मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा। मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है। ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं। व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है। मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं। साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है। व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं।
जून 08, 2023
कौन किस तरह जीता , देखता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
ख़ुश्क आंखें हैं जुबां ख़ामोश है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

जून 07, 2023
हुनर है अपना सभी नाज़ उठा लेते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
हुनर है अपना सभी नाज़ उठा लेते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

जून 06, 2023
ग़ज़ल पहले प्यार की ( नहीं कहते ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
ग़ज़ल पहले प्यार की ( नहीं कहते ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

जून 05, 2023
एक दिन ज़िंदगी मुझे दे दे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
एक दिन ज़िंदगी मुझे दे दे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
जून 03, 2023
बेख़बर हैं कुछ ख़बर ही नहीं ( ख़ामोश दास्तां ) डॉ लोक सेतिया
बेख़बर हैं कुछ ख़बर ही नहीं ( ख़ामोश दास्तां ) डॉ लोक सेतिया
जून 01, 2023
फ़क़ीर से अमीर होने तक ( बेढंगी चाल ) डॉ लोक सेतिया
फ़क़ीर से अमीर होने तक ( बेढंगी चाल ) डॉ लोक सेतिया
ग़ज़ल
बेखता जब बरी नहीं होते ।
जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।
गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।
क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।
हमको कोई नहीं है ग़म इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।
जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।
सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
पास रह के वो कितनी दूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
पास रह के वो कितनी दूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
( पुरानी डायरी से 2009 वर्ष की लिखी रचना )
मई 31, 2023
मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
ग़ज़ल
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।
बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।
हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।
आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।
खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं ।
नज़्म
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये ।
इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये ।
वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये ।
मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये ।
दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये ।
जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये ।
ग़ज़ल
मौत का इंतज़ार बाकी है ।
खेलने को सभी खिलाड़ी हैं
पर अभी जीत हार बाकी है ।
दिल किसी का अभी धड़कता है
आपका इख्तियार बाकी है ।
मय पिलाई कभी थी नज़रों से
आज तक भी खुमार बाकी है ।
दोस्तों में वफ़ा कहां बाकी
बस दिखाने को प्यार बाकी है ।
साथ देते नहीं कभी अपने
इक यही एतबार बाकी है ।
हारना मत कभी ज़माने से
अब तलक आर पार बाकी है ।
लोग सब आ गये जनाज़े पर
बस पुराना वो यार बाकी है ।
मई 29, 2023
भूखे पेट सब भजन करेंगे ( कुंवे में भांग ) डॉ लोक सेतिया
भूखे पेट सब भजन करेंगे ( कुंवे में भांग ) डॉ लोक सेतिया
इसी सबब से हैं शायद , अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं ।
वतन से इश्क़ ग़रीबी से बैर अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं ।
समझ सके तो समझ ज़िंदगी की उलझन को
मई 28, 2023
रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया
रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया
कुलदील सलिल जी की बात से शुरुआत करते हैं और आखिर में उनकी लाजवाब ग़ज़ल भी पढ़ते हैं।
मई 25, 2023
बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बुद्धूराजा ने ऐलान किया है मूर्खों का कद बढ़ाना है सिर्फ एक शहर एक राज्य एक देश नहीं सब दुनिया पर अपना झंडा फहराना है । समझदारों से पिंड छुड़ाना है अपना सिक्का चलाना है समझदारी का खोटा सिक्का निपटाना है जब अपने हाथ खज़ाना है फिर किस बात को शर्माना है । रोज़ कुछ अनचाहा घटता और हर बार बुद्धूराजा इक जश्न मनाता और कहता कि जो भी होता है अच्छे के लिए होता है विनाश करने से अनुभव मिलता है विकास का अर्थ मालूम पड़ता है । बुद्धूराजा के समर्थक कुछ भी तर्कसंगत ढंग से विचार नहीं करते जो उनका शासक कहता उसे ही सच मानते । बुद्धूराजा झूठ पर झूठ बोलने का कीर्तिमान बनाता रहा और बर्बादी का भी जश्न मनाते रहा । ये बात खुद उसी ने बताई है बुद्धूराजा ने अपनी आत्मकथा लिखवाई है बात बिल्कुल पक्की है खीर अभी कच्ची है दोनों हाथ घी में सर है कढ़ाई में कौन तीन में है कौन ढाई में फर्क होता है कागज़ की नाव में और काली कलम की स्याही में । दुनिया मूर्खों का सबसे बड़ा बाज़ार है शासक भले मूर्ख है पर बड़ा होशियार है उसका अपना संविधान है कोई उस के बराबर नहीं वो सबसे महान है सभी कमज़ोर हैं इक वही बलवान है । दुनिया शोर को सच मानती है शोर की यही पहचान है चोर संग दोस्ती साहूकार संग भाईचारा भी नादान हर इंसान है । मूखों ने बुद्धिमानों की राह से विपरीत जाना है देश को मूर्खों का स्वर्ग बनाना है समझदारी बुद्धिमानी सोच समझ सभी से पीछा छुड़ाना है । नया ज़माना लाना है टके सेर भाजी टके सेर खाजा का इतहास दोहराना है हर मुसीबत को घर बुलाना है हर पेड़ की डाल डाल शाख शाख पर मूर्खों को बिठाना है उल्लू राज का युग वापस लाना है । समझदारी है आजकल यही सबको बुद्धू बनाना है हमने मौज मनाना है अपना सच्चा याराना है मिल बांट कर खाना है बस इक यही वादा निभाना है ।
मई 24, 2023
बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
जाना था कहां आ गये कहां ( कविता )
दुनिया की निगाह में ,
खो गई मंज़िल कहीं
जाने कब किस राह में ,
सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।
आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से ,
खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,
बस ज़रा सा अंतर है
वाह में और आह में ।
लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,
फिर फिर उसी गुनाह में
जाना था इबादतगाह में ।
आस्था ( कविता )
कोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस ।
नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं ।
लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता ।
मई 23, 2023
तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया
तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया
धरती का रस ( नीति कथा )
ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
गिला इसका नहीं बदला ज़माना
मगर वो शख्स तो ऐसा नहीं था ।
खिला इक फूल तो बगिया में लेकिन
जो हमने चाहा था वैसा नहीं था ।
न पूछो क्या हुआ भगवान जाने
मैं कैसा था कि मैं कैसा नहीं था ।
जो देखा गौर से उस घर को मैंने
लगा मुझको वो घर जैसा नहीं था ।
मई 22, 2023
बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
मेरी ये पुरानी ग़ज़ल दो हज़ार रूपये के नोट की व्यथा को समझाती है उसके दर्द को बयां करती है ।
हो खफा मौत तो मरें कैसे ।
बागबां ही अगर उन्हें मसले
फूल फिर आरज़ू करें कैसे ।
ज़ख्म दे कर हमें वो भूल गये
ज़ख्म दिल के ये अब भरें कैसे ।
हमको खुद पर ही जब यकीन नहीं
फिर यकीं गैर का करें कैसे ।
हो के मज़बूर ज़ुल्म सहते हैं
बेजुबां ज़िक्र भी करें कैसे ।
भूल जायें तुम्हें कहो क्यों कर
खुद से खुद को जुदा करें कैसे ।
रहनुमा ही जो हमको भटकाए
सूए - मंजिल कदम धरें कैसे ।
संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया
संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया
सबको लगता बुरा हूं मैं ।
अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।
बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।
अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।
अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।
आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।
सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।