जनवरी 29, 2019

कुछ रह गया कुछ छोड़ दिया ( साहित्य की दुनिया - उपसंहार ) डॉ लोक सेतिया

    कुछ रह गया कुछ छोड़ दिया( साहित्य की दुनिया - उपसंहार ) 

                                                  डॉ लोक सेतिया 

     दो पोस्ट लिख कर भी वास्तव में बात कतरे तक पहुंची और समंदर का ओर छोर समझना रह गया। वह पुरानी कहानी अंधे को हाथी अपने हाथ जिस जगह लगे उसी अनुसार लगा। मगर बात और भी है कुछ को कहना भूल गये लिखने वाले तो कुछ तो जानकर नहीं लिखा और रहने दिया। आपको हमको जो कविता जो ग़ज़ल दर्द भरी मन को छूती लगती है उसके पीछे की कहानी अगर कोई है तो कोई नहीं जनता जिस की बेवफ़ाई का मातम कोई कर रहा है क्या वास्तव में उसका कोई दोष था या उस पर झूठी तोहमत लगा दी किसी ने अपनी कलम के हुनर का गलत इस्तेमाल कर के। अक्सर लिखने वालों ने किसी को नायक साबित करने को दूसरे की बात को ऐसे ढंग से लिखा कि उसकी अच्छाई भी सामने आने नहीं पाये। आशिक़ लोग जब किसी की बेवफ़ाई की बात कहते हैं तो शायद भूल जाते हैं ताली दोनों हाथ से बजती है और जिसको वास्तव में प्यार किया उसकी रुसवाई करना सबसे बड़ी बेवफ़ाई होती है। सवाल महिला पुरुष का भी नहीं जब जो किसी को पाना चाहता है उसकी मर्ज़ी का आदर नहीं करता है। ऐसा नहीं है कि लिखने वालों ने इस पक्ष को लेकर लिखा ही नहीं मगर बहुत कम लिखने वालों ने लिखा और जाने क्यों उसकी बात उतनी चर्चित नहीं हुई। सफर फिल्म में नायक नायिका मुहब्बत करते हैं मगर नायक को पता चलता है उसको खून का कैंसर है और नायिका भले उसके साथ विवाह करना चाहती है वो जिसको चाहता है उसकी भलाई की खातिर अपने प्यार का वास्ता देकर उस से विवाह करने को कहता है जो सह-अभिनेता नायिका को चाहता है। अंजाम भले जो भी हो और वास्तव में अंजाम लेखक अपने मन में तय कर चुका होता है कि कहानी सार्थक है मगर अंजाम अंत में दुःखद ही रखना है। आनंद फिल्म फिर भी बेहतर है जिस में नायक जिसे चाहता है नहीं मिलती तो उस शहर से दूर चला जाता है और अपनी महबूबा की रुसवाई नहीं करता है। दो बदन फिल्म की नायिका इक डॉयलॉग में सच्चे प्यार की परिभाषा बताती है कि जो पा लेने को प्यार समझता है उसको प्यार क्या है समझने को कई जन्म लेने होंगे। अनुभव फिल्म की नायिका का डॉयलॉग शायद ही कोई समझेगा जो अपने पति को कहती है , हम दोनों कुछ पल को मिला करते थे और कॉलेज के ज़माने में जितना समय हमने साथ बिताया उसको एक साथ जोड़ा जाये तो सात घंटे भी नहीं बनेंगे कुल , मगर उन सात घंटों में जितना प्यार मुझे उस से मिला आपसे शादी के बाद सात सालों में भी उतना मिला नहीं , और उसने मुझे कभी छुआ तक नहीं। ख़ामोशी हंसते ज़ख्म सफर मिलन अनुभव जैसी फ़िल्मी कहानियां हम को पसंद नहीं आईं क्योंकि हम भी अपनी मानसिकता को बदलना नहीं चाहते। औरत कविता मेरी इस विषय को लेकर ही है कि क्या किसी महिला के बदन को टुकड़ों में बांटकर देखना चाहत कहला सकता है , तेरी आंखें तेरे होंट तेरा फलां अंग इस तरह सुंदरता की बात करना उचित है या जिसको भी चाहते उसको पूरी तरह से उसकी शख्सियत को प्यार करना चाहिए। शायद महिलाओं को भी इस जाल से निकलना चाहिए और मजाज़ लखनवी जी की ग़ज़ल को समझना और उस से सबक लेना चाहिए। तू इस अंचल को इक परचम बना लेती तो अच्छा था। 
 
      कल किसी की पोस्ट पर लिखा हुआ पढ़ा अमृता और इमरोज़ को लेकर , लिखा था हर औरत में थोड़ी अमृता मिलती है मगर किसी पुरष में इमरोज़ नहीं मिलता। मेरे इक दोस्त को जाने क्या सूझी कि अपना नाम इमरोज़ रख लिया। मगर आपको अमृता की बात समझ आती है इमरोज़ की नहीं उनका रिश्ता उस तरह का था ही नहीं और आपको कोई अमृता इमरोज़ नज़र आये तो शायद आपको ही बदकार बदचलन शब्द याद आने लगें क्योंकि हम खुद जैसे भी हों औरों से चाहते हैं सामाजिक बंधनों का पालन करना। साहिर की बात को भी नहीं समझा अपने अन्यथा उसको इल्ज़ाम देना नहीं चाहते , कोई आशिक़ अपनी महबूबा को मुझे छोड़ कर भी तुम जा सकती हो , तेरे  हाथ में मेरा हाथ है जंजीर नहीं। हमारी समस्या है कि हम जिसको प्यार करते हैं ऐसा मानते हैं या दावा करते हैं उसको आज़ादी नहीं देते उसकी भावनाओं का आदर नहीं करते। तू अगर मेरी नहीं है तो पराई भी नहीं वाला प्यार और चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों जैसा सच्चा इश्क़ कितना अंतर है। छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए। ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो अपमान रचेता का होगा रचना को अगर ठुकराओगे , संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे। 
 
               आपको वही लोग भाते हैं जो सफल हुए मगर जो असफल रहे उनकी कहानी कोई लिखता भी नहीं है। जावेद अख्तर को जानते हैं मगर उनके वालिद जाँनिसार अख्तर को शायद नहीं जो साहिर के समय के उनके दोस्त थे और कहते हैं साहिर की रचनाओं को ठीक किया करते थे। मगर उनके बारे बताया जाता है कि साहिर की महफ़िल में किसी सोफे के कोने पर सिकुड़े हुए बैठे रहते थे। उनकी शायरी को पढोगे तो पता चलेगा कितना लाजवाब लिखते थे। सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है , ये ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है। जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं , देखना ये है कि अब आग किधर लगती है। कोई और शायर थे जो बॉम्बे से असफल निराश वापस जाते हुए अपना कालम सारा बेच गये चंद रुपयों में मज़बूरी में जिनको बेचकर कोई हसरत जयपुरी शोहरत की बुलंदी पर जा पहुंचा। ऐसे जाने कितने किस्से हैं जो खो गये वक़्त की आंधी उनको कहां ले गई पता नहीं चला। 
 
         आखिर में इक और विषय की बात करना चाहता हूं , हर सभा में कोई उपदेशक कहता मिलता है कि बच्चे बुरे हैं और माता पिता अच्छे जो उनके लिए क्या कुछ नहीं करते। सोचो जो आज माता पिता हैं कभी वो भी बच्चे थे और तब उनको लेकर भी यही बात कही जाती होगी। बच्चे भी खराब हो सकते है और माता पिता भी ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों के साथ सही नहीं करते हैं। अपने बच्चों को आज़ादी नहीं देना अपने आधीन रखने को जैसे चाहे करना ये भी इसी दुनिया में होता है। बच्चे को अच्छा बनाना बुराई की तरफ भेजना दोनों काम करते हैं माता पिता। जो चोर रिश्वतखोर अपराधी मतलबी देश को समाज को नर्क बनाते हैं उनकी संतान को भलाई का सबक कैसे समझ आएगा। मगर इक चलन बन गया कि जैसे भी हों माता पिता पूजनीय हैं जैसे जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है ये सच लिखना नहीं है और साहित्य को सच हर तरफ का पूरा लिखना चाहिए आधा सच झूठ से भी खराब होता है।


जनवरी 28, 2019

साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच ) डॉ लोक सेतिया ( भाग दो )

 साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच ) भाग दो - डॉ लोक सेतिया

                                        ( पिछले अंक से आगे )

   एक तरफ वास्तविक लेखक चुपचाप बिना कोई मानदेय या रॉयल्टी पाये सृजन करता है और छापने वाले अख़बार मैगज़ीन वाले बिना कीमत चुकाये या नाम को कुछ देकर उसका शोषण करने के बावजूद भी कहते हैं साहित्य की समाज की भलाई का महान काम करते हैं। एक रचना लेखक के दर्द की भेजी थी लिखने वाले लिख अपनी भी कहानी और नतीजा क्या हुआ जानना चाहोगे। किसी अख़बार ने जो शहीद परिवार फंड की बात किया करता था मेरे लिखे हुए कागज़ के पुर्ज़े कर के अर्थात उसको फाड़कर वापस भेजा था। मैंने तब उनको खत लिखा था कि ऐसी रिवायत है कि जब किसी के घर कोई मरता है तो चिट्ठी को फाड़कर भेजते हैं सभी को सूचना देने को। उनके वहां भी ज़मीर की मौत हुई होगी या समझ आया था। यकीन करना ये अख़बार कोई घाटे में नहीं चलता है करोड़ों की आमदनी है और बहुत जगह से इक बड़ी संख्या में छपता है। कभी अख़बार लिख कर बिकते थे आजकल बिक कर लिखते हैं। बड़े क्या शहर के हज़ार दो हज़ार संख्या में छपने वाले सांध्य दैनिक भी सत्ताधारी दल का गुणगान करते कई कई अंक निकालते हैं दल से कीमत लेकर। मगर फिर भी सच और लोकतंत्र का सतंभ होने का दावा भी है। कड़वा सच यही है कि बहुत लोग इस काम को करते हैं मगर उनकी कमाई अधिकारियों के लिए बिचौलये बन रिश्वत का धंधा चलाने से होती है। मेरी रचना पढ़कर इक मैगज़ीन के संपादक का फोन आया जो बताने लगे चालीस साल से मैगज़ीन निकलती है और अभी भी कुछ हज़ार घाटे का कारोबार हर महीने है। मैंने पूछा आपको वेतन मिलता है तो पता चला उनका वेतन घर का किराया कार और फोन आदि सुविधाओं का खर्च मिलाकर भुगतान लाखों में है। बाकी जो भी कर्मचारी हैं उनका भी वेतन बाकायदा देते हैं बिजली का बिल और कागज़ की कीमत और छपाई का बिल भी चुकाते हैं और डाक से भेजने का ही नहीं जो मैगज़ीन बेचते हैं उनको भी पैसे मिलते हैं। केवल एक लिखने वाले को ही देना ज़रूरी नहीं है उनको दिलासा देने को खत भेजते हैं जब संभव हुआ भुगतान किया जाएगा। तीन साल में हर महीने छपी रचनाओं का मानदेय बकाया है। सवाल ये है कि जिनके विज्ञापन छापते हैं उनसे एक पेज के लाखों वसूल करते हैं मगर लिखने वाले को दो सौ भी देने में आनाकानी करते हैं। 
 
          लिखने वाले भी कम नहीं है जिनको नाम शोहरत हासिल है उनकी रचनाएं सुनकर लगता है जैसे ग़ज़ल कविता को हथियार बनाकर किसी को नफरत का निशाना बना रहे हैं। सच कहने का अधिकार है और सत्ता की खामियां बताना आलोचना करना भी हर लिखने वाले का काम है मगर जब कोई खुलकर किसी को खलनायक बताने की बात करते हुए ये भी ज़ाहिर करता है कि उनको बोलने की आज़ादी नहीं है तब बात हज़म नहीं होती है। देश विदेश जो मर्ज़ी कहते हैं मगर अपने धर्म या वर्ग के नाम पर उनका दमन किया जाता है दहशत है कहकर तालियां और खूब धन पाते हैं। यकीनन ऐसा ग़ज़ल कविता साहित्य के साथ उचित नहीं है और हर किसी को इक सीमा का उलंघन करने की इजाज़त नहीं हो सकती। साहित्य दुर्भावना पैदा करने का माध्यम नहीं है और आपको राजनीति की बात किसी और मंच से करनी चाहिए। साहित्य ग़ज़ल कविता की अपनी मर्यादा है और जिस तरह इधर लोग अपनी ग़ज़ल को भी पूरा नहीं टुकड़ों में बांटकर सुनाते हैं उसे मुशायरे की परंपरा में अनुचित कहते हैं। ग़ज़ल सुनने का शुऊर भी और सुनाने का सलीका भी होना चाहिए , इक मतला और इक शेर पेश है , तालियां बजाकर दाद देंगे तो अच्छा है , सामने पहली कतार में बैठे आयोजकों का नाम बार बार लेकर उनकी चाटुकारिता करना किसी बड़े शायर की शोभा नहीं देता है। कवि सम्मेलन और मुशायरे के नाम पर चुटकलेबाजी जुमले उछालना और बस किसी तरह मनोरंजन करना देख लगता है साहित्य और अदब की नहीं मसखरे या बहरूपिये हैं जो किसी को खुश कर अपना पेट भरते हैं।  
 
