मार्च 31, 2023

ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है , उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई ( तैं की दर्द न आया ) डॉ लोक सेतिया

 ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है ,  उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई 

                     ( तैं की दर्द न आया ) डॉ लोक सेतिया

आधी रात को कितनी बार मुझे कोई घटना सोने नहीं देती कल शाम की खबर ने फिर मुझे झकझोर कर रख दिया । हरियाणा के चरखी दादरी में इक आईएएस अधिकारी के दादा दादी ने ज़हर खा कर ख़ुदकुशी कर ली । सरकार के लिए टीवी अखबार के लिए ये कोई पहली अनहोनी घटना नहीं है और देश की राज्य की सरकार से लेकर मानव अधिकारों की बात करने वाली संस्था इस पर अधिक से अधिक इक ब्यान देकर अपना दामन छुड़ा लेगी । कोई देश समाज की सड़ी गली व्यवस्था को लेकर शायद गंभीरता से विचार नहीं करेगा । अभी कुछ दिन पहले मैंने यही बात लिखी थी प्रधानमंत्री से लेकर राज्य सरकार के बड़े पदों पर बैठे अधिकारी राजनेताओं को , 
 
" राम - राज्य की परिकल्पना की बात करने से पहले अपने प्रशानिक अधिकारी कर्मचारी को मानवता और ईमानदारी का सबक अवश्य पढ़ने को निर्देश दें और जो अमानवीय आचरण करता हो उसको जनसेवा के पद पर अयोग्य घोषित कर देना उचित होगा "। 
 
  ये चिंता की नहीं रौंगटे खड़े करने वाली बात है कि ऐसे बेदर्द लोग जिनको अपने बड़े बज़ुर्गों की जान की परवाह नहीं और साधन पैसा सब पास होने पर भी उनको प्यार से आदर पूर्वक नहीं रहने देते बल्कि खाने तक की देखभाल नहीं करते , वो लोग ऊंचे पद पर नियुक्त होकर साधारण जनता की ख़ाक परवाह करते होंगे ।

  आज जब मैंने अपने ब्लॉग पर ख़ुदकुशी कर गया कोई लिख कर सर्च किया तो 43 पोस्ट पहले से लिखी मिली और कोई भी बिना कारण नहीं लिखी गई होगी आज की तरह कोई वजह रही होगी । 2012 की लिखी ग़ज़ल अंत में फिर से दोहराऊंगा बाक़ी सब कोई भी ब्लॉग पर खोज सकता है । सबसे पहली बात ये कोई किसी एक आईएस अधिकारी की बात नहीं है जनहित की बात लिखते सामाजिक समस्याओं पर बदलाव की कोशिश करते बार बार मुझे ऐसे लोग मिलते रहे हैं । सरकारी विभाग कानूनी शिकंजा लिए सामान्य नागरिक को जकड़ने को व्याकुल हैं और कोई भी ऊपर से उनको रहम और संवेदना का ख्याल रखने को निर्देश नहीं देता बल्कि चाहे किसी की रगों में खून बचा नहीं हो सरकार को हर ढंग से आखिरी बूंद तक निकाल लेने की बात समझाई जाती है । और ये सिर्फ सरकारी अफ़्सर कर्मचारी नहीं समाज में अधिकांश लोग अपने से कमज़ोर का शोषण करते रत्ती भर भी संकोच नहीं करते हैं । इक घटना याद आई मैं अपनी क्लिनिक के बाहर धूप में बैठा था कि इक गरीब मज़दूर मेरे पास आया बिलख रहा था , क्या हुआ पूछने पर उस ने बताया कि जिस रईस नाम शोहरत वाले समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास नौकरी करता है उस से वेतन बढ़ाने की विनती की और जब नहीं स्वीकार की विनती तो नौकरी छोड़ने की बात कहने पर उस ने कहा था " जाओ और मेरे फार्म हाउस पर काम करते रहो अगर साल तक नहीं काम किया तो तुम्हारे घर में अनाज का इक दाना नहीं रहने दूंगा "। बिना उनका नाम दिए इक पत्र स्थानीय सांध्य दैनिक में भेजा जो छप गया था और उन महोदय ने संपादक से बात की थी पूछ कर बताओ ये लिखा किस को लेकर किस संदर्भ में है । मुझे कहना पड़ता है ये सामाजिक विषय की बात है व्यक्तिगत नहीं समझना चाहिए । सब जानते हैं चोर की दाढ़ी में तिनका जिस ने जो किया हो खुद समझ आता ही है । 

  राजनेताओं अधिकारियों से सूदखोर लोगों को किसी की विवशता का फायदा उठाते या किसी को प्रताड़ित करते हुए कोई अपराध बोध नहीं होता है । मैंने ऐसे लोगों को धर्मोपदेशक के पांव दबाते देखा है घर बुलाकर ढेर सारा धन दान करते देखा है जो उन्होंने शोषण लूट से जमा किया होता है ये उनके सर्व ज्ञानी संत भी जानते हैं और गीता रामायण पाठ करने वाले किसी को ये कभी नहीं कहते कि दान पुण्य महनत ईमानदारी से अर्जित पैसे से करना धर्म है पाप की हराम की कमाई से कोई लाभ नहीं होता केवल दिखावा है झूठ है आडंबर करते हैं काली कमाई से धार्मिक आयोजन करने वाले । तीन शब्द कल भी याद दिलवाये थे , हमदर्द होना धर्म है , खुदगर्ज़ होना अधर्म , और बेदर्द होना सबसे बड़ा  गुनाह होता है । कोई माने चाहे नहीं माने मैंने कितनी बार अन्याय करने वालों को समय आने पर अत्याचार का फल भोगते देखा है । इक कहानी है जिस में कोई अपना आठ सौ का घोड़ा पांच सौ में बेचने को तैयार होता है लेकिन खरीदने वाला घोड़े की सवारी कर परखता है तो कहता है भाई आपका घोड़ा तो अधिक कीमत का है आप सस्ते में कम दाम पर क्यों बेच रहे हो । घोड़ा बेचने वाला बतलाता है उसकी मज़बूरी है बेटी का विवाह करना है पांच सौ उस की ख़ातिर चाहिएं । खरीदने वाला सही दाम आठ सौ देता है तो घोड़ा बेचने वाला सवाल करता है आपको सस्ता मिल रहा था फिर आपने अधिक कीमत किसलिए दी है , जवाब मिलता है कि मेरी भी मज़बूरी है मेरा धर्म कहता है आपको जो चीज़ चाहिए सामान वस्तु उसे खरीदो मगर कभी किसी की मज़बूरी मत खरीदना वर्ना इक दिन कोई तुम्हारी भी मज़बूरी खरीदेगा । इक फिल्म देखी इन दिनों चौबीस घंटे कहानी काल्पनिक हो सकती है लेकिन अंतर्मन को झकझोर सकती है मनोरंजन नहीं फ़िल्म से भी सबक सीख सकते हैं । आखिर में नीरज जी की ग़ज़ल के बाद मेरी इक ग़ज़ल , जो आज बताता हूं दो डॉक्टर्स दंपति ने ख़ुदकुशी की थी सालों पहले तब लिखी थी स्याही से नहीं अपने आंसुओं से ।  

गोपालदास नीरज जी की ग़ज़ल :-

समय ने जब भी अंधेरो से दोस्ती की है
जला के अपना ही घर हमने रोशनी की है

सबूत है मेरे घर में धुएं के ये धब्बे
कभी यहाँ पे उजालों ने ख़ुदकुशी की है

ना लड़खडायाँ कभी और कभी ना बहका हूँ 
मुझे पिलाने में  फिर तुमने क्यूँ कमी की है

कभी भी वक़्त ने उनको नहीं मुआफ़ किया
जिन्होंने दुखियों के अश्कों से दिल्लगी की है

(अश्कों = आँसुओं)

किसी के ज़ख़्म को मरहम दिया है गर तूने
समझ ले तूने ख़ुदा की ही बंदगी की है

गोपालदास नीरज ।

 

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

ख़ुदकुशी आज कर गया कोई
ज़िंदगी तुझ से डर गया कोई।

तेज़ झोंकों में रेत के घर सा
ग़म का मारा बिखर गया कोई।

न मिला कोई दर तो मज़बूरन
मौत के द्वार पर गया कोई।

खूब उजाड़ा ज़माने भर ने मगर
फिर से खुद ही संवर गया कोई।

ये ज़माना बड़ा ही ज़ालिम है
उसपे इल्ज़ाम धर गया कोई।

और गहराई शाम ए तन्हाई
मुझको तनहा यूँ कर गया कोई।

है कोई अपनी कब्र खुद ही "लोक"
जीते जी कब से मर गया कोई।   
 

 
 
 
 
 
 
 

मार्च 29, 2023

सबको जीने की आज़ादी कब ( अमृत या ज़हर ) डॉ लोक सेतिया

  सबको जीने की आज़ादी कब ( अमृत या ज़हर ) डॉ लोक सेतिया 

इक सवाल बार बार दोहराया जाता रहा है कि क्या जैसी देश की दशा है आज़ादी के लिए लड़ने अपनी जान न्यौछावर करने वाले सवंत्रता सेनानियों ने कभी इस की कल्पना की थी । जवाब सही है कि कोई दो राय नहीं हैं कि ऐसा उन्होंने कदापि नहीं चाहा था ,  सोचा ही नहीं था कि देश को आज़ादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था संविधान सब मिलने से सामान्य नागरिक को कुछ भी नहीं हासिल होगा । विदेशी शासकों की गुलामी की जंज़ीरें टूटने से सभी इक समान अधिकारों के हकदार बन जाएंगे परिकल्पना थी जो साकार नहीं हुई  । आज 75 साल बाद अमृतमहोसव का जश्न मनाते हुए शायद ज़रूरी ही नहीं समझा गया कि आत्मचिंतन आत्मनिरीक्षण किया जाए की कितनी पीढ़ियां बदल जाने पर भी समाज से भूख गरीबी बदहाली शिक्षा का अधिकार  न्याय पाने  की उम्मीद  और स्वस्थ्य सेवाओं का आसानी से सभी को उपलब्ध होना , सामाजिक कुरीतियां खत्म होनी तो क्या और भी चिंताजनक हाल सभी जगह दिखाई देता है । पाया क्या है खोया क्या है को लेकर सच ये है कि अधिकांश जनता ने सब खोया है और चंद लोगों घरानों राजनेताओं अधिकारियों उद्योगपतियों धनवान उच्च पदों पर बैठे लोगों को जितना उनके हिस्से का मिलना चाहिए उस से सैंकड़ो हज़ारों नहीं लाखों करोड़ों गुणा मिला है । जनता जो निचले पायदान पर है उसको बेबस मज़बूर और शोषण का शिकार होने को छोड़ दिया है उस व्यवस्था ने अपनी खुदगर्ज़ी और ऐशो आराम की खातिर कमज़ोर और अकेला कर के । हमारी सरकारी शासन प्रणाली न्याय की व्यवस्था किसी अपाहिज की तरह बेकार साबित हुई है जो खुद अपना बोझ नहीं उठा पाती और सारा बोझ गरीब जनता पर लादा जाता है जैसे आदमी इंसान नहीं गधा है उस सभी को अपनी पीठ पर ढोने को अभिशप्त । आज़ादी का वरदान बीस तीस प्रतिशत लोगों को मिला और अभिशाप सतर अस्सी प्रतिशत की किस्मत नहीं सत्ता धन ताकत की लूट का नतीजा है । 
 
हमारी अर्थव्यवस्था अमीर को अमीर और गरीब को गरीब बनाती है , राजनेता अपना ईमान संविधान के प्रति कर्तव्य ताक पर रख कर चुनाव जीतने सत्ता पाने और शासक बनते ही खुद को जनसेवक नहीं देश का मालिक समझने लगते हैं । जनता के नौकर सेवक नियुक्त होने वाले जनता को अपना गुलाम समझते हैं और कुर्सियों पर बैठ कर सभ्य नागरिक से अहंकार से पेश आते हैं उनके उचित कार्य जो प्रशासन को कर्तव्य समझ खुद करने चाहिएं करते समय जतलाते हैं जैसे दया की भीख देते हैं । शासक राजनेताओं से सरकारी अफ्सरों कर्मचारियों के अनुचित आचरण गुनाहों का हिसाब नहीं है और उनके प्रचार के विज्ञापन हर तरफ दिखाई देते हैं घोषित करते हुए कि उन्होंने क्या क्या किया जनता की खातिर । कितना सच है ये बिल्कुल छल है जनता को जो मिलना चाहिए और जो जनता का ही है किसी नेता अधिकारी उद्योगपति की तिजौरी से नहीं आया है उस हक को खैरात कहते लज्जा नहीं आती है ।  
 
