मई 31, 2023

मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     मर के भी किसी के काम आएंगे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द ले सके तो ले उधार , किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार जीना इसी का नाम है । अनाड़ी फ़िल्म थी जो पहली बनी थी 1959 में शैलेंद्र जी ने लिखा गीत उसका मुखड़ा है आखिर अंतरें में , कि मर के भी किसी को याद आएंगे , किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे , कहेगा फूल है कली से बार बार जीना इसी का नाम है । सोचते थे भला कोई मर के भी किसी के काम आ सकता है हैरानी हुई ये पता चला जीते हुए कोई किसी काम आता हो चाहे नहीं मरने के बाद कितने ही लोगों के काम ही नहीं आता बल्कि बहुत लोगों का कारोबार रोज़ी रोटी ही नहीं शान बान और कितना कुछ उसे से चलता फलता फूलता है । मौत का इतना बड़ा कारोबार है व्यौपार है कि उसका ओर छोर पाना टेढ़ी खीर है । हम हो सकता है हैरान हो जाएं किस किस को जोड़ना है छोड़ना किसे है । मौत के सौदागर तो होते हैं कौन नहीं जानता और मौत के खिलाड़ी भी लेकिन उनका मरने तक तअल्लुक़ होता है बाद में उनका कोई सरोकार नहीं रहता है समझ गए अधिक विवरण की ज़रूरत नहीं है । आजकल मौत को लेकर अनुभवी लोग समझाते हैं सब काम क्या कैसे करना होगा । अर्थी उठाने मातम से शोक सभा आयोजित करने में कितने लोग बिना ढूंढे मिलते हैं जहां भी रहते हैं सब जगह जैसा चाहो सलाह मिलती है । जहां चाह वहां राह इसी को कहते हैं ।
 
याद आया इस की शुरुआत करते हैं जब कोई राजा मरता था तब शोक और जश्न इक साथ होते थे राजा की अर्थी उठने से पहले नये राजा की ताज़पोशी हुआ करती थी ये रिवायत अजीब लग सकती है पर लोकतंत्र का शासन होने पर भी चलन जारी है । शासकों की समाधियों की दर्दनाक कहानी है मुर्दों को ज़िंदा रखने की राजनीति कुछ उसी तरह है खाने वाले को मज़ा नहीं आया जनता वो बकरा है जिसकी जान जानी है । हर समाधि में दफ़्न कितने राज़ हैं ताजमहल की चाह में अभी तलक हर शाहंशाह है ढूंढता इक मुमताज है आपके हमराज़ हैं ख़ामोश हैं मगर दर्द भरी आवाज़ हैं धुन मधुर कैसे निकलते हैं क्या गुज़रती है जानते सिर्फ़ साज़ हैं । कुछ अशआर बड़े शायरों में इस मौज़ू पर बाद में पहले मेरा इक शेर है ' तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं मेरी अर्थी को उठाने वाले ' इक और ग़ज़ल है बस यही इक करार बाक़ी है , मौत का इंतज़ार बाक़ी है '। 
आधुनिक संदर्भ में जाँनिसार अख़्तर जी के शेर कुछ इस तरह से हैं  , ' किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाएं इसको , बीच रस्ते पे कोई लाश पड़ी है यारो '। ' दिल का वो हाल हुआ है ग़में दौरां के तले , जैसे कोई लाश चटानों में दबा दी जाए '। ' कितनी लाशों पे अभी तक , एक चादर सी पड़ी है '। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी कफ़न में शब्द हैं ' जीते जी तन ढकने को कपड़ा नहीं , मरने पर नया कफ़न ऐसा कितना कुछ है साहित्य शायरी कहानियों में मगर यहां माजरा कुछ और ही है ।  
 
ज़िंदगी भर मौत का डर सताता है कुछ लोग हैं जिनको स्वर्ग नर्क जन्नत दोजख़ का खेल समझाना आता है बस इक कमाल है सबको उपदेश देने वाला खुद अपने समझाए उसूलों पर खुद नहीं खरा उतरता कभी मोह माया से बचने की राह दिखलाने वाला प्रवचन देने की फीस पाकर आयोजन स्थल पे आता है । सब कुछ छोड़ दिया बताता है रखता एक दो नंबर का खाता है । कौन उनको क्यों घर बुलाता है उनको मालूम है जो खोता है वही पाता है । दान दक्षिणा से चढ़ावा सब पर नज़र रखते हैं कैसा भरोसा कैसा यकीन अब लिख कर करार रखते हैं उनकी दुनिया में लाख पर्दे हैं कुछ भी बाहर से दिखाई नहीं देता पास से भी सुन नहीं सकते राज़ है जो सुनाई नहीं देता । मरने के बाद ख़ुद नहीं जाते अवशेष कोई पहुंचाता है ये भी करना बड़ा ज़रूरी है मुक्ति मोक्ष तभी पाता है उलझन कुछ नहीं सवाल कोई नहीं कौन डूबता है किस पार जाता है । किस किस शहर का नाम बताएं कोई गिनती नहीं हिसाब नहीं चुप चाप मान लेना अच्छा है छोटा मुंह बड़ी बात बोलने की औकात नहीं । जो समझाए समझ आ गया है कहो दिन तो दिन है नहीं है रात तो है रात नहीं । शर्म करो इक जनाज़ा है कोई बारात नहीं अश्क़ों की कीमत है ज़िंदगी को मिली सौग़ात नहीं । खूबसूरत इक दुनिया बनाने लगे हैं लोग श्मशान को इतना सजाने लगे हैं लोग किस किस बहाने से बुलाने लगे हैं यूं भी तक़दीर को बनाने को तदबीर बनाने लगे हैं । सोचा नहीं था सच होगी मेरी नज़्म वसीयत जश्न मरने का मनाया जाने लगा है । शायद इस विषय पर इतना बहुत है सजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है , न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है । इसी बहाने अपनी तीन रचनाएं फिर से दोहरानी हैं जाते जाते आखिर में पेश हैं ।
 

ग़ज़ल 

 
राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।

बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।

हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।

आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।

खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं ।
 

नज़्म  

 
जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये ।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये ।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये ।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये ।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये ।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये । 
  

ग़ज़ल 

 
बस यही इक करार बाकी है
मौत का इंतज़ार बाकी है ।

खेलने को सभी खिलाड़ी हैं
पर अभी जीत हार बाकी है ।

दिल किसी का अभी धड़कता है
आपका इख्तियार बाकी है ।

मय पिलाई कभी थी नज़रों से
आज तक भी खुमार बाकी है ।

दोस्तों में वफ़ा कहां बाकी
बस दिखाने को प्यार बाकी है ।

साथ देते नहीं कभी अपने
इक यही एतबार बाकी है ।

हारना मत कभी ज़माने से
अब तलक आर पार बाकी है ।

लोग सब आ गये जनाज़े पर
बस पुराना वो यार बाकी है ।
 



मई 29, 2023

भूखे पेट सब भजन करेंगे ( कुंवे में भांग ) डॉ लोक सेतिया

    भूखे पेट सब भजन करेंगे   ( कुंवे में भांग ) डॉ लोक सेतिया 

आपको शायद भरोसा नहीं होगा मगर ये सच है और मैं शपथ लेकर कहता हूं कि बड़ी उदासी और बेचैनी थी जब पोस्ट लिखने बैठा कि अचानक इक वीडियो को देखा तो महसूस हुआ उसी गंभीर विषय को हंसी मज़ाक  की तरह भी पेश किया जा सकता है । सरकार नेता अधिकारी फ़िल्मी जगत से पत्रकारिता करने वाले तक हमेशा से ही इसी ढंग से करते आये हैं , तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो । सुनते हैं मदहोशी का आलम ही कुछ और होता है नशा इक शराब में ही नहीं होता पैसे का ताकत का धन दौलत का नशा और सत्ता का नशा जो आदमी को ख़ुदा होने का गुरूर देता ज़रूर है पर जिस दिन होश आता है सत्ता के बगैर जीना दुश्वार लगता है । जंगल में सभी जानवर रहते हैं सब को पेट भरने को जो चाहिए मिलता ही है किसी न किसी तरीके से लेकिन जब मूड हो मस्ती करने झूमने का सब कुछ भुलाकर अपने में खोने का तब खोजते खोजते इक न इक पेड़ ढूंढ लेते हैं जिस का फ़ल स्वादिष्ट भी हो और नशीला असर भी दिखाए । हाथी सबसे बलवान होता है पेड़ पर चढ़ नहीं सकता तो उसे ज़ोर ज़ोर से हिलाकर झकझोर कर सभी फल नीचे धरती पर गिरा लेता है और खा कर मदहोशी में झूमता है । बंदर पेड़ पर चढ़ खूब खाता है मगर हाथी जब पेड़ को हिलाता है तब उसकी उछल कूद किसी काम नहीं आती । हाथी जितना खा सकता है खाकर चला जाता है उस के बाद सभी जंगली जानवर अपना अपना हिस्सा पा कर टुन हो जाते हैं । सुनते थे जब नशा चढ़ा हो तब खाने पीने की सुध बुध नहीं रहती है , इक बार गांव में रात को ख़ास महमान घर आते हैं तो नंबरदार की नंबरदारनी बताती है घर में बनाने को कुछ ख़ास नहीं बचा है । नंबरदार जी कहते हैं सुबह होते ही शहर से सब मंगवा लिया जाएगा घबराओ नहीं , मगर रात को क्या खिलाना पिलाना है घरवाली ने पूछा तो बोले उनको इतनी शराब पिलाएंगे कि खाना खाने की हालत नहीं रहेगी । वीडियो में देखना आनंद आएगा लेकिन ये पापी पेट का सवाल है उसकी बात छोड़ी नहीं जा सकती है क्योंकि जिनको नशा है उनको क्या खबर भूख क्या होती है विषय पर आते हैं । 
 