            टीवी चैनल के मालिक और फ़िल्मकार बिना लिखने वालों के नहीं चलता उनका काम कभी। मगर इक तरफ जो पर्दे के सामने है नायक नायिका अदाकार उनको लाखों करोड़ों और लिखने वाले को कहने भर को थोड़ी बहुत राशि मिलना न्याय की बात नहीं है। अभी कुछ साल तक लिखने वाले से सभी अधिकार कोई खरीद लिया करता था मगर अब कानून बदल गया है फिर भी चलन बदला नहीं है। वास्तव में जैसे हम सोचते हैं कि किसान को अपनी फसल की कीमत उसकी महनत का मोल मिलना चाहिए ठीक उसी तरह हर लेखक की रचना को उपयोग करने से पहले लिखने वाले की मर्ज़ी की कीमत देनी चाहिए। जब तक लिखने वाले को लेखन से पेट भरने को रोटी नहीं मिलती कोई साहित्य और अदब को बढ़ावा देने की बात करता है तो इक झूठ या छल है। खेद की बात है कि देश की हर राज्य की साहित्य अकादमी को खूब बजट मिलता है मगर उसका सार्थक उपयोग साहित्य को बढ़ावा देने को नहीं कुछ अपनों को रेवड़ियां बांटने को किया जाता है। अधिकतर ईनाम पुरुस्कार जिनको मिलते हैं उसके काबिल नहीं होते हैं और जो वास्तव में हकदार हैं उनको कुछ नहीं मिलता क्योंकि उनको इसकी कला आती नहीं है। ऐसे ही एक बहुत अच्छे लेखक को कैंसर रोग होने पर हरियाणा की पंजाबी अकादमी ने नाम भर को सहायता भी विलंब से दी थी जबकि उनसे कम अच्छा लिखने वाले अकादमी के निदेशक बने हुए थे और दोनों एक ही शहर के रहने वाले थे। साहित्य अकादमी के पद ही जब साहित्य को योगदान नहीं अन्य कारण से मिलने लगे तो कुछ भी उम्मीद बचती नहीं है। शायद तभी आजकल पहले जैसे कद के लिखने वाले किसी विधा में नज़र नहीं आते हैं और उनका बोलबाला है जो किसी तरह पहली कतार में बैठने का जुगाड़ करना जानते हैं।
       

जनवरी 27, 2019

उनको कब मिलेगा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         उनको कब मिलेगा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

      ऐसे वैसों को दिया है कैसे केसों को दिया है उनको भी भाररत्न दिला दे चींटी को पहाड़ चढ़ा दे। बेहद उदास बहुत निराश हैं। अभी नहीं मिला तो फिर कब मिलेगा। ऊपर वाले तेरी रहमत से दिल भर गया है कोई जीते जी जैसे मर गया है। पहले से भगवा धारण नहीं किया होता तो आज का दिन देख बाबा जी बाबा बन जाते। निंदा करने से जो हाथ से निकल गया मिलने वाला भी नहीं जानते हैं मगर क्या करें आंसू छुपाना आता नहीं है। काश इतना सब बनाया खुद अपने नाम से इक भारतरत्न भी खुद का घोषित किया होता तो किसी और की दया मेहरबानी का इंतज़ार नहीं रहता। व्यथा सुनाई तो सुनकर दार्शनिक दोस्त कहने लगे चिंता की बात नहीं है थोड़ा वक़्त बीतने दो फिर जैसे कभी फोन किसी किसी के पास था मगर समय बदला तो मोबाइल फोन क्या स्मार्ट फोन भिखारी तक के पास है। आपको याद है कभी गांव में पढ़ा लिखा कोई विरला हुआ करता था और खुद आप काला अक्षर भैंस बराबर थे लेकिन समय का खेल है कि आज हर खेल के मैदान में असली खेल आपका ही है। आपका नाम सफलता का दूसरा नाम है। कुछ साल पहले आपके पास साईकिल भी नहीं थी मगर आजकल हवाई जहाज़ पर चलते हैं टीवी चैनल पर धूम मची है। कोई मुनाफाखोरी करते नहीं कहते हैं और जितना धन अपने जमा किया है किस ने इतनी जल्दी किया है बताओ। चाहो तो किसी और देश से भी जुगाड़ किया जा सकता है समकक्ष कोई ईनाम मगर आपका स्वदेशी का भांडा फूट जाएगा। धैर्य से काम लो अबकी नहीं तो अगली बार सही पहले से इंतज़ाम कर लेना यूं ही किसी के भरोसे मत रहना। मगर लगता नहीं दार्शनिक जी की बात का कोई असर हुआ है। 
 
     कुछ सोच कर बोले नहीं मुझे नहीं मिला इसका अफ़सोस नहीं है जिसको मिला उसको कैसे मिला क्यों मिला इस का गिला है। भाई मैंने क्या दिया है देश को जो मुझे मिलता लेकिन जिनको मिला उनका कोई योगदान देश को ऐसा ख़ास हो तो बताओ। भारतरत्न को इतना आसान बना दिया तो कल हर कोई लिए फिरता दिखाई देगा। दुखती राग को छेड़ना उचित नहीं ये सोच दार्शनिक बात बदलने लगे। छोड़ो ये सब राजनीति की बातें हैं आपको तो राजनीति नहीं देश की जनता की चिंता है अभी तक काला धन भी मिला नहीं लोकपाल का कुछ नहीं हुआ अब कोई तो कदम उठाना होगा चुनाव आने को हैं। इक पल में कितने आसन बदल डाले खामोश रहकर कहा कुछ भी नहीं। हाथ में कभी काले धन वालों के नाम की लिस्ट हुआ करती थी आज सरकारी ईनाम पाने वालों की सूचि हाथ में है। जाने क्या बात है कि लाख कोई समझाता रहे इन धन दौलत ईनाम तमगे का मोह व्यर्थ है दिल है कि जितना मिलता है लालच बढ़ता जाता है और अपना ही विज्ञापन याद आने लगा है लालची लोगों ने मिलवाट कर देश को लूटने का काम किया है। भारतरत्न की शुद्धता को लेकर किसी ने विचार किया ही नहीं। सोना खरा खोटा परखने को मापदंड तय हैं तो रत्न जैसे मूलयवान चीज़ की कोई कसौटी होनी ज़रूरी है। पता तो लगाया जाये कौन खरा रत्न है और किस को सौ फीसदी शुद्ध रत्न समझा जाये। किसी शासक के दरबार में नवरत्न हुआ करते थे ऐसे गिनती बढ़ती गई तो भाव कम होता जाएगा हीरे जवाहरात रत्न सभी का। जिसको देखो हीरे की अंगूठी पहने फिरता है। ये बात उस दिन खत्म होगी जिस दिन उनकी झोली भी खाली नहीं होगी। इक भारतरत्न का सवाल है बाबा।

जनवरी 26, 2019

साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच ) डॉ लोक सेतिया ( पहला भाग )

     साहित्य की दुनिया का चेहरा ( खरा सच )  डॉ लोक सेतिया

                                         पहला भाग

       साहित्य की दुनिया का गगन बहुत फैला हुआ है , किताबों की दुनिया कविता कहानी ग़ज़ल से आगे भी इतिहास और समाज धर्म जीवनियां चालीसे लिखने तक जाने क्या क्या शामिल है। लिखने वाले फ़िल्मी बकवास बेसिर पैर की टीवी सीरियल की कहानी ही नहीं झूठे सच्चे इश्तिहार तक लिखने का काम करते हैं। और इस सब में उनका महत्व लिखने वालों से अधिक है जो छापने का काम करते हैं। जिनके लिए लिखना कमाई करने का इक साधन है और जो इसे कारोबार की तरह करते हैं उनकी बात अलग है मगर वास्तविक सृजन का कार्य करने वाले खुद को साहित्यकार कहने समझने वाले और साहित्य की सेवा का दम भरने वालों की सचाई खुद अपना चेहरा आईने में देखना है। अगर गली गली नेता बने लोग मिलते हैं और अख़बार टेलीविज़न को खबर भेजने वाले खुद को सतंभ कहने वाले रहते हैं तो हर गांव शहर में खुद को कलम का सिपाही बताने वाले भी बिना ढूंढे ही नज़र आते रहते हैं। मुझे साफ़ कहना है और ईमानदारी से स्वीकार करना है कि मैं भले लिखता रहता हूं करीब तीस चालीस साल से नियमित अख़बार मैगज़ीन ब्लॉग फेसबुक आदि पर भी और कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य आलेख से जनहित की बात लिखने का काम किसी गुनहगार की तरह सरकार अधिकारियों और संस्थाओं को भेजने का किया है मगर अपने लेखन को लेकर कोई गलतफहमी मुझे नहीं रही है कि मैं बढ़िया लेखक भी हूं साहित्यकार होना तो बहुत दूर की बात है। मगर लिखना मेरा जूनून है और बिना इसके रहना मेरे लिए कठिन ही नहीं असंभव लगता है। कोई किताब नहीं छपी छपवाई अभी तक मगर मुमकिन है कभी छपवा लूं तब भी मुझे पता है जैसे अधिकांश लिखने वाले मानते हैं खुद को विलक्षण लिखने वाला मैं कभी नहीं सोच सकता क्योंकि मुझे हमेशा तमाम महान लेखकों को पढ़कर लगता है कि उनके लिखे हुए के सामने मेरा लिखा ज़रा भी ठहरता नहीं है। इक बात का दावा है कि जो लिखा अपने अनुभव से अपने शब्दों से अपने खुद के ढंग से ही लिखा है कभी किसी की नकल करना पसंद नहीं किया है। 
 
     फेसबुक पर देखता हूं हर दिन कोई अपनी किताब छपने की बात किसी ईनाम की बात कोई ख़िताब मिलने की बात बताता है। फेसबुक पर हर दिन इतना लिखा नज़र आता है कि जीवन भर पढ़ते रहो पढ़ना मुमकिन नहीं है। पढ़ता कौन है कहना कठिन है बिना पढ़े पसंद करने की रस्म निभाई जाती है इसे ही सोशल मीडिया की दोस्ती कहते हैं। फिर भी हर दिन किसी की फेसबुक पर पढ़ता हूं समझना चाहता हूं मगर इक पुराना अनुभव है इक दोस्त को कमियां बताने पर नाराज़गी का इस सीमा तक कि भाई साहब से तुम क्या कौन तक बात पहुंच गई। यकीन करें भलाई को राय देने की सज़ा अभी भी जारी है बेशक मिलते हैं हंस कर बात करते हैं दुनियादारी है। मगर कई दिन से इक बेचैनी सी थी इस विषय को लेकर कि क्या आजकल का लेखन किसी काम आता है कोई सार्थकता है इस सृजन में। समाज को बदलने आईना दिखाने को सफल है। लिखने का मकसद अगर ये नहीं किसी और मकसद से लिखा जाता है तो उसको क्या कह सकते हैं। खुद लिखना और अपने दायरे में सुनाना सुनना और इक दूसरे की तारीफ करना सामने महान लिखने वाला बताना मगर पीठ पीछे उसी को बकवास लिखा कहना जैसी बातें दिखाई देती हैं तब विचार आता है सच को सच कहना नहीं जानते जो उनसे सच लिखने की उम्मीद करना बेकार है। और जो दर्पण समाज को वास्तविक चेहरा नहीं दिखलाता हो उसको तोड़ना चाहिए या सजाना चाहिए। 
 
                     किसी का भी नाम लिए बिना समझ सकते हैं जो भी महान लिखने वाले हुए हैं चाहे किसी भी देश में किसी भी भाषा में लिखते थे उनका लेखन अमर और कालजयी बना तो इसलिए कि उस से इक संदेश मिलता है और उनकी कृतियां समय के साथ खोती नहीं हैं। आज जो लिख रहे हैं क्या बाद में उसकी कोई सार्थकता होगी उपयोगी समझा जाएगा। इक कसौटी पर खरा उतरना ज़रूरी है अन्यथा आपका लिखा समय और साधन की बर्बादी होगा। इक बेहद खेदजनक दशा ये भी है कि बेशक लोग लिख रहे हैं और छपते भी हैं मगर उनका नियमित लेखन भी उनकी आजीविका का साधन बन नहीं सका है। ये कहना कि लेखक के लिए पैसा कोई महत्व नहीं रखता और उसको अपनी बात अपने विचार व्यक्त करने से ही ख़ुशी और संतोष मिलता है वास्तविकता से नज़र चुराना है। क्या ये हैरानी की बात नहीं कि जो अख़बार मैगज़ीन वाले किताबें छापने का कारोबार करने लोग हैं उनकी रोटी रोज़ी इस काम से चलती है आराम से और साहित्य की सेवा करने का दम भरने के बावजूद लिखने वाले को नाम भर को अथवा कुछ भी नहीं देते हैं। क्या ये उचित है और जो लिखने वाला शोषण पर बेबाक लिखता है खुद शोषण का शिकार है मगर खामोश है। इस विषय पर लिखना अपराध है जो आपकी रचनाओं को छपने से रोक सकता है। मगर सच बोलने का साहस हर कीमत पर होना चाहिए। वीररस की बात लिखना और खुद वास्तव में कायरता से जीना तो खुद अपने लिखने को अपमानित करना है। 
 
                        ( बाकी बात भाग दो  में जारी है अभी लेख अधूरा है ) 

 

जनवरी 24, 2019

क्या शोध आयुर्वेदिक को लेकर ( असली-नकली ) डॉ लोक सेतिया

 क्या शोध आयुर्वेदिक को लेकर ( असली-नकली ) डॉ लोक सेतिया 

        दावा करते हैं हमने कई साल शोध किया और बर्तन धोने का आयुर्वेदिक साबुन बनाया। दंतमंजन बनाया टूथपेस्ट बनाई फेसवाश बनाया महिअलों को मरहम दी बनाकर चेहरे को खूबसूरत बनाने की। बिस्कुट तेल घी आटा से लेकर सब असली हमारा है और हमने किसानों से लेकर हर किसी तक को बहुत कुछ दिया है। टीवी चैनल को विज्ञापन देकर मालामाल किया है और मुनाफे का कारोबार नहीं करते फिर भी कितनी कमाई की है कोई हिसाब नहीं है। बाकी विषय की बात छोड़ देते हैं अभी एक ही विषय की चर्चा करते हैं। एक वही नहीं और भी तथाकथित गुरु जी है आर्ट ऑफ़ लिविंग वाले और कितनी कंपनियां नई पुरानी दावा करती हैं आयुर्वेद को बढ़ावा लाने का। आयुर्वेद जैसा माना जाता है कुदरत की दी हुई स्वस्थ रहने की जीने की विधि है और उपचार करने का कुदरती तरीका है। 
 
