल्कुल भी पसंद नहीं अनुचित लगता है साथ देने को उस पर चलना भी और और बिना किसी सोच विचार किए समर्थन भी करते रहना । ये संभव नहीं हुआ हमसे न कभी होगा कि अपने किरदार को खुद ही मिटा दें झूठी दोस्ती की ख़ातिर । 

सच बोलने की आदत ने हमको बर्बाद कर दिया है तो क्या हुआ इस का अफ़सोस नहीं है सच बोलना कोई सामाजिक सरोकार की जनहित की बात लिखने वाला लेखक कभी छोड़ नहीं सकता है । शायर बशीर बद्र जी कहते हैं ' दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे , जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों । मैंने तो जितना भी लिखा है सिर्फ इक दोस्त की तलाश की खातिर ही लिखा है सब उसी को समर्पित है लेकिन दो रचनाएं अपने अनुभव की भी कही हैं ग़ज़ल पेश करता हूं ।

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सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ।

सच बोलना तुम न किसी से कभी 
बन जाएंगे दुश्मन , दोस्त सभी । 
 
तुम सब पे यक़ीं कर लेते हो 
नादान हो तुम ऐ दोस्त अभी । 
 
बच कर रहना तुम उनसे ज़रा 
कांटे होते हैं , फूलों में भी ।  

पहचानते भी वो नहीं हमको 
इक साथ रहे हम घर में कभी । 

फिर वो याद मुझे ' तनहा ' आया 
सीने में दर्द उठा है तभी । 
 

फिर वही  हादिसा हो गया ( ग़ज़ल )  डॉ लोक सेतिया ।

फिर वही हादिसा हो गया ,
झूठ सच से बड़ा हो गया ।

अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।

कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।

सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया ।

साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।

राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।

हाल अपना   , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।

देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।



 
 
          

नवंबर 23, 2023

प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया

 प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया

आओ मिल कर नज़राने की बात करते हैं , गुज़रे ज़माने के अफ़साने की बात करते हैं । 1961 में इक फिल्म आई थी नज़राना राजकपूर वैजयंती माला नायक नायिका थे , राजिंदर कृष्ण जी का गीत मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में क्या लाजवाब था । गीत के बोल सुनते हैं पढ़ते हैं । 

 नज़राना फिल्म का गीत :-

एक प्यासा तुझे मयख़ाना दिए जाता है 

जाते-जाते भी ये नज़राना दिए जाता है 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को 

साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को , हाय

कश्ती ख़ुशी से जिसने भँवर में उतार दी 

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

जब चल पड़े सफ़र को तो क्या मुड़ के देखना ? हाय

दुनिया का क्या है, उसने सदा बार-बार दी 

जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी 

बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।

समझने का फेर है कोई हार कर नहीं हारता कोई जीत कर भी सब हार जाता है जब वक़्त बदलता है हर आशिक़ का उतर बुखार जाता है । नशे की रात बीत जाती है बचा ख़ुमार रह जाता है दिल में बस इक ऐतबार रह जाता है फिर सुबह होगी कुछ पास नहीं लेकिन बकाया उधार रह जाता है । कभी जश्न कभी मातम होता है ज़माना हंसते हुए भी लगता है रोता है । पहले नंबर की कहानी है दूसरे नंबर की यही नादानी है हम अगर नहीं हारते तो उनकी जीत नहीं हो सकती थी और हम घर आये महमान को खाली हाथ नहीं भेजा करते बस जो था पास नज़राना दे दिया । हमने इक खेल को खेल नहीं समझा है हार जीत होना अनोखी बात नहीं लेकिन हमने तो खेल की भावना तक को हार दिया है । कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती कविता सभी को याद रहती है समझा नहीं अर्थ कोई भी । 

छोड़िये राजनेताओं की राजनीति का क्या कहना चुनाव हार कर चिंतन करते हैं क्यों हारे ताकि जिस ने हराया उसको बचाया जा सके और हार का ठीकरा किसी और के सर फोड़ कर राहत का अनुभव किया जा सके । क्या हम पहली बार खेल में हारे हैं या क्या विश्व कप जीतने से हम वास्तव में दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाते । हम तो जाने कब से हारते आये हैं सच कहें तो सब कुछ हार बैठे हैं जो जो भी हमारी पहचान हुआ करती थी कुछ भी हम में बचा नहीं है । प्यार सच्चाई वो सामाजिक सदभावना परोपकार की बातें भाईचारा क्या हम तो अपनी बात पर अडिग रहने की आदत तक भुला बैठे हैं । आज़ादी मिली मगर हमने आज़ाद रहना नहीं सीखा कभी भी गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं होना चाहते और विडंबना ये है कि ऐसे ऐसे किरदार वाले लोगों को अपना मसीहा समझ लिया जिनका कोई ज़मीर तक नहीं था । कड़वी बात है मगर सच है कि हमने खेल के मैदान को जंग का मैदान समझ लिया है जबकि जंग को हमने खेल समझने की भूल की है । सीमा की नहीं ज़िंदगी की जंग भी हमको कैसे लड़नी चाहिए नहीं आती है हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली जीवन जीने का कोई सबक नहीं सिखलाती है । 