देश की जनता की भलेमानस की खामोश रहने की आदत और झूठे वादों में फंसने से और सबसे अधिक आपस में भाईचारा भूलकर राजनैतिक दलों के चंगुल में फंसने से ये दशा होती गई है । शायद हम नहीं जानते कि हमने जो संविधान देश को सौंपा है उस में राजनैतिक दलों की कोई भूमिका नहीं है । देश की जनता को अपने प्रतिनिधि सांसद विधायक चुनने थे जो काबिल ईमानदार जनसेवक हों लेकिन हमने राजनीतिक समर्थक अथवा निजी स्वार्थ तमाम अन्य कारणों से समाज को बांटने वालों से अपराधी तत्वों तक को चुनकर अपना भविष्य गलत हाथों में देकर पछताते रहे हैं । क्या कभी विचार किया खुद किसी सही व्यक्ति को अपना उमीदवार बनाकर चुन कर भेजें । जो खुद किसी दल या राजनेता के बंधक हों उनसे आपको क्या हासिल होगा ऐसे लोग राजधानी पहुंचते ही अपने इलाके में दिखाई तक नहीं देते अपने को चुनने वालों से मिलते ही नहीं तो समस्याओं का समाधान क्या करेंगे ।   
 
कड़े शब्दों में कहा जाए तो देश की दुर्दशा है जो कुछ लोगों के संगठित गिरोह संविधान की भावना को अनदेखा कर मनमानी पूर्वक शासन का गलत उपयोग कर रहे हैं । चिंता की बात ये है कि कोई भगत सिंह कोई गांधी कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण आज नहीं है जो अंधेरी कोठड़ी में इक रौशनदान कहलाये । भेड़चाल आदमी की फितरत बन गई है , जिसे देखो 75 - 75 का आंकड़ा साथ जोड़ कर टीवी शो से कवि शायर कविता पाठ करने लगे हैं कहीं 75 लेखकों की रचनाएं कहीं 75 किताबों की बात कहीं कोई अपने शायर के 75 ख़ास लोगों को किताबों की श्रृंखला प्रकाशित कर रहे है । राम नाम जपने की तरह ये संख्या इक पावन शब्द समझा  जाने लगा है जिस से मनवांछित फल मिलते हैं । कभी समझते थे कोई बार बार इक बात पर अटका वही रटने लगे तो व्यक्ति मंदबुद्धि है पगला गया है , साठ वर्ष में सठियाना सुनते थे 75 का होने पर ऐसा होता है नहीं जानते थे जो देखा उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी । सरकार ने कुछ करना था और कुछ करने को बाकी नहीं रहा सब लाजवाब बढ़िया है शासक वर्ग के लिए तो साल भर खेल तमाशे उत्सव मनाने की फुर्सत ही फुर्सत है पर आपको अभी ज़िंदगी की आज़ादी से बसर करने की हसरत को लेकर चलना है । सफर चलता है हसरत अधूरी ही नहीं शायद मरने के कगार पर खड़ी है । 100 साल का इंतज़ार करने तक जिनको ज़िंदा रहने की उम्मीद नहीं उनको 75 साला जश्न मनाने का अवसर मिला यही बहुत है । सोचा इसी संख्या से अंदाज़ा लगाते हैं 75 करोड़ जनता को ख़ाली पेट फुटपाथ पर खुले आसमान तले सर्द रातें गर्म दोपहरी आंधी बरसात सब को झेलना है उनकी आज़ादी बंधक रखी है कुछ ख़ास लोगों के पास । जीने का संघर्ष उनका मौत से पहले खत्म नहीं होता है और अफ़सोस उनकी उम्र 75 की कभी नहीं होती बचपन से जवानी में उनकी सांसों की लड़ी टूट जाती है । क्षमा करना जश्न की चर्चा करने वाले किसी के दुःख दर्द या  परेशानी  की बात नहीं सुनना चाहते पर लिखने वाला हर तरफ बदहाली को देख कर ख़ुशहाली है इतना बड़ा झूठ कैसे लिखे कलम साथ नहीं देती । इसलिए सच सच लिख दिया है कड़वा लगे या मीठा आप की तकदीर । जिस गांव शहर के 75 घरों में बदहाली को अनदेखा कर 25 घर वाले मस्ती में झूमते नाचते हैं उस पर कोई गर्व नहीं किया जा सकता है । हमदर्द होना धर्म है खुदगर्ज़ होना अधर्म और बेदर्द होना गुनाह पाप अपराध ऐसी परिभाषा है सोचने की ज़रूरत है । 
 

 

मार्च 27, 2023

ज़िंदगी के चार दिन का अर्थ ( नीतिकथा ) डॉ लोक सेतिया

   ज़िंदगी के चार दिन का अर्थ ( नीतिकथा ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी चार दिन की चांदनी होती है कहते हैं ठीक इसी तरह दिन के चार पहर चार पहर रात के बहुत कुछ को चार भाग में बांटने की बात युग युग से चलती आई है । चार लोग क्या कहेंगे चार दिशाएं घर के कमरे के कोने भी चार चार आने से चार युग सत्ययुग कलयुग त्रेता युग द्वापर युग तमाम तरह से चार हिस्सों में बांटा गया है । ये सब कोई बिना आधार नहीं हुआ किया गया बल्कि बड़ी गहराई से सब को ठीक से जांच परख कर सोच विचार कर निर्धारित किया हुआ है । केवल कहने सुनने से नहीं सोचने समझने परखने से पता चलता है अनुभव से बढ़कर कोई ज्ञान विज्ञान नहीं होता है । हमने जिन बातों को अनावश्यक मान कर त्याग दिया वही वास्तव में हमारी जीवन की सभी समस्याओं का हल बताते हैं । हैरानी है या विडंबना या फिर हमारी बड़ी नासमझी कि आज शायद ही उन नीतिकथाओं बोधकथाओं की कोई किताब हम पढ़ते हैं मिलती ही नहीं आसानी से । हैरानी होगी कि मुझे कुछ ऐसी किताबें रद्दी वाले के पास दिखाई दी और मैंने उचित दाम देकर खरीद ली हैं दो चार । बात चार की हो रही थी उस पर आते हैं । 
 
हम सभी की उम्र छोटी बड़ी जैसे भी हो उस को चार भाग में विभाजित करते हैं  बात बचपन जवानी गृहस्थ बुढ़ापा की नहीं कुछ और अलग है । जीवन इक वृक्ष है जिसे बोने से काटने तक फिर चार भाग हैं , पहले ज़मीन को तैयार करते हैं ज़िंदगी का पहला दिन इक हिस्सा यही होता है । उस के बाद दूसरे भाग ज़िंदगी का दूजा दिन बीज बोते हैं सब अपने अपने अनुसार कोई फूल कोई कांटे कोई कुछ और जो अच्छा लगता है । अब ज़िंदगी की दोपहर हमको जो बोया उस को संवारना होता है ये वही अवसर है जब हम अपनी गलती को सुधार सकते हैं बहुत कुछ नासमझी में किया नहीं करना था उसको बदला संवारा जा सकता है तीसरा दिन यही होता है । ज़िंदगी की ढलती शाम जीवन का चौथा दिन या आखिरी पहर हमने जो बोया था उस के अच्छे बुरे परिणाम सामने दिखाई देते हैं तब आपके पेड़ पर खुशियों के फल हैं या दुःख दर्द के कांटे हैं आपको उन को स्वीकार करना होगा अपनी झोली में लेना पड़ता है । बहुत बार बड़े बज़ुर्गों से सुनते रहे हैं कोई आखिरी सांस तक किसी से क्षमा याचना करने को व्याकुल रहता है मांगने पर मौत नहीं आती और जिस किसी से अन्याय किया उस के आने का इंतज़ार रहता है । 
 
आजकल टीवी पर साईं बाबा सीरियल दिखाया जा रहा है पिछले सप्ताह की कहानी में इक रेलवे का टीसी किसी की टिकट किसी दूसरे को रिश्वत लेकर दे देता है जिस से उस व्यक्ति का भविष्य का पूरा जीवन बहुत कठिन और समस्याओं से जूझते हुए बीतता है । उसे नहीं पता होता कि उस की इक गलती का असर किसी पर कितना खराब पड़ सकता है । भले कहानी में साईं बाबा सब ठीक करते हैं मगर ये सच नहीं है केवल समझाने को आखिर में सकारात्मक अंत लिखने वाला करते हैं जबकि हमारी ज़िंदगी में कोई अंत होता ही नहीं है । आपके मेरे निधन के उपरांत भी अपनी दास्तां ख़त्म नहीं होती बस जैसे कहानी में कोई किरदार मरता है तो बाक़ी किरदार कहानी को आगे बढ़ाते हैं यही होता है । नर्क भी यहीं है स्वर्ग भी कुछ लोग सही राह पर चलते हैं हर किसी के सुख दुःख को समझते हैं वो इंसान फ़रिश्ता जैसे होते हैं और उनका होना सुकून चैन देता है जबकि कुछ अपने लोभ लालच स्वार्थ में अंधे ख़ुदग़र्ज़ी में आदमी को नोच कर खाने वाले गिद्ध की तरह होते हैं उनसे संपर्क होना आदमी को डर और चिंता में डालता है वो किसी दैत्य से कम नहीं होते और नर्क बनाते हैं जहां भी उपस्थित होते हैं । धर्म की सही परिभाषा यही है जो गोस्वामी तुलसीदास अपने ग्रंथ श्री रामचरितमानस में लिखा है ,  

             " परहित सरिस धरम नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई । " 





मार्च 26, 2023

वफ़ादार आपके सब ईमानदार नहीं ( राग दरबारी ) डॉ लोक सेतिया

 वफ़ादार आपके सब ईमानदार नहीं  ( राग दरबारी ) डॉ लोक सेतिया 

हर किसी को वफ़ा की तलाश है और वफ़ादारी का सबक किसी को याद नहीं ईमानदारी वाला सबक किसी किताब में शामिल नहीं है । सरकार वफ़ादारी देखती है ईमानदारी नहीं देखती और बेईमान लोग वफ़ा नहीं करते जीहज़ूरी करते हैं अपने अपने मतलब साधते हैं । देश के सर्वोच्च पदों पर नियुक्ति का आधार कोई काबलियत नहीं जो जब सत्ता पर आसीन है उस के लिए निष्ठा को आधार बनाते हैं और निष्ठाएं हैं जो बदलती रहती हैं । चतुर खिलाड़ी वक़्त की चाल और हवाओं का रुख देख कर बदलते रहते हैं समझदार कहलाते हैं जो चुनाव से पहले भांप लेते हैं तराज़ू का पलड़ा जिधर झुका हुआ उसी पलड़े में चले जाते हैं । इंसान जब सिक्कों में तुलते हैं तो सामान बन जाते हैं जो कीमत देता है अपने घर ले जाता है । गाय भैंस घोड़े हाथी क्या गधे तक जिस ने खरीदा उसके खूंटे पर बंधे रहते हैं बस कुत्ता नहीं जानता उसका महत्व कितना है । भौंकने वाले नहीं दुम हिलाने वाले कुत्ते लोग पालते हैं आजकल घर की रखवाली सिक्योरटी गार्ड किया करते हैं और सीसीटीवी पर भरोसा है । कुत्ते की वफ़ादारी हड्डी खिलाने वाले के लिए रहती है सभी टीवी चैनल सरकारी विज्ञापन की खातिर सब करते हैं बड़े तेज़ दौड़ने वाले बिना सरकारी विज्ञापन सहायता की बैसाखी इक कदम चलते हुए डरते हैं । सत्ता की चौखट पर फिसलन ही फिसलन है सभी संभल कर निकलते हैं गिरने से बचने को जाने कितना नीचे गिरते हैं । 
 