 देश किसी न किसी नशे में है कोई विकास के झूठे नशे का शिकार है तो बहुत लोग सोशल मीडिया पर बेसुध हैं कुछ भी होश नहीं क्या क्यों करते हैं । नशे की लत खराब होती है उस को छोड़ रहा नहीं जाता बेचैनी होती है । सच लिखना भी खराब नशा ही है नहीं छोड़ सकता लिखने वाला , तमाम लोग खफ़ा होते हैं मुझे क्या कुछ भी अच्छा नहीं लगता हमेशा नाख़ुश रहता हूं । क्या करूं मेरी आदत है ख़ुशी से घबराता है दिल , खुश रहना नहीं आया दुनिया खुशियां ढूंढ ही लेती है । सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है सोचता हूं परेशान होता हूं ये समझ नहीं आता कि आधुनिक महलों की शानदार ऊंची ऊंची बहुमंज़िला इमारतों बड़ी बड़ी सड़कों रौशनियों और कितने जश्न किसी न किसी बहाने रोज़ मनाने से देश की अधिकांश आबादी को मिलेगा क्या , दो वक़्त रोटी इक छत और चैन से बगैर किसी डर शांति से जीने की हसरत आज़ादी के 75 साल बाद भी इक सपना है । संसद भवन न्यायालय की बिल्डिंग या सरकारी सचिवालय ख़ूबसूरत चमकीले शीशे जैसे होने से जनता को समानता का अधिकार बुनियादी सुविधाएं सच में सुरक्षित वातावरण और अपराध मुक्त समाज कब मिलेगा और कब चोर डाकू लुटेरे गुंडे और बाहुबली लोग अपराध करते पकड़े और दंडित किये जाएंगे । अभी तो उनको सब करने की छूट ही नहीं उनके लिए सत्ता के गलियारे में लाल कालीन बिछाया जाता है । बड़े और छोटे में आम और ख़ास में इतना अंतर है जैसे चींटी और हाथी का भी शायद नहीं और बताते थे चींटी हाथी को पराजित कर सकती है । जनता रुपी चींटी भला सत्ता धनबल बाहुबल और कुछ लोगों को हासिल विशेष अधिकारों की लक्ष्मण रेखा लांघ भी सकती है , रावण कितने हैं बचाने को कोई नहीं आने वाला । शासकों ने समझौता किया हुआ है वार्ता की जा सकती है सीमा पार नहीं कर सकते ये करते हैं तब भी स्वीकार नहीं कर सकते समझौते का उलंघन होता है । 
 
परमाणु बंब बनाने से लेकर आधुनिक हथियार तक विदेशों से खरीदने का मकसद क्या है जब घोषित है ये विनाश कर सकता है मानवता ख़त्म हो जाएगी हम इनका उपयोग नहीं करेंगे । अगर ऐसा है तो इतना धन इस पर बर्बाद क्यों किया जाता रहा जबकि ज़रूरत थी उस से गरीबी भूख और सभी समस्याओं का निवारण कर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को कारगर बनाना । लेकिन ये खरीदारी बेचना खरीदना कुछ लोगों की भूख मिटाने को किया जाता है जो जंग के हथियार बनाते हैं और जिनको इन से दलाली मिलती है । जो नहीं करना था जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पैसे वालों का हथियार बना इक कारोबार बनाना सेवाओं की जगह वो किया गया किया जाता रहा शिक्षा रोज़गार अस्पताल की खूब कमाई का धंधा निजी क्षेत्र के लिए बना दिया पेशा अलग बात है धंधा बिल्कुल अलग और फ़िल्मी डायलॉग है धंधा धंधा होता है गंदा हो तब भी । मुझ से नहीं होता है कि रोते बिलखते मायूस लोगों की तरफ नहीं देख कर शानदार जश्न और शानो शौकत का आडंबर देख कर दिल बहलाया जाए । हो सके तो कोई ऐसा नशा सबको पिलाया जाए जिस को पीने से भूखे नंगे भी सारे जहां से अच्छा गीत गाया जाये , देश को फ़रेब से बहलाया जाए । किसी दिन किसी रहनुमा को होश में लाया जाये , हक़ीक़त से मिलाया जाए सच और झूठ को तराज़ू के पलड़ों में रख आईना दिखाया जाये । सब पुराना बदला जाता है मुमकिन है नये संसद भवन को कुछ और खूबसूरत नाम दिया जाये ताकि शायद वहां चुन कर आने पर उनकी अंतरात्मा भी इक नया सवरूप ले ले जो खुद को छोड़ जनता की भलाई की बातें ही नहीं वास्तव में करने की ज़रूरत भी समझने लगें । ये बात सच नहीं हो सकती क्योंकि नशे में रात गई बात गई , कुछ नहीं बदलेगा बस चेहरे नाम बदलते रहेंगे आईने का क्या है उस के टुकड़े होते हैं सभी पत्थर दिल हैं चकनाचूर करते रहेंगे । कब तक सभी गहरी नींद सोते रहेंगे । सांसद विधायक सरकारी कर्मचारी कौन हैं देश की जनता देश की मालिक और ये जनता के सेवक हैं , मालिक को झौंपड़ी भी नहीं नसीब अधिकतर लोग बेघर भूखे बदहाल है लेकिन नौकर चाकर को शानदार महल जैसा घर दफ्तर चाहिए ये लोकराज है तो कैसा लोकतंत्र कैसी आज़ादी है । माहौल बोझिल है जाँनिसार अख़्तर के शेरों से दिल को समझाया जाये ।
 

इसी सबब से हैं शायद , अज़ाब जितने हैं 

झटक के फेंक दो दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं । 

वतन से इश्क़ ग़रीबी से बैर अम्न से प्यार 

सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं ।

समझ सके तो समझ ज़िंदगी की उलझन को 

सवाल इतने नहीं हैं जवाब जितने हैं ।





मई 28, 2023

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की ( अजब मंज़र ) डॉ लोक सेतिया 

कुलदील सलिल जी की बात से शुरुआत करते हैं और आखिर में उनकी लाजवाब ग़ज़ल भी पढ़ते हैं। 

                   सितम को जड़ से जो काटे उसे शमशीर कहते हैं 
                   जो पत्थर को भी पिघला से उसे तासीर कहते हैं ।
 
                     अमीरों का मुकद्दर तो बना होता है पहले ही 
                    गरीबों की जो बन जाए उसे तकदीर कहते हैं ।  
 
 गरीबी और भूख में जिस देश का स्थान खेदजनक हो उस की राजधानी और सचिवालय की जगमगाहट क्या वास्तविकता पर पर्दा डाल सकती है । क्या सब कुछ सबसे पहले उनको चाहिए जिनका कहने को मकसद देश सेवा जनता की सेवा और समाज कल्याण करना समझा जाता है लेकिन वास्तविक सोच और चाहत ख़ास बड़े लोग होकर मनमानी करना और नियम कानून का उपहास करने की रहती है । जब देश की साधारण जनता मालिक फुटपाथ पर और सांसद सेवक होकर शानदार महल में मौज मस्ती करे तब उसे लोकतंत्र नहीं कहना चाहिए । कुछ भी और कहने से पहले इक सीधा सा गणित है 1200 करोड़ खर्च कर नया शानदार भव्य संसद परिसर बनाने का अर्थ है देश की जनता 140 करोड़ संख्या है तो एक एक व्यक्ति 8 1/2 रूपये का खर्च होता है चिड़ी चोंच भर ले गई उनको लगता है लेकिन इसका अर्थ है जिनकी रगों में लहू बचा ही नहीं उनसे कितना और निचोड़ोगे । आपको चकाचौंध रौशनी मिले मगर गरीब का दिया बुझा कर कदापि नहीं होना चाहिए । दाने दाने को तरसते लोग जिनका कोई ठिकाना नहीं उनको ये देख कर महसूस हो सकता है कि उनकी बेबसी का मज़ाक है ज़ख्मों पर नमक छिड़कने की तरह । सोचना अवश्य चाहिए कितना महत्वपूर्ण था ये निर्माण करना सोचना होगा इस संसद में कितने अपराधी कितने धनबल के कारण और कितने इक तरह से किसी दल की अनुकंपा से बैठे मिलेंगे । संसद की पवित्रता उसकी मर्यादा की चिंता छोड़ आधुनिक साधन सुविधाओं की बात करना लगता है जैसे कोई कारोबारी व्यौपारी चर्चा को पांचतारा होटल का माहौल चाहिए । सच कहें तो मिट्टी से ज़मीन से नाता तोड़ कर कंकर पत्थर की ईमारत से मुहब्बत करना हमारे देश की मान्यताओं पर खरा नहीं उतरता और लगता है जैसे लोकतंत्र नहीं खानदानी महाराजाओं का कोई दरबार है । मुमकिन है सामन्य नागरिक की फरियाद आधुनिक संसद की दिवारों को लांघ ही नहीं पाये ।
संविधान की भावना की बात करना व्यर्थ है उसे लेकर उदासीनता साफ दिखाई देती है जाने कब से राजनेताओं सरकारों प्रशासन ने उसको ताक पर रख दिया है । 

