जून 24, 2012

किसे हम दास्तां अपनी सुनायें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

किसे हम दास्तां अपनी सुनायें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें  
कि अपना मेहरबां किसको बनायें।

कभी तो ज़िंदगी का हो सवेरा 
डराती हैं बहुत काली घटायें।

यहाँ इन्सान हों इंसानियत हो
नया मज़हब सभी मिलकर चलायें।
 
सताती हैं हमें तन्हाईयां अब
यहाँ परदेस में किसको बुलायें।

हमारा चारागर जाने कहाँ है
कहाँ जाकर ज़ख्म अपने दिखायें।

जिन्हें जीना ही औरों के लिए हो 
बताओ फिर ज़हर कैसे वो खायें।

चमकती है शहर में रात "तनहा" 
अँधेरे गावं इक दिन जगमगायें।

जून 22, 2012

ढूंढते हैं मुझे मैं जहाँ नहीं हूँ ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

 ढूंढते हैं मुझे मैं जहाँ नहीं हूँ ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

ढूंढते हैं मुझे , मैं जहां  नहीं हूं 
जानते हैं सभी , मैं कहां नहीं हूं ।
  
सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं
और कोई वहां , मैं वहां नहीं हूं ।

मैं बसा था कभी , आपके ही दिल में
खुद निकाला मुझे , अब वहां नहीं हूं ।
 
दे रहा मैं सदा , हर घड़ी सभी को
दिल की आवाज़ हूं ,  मैं दहां  नहीं हूं ।

गर नहीं आपको , ऐतबार मुझ पर
तुम नहीं मानते , मैं भी हां  नहीं हूं ।

आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों
मैं कभी आपका इम्तिहां  नहीं हूं ।

लोग "तनहा" मुझे देख लें कभी भी
बस नज़र चाहिए मैं निहां  नहीं  हूं ।

 (  खुदा , ईश्वर , परमात्मा , इक ओंकार , यीसु )

जून 11, 2012

कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

कहीं अल्फ़ाज़ सारे खो गये हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

कहीं अल्फाज़ सारे खो गये हैं
तभी खामोश लब सब हो गये हैं ।

तड़पते ही रहे सारी उम्र जो
जगाना मत उन्हें  अब सो गये हैं ।

अदीबों में  नहीं कोई भी उनसा
चढ़ाये रोज़ सूली वो गये हैं ।

सुनाने दास्ताँ अपनी लगे जब
नहीं कुछ कह सके बस रो गये हैं ।

अगर है हौसला करना मुहब्बत
लुटे सब इस गली में जो गये हैं ।

उन्हें फिर भी नहीं रोटी मिली है
जो सर पर बोझ सबका ढो गये है ।

यहाँ कुछ फूल आंगन में उगाते
ये कैक्टस  किसलिये सब बो गये हैं ।

नहीं जाते , रकीबों के घरों में
जहाँ जाना नहीं था , लो गये  हैं ।

मनाते और "तनहा" मान जाते
नहीं फिर क्यों मनाने को गये हैं ।