देश में सब कुछ है बस नहीं है तो सत्ता सरकारी विभाग से धनवान उद्योगपति वर्ग सिनेमा फ़िल्मकार कथाकार से बड़े बड़े व्याख्यान देने वाले तथाकथित जानकर विशेषज्ञों अभिनेताओं कलाकारों तक अपने काम में रत्ती भर भी सच्चाई और ईमानदारी नहीं बची है । वफ़ादारी दो लोगों के बीच होती है जबकि ईमानदारी सब के लिए एक जैसी होती है शायद ईमानदारी बेमौत मर गई ईमानदारी ज़िंदा नहीं रही । मातम नहीं मनाते बड़े लोग जश्न मनाते हैं उनको वफ़ा अभी बाक़ी है ये भरोसा है ईमानदारी भी कभी कहीं से ढूंढ ही ली जाएगी ।
 
इक शायर कहता है कि :- 
बड़े लोगों के घर सोग का दिन भी लगता है त्यौहार सा । 
उस शायर को लगता था :- 
इस तरह साथ निभाना है मुश्किल , तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा। 
  
इधर दूर किसी शहर की गरीबों की बस्ती में इक झौपड़ी में इक महिला ने बच्ची को जन्म दिया है। टीवी चैनल का कैमरा उस पर थम गया है बता रहा है कि महिला के साथ दुष्कर्म किया गया था और अपराधी अभी पकड़ा नहीं गया है । टीवी वालों ने उस को ईमानदारी नाम दे दिया है अर्थात ईमानदारी उस लड़की का नाम है जिस के पिता का कोई अता पता नहीं है और जिसकी मां उसको जन्म देते ही मर गई है । ईमानदारी की शोकसभा मातम मनाना छोड़ उसके जन्म पर जश्न मनाने लगी है । ईमानदारी लावारिस है उसकी कहानी बड़ी पुरानी है जिस पर फिल्म बन चुकी है । 



मार्च 25, 2023

होने वाली है सहर शायद ( बहस जारी है ) डॉ लोक सेतिया

   होने वाली है सहर शायद ( बहस जारी है ) डॉ लोक सेतिया 

शुरआत इक बड़ी पुरानी ग़ज़ल से :- 
 
जिन के ज़हनों में अंधेरा है बहुत  ,
दूर उन्हें लगता सवेरा है बहुत । 
 
एक बंजारा है वो , उस के लिए  ,
मिल गया जो भी बसेरा है बहुत । 
 
उस का कहने को भी कुछ होता नहीं  , 
वो जो कहता है कि मेरा है बहुत ।  
 
जो बना फिरता मुहाफ़िज़ कौम का  ,
जानते सब हैं लुटेरा है बहुत । 
 
राज़ " तनहा " जानते हैं लोग सब  ,
नाम क्यों बदनाम तेरा है बहुत । 
 
डॉ लोक सेतिया " तनहा " 
 
2005 वर्ष की पुरानी डायरी पर लिखी हुई ग़ज़ल ढूंढने पर मिल ही गई । इक किस्सा याद आया हम आस पास के निवासी सभी डॉक्टर सचिवालय में उपायुक्त से मिलने खराब माहौल की समस्या बताने गये हुए थे । अधिकारी ने बड़े प्यार से बिठाया जलपान करवाया मगर समस्या की बात पर जो कहा सुन कर सभी सकते में आ गए थे । उस दिन वहां टोहाना के विधायक भी बैठे हुए थे हैरानी नहीं बड़ा अफ़सोस हुआ जब उन्होंने कहा यहां कुछ भी बदलना संभव नहीं है । बस तभी उनको अपनी ताज़ा ताज़ा लिखी ऊपर वाली ग़ज़ल का मुखड़ा सुनाया था और उनके चेहरे का रंग बदल गया था । 
 
आज के विषय से पहले लिखी बात का कोई नाता नहीं है बस समझना था क्या वास्तव में कभी कुछ नहीं बदलता है । सच्ची बात ये है कि राजनेता शासक अधिकारी वर्ग कभी नहीं चाहते कुछ भी बदलाव सही मायने में हो ।  बलवाव लाने की बातें करते हैं खुद ही नहीं बदलते कुछ भी बदले तो भला किस तरह से । सभा में चर्चा हो रही है शब्दों को सोच समझ कर बोलना चाहिए कहावत भी है काने को काना नहीं कहना चाहिए । शाहरुख़ खान का मशहूर डायलॉग है गंदा है पर धंधा है । याद आया इक कहावत ये भी है कि दुनिया के सबसे पुराने दो पेशे हैं राजनीति और जिस्मफ़रोशी और दोनों में बहुत समानताएं हैं । बहस का विषय है कि चोरी लूटमार क़त्ल चाहे कोई भी अपराध हो जिनका काम धंधा है यही करना उनको चोर लुटेरा क़ातिल कहकर अपमानित नहीं किया जाना चाहिए , आंख से अंधे का नाम नयनसुख बचपन में सुना था । 
 
" मैं आज़ाद हूं " तथकथित महानायक की लाजवाब फ़िल्म थी जो चली नहीं क्योंकि फ़िल्म का किरदार काल्पनिक था इक अखबार का बनाया झूठा व्यक्ति जो खरी खरी लिखता था । कॉलम लिखने वाले ने इक दिन आज़ाद की धमकी की मनघड़ंत बात लिख दी तो शोर मच गया । संपादक को इक बेरोज़गार कई दिन से भूखे भटक रहे व्यक्ति को लालच दे कर जनता के सामने पेश कर अपनी काल्पनिक कहानी को सच साबित कर दिया । झूठा नाम मिलते ही किरदार को अपनी पहचान को सच साबित करने की खातिर अपना साक्षात्कार वीडियो पर रिकॉर्ड करवा जिस ऊंची इमारत से कूद कर जान देने की धमकी अखबार ने छापी थी उसी से छलांग लगाकर ख़ुदकुशी कर ली और उसी वक़त सभागार में आज़ाद का वीडियो दिखलाया गया । 
मैं आज़ाद हूं , मैं आज़ाद हूं यही स्वर गूंजता रहा फिल्म का अंत था झूठ को सच साबित करने को सच में ख़ुदकुशी करनी पड़ती है ।  जानता हूं आपको समझ नहीं आ रहा कि चर्चा किस बात की हो रही है बस इसी की परेशानी है जिधर देखो विषय की नहीं जाने किस किस बात की बहस पर कितने लोग उलझते दिखाई देते हैं । ऐसा कहते हैं भौर होने से पहले अंधियारा बढ़ा हुआ लगता है , बुझने से पहले दिये की लौ बढ़  जाती है । बोलना नहीं कुछ भी समझना है बिना अल्फ़ाज़ एहसास को । अभी इतना बहुत है । 



 

मार्च 24, 2023

मुक़द्दर का सिकंदर लोग ( तीखी-मीठी ) डॉ लोक सेतिया { पिछली पोस्ट से आगे }

     मुक़द्दर का सिकंदर लोग ( तीखी-मीठी ) डॉ लोक सेतिया   

                                         {  पिछली पोस्ट से आगे } 

बात सही गलत अच्छे बुरे की नहीं है दरअसल बात किस्मत की है । ये विधाता की मर्ज़ी है किसी शख़्स को ईमानदारी से सही मार्ग पर चलने पर भी झोली खाली पेट खाली और दर दर की ठोकरें मिलती हैं और जो खुशनसीब होते हैं उनको छप्पर फाड़ कर मिलता रहता है । क्यों किसी को चोर रिश्वतखोर डाकू लुटेरा या अपराधी कहा जाए धर्म उपदेशक बताते हैं सब अपना अपना कर्म करते हैं और अपने कर्मों की कमाई खाते हैं । हम मंदबुद्धि अज्ञानी लोग दुविधा में रहते हैं तभी माया नहीं मिलती और राम भी मिलते नहीं । माया महाठगनी हम जानी सभी को ठगती है तभी बड़े बड़े मंदिरों में पैसे की माया देवी देवताओं को पहले उनको दर्शन देने की बात होने देती है जो बाकायदा रसीद कटवाते हैं । जाकर देखा है भगवान झूठ न बुलवाये अगर आपको विश्वास नहीं तो खुद जाओ देखो ये तरीका उचित अनुचित से परे है ख़ास आम की दो कतार दो कायदे कानून हैं तो हैं । जिस को नहीं स्वीकार घर बैठा रहे देवी देवता भगवान सब जगह हैं दर्शन साक्षात नहीं भावना से होते हैं । 
 
चलो आधुनिक युग की आपकी दुनिया में विचरण करते हैं , घबराओ नहीं किसी को इक कदम भी चलना नहीं बस सोशल मीडिया पर ध्यानपूर्वक समझना है । सब देखते नहीं पढ़ते नहीं सुनते नहीं चाहे कितनी महत्वपूर्ण बात हो कितना शोर हो हर कोई बापू का बंदर बना मुंह आंख कान बंद किये हुए है और खुद सभी अपनी बात लिखते हैं बोलते हैं और दुनिया को सुनाने की तमाम कोशिशें करते हैं । फेसबुक व्हाट्सएप्प पर तस्वीर को देख अपनी राय बनाते हैं और अपनी बात कहने को तस्वीरें ढूंढते हैं विचार नहीं विवेक की बात को छोड़ देते हैं । फ़िल्मी गीत याद आते हैं , नसीब में जिस के जो लिखा था वो तेरी महफ़िल में काम आया । किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया । लोकतंत्र का अजब खेल तमाशा है  मुक़द्दर से नसीब होता सत्ता का बताशा है जनता की नहीं आती बारी है आखिर व्यवस्था जन-कल्याणकारी मगर सरकारी है । शराफ़त कुछ नहीं इक लाईलाज बीमारी है उपचार नहीं मिलता कोशिश जारी है । चुनावी गणित में सभी दल विजयी हैं सिर्फ और सिर्फ देश की जनता हर बार हारती रही है सब कुछ हारी है फिर भी राजनेताओं पर होती बलिहारी है । सत्ता की तलवार दोधारी है बचना बड़ी महंगी सत्ता की यारी है कौन जाने किस दिन किस की मौत की बारी है फ़रमान जारी है दुश्वारी है । 

सब से पहले आपकी बारी ( ग़ज़ल ) 

सब से पहले आप की बारी
हम न लिखेंगे राग दरबारी ।

और ही कुछ है आपका रुतबा
अपनी तो है बेकसों से यारी ।

लोगों के इल्ज़ाम हैं झूठे
आंकड़े कहते हैं सरकारी ।

फूल सजे हैं गुलदस्तों में
किन्तु उदास चमन की क्यारी ।

होते सच , काश आपके दावे
देखतीं सच खुद नज़रें हमारी ।

उनको मुबारिक ख्वाबे जन्नत
भाड़ में जाये जनता सारी ।

सब को है लाज़िम हक़ जीने का
सुख सुविधा के सब अधिकारी ।

माना आज न सुनता कोई
गूंजेगी कल आवाज़ हमारी । 
 

 

मार्च 23, 2023

हम सब ईमानदार शरीफ़ लोग हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   हम सब ईमानदार शरीफ़ लोग हैं  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

मुझे कोई तीस साल पुरानी खबर याद आई आल इंडिया रेडियो पर सीधा प्रसारण हो रहा था जिस में इक बच्चे ने कविता नुमा बोल दिया था गली गली में शोर है .............. चोर है । तब अख़बार में बहुत कुछ हुआ राजनेताओं ने भाषण में जाने क्या क्या कहा सब हुआ यहां तक की पुरानी कहानी पढ़ने को मिली जो हमने नहीं सुनी थी तब तक , " राजा नंगा है " । लेकिन अब समझ आया है कि उस पर मुकदमा दायर किया जाना चाहिए था और चोरी साबित नहीं होने पर सज़ा मिलनी चाहिए थी । बच्चा होने से कोई बच नहीं सकता है और ढूंढना होगा अब तक वो लड़की या लड़का चालीस से ऊपर का हो गया होगा उस पर अभियोग चला कर न्याय की मिसाल कायम की जा सकती है । ऐसा किसी व्यक्ति की मान सम्मान की खातिर नहीं बल्कि हर  किसी की इज़्ज़त समान होती है इस खातिर किया जाना ज़रूरी है । क्या आपको ये हंसी मज़ाक की बात लगती है जी नहीं विषय बेहद गंभीर है । 
 