                   अपने शोध किया कहते हैं तो पहली बात कोई भी आयुर्वेदिक या किसी भी पद्धति में शोध करने की बात करेगा तो किस बात को लेकर। यकीनन रोग के उपचार को लेकर पुरानी दवा को और बेहतर बनाने को लेकर या कोई वास्तविक शोध किसी गंभीर रोग का ईलाज खोजने को लेकर। शोध कोई पहाड़ों पर घूमते हुए वीडियो बनाने से हाथ में हरी जड़ी बूटी पकड़ने से नहीं किया जाता है। जो विदेशी कंपनी भी कई साल से आयुर्वेद के नाम पर सामान बेचती है उसने भी भारत में पेटेंट नियम नहीं लागू होने का लाभ उठाया है और आयुर्वेद की किताबों से नुस्खे लेकर उपयोग किया है अपना कारोबार करने को। आयुर्वेद को इन सभी ने कोई नया योगदान नहीं दिया है और हर किसी ने आयुर्वेदिक किताब से जानकारी लेकर उत्पाद बनाकर केवल कमाई की है व्यौपार में मुनाफा बनाया है। बदले में आयुर्वेद को दिया कुछ भी नहीं बल्कि उसका भरोसा कम किया है और जनता को भटकाने का काम किया है क्योंकि किसी भी रोग का उपचार पहले शिक्षित वैद द्वारा जांच और निदान करने के बाद उसके बताये नुस्खे से ईलाज आदि से संभव है। मगर हर किसी ने बिना कोई चिकित्स्क की सलाह नीम हकीम बनकर उपचार की बात करने का अमानवीय अपराध किया है। खेद की बात है कि सरकार आयुर्वेद को बढ़ावा देने को बहुत कार्य करने की बात करती कहती है मगर आयुर्वेदिक उपचार इस तरह से कोई देश भर में करता है तो ऐसे लोगों पर कोई रोक नहीं लगाती है। गरीब की जोरू सबकी भाभी की मिसाल की तरह हर कोई उसके साथ छेड़खानी करता है। मगर इस का दोष आयुर्वेद की शिक्षा हासिल करने वालों और आयुर्वेदिक शिक्षा देने वालों पर भी है जो केवल दो हज़ार साल पुराने बताये ईलाज से आगे नया और आधुनिक समय के अनुकूल कोई शोध नया करने की बात सोचना ही नहीं चाहते हैं। बेशक किसी भी पद्धति को आगे बढ़ने को सरकार का सहयोग ज़रूरी होता है और जब एलोपैथी का बजट नब्बे फीसदी से भी अधिक और अन्य सभी आयुर्वेदिक यूनानी होमियोपैथी सिद्ध का दस फीसदी से कम होगा तो आयुर्वेद का ज़िंदा रहना भी कितना कठिन रहा है हम जानते हैं। आयुर्वेद के अपने बनकर लूटने वाले तमाम लोग हैं मगर वास्तव में आयुर्वेद का सगा कोई नहीं है। हालत ऐसी है जैसे अपनी ही संतान के साथ सौतेले जैसा बर्ताव किया जाता रहा है। काश आज़ादी के बाद आयुर्वेद पर शोध किया जाता और इसको बढ़ावा देकर विकसित किया जाता तो मुमकिन है आजकल जितने नये रोग उतपन्न हुए हैं नहीं हुए होते क्योंकि आयुर्वेदिक दवाओं से कोई रोग ठीक हो सकता है किसी दूसरे रोग को पैदा नहीं करता है आयुर्वेदिक उपचार।


जनवरी 23, 2019

काला धन मिल गया है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      काला धन मिल गया है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

       सही समय पर उसका पता चल गया है। जाने क्यों तमाम लोग चिंतित थे कि वो कहां गायब हो गया। किसी ने पिछले चुनाव के समय उसको खोज कर लाने का वादा किया था। तब समझा जा रहा था किसी और देश में जाकर छुप गया है। तमाम दुनिया को छान मारा फिर भी मिल नहीं सका था और लोग सवाल करने लगे थे इस बार चुनाव में कैसे जवाब देंगे जनाब। मगर मिला भी तो उस जगह जहां सब जानते थे फिर भी किसी को ख्याल ही नहीं आया कि उसका असली ठिकाना तो राजनीतिक दल ही हैं उनसे अधिक काला धन किसी और के पास होना संभव ही नहीं है। चिंता होने लगी थी चुनावी जंग बिना वास्तविक हथियार कैसे लड़ेंगे सभी दल वाले। हिसाब लगाया जा रहा है काला धन पहले किस दल की तिजोरी में अधिक था और अब किस दल के खज़ाने में ज़्यादा है। काले धन का धन्यवाद जो जब उसकी सबसे अधिक ज़रूरत थी खुद ही सामने चला आया है। देखा तो पूछना ही पड़ा कहां खो गया था भाई लोग जाने क्या क्या वहम करने लगे थे कि शायद तुम खत्म ही हो गये हो। हंस दिया काला धन , कहने लगा मुझे पता था ढूंढने वाले सभी लोग हर घर की तलाशी लेंगे मगर खुद अपने घर की कोई तलाशी नहीं लेगा। दल कोई भी हो और कितना भी विरोध आपस में भले हो भाईचारा कायम रखना सबको महत्वपूर्ण लगता है। कोई भी दल सत्ता में हो किसी भी दल को काले धन को लेकर कोई चिंता नहीं रहती है। आम जनता के माथे पर काला धन दाग़ की तरह होता है मगर राजनेताओं के चेहरे पर काले टीके जैसा नज़र लगने से बचाने को लगा प्यार की निशानी जैसा।
 
    जिनको भी काला धन मिलने पर हिस्सा पाने की ललक रही उनको भरोसा रखना होगा बस कुछ दिन बाकी हैं। चुनाव आयोग अदालत जांच करने वाले सब ख़ामोशी से काले धन को फिर से नाचता खेलता और सब को नचवाता नज़र आएगा चुनावी जंग उसी से लड़ी जीती हारी जाएगी। कोई भी जीते कोई भी हारे इक यही काला धन है जो विजयी रहेगा और जिसकी जयजयकार हमेशा की तरह होगी ही। काला धन गुनगुना रहा है हम काले हैं तो क्या हुआ दल वाले हैं हम इस दल उस दल दल दल वाले हैं। काला धन सीना चौड़ा कर छाती ठोक खुले आम कह रहा है कोई है माई का लाल जो बिना उसके चुनाव लड़ भी सकता है। ये सभी नेता तो अपने हाथ की उंगलियों पर नाचने वाली कठपुतलियां हैं असली जीत हमेशा मुझ काले धन की हुई है और होती रहेगी। मेरी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है सरकारी अधिकारी से लेकर जाने माने तमाम लोग मेरे चाहने वाले हैं उनके घर दफ्तर मेरा बसेरा है। कोई लाख कोशिश कर ले काला रंग पक्का होता है जिस पर चढ़ता है उतरता नहीं है। राजनीति काजल की कोठरी है उस में कालिख लगती सभी को है मगर अपनी कालिख को दाग़ कोई नहीं मानता है सब उसको तिलक समझते हैं।
 
            हमने काला धन की बात जाकर टीवी चैनल वाले और अख़बार वाले को बताई और कहा आपको यकीन नहीं तो चलो मिलवा देते हैं। अचानक वही अट्टहास फिर सुनाई दिया और देखा जनाब वहां भी चले आये हैं , क्या साक्षात्कार देने को बुलाया है कह दिया। बोला हर दल जो भी विज्ञापन देता है मेरी बदौलत ही तो है मगर यहां आकर काला सफ़ेद का भेद बाकी नहीं रहता है रंगीन होते ही सभी रंग मिलने से चमक बढ़ जाती है। मीडिया वालों के पास काला धन होने की बात कोई नहीं कर सकता है क्योंकि फिर सुनाई कैसे देगी उसकी आवाज़। मीडिया के शोर में बाकी सभी की आवाज़ दब जाती है मार दी जाती है कुचल दी जाती है। जिस देश में हर धार्मिक स्थल दो नंबर के पैसे से दान लेकर या फिर किसी भी ढंग से ज़मीन मुफ्त में या नाम भर की सस्ती कीमत चुकाकर बनते हों उस जगह कोई खुदा कोई भगवान कोई देवी देवता चढ़ावे को काले सफ़ेद धन का होने की चिंता करता होगा। भूल गये नानक को खाने को रोटी किसी भी अमीर के घर से नहीं मिली थी और उन सभी को निचोड़ा तो खून निकला था दूध निकला था इक गरीब मज़दूर की घर की रोटी से ही। अब कोई नानक कोई कबीर जैसा संत है जो सब को खरी खरी सुनाता है। लिखने वाले तक भी आधा अधूरा सच लिखते हैं और इस तरह कि जब मर्ज़ी उसका अर्थ बदल कर समझा सकें। काला धन मिल भी गया है और अब उसका हौसला भी पहले से कई गुणा अधिक बढ़ा हुआ है। देखना आपके आस पास भी होगा खड़ा हुआ मस्ती में झूमता गाता शान से कदम रखता हुआ।

      काला धन वास्तव में काला कलूटा नहीं दिखाई देता है बस उसको किसी की नज़र नहीं लगे तभी नाम रख दिया है काला लगता बहुत प्यारा है श्याम सलोना है। काला धन पाकर कुछ नहीं खोना है गोरेपन का बेकार का रोना धोना है काला धन कोई जादू है कोई टोना है आपके पास सुरक्षित खरा सोना है। सच है काला धन बड़े काम आता है इंसान का घर नहीं बनता भगवान का मंदिर बन जाता है। सत्ता वालों का जितना फैला आसमान है किस्मत बलवान है गधा पहलवान है हुआ पूरा उनका हर इक अरमान है नहीं समझ सका इक वही नादान है काले धन से सारी शान है आखिर पैसा ही उनका भगवान है। सुनो साधो काले धन की कहानी है दूध कितना मिला कितना पानी लगे देखने याद आएगी नानी। सुनाई उसी ने अपनी कहानी कदर उसकी जिस किसी ने है जानी शराबी बोतल नशा झूमते लोग बहता हुआ खून बदलते रंग कितने लब्ज़ों के बदले हैं मानी। सिंहासन बनाया है सोने चांदी से है काले धन की सब मेहरबानी हर मुश्किल की है बड़ी आसानी। बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन , सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिए। दुष्यंत कुमार कहते हैं मगर कमर जलालवी फ़रमाते हैं , रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा , यहां तो जिस कदर बारिश
हुई उतना लहू सूखा। ये काले धन की झमझम बारिश उन पर हुई जिनके आलीशान दफ़्तर और महल जैसे घर बन गए गरीबों का लहू बहता रहा सूखता रहा है सत्ता के गलियारों में। खबर नहीं छपती है सच की झूठे सब अखबारों में आंसू आहें खो जाती हैं महफ़िल की झंकारों में।

जनवरी 22, 2019

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ( बहुत हो चुका है ) आलेख - डॉ लोक सेतिया

      अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ( बहुत हो चुका है ) 

                                  आलेख - डॉ लोक सेतिया

    मुझे दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें बेहद ज़रूरी लगती हैं अगर देश की तमाम समस्याओं पर लंबी बातें और इक कभी खत्म नहीं होने वाली बहस को छोड़ संक्षेप में सार की बात कहनी करनी समझनी समझानी हो। लोग स्वीकार कर लेते हैं कि जो व्यवस्था चली आ रही है उसको बदलना संभव नहीं है और उसी को कुछ बदलाव कर थोड़ा सुधार काम चला सकते हैं। यही किया जाता रहा है और करना चाहते हैं हम जो भी गलत है उसको पूरी तरह से मिटाने का हौंसला करना नहीं चाहते हैं। बनी बनाई राह पर चलते जाना आसान है और कोई नई राह बनाना दुश्वार है और हम दुश्वारियों से बचते हैं। मगर अगर हमको मोती तलाश करने हैं तो किनारे पर बैठने से बात नहीं बन सकती है और गहराई में उतरना होगा। जब भी गांव में तालाब का पानी गंदा हो जाता था और कीचड़ भर जाता था तब गांव के लोग मिलकर उस तालाब को खाली करते उसकी तले की जमा गाद को निकालते और उसको खुदाई से साफ सफाई करने के बाद फिर से नहर से साफ़ पानी लेकर डालते और भरते थे। क्योंकि अगर गंदे पानी में और साफ़ पानी मिलाते जाते तो साफ़ पानी भी गंदा होता जाता। अपनी दूसरी ग़ज़ल के दूसरे शेर में इस समस्या का हल समझाते हैं दुष्यंत कुमार। 

            अब तो इस तालाब का पानी बदल दो , ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

अब बात वास्तविक समस्या की , एक तरफ बहुमंजिला इमारतें और चमकती सड़कें और आलीशान भवन और आधुनिक साधन जिन पर केवल बीस फीसदी लोग सुविधाओं और आराम का जीवन जीते हैं। दूसरी तरफ चालीस फीसदी मध्यम वर्ग हर दिन जीने की कोशिश करता है और इक और तीसरा वर्ग है जिस को दो वक़्त रोटी भी नसीब नहीं है और तीस से चालीस फीसदी लोग बुनियादी सुविषओं से वंचित हैं। पहला अमीर वर्ग धन को उड़ाता है बर्बाद करता है अनावश्यक कार्यों पर दिल बहलाने को , मध्यम वर्ग भी यथासंभव कोशिश करता है अपनी ज़रूरतों को और बढ़ाने को अपनी आमदनी को खुद बेहतर साधन हासिल करने को। अपने से ऊपर वाले को हर कोई देखता हैं नीचे वालों को देखना नहीं चाहते और दिखाई देते हैं तो हिकारत से देख सोचते हैं कि उनकी बदनसीबी है और काबिल नहीं हैं किसी काम के। जबकि उनको बराबरी का अवसर मिलता ही नहीं किसी भी तरह से। उनकी शिक्षा उनका रहन सहन उनकी स्वास्थ्य सेवाएं निम्न स्तर की और पीने को पानी रहने को झुग्गी झौपड़ी भी बसीब नहीं। ये बेहद खेद की बात है कि अभी तक किसी भी सरकार ने उनको उनके अधिकार देना लाज़मी नहीं समझा है। उनको भीख की तरह खैरात पाकर खामोश रहने को विवश किया जाता रहा है और उनकी भलाई भाषण और फाइलों की भाषा बनकर रह गई है।  दुष्यंत कुमार कहते हैं। 

         ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो , कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो। 

          किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में , तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो। 

   ये जो सत्ताधारी और विपक्षी राजनेताओं को राजनीति इक देश और जनता की सेवा करने की जगह नहीं केवल अपने लिए सब कुछ और सबसे अधिक उचित अनुचित पाने का साधन लगने लगी है और इक लूट का कारोबार बन चुकी है उसका अंत होना चाहिए। सबसे पहले हमने जिसे सांसद विधायक चुनना है उसी से शुरुआत की जानी होगी। कोई भी दल हो अगर अपराधी और लोभी लालची को खड़ा करते हैं तो हम उसे नकार सकते हैं जिस दिन सभी दल वालों को संदेश मिलेगा कि जो लोगों से जुड़ा नहीं और खुद जनता के पास जाकर उनकी वास्तविक समस्याओं की बात कभी नहीं पूछता उसको लोग नहीं चुनेंगे उस दिन किसे टिकट देना है इसका निर्णय कोई आलाकमान नहीं इलाके के वोटर करेंगे। और हमको उस को वोट देने से पहले कुछ सवाल करने होंगे। क्या उसको पता है उसका अधिकार क्या है और कर्तव्य क्या हैं। क्या उसको देश का संविधान बड़ा लगता है और कानून का शासन या अपने दल के नेताओं की चाटुकारिता और उनकी हर अनुचित बात पर चुप रहना। दल किसे प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री बनाये इसका निर्णय जनता के निर्वाचित सदस्य करेंगे या कोई दो चार लोग। मनोनयन की गलत चली आई परंपरा का अंत करना होगा और देश के संविधान की भावना के अनुसार सांसद और विधायक अपनी मर्ज़ी से सही व्यक्ति को अपना नेता चुनेंगे। कुछ शेर इस को भी बयां करते हैं। 

      हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए , इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

        मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही , हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। 

 हमने अपने आप को शायद खुद ही बहुत छोटा कर समझ लिया है। जिनको हमने बनाया है उन राजनेताओं और जो हमारे लिए नियुक्त किये जाते हैं उन सरकारी कर्मचारी और अधिकारी वर्ग की जीहज़ूरी करना खुद अपने स्वाभिमान को नीचे दिखाना है। उनको कर्तव्य नहीं निभाने पर सवाल करना छोड़ उन्हीं से अपने हक भी उपकार करने की तरह मांगना आज़ादी की नहीं गुलामी की बात है। अपनी गुलामी की मानसिकता को छोड़ गर्व से स्वाभिमान से जीना होगा। मगर केवल खुद अपने लिए नहीं उन की खातिर भी आवाज़ उठानी होगी जो शोषण के शिकार हैं डरे सहमें हैं। स्वार्थ की भावना को छोड़ किसी के लिए कुछ त्याग की बात करना हम को भी सीखना होगा। सच बोलने का साहस करना ज़रूरी है और कायरता से खामोश रहना जीना नहीं हो सकता है। आलोचना आपका अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है देश के लिए और अनुचित कार्य का चुप रहकर समर्थन करना भी अपराध ही है। कुछ शेर बाकी तमाम बातों को संक्षेप से समझने को हैं। 

          मत कहो आकाश में कुहरा घना है , यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

         मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं , मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं। 

         बहुत मशहूर है आयें ज़रूर आप यहां , ये मुल्क देखने के लायक़ तो है हसीन नहीं। 

           ज़रा सा तौर-तरीकों में हेर-फेर करो , तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं। 

     रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें , इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले-बहार।  

     अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार , घर की हर दिवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार।

बात ये नहीं कि बदल सकता नहीं ये सब , समस्या ये है कि हर कोई सोचता है कोई और सामने आएगा मसीहा बनकर और सब ठीक कर देगा।  मगर ऐसा किस्से कहानी में होता है वास्तविक जीवन में नहीं। इक बुरी आदत है किसी न किसी को फरिश्ता समझ मसीहा मानकर उसकी इबादत करने की जो अच्छी नहीं है। इस युग में आदमी आदमी बनकर रहे इतना भी बहुत है गांधी भक्त सिंह को कोई रहने नहीं देगा। अब खुद आपको हमें सामने आकर देश समाज को बदलने का जतन करना होगा क्योंकि किसी शायर का शेर है आखिर में समझने को।

         तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। 


 

जनवरी 21, 2019

पत्थरों से मुहब्बत इंसानों से नफरत ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   पत्थरों से मुहब्बत इंसानों से नफरत ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

         अमर होना क्या संभव है सदियों से इक कल्पना की जाती रही है कोई अमृत पीने की। कुछ लोग अपनी लाश को सुरक्षित रखवाने का उपाय कर गये अपनी सारी दौलत खर्च कर के भी। इन बातों का अर्थ है लोग मौत की वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर सके , आज विज्ञान के युग में ऐसी सोच अज्ञानता और इक पागलपन है। पढ़ना लिखना सब कुछ नहीं है पढ़े हुए को समझना ज्ञान हासिल करना है। हम जानते हैं शिक्षा का अर्थ अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान के उजाले की ओर जाना है। फिर जो ज़िंदा हैं उनकी चिंता छोड़ उनको अच्छा जीवन उपलब्ध करवाना छोड़ जो मर चुके उनके नाम पर धन बर्बाद करते हैं। क्या आपने विचार किया है किसी भी महान शख्सियत को उनकी याद ज़िंदा रखती है उनके किये कार्य और वास्तविक जीवन में अपनाये आचरण विचार और समाज को मिले योगदान से। कितनी सभ्यताएं कुदरत के कारण विलीन होती रही हैं और मूर्तियां क्या तस्वीर क्या बड़े बड़े महल तक ख़ाक होते गये हैं। इतिहास पढ़कर सबक ले सकते हैं इतिहास को बदलना संभव नहीं है और कोई इतिहास रचता नहीं है इतिहास खुद को बार बार दोहराता रहता है। आपको क्यों लगता है कि धर्म स्थल जाने से भगवान मिलते हैं या किसी भी धर्म के कर्मकांड से पाप से मुक्त हो जाते हैं। ज्ञान की समझ है तो धर्म की इसी बात में दोगलापन है , धर्म आपको पाप की राह से दूर रहने की राय देता है या पहले पाप अन्याय करने फिर उसकी माफी मांगने की पाप धोने की बात करता है। आपको दोहा याद है नहाये धोये क्या हुआ जो मन का मैल ना जाये , मछली हर दम जल में रहे धोये बास ना जाये। करोड़ों रूपये खर्च कर गंगा स्नान जाने से क्या अधिक पुण्य किसी बेबस की सहायता करने से नहीं मिलता। धर्म की बात करने से बेहतर है उसको समझना। जो आपको अंधविश्वास में धकेलते हैं उनको आप धर्म के नाम पर ठगी करने वाले समझ सकते हैं। हर धर्म प्यार की सदभावना की सबकी भलाई की बात करता है और अपने मन से नफरत दुश्मनी लालच स्वार्थ को मिटाने की बात करता है अगर इस पर जीवन में आचरण नहीं किया तो फिर आपका धर्म इक आडंबर ही है। पूर्वजों की जीवनी आपको अच्छी शिक्षा देती है तो उस पर अमल करना चाहिए और अगर आपको पता है किसी ने अन्याय अपराध शोषण किये तो उन पर नाज़ नहीं शर्म का भाव हो सकता है मगर इससे अधिक महत्व इस बात का है कि आप उनकी राह पर नहीं चलें। 
 
             महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू और उनसे पहले नानक कबीर जैसे साधु संत किसी भवन किसी मूर्ति से ज़िंदा नहीं हैं उनकी बात उनके विचार उनका समाज को सुधारने  को किया सार्थक कार्य का योगदान उनको मरने के बाद ज़िंदा रखे है। और बात पंचशील की हो या अहिंसा की अथवा धार्मिक चिंतन की साधु संतों की उनको आप लिख कर सुरक्षित रख सकते हैं भविष्य के लिए। लिखने वालों को अपने युग का वास्तविक सच अपने लेखन से सुरक्षित रखना चाहिए और किसी और मकसद से लिखना साहित्य और इतिहास अथवा धर्म की बात का अनादर है। किसी की प्यार की कहानी सदियों याद रहती है मगर किसी की याद में बनाई इमारत मुहब्बत की पहचान से अधिक लोगों को वास्तुकला का नमूना लगती है। इतने सालों से किसी को ताजमहल को देख कर मुहब्बत करना नहीं आया होगा , कभी सुना है ऐसा हुआ। और अगर मुहब्बत की निशानी मुहब्बत करना नहीं सिखाती तो उसको बनवाना निरर्थक ही हुआ। मगर मैं आपको ऐसी कहानियां ऐसे गीत बता सकता हूं जिनसे ऐसा हुआ। आपको इक गीत सुनवाता हूं।

             दिल को है तुमसे प्यार क्यों , ये न बता सकूंगा मैं। गायक जगमोहन।


 
                                    
   आपको कोई शक है तो इक घटना सच्ची आपको बताता हूं। गायक जगमोहन जी का ये गीत रेडियो पर सुबह शाम बजता था। एक बार जगमोहन जी किसी सभा में भाग लेने गये हुए थे और जैसे वो मंच की सीढ़ी चढ़ने लगे कोई आवाज़ सुनाई दी जगमोहन जी अपने मुझे बर्बाद कर दिया है। अपने गीत गाकर वापस जाते हुए नीचे उतरते समय फिर उसी आवाज़ में वही शब्द सुनाई दिये। जगमोहन जी से रहा नहीं गया और कहने वाले को देख कर पास बुलाया और पूछा भाई मैं नहीं जनता कौन हैं आप और कब किस तरह मैंने आपका कुछ भी बुरा किया है फिर आप क्यों ऐसी शिकायत करते हैं। उसने बताया जगमोहन जी जब मैं नवयुवक  था आपका ये गीत रेडियो पर बजता रहता था और सामने घर की खिड़की से इक लड़की झांकती रहती थी , नतीजा उसके असर से प्यार हुआ हम दोनों को और शादी कर ली थी। अब पछताता हूं तभी आपको खुद को बर्बाद करने का दोषी कहता हूं। हंस दिये जगमोहन जी भी और वो शख्स भी मगर इक सच सामने था लाजवाब गीत का असर दिल तक होता है। ऐसा ताजमहल के बारे में नहीं सुना कभी मगर इक शायर कहता है कि :-

        इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल , हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक। 

        आपने  अगर साहिर लुधियानवी जी की ये नज़्म नहीं पढ़ी तो ज़रूर पढ़ना।

       बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की , कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने।  

       जी शायरा परवीन शाकिर जी की ग़ज़ल है। बात महात्मा गांधी जी की रुसवाई की है दक्षिण अफ्रीका के अंकरा के घाना विश्वविद्यालय से महात्मा गाँधी की पत्थर की मूर्ति वहां के लोगों के विरोध करने पर सरकार ने हटवा दी है। इस प्रतिमा का भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जी ने 2016 में दक्षिण अफ्रीका में अपने हाथ से अनावरण किया था। वास्तविक सवाल किसी के बुत  बनवाने और किसी की विचारधारा पर चलने का है। हम विशेषकर देश की राज्यों की सरकारें विचार को नहीं बुतों की राजनीति करते हैं और सच कहा जाये तो हमारे राजनैतिक दलों में विचारशून्यता की हालत है और विवेक की बात तो कोई करता ही तब है जब सत्ता के खातिर दलबदल करनी हो तब उनका विवेक जगता है फिर से गहरी नींद सो जाने के लिए। आज बात समाधियां और बुत बनवाने की उपयोगिकता की करनी है। 
 
          जो गांधी किसी को नंगे बदन देख कर केवल एक धोती पहनते हैं जीवन भर और अंतिम व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात करते हैं उनकी समाधि उनके बुत बनवाना क्या उन्हीं की सोच के विरोध की बात नहीं है। इक गलत परंपरा की शुरुआत से हालत ये है कि तमाम राजनेताओं के परिवार के लोगों ने बाप दादा की समाधि बनाने को देश की जनता का धन और सरकारी ज़मीन का दुरूपयोग किया है। जिस देश में करोड़ों लोग खुले आसमान के नीचे रहने को विवश हैं उस देश में कई एकड़ ज़मीन केवल किसी की समाधि बनवाने को उपयोग करना अनुचित ही नहीं अमानवीय भी है। मगर ये सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा और अब विश्व की सबसे ऊंची मूर्ति बनवाने की शान समझने लगे हैं। जितना धन इतने सालों में ऐसे आडंबरों पर और अनावश्यक आयोजनों पर बर्बाद किया जाता रहा है अगर जन कल्याण पर खर्च किया जाता तो आज कोई बेघर नहीं होता। मुझे इक पंजाबी गीत याद आया है। 

          जी करदा ए इस दुनिया नू मैं हस के ठोकर मार दियां , जी करदा ए। 

          जिऊंदे जी कंडे देंदी ऐ , मोयां ते फुल चढ़ौन्दी ए ,

          मुर्दे नू पूजे एह दुनिया , जिऊंदे दी कीमत कुझ वी नहीं। जी करदा ए। 

        धर्म धर्म बहुत शोर करते हैं हम सभी लोग मगर कोई धर्म नहीं कहता कि लोग बदहाल और भूखे हों और आप बेतहाशा धन अपने दिल बहलाने को दिखावे पर खर्च करें। जो पल भर की ख़ुशी हासिल करते हैं हम पैसों को हवा में उड़ाकर किसी भी तरह से आयोजन करने पर उसका उपयोग वास्तविक धर्म दीन दुखियों की सहायता पर करने से किया जाता तो सच्ची ख़ुशी मिलती खुद को भी और किसी और को भी। मगर हमने सच्चा धर्म छोड़ दिया है और दिखावे की ख़ुशी हासिल करने को पागल बनकर अनावश्यक कार्य करते हैं। भगवान भी हमारे लिए सद्मार्ग पर अच्छे कर्म करने को नहीं केवल कहने को दिखावे को सर झुकाने पूजा अर्चना इबादत करने को है चिंतन करने को नहीं। किसी शायर का इक शेर याद आया है। 

        बाद ए फनाह फज़ूल है नामोंनिशां की फ़िक्र , जब हमीं न रहे तो रहेगा मजार क्या। 

         कल क्या होगा कोई नहीं जानता और कोई भी नहीं बता सकता फिर भी लोग जाते हैं किसी ऐसे धंधे वाले के पास खुद ही ठगे जाने के लिए। इस से अधिक अज्ञानता की बात क्या हो सकती है। धर्म की कोई किताब आपको ये सब नहीं समझाती है मगर हम उनको समझना क्या पढ़ना तक नहीं चाहते और पढ़ लिख कर भी अज्ञानता का बोझ ढोते हैं। गंधारी की कथा पढ़ी है आंखें हैं फिर भी उन पर पट्टी बांध ली है क्या उचित है , अच्छा होता अगर कोई पति अंधा है तो उसकी आंखें बनकर साथ देती पत्नी। किसी की याद बनाये रखने को हम भी गंधारी की तरह मूर्तियां इमारतें बनाते हैं उनकी विचारधारा की बात को दरकिनार कर। शायद जिनको मानते हैं उनको ही मारने को ज़िंदा विचार से पत्थर बनाने का कार्य करते हैं।