   वैसे भी गरीबी महंगाई की बात करना भी कोई नहीं चाहता राजनेता से सोशल मीडिया टीवी चैनल तक सभी को हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है । प्राथमिकता बदल गई हैं जनता को दिखावे को योजनाएं जो कभी कामयाब नहीं होती और अधिकारी व्यौपारी वर्ग राजनेताओं की हर ज़रूरत पूरी होती है । अगर खज़ाना लबालब भरा था तो इतना पैसा देश में सबको शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं , बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर और भूख बेरोज़गारी से छुटकारा पाने पर निवेश किया जाता पहले देश की जनता में सभी को शानदार आवास और जीने को तमाम सुविधाएं उपलब्ध  करवाई जाती , तब संसद भवन की बारी आती तो लोक का कल्याण पहले होना चाहिए लगता सही है  । ये कीमत चुकाई है अथवा चुकानी होगी सभी देशवासियों को अगर ये क़र्ज़ ले कर घी पियो की बात है । मुझे नहीं पता जो अपनी हसरतें नाम शोहरत और शाहंशाही रहन सहन सैर सपाटे  अन्य कितने भव्य आयोजन नवाबी ढंग से शान बढ़ाने को करता है उसको देश की आधी से अधिक आबादी की बदहाली पर रत्ती भर भी एहसास है मानवीय संवेदना है । क्यों नहीं बड़े नेता अभिनेता जो करोड़ों रूपये बिना किसी शारीरिक मेहनत केवल टीवी पर विज्ञापन देने का धंधा कर बनाते हैं इस को महान घोषित करें जबकि वो फ़िल्म वाले टीवी वाले करते क्या हैं पैसा कमाने को दर्शकों को फ़िल्म टीवी सीरियल से समाचार तक की आड़ में गंदगी परोसना गुमराह करना और हिंसा को बढ़ावा देना । 
 
  जी यही उपलब्धि है पिछले तीस साल से इन सभी ने भगवान बना लिया है पैसे को और शैतान को इतना चमकदार किरदार बनाकर खड़ा कर दिया है कि अधिकांश हम लोग उसे स्वीकार ही नहीं पसंद करने लगे हैं । इस तथाकथित अभिजात्य वर्ग को देश समाज से जनता से ज़रा भी सरोकार नहीं है । आपसी भाईचारा है गुणगान करते हैं बदले में मनचाहा वरदान पाते हैं साफ शब्दों में ईमान बेच कर जागीर बनाना आसान है उनकी दुनिया में और सही मार्ग पर चल कर जीने की चाहत इक आफत की तरह है । उनको कितना चाहिए कोई हिसाब नहीं देश की आज़ादी और संविधान को कुछ लोगों ने अपना बंधक बना लिया है और आम जनता को बेबस और लाचार बना कर किसी भिखारी जैसी हालत कर दी है जबकि शोर इनके तमाशों का है जनता की आहों की आहट भी कहीं किसी को सुनाई नहीं देती है । सरकार को इतना तो बताना चाहिए कि इस पर किया खर्च क्या है कैसे हुआ है कितना जमापूंजी से कितना क्या क्या बेच कर कितना गिरवी रख कर विरासत को और कितना क़र्ज़ या उधार कितने सालों तक कौन चुकाएगा । ये विकास है देशभक्ति है तो मुझे ऐसा मंज़ूर नहीं कुलदीप सलिल ही नहीं दुष्यंत कुमार जी की पहली ग़ज़ल यही है , " कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए , कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए "। 

आखिर में कुलदीप सलिल जी की ग़ज़ल बहुत कुछ कहती है । 

इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बंदों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर 
चांद बस्ती में ऊगा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना 
आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हूं मैं अगर आज कुछ तो हूं बदौलत उसकी 
मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

खूब तू खूब तेरा शहर है , ता -उम्र 
एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

सीख लें दोस्त भी कुछ अपने तज़रबे से कभी 
काम ये सिर्फ मेरा हो , मुझे मंज़ूर नहीं । 
 
हो चिरागां तेरे घर में मुझे मंज़ूर ' सलिल ' 
ग़ुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं ।

 


मई 25, 2023

बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     बुद्धूराजा की समझदारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

 पहले ठीक से पहचान को जान लेते हैं सभी बंदे एक समान होते हैं कुछ अनजान कुछ नादान होते हैं । दिमाग़ सभी का बराबर होता है अंतर होता है किस का दिमाग़ कैसे चलता है , जैसे किसी को ऊंचाई से डर लगता है कोई पहाड़ों की सैर को तरसता है । दिमाग़ की बात किसी मशीन जैसी है कोई कैसे घूमती चलती है कोई और तरह से काम करती है । चढ़ाई और फ़िसलन या ढलान पर हर शख़्स कदम संभल संभल कर रखता है कोई पहले बात को समझता परखता है कोई बिना चिंता जो चाहे करता है । बुद्धिमानों की परेशानी है उनको याद हमेशा रहती नानी की कहानी है इक दूजे से बहस करते हैं एकमत नहीं होते खुद को सही समझते हैं । मूर्खों की बात खूब होती है कोई दूजे को बड़ा छोटा नहीं समझता है अपनी अपनी मूर्खताओं पे सभी गर्व करते हैं बस बुद्धिमानों से ज़रा डरते हैं क्योंकि वही झगड़ा बढ़ाते हैं मूर्ख एकता बनाए रखते हैं अपनी मर्ज़ी से आगे चलते जाते हैं ।

  नासमझ और मूर्ख अलग अलग होते हैं मूर्ख अपनी मूर्खता पर गर्व का अनुभव करते हैं नासमझ को समझाना मुमकिन है मूर्खों को मनाना दुश्वार है । मूर्खों की अपनी दुनिया है उनका अपना कारोबार है बड़ी मुद्दत बाद बन सकी उनकी सरकार है । ये चर्चा बेकार है कौन कितना बड़ा मूर्ख है कौन कितना बड़ा समझदार है । बुद्धूराजा कोई और नहीं मूर्खों का सरदार है । दुनिया में समझदार और बुद्धिमान हमेशा संख्या में कम होते हैं मगर शासन हमेशा उन्हीं का रहता था । बुद्धिमान मूर्खों को बड़ी आसानी से खुद पर उनका शासन करने को राज़ी कर लेते थे । लेकिन भाग्य रेखा में राजयोग अंकित था इसलिए अधिकांश मूर्खों ने बुद्धिमान लोगों को पछाड़ अपने बीच से सबसे मंदबुद्धि को अपना राजा चुन लिया था । बुद्धूराजा ने पहला काम यही किया कि सब मूर्खों को आदेश दे दिया कि आपको कुछ भी नहीं करना है सिर्फ दो बातें करते रहना है पहली जितने बुद्धिमान शासक हुए हैं उन सब को बुरा साबित करना बदनाम करना और दूसरा मुझे सबसे अच्छा और काबिल घोषित कर मेरा गुणगान करना । सबने धार्मिक कथाओं में ऐसा पढ़ा था कि देवी देवता भी यही समझाते थे जो मेरा शिष्य बन मुझ पर आस्था रखेगा और मेरे नाम का जाप कर माला फेरेगा दिन रात उन लोगों का कल्याण होगा सब मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी । बुद्धिमान लोगों की मज़बूत बुनियाद पर निर्मित ऊंची इमारतों को और ऊपर करने को उनकी बुनियाद को ही हटाने की आवश्यकता है ये बात बुद्धूराजा ने अपने सभी चाहने वालों को समझाई । सभी महलों भवनों के नीचे से कोई सुरंग खुदवाना शुरू कर दिया बुनियाद खोखली होती गई इमारतें ध्वस्त होती रहीं और बुद्धूराजा के प्रशंसक विकास हो रहा है बताकर अपने शासक की बढ़ाई करते रहे । सोशल मीडिया पर चूहादौड़ का खेल जारी है कोई नहीं जानता खुद कितना बीमार है यही समस्या है चाटुकारिता गुलामी इक लाईलाज मानसिक बिमारी है । मसीहा कहलाता है वही अत्याचारी है चोर पुलिस कानून अदालत सभी की इक दूजे से यारी है सबका धर्म एक है सबकी आदत करना मक्कारी है । अपनी जान सब को प्यारी है । 