हमारे समाज में देश में जब जिस को जो लगता है बिना डरे झिझके बोल देता है , दुकानदार चोर है , पुलिस से लेकर किसी भी सरकारी विभाग यहां तक कि आयकर विभाग से डॉक्टर अस्पताल सभी को लोग बिना कोई प्रमाण चोर हैं घोषित कर देते हैं । आज तक किसी अधिकारी को राजनेता को या व्यौपारी उद्योगपति को ईमानदार कहना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा । अन्यथा तमाम लोगों को अपनी अच्छाई सच्चाई ईमानदारी के लिए अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा विज्ञापन पर खर्च नहीं करना पड़ता । कमाल ये है कि जो जितने अधिक विज्ञापन टीवी अखबार पर देता है देखने वाले उसको उतने ही ज़्यादा शक की नज़र से देखते हैं । कहते हैं मुजरिम गुनहगार अपराधी को बढ़ावा देना उसकी सहायता करना भी पाप और अपराध करना ही होता है । अर्थात जो टीवी अखबार जानते समझते हुए झूठे विज्ञापन दिखलाते छापते हैं वो भी संगी साथी हैं अनुचित कार्य करने वालों के मौसेरे भाई हैं । जो सब लोग दावा करते हैं वो यही कि हम पाक साफ़ गंगाजल से धुले हैं । किसी पर पत्थर फैंकने से पहले खुद अपने गिरेबान में कोई नहीं झांकता आजकल क्या पहले भी नहीं होता था और हमेशा यही होगा मेरा कुर्ता सबसे सफेद है । 
 
जब हम सब सच्चे देशभक्त हैं और पूरी तरह से ईमानदार हैं तो न कोई किसी पर कोई आरोप लगा सकता है न किसी  को बदनाम कर सकता है । शायद समय आ गया है कि सरकार आधारकार्ड की तरह हर नागरिक को ईमानदार होने का भी सर्टिफ़िकेट जारी करे ताकि अपने पर आरोप लगाने वाले पर हर कोई रिपोर्ट दर्ज करवा सके । सब भले हैं कोई किसी को बुरा कहता है तो उसको साबित करना होगा अन्यथा दंड मिलने का भय होगा तो चलते फिरते कोई किसी पर आरोप नहीं जड़ सकेगा । आप सोच रहे होंगे ऐसा करने से क्या लूट अपराध चोरी हेराफेरी भ्र्ष्टाचार नहीं रहेगा तो जवाब साफ है बुरा होना बुरा नहीं होता है हर कोई बुराई की तरफ जाना पसंद करता है लेकिन बुरा कहलाना कोई नहीं चाहता । सबसे फायदे की बात विश्व में ईमानदारी के आंकड़ों में हमारा देश मालूम नहीं अभी किस पायदान पर है मगर सबको ईमानदार घोषित करते ही हम सबसे ऊंचाई पर पहले पायदान पर दिखाई दे सकते हैं । होना आवश्यक नहीं समझा जाना आवश्यक है । देश में कितने बड़े बड़े घोटाले हुए कभी कोई साबित नहीं हुआ ये दुनिया काजल की कोठड़ी है दाग़ लग जाता है और सरकारी जांच एजंसी बेदाग़ साबित करती रहती है लोग तब भी शंका करते रहते हैं । गोरे काले का भेदभाव मिटाना है तो सबको एक रंग में रंगना होगा , किसी धोबी ने कहा था कपड़े पर गहरा दाग़ लगा हो तो उसे काले रंग में रंग देना चाहिए । अब आजकल काला रंग फ़ैशन में बहुत चलन में है तो आखों में काजल सुरमे की तरह उस कालिख़ से सुंदरता बढ़ाने जैसा कुछ किया जा सकता है । जब कोई अपराधी नहीं तो अपराध भी नहीं होते हैं आंकड़े अपने आप बनते जाएंगे। 

माजरा क्या था याद नहीं पर कहीं पढ़ा था अंग्रेजी हुकूमत ने किसी भारतीय नंबरदार को लेकर अपने यहां के अफ़्सर से जानकारी मांगी थी और उस अफ़्सर ने कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग किया था जो पता चलने पर नंबरदार को अपमानजनक लगा और उस अफ़्सर पर मुकदमा दायर करवा दिया था । उदाहरण के लिए ऐसा बताना कि वो क्या बताएं कैसा ईमानदार है , इतना बहुत है जैसे शब्दों में सवालिया निशान लगाना ताकि सरकार उसे कोई पद या मान सम्मान उपाधि देने से पहले जांच ले कि काबिल है भी या नहीं । 
 
पाँच लिंकों का आनन्द: 1717....हम-क़दम का एक सौ तेरहवाँ अंक.. काजल

मार्च 22, 2023

खुद को देखना समझना ( आईने के सामने ) डॉ लोक सेतिया

खुद को देखना समझना  ( आईने के सामने ) डॉ लोक सेतिया 

आज खुद को दुनिया में अकेला खड़ा पाया तो सोचा क्या हुआ क्यों सब लोग मिले बिछुड़ गए बस कुछ खट्टी मीठी यादें बाकी हैं । भीड़ से हमेशा घबराता रहा हूं दोस्ती हर किसी से निभाता रहा हूं , चोट हर बार खाता रहा हूं फिर से तकदीर को आज़माता रहा हूं । महफ़िल कितनी सजाता रहा हूं रौशनी को घर अपना जलाता रहा हूं । दुश्मन को भी अपना बनाता रहा हूं रूठे को मनाता गले लगाता रहा हूं , बस इक भूल दोहराता रहा हूं जहां नहीं जाना था अजनबी लोगों के पास जाकर ख़ाली लौट आता रहा हूं । मतलब की यारी करने वाले लोग मिलते रहे हैं उनकी चाहत पर खरा नहीं उतरा तभी किसी को नहीं भाता रहा हूं । कभी जो कहते थे आपके हैं हमको अपना बना लो दिल से दिल मिला लो वक़्त बदलते मुझसे कतराने लगे हैं हाथ पकड़ने वाले हाथ छुड़ाने लगे हैं । समझने में इक बात कितने ज़माने लगे हैं हक़ीक़त से लोग बचने लगे हैं सच से नज़रें चुराने लगे हैं । हर किसी के हमीं पर निशाने लगे हैं हम तीर पर तीर खाने लगे हैं ज़ख़्म पर मरहम लगाने वाले ज़ख्मों को और बढ़ाने लगे हैं नमक छिड़कने को बहाने बनाने लगे हैं ।  

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं ( ग़ज़ल )

 डॉ लोक सेतिया "तनहा"

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।

बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।

हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।

आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।

खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं । 
 
कभी कभी ऐसा करते रहना ज़रूरी है खुद अपने आप को परखना कसौटी पर कसना और समझना । सोचा इक बार फिर से दर्पण का सामना किया जाए और इक भजन है तोरा मन दर्पण कहलाए । भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए , जग से चाहे भाग ले कोई मन से भाग न पाए । मन का दर्पण आत्मा है ज़मीर कहलाता है वहां झूठ बनावट नहीं चलती है खुद अपने आप को धोखा देने की कोशिश अपनी ही नज़र में नीचे गिरना होता है । मैं दुनिया को नहीं जानता जो भी जानता हूं समझता हूं काफी नहीं है लेकिन खुद अपने आप को मैं जानता हूं समझता भी और परखता भी रहता हूं कि जो सोचता समझता कहता हूं वही करता भी हूं या फिर कथनी करनी में अंतर है । मैंने जीवन भर जो भी किया है जैसा भी कर पाया हूं बढ़िया या लाजवाब नहीं मगर सच्चाई से पूरी ईमानदारी से किया है । स्वार्थी ख़ुदगर्ज़ बनकर कभी झूठ बोलना शहद की तरह मिठास भरे बोल बोलकर अपना उल्लू सीधा करना जैसा किया नहीं है । समस्याओं का हल निकालने को आसान रास्ते छोड़ सच का दामन पकड़े रखा है और मुश्किलों का डटकर सामना किया है । 
 
डॉक्टर का किरदार निभाते समय जितना संभव हुआ सभी का उपचार उचित ढंग से किया है और पैसे बनाने को कभी अधिक महत्व नहीं दिया है । समाज में दोस्ती या अन्य संबंधों में बनावट और चतुरता से कभी ऐसा आचरण नहीं किया कि दिल में बैर रखना और सामने हितैषी बनकर धोखा देते रहना । मुझ से बहुत लोग ऐसा करते रहे हैं और मैं समझता भी रहा हूं लेकिन बुराई का बदला बुरा बनकर कभी नहीं किया है । झूठ नहीं कहूंगा कि मैंने सबको आसानी से माफ़ किया है मन में एहसास रहा है और निराशा भी मगर कभी व्यवहार में कटुता नहीं लाना चाहा है । छोड़ दिया है अनुचित व्यवहार करने वालों को ये सोच कर कि जिनकी जैसी सोच विचारधारा है उनको बदला नहीं जा सकता पर उन की तरह बनना भी नहीं  छल कपट धोखा करने से खुद अपनी अंतरात्मा पर बोझ लेकर ज़िंदा रहना मुझे मंज़ूर नहीं है । 
 
लिखना मेरा शौक नहीं ज़रूरत है जो जुनून बन गया है लेकिन मैंने साहित्य के बाज़ार में बेचा नहीं कलम को । नाम शोहरत ईनाम पुरूस्कार आदि की दौड़ में शामिल नहीं हुआ कभी । किसी विधा का बड़ा जानकार नहीं बस जब कुछ लिखना होता है खुद ही जिस विषय की चर्चा होती है कोई आकार बनता गया है । शर्त एक ही है सच लिखना निडरता पूर्वक लिखना और खुद अपनी मौलिकता को बनाए रखना । इधर उधर से कुछ लिया और बदलाव कर अपनी रचना घोषित किया जैसा गुनाह नहीं कर सकता हूं जैसा बहुत लोग करते हैं । मैं भसोसा करता हूं की मैंने जो लिखा समाज की वास्तविकता को दिखलाने में सक्षम है कुछ घटाया बढ़ाया नहीं है । इस डर से कि कोई खुश या नाराज़ होगा अपनी कलम को रुकने नहीं दिया कभी भी ।   


मार्च 21, 2023

जो हक़ीक़त नहीं दिखता दिखाई देता जो होता नहीं ( दिलचस्प रोग ) डॉ लोक सेतिया

 जो हक़ीक़त नहीं दिखता दिखाई देता जो होता नहीं ( दिलचस्प रोग ) 

                                     डॉ लोक सेतिया 

ये कोई पहेली नहीं है आपको इस की जानकारी होनी बेहद ज़रूरी है , मुझे अभी अभी पता चला तो आपको तुरंत बताना मुनासिब समझा । जल्दी ही पूरी जानकारी विस्तार से दी जाएगी मगर शोध करने के उपरान्त कि इस में कितनी सच्चाई है और कितनी सोशल मीडिया की झूठी अफ़वाह । इक नामुराद रोग है जिस ने देश के सामान्य नागरिक को छोड़ दिया है और बड़े ख़ास वीवीआईपी वर्ग समझे जाने वाले अधिकांश लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है । देखने में भले चंगे तंदरुस्त लगते हैं मगर भीतर से खोखले हो चुके हैं उनकी आन - बान- शान सभी झूठी है वास्तव में उन की दशा बेजान चलते फिरते शरीर की है जिन में दिल की धड़कन से आत्मा की आवाज़ तक जाने कब की मर चुकी है । शासक बन सरकारी अधिकारी बन कर्मचारी बन कर बिना सोचे विचारे व्यवस्था का सत्यानाश करते हैं और दावे करते हैं देश सेवक जनता के कल्याण विकास और समाज कल्याण करने के । लोकतांत्रिक व्यस्था का तमाशा बना दिया है और गांव शहर से महानगर तक असंख्य व्यक्ति राजा बन खुद को जनता का मालिक समझते हैं और चाहते हैं हर कोई उनको सलाम करे उनकी तिजौरी भरने में सहयोगी बने और अपने खून पसीने की गाढ़ी कमाई लुटवाने पर सहमत हो । बदले में अराजकता मनमानी लूट और सत्ता के गुणगान का तमाशा देख तालियां बजा स्वागत करे । देश की बागडोर ऐसे ही असाध्य नामुराद रोग से ग्रस लोगों के हाथ है जिनको वास्तविकता दिखाई नहीं देती मगर किसी सपने की तरह जो वास्तव में नहीं नज़र आता है लेकिन कोई उनको समझा नहीं सकता जैसे सावन के अंधे को चारों तरफ हरियाली दिखाई देती है । 
 