हम भूख से हार गए गरीबी से हार गए हम संविधान की भावना सभी के एक समान अधिकार और सब को इक समान न्याय मिलने का मकसद हारे ही नहीं बल्कि कभी जीत ही नहीं सकते क्योंकि हम तो उस राह पर चल रहे हैं जो हमारी मंज़िल से हमको बहुत दूर करता जा रहा है । नैतिक मूल्यों को हमने खुद दफ़्न ही कर दिया है और मतलबी स्वार्थी बनकर गर्व करते हैं कि हम कितने आगे बढ़ गए आधुनिक लोग हैं जिस में समाज की संरचना में सिर्फ दरारें ही दरारें दिखाई देती हैं । हम बातें करते हैं महान आदर्शवादी अपने इतिहास के नायकों की उनकी कहानियां पढ़ते हैं उनकी बताई राह पर कभी चलते ही नहीं । धर्म को लेकर सभी बड़ी शानदार बातें करते हैं लेकिन जीवन भर व्यर्थ की भागदौड़ और कंकर पत्थर जोड़ते रहते हैं हीरे मोती की बात क्या हमने तो पीतल को सोना समझने और आडंबर करने की नादानी की है । उम्र भर बेकार की चीज़ों को लेकर सोचते रहे और जो जैसा समाज मिला उस को बेहतर बनाने को लेकर कुछ करना ज़रूरी नहीं समझा बल्कि हमने तो हवा पानी वातावरण धरती पेड़ पौधे सभी को बर्बाद ही किया है ।  आख़िर में इक ग़ज़ल पयाम सईदी की सुनते हैं । 
  
हम दोस्ती एहसान वफ़ा भूल गए हैं
ज़िंदा तो है जीने की अदा भूल गए हैं ।

ख़ुशबू जो लुटाती है मसलते हैं उसी को
एहसान का बदला यही मिलता है कली को
एहसान तो लेते है, सिला भूल गए हैं ।

करते है मोहब्बत का और एहसान का सौदा
मतलब के लिए करते है ईमान का सौदा
डर मौत का और ख़ौफ़-ऐ-ख़ुदा भूल गए हैं ।

अब मोम पिघल कर कोई पत्थर नही होता
अब कोई भी क़ुर्बान किसी पर नही होता
यूँ भटकते है मंज़िल का पता भूल गए हैं ।

-पयाम सईदी 
 




नवंबर 22, 2023

ख़ामोश हो , उदास हो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ामोश हो , उदास हो ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ दूर हो कुछ पास हो 
कैसा हसीं अहसास हो ।  
 
हम को ख़िज़ा का डर नहीं 
जब प्यार का मधुमास हो । 
 
हम अब अकेले हैं तो क्या 
इक दिन है मिलना आस हो । 
 
तुमको बताएं किस तरह 
तुम कौन हो क्यों ख़ास हो । 
 
पहला था जो अंतिम भी है 
हर पल वही आभास हो । 
 

 
 
 

नवंबर 21, 2023

आई लव माय इंडिया ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

    आई लव माय इंडिया ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया 

साड़ी - सूट चप्पल - जूते  
सब जिस रंग उसी रंग की 
माथे पर है सजती बिंदिया 
लो बन गया भारत इंडिया । 
 
बदले नेता गए बदल दल 
हुई समस्या कभी न हल 
रिश्वत लाल-फ़ीताशाही वही 
काठ की चढ़ती रहती हंडिया । 
 
लोकतंत्र का नाच है नंगा 
मैली और हो गई है गंगा 
अपराधी सब झूम रहे हैं 
नाचती सत्ता की रंडिया । 
 
लगती है नेताओं की भी मंडी 
इस बाज़ार में नहीं आती मंदी  
भिंडी बाज़ार लगते हैं सदन 
सबको ललचाती है भिंडिया । 
 
देखा देशभक्ति का हुआ तमाशा 
तोला माशा जनता की हताशा  
चाहे कुछ होता होने दो यारो 
झूमो गाओ आई लव माय इंडिया ।  
 
 

( 11 सितंबर 2003 की डायरी पर लिखी पुरानी रचना संशोधित किया है। ) 


 

ख़्वाब तो ख्वाब थे अब ताबीर दिखा दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

ख़्वाब तो ख्वाब थे अब ताबीर दिखा दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

ख़्वाब तो ख़्वाब थे अब ताबीर दिखा दो 
खूबसूरत नई इक तस्वीर बना दो । 
 
रहनुमा किस तरह सब बर्बाद हुआ है 
अब छुपाओ नहीं कुछ सब साफ़ बता दो । 
 
राम का राज कहते रहते सब रावण 
ज़ालिमों के महल की बुनियाद हिला दो । 
 
आप कछुए नहीं हम ख़रगोश नहीं हैं 
इस नये दौर के कुछ किरदार पढ़ा दो ।
 
तुम खिलाना मुहब्बत के फूल हमेशा 
दोस्तो नफ़रतों को मत और हवा दो । 
 
रौशनी को घटाएं क्या रोक सकेंगी 
बन के सूरज अंधेरों को जड़ से मिटा दो ।
 
सबको आता यहां पर बस आग लगाना 
आप बारिश करो ' तनहा ' आग बुझा दो ।   
 

  ( 11 सितंबर 2003 को लिखी डायरी पर रचना संशोधित किया है। ) 


 

नवंबर 20, 2023

हास्य रस की चौपाइयां - डॉ लोक सेतिया

        हास्य रस की चौपाइयां - डॉ लोक सेतिया

 
सबक सिखाने को इक हस्ती है आई , करना सभी लोग बस नेक कमाई 
अपने दिलों से मिटा कर गहरी खाई , रहो मिल जुल बनकर सब  भाई भाई ।
 