  बुद्धूराजा ने ऐलान किया है मूर्खों का कद बढ़ाना है सिर्फ एक शहर एक राज्य एक देश नहीं सब दुनिया पर अपना झंडा फहराना है । समझदारों से पिंड छुड़ाना है अपना सिक्का चलाना है समझदारी का खोटा सिक्का निपटाना है जब अपने हाथ खज़ाना है फिर किस बात को शर्माना है । रोज़ कुछ अनचाहा घटता और हर बार बुद्धूराजा इक जश्न मनाता और कहता कि जो भी होता है अच्छे के लिए होता है विनाश करने से अनुभव मिलता है विकास का अर्थ मालूम पड़ता है । बुद्धूराजा के समर्थक कुछ भी तर्कसंगत ढंग से विचार नहीं करते जो उनका शासक कहता उसे ही सच मानते । बुद्धूराजा झूठ पर झूठ बोलने का कीर्तिमान बनाता रहा और बर्बादी का भी जश्न मनाते रहा । ये बात खुद उसी ने बताई है बुद्धूराजा ने अपनी आत्मकथा लिखवाई है बात बिल्कुल पक्की है खीर अभी कच्ची है दोनों हाथ घी में सर है कढ़ाई में कौन तीन में है कौन ढाई में फर्क होता है कागज़ की नाव में और काली कलम की स्याही में । दुनिया मूर्खों का सबसे बड़ा बाज़ार है शासक भले मूर्ख है पर बड़ा होशियार है उसका अपना संविधान है कोई उस के बराबर नहीं वो सबसे महान है सभी कमज़ोर हैं इक वही बलवान है । दुनिया शोर को सच मानती है शोर की यही पहचान है चोर संग दोस्ती साहूकार संग भाईचारा भी नादान हर इंसान है । मूखों ने बुद्धिमानों की राह से विपरीत जाना है देश को मूर्खों का स्वर्ग बनाना है समझदारी बुद्धिमानी सोच समझ सभी से पीछा छुड़ाना है । नया ज़माना लाना है टके सेर भाजी टके सेर खाजा का इतहास दोहराना है हर मुसीबत को घर बुलाना है हर पेड़ की डाल डाल शाख शाख पर मूर्खों को बिठाना है उल्लू राज का युग वापस लाना है । समझदारी है आजकल यही सबको बुद्धू बनाना है हमने मौज मनाना है अपना सच्चा याराना है मिल बांट कर खाना है बस इक यही वादा निभाना है ।

 

 

मई 24, 2023

बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया

     बातें हैं बातों का क्या ( चिंतन मनन )  डॉ लोक सेतिया

   सिर्फ़ आप ही नहीं अन्य कितने ही लोग दोस्त संबंधी हैं जिनको मैं इसलिए नापसंद हूं क्योंकि उनकी आरज़ू है मुझे भी अपने जैसा बनाने की , शायद उनको चाहत तो थी खुद ही मुझ जैसा बनने की , लेकिन ये उनसे संभव नहीं हुआ तो सोचा जो खुद चाह कर नहीं हो पाये मुझे ही वैसा नहीं रहने दें । बस आपकी और मेरी दुनिया में यही फर्क है जिसे सब मिटाना चाहते हैं मिटा पाते नहीं हैं । सवाल सही गलत अच्छे बुरे का बिल्कुल नहीं है सही बात तो सब जानते हैं दुनिया में ज़िंदा कोई अच्छा नहीं होता और मरने के बाद सभी को लेकर पता चलता है कि उसकी कमी कोई कभी पूरी नहीं कर सकता है । थोड़े दिन की बात है फिर किसी के नहीं होने से कुछ भी रुकता नहीं सब दुनिया का हर कारोबार चलता रहता है । ज़रा सी बहुत छोटी सी बात है खुद अपने ढंग से जियो और सबको उनकी मर्ज़ी से जीने दो । किसलिए आपको अन्य सभी के जीवन की तमाम बातों में रूचि है और दखल देना चाहते हैं जबकि सच है कि आपको किसी की परेशानी में कोई मदद नहीं करनी सिर्फ ज़ख्मों को कुरेदना है और कोई अपना खुश है चैन से रहता है तो आपको ये भी अच्छा नहीं लगता है । ऐसे रिश्ते निभाने से अच्छा है उनसे दूर अलग रहना और अपने हालात को खुद समझना किसी से सुःख दुःख बांटने का ज़माना अब नहीं है । किसी की शोक सभा में भी आजकल लोग सामान्य ढंग से अपने मतलब की बातें करते हैं कुछ मिंट भी अपनी व्यक्तिगत बातों को छोड़ नहीं सकते इस से बढ़कर अन्य कोई असंवेदनशीलता की मिसाल नहीं हो सकती है । 
 
कहने को ईश्वर धर्म और पूजा पाठ को लेकर बड़ी अच्छी बातें करते हैं अधिकांश लोग लेकिन वास्तविक जीवन और आचरण में लोभ लालच अहंकार और दुनिया भर की झूठी सच्ची बुराई की बातों से निकल नहीं पाते हैं । गीता कुरआन बाईबल रामायण गुरुग्रंथसाहिब पढ़ कर सुन कर समझा कुछ भी नहीं सिर्फ सर झुकाने से कुछ हासिल नहीं हो सकता है । हमने ईश्वर धर्म आस्था और सामाजिक व्यवस्था को बेहतर बनाने को साधु संतों महात्माओं के बताए दिखलाए मार्ग को समझने अपनाने की जगह उनका आडंबर करना शुरू कर दिया है । जिस रास्ते पर चलना था उसे त्याग कर जिधर नहीं जाना था उसी तरफ चलते जा रहे हैं । सच्चाई ईमानदारी और सबकी भलाई की शिक्षा भूलकर खुदगर्ज़ी का सबक पढ़ बैठे और सब अपकर्म करने पर भी चाहते हैं अच्छे सच्चे धर्मात्मा कहलाना । कोई सच कहता है तो हम उसको अपना विरोधी ही नहीं दुश्मन मानने लगते हैं और अपनी असलियत छुपाने को सच कहने वाले की बुराई करने उसको नीचा दिखाने लगते हैं । ये कोई धर्म नहीं सिखलाता है ये रास्ता भटकना है जो भी भटक गया कभी कहीं नहीं पहुंचा । आपकी राह अलग है मुझे अपनी राह पर चलना है क्या कभी मैंने आपको विवश किया उधर नहीं जाओ इधर चलो मेरे साथ । मुझे अकेले अपनी राह चलना है भीड़ में कभी उस कभी इस ओर भटकना नहीं है । दो कविताएं हैं विषय को परिभाषित करने की कोशिश है । 

जाना था कहां आ गये कहां ( कविता )

ढूंढते पहचान अपनी
दुनिया की निगाह में , 

खो गई मंज़िल कहीं 
जाने कब किस राह में , 

सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।

आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से ,
 
खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,
 
बस ज़रा सा अंतर है 
वाह में और आह में ।

लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,
 
क्यों मज़ा आने लगा
फिर फिर उसी गुनाह में
 
मयकदे जा पहुंचे लोग 
जाना था इबादतगाह में । 
 

आस्था ( कविता ) 

 
सुलझे न जब मुझसे
कोई उलझन
निराशा से भर जाये
जब कभी जीवन
नहीं रहता
खुद पर है जब विश्वास
मन में जगा लेता
इक तेरी ही आस ।

नहीं बस में कुछ भी मेरे
सोचता  हूं है सब हाथ में तेरे
ये मानता हूं और इस भरोसे
बेफिक्र हो जाता हूं
मुश्किलों से अपनी
न घबराता हूं ।

लेकिन कभी मन में
करता हूं विचार
कितना सही है
आस्तिक होने  का आधार
शायद है कुछ अधूरी
तुझ पे मेरी आस्था
फिर भी दिखा देती है
अंधेरे में कोई रास्ता । 
 

 

मई 23, 2023

तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया

    तिजोरी के सिक्के की खनक ( तीर निशाने पर ) डॉ लोक सेतिया 

   ये इक पहेली है कौन किसी का यार दिलदार कौन अपना बेली है किसकी पड़ोसन किस की सहेली है । बस इक वही भाग्यवान है संग पिया जिसकी होली है । धन दौलत पैसा रुपया सब माया आनी जानी है तिजोरी और सिक्के की सच्ची मुहब्बत की अमर कहानी है । लोग समझदार थे पहले आजकल चतुर सुजान हो गए हैं सबको खबर थी हमको पता नहीं था सुनकर हैरान हो गए हैं । दोस्त पुराने दोस्तों से पिंड छुड़ाने को यही तरीका आज़माने लगे हैं फोन नंबर बदल कर आपस की दूरी बढ़ाने लगे हैं सब नया है तो घर नया दुल्हन नई विज्ञापन को सच कर दिखाने लगे है । नहीं मिल सकते कल फिर मिलेंगे बेकार बहाने पुराने लगे हैं ताल्लुक रखना लाज़मी है कुछ इस तरह से निभाने लगे हैं । मेरा देश बदल रहा सब लोग गुनगुनाने लगे हैं उनका हिसाब बराबर है दुश्मन सारे ठिकाने लगे हैं । 

  फिर वही रोग फिर वही अचूक दवा सब दोहराने लगे हैं बड़े नोटों से नोट बदलवाने लगे हैं । सवाल जवाब से बचने कतराने लगे हैं । सब खज़ाने वाले तिजोरी की तलाशी लेने लगे हैं कागज़ी नोटों को तबादला कर इधर उधर भिजवाने लगे हैं बड़ी कीमत वाले नोट अपनी हालत पर अश्क़ बहाने लगे हैं इसे देख चांदी के सौ साल पुराने सिक्के चुटकुले सुनाने लगे हैं मिलकर ठहाके लगाने लगे हैं बड़े नोटों की खिल्ली उड़ाने लगे हैं । हमको यहां रहते कितने ज़माने लगे हैं चार दिन के महमान थे आप कागज़ के नोट रद्दी के भाव बिक जाने लगे हैं । कौन खरा है कौन खोटा है वक़्त वक़्त की बात है चांद है चांदनी रात है और क्या चाहिए तू अगर साथ है । हवेली हुआ करती थी हवेली में तहख़ाना तहख़ाने में तिजोरी तिजोरी में सोने चांदी के ज़ेवर हीरे जवाहरात मोती सब खामोश रहते थे बस खनकता था तो चांदी का एक रूपये का सिक्का क्योंकि उस की अहमियत उसकी ज़रूरत हमेशा पड़ती थी ।
 