  इक समिति का गठन किया गया इस रोग की वास्तविकता को समझने के लिए । मनोचिकित्सक राजनैतिक विश्लेषक  संविधान और न्याय के जानकार शामिल किए गए । शोध करने पर परिणाम चौंकाने वाले सामने आये हैं सत्ता के पदों पर निर्वाचित मनोनीत नियुक्त सभी किसी दीवार पर टांगी हुई तस्वीर की तरह हैं । सब का चेहरा रंग रूप पहनावा लगता अलग अलग है लेकिन आचरण भाषा व्यवहार सभी का मानव की तरह नहीं किसी मशीन या रॉबेट जैसा है । कठपुतली की तरह नाच रहे हैं जाने कौन नचाता है सबको अपनी उंगलियों से बंधे धागे से इशारों पर , फ़िल्मी डायलॉग याद आ गया है सिम्मी ग्रेवाल कहती है कठपुतली करे भी तो क्या धागे किसी और के हाथ में हैं नाचना तो पड़ेगा ही । धन दौलत नाम शोहरत और पद प्रतिष्ठा हासिल करने की खातिर जब आत्मा ईमान और खुद अपनी पहचान तक को गिरवी रखने लगे हैं और बड़ा होना नहीं कहलाना उनका मकसद बन जाये तब वही होता है जब किसी ज़ालिम से रहम की इंसाफ की झूठी उम्मीद का कोई ख़्वाब देखने लगे कोई । देश की जनता का दर्द उसकी समस्याएं संवेदनशील इंसान समझ सकता है वो नहीं जो इंसान होकर भी मशीन बन कर रह गए हैं । आदमी जब तलवार बन गया हो तब उस को क्या खबर जिस किसी के हाथ ने उसे पकड़ा है वो सुरक्षा करता है या बेगुनाह लोगों पर वार कर अपनी सत्ता की हवस महत्वांकाक्षा में अपने विरोधी को सज़ा देना चाहता है , ख़ुदपरस्ती में बाकी सबका अस्तित्व नमो निशान मिटा कर समझता है अमर होकर शासक बना रहता है , मगर कब तक । इक पुरानी ग़ज़ल फिर से पढ़ता हूं । 17 सितंबर 2012 को ब्लॉग पर लिखी हुई है ये बताना आवश्यक है क्योंकि हालात बदले नहीं बदलने होते हैं कोशिश जारी है ।

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) 

सरकार है  , बेकार है , लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है ।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है ।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है ।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है ।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है ।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है ।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है ।
 


 

मार्च 20, 2023

सफ़र साहित्य की डगर पर मुसाफ़िर का ( मेरी दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

 सफ़र साहित्य की डगर पर मुसाफ़िर का ( मेरी दास्तां ) डॉ लोक सेतिया 

शुरुआत कुछ रचनाओं से करता हूं जो मुझसे परिचित ही नहीं करवाती बल्कि मेरा सही परिचय हैं अपनी पहचान को और कोई निशानी मेरे पास नहीं है । 

 1        दोस्त की तलाश  

 

ये सबने कहा अपना नहीं कोई
फिर भी कुछ दोस्त बनाए हमने ।
 
फूल उनको समझ कर चले कांटों पर
ज़ख्म ऐसे भी कभी खाए हमने ।
 
यूं तो नग्में थे मुहब्बत के भी
ग़म के नग्मात ही गाए हमने ।

रोये हैं वो हाल हमारा सुनकर
जिनसे दुःख दर्द छिपाए  हमने ।

ऐसा इक बार नहीं , हुआ सौ बार
खुद ही भेजे ख़त पाए  हमने ।

उसने ही रोज़ लगाई ठोकर 
जिस जिस के नाज़ उठाए हमने । 

हम फिर भी रहे जहां में "तनहा"
मेले कई बार लगाए  हमने । 
 
 
2       ग़ज़ल 
 
 
फिर कोई कारवां बनाएं हम
या कोई बज़्म ही सजाएं हम ।

छेड़ने को नई सी धुन कोई
साज़ पर उंगलियां चलाएं हम ।

आमदो - रफ्त होगी लोगों की
आओ इक रास्ता बनाएं हम ।

ये जो पत्थर बरस गये  इतने
क्यों न मिल कर इन्हें हटाएं हम ।

है अगर मोतियों की हमको तलाश
गहरे सागर में डूब जाएं हम ।

दर- ब- दर करके दिल से शैतां को
इस मकां में खुदा बसाएं हम ।

हुस्न में कम नहीं हैं कांटे भी
कैक्टस सहन में सजाएं हम ।

हम जहां से चले वहीं पहुंचे
अपनी मंजिल यहीं बनाएं हम ।
 

  3        दीप जलता ही रहा ( गीत ) 

 

आंधियां चलती रहीं , दीप जलता ही रहा ।

ज़िंदगी के फासले कम कभी हो न सके 
दर्द तो मिलते रहे हम मगर रो न सके
ग़म से पैमाना भरा जब न खाली हो सका
वो समंदर बन गया बस उछलता ही रहा ।
आंधियां चलती ........................

पूछते सब से रहे आपका हम तो पता
है हमारा ख्वाब कोई तो देता ये बता
छोड़ कर हम कारवां आ गए खुद ही यहां
इक सफ़र था ज़िंदगी जो कि चलता ही रहा ।
आंधियां चलती ...........................

जब किसी ने साथ छोड़ा ,नहीं कुछ भी कहा
शुक्रिया आपका आपने जो भी दिया
जब भी वो देता रहा जाम भर भर के हमें
जाम हाथों से मेरे बस फिसलता ही रहा ।
आंधियां चलती ............................

पास हमको लोग सारे बुलाते तो रहे
और हम रस्मे वफा कुछ निभाते तो रहे
दिल हमारा तोड़ डाला किसी ने जब भी
आंसुओं का एक सागर निकलता ही रहा ।
आंधियां चलती रहीं ,दीप जलता ही रहा ।

( मेरे दोस्त जवाहर लाल ठक्क्र जी ने मिसरा दिया था गीत का । )
 

4     दोहे   ( देश की वास्तविकता पर ) 

 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान ।  
 

   5           बेचैनी ( नज़्म )  

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास । 
 
 
  मैं इक ख़्वाब देखता था , कहीं कोई ऐसी दुनिया जहां प्यार दोस्ती और अपनापन हो , इक ऐसा घर कोई गांव कोई ठिकाना जहां सब बराबर हों छोटा बड़ा कोई नहीं हो , जिस में कोई ऊंच नीच की दीवार नहीं हो और हर किसी के मन की खिड़की खुली रहती हो । आपस में कहना कुछ दिल में रखना कुछ और जैसा कोई मुखौटा किसी चेहरे पर कभी नहीं रहे । दोस्ती का इक मंदिर जिस में समाज की भलाई की सामाजिक बुराईयों को मिटाने की सिर्फ बात नहीं कोशिश भी हो बदलाव करने की । समझाया था ज़माने ने कि पूरी कायनात में कहीं कोई ऐसा जहां नहीं है मगर मुझे तलाश करना था कितने भंवर कितने तूफां से टकराना था उस पार जाना था जहां मेरे सपनों का जहां है । मेरे माझी ने पतवार फैंक दी थी घबरा कर तब भी मैंने कह दिया था मेरे माझी हो तुम लगाओ पार या चाहे डुबो दो भंवर में ये नहीं कहो कि उस पार कुछ नहीं है । कह दो झूठा था वो बहाना मुझे अभी भी है उस पार जाना । 

             हम को ले डूबे ज़माने वाले         ,   नाख़ुदा खुद को बताने वाले । 

याद नहीं कैसे कैसे कितनी बार कितने लोगों को मिल कर घर बुलाकर उनके पास जाकर साथ देने इक कारवां बनाने की चर्चा की और बहुत बार कारवां बनाए भी । लोग मिलते बिछुड़ते रहे कुछ मज़बूर थे कुछ मगरूर थे कुछ अपनी मस्ती में चूर थे करीब होकर भी मुझसे खुद अपने आप से बहुत दूर थे । हम जहां से चलते घूम फिर कर वहीं पहुंचते ये हालात थे जो मुझको नहीं होते मंज़ूर थे । लोग सभी लाजवाब थे बड़े ही कमाल थे बस उन सभी के वही कुछ सवाल थे कहने को मालामाल थे फिर भी बेहाल थे जाने किस किस से क्या क्या मलाल थे । सबको किसी मंज़िल की चाह थी कठिन बड़ी ये राह थी , हम नई राह बनाते रहे रास्ते से पत्थर हटाते रहे कुछ फूल राहों में खिलाते रहे पर लोग समझदार बन किसी मोड़ से मुड़ जाते रहे । कहा यही इक तपता रेगिस्तान है तुम मृगतृष्णा के शिकार हो तुम किसी काम के नहीं आदमी बेकार हो । 
 
कोई किसी सड़क पर चला गया कोई राष्ट्रीय महामार्ग की तरफ गया मैं अपनी गांव की पगडंडी पर बढ़ता रहा कभी थक कर आराम किया बैठा किसी पेड़ की छांव में फिर हौंसला कर चल पड़ा चलता रहा चलता ही जा रहा हूं । मेरे सफर के कुछ हमसफ़र अभी भी अक़्सर मुझसे पूछते हैं मंज़िल अपनी का कोई पता और मैं समझा नहीं पाता कि मुझे रास्तों से प्यार है मंज़िल की चाह नहीं है बस ख़्वाब है जिस को हक़ीक़त में बदलना है सबको सबसे मिलवाना है खुद को भी समझाना है सभी अपने हैं यहां नहीं कोई बेगाना है । आज भी आपसे हर किसी से जिसको दोस्ती प्यार इंसानियत की खूबसूरत दुनिया की आरज़ू है मेरा यही कहना है कि इस पैग़ाम को समझना और समझाना , घर दोस्तों के दूर नहीं होते , आना चाहो जब भी चले आना । ख़ाली है अभी इस दिल का ठिकाना । 
 

 
 

मार्च 18, 2023

गूगल सर्च महान , खुद से अनजान ( हक़ीक़त का अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

   गूगल सर्च महान , खुद से अनजान ( हक़ीक़त का अफ़साना ) 