बड़े प्यार से पास सभी को बुलाया , ख़ुदा ने भेजा फ़रिश्ता ज़मीं पे आया 
बंद करवा आंखें सच दिखलाया , सूरत सभी की असली नज़र थी आई । 
 
सबको पाप पुण्य का भय जो दिखाता , खुद उसका नहीं कोई बही खाता 
धर्म बेचता धर्म खरीदता सुबह शाम  , मत पूछो उसकी कैसी है चतुराई । 

विद्यालय का शिक्षक है भाग्य विधाता , पढ़ाई ट्यूशन फीस लेकर पढ़ाता 
चमचों को नकल करवा उत्तीर्ण कराए , शिक्षा से करता रहता है गुरुआई ।
 
डॉक्टर है ये इक सरकारी लगी है जिसे , ड्यूटी पर नहीं रहने की बिमारी 
निजी अस्पताल में उपलब्ध हमेशा है , सबको लूटता हमेशा ही हरजाई । 
 
ऊंची दुकान पर मीठे फीके पकवान , बिकता खूब मिलावटी सामान है 
तोल मोल कर बोलता मधुर बोल , होती तभी दोगुनी से चौगनी कमाई ।  
 
नेता कितना बड़ा चाहे हो छोटा , नहीं कभी भी सगा किसी का होता 
शहर राज्य देश सबका है लुटेरा , फिर भी कहलाता सबका है भाई ।
 
फ़र्ज़ नहीं निभाना उसको है आता , हरदम रहे मौज मनाता इतराता 
कागज़ी महल भी खूब बनाता जाता , हर अधिकारी होता करिश्माई । 
 
दूध है कितना कितना मिला पानी , बड़ी अजब है उसकी भी कहानी 
क्रीम मख़्खन पनीर दूध मलाई  ,  असली क्या नकली की कठिनाई । 
 
इक बाबा बना है बड़ा कारोबारी , गली गली जिसकी दुकान खुलती 
नाम पे उसके सब बढ़िया इश्तिहार  , खुद ही अपनी बजाए शहनाई ।
 
ताज़ी कहकर बासी दे जाये सब्ज़ी , दाम चौगने पर फिर भी सस्ती 
तराज़ू और गिनती में गड़बड़ है ज़रा  , बस नहीं है कुछ भी और बुराई ।
 
नगरपालिका का है इक कर्मचारी , होगा भला वह कैसे कोई अनाड़ी
तीज त्यौहार उपहार की खातिर , होती गली की पूरी तरह सफाई । 
 
सबको आईने सामने बिठा कर , इधर उधर की हर खबर सुनाकर
बाल संवारे ख़िज़ाब लगाए जो , हेयर सैलून पार्लर है अब नहीं नाई ।  
 
पत्नी को है रोज़ सताता जो ,  हरदम दहेज के ताने रहता सुनाता 
माल ससुर का सब खा जाता , बड़ा बेशर्म होता है ऐसा भी जंवाई ।    
 

 
 
   
 
 

उस की अदालत में पक्षपात नहीं होता ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 उस की अदालत में पक्षपात नहीं होता ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

अपने आस पास देखना इक न इक शख़्स आपको नज़र आएगा जो बड़ा शांत स्वभाव से साधारण ढंग से जीवन जीता है ।  किसी से कोई लड़ाई झगड़ा नहीं कोई छल कपट धोखा चालाकी नहीं करता न ही अपने आप को कोई ख़ास समझता है मन में किसी तरह का कोई अहंकार नहीं रखता है । शायद ही उसको ज़िंदगी में कोई असहनीय दुःख मिलता है बल्कि कभी किसी अन्य कारण से उसको कोई दर्द घाव मिले भी तो खुद ब खुद ठीक भी हो जाता है । मैंने देखा है कुछ ऐसे बज़ुर्गों को जो हमेशा अच्छे कर्म करते थे कभी धार्मिकता का प्रदर्शन नहीं करते थे । मैं समझता हूं उनको भगवान से कभी अपने पापों की क्षमा नहीं मांगनी पड़ी होगी और उनको कभी मानसिक तनाव और कोई पछतावा कितना पाया कितना नहीं हासिल हुआ को लेकर शायद नहीं रहा होगा । 
 