 लाख रूपये हों चाहे हज़ार रूपये एक का साथ शुभ मंगलमय समझा जाता था । विवाह के शुभ अवसर पर दो समधी मिलते तो एक रूपये का सिक्का उपहार में मिलता बड़ी शान बढ़ाता था बड़े बज़ुर्गों से पूछना कितना मन भाता था । मुझे याद आया हम जब होने वाली दुल्हन को देखने उनके घर पहुंचे तो सासु मां और ताया जी दरवाज़े पर आमने सामने थे खड़े बेटी की मां ने सीधा यही सवाल किया था आपकी मांग है कोई तो पहले अभी बताओ , समझे आप लालच है तो वापस लौट जाओ । ताया जी बोले इक मांग तो है एक रुपया और गुड़ बस कुछ भी और नहीं । यकीन करें रिश्ता बिना देखे दिखाए पक्का हो गया था हम से नहीं पूछा न उनसे उनके माता पिता ने और हम दोनों को समझाया गया आपका उनका भविष्य निर्धारित हो गया है । 

 भगवान भी एक है और रुपया पैसा भी वास्तव में एक ही से शुरू होता है बाद में शून्य का अंक जुड़ता है तो कद ऊंचा होता जाता है लेकिन एक को मिटाने से जितने शून्य साथ खड़े हों हिसाब कम अधिक नहीं शून्य कहलाता है । सरकारी बजट भी इक बही-खाता है गैरों पर करम अपनों पे सितम ढाता है सरकारी लोगों राजनेताओं को हंसाता और जनता को खून के आंसू रुलाता है । रूपये और पैसे का अंतर किसी किसी को समझ आता है रुपया घर बनाता है जब पैसा दौलत बन कर इतराता है तो ग़ज़ब दिखलाता है । खज़ाने की तिजोरी उदास है बंद है कितना धन मालिक ख़ास है चाबी खो गई है तिजोरी तोड़ना अपराध है । घोड़े को मिली खाने को ऐसी घास है कि बढ़ती गई घुड़सवार की प्यास है । उनको प्यास बुझानी है मगर समंदर है और खारा पानी है , पढ़ी हुई इक पुरानी कहानी है ये नहीं मालूम क्या मानी है । धरती का रस  नाम से इक कहानी है चार दिन की ज़िंदगानी है चार रूपये की ज़रूरत है अधिक की चाह रखना बड़ी नादानी है । आजकल राजनीति है अनीति है हमने नीति की बात पर पुरानी नीति कथा याद दिलानी है । 

                             धरती का रस ( नीति कथा )  

   एक बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़ गया । उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह में वहां चला गया । इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके देश का । राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी । बुढ़िया ने छांव में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं । बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया । राजा को बहुत ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है । बुढ़िया ने बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं । यहां का राजा बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े आराम से हो जाता है । राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका खज़ाना अधिक बढ़ सकता है । तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो । बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़ कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास भर सका । ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था । बुढ़िया बोली बेटा ये तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है । ये तो तब होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है । ऐसे में कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर ऐश आराम करते हैं । राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था । सैकड़ों साल पुरानी लोककथाओं नीतिकथाओं को हम ने भुला दिया है जो पानी का प्यासा था उसे मीठा रस पिला दिया है शासकों ने वफ़ा का यही सिला दिया है अर्थव्यवस्था की बुनियाद तक को हिला दिया है । अपना क्या है यही कहते हैं ' नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई , है अपनी जेब तक ख़ाली कहीं पर घर नहीं कोई '।  ये इक ग़ज़ल का मतला है अब इक पूरी ग़ज़ल भी पेश है ।

 ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया

सभी कुछ था मगर पैसा नहीं था
कोई भी अब तो पहला-सा नहीं था ।

गिला इसका नहीं बदला ज़माना
मगर वो शख्स तो ऐसा नहीं था ।

खिला इक फूल तो बगिया में लेकिन
जो हमने चाहा था वैसा नहीं था ।

न पूछो क्या हुआ भगवान जाने
मैं कैसा था कि मैं कैसा नहीं था ।

जो देखा गौर से उस घर को मैंने
लगा मुझको वो घर जैसा नहीं था ।
 

 

मई 22, 2023

बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   बदनसीब को बद्दुआ लग गई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

       मेरी ये पुरानी ग़ज़ल दो हज़ार रूपये के नोट की व्यथा को समझाती है उसके दर्द को बयां करती है ।

शिकवा तकदीर का करें कैसे
हो खफा मौत तो मरें कैसे ।

बागबां ही अगर उन्हें मसले
फूल फिर आरज़ू करें कैसे ।

ज़ख्म दे कर हमें वो भूल गये
ज़ख्म दिल के ये अब भरें कैसे ।

हमको खुद पर ही जब यकीन नहीं
फिर यकीं गैर का करें कैसे ।

हो के मज़बूर  ज़ुल्म सहते हैं
बेजुबां ज़िक्र भी करें कैसे ।
 
भूल जायें तुम्हें कहो क्यों कर
खुद से खुद को जुदा करें कैसे ।

रहनुमा ही जो हमको भटकाए
सूए - मंजिल कदम धरें कैसे । 
 
      जिसको बनाने वाला खुद मिटाने का ऐलान करे उसकी फरियाद कौन सुनेगा । शायद तभी ये फैसला खुद शाहंशाह नहीं सुना सकता था और किसी विदेशी दौरे पर निकल गया । कागज़ का होने से बोल नहीं सकता लेकिन कागज़ का लिखा कोई मिटा भी नहीं सकता ये कोई कच्ची स्याही से लिखी कहानी नहीं है । दो हज़ार का नोट शाहंशाह को दिलो जान से प्यारा था ये उनकी आपसी चाहत की इन्तिहा है जिस की खातिर शान से आया लाया गया उसी की मर्ज़ी उसकी ख़ुशी की खातिर कुर्बान भी होना पड़ा । वफ़ा की मिसाल और बेवफाई की दास्तां दोनों दो हज़ार के नोट की ज़िंदगी से ज़ाहिर होती हैं । जब जन्म हुआ था तब दो हज़ार के नोट का आगमन का अभिनंदन का जश्न मना रही थी सरकार और रिज़र्व बैंक मिलकर लेकिन जिन पांच सौ और एक हज़ार वाले दो नोटों को अलविदा कहा जा रहा था उनके लिए कोई विदाई सभा क्या श्रद्धा सुमन तक किसी को चढ़ाने ध्यान नहीं रहे । उन की आत्मा की शांति सद्गति की प्रार्थना सभा तक नहीं आयोजित की गई बस जाते जाते उन्होंने दो हज़ार वाले नोट को श्राप या बद्दुआ दी थी आह निकली थी कि तुम्हारा हाल हम से भी बुरा होगा । खुद तुम्हें बनाने वाला कब चुप चाप तुम्हारा अस्तित्व मिटा देगा तुम्हारा इस्तेमाल करने के बाद दूध की मख्खी की तरह निकाल फैंकेगा ।  
 
  आई मौज फ़क़ीर की दिया झौंपड़ा फूंक , मनमौजी हैं जो चाहे करते हैं सौ बार मन की बात हुई तो दिल ने चाहा जो खिलौना खुद बनवाया था बहुत खेला कोई मज़ा नहीं आया । जाने किसी ज्योतिष विशेषज्ञ की कही बात हो कि अर्थव्यस्था की बदहाली से काला धन तक से लेकर जितनी योजनाएं बनाई असफल साबित होने का कारण दो हज़ार वाला गुलाबी रंग का नोट इक पनौती है । अब अगला चुनाव किसी और मूल्य और रंग के नोट से लड़ना होगा अन्यथा काठ की हांडी कितनी बार चढ़ सकती है । भले चंगे तंदरुस्त को आईसीयू में भेजना और अंतिम दिनों की गिनती शुरू करते हुए क्या होगा क्या मुमकिन है सब पर पर्दा रखना साबित करता है बहुत कुछ है जो छिपाना भी है और जनता को फिर से अच्छे दिन का टूटा ख़्वाब सच होगा भरोसा दिलाना भी है । आपको ध्यान रखना होगा पहले की तरह जैसे पांच सौ और हज़ार रूपये वाले नोटों को उचित ढंग से विदा नहीं किया था इस बार मत करना । अभी फूलमाला नहीं चढ़ानी है अभी संयम धैर्य से दिलासा देना है जो आया उसे इक न इक दिन जाना होता है पर इतनी जल्दी ऐसा नहीं होना चाहिए था । दो हज़ार के नोट तुमने देश को बहुत कुछ दिखलाया है चाहे कैसा भी हो तुझे भुलाना संभव नहीं होगा । हर किसी की कितनी यादें जुड़ी हुई हैं तुम्हारा गुलाबी रंग और चमक किसी शाहंशाह से कम कदापि नहीं हैं । बाबू मोशाय ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं , मैं मरने से पहले मरना नहीं चाहता , आनंद फिल्म का नायक अपने दोस्त से कहता है ख़ूब लोकप्रिय डायलॉग है सुपरस्टार राजेश खन्ना का । दो हज़ार रूपये के नोट की अंतिम इच्छा यही हो सकती है कि आठ तारीख़ आठ बजे जो शाहंशाह ने किया था फिर से दोहराया जाए ताकि चुपके चुपके की तरह नकली किरदार का अंत आदरणीय ओम प्रकाश जी के हाथों से ही हो । ये गुलाबी रंग के खूबसूरत फूल हैं जिनका सही विधि पूर्वक विसर्जन किया जाना चाहिए हरिद्वार में या वाराणसी में ये खुद शाहंशाह की मर्ज़ी से निर्धारित किया जा सकता है । मुझे इक लाल किताब वाले ने बताया है चुनाव से पहले ऐसा करना शुभ फलदाई हो सकता है अगर पिछले हज़ार पांच सौ वाले नोटों की भी यही विधि अभी भी साथ साथ की जाए तो उनका भी कल्याण होगा । किस का कल्याण कैसे होगा शाहंशाह खूब जानते हैं बस उनको क्या करना है ये कोई नहीं जानता भगवान भी नहीं । 
 