जनवरी 20, 2019

इंसान में इंसानियत ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

        इंसान में इंसानियत ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

पत्थर को हथोड़े से चोट देते हैं
उसको तराशने को छीलने को
ज़ख्म देने घायल करने की तरह
बार बार कितनी बेरहमी से तोड़
बनाते हैं बेहद खूबसूरत कलकृति।
 
कोई शिकायत की कभी पत्थर ने
ठोकर खाने वाला राह का पत्थर
सजाया जाता है महलों में और
गली चौराहे पर शहर गांव घर
इक पहचान मिलती है उसको।

मगर इक अंतर है इंसान पत्थर
इक जैसे बनकर भी एक नहीं होते
संवेदना भावना  होने नहीं होने का
इक दिल की धड़कन विवेक का होना
बेजान रहता है पत्थर इंसान नहीं।

  इंसान को इंसानियत की समझ
  मिलती है दुःख दर्द मिलने से ही
  खुशियां पाकर सुख मिलने से तो
  संवेदना और मानवीय भावना कभी
  जागती नहीं हैं खो जाती हैं बेशक।

  आंसू बहाना जीवन का संघर्ष पाना
  जाने कितने इम्तिहान देकर मिलती
  इंसान को इंसानियत की सौगात है
  कष्ट पाकर ठोकर खाकर दुनिया की
  खुशनसीब बनते हैं अच्छे इंसान।

  आपको अगर मिलती रही निराशा
  पग पग पर कठिनाइओं का सामना
  लेकिन नहीं छोड़ा अपने दामन कभी
  सच्चाई और अच्छाई का घबराकर
  शिकवा नहीं धन्यवाद करना खुदा का।

  ज़िंदगी जिनको परखती है काबिल हैं
  उन्हीं का लेती है इम्तिहान हमेशा
  जो कभी सामना नहीं करते इनका
  जीवन का अनुभव नहीं हुआ उनको
  जीते रहे भले जिये नहीं ज़िंदगी को।

रामबाण दवा सा राम मंदिर नुस्ख़ा जीत का ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   रामबाण दवा सा राम मंदिर नुस्ख़ा जीत का ( हास-परिहास ) 

                                           डॉ लोक सेतिया 

        चार साल बाद फिर उसी पंडित जी की बात याद आई जिसने पिछले चुनाव की जीत का अचूक नुस्खा सुझाया था। उन्होंने जैसा बताया था मनौती पूरी भी की थी भले अपनी जेब से नहीं सरकारी पैसे से। अब भगवान को चढ़ावे से मतलब है जैसे भी कोई अपना वचन निभा दे। एक नंबर दो नंबर का काला सफ़ेद धन ऊपर वाले की समस्या नहीं है नेता अफ़्सर और धनवान अपनी उलटी सीधी जैसी भी कमाई की उस से हिस्सा चढ़ावे का देकर उसको खुश कर लेने का दावा करते ही हैं और पंडित लोग भी ऐसे दान पुण्य से और गंगा स्नान से पाप मुक्त होने की बात कहते हैं। अभी तक भरोसा था जनता को मुझे ही चुनना होगा दूसरा कोई विकल्प है कहां , विपक्षी दल के नेताओं का उपहास करते रहे और बड़बोलेपन की हद तक कोई विपक्षी दल नहीं रहेगा ऐसा लोकतंत्र लाने की बात सभी उनके दल वाले दोहराते रहे। भगवान को मनाने को क्या कुछ नहीं किया , कोई देश विदेश का मंदिर और विदेशी भगवान तक की चौखट पर माथा टेका। फिर भी जैसे बच्चे वार्षिक इम्तिहान से पहले डर कर भगवान से विनती करते हैं कि किसी तरह पास करवा दो आगे से किसी लड़की को बुरी नज़र से नहीं देखूंगा और लड्डू का भोग भी लगवाऊंगा। अपनी पढ़ाई पर भरोसा नहीं रहता बस ऊपर वाला नैया पार लगवा सकता है उसी तरह सरकार को अपने किये हुए विकास के कार्यों पर और तमाम विज्ञापनों पर भरोसा नहीं है बस ऊपर वाला भूल चूक माफ़ कर जितवा दे यही विश्वास है। वो मेहरबान तो गधा पहलवान। नेता जो चुपके से उसी पंडित जी को मिलने आये हैं रामभक्त हैं पंडित जी इस की थोड़ी चिंता है और उनको भरोसा भी दिलवाया था आज याद आई है बात। जैसे खुद पहले साधारण कपड़े पहनते थे और सत्ता मिलते ही शाही पोशाक और सज धज से रहने लगे हैं पंडित जी को देने को रामनामी कपड़े की जगह चमकीली महंगी पोशाक लाये हैं। 
 
                       पंडित जी अभी भी उसी पुरानी रामनामी कपड़े की पोशाक पहने बैठे हैं। इस से पहले कि वो राम मंदिर की बात कहें नेताजी खुद ही कहने लगे आपसे वादा किया था अयोध्या में मंदिर बनवा कर फिर दोबारा दर्शन करने आने का मगर अदालत का फैसला हुआ नहीं यही मज़बूरी है। भगवान सब जानते हैं हम सत्ता के नहीं भूखे और राम को खुले आसमान में रहना कितना कठिन लगता होगा। पंडित जी बोले राम जी से भला क्या छुपा है जब अपने अपने दल का इतना शानदार दफ्तर राजधानी में बनवाया है इतने कम समय में तो भगवान को उस से बेहतर आधुनिक सुःख सुविधा वाला घर भी बनवाना कठिन नहीं है। अयोध्या हो या दिल्ली भगवान को ठिकाना तो मिलना चाहिए तो क्यों नहीं जब तक अदालत निर्णय देती आप दिल्ली में उसी आलिशान भवन को राम जी का मंदिर बनवा दें ताकि आपका किया वादा भी झूठा साबित नहीं हो और रामजी को भी देश की राजधानी में ठिकाना मिल जाये। आप उपाय पूछने आये हैं तो चुनावी जीत का मुझे यही नुस्खा रामबाण दवा की तरह समझ आया है। आपको भी आसानी होगी जब चाहो रामजी के दर्शन को जा सकोगे अन्यथा इतने साल कब आपको अयोध्या जाने को फुर्सत मिली है। ये कोई नमुमकिन कार्य नहीं है भला कौन आपके दल वाला अपने दल के दफ्तर को भगवान राम को अर्पित करने का विरोध करेगा। सत्ता होगी तो ऐसे भवन बनाना कोई मुश्किल तो नहीं है। पंडित जी कहने लगे आपके मन की बात समझते हैं देशवासी और मुझे भी पता है तभी बिना आपके कहे आपकी समस्या समझ उसका निदान भी बता दिया है। अब मुझे अपने राम जी की कथा पढ़नी है आप सुनना चाहो तो बैठ सकते हैं और अगर उस से ज़रूरी काम देश की जनता की भलाई का करना चाहते हैं तो भी और भी अच्छा है। पंडित जी कथा पढ़ रहे हैं।


            नेता जी विचार कर रहे हैं और मन में आता है कि किसी शाम टीवी पर आठ बजते ही घोषणा कर दी जाये कि आज रात आठ बजे से हमारे दल का शानदार भवन वाला दफ्तर दल की जायदाद नहीं रहेगा और भगवान राम जी का बसेरा बन जायेगा। उनको पता है अभी अगर ऐसा कहते हैं कि जब तक अयोध्या का मंदिर बन नहीं जाता तब तक अस्थाई मंदिर यही होगा तब भी बाद में धर्म वाले जगह को छोड़ने पर नहीं मानेंगे और एक बार मंदिर बन गया तो कोई वापस दल का दफ्तर नहीं बना सकेगा। सामने कुंवा है पीछे खाई है। अब कोई केवल वादा करने पर मानने वाला नहीं है सब का भरोसा खत्म हो चुका है। भगवान भी समझ चुके हैं लोग मतलब को आकर पिछली भूलों की माफ़ी मांग फिर से उन्हीं चालाकियों से स्वार्थ सिद्ध करने को हाथ जोड़ भगवान के दयालु होने का फायदा उठाते हैं मगर इस बार पाला पड़ा है तो इक गुजराती कारोबारी ने आकर सलाह दी है कि हिसाब किताब अपनी जगह और भक्ति अपनी जगह। केवल आरती पूजा से काम नहीं चलता है अगर खाली पेट भजन नहीं होता है तो ऐसे बिना छत के खुले आसमान में मंदिर में रहने से रामजी को भी अच्छा नहीं लगता है। बैंक वाले क़र्ज़ लेने वाले से उसकी जायदाद रहन रखवा लेते हैं तो भगवन को भी अपने मंदिर बनवा कर देने तक विकल्प की जगह मिलनी चाहिए। गेंद अब भगवान ने नेता जी के पाले में डाल दी है निर्णय उनको करना है। भगवान का साथ चाहिए अथवा शानदार भवन के दफ्तर का सुख ज़रूरी है। आठ बजने को हैं और भगवान टीवी पर नज़र लगाये हुए हैं। जब से उस आधुनिक भवन को देखा है मुझे भी वहीं रहना है की आवाज़ सुनाई दे रही है। दिल्ली जाकर वापस आने का मन किसी का नहीं करता है। कौन जाता है ग़ालिब दिल्ली की गलियां छोड़कर , दिल्ली एक है नेता जी को भी दिल्ली से नहीं जाना और भगवान भी दिल्ली से दिल लगा बैठे हैं।


जनवरी 11, 2019

सार्थक लेखन किसको कहते हैं ( 1000 वीं पोस्ट ) डॉ लोक सेतिया

 सार्थक लेखन किसको कहते हैं ( 1000 वीं पोस्ट ) डॉ लोक सेतिया 

     इक मोड़ पर आकर आपको विचार करना चाहिए आपकी मंज़िल आपका रास्ता आपका मकसद क्या है , किस उद्देश्य से चले थे कहां से किधर जाने को और अब किस जगह खड़े हैं। नव वर्ष जन्म दिन अथवा कोई भी मील का पत्थर यही याद दिलाता है कि रुक कर सोचो किया क्या हुआ क्या करना क्या अभी आगे है। इसलिए आज ब्लॉग की हज़ारवीं पोस्ट लिखते समय मुझे इस विषय का विचार मन में आया है। माना जाता है कि लिखने वाले समाज को बदलना चाहते हैं इसलिए समाज के सामने उसकी वास्तविकता का आईना दिखाते हैं और मकसद होता है इक बेहतर समाज का निर्माण करना। शायद हर लिखने वाले को इस लेखन धर्म की पहली बात को हमेशा याद रखना चाहिए। मेरे भीतर का लेखक इक ऐसा समाज बनाना चाहता है जिस में कोई बड़ा छोटा नहीं हो कोई ताकतवर कमज़ोर नहीं हो कोई बहुत अमीर और कोई भूखा नंगा नहीं हो। किसी पर कोई अत्याचार नहीं करता हो किसी का कोई शोषण नहीं करता हो। आपस में छल कपट नहीं हो इंसानियत का पास हो मेलजोल हो भाईचारा हो एक दूसरे का साथ देते हों कमज़ोर को सहारा देते हों लोग। बैर दुश्मनी नफरत नहीं हो प्यार मुहब्बत से मिलकर रहते हों। हर कोई अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाता हो और जितना समाज से मिलता है उस से बढ़कर समाज को देना चाहता हो। मेरी तरह तमाम लिखने वालों का इक सपनों का जहान होता है और जो भी अनुचित वास्तविक समाज में होता है उसको स्वीकार नहीं करना चाहते और बदलने को लगे रहते हैं। कभी कभी इक दौर निराशा का भी आता है जब लगता है इतने सब करते रहने के बाद बदला कितना और क्या ये व्यर्थ चला गया , क्या इसका कोई हासिल नहीं है। ऐसा इक बार हुआ और मैंने सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी को अपनी बात लिख कर पूछा था और उन्होंने मुझे खत का जवाब खत भेजकर समझाया था। उन्होंने लिखा था जब पहाड़ों से कोई नदी निकलती है तब उसकी पानी की रफ़्तार इतनी तेज़ होती है कि सामने आने वाले पत्थर को रेत बना देती है। कोई देखने वाला कह सकता है पानी बहता रहा और राह रोकने वाला पत्थर खत्म हो गया , मगर ऐसा नहीं है। वास्तव में ऐसी हर रुकावट ऐसे अवरोध से पानी की गति घटती जाती है और जो पानी तेज़ बहाव से ज़मीन को कटाव लेकर विनाश कर सकता था सामने आने वाले को नष्ट करता था उसी का वेग इतना कम हो जाता है कि हम सिंचाई और पीने को उपयोग कर सकते हैं। इसलिए बेशक कोई कहता रहे आपके लिखने से बदला नहीं कुछ मगर उसका असर हुआ है आपको समझना चाहिए कि अगर हम विरोध नहीं करते तो जो अनुचित होता है और भी अधिक बढ़ चुका होता अभी तक।

         साहित्य की किताब धर्म की किताब अथवा अन्य तमाम तरह से जानकारी देने और शिक्षा की किताबों को अगर विचार करें तो मुख्य दो लक्ष्य लिखने वालों के हो सकते है , पहला अपनी बात कहने को या किसी की महिमा का गुणगान कर खुश कर कोई लाभ नाम शोहरत हासिल करने को , और दूसरा लोकहित को ध्यान में रखकर सच और झूठ का अंतर समझने और मार्गदर्शन करने को। अब अगर बिना किसी धर्म या किसी धर्म की किताब का नाम लिए बात करें तो धर्म की किताब लिखने वाले का मकसद धर्म की स्थापना करना भी हो सकता था और किसी की बढ़ाई करना भी। लेकिन हमने धर्म की किताबों को आदर्श माना तो मकसद यही था कि उसकी दिखाई राह पर चलकर समाज को सही मार्ग पर चलने की बात करना। मगर जब कोई धर्म की किताब दीन दुखियों की सेवा की बात करती हो और धन संचय नहीं करने को समझाती हो तब उसके उपदेश देने वाले खुद संचय करने लगें और धर्म के नाम पर इमारतें भवन और सुख संपदा जमा करने लगें तो उस किताब से सबक सीखा क्या है। धर्म कोई भी नफरत करने को नहीं कहता है सबको गले लगाने को कहता है फिर ये कौन लोग हैं जो धर्म की आड़ लेकर नफरत और दंगे करने की सोच रखते हैं। मतलब साफ है कि ऐसे लोगों को धर्मं से कोई सरोकार नहीं है और धर्म का मुखौटा पहन कर पाप की राह चलते हैं या अपने स्वार्थ का कोई कारोबार करते हैं। किसी धर्मगुरु ने कोई दुकान नहीं खोली थी कोई कारोबार नहीं किया था कोई धन संपदा का अंबार जमा नहीं किया था। जब भी किसी तथाकथित धार्मिक स्थल पर वास्तविक धार्मिक आचरण की बात नहीं हो और कोई और रास्ता बताया जाता हो तब समझ लेना चाहिए धर्म नहीं उनका धंधा है। क्षमा करें किसी भी किताब की लिखी हुई बात को पढ़ने सुनने से कोई लाभ नहीं है वास्तविक फायदा उस को समझ उस पर अमल करने से है। जब कोई आपको उपदेश देता है मगर ये नहीं बताता है कि इसको पढ़ना सुनना नहीं इस पर अमल कर सच की राह पर चलना ज़रूरी है तब समझ लेना चाहिए उसका मकसद आपका कल्याण नहीं खुद अपना कारोबार करना है। आज हर तरफ यही दिखाई देता है तभी धर्म की बात का शोर हर तरफ है और पाप है कि बढ़ते ही जा रहे हैं। धर्म नहीं धर्म का दिखावा इक आडंबर करते हैं हम।