अब बात करते हैं हम जैसे सभी साधारण लोगों की ,  हम बहुत कुछ नहीं सब कुछ सबसे ज़्यादा पाना चाहते हैं और अपने मतलब की खातिर किसी से भी अनुचित व्यवहार कर सकते हैं । हम सुबह शाम भगवान से अपने पापों की अपराधों की क्षमा मांगते हैं । सोचते नहीं कि ईश्वर पक्षपात नहीं कर सकता है किसी को अनजाने में की भूल की माफ़ी दे सकता है लेकिन किसी अन्य व्यक्ति से किए गलत आचरण की माफ़ी कभी नहीं दे सकता क्योंकि ऐसा करने से पीड़ित व्यक्ति को न्याय नहीं मिल सकता है । अब थोड़ा ध्यानपूर्वक देखना कितने लोगों ने तमाम छल कपट धोखा साज़िश कर बड़ा लंबा चौड़ा साम्राज्य स्थापित कर लिया लेकिन धन दौलत नाम शहरत सब पाकर भी खुशहाल ज़िंदगी नहीं मिल पाई । जीवन भर दुःख दर्द परेशानियां और पीड़ा मिलती रहती है तब अपने पापों का प्रायश्चित नहीं क्षमा मांगते रहते हैं जो मिलती नहीं है । वास्तव में हमको भगवान से अपने अपराधों की सज़ा मांगनी चाहिए माफ़ी नहीं क्योंकि जिन जिन से भी हमारे कारण अन्याय हुआ उसका प्रायश्चित हो सके । मुझे नहीं लगता उस की सब से बड़ी अदालत में कोई दलील किसी के गुनाहों की सज़ा से बचा सकती है । विधि के विधान की बात सभी जानते हैं जैसे कर्म करते हैं भले-बुरे ठीक वैसा ही फल मिलता है बबूल बोने वाले आपको आम खाते मिल सकते हैं लेकिन उनके बाग़ में कांटे उगते हैं फल नहीं ये आपको नहीं पता कि बिना मेहनत आम खाने वालों की वास्तविकवता क्या है । साधारण लोगों की बात छोड़ उनकी बात करते हैं जो पेड़ नहीं लगाते पर आम खाने का जुगाड़ कर लेते हैं । 

शासक वर्ग यही करता है चलिए इक इक बात को विवरण सहित समझते हैं , प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री या चाहे किसी भी बड़े से बड़े पद पर नियुक्त होकर कोई वेतन सुविधाएं अधिकार उपयोग करता है लेकिन अपना कर्तव्य सच्चाई ईमानदारी और शुद्ध अंतकरण से निभाता नहीं है तो वो सबसे बड़ा गुनहगार है । विडंबना देखिए ये सभी क्या करते हैं अन्य सभी अधीनस्थः कर्मचारियों को समय पर दफ़्तर आने का नियम पालन करने को आदेश जारी करते हैं ख़ुद कभी उसका पालन नहीं करते हैं । ये अनुचित है कि कोई अधिकारी घर से ही तथाकथित कैंप ऑफिस की व्यवस्था कर मनमानी करे जब मर्ज़ी कार्य करे नहीं करे । इक बात और जो सामान्य लगती है प्रशासनिक अधिकारियों की अनावश्यक बैठकों का ताम झाम किसी पार्टी की तरह जलपान की भोजन की व्यवस्था जो उनकी घरेलू और दफ़्तर के समय के बाद होनी चाहिए । शासक नियुक्त होने का मतलब ये नहीं होना चाहिए कि आप देश राज्य शहर का कार्य करने को अनदेखा कर इधर उधर सैर सपाटा या किसी सभा समारोह में अपनी शान दिखाने या भाषण देने पर अपना समय और साधन उपयोग करें या अपनी राजनीति को बढ़ावा देने का प्रचार करने का कार्य करें । आपका राजनैतिक दल अलग है जिस की चिंता शासन और सरकार की नहीं होनी चाहिए । आपको किस धर्म देवी देवता में आस्था है उसका शासन सरकार से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए । इस प्रकार का आयोजन ख़ुद सभी की निजी आय से और व्यक्तिगत रूप से किया जाना चाहिए । सरकारी दफ़्तर सरकारी कार्य के लिए हैं किसी आपसी मेल मिलाप या संबंध बनाने की जगह नहीं है ।

जितना भी धन साधन और समय सरकारी प्रशासन मंत्री अन्य पुलिस सुरक्षा बल न्यायपालिका के लोग ऐसे सरकारी संसाधनों से खर्च करते हैं उसको जुर्म से बढ़कर संगीन अपराध नहीं पाप समझा जाना चाहिए । अफ़सोस है यही होता रहता है और किसी को ऐसे जनधन की बर्बादी करते संकोच नहीं होता है । शासक नियुक्त होने से कोई देश का मालिक नहीं बन जाता जैसा हर राजनेता और अधिकारी मानने लगते हैं । जो लोग सार्वजनिक पदों पर बैठ सबसे अधिक अपने वर्ग नेताओ अधिकारियों के लिए शानदार भवन आदि निर्माण करते हैं उनको पहले सुनिश्चित करना चाहिए कि जिन्होंने उनको पद पर बिठाया है या जिन की आय से कर एकत्र कर उनका वेतन मिलता है क्या उनको सब हासिल है सुख सुविधाएं उपलब्ध हैं । जब तक अधिकांश जनता को बुनियादी सुविधाएं नहीं उपलब्ध करवाई जा सकती उनकी शानो शौकत अपने अधिकारों का गलत मनमाना उपयोग अक्षम्य अपराध है , अफ़सोस ऐसा करने वाले दावे करते हैं कि उन्होंने जनता को क्या क्या दिया है जबकि बात इस के विपरीत है उन्होंने जनधन की लूट ही की है बर्बाद किया है । 