 

संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम ) डॉ लोक सेतिया

        संगदिल लोग क्या जाने ( शीशा-दिल हम  ) डॉ लोक सेतिया

   इक नज़्म से बात की शुरुआत करते हैं , मुझसे दोस्ती करना चाहते हैं अगर आप तो समझ लेना ।  
 
दोस्त मुझे अपना बनाने से पहले  
मुझे जान लेना भूल जाने से पहले ।

ये जीने का अंदाज़ सीखो मुझसे 
मर जाना नहीं मौत आने से पहले । 

कभी आ भी आओ साथ मिलकर 
कदम दो कदम चलें हम दोनों भी 

गले से लगा लो बताओ सुनो भी 
हाल ए दिल छोड़ जाने से पहले । 

दुनिया अजब है हैं दस्तूर निराले 
हैं लिबास सफेद और दिल काले 

चलों अश्कों की बारिश में भीगें 
मिल के दोनों मुस्कुराने से पहले । 

शिकवे गिले यारो मुझ से कर लो 
जितने भी अरमान बाकी कहो तुम 

छुपाके दिल में शिकायत न रखना 
मेरी अर्थी को फिर उठाने से पहले । 

कुछ मीठी कुछ कड़वी कुछ बातें 
हंसती रुलाती कई यादें करना याद 

मेरे मज़ार पर शमां जलाकर मुझपे 
फूलों की इक चादर चढ़ाने से पहले । 

यही वक़्त है दो चार घड़ी हमारा 
सुनाओ कहानी तुम अपनी ज़ुबानी 

कोई और किस्सा नई बात कोई 
कहो उनके भूल जाने से पहले ।

मुहब्बत ईबादत प्यार दोस्ती है 
इसी को कहते हैं जी रहे हैं हम 

मिलके जियो जीने के लिए अब तो 
मिलो ज़िंदगी से मर जाने से पहले ।

  कोई किसी की ख़ातिर परेशान नहीं होता है लोग मुझ से नहीं ख़ुद से अनजान हैं नाहक परेशान हैं । आपके फूलों के बाग़ हैं घर में सजाए गुलदान हैं फिर भी ज़िंदगी के चेहरे मुरझाए मुरझाए रहते हैं अपनी शक़्ल देख आईने में हुए परेशान हैं । अपना क्या सीधे सादे लोग हैं आपकी दुनिया से अनजान हैं अजनबी दुनिया में अपनी धुन में अपनी मौज अपनी मस्ती से जीते हैं उनसे नहीं मतलब जो झूठी शान हैं नाम वालों में हम बड़े बदनाम हैं । नाम कुछ भी ज़माने में हर नाम के कितने हमनाम हैं अपने आप को ख़ास कहते हैं जो समझते खुद को महान हैं उनको क्या खबर आम होना नहीं आसान आम अनमोल हैं नहीं मिलते बाजार में बेदाम हैं । 
दर्पण जैसे लोग होते हैं जो ज़माने की सच्ची बातें लिखते हैं आपको लगता है अपनी बात कहते हैं पर वो तो सबकी इसकी उसकी आपकी बात करते हैं कोई आईना ख़ुद को नहीं देखता उस में दिखाई देता है जो भी सामने खड़ा होता है । जिनको अपनी सूरत छिपानी पड़ती है उनको दर्पण के सामने से हट जाना चाहिए । संगदिल लोग पत्थर फैंकते हैं दर्पण को चूर चूर करते हैं नादान नहीं जानते आईना तोड़ने से उनकी शक़्ल सूरत रंग नहीं बदलता है । वक़्त रुकता नहीं किसी की इंतज़ार में समय से अलग दौड़ने वाला इक दिन हाथ मलता है आधा भरा हमेशा उछलता है समझदार वक़्त के साथ खुद को बदलता है उसकी रफ़्तार से कदम मिलाकर चलता है । किरदार वही रहता अंदाज़ नहीं बदलता है समझदार चेहरे को साफ़ करता है बार बार आईने नहीं बदलता है । किस किस को क्या क्या समझाए कोई , दुनिया को फुर्सत कहां , चलो  कुछ अपनी ग़ज़ल  से खुद ही से बात करते हैं ।
 
सच जो कहने लगा हूं मैं
सबको लगता बुरा हूं मैं ।

अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।

बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।

अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।

अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।

आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।

सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।
 

 

मई 17, 2023

ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा ) डॉ लोक सेतिया

 ख्वाबों ख्यालों की दुनिया ( सबसे पुरातन कथा  ) डॉ लोक सेतिया

इक कल्पनालोक की सच्ची बात है इस दुनिया जहान से बिल्कुल अलग इक ऐसी दुनिया है जहां पर किसी से किसी का कोई नाता नहीं है सब साथ होते हैं पर अकेले कभी नहीं होते उस जगह किसी को पाने की कोई ख़ुशी नहीं होती खोने का कभी कोई ग़म नहीं होता । हमराज़ हमसफ़र हम निवाला हम प्याला होते है हमदम नहीं होता बहारों की बात है खिज़ा के मौसम नहीं होते फूल होते हैं काटों के चमन नहीं होते । दोस्ती क्या दुश्मनी क्या वहां किसी को मालूम नहीं हर कोई आदमी है मशीन नहीं है अपनी दुनिया इक वीराना है उस जहां में गुलशन हैं अश्कों से भीगे दामन नहीं होते । इस जहां में किसी की बढ़ाई कोई नहीं करता और किसी की कभी होती तौहीन नहीं होती । सब रंग हैं बराबर सब बातें सीधी हैं जो समझ नहीं पाए ऐसी कोई बात महीन नहीं होती । सौ तरह की परिभाषा की ज़रूरत नहीं होती अपने जहां जैसी इक भी रिवायत नहीं होती , कुछ भी हो रहने वालों को शिकायत नहीं होती । सब होता है बहस की गुंजाइश नहीं है । भटकते भटकते हम इधर आ गए हैं कुछ ख़ास महान व्यख्यान देने वालों से अचानक टकरा गए हैं , मुझे देख कर वो किसलिए घबरा गए हैं । अंधेरे उजालों को रौशनी का राज़ समझा गए हैं दूर जाते जाते सब नज़दीक वापस आ गए हैं । 

चिंता मत करें आपको किसी दुविधा में नहीं रखता कोई चौंकाने हैरान करने की कोशिश कर उलझन में नहीं डालते हुए बताना है कि हुआ क्या है माजरा क्या ये जगह कौन सी है इसका भगवान वाहेगुरू खुदा अल्लाह क्या है । मैंने उस अनजान अजनबी से बिना सोचे समझे यही मांग लिया कि जिस किसी ने दुनिया को जब बनाया तब कैसी थी मुझे देखना है और आंखें बंद कर भीतर झांकने पर मुझे यही नज़ारा दिखाई दिया है । आपको या खुद मुझी को इसको लेकर शंका हो सकती है कि ये सच है या कोई बनाई मनघड़ंत कहानी है फिर भी मुझे इसी जगह रहना है कहीं और जाना नहीं चाहता । कभी न कभी सभी ऐसा करते हैं अपने ख्यालों में खो जाते हैं उन से बाहर नहीं निकलना चाहते बस बंद आंखों का ये खेल है आंख खुलते ही इक डर है कहीं ये खूबसूरत दुनिया गुम नहीं हो जाये उम्र लगी है इसी की तलाश करने में दोबारा क्या खबर करना संभव हो कि नहीं हो । मुझे ये दुनिया जो शुरू में बनाई थी देखने की अनुमति उस ने इस शर्त के साथ दी कि इस दुनिया को सैरगाह समझ आनंद उठाना है बस समय आते वापस लौट जाना है जिस ने भेजा इक दिन बुलाना है ये दुनिया इक सराय है मुसफ़िरख़ाना है कभी नहीं बनाना कोई ठिकाना है । आखरी बात इतनी समझाना है जिधर जाना मना है भूलकर भी नहीं जाना है । इक पंछी से तुझे मिलवाना है जो भी कहे मान जाना है । 
 
