मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा। मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है। ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं। व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है। मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं। साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है। व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं।
मई 28, 2023
रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया
मई 25, 2023
बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बुद्धूराजा ने ऐलान किया है मूर्खों का कद बढ़ाना है सिर्फ एक शहर एक राज्य एक देश नहीं सब दुनिया पर अपना झंडा फहराना है । समझदारों से पिंड छुड़ाना है अपना सिक्का चलाना है समझदारी का खोटा सिक्का निपटाना है जब अपने हाथ खज़ाना है फिर किस बात को शर्माना है । रोज़ कुछ अनचाहा घटता और हर बार बुद्धूराजा इक जश्न मनाता और कहता कि जो भी होता है अच्छे के लिए होता है विनाश करने से अनुभव मिलता है विकास का अर्थ मालूम पड़ता है । बुद्धूराजा के समर्थक कुछ भी तर्कसंगत ढंग से विचार नहीं करते जो उनका शासक कहता उसे ही सच मानते । बुद्धूराजा झूठ पर झूठ बोलने का कीर्तिमान बनाता रहा और बर्बादी का भी जश्न मनाते रहा । ये बात खुद उसी ने बताई है बुद्धूराजा ने अपनी आत्मकथा लिखवाई है बात बिल्कुल पक्की है खीर अभी कच्ची है दोनों हाथ घी में सर है कढ़ाई में कौन तीन में है कौन ढाई में फर्क होता है कागज़ की नाव में और काली कलम की स्याही में । दुनिया मूर्खों का सबसे बड़ा बाज़ार है शासक भले मूर्ख है पर बड़ा होशियार है उसका अपना संविधान है कोई उस के बराबर नहीं वो सबसे महान है सभी कमज़ोर हैं इक वही बलवान है । दुनिया शोर को सच मानती है शोर की यही पहचान है चोर संग दोस्ती साहूकार संग भाईचारा भी नादान हर इंसान है । मूखों ने बुद्धिमानों की राह से विपरीत जाना है देश को मूर्खों का स्वर्ग बनाना है समझदारी बुद्धिमानी सोच समझ सभी से पीछा छुड़ाना है । नया ज़माना लाना है टके सेर भाजी टके सेर खाजा का इतहास दोहराना है हर मुसीबत को घर बुलाना है हर पेड़ की डाल डाल शाख शाख पर मूर्खों को बिठाना है उल्लू राज का युग वापस लाना है । समझदारी है आजकल यही सबको बुद्धू बनाना है हमने मौज मनाना है अपना सच्चा याराना है मिल बांट कर खाना है बस इक यही वादा निभाना है ।
मई 24, 2023
बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
जाना था कहां आ गये कहां ( कविता )
दुनिया की निगाह में ,
खो गई मंज़िल कहीं
जाने कब किस राह में ,
सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।
आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से ,
खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,
बस ज़रा सा अंतर है
वाह में और आह में ।
लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,
फिर फिर उसी गुनाह में
जाना था इबादतगाह में ।
आस्था ( कविता )
कोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस ।
नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं ।
लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता ।
मई 23, 2023
तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया
तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया
धरती का रस ( नीति कथा )
ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।
गिला इसका नहीं बदला ज़माना
मगर वो शख्स तो ऐसा नहीं था ।
खिला इक फूल तो बगिया में लेकिन
जो हमने चाहा था वैसा नहीं था ।
न पूछो क्या हुआ भगवान जाने
मैं कैसा था कि मैं कैसा नहीं था ।
जो देखा गौर से उस घर को मैंने
लगा मुझको वो घर जैसा नहीं था ।
मई 22, 2023
बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
मेरी ये पुरानी ग़ज़ल दो हज़ार रूपये के नोट की व्यथा को समझाती है उसके दर्द को बयां करती है ।
हो खफा मौत तो मरें कैसे ।
बागबां ही अगर उन्हें मसले
फूल फिर आरज़ू करें कैसे ।
ज़ख्म दे कर हमें वो भूल गये
ज़ख्म दिल के ये अब भरें कैसे ।
हमको खुद पर ही जब यकीन नहीं
फिर यकीं गैर का करें कैसे ।
हो के मज़बूर ज़ुल्म सहते हैं
बेजुबां ज़िक्र भी करें कैसे ।
भूल जायें तुम्हें कहो क्यों कर
खुद से खुद को जुदा करें कैसे ।
रहनुमा ही जो हमको भटकाए
सूए - मंजिल कदम धरें कैसे ।
संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया
संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया
सबको लगता बुरा हूं मैं ।
अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।
बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।
अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।
अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।
आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।
सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।
मई 17, 2023
ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा ) डॉ लोक सेतिया
ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा ) डॉ लोक सेतिया
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम , आदमी को भूनकर खाने लगे हैं ।
मई 14, 2023
झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
ग़ज़ल :- डॉ लोक सेतिया
फिर वही हादिसा हो गया ,झूठ सच से बड़ा हो गया ।
अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।
कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।
सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया।
साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।
राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।
हाल अपना , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।
देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।