इक वर्ग है अख़बार टीवी चैनल सोशल मीडिया जिन्होंने अपना दायित्व भुला दिया है और देश समाज को सच दिखाने की बजाय झूठ को सच साबित करने लगे हैं । ये वो लोग हैं जिन्हें अंधेरा मिटाना था मगर ये खुद अपनी चकाचौंध में अंधे होकर विज्ञापन और विशेषाधिकार पाने की दौड़ में अपना रास्ता भटक गए हैं । आज़ादी के बाद न केवल सबसे अधिक नैतिक पतन इनका हुआ है बल्कि यही समाज की देश की बदहाली के लिए उत्तरदायी भी हैं क्योंकि इन्होने अंधेरे को सूरज नाम देने का कार्य डंके की चोट पर किया है । कुछ चाटुकार लोग सरकार अधिकारी से अनुकंपा पाकर समाजसेवी का चोला पहन अपना घर भर रहे हैं सरकारी खज़ाने से धन प्राप्त कर के । उद्योगपति धनवान व्यौपारी शासक से मिलकर जनता पर खर्च होने वाला पैसा अपनी तिजोरी भरने का अपराध करते हैं लेकिन मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरुद्वारे को दान देने का दिखावा कर अपने पापों को ढकने की कोशिश करते हैं जबकि सब जानते हैं उनकी अमीरी कैसे बढ़ती है । उपरवाले की अदालत में न्याय होगा कोई पक्षपात नहीं इसलिए जीवन में ऐसे अपकर्म मत करें की उसकी अदालत में कटघरे में मुजरिम बनकर खड़ा होना पड़े । 



 

नवंबर 12, 2023

अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

              अजब नज़ारा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

चाहता था कुछ कहना 
लग रहा जैसे बेज़ुबान था ,
सड़क किनारे खड़ा हुआ 
दुनिया का वो भगवान था । 
 
भूल गया था जैसे कोई 
अपना ही पता ठिकाना ,
खुद बनाया था सबको 
सब से मगर अनजान था । 
 
मंदिर के दर पर गया फिर 
मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ा ,
पंडित को देख परेशान था 
मौलवी से मिल हैरान था । 
 
ढूंढ ढूंढ थक गया मिला न
उसको घर अपना कहीं भी ,
जहां पर थी कल इक बस्ती 
वहां पे बना हुआ श्मशान था ।
 
बे-शक़्ल आदमी थे या कि 
हर तरफ दिख रहे शैतान थे ,
थर- थर्राता - सा खड़ा वहां 
इक किनारे पे छुपा ईमान था ।  
 
लिखा था लाशों पर सभी 
ये हिंदू था वो मुसलमान था ,
वो बनाता रहा हमेशा से ही 
सिर्फ और सिर्फ इंसान था । 
 
मैंने क्या बनाया था इनको 
और ये कैसे ऐसे बन गये हैं ,
देख कर हाल दुनिया का वो 
हुआ बहुत अधिक पशेमान था ।  

(    बहुत  पुरानी डायरी से पुरानी लिखी रचना है । व्यंग्य-यात्रा पत्रिका के अंक में भी शामिल है    ) 
 

 
 
 



     

नवंबर 11, 2023

समंदर जैसी फ़ितरत वाले लोग ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

   समंदर जैसी फ़ितरत वाले लोग  ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

दान उपकार का शोर मचाने वाले अपनी दयालुता का ढिंढोरा पीटने वाले कमाल का आत्मविश्वास रखते हैं । इधर तो आजकल विज्ञापन देते हैं इस को खरीदने पर एक रुपया किसी सामाजिक कार्य में उपयोग किया जाएगा । कौन बनेगा करोड़पति शो में यही दिखाई दिया हर सवाल के सही जवाब पर घी आटा चावल सौ किलो इक संस्था जो भूखों को खाना खिलाती है उसको दान दिया जाएगा । बार बार गिनती बताते कितनी संख्या का सामान हुआ है बढ़ता ही जा रहा है । कुछ ऐसा लगा जैसे समंदर शोर कर रहा हो उस ने कितना पानी बादलों को दिया है और उनसे कितनी धरती पर बारिश होती है । बादलों ने कभी इस बात पर अभिमान नहीं किया कि उसने कितना पानी बरसात कर नदियों तालाबों खेत खलियानों को बांटा है । हम कभी बेमौसमी बारिश की शिकायत करते हैं कभी बादल नहीं बरसते तो सूखे से गर्मी से परेशान होते हैं तो कभी अधिक पानी बरसे तो बाढ़ से परेशान होते हैं । बादलों से शिकवे हज़ार किए जाते हैं उनसे प्यार कभी कोई नहीं करता आशिक़ तक उनके गरजने से बिजली कड़कने से धड़कन बढ़ने की बात करते हैं । बड़े नाम वाले लोग तमाम देशों की सभी सरकारें भी अन्य देशों की सहायता करते हैं भले खुद देश के कितने नागरिक भूखे गरीब और बेहाल ज़िंदगी बसर करते हों । इक पुरानी कहानी है किसी देश के राजा ने अपने पड़ोसी देश के राजा से बढ़कर दानी कहलाने को उस देश के तमाम भिक्षुक साधु संतों को अपने दरबार में आमंत्रित किया और सभी को कीमती उपहार हीरे जवाहरात सोना चांदी के मोहरे भर थैलियां भेंट देकर कहा आपको अपने देश में जाकर बताना है हमारे देश का शासक कितना बड़ा दानवीर है । इक सच्चे साधु को लगा ऐसे अभिमानी शासक को किस तरह सबक सिखाना चाहिए और उस ने राजा से मिला सब कुछ दरबार से बाहर निकलते ही वहां के लोगों को बांटते हुए कहा कि अपने देश के राजा को बता देना कि पड़ोसी जिस देश का इक भिखारी साधु भी जितना भी मिला पास हो गरीबों में बांट देता है उसका राजा कैसा होगा । वास्तविक शासक कभी सामाजिक कल्याण करने या गरीबों की ज़रूरतमंदों की सहायता करने पर खुद अपनी बढ़ाई नहीं करते बल्कि अपना कर्तव्य निभाते हैं । उनको जनता ने कर देकर खज़ाना भर समर्थ बनाया जनहित करने को या फिर ईश्वर ने उनको अधिकार दिया समाज का कल्याण करने को । समझने को इक घटना की बात ज़रूरी है । 
नवाब रहीम और गंगभाट की बात आपने सुनी है या नहीं फिर से दोहराते हैं । रहीम इक नवाब थे जो रोज़ सहायता मांगने वालों की सहायता करते थे तब उनकी नज़रें झुकी रहती थी इक कवि गंगभाट ने ये देखा तो दोहा पढ़कर सवाल किया इस तरह से ।                           