 देखा इक पंछी दिखाई दिया मुझे आवाज़ दे कर बताया उधर जाना मना है नहीं जाना है । ठीक है मुझे राज़ समझना है ये जहां कैसा फ़साना है हक़ीक़त है ये कोई अफ़साना है । उसने बताया अभी जो तुझे मिले थे राह में टकरा गए थे अचानक देख कर घबरा गए थे मेरी तरह पंछी हुआ करते थे , मुसाफ़िर को जिस तरफ नहीं जाना समझाते रोका करते थे । इक दिन किसी ने पंछी को मीठा फल खिलाया लालच ने उनसे अपना फ़र्ज़ भुलवाया तभी से लोग मनमानी करने लगे हैं कुदरत से छेड़खानी करने लगे हैं । आदमी अपना ईमान बेच कर बेईमानी करने लगे हैं , खुद खराब अपनी ज़िंदगानी करने लगे हैं ।  जिस शाख पे बैठे उसी को काटने की नादानी करने लगे हैं ।  

  कितने पंछी मीठा फल खाकर मुसाफिरों को रोकने की बात भूल गए बस उपदेशक की तरह बातें समझाने लगे अपने चाहने वालों से चढ़ावा ले खाने लगे । छोड़ो क्या होगा जानकर कि कब क्यों किस ने ये जहां बनाया नीचे धरती ऊपर आस्मां बनाया , सोचना है तो सोचो इक आदमी ने पहले घबरा कर तन्हाई से कोई आशना बनाया दोनों ने साथ मिलकर कोई कारवां  बनाया साथ रहने को इक मकां बनाया । इक भूल हुई उनसे बदलने चले जहां को जो भी मिला सफर में सोचे समझे बगैर उसे हमज़ुबां बनाया फिर मेहरबां बनाया फिर रहनुमां बनाया । खुद को गुमान था बस मेरा है सब मेरा है किसी और को नहीं हो हासिल इस बात ने आदमी को बदगुमां बनाया । दिन रात क्या होते हैं कभी अंधेरा कभी उजाला ये कुदरत का नियम उसको न रास आया आखिर साथ छोड़ जाता है अपना साया घर के करीब जिस ने आकर कोई घर बनाया था जो भी हमसाया लगने लगा पराया । खुदगर्ज़ी का सबक कब किसी ने था पढ़ाया पर आदमी इस बला से फिर कभी नहीं बच पाया । इक होड़ लग गई सब भागने लगे ज़मीन बंटने लगी इंसान बंटने लगे अजब हाल था दुनिया पूरी पर अधिकार था नासमझ कुछ टुकड़ों की खातिर भागते भागते मौत की आग़ोश में समाने लगा ।  
 
अब पछताने से क्या होगा जब आदमी ने दुनिया बनाने वाले की बनाई शानदार दुनिया को बदल कर खुद इक दुनिया जैसी उसको चाहिए बनाने की ख़्वाहिश में ख़ुदग़र्ज़ी में सब बर्बाद कर दिया है । खुद को अपने बनाने वाले से बड़ा और ऊपर समझने की सोच के पागलपन ने इंसान का सब छीन लिया है सुख चैन सुकून सभी । धनवान से धनवान ताकतवर से ताकतवर तमाम साधन सुविधाओं को पाने के बाद भी हालत किसी भिखारी जैसी है जिस को जितना मिले थोड़ा लगता है । गरीबी यही है सब पास है फिर भी अधिक पाने की चाहत बाक़ी है इन हसरतों ने इंसान को बहशी जानवर बना दिया है । आदमी आदमी का शिकार करने लगा है मुझे दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल याद आई है । हम भी पंछी हैं आप सभी भी पंछी हैं चार घड़ी का बसेरा है ये गीत गुनगुनाते रहते हैं ।
 

       अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम , आदमी को भूनकर खाने लगे हैं । 





मई 14, 2023

झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

           झूठ सच से बड़ा हो गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

     सच क्या है झूठ कैसा होता है ज़िंदगी भर यही सोचता रहा समझता रहा और बार बार धोखा खाता रहा । सच की राहें कठिन थी जानता था झूठ को आईना सच का दिखलाता रहा । मीठी मीठी बातों से हर शख़्स दिल बहलाता रहा भरोसा किया बंद आंखों से तभी ठोकरें खाता रहा । झूठ नाम शक़्ल बदल बदल मेरे करीब आता रहा खुद मैं झूठ को अपने घर का रास्ता बताता रहा झूठ अपना ठिकाना झूठा बतलाता रहा ख़त भेजा जो भी वापस बैरंग लौट आता रहा । ये भी इक रिश्ता था मैं जिस का भी हुआ वही नहीं मेरा बन सका मैंने सबक सीखा था नाता तोड़ना अच्छा नहीं इस लिए निभाता रहा । नासमझ नहीं नादान था सब जानता समझता था लोग चाल चलते रहे मैं मात हमेशा खाता रहा । झूठ का खेल अजीब था दुनिया को दिखाने को भेस बदल बदल अपना जाल बिछाता रहा जाने क्या नशा था जो सब पर चढ़ता गया जादूगर का जादू असर दिखाता गया ।  
 
    सच सामने है फिर भी किसी को दिखाई नहीं देता , झूठ का रुतबा बढ़ गया है बस उसी का शोर मचा हुआ है कुछ भी और सुनाई नहीं देता । हमने झूठ का पर्दा हटाकर दिखलाया दुनिया वालों को लेकिन झूठ सबको जाना पहचाना अपना सा लगा सच लगा हर किसी अजनबी सा कोई पराया । झूठ का दरबार था घर बार था कारोबार था झूठ खुद अपने आप का कोई इश्तिहार था झूठ का सभी से यही करार था है किनारा वही सच तो मझधार था । झूठ को पांव बिना दौड़ना आ गया था वो तेज़ हवाओं पर सवार था सब स्मार्ट फोन पर काल्पनिक नकली किरदार से सभी खेलने में अपनी सुध-बुध खो कर झूठी दुनिया की बनावटी जंग लड़ने में मशगूल थे हर चीज़ से डरने वाले यहां शूरवीर होने का आनंद उठा खुद को बादशाह समझने लगे थे । कल टीवी पर इक अध्यात्म गुरु ज़िंदगी के राज़ बता रहे थे अपनी शिक्षा को भूलकर कुछ अलग विषय पढ़ा रहे हैं भाषण देकर चोखा धन नाम शोहरत कमा रहे हैं मेरे रास्ते मत चलना नासमझने वालों को समझा रहे थे । कॉमेडी शो की धुन पर सबको नचा रहे थे सही मायने में अपने कारोबार को और अधिक फैला रहे थे । 
 
    झूठ ऐनिमेशन फ़िल्म की तरह से सबको भाने लगा इक रोमांच दिल दिमाग़ पर छाने लगा हर शख्स खुद को कोई महानायक जैसा किरदार समझने लगा कल्पना को हक़ीक़त है मान लो मैं वही हूं सबसे मनवाने की ज़िद में टकराने लगा । खोटा सिक्का खरे को नकली साबित करने लगा अपनी तरकीब पर इतराने लगा सच को कुछ नहीं समझ आया ये कौन ज़हर को दवा बताने लगा । झूठ का इश्तिहार है अंधी गूंगी जनता है और बहरी हुई सरकार है इक बस वही कल्याण करता कलयुगी अवतार है । पास उस के झूठे वादों को पुलिंदा है खज़ाना है सब कुछ संभव है भरमार ही भरमार है । अब आपके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है समझो यही उजाला है फैलाया जो भी मेरा अंधकार है । सच खामोश हो गया भीड़ झूठ साथ है उसकी होने लगी जय जयकार है । झूठ का फैला हर तरफ बाज़ार है सच बोलना घाटे का सौदा है झूठ मुनाफ़े का व्यौपार है । जीत क्या हार क्या सब दिल बहलाने की बातें हैं कोई ज़रूरत नहीं किसका क्या कैसा आधार है पास है पैसा तो कागज़ की नैया भी हो सकती पार है सच से बच कर जाना है वो इक मझधार है । समाज का होने लगा बंटाधार है झूठ इक शिकारी है जिसका कौन नहीं होता शिकार है । अंत में इक ग़ज़ल पेश है ।

                               ग़ज़ल :- डॉ लोक सेतिया 

फिर वही हादिसा हो गया ,
झूठ सच से बड़ा हो गया ।

अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।

कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।

सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया।

साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।

राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।

हाल अपना   , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।

देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।
 

 