                                    डॉ लोक सेतिया 

गूगल सर्च पर खुद को ढूंढना हैरान हो जाओगे जानकर कि आप जो तलाश कर रहे हैं वो बहुत कुछ और है बस जो आप हैं वही नहीं है । पिता की नज़र से बेटा बेटे की निगाह से बाप पत्नी के आधार पर पति दोस्तों की समझ से आपका कोई ऐतबार नहीं ज़रूरत को देख अच्छा बुरे लगते हैं । सरकार के हर विभाग ने आपका नाम लिखा हुआ है अपने हिसाब से करदाता हैं या कर्ज़दार हैं उपभोक्ता हैं या उनके लिए कुछ भी नहीं ज़िंदा हों कि मुर्दा उनको खबर नहीं बस बेकार लोगों में शुमार हैं । चिंता बढ़ जाएगी अगर और आगे बढ़ कर जानकारी चाहोगे कि अगर जो आप बता रहे हैं वो सही है तो जो मुझे पता है मैं वास्तव में कौन क्या हूं उस का क्या करूं । गूगल आपको निर्देश देगा वो सब अपनी हिस्ट्री मेमरी से मिटा दो हमेशा को । गूगल भी सब जानता है खुद क्या है क्या से क्या क्यों हो गया और कल क्या होगा उसे भी नहीं पता अपने बुने जाल में खुद हर कोई उलझा है गूगल भी इस से बच नहीं सकता है । हर शख़्स की समस्या यही है दुनिया भर को जानता समझता है खुद से अजनबी है क्या है इस से अनजान है । आपकी नज़र से लोग अच्छे ख़राब हैं बस खुद नज़र से आप कमाल हैं लाजवाब हैं सब का हिसाब रखते हैं कुछ बेहिसाब हैं । ये नशा है मदहोशी है आपको कुछ नहीं सूझता है जबकि आप पीते ही नहीं शराबी नहीं हैं लेकिन अपनी ही मस्ती में चूर हैं जो चढ़ कर कभी नहीं उतरती वही शराब हैं । आप कितने अच्छे हैं मुझसे सच्ची मुहब्बत करते हैं जाओ कितने झूठे हैं मुझे बनाते हैं बड़े ही खराब हैं । बेग़म जी समझती हैं आप कहां के नवाब हैं शादी से पहले देखा वही खूबसूरत ख़्वाब हैं हक़ीक़त नहीं अफ़साना हैं जिस को पढ़ा नहीं जा सकता वो दिल की किताब हैं ।   
 
सोशल मीडिया की लत ऐसी लगी कि मीरा की तरह सभी पर दीवानगी चढ़ गई है , तन मन की सुध-बुध नहीं रही और बेबस और लचर हो गए हैं कैलाश खेर का गाया सूफ़ी संगीत जैसी हालत है मीरा मतवारी थी दिल हारी थी पिया पर बलिहारी थी यहां कोई भी नहीं सब मशीनी है गूगल भी इक सर्च इंजन है मशीन है । जब आदमी मशीन को अपने इशारों पे चलाता था मशीन ज़रूरत पर काम आती थी आजकल मशीन इंसान को अपने निर्देश पर चलाने लगी है और आदमी कठपुतली बन कर चल रहा है । खुद अपना वजूद खोकर सभी जाने किस की तलाश को भटकते फिरते हैं । आदमी कहता है आदमी का कोई भरोसा नहीं मशीन पर यकीन रखते हैं और मशीन या कोई सॉफ्टवेयर या ऐप्प किसी न किसी आदमी ने बनाई है जैसे उसने प्रोगरामिंग की है खराबी या वायरस आने तक उसी ढंग से चलती है और गड़बड़ होने पर क्या करेगी किसी का बस नहीं चलता । देश की सरकार तक मशीनी ढंग से काम करती है और मशीन को क्या खबर उस ने सही किया या गलत किया । हथियार तीर तलवार बंदूक चाकू छुरी जिस हाथ में उसकी मर्ज़ी से चलते हैं । 

 कोई शायर कहता है " मुहब्बत ही न जो समझे वो ज़ालिम प्यार क्या जाने , निकलती दिल के तारों से जो है झनकार क्या जाने । करो फरियाद सर टकराओ अपनी जान दे डालो ,  तड़पते दिल की हालत हुस्न की दीवार क्या जाने । उसे तो क़त्ल करना और तड़पाना ही आता है , गला किस का कटा क्योंकर कटा तलवार क्या जाने " ।  

सरकार से हर शाहकार तक खुद क्या है अपने खुद की बढ़ाई करते हैं दिया क्या क्या गिनवाते हैं कभी ये नहीं बतलाते लिया क्या क्या है छीना कितना चैन नींद आज़ादी जीने का हक़ सभी , उनके पर अपने ज़ुल्मों का कोई हिसाब नहीं रहता है । यही सरकारी मशीनी तौर तरीका गूगल से सोशल मीडिया और ऐप्स का है ऑनलाइन लेन देन करते करते कब कौन जालसाज़ी का शिकार हो कंगाल हो किसी ने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया अगर जुर्म की सज़ा मिलती तो सब दिवालिया हो जाते जो भी मालामाल हैं ।   

सईद राही जी की ग़ज़ल है :-

तुम नहीं , गम नहीं , शराब नहीं
ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं

गाहे - गाहे इसे पढ़ा कीजिये ,
दिल से बेहतर कोई किताब नहीं
ऐसी तन्हाई...

जाने किस - किस की मौत आई है
आज रुख पे कोई नकाब नहीं
ऐसी तन्हाई...

वो करम उँगलियों पे गिनते हैं
ज़ुल्म का जिनके कुछ हिसाब नहीं
ऐसी तन्हाई... 


 

मार्च 16, 2023

एंटी-रिश्वतखोरी वायरस औषधि ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया

 एंटी-रिश्वतखोरी वायरस औषधि ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया 

आख़िर देश को लूटने वालों घूसखोरों घोटालेबाज़ों से जनता को बचाने का उपाय खोज लिया गया ।  ये एक औषधि है जिस का उपयोग सिर्फ भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए ही नहीं बल्कि अदालत में झूठी गवाही से लेकर जाली दस्तावेज़ नकली नोट और किसी की भी झूठी गलत रिपोर्ट को परखने उसे पूरी तरह से जड़ से मिटाने का काम कर सकती है । सफलता पूर्वक आज़माने के बाद सरकार से इस का उपयोग करने की इजाज़त मांगी गई है । शोध से प्रमाणित हुआ है कि एक बार इस औषधि की खुराक देने के बाद महारिश्वतख़ोर भी पूरी तरह से ईमानदार बन कर अपना फ़र्ज़ बिभाने लगता है और रिश्वत शब्द सुनते ही उस के भीतर उसकी आत्मा उसका विवेक उसको रोकने में कामयाब हो जाता है । मन में काली कमाई की बात आते ही उसको घबराहट बेचैनी होने लगती है और चेहरे का रंग बदरंग लगने लगता है जिस से सामने खड़ा व्यक्ति आस पास के लोग पहचान सकते हैं कि उसकी नीयत खराब है । किसी तरह इन सब को अनदेखा करते हुए कोई भूलकर गलती से भी रिश्वत लेता है तो औषधि का असर सामने आता है और उसको सीने पर भारी बोझ लगने लगता है जिस के कारण वो कुछ भी खा पी नहीं सकता है । बस सभी सरकारी विभाग के हर एक अधिकारी हर इक कर्मचारी को ये औषधि लेना अनिवार्य किया जा सकेगा और जो इनकार करेगा उस को नौकरी छोड़नी पड़ेगी । सरकारी कर्मचारियों के अलावा निजी कंपनी तमाम बड़े उद्योग या निकाय के स्टॉफ  से लेकर अदालत के सभी न्यायधीश वकील से स्टाफ़ तक को औषधि की खुराक देने से न्याय बिल्कुल सही और बिना देरी मिलने लगेगा क्योंकि सबकी सच्चाई या कोई चालाकी तुरंत पकड़ी जाएगी । ठीक कोरोना की वैक्सीन की तरह औषधि देश की जनता को देने से देश समाज से बेईमानी अपराध धोखाधड़ी का अंत हो जाएगा और कोई भी न रिश्वत मांगेगा न कोई रिश्वत दे कर अनुचित ढंग से फायदा उठाएगा । भूखे मरने का भय किसी को कुछ भी अनुचित नहीं करने देगा । 
 
विषय अति संवेदनशील है सरकार को हर कदम संभल संभल कर रखना पड़ता है , गोपनीय ढंग से उच्च स्तर की समिति गठित की गई है जो इस पर कैसे कारवाई हो से लेकर सभी पहलुओं पर विचार करेगी । सरकार ने चिंता जताई है कि कहीं औषधि नेताओं पर सांसदों विधायकों पर उपयोग करनी पड़ गई तब देश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ सकता है । शोध करने वाले विशेषज्ञों ने चौंका दिया है ये सुझाव देकर कि पहले इस समिति के सभी सम्मानित सदस्यों को औषधि की खुराक दी जाए ताकि उनका निर्णय शत प्रतिशत सही और निष्पक्ष होकर जारी हो सके , साथ ही प्रमाणित भी हो जाएगा कि सरकार दल या शासक किसी का कोई दबाव उन पर कोई प्रभाव नहीं कर सकेगा । सत्ता के गलियारों में हड़कंप मचा दिया है ये अनहोनी घटना लग रही है जिस से चर्चा की कोई समिति का सदस्य बनने को तैयार नहीं है , सभी का कहना है उनका ऐसा कोई अनुभव नहीं है इस पर जानकार लोगों को नियुक्त किया जाए । हैरानी है लोग खुद को नाक़ाबिल घोषित कर रहे हैं । जैसा होता है मीडिया के जासूस भीतर की खबर ले आते हैं और ब्रेकिंग न्यूज़ बना देते हैं इस बात पर खबर सवालिया निशान लगाकर फैलाई गई है कि क्या वास्तव में ऐसा कोई प्रयोग सफल हो गया है । 
 
सरकार को मामला गंभीर लगा है इसलिए ख़ास ख़ास टीवी अखबार मीडिया वालों को बुलाया गया है ।  उन से कहा गया है कि जिस किसी को इस पर सवाल पूछना है उसको लिखित देना होगा कि अगर सच में ऐसी कोई औषधि बनाई गई है तो वो औषधि की खुराक लेने पर सहमत हैं और तभी सवालात की झड़ी लगा सकते हैं । अब आया ऊंठ पहाड़ के नीचे सभी सकते में हैं इतनी ख़ामोशी छाई है कि सबकी घटती बढ़ती सांसों की आवाज़ सुनाई देने लगी है । सरकारी प्रवक्ता ने चटखारा लेते हुए कहा है कि आपको सांप क्यों सूंघ गया है ज़रा सा मज़ाक सुन कर सिट्टी पिट्टी गुम हो गई सोचो इतनी ऊल - जुलूल खबरें बनाते रहते बेसिर पैर की जनता की क्या हालत होती होगी । पहली बार सवाल करने वालों से सवाल किया गया तो उनको लगा जैसे नीचे से ज़मीन खिसक गई है । 
 
 सरकार भी चलती नहीं है कोई और कहीं से चलाता है जो कभी किसी को सामने दिखाई नहीं देता उसको बिग बॉस कहते हैं । बिग बॉस का हर आदेश आखिरी होता है जिनको समझ नहीं आया उनको टीवी शो बिग बॉस की पुरानी कड़ियां देखनी चाहिएं । इस साल बिग बॉस के लिए इक गाना भी सुबह जागते ही गाया जाता था उसकी महिमा का वर्णन करते हुए । सरकार को अपने इशारे पर चलाने वाले बिग बॉस ने आकाशवाणी की तरह निर्णय सुनाया है कि हमारा देश कोई इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकता है और जिस औषधि की खोज की गई है उस पर प्रतिबंध लगाया जाता है और भविष्य में कभी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जाएगा ये तय किया जाता है । जितनी औधधि बनी थी नष्ट कर दी गई है लेकिन बिग बॉस ने औषधि का फॉर्मूला अपनी तिजोरी में बंद कर रख लिया है क्या करना है वही जानता है आखिर बिग बॉस सबका मालिक है जो उसकी मर्ज़ी कर सकता है । सभी लोग जिनको इस की जानकारी मिल गई किसी तरह से चाहते हैं कि इस को झूठी अफ़वाह की तरह भुला देना अच्छा है सबकी भलाई इसी में है ।  राज़ की बातें खुलने लगीं तो अंजाम क्या होगा ये सच सब को डराता है । 



 
 