गंगभाट :-

सिखियो कहां नवाबजू ऐसी देनी दैन , ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें त्यों त्यों नीचे नैन । 

अर्थात नवाब साहब ये आपका अजीब तरीका लगता है जब भी किसी को कुछ सहायता देते हैं उसकी तरफ नहीं देखते अपनी नज़रें नीचे को झुकी हुई होती हैं । 

रहीम :-

देनहार कोऊ और है देवत है दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन । 

  रहीम के कहने का मतलब था देने वाला तो वही भगवान है लोग समझते हैं कि मैं दे रहा तभी मेरी नज़रें झुकी रहती हैं ।  कितनी अफ़सोसजनक बात है हम सभी वास्तविक मानवधर्म की परिभाषा भूल गए हैं मंदिर मस्जिद से लेकर रोज़ कितने आयोजन अनुष्ठान करने पर धन खर्च करते हैं जबकि हमारे करीब कितने लोग दो वक़्त रोटी पानी को तरसते हैं । सरकार खुद नेताओं अधिकारियों के अनावश्यक शानो शौकत के दिखावे पर व्यर्थ के आयोजनों सभाओं पर पैसा पानी की तरह बहाती है जबकि देश की आधी आबादी बदहाली में रहती है । इक धर्म का नियम समझाया गया है अपनी आमदनी वो भी सच्ची महनत की कमाई से खुद भी जीना और उसी का दसवां भाग अन्य लोगों की सहायता करने पर खर्च करना इंसानियत कहलाता है । आपस में मिल बांट कर खाना अनिवार्य है । जो लोग किसी भी तरह अधिक से अधिक कमाई करते हैं उनका सामाजिक कार्यों पर नाम मात्र को इक अंश देना वैसा है जैसे किसी नदिया से कोई चिड़िया चौंच भर पानी ले जाए , लेकिन इतने पर भी जो रईस अमीर खुद को शाहंशाह समझते हैं उनको क्या कहा जाए । देश का अधिकांश धन संपदा केवल कुछ सौ या हज़ार लोगों की तिजोरी में होना ईश्वर या भाग्य की बात नहीं बल्कि आधुनिक अर्थव्यवस्था की नाकामी है जिस में समानता कभी संभव ही नहीं है । जब तक अमीर गरीब में इतनी बड़ी खाई है हम अपने देश को महान और आदर्शवादी नहीं नहीं मान सकते हैं । समंदर को भी कभी हिसाब देना होगा उस को कितना कहां कहां से कैसे मिला है वास्तव में जैसे नदियों का मीठा जल समंदर से मिलते खारा हो जाता है वही दशा अमीरों के भरे खज़ाने की है ।  


                                 शायर जाँनिसार अख़्तर कहते हैं :-

                         शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहां 

                          न मिले भीख़ तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । 


 



नवंबर 09, 2023

अंजाम जानते हैं आगाज़ से पहले ( ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया

       अंजाम जानते हैं आगाज़ से पहले ( ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया  

आपने कभी पानी को नीचे धरती से पर्वत की तरफ बहते देखा है कहने को उलटी गंगा बहाना कहावत है । ये अजब ग़ज़ब इधर बहुत दिखाई देने लगा है चाहे कोई कथा कहानी चाहे कोई संदेश वीडियो या किसी भी अन्य माध्यम से सोशल मीडिया पर मनचाहा उपदेश देने को इक काल्पनिक घटना बनाई जाती है यकीन नहीं तो थोड़ा गौर से यूट्यूब फेसबुक व्हाट्सएप्प पर नज़र डाल कर देख सकते हैं । आपको तार्किक ढंग से समझाने वाले भी अपने मनघड़ंत किस्से बना लेते हैं । कुछ लोग पहले दवा बनाते हैं उस के बाद किस रोग का ईलाज उस से किया जा सकता है इस को लेकर शोध करते हैं । साहित्य में अच्छी लाजवाब बेमिसाल कहानी तभी बनती है जब लिखने वाला अगले पन्ने पर तो क्या अगले पहरे में क्या लिखेगा खुद नहीं जानता है । ये टीवी सीरियल वाले ये आधुनिक फिल्म निर्माता सब पहले निर्धारित कर जो भी करते हैं सिर्फ पैसा कमाने को किसी भी सामाजिक सरोकार या बदलाव की खातिर नहीं । दर्शक को कुछ मिले न मिले उनको मनचाहा मुनाफ़ा मिल जाए तो सफ़लता कहलाती है । जिस कथा कहानी से दर्शक पाठक को कुछ नया सार्थक समझने को नहीं मिलता उस का महत्व कुछ भी नहीं सिर्फ व्यौपार धंधा करना कारोबार करना साहित्य या कला अथवा संगीत या अभिनय का मकसद कभी नहीं होना चाहिए । 
 