        आधुनिक काल में लेखन के संदर्भ में चिंतन किया जाये तो हर लिखने वाला दो ही कारण से लेखनकर्म करता है। पहला अपने नाम शोहरत धन ईनाम पुरुस्कार के लिए और दूसरा समाज और देश को सच बताने दिखाने के लिए। लेकिन क्या हम केवल कहीं कुछ गलत है उसको दिखलाने की बात करें या कि उसको ठीक करने को भी कोशिश करनी चाहिए। इस को अन्यथा नहीं लें तो लगता है अधिकांश लिखने वाले समाज से अधिक खुद अपने लिए लिखने का काम करते हैं। कितनी किताबें कितने ईनाम क्या क्या पदक इक अंधी दौड़ में भागते नज़र आते हैं और इस बीच वास्तविक मकसद जाने कब भूल जाता है या छूट जाता है। चले थे हरिभजन को ओटन लगे कपास की उक्ति चरित्रार्थ होती है। मुझे लगता है मेरा काम है कर्तव्य है लिखना और निडर होकर निस्वार्थ निष्पक्ष और सच लिखना। तर्क कुतर्क से झूठ को सच साबित करने की महारत जिनको आती है उनको उनकी काबलियत मुबारिक। इक और चलन सोशल मीडिया पर बहुत देखने को मिलता है , खुद नहीं लिखते किसी के लिखे को अपने नाम से लिखते हैं। जो आपका खुद का लिखा नहीं है किसी से भी लिया है या लिखवाया है उसको अपना बताना खुद से भी धोखा करना है। कहने को बहुत बातें हैं मगर आज इतना ही , फिर से चिंतन करना है अपने लेखकीय सफर को लेकर। 
धन्यवाद सभी पढ़कों का ।
 

 

जनवरी 10, 2019

खोकर पाना है ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया

          खोकर पाना है ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया 

                           ( आर्थिक आरक्षण के बाद की कहानी है )

      बेटा और बेटी मिलकर विचार कर रहे हैं। हम दोनों को भी आरक्षण मिल सकता है। भाई को नौकरी मिल सकती है और बहन को उच्च शिक्षा में दाखिला मिल सकता है। पिछले दिनों इक टीवी शो पर जीवन के दोराहे की कहानी भी ऐसी थी जिस में पिता के घर से अलमारी में रखे पैसे बच्चे चुरा लेते हैं जो पैसे पिता को जिसके पास नौकरी करता है उसने दिये थे बैंक में जमा करवाने को मगर बैंक बंद होने से जमा करवा नहीं पाया था। कोई चोर रात को घर में चोरी करने आता है और अलमारी से बैग चुरा ले जाता है , जिस के पैसे हैं वो शक करता है अपने पुराने मुलाज़िम पर और पुलिस थाने रपट दर्ज करवा देता है। इत्तेफाक से हवलदार इक चोर को पकड़ लाता है जिसने वो बैग चुराया था। लेकिन चोर कहता है कि उसने चोरी की थी मगर बैग को खोला तो खाली था उस में पैसे थे ही नहीं। आजकल बच्चे टीवी सीरियल से सबक बहुत अच्छी तरह सीख लिया करते हैं। शायद उनको ऐसे ही किसी टीवी सीरियल से या सोशल मीडिया से किसी वीडियो से ऐसी उल्टी शिक्षा मिली हो।

                        पिता से दोनों ने अपनी समस्या बताई थी , बेटे को नौकरी मिल सकती है कुछ लाख रिश्वत देने से और बेटी को किसी कॉलेज में दाखिला कुछ लाख देकर मिल सकता है। मगर पिता के पास इतने पैसे हैं ही नहीं और इक घर है जिसकी कीमत कुछ लाख हो गई है जो किसी समय कई हज़ार जमा पूंजी से खरीदा था ताकि किराये से बच सके। शाम को फिर से पिता के घर आने पर बात की थी और इस बार कोई घबराहट नहीं थी मन में। बताया कि अब हम उच्च जाति के लोगों को भी आरक्षण मिल सकता है क्योंकि आपकी आमदनी आठ लाख सालाना से कम ही है। मगर इक अड़चन है कि जिसके पास शहर में सौ ग़ज़ का मकान हो उसको इसका लाभ नहीं मिल सकता है। अभी तक आपको घर बेच कर भी बेटे की नौकरी और बेटी के दाखिले के लिए पैसे नहीं मिल सकते थे। अब आपको अपना घर बेच कर पैसे अपने पास ही रखने हैं ताकि हम आरक्षण पाने वालों में शामिल हो कर लाभ उठा सकें। घर बेच कर मिले पैसे किसी को देकर उसके बदले रहने को घर मिल सकता है ये हमने दलाल से बात की है। ख़ुशी की ऐसी लहर उठी जैसे कोई कोई जादू की छड़ी या कोई जिन मिल गया हो चिराग वाला।

                पत्नी को भी उचित लगा और घर बेच कर आरक्षण पाने के अधिकारी बन गये। कुछ खो कर पाना है कुछ पाकर खोना है। बात बन गई और सपना साकार हो गया था। बेटे को नौकरी मिली तो सरकारी मकान भी जिस शहर में नियुक्ति हुई मिल गया और बेटी भी उच्च शिक्षा पाकर नौकरी करने लगी और पिता के घर बेच रखे हुए पैसे दोनों के विवाह करने पर खर्च हो गये थे। अब पिता की मुश्किल है किस से हाथ फैला कर सहायता मांगे बेटे से या बेटी से जब भी आमदनी कम हो और कोई खर्चा अचानक सामने आ जाये। पिता को कोई लाभ आर्थिक आरक्षण से मिल नहीं सकता मगर जो पास था खत्म हो गया उसे हासिल करने में। कई बार ऐसा होता है वास्तविक कीमत बाद में चुकानी पड़ती है।

              किसी और के साथ दूसरे ढंग से हुआ। जितनी भी पांच छह एकड़ ज़मीन थी बेच कर बच्चों को आर्थिक आरक्षण पाने का हकदार बना दिया मगर अब खुद अपनी बेची हुई ज़मीन पर मज़दूरी का काम करता है। आरक्षण के मोहजाल में जाने किस किस की ज़िंदगी की वास्तविक कहानी टीवी सीरियल जैसी बन गई है। उस कहानी में बेटी दहेज के पैसे देकर ससुराल चली जाती है और बेटे को नौकरी मिल जाती है , लेकिन ईमानदार पिता चोरी के झूठे इल्ज़ाम में बंद बिना अपराध पकड़े चोर को छुड़वा खुद चोरी का इल्ज़ाम अपने सर ले लेता है। उसका मालिक सचाई जानकर अपना केस वापस लेकर उसको छुड़ा लेता है। मगर क्या असली जीवन में कोई भोलेपन और शराफत को समझ ऐसा करेगा , नहीं लगता है। शायद कभी कोई ख़ुदकुशी करेगा तब खोजने पर मालूम होगा कि आरक्षण पाने की खातिर जो पास था दे दिया और बाद में कुछ भी नहीं था चैन से रहने को। सरकार को भी कोई दोष नहीं दे सकता उसका हर कदम कहने को जनता की भलाई को होता है मगर सालों बाद नतीजा निकलता है कि ये नहीं करते तो अच्छा था। आरक्षण की वास्तविकता यही है काश इसकी शुरुआत कभी हुई नहीं होती। अब इसको इस तरह समझा जा सकता है। एलोपैथिक दवाओं में स्टीरॉइड्स नाम की ऐसी दवाएं भी होती हैं जिन से रोग ठीक नहीं होता है। डॉक्टर देते हैं और रोगी को चैन मिलता है दर्द नहीं मालूम पड़ता ज्वर उतर जाता है दमा के रोगी को सांस लेने में आसानी होती है , लेकिन असल में लक्षण पता नहीं चलते रोग बढ़ता जाता है। लगातार लेते रहने से और भी कई रोग दुष्प्रभाव से लग जाते हैं। ये ऐसी दवा है जो आपको लाईलाज रोग देती है जो मौत के साथ ही जाते हैं। सरकार भी देश की जनता को आराम देना चाहती है ताकि जनता को तकलीफ और लक्षणों से मुक्ति मिले और बदले में खुश होकर उसको वोट और सत्ता का अधिकार। सरकार को भी कुछ देकर कुछ पाना भी है। ये कहानी निरंतर चलने वाली है देखते हैं कब तक।

अंधेर नगरी चौपट राजा ( सूरत-ए-हाल ) डॉ लोक सेतिया

    अंधेर नगरी चौपट राजा ( सूरत-ए-हाल ) डॉ लोक सेतिया 

  रात को राज्य सभा में भी लोकसभा में पास हो चुका संविधान में आरक्षण को जिनको पहले नहीं हासिल हो सकता था उन तथाकथित उच्च जाति वर्ग को भी आर्थिक आधार पर दस फीसदी आरक्षण देने का संशोधन बिल दो तिहाई बहुमत से पास हो गया। सबसे पहली बात सभी जानते थे इसका मतलब देश की भलाई तो कदापि नहीं है सत्ताधारी वोटों की खातिर ला रहे हैं और बाकी दल इसी डर से साथ देने को विवश हैं। सही मायने में जैसे हुआ और किया जाता रहता है कई बार कि सांसद अपना मत पक्ष अथवा विरोध में विवश हो कर अथवा स्वार्थ का ध्यान रखकर करते हैं जो विचार की आज़ादी को बंधक बनाने की बात है। आंखों पर मोह की पट्टी बांध कर संविधान की व्यवस्था से इक खिलवाड़ किया जाता है। आरक्षण शुरू किया गया था दस साल के समय के लिये ताकि जो सदियों से दलित वंचित रहे हैं कुचले गये हैं और कमज़ोर हैं सामान्य वर्ग का सामना बराबरी से नहीं कर सकते उनको सक्षम बनाया जाये। मगर बाद में इसको समाप्त करने की जगह हर सरकार ने अपने मतलब को बढ़ावा देकर ये साबित किया है कि उनके लिये सब को समानता की बात कोई मायने नहीं रखती है बल्कि वो चाहते हैं कि लोग इसी तरह से बैसाखियों के सहारे चलते रहे और कभी भी स्वालंबी बन नहीं सकें। खेद की बात है कि अधिकांश लोग अपने वर्ग के लिए स्वाभिमान को दरकिनार कर आरक्षण के सहारे की बैसाखी की चाहत करते रहे हैं। हम बहुत कुछ बदलते हैं जब लगता है उससे कोई फायदा नहीं हो रहा है नियम कानून क्या सरकार तक बदलते हैं जब वो नाकाम साबित होती है। तब क्यों उस व्यवस्था को जो सत्तर साल में अपने उद्देश्य को पाने में असफल रही है बदलते नहीं उसको हटाते नहीं बनाये रखते हैं जबकि आरक्षण से अमीर गरीब की खाई मिटी नहीं है और कुछ और लोग जिनको सहारे की ज़रूरत नहीं है उसका उपयोग कर केवल खुद की भलाई करते जाते रहे हैं। राजनेता और राजनैतिक दल तो सत्ता के मद में अंधे होकर देश समाज को खाई में धकेल सकते हैं मगर कब तक हम इनके झांसे में आते रहेंगे और अपने स्वार्थ की खातिर वोट देते रहेंगे। क्या संविधान देश हित की बात हमारे लिए स्वार्थ से ऊपर है।

       आज इस आलेख में बात केवल आरक्षण की ही नहीं की जानी है , राजनीति सरकार संगठन से लेकर आम नागरिक तक सभी को लेकर सवाल हैं जिनका जवाब तलाशना ज़रूरी है। मेरी इक ग़ज़ल के शेर हैं :-


हल तलाशें सभी सवालों का

है यही रास्ता उजालों का।

तख़्त वाले ज़रा संभल जायें

काफिला चल पड़ा मशालों का।

प्यास बुझती नहीं कभी उनकी

दर्द समझो कभी तो प्यालों का।

बेच डालें न देश को इक दिन

कुछ भरोसा नहीं दलालों का।

राज़ दिल के सभी खुले "तनहा"

कुछ नहीं काम दिल पे तालों का।

         आज सभी राजनेताओं से पहला सवाल यही है कि अगर आरक्षण से समानता लानी संभव है तो संसद में महिला आरक्षण इसी तरह क्यों नहीं पास किया गया अभी तक। राजनेता खुद अपने लिए लाखों नहीं करोड़ों रूपये की सुविधाएं और साधन एवं विशेषाधिकार क्यों नहीं छोड़ते अगर उनको देश की जनता की सेवा और भलाई करनी है। आम नागरिक को भीख और आपको विशेषाधिकार इसको लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है। जिस देश में तीस से चालीस करोड़ लोग भूखे सोते हैं उसके सांसद विधायक राजसी शान से देश के खज़ाने की लूट के दम पर रहते हैं तो वो अपराधी हैं अनुचित व्यवस्था अपने स्वार्थ की बनाये रखने के। वास्तव में आरक्षण इक रोग है जिसको मिटाने का समय कब का बीत चुका है मगर नेता लोग उसको बनाये हुए हैं जनता को बहलाये रखने की खातिर। अभी इस को कानून बनना है और सर्वोच्च अदालत की चौखट को भी लांगना है। उसके बाद भी इक दौड़ खुद को अधिकारी होने का दावा साबित करने की जिस में जैसे हर योजना में हुआ है असली वंचित छूट जाते हैं और जो अधिकारी नहीं उनके हिस्से में मलाई आती है। काश देश के नेताओं को ज़रा भी चिंता देश और समाज की होती तो देश के खज़ाने पर कुंडली मार कर बैठे नेताओं और अधिकारियों के बेतहाशा फज़ूल खर्चे बंद कर सब को मूल भूत सुविधाएं देने का कार्य किया जाता। आज आम नागरिक को शिक्षा स्वास्थ्य देना सरकार की प्राथमिकता नहीं है और खुद अपने लिए कोई सीमा नहीं है कितना अधिक चाहिए। देशसेवा के नाम पर सब अपने पर खर्च करना आखिर कब तक। 
 