मार्च 11, 2023

ख़ूबसूरत लगते हैं गुनाहगार लोग ( ये मुहब्बत है ) डॉ लोक सेतिया

 ख़ूबसूरत लगते हैं गुनाहगार लोग ( ये मुहब्बत है ) डॉ लोक सेतिया  

मैंने सोचा सोच सोच कर बार बार सोच कर समझा तब जाकर समझ पाया कि  अपराध क्या है अपराधी कौन नहीं है और यकीन हुआ कि दुनिया में मुजरिम हर शख़्स है । किसी शायर ने कहा भी इक फुर्सत ए गुनाह दी वो भी चार दिन , देखे हैं हौंसले परवरदिगार के । ऊपरवाले के दरबार में हम सब खड़े होते हैं गुनाहगार की तरह । जुर्म अपराध पर चर्चा बहुत की जाती है पर खुद अपने गिरेबान में कोई नहीं झांकता । कहने को हर कोई कह देता है जीना गुनाह है पर क्या क्या गुनाह नहीं किया कोई किसी को नहीं बताता है । गुनाह करने से जो लज़्ज़त जो ख़ुशी मिलती है उसका लुत्फ़ ही और है । यहां सभी ग़ालिब की तरह कह नहीं सकते कि मस्जिद के ज़ेरे साया घर बना लिया है , ये बंदा ए कमीना हमसाया ए खुदा है । शराफ़त बस इक मुखौटा है असली चेहरा दिखाई दे जाता तो आदमी चेहरा दिखाने के काबिल नहीं होता । दुनिया बनाने वाले ने अच्छा किया या खराब किया पर उस ने सब की भीतर मन की बात को किसी और तो क्या खुद को भी पता नहीं चलने दिया तभी भगवान भी आदमी की असलियत को समझ नहीं पाया । उसके सामने आकर भूल अपराध जाने अनजाने किए सब की क्षमा याचना करता है और पल भर बाद वही दोहराता है क्योंकि बुरे कर्म करने में बड़ा मज़ा आता है । क्या कमाल की बात है हम अपने आप से अपनी वास्तविकता को छुपकर जीते हैं नहीं तो शर्म से ही मर जाते । दार्शनिक लोग सब समझते हैं उनको मालूम है कि दुनिया में सभी अच्छे-सच्चे होते तो दुनिया बेरंगी और बोझिल लगती ये तो अपराधी लोग ही हैं जिन्होंने दुनिया को कितने रंगों से भरा है लाल रंग खून की निशानी है और काला रंग घनी ज़ुल्फ़ों से लेकर काला टीका नज़र लगने से बचाने से काजल की कोठरी वाला बहुरंगी होता है । गोरा और काला दोनों भाई भाई हैं और हरा लाल नीला पीला जामुनी गुलाबी उनका परिवार हैं ज़रा आगे ध्यान से पढ़िये सरकारी इश्तिहार हैं अपराधी सांसद विधायक हैं शासक शानदार किरदार हैं यहां राजनीति में सभी दिलदार हैं दोस्त हैं दुश्मनी को हमेशा तैयार हैं । 
 
अपराध जगत के महारथी समझे जाने वाले से राजनीति के अपराधीकरण विषय पर साक्षात्कार करने का अवसर मिला उन्होंने बहुत सारा व्याख्यान दिया उनकी बात को संक्षेप में वर्णन करते हैं । सत्ता की बहती गंगा में कितनी तरह से कहां कहां से आया है सब काम गंदे ख़राब छल कपट धोखा हेराफेरी लूटपाट से क़त्ल करने के करने के बाद सत्ता की चौखट पर सर झुकाया है सब पाप धुल गए हैं बेगुनाह साबित हुआ जब इस में नहाया है । झूठ को सच बताकर सच को अफ़वाह बताया है हमने धर्म देशभक्ति को अपना हथियार बनाया है रंगे हाथ पकड़े गए हाथ ख़ाली लेकर आए थे राजनीति में सभी पर हर कोई झोली भर घर लाया है । पाप क्या पुण्य क्या है ये भेदभाव मिटाया है बस इतना समझ लो हमको नहीं उसने बनाया जिस को भगवान हमने बनाया है । दुनिया कहती है झूठी मोह माया है हमने सिर्फ ईमान को बेचा है बदले में जो भी चाहा खूब पाया है । सबको उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करने का हुनर राजनीति कहलाती है ये वो डायन है जो सबका लहू पीती है और अपनी प्यास बुझाती है क्या कभी किसी धनवान को शासक को शर्म ओ हया आती है । ये भी इक तपस्या है जो बंद खिड़कियों दरवाज़ों में चुपके से की जाती है सरकार चलाना आसान नहीं है गंगा उलटी बहती है नीचे से ऊपर को जाती है । ध्यान से पढ़ना सब इतने में सार की बात समझाई है राजनेता की चतुराई है हर शख़्स हरजाई है ।    
 
मुझे अपने गुनाह स्वीकार हैं मैंने कोई अपराध छोड़ा नहीं है , सबसे मुहब्बत करना भी गुनाह होता है और सच लिखना सच कह देना भी जुर्म ही है जो रोज़ किया है और सज़ा भी मंज़ूर की है । आखिर में मुझे हमेशा दस्तक़ फिल्म की ग़ज़ल पसंद रही है उसी से अपनी बात ख़त्म करते हैं । सब सच कहा लिखा है और कुछ भी झूठ नहीं शपथ लेता हूं ।
 

 


मार्च 10, 2023

सत्ता का राक्षस ख़्वाब में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         सत्ता का राक्षस ख़्वाब में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

इक चारों तरफ फैली बड़ी ऊंची लंबी चौड़ी दैत्याकार छवि मुझे अक्सर रातों को जगाती है । चैन से सोया नहीं जब से सोचने समझने लगा हूं अपने समाज की वास्तविक तस्वीर को लेकर । शब्दों से चित्र बनाना चाहता हूं तो हर शब्द आकार खोने लगता है जैसे किसी फिल्म में आधुनिक तकनीक से दिखलाया गया था । तारे ज़मीं पर फिल्म जैसे , बनाई तस्वीर शब्दों की लिखावट डगमगाती दिखती है धुंधली नज़र है या तस्वीर के रंग फीके पड़ गए हैं समझ नहीं आता मुझे । मनोचिकित्सक उपचार बताता है मस्तिष्क को आराम की ज़रूरत है समाज की देश की चिंता करने को सरकार बहुत है आपको खुद जीने की चिंता करनी है मौत के आ जाने तक । इक दार्शनिक वहीं बैठे थे सुनकर कहने लगे आपको ख़्वाब में जो दिखाई देता है कोई व्यक्ति नहीं है सरकार का साकार रूप है । सरकार से डरना ज़रूरी है जनता की यही सबसे बड़ी मज़बूरी है मगर डरावने सपने दिल की धड़कन को बढ़ा देते हैं कभी लगता है सोते सोते शायद धड़कनें बंद ही हो जाएं ।  
 
 पंडित जी सपनो का अच्छा बुरा फल बतलाते हैं ज्योतिष से समस्या का कोई हल बताते हैं । इक गुरु जी मिले जिनसे मेरी कोई जान पहचान नहीं इक दोस्त उनके अनुयाई हैं साथ लेकर गए मुझे तो सब जानते समझते हैं ऐसा दावा करने वाले बोले आज नहीं सोच विचार कर कल बताते हैं । आज दोबारा जाकर वही सवाल उनका भी वही जवाब कल बताते हैं । कल कब आएगा उनको नहीं पता मुझको भी नहीं खबर कल तक कौन जीता है पल में प्रलय आएगी सुना है कल कभी नहीं आता है हमेशा आज होता है गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल कोई अस्तित्व नहीं होता दोनों का । फिर उसी पुरानी किताब निकाली तो इक कथा पढ़ने को मिली सरकार क्या होती कैसी होती है । कुछ मिलती जुलती कहानी इक बड़े लेखक का उपन्यास भी है अरुण प्रकाश जी की कोंपल कथा , वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है , मगर ये किताब किसी और की है । 
 
सरकार इक कल्पना है और कल्पना सुंदर भी हो सकती है और बेहद बदसूरत भी लेकिन सरकार कभी जनता की नहीं होती है सरकार जनता के लिए कभी कुछ नहीं करती जनता को सरकार की खातिर जीना मरना होता है । जनता वरमाला पहनाती है ये भी उसकी ख़ुशी मर्ज़ी से नहीं बल्कि विवशता होती है उसको खुद आज़ाद रहने की अनुमति नहीं है सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था यही है आपको गुलामी स्वीकार करनी होगी दूजा कोई विकल्प नहीं है । पत्नी बनकर दासी होना दासता को अपना भाग्य समझना और जनता का राजनेताओं को वोट देकर शासक बनाना उनकी जीहज़ूरी करना एक जैसे हालात हैं । नियम कायदे कानून सरकारी मशीन के हाथ हैं और कार्यपालिका न्यायपालिका सभी सुरक्षा को तैनात लोग संस्थान आदि किसी तलवार बंदूक एटम बंब की तरह हैं । अधिकारी कर्मचारी इंसान नहीं संवेदना रहित हथियार हैं जिनको जो भी शासक जो भी सरकार जो भी विभाग उपयोग कर अपनी हर मनोकामना को पूर्ण करवा सकता है । नियम कायदे कानून जनता पर सख्ती से लागू होते हैं लेकिन सरकार अधिकारी ख़ास लोगों पर लचीले और नर्मदिली से हाज़िर होते हैं । नतीजा समझ आया है कि मौत की गहरी नींद आने तक मुझ जैसी जनता को सत्ता का राक्षस ख़्वाब में आकर डराता रहेगा । 
 

 

मार्च 09, 2023

सुबह का इंतिज़ार कब तक ( दर्द की दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

 सुबह का इंतिज़ार कब तक  ( दर्द की दास्तां  ) डॉ लोक सेतिया 

   क्या बतलाएं हम ने कैसे सांझ सवेरे देखे हैं , सूरज के आसन पर बैठे घने अंधेरे देखे हैं । किसी बड़े शायर का शेर वर्तमान समाज की दशा को परिभाषित करने में सक्षम है । शासक वर्ग ईश्वर धर्म के नाम पर जनता को ठगने का कार्य करते हैं छलिया बन कर भेस बदलते रहते हैं और अधिकारी कमाल का अभिनय करते हैं जब नागरिक उन को मिलते हैं उनसे समस्याओं पर बात करने को छोड़ उपदेशात्मक रवैया अपना कर अपना पल्ला झाड़ कर सरकार की मनमानी की परेशानी बताते हैं जबकि सिफ़ारिश घूस वालों के लिए सब आसान हो जाता है । आम नागरिक को ऊपरवाले पर अर्थात भगवान पर भरोसा करने की बात कहते हैं और जतलाते हैं कि जैसे उनके अधिकार होते हुए भी सही फैसला करने की अनुमति  नहीं है । निर्णय उनको लेना है नियम यही है मगर उनका विवेक कोई काम तभी करता है जब उनका फायदा या मज़बूरी हो । राजनेता अफ़्सर कर्मचारी सभी आपस में मिले हुए होते हैं मगर जिनको न्याय नहीं मिलता उनको दूसरे का दोष बताकर खुद को मासूम दिखलाने की कोशिश करते हैं । आम जनता सब समझती है मगर खामोश रहती है क्योंकि  जानती है कि तलवार से घाव मिलता है मरहम नहीं । 
 
   संत बनकर उपदेश देने वाले सरकारी अनुकंपा पा कर अनुचित को उचित करवा लेते हैं वोट का गणित काम आता है और देश राज्य की सरकार उनकी चरण वंदना करते हैं जबकि सामन्य नागरिक पर बेरहमी से जब चाहे जो नियम बनाकर लूट का अवसर खोजते रहते हैं । अधर्म धर्म बन गया है और मानवीयता का वास्तविक धर्म किसी सरकार किसी प्रशासन किसी संगठन किसी संस्था यहां तक कि किसी न्यायालय को याद तक नहीं है । बड़े ख़ास लोगों पर सरकार की अनुकंपा रहती है और उसी कार्य के लिए साधारण व्यक्ति पर कोई तरस नहीं खाता उसको दर दर ठोकरें खाने को विवश किया जाता है । टीवी पर सोशल मीडिया पर सभी शासक सरकारें लोक कल्याण और जनता की सेवा भलाई की चर्चा भाषण करते हैं जबकि वास्तविकता विपरीत मिलती है जब किसी आम नागरिक को अनावश्यक परेशानी होती है । गुरु नानक जी ने इक शासक को कहा था एती मार पई करलाने तैं कि  दर्द न आया । बाबर के ज़ुल्म की बात थी शायद ।   





अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   अब तो इस तालाब का पानी बदल दो  ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