इक कल्पना करते हैं कि कोई आधुनिक ऐप्प या ऐसा कोई यंत्र जो तमाम आंकड़े एकत्र कर इक सही निष्कर्ष निकाल सकता हो बन जाए तो नतीजे क्या होंगे । आधुनिक फ़िल्मकार अभिनेता टीवी सीरियल निर्माता को लेकर पता चलेगा कि उन्होंने इतना पैसा अर्जित किया लेकिन उनकी कहानियों अभिनय से दर्शक को सबक मिला हिंसक होने का उचित अनुचित की चिंता छोड़ जो मर्ज़ी करने का और प्यार जंग की तरह कारोबार में सब करना उचित है समझने का जिस से समाज रोगी बन गया है । समाज को नग्नता और अश्लीलता और असभ्य भाषा गाली गलौच अभद्रता को वास्तविकता समझ अपनाना स्वीकार करना का पाठ पढ़ाने वाले किस समाज की स्थापना करना चाहते हैं । आजकल तो नशा और खुलेआम शारीरिक संबंध बनाना हर फ़िल्म सीरियल का हिस्सा बन गया है और अब तो टीटी माध्यम से सीरीज़ ने गंदगी की हर सीमा लांघ दी है । मनोरंजन की आड़ में सब कुछ नहीं होना चाहिए स्वस्थ मनोरंजन का लक्ष्य है अच्छी और उच्चकोटि की नागरिकता का निर्माण करना साथ ही मानसिक रूप से शारीरिक रूप से तंदरुस्त बनाना । इसके साथ ही इसमें अच्छी आदतें विकसित करना और उसको चरित्र वाले गुणों से विकसित करना उसके उद्देश्य हैं। एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना आवश्यक उद्देश्य है ।

कमाल की बात है ये सभी दर्शक को हिंसा गुंडागर्दी और असंभव को घटित होता दिखाने के बाद कहते हैं कि हम आपको वास्तविक जीवन में ऐसा आज़माने की सलाह नहीं देते बल्कि ऐसा करना ख़तरनाक साबित हो सकता है । माजरा खतरों से खेलने तक का नहीं है ये तमाम खिलाड़ी आपको हानिकारक खाद्य पदार्थ को उपयोग करने को ललचाते हैं जुए जैसी खराब लत की तरफ धकेलते हैं सिर्फ विज्ञापन से खूब कमाई करने को अपने चाहने वालों की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते हैं । हमने कैसे कैसे नायक बना लिए हैं जिनका असली किरदार ख़लनायक से भी बढ़कर हानिकारक साबित होता है । ऊंचा उठने को कितना नीचे गिर रहे हैं और हम ये सब बेहूदगी आखिर क्यों सह रहे हैं । वो अंधकार को उजाला बता रहे हैं और हम अपनी आंखें बंद कर उनकी दिखाई राह चलते हुए ठोकर पे ठोकर खा रहे हैं । चिड़िया खेत चुग रही और हम लोग ताली बजा रहे हैं सच कहने वाले बोलकर पछता रहे हैं । काश कोई कहानी लिखने का वही पुराना अंदाज़ वापस लौटा सके , इक ग़ज़ल पढ़ते हैं ।

अब सुना कोई कहानी फिर उसी अंदाज़ में ( ग़ज़ल ) 

          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब सुना कोई कहानी फिर उसी अंदाज़ में
आज कैसे कह दिया सब कुछ यहां आगाज़ में ।

आप कहना चाहते कुछ और थे महफ़िल में ,पर
बात शायद और कुछ आई नज़र आवाज़ में ।

कह रहे थे आसमां के पार सारे जाएंगे
रह गई फिर क्यों कमी दुनिया तेरी परवाज़ में ।

दे रहे अपनी कसम रखना छुपा कर बात को
क्यों नहीं रखते यकीं कुछ लोग अब हमराज़ में ।

लोग कोई धुन नई सुनने को आये थे यहां
आपने लेकिन निकाली धुन वही फिर साज़ में ।

देखते हम भी रहे हैं सब अदाएं आपकी
पर लुटा पाये नहीं अपना सभी कुछ नाज़ में ।

तुम बता दो बात "तनहा" आज दिल की खोलकर
मत छिपाओ बात ऐसे ज़िंदगी की राज़ में ।
 

 
 
 

 