          अब बात हमारी आम नागरिक की। हम नियम कानून का पालन करना ज़रूरी नहीं मानते हैं और जब नियम तोड़ने पर जकड़े जाने की बात होती है तब किसी भी तरह से बचने को नेताओं अधिकारियों  से मिल कर अनुचित को उचित साबित करवाना चाहते हैं। फिर उन्हीं को दोष भी देते हैं। संगठन के नाम पर मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे के नाम पर धर्मशाला के नाम पर सरकारी ज़मीन और किसी सांसद से कल्याण राशि जो वास्तव में गरीब लोगों के लिए है आबंटित करवा लाभ उठाते हैं। ऐसे अपने मतलब और स्वार्थ की खातिर हम भी उनकी तरह से ही सरकारी संपदा की लूट के भागीदार बन जाते हैं। आज विचार करना चाहिए कितने लोग इस में सहभागी हैं और बाद में इस लिए खामोश समर्थन देते हैं सरकार और अधिकारी वर्ग की गलत बात पर। 
 
      जिसकी मर्ज़ी हड़ताल करे बंद करे विरोध करने का अधिकार है , मगर आपको हड़ताल का अधिकार किसी और के हड़ताल नहीं करने के अधिकार का हनन करने को नहीं हो सकता है। किसी को डरा धमका कर बंद करने या रास्ता रोकने या आगजनी लूट करने को अराजकता कहते हैं और अराजक समाज बनाना उचित नहीं है। जब भी जिसको अपनी मांग मनवानी होती है आम नागरिक को बंधक बनाने का आपराधिक कार्य किया जाता है। भीड़ बनकर बेकसूर लोगों को परेशान करना किसी सूरत में स्वीकार किया नहीं जा सकता है। आज इस देश में सबसे अधीक ज़रूरत सभ्य आचरण और सब के जीने के अधिकार का आदर करने की बात सीखने की है। कोई पुलिस वाला किसी को थाने में मार नहीं सकता है अदालत है सज़ा देने को मगर हर पुलिस वाला खुद को कानून से ऊपर मानता है। अभी इक डीएम दफ्तर में किसी को थप्पड़ मरते हुए दिखाई दिए और ऐसा बहुत बार होता है। ये इस देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि न्याय व्यवस्था को बनाये रखने को नियुक्त अधिकारी सरकार खुद अन्यायकारी आचरण करते हैं। बाड़ खेत को खा रही है और अंधेर नगरी चौपट राजा की सी हालत है। 
 
                       कोई भी सरकार देश के संविधान से ऊपर नहीं हो सकती है। इधर कुछ सालों से इक अघोषित नियम पुलिस अधिकारी लागू किये हुए हैं। नागरिक को अपनी बात कहने का और शांतिपूर्वक विरोध करने का अधिकार है मगर जब कहीं किसी सत्ताधारी नेता को आना होता है तब सड़क पार्क सब पर एकाधिकार कायम रखकर नगरिक को वंचित किया जाता है कहीं आने जाने से सुविधानुसार। लगता है सरकार को हर आम नागरिक अपराधी नज़र आता है। और जब किसी सभा में नेता को भाषण देना हो तो कोई काला कपड़ा दिखला कर शांतिपूर्वक विरोध नहीं कर सके इसके लिए हर किसी की तलाशी ली जाती है और काले रंग की कमीज़ स्वेटर क्या जुराब तक पहनने की इजाज़त नहीं होती है।  जब सरकारी अधिकारी ही जनता के अधिकारों का हनन करने लगते हैं तो पुलिस प्रशासन विश्वास नहीं इक भय पैदा करता है जनता में। अगर यही उचित है तो आज़ादी और उससे पहले अंगेरजी हकूमत में अंतर क्या बाकी रह जाता है। जवाब खोजना है और अब काले अंग्रेज़ों से निपटना होगा अपने अधिकार अपनी आज़ादी की खातिर , उनके रहमोकरम पर देश की जनता नहीं है ये समझना और समझाना ज़रूरी है। 
 
                आखिर में सुझाव है जिनको वास्तव में अपना कर लागू करने से समानता लाने का सार्थक कार्य किया जाना संभव है। जब बात आर्थिक आधार की आई है तो आरक्षण कोई समाधान नहीं है। सरकार अपने बनाये मापदंड को उचित मानकर आठ लाख से कम आमदनी वालों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं वास्तव में मुहैया करवाने का नियम बना सकती है और दिखाने को सरकारी बीमा योजना नहीं बल्कि जिस को भी जिस किसी जगह से ज़रूरी उपचार की आवश्यकता हो भुगतान सरकार खुद कर सकती है। आपको लगेगा इतना धन आएगा कैसे तो जहां आठ लाख तक आमदनी पर आयकर नहीं हो जितने से गुज़र बसर किया जा सके वहीं जिनकी आमदनी करोड़ों की है और जो करोड़ों रूपये बर्बाद करते हैं अपने आप पर उन पर पचास फीसदी से अधिक आयकर लगाकर बढ़ा हुआ कर गरीबों पर खर्च किया जाना चाहिए। आरक्षण की नहीं वास्तव में जिनकी आमदनी का साधन गुज़ारे के लायक नहीं उनके बैंक खाते में सीधा जमा किया जाये। केवल एक अधिकार सब को न्यूनतम आमदनी का हो ताकि कोई भूख से रोग से बेमौत नहीं मरे। बहुत देशों में ऐसा है मगर खुद को महान कहने वाले देश में ऐसा होना अभी बाकी है। कठिन राहों से ही वास्तविक सफलता मिलती है , विश्वगुरु बनने की बात से पहले विश्व में इक मिसाल बनकर दिखाना बेहतर है । 

 

जनवरी 09, 2019

ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

     ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

       सरकार की राजनीति की संवेदनाएं जब सर्दी से ठंडी होकर जमने लगती हैं तो बुझती हुई आग को फिर से हवा देकर चिंगारी को सुलगा कर शोला बना देते हैं। उनकी सत्ता की राजनीति की रोटियां सिक कर तैयार हो जाती हैं। दस साल को शुरू हुआ था आरक्षण नीचे वालों को ऊपर उठाने को ताकि सब बराबर हो जाएं मगर हुआ ऐसा कि ऊंचाई और नीचे का फासला बढ़ते बढ़ते पहाड़ और ज़मीन नहीं ज़मीन और आसमान की तरह होता गया है जो कम होने की जगह और अधिक होता जाता लग रहा है। मगर चारगर की ज़िद है इसी से रोग का ईलाज करेगा , मरीज़े इश्क़ पे लानत खुदा की मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। मुझे आज तलक इक राज़ की समझ नहीं आई कोई भी दल हो किसी भी राज्य की सरकार हो किसी न किसी को आरक्षण का झुनझुना देकर और इक लॉलीपॉप देकर खुश करना चाहती है मगर कितने सालों से जिन की बात सब करते हैं उन महिलाओं का आरक्षण लटका हुआ है संसद में क्यों। इक तिहाई महिलाओं के आने से हर दल वाला इतना घबराता है कि आने देना नहीं चाहता जबकि पंचायत या बाकी जिन निकाय चुनावों में महिला आरक्षण है उनसे बदला कुछ भी नहीं। बस किसी सरपंच को पढ़ी लिखी बहु लानी पड़ी है जब बेटा अनपढ़ हो तब ताकि उसके नाम पर बाप बेटा दोनों सरपंची का मज़ा उठा सकें। सरपंच जी वही हैं गांव के लोगों के लिए कागज़ पर पढ़ी लिखी बहु हस्ताक्षर करने को रखी है। 
 
               इक जाने माने शायर का शेर है। हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक। कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक , आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक। चिराग़ की बात अक्सर होती है और दुष्यंत कुमार के साये में धूप का पहला शेर ही यही है। कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। मगर जैसे सरकार को पांचवे साल याद आती है जनता की बात उसी तरह से जनाब दुष्यंत कुमार जी को भी पांचवीं ग़ज़ल में बात समझ आई थी। ज़रा मुलाहज़ा फरमायें आप भी ग़ज़ल पेश है। 

देख , दहलीज से काई नहीं जाने वाली , 

ये खतरनाक सचाई नहीं जाने वाली। 

कितना अच्छा है कि सांसों की हवा लगती है ,

आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली। 

एक तालाब सी भर जाती है हर बारिश में ,

मैं समझता हूं ये खाई नहीं जाने वाली। 

चीख निकली तो है होटों से , मगर मद्धम है ,

बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली। 

तू परेशान बहुत है , तू परेशान न हो ,

इन खुदाओं की खुदाई नहीं जाने वाली। 

आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा ,

चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली।

        हर शेर सारी कहानी कहता है अगर ध्यान से समझा जाये तो। आखिरी सवाल है सड़कों पर चले आने की बात का तो कोई सड़क पर नहीं आता है देश की खातिर आता है तो बस अपनी मांगों की खातिर। हर कोई भिखारी की तरह झोली फैलाए हुए है और सत्ता वालों को यही सुविधाजनक लगता है। जिस दिन लोग भीख नहीं अपने अधिकार पाने को सड़कों पर आने लगे राजनेताओं की राह मुश्किल हो जाएगी। बात छूट नहीं जाए कहीं चिराग़ की , इक चिराग़ रौशनी करने को जलाया जाता है कोई घर को बस्ती को आग लगाने को माचिस का उपयोग करता है। इस दौरे सियासत का इतना सा फ़साना है , बस्ती भी जलानी है मातम भी मनाना है। ये पहले कत्ल करवाते हैं फिर घर जाकर संवेदना जताते हैं। इक नज़्म मेरी भी पढ़ लो ज़रा। 

बड़े लोग ( नज़्म ) 

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ समझ आता है और
आ मत जाना इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं ।

इन्हें पहचान लो ठीक से आज
कल तुम्हें ये नहीं पहचानेंगे
किधर जाएं ये खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं ।

दुश्मनी से बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं तो खुदा खैर करे
ये वो हैं जो क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं ।

              राजनेतओं ने देश की बांटना सीखा है एक करना आता नहीं उनको। कभी धर्म कभी वर्ग कभी जाति कभी अमीर गरीब कभी कोई और दीवार खड़ी करते हैं। खुश करने को रेवड़ियां बांटना साहित्य कला से लेकर मीडिया वालों को विज्ञापन की बंदरबांट के साथ किसी को पेंशन देने का कार्य मीडियाकर्मी को अख़बार वालों को तमाम ढंग हैं। उनकी जेब से कुछ भी नहीं जाता है सरकारी धन की लूट का धंधा चलता रहता है और हर हिस्सा पाने वाला इसको अपनी शान समझता है। जिनको ज़रूरत नहीं वो भी पेंशन लेकर खुश हैं , अभी फेसबुक पर इक दोस्त जो लिखते हैं डॉक्टर हैं अपनी पोस्ट पर पूछ रहे थे मेरी आयु बुढ़ापा पेंशन की हो गई है आवेदन करना चाहिए कि नहीं साथ में लिखा लेकर दान पुण्य करना है। अधिकतर ने लेने की राय दी थी , इक कहावत सुनी हुई है कि सरकारी घी मुफ्त बंट रहा हो तो बर्तन पास नहीं हो तब भी अपने अंगोछे या गले में लपेटे कपड़े में ले लेना चाहिए , अर्थात बेशक उस से निकल कर बिखर कर नीचे गिर जाये तब भी जो चिकनाहट बची रहेगी घर पर चुपड़ने मालिश करने को काम आएगी। सवाल ज़रूरतमंद का नहीं है वास्तव में जिनको सहायता मिलनी चाहिए वो साबित ही नहीं कर सकते और जिनको ज़रूरत नहीं उनको मालूम है कैसे साबित करना है कुछ पाने को। जिस दिन इस सड़ी गली व्यवस्था को बदला कर ठीक कर देंगे किसी को हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आरक्षण किस किस को कितना और कब तक इसकी कोई हद नहीं है दर्द बढ़ता गया दवा करने से। दुष्यंत की बात अभी बाकी है।

      भूख है तो सब्र कर , रोटी नहीं तो क्या हुआ , आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। 

      कहने को बहुत बाकी रह जाता है फिर भी आखिर में अपनी पहली पहली कविता दोहराता हूं।
 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई ( बेचैनी )

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
 

  
 
                 
        

जनवरी 07, 2019

ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं ( फ़लसफ़े की बात ) डॉ लोक सेतिया

  ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं ( फ़लसफ़े की बात ) डॉ लोक सेतिया 