मई 10, 2023

करम गिनते हैं ज़ुल्म का हिसाब नहीं ( मेरी सरकार ) डॉ लोक सेतिया

  करम गिनते हैं ज़ुल्म का हिसाब नहीं ( मेरी सरकार ) डॉ लोक सेतिया 

शीर्षक इक ग़ज़ल से उधार लिया है , अंदाज़ अलग है बात कुछ और , कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयां और , दिन रात सुना करते हैं बस शोर चहुंओर । ये दौर है चोर मचाते हैं बड़ा शोर शायद बिना बोले करता नहीं कोई गौर । बदली है दुनिया बदल गए हैं ज़माने के पुराने तौर छाये रहते हैं बदल घनघोर बरसते नहीं कभी अपना चलता नहीं ज़ोर । ये कुछ और नहीं किसी का इश्तिहार है बिना विज्ञापन जीना मरना दोनों बेकार है यही आजकल सबसे बड़ा कारोबार है जिसको नहीं आता मशहूर होने का हुनर समझो किसी काम का नहीं बंदा बेकार है । जिया बेकरार है छाई बहार है आजा मोरे बालमा तेरा इंतज़ार है तुमको मुझ से प्यार है आज क्या वार है नदिया की बहती धार है जनता इस किनारे सरकार उस पार है बीच में इक टूटा हुआ पुल है यही संसार है । विज्ञापन चौंकाते हैं तभी असर दिखलाते हैं ऐसी भाषा लिखने वाले महान अदाकार लेखक कलाकार कहलाते हैं । फिल्म टीवी वीडियो सभी में नज़र आते हैं अखबार टीवी चैनल सभी विज्ञापनों के मोहताज हैं बगैर इश्तिहार ज़िंदा नहीं रह सकते मर जाते हैं । सबसे बड़ा घोटाला सरकारी विज्ञापन हैं टीवी अखबार खूब मौज उड़ाते हैं सरकार और इश्तिहार देने वाले धंधे वालों के सामने हाथ जोड़ते पांव दबाते हैं हमको और की ज़रूरत है गिड़गिड़ाते हैं । 
 
टीवी पर अधिकांश समय और अख़बार में जगह पाकर भी सरकार को लगता है लोग देखते सुनते पढ़ते नहीं हैं इसलिए रोज़ नये नये तरीके अपनाते हैं देश राज्य की बात क्या छोटे शहर के राजनेता तक सोशल मीडिया पर कितने खाते खुलवाते हैं और वेतन दे कर अपना महत्व बढ़ाते हैं । निर्वाचित होने वाले हर दिन चाहने वालों को बुलाते हैं रोज़ कुछ नया करते हैं वीडियो बनाते हैं बंटवाते हैं पैसा खर्च करते हैं शान अपनी बढ़ाते हैं । हम नहीं समझ पाते हैं किस बात पर इतना भाव खाते हैं ये सभी सांसद विधायक पार्षद से लेकर सरकारी अधिकारी कर्मचारी जनता की सेवा और कर्तव्य निभाने का ही वेतन सुविधाएं पाते हैं अपना दायित्व निभाने को क्यों भला जनता पर एहसान करना उपकार करना दिखलाते हैं । हिसाब लगाना संभव नहीं ये लोग रोज़ इस प्रचार प्रसार पर कितना समय धन उड़ाते हैं क्योंकि हर जगह सभी तथाकथित वीवीआईपी लोग यही करते हैं शोभा बढ़ाते हैं असली समस्याओं की बात से नज़रें चुराते हैं क्योंकि कल जो वादा किया जो भी समाधान करने का उपाय शुरू करने का फोटो वीडियो बनाया उस का नतीजा निकला नहीं शर्माते हैं । मिट्टी के माधो दुनिया को समझते नहीं उल्लू बनाते हैं सर्वगुणसम्पन्न यही कहलाते हैं । आपको गंगभाट और रहीम का वार्तालाप सुनाते हैं । 

गंगभाट :-

सिखियो कहां नवाबजू ऐसी देनी दैन , ज्यों ज्यों कर ऊंचो करें त्यों त्यों नीचे नैन । 

अर्थात नवाब साहब ये आपका अजीब तरीका लगता है जब भी किसी को कुछ सहायता देते हैं उसकी तरफ नहीं देखते अपनी नज़रें नीचे को झुकी हुई होती हैं । 

रहीम :-

देनहार कोऊ और है देवत है दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन । 

अर्थात देने वाला तो कोई और है अर्थात ऊपर वाला मुझे देता है मैं तो उसका दिया आगे सौंपता हूं अमानत की तरह मगर लोग लेने वाले समझते हैं मैं देता हूं इस बात से मेरी नज़र झुकी रहती है । 
 
आजकल सोशल मीडिया पर हर कोई गीता रामायण बाईबल कुरआन गुरुग्रंथसाहिब की बड़ी अच्छी बातें हर सुबह भेजता है सभी दोस्तों परिचित लोगों परिवार के सदस्यों को । धनवान लोग उच्च पदों पर बैठे लोग तो समाजसेवी और दानवीर होने का दम भरते हैं । शायद ही कोई इन में से अपनी खुद की कमाई से कोई जनहित का कार्य करते हैं बहुधा सरकारी संसाधन पैसे से किसी योजना पर खर्च करते हैं या फिर अन्य लोगों से चंदा दानराशि एकत्र कर कोई सामाजिक कार्य करते हैं । इस में महानता की कोई बात कैसे हो सकती है । अगर हम किसी को धनराशि देकर कोई कार्य करवाते हैं तो वो अपना फ़र्ज़ निभाता है कोई उपकार नहीं करता । जिस कार्य के लिए आपको भुगतान ही नहीं मिलता बल्कि आपको नियुक्त ही उसी काम करने को किया गया है वो करना आपका फ़र्ज़ है उस का गुणगान करना उचित नहीं है । ईमानदारी से हिसाब लगाया जाए तो ये तमाम लोग सफेद हाथी जैसे साबित हुए हैं जो जनता या समाज को कोई योगदान नहीं देते बल्कि इक बोझ बन चुके हैं । कुछ लोग एनजीओ बनाकर उसी से अपनी आजीविका चलाते हैं और देश की राज्यों की सरकार के विभागों से तालमेल बिठा कर बिचौलिये की तरह काम करते हैं और इश्तिहार छपवाते हैं जनता की भलाई और समस्याओं को उठाने की बात करने के । शायर जाँनिसार अख़्तर कहते हैं :- 

                   शर्म आती है कि उस शहर में हैं हम कि जहां 

                   न मिले भीख़ तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । 




 
 
 
 


मई 06, 2023

ख़ुदा उनको फिर याद आने लगे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

    ख़ुदा उनको फिर याद आने लगे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

ख़ुदा उनको फिर याद आने लगे हैं 
वो आयत वही ,  दोहराने लगे हैं । 
 
सियासत से डरते रहे लोग नाहक 
लो नेता सभी गिड़गिड़ाने लगे हैं । 
 
ज़रा गौर से देखना कौन आकर 
ये गंगा को उलटी बहाने लगे हैं । 
 
कभी जुर्म साबित नहीं उनके होते 
वो ठोकर लगा मुस्कुराने लगे हैं । 
 
न आसां था जिनसे मुलाकात करना 
संभलना , तुम्हें ख़ुद बुलाने लगे हैं । 
 
पशेमान , कब , राजनेता हैं होते 
वो गिरगिट के आंसू बहाने लगे हैं ।  
 
किया क़त्ल हाथों से "तनहा" जिन्होंने  
वो , अर्थी हमारी , उठाने लगे हैं ।  
 


मई 04, 2023

कैसी पढ़ाई कैसी लिखाई ( हास्य रस ) डॉ लोक सेतिया

     कैसी पढ़ाई कैसी लिखाई ( हास्य रस ) डॉ लोक सेतिया

 
पकड़ी हाथ कलम न भरी दवात में कोई कोई स्याही  , 
पहाड़ यही है यही खाई पढ़ ली उन्होंने उलटी पढ़ाई ।
पहेली सब को समझ नहीं आई रुपया पैसा धेला पाई
उनका बही खाता खोले कौन किसकी शामत है आई । 
 
इक जादूगर की आंखों पर बंधी हुई थी इक काली पट्टी
कुंवे में मोटरकार चलाई रफ़्तार की सुई तक है घबराई ।
संकट से भगवान बचाए महाबली करना सबकी भलाई 
जिन राहों पर जाना वर्जित उन राहों की महिमा बढ़ाई । 
 
विद्यालय गुरुकल शिक्षक सब ज्ञानवान लोग व्यर्थ थे 
नहीं पढ़ी पढ़ाई जीवन भर कहते है जिसको चतुराई । 
लाठी जिसकी भैंस उसी की भैंस के आगे बीन बजाई 
सब तरसते छाछ नहीं मिलती दूध मलाई उसने खाई । 
 
भीख नहीं मिलती सभी को उनकी किस्मत रंग है लाई 
मांग के पेट भरते , मूर्ख खाते हक की महनत की कमाई ।
खाया जमकर अभी भी है भूखा पहेली सबको समझाई 
लाख किताबें पढ़ने वालों की होने लगी देखो जगहंसाई ।  

सबको बात उन्हीं की भाई उन जैसा नहीं कोई हरजाई 
मिल कर बैठी घर आंगन में मौसी ताई सब की भौजाई ।
एक था राजा बस राजा था नहीं थी कोई उसकी रानी 
भूल गए हम सारे लोग कहानी नानी ने क्या थी सुनाई । 
 
मौसम का मिजाज़ अलग है बादल बिन बरसात है आई 
तुमने साक़ी ग़ज़ब है ढाया नहीं बुझाई प्यास और बढ़ाई । 
झूठे सपने कितने देखे दिखलाए हक़ीक़त से नज़र बचाई 
दूल्हा भागा छोड़ बारात दुल्हन सुनती रही बस शहनाई ।