नवंबर 08, 2023

ना इधर के रहे ना उधर के रहे ( गोरा-काला ) डॉ लोक सेतिया

   ना इधर के रहे ना उधर के रहे ( गोरा-काला ) डॉ लोक सेतिया 

हर दिन ख़ास होता है भले कसी दिन जश्न मनाते हैं किसी दिन अफ़सोस जतलाते हैं । 8 नवंबर का भी अपना महत्व है शायर की भाषा में कह सकते हैं " ना ख़ुदा ही मिला ना विसाल ए सनम , ना इधर के रहे ना उधर के रहे "। लेकिन जिनको बस कुछ कर दिखाना होता है उनको ऐसी बातों से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता खाया पीया कुछ नहीं गलास तोडा बारह आना की बात है । लेकिन सच कहें तो किसी ने खूब जमकर खाया ही नहीं यारों को खिलाया भी है उनके दरबार में हर दिन दावत होती है । इक पंजाबन कहती है काला शाह काला मेरा काला हे सरदार गोरियां नूं दफ़ा करो । शहंशाह को भी तमाम चाहने वाले इसी तरह से दिल से चाहते हैं कोई दाग़ दिखाई नहीं देता जब कभी कालिख़ भी कोयले की कोठड़ी से लग जाए तो नज़र से बचने का काला टीका समझते हैं । राजनेताओं से देश समाज को क्या मिलता है इस विषय पर इतिहासकार चुप्पी साधे रहते हैं क्योंकि ये माजरा थोड़ा अलग है । जिस राजनेता ने आपात्काल घोषित किया उनको सिर्फ बदनामी मिली मगर उसी का नतीजा कितने विपक्षी दलों के राजनेता सत्तासुख भोग रहे हैं । ऐसे भी बहुत हैं जो पकड़े जाने के डर से भागे छुपते फिरते थे अब शेर की तरह दहाड़ते हैं । जनता की और बात है कोई भी शासक हो उसको कुछ नहीं हासिल होता वोट देकर हासिल बेबसी लाचारी होती है आज़ादी क्या है इक पहेली है जिस का अभी हल किसी को नहीं समझ आया है । सरकारों से संसद से विधानसभाओं से क्या क्या और कैसे कैसे कानून बनाये गये हैं लेकिन मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की जैसी हालत है । 
 
सिर्फ काला धन ही नहीं बढ़ता गया बल्कि गरीबी भूख बेरोज़गारी शोषण अन्याय अत्याचार सभी खूब फलते फूलते रहते हैं अपराधी हंसते हैं जब बड़ी से बड़ी अदालत कहती है हमारा बुलडोज़र चला तो मुश्किल होगी । बच्चो संभल जाओ हैडमास्टर जी छड़ी दिखा रहे हैं इक समस्या है छड़ी से उनकी कलाई को मोच आने की चिंता रहती है । जिनको संविधान मंज़ूर नहीं कोई उनसे नहीं पूछता कि आपका सारा वजूद उसी के आधार पर है अगर कोई पहले यही सोचता तो आपका क्या होता , तेरा क्या होगा कालिया सरकार गब्बर सिंह की तरह काला धन से पूछ रही है । मैंने आपकी तिजोरी भरी है रिज़र्व बैंक से आंकड़े आये हैं अब सभी लोग दूध के नहाये हैं आपकी अनुकंपा है अपराधी गुंडे जीते हैं सांसद विधानसभाओं की शोभा बढ़ाये हैं माननीय और आदरणीय कहलाये हैं । सभी अपने पिया मन भाये हैं अदालत से गुनहगार भी शासक से कलीन चिट लाये हैं और सभी शरीफ़ लोग देख कर घबराये हैं लौट कर बुद्धू घर आये हैं । हम चांद की सैर कर ज़मीन पर वापस आये हैं कांटों के गुलशन हर जगह लहलहाये हैं उनके लिए हमने कालीन बिछाये थे हमारे लिए जिन्होंने राहों में कांटे ही कांटे बिछाये हैं । सत्ता ने अजब दस्तूर बनाये हैं धूप वाले साये हैं ये कैसे पेड़ लगाये हैं ।  काला धन बढ़ गया है विदेशी बैंक से राजनैतिक दलों का सबका ख़ज़ाना भर गया है । काला धन कितना था कितना सफेद कोई हिसाब नहीं लगाया गया आज तक , लेकिन जब सरकार ने उनका भेदभाव मिटाने को दोनों को इक साथ मिला दिया तब काला और सफेद रंग मिलकर जो नया रंग बना । साथ साथ मिलाने से काला काला नहीं रहता सफेद सफेद नहीं रहता उनके मिलन से ग्रे रंग बन जाता है अब कोई भी पूरी तरह से खराब नहीं न ही कोई पूरी तरह से अच्छा सब कुछ भले कुछ बुरे बन गये हैं । नोटेबंदी ने कमाल कर दिया है हुआ कुछ भी नहीं बस इक धमाल कर दिया है ।

 

अंत में इक हास्य कविता अच्छे दिन आने की पढ़ना लाज़मी है । 

          अब अच्छे दिन आये हैं ( हास्य-व्यंग्य कविता ) 

सुन लो  बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं
तिगनी का नाच नचाने को हमने , लंगड़े सभी बनाये हैं
 
हाल सब का इक जैसा होगा , काले भी गोरे बन जायेंगे
अपने रंग में रंगना सब को , अपनी पाउडर बिंदी लाये हैं ।

मुर्दों की अब बनेगी बस्ती , ऐसी योजना बनाई है हमने

होगी नहीं लाशों की गिनती , क़ातिल की होती रुसवाई है । 

अपने दल की टिकेट देकर , जितने अपराधी खड़े किये हैं
माननीय बन शरीफ कहलायें , इंकलाब क्या कैसा लाये हैं ।

सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।

सब इश्तिहार हमारे देखो तुम , झूठे हैं या सच्चे हैं हम

हम सब छप्पन इंच के हैं अब , बाकी तो अभी बच्चे हैं

मत देखो जो कुछ भी बुरा है , तुम गांधी जी के बंदर हो
जो सत्ता कहती सच वही है , सच की परिभाषा बनाये हैं ।

सुन लो बहरो , देखो सारे अंधो , हम अच्छे दिन लाये हैं ।