    कितना अरसा लग गया अब वास्तव में समझ आने लगा है जीना क्या है। अभी तलक जीते रहे जीना आया नहीं था अब शायद जीवन का अर्थ समझ कर जीने का जतन करना है। हम आप अधिकतर क्या सोचते हैं , यही कि तमाम सुख सुविधा धन दौलत आराम हो नाम शोहरत और जो भी ख्वाब देखते हैं सच हो जाएं। अधिकतर हम जो हैं उस में खुश नहीं होते हैं और समझते हैं कुछ लोगों को देखकर कि काश हम भी उनकी तरह से जीते। पैसे वाले लोग किसी भी क्षेत्र में बेहद सफल कहलाने वाले लोग , कलाकार खिलाड़ी अभिनेता राजनेता या बड़े बड़े सत्ता के पद पर आसीन लोग। लेकिन मुमकिन है वो लोग ये सब हासिल कर भी जीवन की वास्तविक ख़ुशी से वंचित हों , शायद ऐसा ही है क्योंकि इतना कुछ पाकर भी उनकी चाहत कभी खत्म होती नहीं है। और जो बात हम नहीं जानते और उनको भी शायद भूल जाती है वो है जीने की संवेदना एक एहसास ज़िंदा होने का खत्म हो चुका होता है इस सब को हासिल करने की दौड़ में। कुदरत ने जीवन जिस जिस को दिया इंसान को सबसे अधिक संवेदना दी और पेड़ पौधे पशु पक्षी सभी में कोई न कोई पहचान जीने की दी है। कोई फूल अगर रंग खुशबू और कोमलता खोकर पत्थर जैसा बेजान बन जाये जैसे बाज़ार के कागज़ के फूल या प्लास्टिक के फूल होते हैं तो क्या उसको ज़िंदा समझ सकते हैं। कुछ इसी तरह से जो लोग किसी भी तरह से ऊंचाई पर सफलता की पहुंच जाते हैं मालूम नहीं कितना कुछ वास्तविक खो चुके होते हैं। कभी ध्यान से देखना अधिकांश ऐसे लोग संवेदना रहित नज़र आते हैं। कारण उनका ये सब पाने को उचित अनुचित हर तरह से ढंग और रास्ते अपनाना है। अगर कोई अपनी इंसान होने की पहचान इंसानियत को ही खो देता है तो उसको ज़िंदा होकर भी जीना आया नहीं और आदमी की जगह इक मशीन बन गया होता है। सही राह से मानवता की राह पर चलकर सफलता पाना बेहद कठिन होता है मगर आसान रास्ते से ऊंचाई हासिल करना इक धोखा खुद अपने आप के साथ भी है। 
 
          ऐसा कदापि नहीं है कि मैं आपको कोई तथाकथित धार्मिक उपदेश या ईश्वर के डर और स्वर्ग नर्क की पाप पुण्य की और भाग्य की बात करूंगा। धर्म के नाम पर बहुत कुछ किसी ख़ास वर्ग की भलाई को ध्यान में रखकर शामिल किया गया है और समाज के बहुत नियम भी वास्तव में तार्किक आधार पर उचित आदर्श और नैतिकता की भावना को दर्शाते नहीं हैं और पुरुष नारी या अन्य तरह से भेद भाव की बात करते हैं। ईश्वर है या नहीं इसकी चिंता व्यर्थ है और उसकी खोज करने को पहाड़ या वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। हम अगर अपने विवेक की अंतरात्मा की बात समझते हैं तो और किसी की ज़रूरत नहीं है मगर ये खेद की बात है कि हम रटवाई गई बातों को बिना चिंतन किये बगैर समझे ही यकीन करने के आदी बन जाते हैं और उस पर सवाल करना तो दूर की बात विचार तक मन से निकाल देते हैं। आस्था के नाम पर हमारी आंखों पर ही पट्टी नहीं बंधी रहती बल्कि दिमाग भी काम नहीं करता है। दुनिया बनाने वाले ने या फिर कुदरत ने कोई भी अंतर नहीं रखा था इंसान इंसान के बीच में ये आदमी की बनाई हुई खुराफाती सोच से हुआ है। ये समझने के बाद हम विचार करें तो बिना किसी परिभाषा और किताबी ज्ञान के हम ज़िंदगी क्या है और जीना किसे कहते हैं उसको बेहतर समझ सकते हैं। 
 
                 जिनको बचपन से सभी कुछ मिलता है और कोई कठिनाई सामने नहीं आती है उनको जीने का अर्थ पता नहीं होता है। ज़िंदगी सीधी बनी बनाई डगर पर चलने का नाम नहीं है एकरसता और बोझिल होती है , असली ज़िंदगी यही है जो हर बार इक चुनौती बनकर सामने खड़ी रहती है। मुश्किलों का सामना करना ही जीने का नाम है और हर मुसीबत और परेशानी में अपनी इंसानियत पर अडिग रहना ही जीवन की सफलता है। जो अनुचित ढंग से किसी जगह पहुंच जाते हैं वो जितना मिलता है उस से अधिक हासिल करने को फिर उस से भी अधिक गलत ढंग अपना कर ऊपर चढ़ना चाहते हैं। ज़मीर को खो कर अंतरात्मा को दफ़्न कर कुछ भी हासिल करना वास्तव में नीचे गिरना है। इक आदत शिकायत की किसी को दोष देने की भी आपको खुद जो चाहते हैं हासिल नहीं करने देती है। अपनी मेहनत और काबलियत से जो पा सकते हैं वही अच्छा है और उस में ही खुश रहना उचित है लालच से जो है उसको भी खो बैठते हैं और दोष किसी और को देते हैं। अपेक्षा किसी से नहीं खुद अपने दम पर जो हासिल करना चाहते करने की कोशिश करनी ठीक है। 
 
        ख्वाहिशों की कोई सीमा नहीं है मगर मृगतृष्णा की तरह चमकती रेत के पीछे भागने से अंत प्यास से मौत ही है। हर किसी से प्यार मुहब्बत से नाता रखना उचित है लेकिन जब हम मोहमाया के जाल में अंधे होकर किसी के पाने खोने को स्वीकार नहीं कर सकते तो निराशा और दुःख अकारण होते हैं। जब हम कुछ पाकर भी और उसको खोकर भी अपना मानसिक संतुलन खोते नहीं हैं और बदले हालात को स्वीकार कर लेते हैं तभी जीवन में आगे बढ़ सकते हैं। कोई हमारे बिना नहीं रह सकेगा ऐसा सोचना समझदारी नहीं है क्योंकि दुनिया सदियों से चलती रही है लोग आते रहे जाते रहे समय बदलता रहा। जब कोई अपना नहीं रहता तब भी हर कोई उसके बिना जीना सीख जाता है और अगर दुःख रहता है तो उसके होने से जो मिलता था उसके नहीं मिलने को लेकर होता है। सभी से अच्छे मधुर संबंध रखना अच्छा है और सबसे बड़ी बात है लोग आपको अच्छा और सच्चा इंसान समझें न कि मतलबी और झूठा इंसान। अपने ज़िंदगी अपनी ख़ुशी से सही ढंग से जीना सबसे बड़ी उपलब्धि है। अधिकतर हम औरों के बताये मार्ग से उनके हिसाब से जीते हैं तभी मन से हम खुश होते नहीं हैं। हम जैसे हैं अपने आप को उसी तरह से स्वीकार करना और जो भी हम हासिल करते हैं उसी से संतुष्ट रहना अच्छी बात है। निराशा को जीवन से निकाल बाहर करना ज़रूरी है जीने की शुरुआत तभी की जा सकती है। किताबी बातें मुहावरे अपनी जगह आपको शिक्षा देते हैं मगर अपनी ज़िंदगी जो अनुभव देती है कड़वे मीठे वही वास्तव में काम आते हैं। डरने की ज़रूरत नहीं कि भविष्य में क्या होगा , और कुछ भी नहीं होगा तो तजुर्बा होगा। 
 
         जीना चाहते हैं तो इक बार अपने आप को समझने का प्रयास करें अपने बारे चिंतन करें कि आप क्या हैं और आपकी आरज़ू क्या है। बात मंज़िल की की जाए तो सबको मालूम है आखिरी मंज़िल वही एक ही है मौत आनी है आएगी इक दिन ऐसी बातों से क्या घबराना। ज़िंदगी इक सफर है सुहाना। हर दिन पल भर अपने आप से बात अवश्य किया करें आपका सबसे अच्छा दोस्त खुद आपका मन है। चिंतन की बात की है क्योंकि समाधि का कोई अनुभव मुझे नहीं और मुझे उसकी आवश्यकता कभी महसूस हुई नहीं। भगवान धर्म सामाजिक आदर्श नैतिकता के मूल्य सब पर चिंतन करना मुझे अच्छा लगता है। जीना है और आज से जीने की शुरुआत करने जा रहा हूं। 

 

जनवरी 04, 2019

धंधा भी चंगा हो न कभी मंदा हो ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    धंधा भी चंगा हो न कभी मंदा हो ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

   उनमें खूबी है वक़्त बदलते ही पुराना छोड़ नया धंधा चालू कर लेते हैं। बता रहे आजकल देशभक्ति में फायदा ही फायदा है जो देशभक्ति को अपने नाम पेटेंट करवा चुके उनकी डीलरशिप मिल जाये तो बंदा पलक झपकते ही ऊंचाई पर पहुंच जाता है। जिनको गली का कुत्ता भी नहीं पहचानता था देशभक्ति के धंधे में कदम रखते ही बड़े बड़े अधिकारी तक उनको सलाम करने जाते हैं। उनका फोन आया हुआ तो अफ़्सर कुर्सी छोड़ खड़े हो कर जी जनाब कहते हैं जी ठीक है जैसा आदेश आपका। धंधे का कोई धर्म नहीं होता ऐसा इधर इक फ़िल्मी अभिनेता डॉयलॉग बोलता है तो लोग तालियां पीटते हैं। धंधा जो भी धंधा होना चाहिए बिना धंधे का नहीं कोई बंदा होना चाहिए। आज धंधे कितने और कैसे हैं हुआ करते थे इस विषय का अध्यन करने वाला जो भी करता है सफल होता है। टीवी पर देख सकते हैं देश को बेच खाने वाले और हर सौदे में दलाली खाने वाले देशभक्ति पर चर्चा किया करते हैं। पहला सबक यही है जो भी धंधा करो अपने ईमान को कहीं रख दो दबाकर ताकि वो कभी जागकर आपको परेशान नहीं कर दे। देशभक्ति का एकाधिकार जिनके नाम दर्ज है उन पर कोई शक भी करता है तो देश का दुश्मन है। पहले कुछ पुराने धंधों की बात करते हैं ताकि समझा जा सके कि पिछले सालों में कितने धंधे बाज़ार से बाहर हो गये हैं और कितने नये धंधे आये और फल फूल रहे हैं। 
 
      सूदखोरी का धंधा हुआ करता था सबसे पुराना , कहते तो ये भी हैं कि दुनिया के सबसे पुराने धंधे दो हैं , एक राजनीति और दूसरा जिस्मफ़रोशी का वैश्यावृति का। कहते थे दोनों में बहुत समानताएं हैं मगर जो जिस्म बेचती हैं उनको ऐतराज़ है कि वो अपना बदन बेचती हैं वतन नहीं बेचती इसलिए उनका धंधा बदनाम सही बदकार है नहीं। सूदखोरी को इतना बुरा भला बताया गया कि उसकी शोहरत भी बदनाम हो गई। हालत ये है हर कोई जाता है मज़बूरी में हाथ जोड़कर क़र्ज़ लेता है बही पर अंगूठा लगाता है मगर बाद में वापस देने की बात पर जो मन चाहे करता है। कर्जमाफी और खैरात में अंतर है मगर बड़े अमीर और शान वाले लोग क़र्ज़ माफ़ी या मोहलत की बात नहीं करते शहर को छोड़ जाते हैं या विदेश भाग जाते हैं , इस पर निर्भर है कि कितनी राशि चुकानी है। हज़ारों करोड़ के कर्ज़दार टीवी पर साक्षात्कार देते हैं दो पांच करोड़ की चपत लगाने वालों की खबर अख़बार में छपती है और कुछ हज़ार का क़र्ज़ लेकर किसान ख़ुदकुशी कर कर्जमुक्त हो जाते हैं। और भी बहुत कारोबार होते हैं जो चले आ रहे हैं बाजार में सामान बेचने वाले मगर उनसे अधिक मुनाफा मिलावट करने वाले कमाते रहे हैं। ईमानदारी की दुकानदारी में रूखी सूखी मिलती है और झूठ और बेईमानी की कमाई से चुपड़ी भी दो दो मिलती हैं। सच और साफ कहा जाये तो जिस भी व्यवसाय में कोई हो बेईमानी का पाठ समझ आते ही वारे न्यारे हो जाते हैं। नौकरी हो राजनीति या कोई भी धंधा हो। इस पर अधिक बताने की ज़रूरत है नहीं आगे बाकी धंधों पर गंभीर चिंतन करते हैं। 
 
          कई सालों से धर्म सबसे सुरक्षित धंधा समझा जाने लगा था और धर्म का चोला पहन जो मर्ज़ी करने के बावजूद भी साधु संत कहलाते रहे हैं लोग। शायद पिछले सालों में जितनी नई दुकानें धर्म की खुली और गली गली खुलती रहीं वो अपने आप में एक कीर्तिमान है। शायद गृहों का उल्टा फेर है जो इस धंधे की दशा खराब होती जा रही है। मगर जो बाबा जी धर्म की जगह योग या दवा अथवा असली का पेटंट अपने नाम कर स्वदेशी का मुखौटा लगाकर सब बेचने लगा उस की बात अलग है। उसको देशभक्ति और सामान बेचने की एक साथ सही तरह से मिलाकर बेचने का तरीका मिल गया जो सफल है। उनके बाद नंबर आता है शिक्षा बेचने वालों और स्वास्थ्य सेवाओं को बेचने वालों का। ये दोनों काम कभी दान धर्म और समाज कल्याण की खातिर किये जाते थे मगर जब से डॉक्टर आईएएस आईपीएस पर लाखों की बोली लगने लगी शादी के बाजार में तब से हर पैसे वाला बच्चों को लाखों देकर दाखिला दिलवा डॉक्टर आईएएस आईपीएस बनवाने लगा और लोग खुद बिकने को महानता समझने लगे। पैसे देकर दाखिला पाने वाले बाद में लागत वसूलने को खूब कमाई करने लगे। सरकार और राजनेता इस में शामिल होते गये और सहयोगी बन गये। कुछ लोग जो इनकी पोल खोलने की बात किया करते थे उन्होंने भी अपनी कलम गिरवी रख दी और अख़बार टीवी वाले विज्ञापन की रिश्वत को अधिकार समझते समझते सत्ता की अधिकारी वर्ग की दलाली करने लगे। मगर इन सब को भी अधिक कमाई को जो धंधा अपनी तरफ आकर्षित करता है वो इधर देशभक्ति वाला ही है। कई तो पछताते हैं बेकार पढ़ लिख कर काम धंधे की तलाश की उनसे अच्छे तो वही हैं जो अपराध कत्ल बदमाशी करने के बाद राजनीति में आकर देशभक्त बनकर देश सेवा करने के नाम पर मेवा हलवा पूरी सब माल खा रहे हैं। सरकार आजकल स्कूल अस्पताल नहीं खुलवाना चाहती क्योंकि इन में बेरोज़गारी की संभावनाएं अधिक हैं मगर देशभक्ति की उलटी पढ़ाई जिस में देश को देना कुछ भी नहीं लूटना सीखना है पर ध्यान है। धंधा भी चंगा है और कभी मंदा भी नहीं होगा इसकी भी गारंटी है।