   कोशिश है जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण मुख्य बातों पर संक्षेप में साधारण शब्दावली में विचार विमर्श करना ताकि साधारण व्यक्ति समझ कर अपना सके और फ़ायदा उठा सके । सबसे पहले अच्छा जीवन बिताने के लिए जो बातें अतिआवश्यक हैं उनकी चर्चा , शारीरिक और मानसिक के साथ सामाजिक स्वास्थ्य के बिना कुछ भी संभव नहीं है । खुश रहना मौज मस्ती करना शानदार रहन-सहन साधन सुविधाएं वास्तव में अच्छे जीने के लिए उस सीमा तक ज़रूरी हैं जहां तक पहले वर्णित शारीरिक मानसिक सामाजिक स्वस्थ्य हासिल करने में कोई बाधा उतपन्न नहीं करते ये सब अन्यथा भौतिक चीज़ों की दौड़ में वास्तविक जीवन चौपट हो जाता है । आजकल यही होने लगा है और समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है । देश की समाज की व्यवस्था जर्जर हो चुकी है सब कुछ जैसा होना चाहिए उस के विपरीत हो गया है । बदलाव का शोर है बदलाव हो नहीं रहा क्योंकि खुद को कोई भी बदलना नहीं ज़रूरी समझता है।

   ये कोई मनघडंत कहानी नहीं है बहुत पुरानी इक किताब है जो धर्म शासन व्यवस्था सामाजिक मान मर्यादा को लेकर लिखी गई है और जिस में नीति-कथाओं बोध-कथाएं लोक-कथाएं से सही गलत अच्छे बुरे की व्याख्या की गई है । इक बोध कथा संत महात्मा और राक्षस का अंतर समझाती है , साधु जीवन भर जितना भोजन खा कर जीवित रहता है राक्षस का पेट उतना खाने पर एक बार भी भरता नहीं है । देवता कहते हैं उन को जो देते हैं सबको बांटते हैं थोड़ा पास रखते है आवश्यकता भर को जमा कर रखते नहीं कल की खातिर । दान और पुण्य की परिभाषा भी है कि धनवान भूखे गरीब की सहायता करते हैं रास्ते पर मुसाफिर की सुविधा पानी छांव रात भर आराम करने को मुसाफिरखाना बनाते हैं तभी ईश्वर का धन्यवाद करते हैं कोई नाम शोहरत पाने को दिखाने को कुछ नहीं करते कभी । वास्तविक धर्म समाज का कल्याण और उपकार की भावना से कर्म करना है जब कोई मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर दानपेटी में किसी भी तरह अर्जित धन को देकर ऐसा समझता है ऊपरवाला खुश होगा आशीर्वाद वरदान देगा तो वो खुद को औरों को धोखे में रख रहा होता है । शायद यही सबसे बड़ी अज्ञानता की बात है कि कोई खुद को दाता और ईश्वर को भिखारी समझता है । विधाता ने सभी को सब आवश्यकता का मिले ये व्यवस्था की है अगर ध्यान पूर्वक समझा जाए तो , लेकिन बाक़ी सब तौर तरीके मतलबी लोगों ने अपने स्वार्थ हासिल करने को लागू कर के सब से उनका अधिकार छीन कर वही किया है जो दानव किया करते थे कथाओं में पढ़ते हैं देवताओं पर अन्याय अत्याचार कर अपनी भूख अपनी हवस मिटाने को । वास्तव में ऐसे लोग धर्म को ईश्वर को न तो मानते हैं न समझते हैं  सिर्फ आडंबर करते हैं । अधिक कहना ज़रूरी नहीं विचार करेंगे तो सब खुद अपने विवेक से जान जाओगे , आखिर में महात्मा गांधी जी की समझाई बात । हमें खुद वो बदलाव बनना चाहिए जो हम दुनिया में देखना चाहते हैं , तभी हम अंधेरे में रौशनी की किरण फैला सकते हैं । 
 
 हैं उधर सारे लोग भी जा रहे  ,    रास्ता अंधे सब को दिखा रहे ।

सुन रहे बहरे ध्यान से देख लो ,   गीत सारे गूंगे जब गा रहे ।

सबको है उनपे ही एतबार भी ,    रात को दिन जो लोग बता रहे ।

लोग भूखे हैं बेबस हैं मगर  ,        दांव सत्ता वाले हैं चला रहे ।

घर बनाने के वादे कर रहे  ,        झोपड़ी उनकी भी हैं हटा रहे ।

हक़ दिलाने की बात को भूलकर ,  लाठियां हम पर आज चला रहे ।

बेवफाई की खुद जो मिसाल हैं  ,   हम को हैं वो "तनहा" समझा रहे ।
 
 
 कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं: दुष्यंत कुमार - YouTube








मार्च 08, 2023

होली का सरकारी फ़रमान ( राज़ की बात ) डॉ लोक सेतिया

     होली का सरकारी फ़रमान ( राज़ की बात ) डॉ लोक सेतिया  

आपने क्या समझा कि ये आपके हमारे लिए कोई खुशखबरी की बात है , जी नहीं हज़ूर ये उनकी आपस की बात है । सरकार ने ये इश्तिहार सरकारी विभागों को भेजा है होली पर सभी अधिकारी कर्मचारी सबको ये संदेश  ध्यान पूर्वक पढ़ना है बिल्कुल उसी तरह जैसे शपथ उठाई जाती है । लिखा है सरकार जो चाहे सब संभव है कुछ भी नहीं जो सरकार नहीं कर सकती है लेकिन क्या सरकार को जो करना चाहिए वो सब करना है गंभीर विषय यही है । सरकार को सब नहीं करना चाहिए सिर्फ वही करना चाहिए जिस से सरकार के सरकार होने का मतलब समझ आता रहे हर किसी को । सरकार चाहती है जैसा हो ये शब्द लिखने से मंशा साफ नहीं हो जाती है मगर सरकार चाहती है ऐसा होना लाज़मी है लिखने का अर्थ है कुछ भी हो आपको आदेश का अनुपालन करना ही होगा अन्यथा आप दोषी समझे जाएंगे । 75 साल से सभी राजनेताओं अधिकारियों ने यही किया है बस सरकार चलती रहनी चाहिए भले सब रुक जाए और सरकारी तौर तरीका कभी किसी हाल में बदलना नहीं चाहिए । साकार जनता चुनती है बनाती है लेकिन आज तक कभी किसी ने नहीं समझा कि सरकार जनता की या जनता की खातिर है । सरकार किसी शासक नेता की कहलाती है या किसी राजनैतिक दल की अथवा गठबंधन की मिली जुली खिचड़ी जैसी सरकार । खिचड़ी अमूमन मज़बूरी से खाई जाती है शौक से अधिकांश लोग नहीं खाते हैं । जिनको खिचड़ी पसंद भी होती है उनको भी खिचड़ी के हैं चार यार घी , पापड़ ,  दही , अचार साथ चाहिएं ही । गठबंधन भी कुछ मिलता जुलता होता है यारी निभाने में सरकार अक्सर खुद और बीमार होने लगती है । 

     विषय की बात करते हैं जो भी कुछ बनाता है वो उसकी होना आवश्यक नहीं है , घर कोई बनाता है उस में रहना किसी और को होता है । जनता सरकार को बनाती है पर जनता सरकार की मालिक नहीं सरकार को जनता अपनी गुलाम लगती है । शासक बनकर जनता के पैसे से शानो शौकत ठाठ-बाठ राजनेताओं का अधिकार होता है और जनता को उसका हक़ भी सरकारी ख़ैरात की तरह मिलता है । होली पर सरकारी फ़रमान जारी हुआ है कि सरकार की धूमिल होती छवि को झाड़ पौंछ कर सुथरा नहीं चमकदार बनाया जाना चाहिए । सोशल मीडिया पर ध्यान पूर्वक निगाह रखनी है और गरीबी भूख बेरोज़गारी से लेकर बेदर्दी एवं तानाशाही को भला किया जा रहा घोषित करना ज़रूरी है । उदाहरण स्वरूप एमरजेंसी को आपात्काल इक अनुशासन पर्व है के इश्तिहार चरों तरफ दिखाई देते थे । सब को यकीन होने लगा था देश कोई त्यौहार मना रहा है बस उसको दोहराना है सुशासन लाना घोषित करना है जनता को उल्लू बनाना है । जनता को देशभक्ति का सबक पढ़ाना है खुद देश को बर्बाद कर जश्न मनाना है , नीरो की तरह बंसी बजाना है । अगला चुनाव जीतना है शतरंज का खेल खेलते हैं हर दांव आज़माना है । सबसे ज़रूरी मोहरा वज़ीर है फ़िल्म का नाम भी वज़ीर है ये आख़िर में राज़ बताना है जो खुद को राजा रानी घोड़े हाथी समझते रहे उनको प्यादों से पिटवाना है । मौसम भी आशिक़ाना है कहीं से सत्ता को अपने पास लाना है पाक़ीज़ा का युग नहीं कोठे पर मुजरा नहीं देखने जाते ठेकेदार से नवाब साहब तलक सरकार का जिनसे गहरा याराना दोस्ताना है उनका दिल क्या मांगता है समझना है उनको समझाना है । सत्ता की नर्तकी को दरबार में नचवाना है आइटम सॉन्ग का लुत्फ़ उठाना है महिला दिवस को होली संग मिलाना है औरत को बस इक इस्तेमाल की चीज़ बनाकर उसका भविष्य उज्जवल बनाना है इक्कीसवीं सदी का आधुनिक ज़माना है । राज़ खुला तो बात ये निकली है कि सरकार महिला दिवस पर होली का हास्य कवि सम्मेलन आयोजित करवाना चाहती थी इस लिए इक व्यंग्यकार जो महिलाओं की बड़ी चिंता करता है उसी से ये फ़रमान लिखवा कर भिजवा दिया लेकिन समय पर गंभीर बात को इक मज़ाक़ था कहकर पीछा छुड़ा लिया है । 



 
  


मार्च 07, 2023

भगवान परेशान मैं हैरान ( होली की ठिठोली ) डॉ लोक सेतिया

     भगवान परेशान मैं हैरान ( होली की ठिठोली ) डॉ लोक सेतिया 

नशे का चढ़ा हुआ खुमार था 
मैं था फुटपाथ पर खड़ा हुआ
 
कर रहा नहीं आने वाले का
बड़ी बेताबी से इंतिज़ार था । 
 
होली के रंगों का सजा इक 
हुड़दंग का खुला बाज़ार था 
 
अजनबी जाना पहचाना वही 
घोड़े पर शान से सवार था । 

उसने मुझे आवाज़ देकर बुला 
नाम पता ठिकाना पूछ लिया  
 
याद नहीं देखा लगते कहा तो
बतलाया कलयुगी अवतार था । 
 
कहने लगा मुझे लिखते हो क्या 
किसलिए भला मिलता है क्या 

मैंने कहा खुद क्या तुमने किया 
दुनिया बना नहीं बंदा खुश था ।
 
ऐसा लगा परेशान था ख़ुदा बड़ा
थोड़ा सा घबरा गया शरमा गया
 
कोई जवाब नहीं देने को सूझा
बेबस बेचारा हुआ लाचार था । 

उसने सुनाई दास्तां ज़ुबानी तब
दुःखी आवाज़ भरा हुआ गला 

दुनिया ज़माने से इंसानों से
भगवान हो गया बेज़ार था । 

दिल में छुपा कर रखते हैं 
मुहब्बत जिस को कहते हैं  

सोशल मीडिया पर क्योंकर 
तमाशा बनाया दिलदार था ।
 
बस शोर है हर तरफ मचा यही
भगवान है धर्म क्या चीज़ क्या
 
वजूद बदल गया कोई बोलो
कब भला मैं कहीं सरकार था । 
 
जिस ने जैसा चाहा मर्ज़ी से
खिलौना बना खेला है मेरे संग 

हैरान हूं परेशान हूं इंसाफ़ करो 
बेख़ता सज़ा का न हक़दार था ।  
 

तस्वीरों तकरीरों सोशल मीडिया
के जंगल में भटका दिया मुझको 
 
नहीं जानता कौन भगवान बना हुआ
मैं तो ऐसा नहीं बस रूहानी प्यार था ।