सितंबर 07, 2024

बेटिकट का सुःख दुःख ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बेटिकट का सुःख दुःख ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

चाहने से सभी कुछ हासिल नहीं होता है कीमत चुकानी पड़ती है दुनिया में हर चीज़ की मगर कुछ चीज़ें जो अनमोल नहीं भी होती कोशिश करने पर भी हर किसी को हासिल नहीं होती मानव के खुश होने निराश होने का आधार प्रतीत होती हैं । बस या रेलगाड़ी में बिना टिकट यात्रा का अनुभव अलग अलग होता है लेकिन चुनावी खेल में टिकट नहीं मिलने पर मैदान में उतरना सभी को नहीं आता है । संसद चुनाव में जिस दल की सरकार बनने की संभावना दिखाई देती है उस का टिकट मोक्ष से बढ़कर लगता है तो राज्य के चुनाव में किसी विधानसभा चुनाव में स्वर्ग का द्वार खुलता लगता है । राजनेताओं की कहानी की विडंबना यही है कि पल भर में ऊपर से नीचे पहुंच जाते हैं जबकि नीचे से ऊपर जाने में सौ खतरे उठाने पड़ते हैं ज़िंदगी का सभी कुछ दांव पर लगाना पड़ता है । नेता गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं मगरमच्छ की तरह आंसू बहाते हैं अक़्सर लेकिन कभी कभी बेबसी में भी आंखें भर आती हैं आंसू छलक आते हैं । टीवी वाले कराह पड़ते हैं कहते हैं आप क्यों रोये रोयें आपके दुश्मन जनता है रोती रहती है , रुलाने वाला खुद रोने लगता है तो लगता है जैसे उनके अश्क़ चांद तारों को डुबो देंगे और फ़ना हो जाएगी सारी खुदाई , आप क्यों रोये । ये नज़ारा देख कर इक पुरानी रचना याद आई है विषय अलग है शीर्षक को छोड़ कुछ भी मेल नहीं खाता फिर भी जो कभी अप्रकाशित रही उस से लेखक का मोह जाता नहीं है । रचना है बेटिकट यात्रा का सुःख बहुत पहले नवभारत टाइम्स अख़बार में छपी थी । पेश है वही शुरुआत और अंत आधुनिक संदर्भ में नया है । 
 
कुछ लोग बेटिकट यात्रा का जोखिम उठा लेते हैं , पकड़े गए तो दस गुणा जुर्माना या कैद का विकल्प होता है जबकि कुछ लोगों को अधिकार मिला होता है कि वो बिना टिकट यात्रा कर सकते हैं । साहित्य अकादमी का निमंत्रण पत्र मिलता है जिस में लेखक को आने जाने का किराया देने की बात के साथ इक और बात भी लिखी होती है कि जिनको सरकार से मुफ्त यात्रा की सुविधा मिली हुई है उनको ये राशि नहीं दी जाएगी । पुलिस विभाग का परिवहन विभाग से झगड़ा चलता रहता है मगर पुलिस विभाग और परिवहन विभाग के परिवार से संबंध रखना टिकट नहीं लेने का आधार और अधिकार रहता है । पत्रकारों की बात अलग है उनको इतना नहीं बहुत कुछ और चाहिए जिस की कोई सूचि बन नहीं सकती पत्रकार होने का तमगा पास हो तो कोई कठिनाई रास्ते में नहीं आती है । नेता अधिकारी सभी खुद उपलब्ध करवाते हैं जो भी चाहो यही इक कार्य है जिस में मनचाही मुराद पूरी होना अनिवार्य शर्त है । हरियाणा में हमेशा कोई शुरुआत होती है कुछ साल से महिलाओं को सरकारी बस में राखी के दिन बिना टिकट यात्रा का प्रावधान किया गया है जो शायद महिलाओं को कुछ अनुभव भी करवाता है निःशुल्क कुछ मिलना मुसीबत भी लगता है । हरियाणा की राजनीति बाहरी तो क्या हरियाणवी लोग भी समझ नहीं पाए कभी । हरियाणवी लोकतंत्र लठतंत्र नहीं न ही प्रजातंत्र जैसा है ये पारिवारिक विरासत का बोझ है जिसे जनता को ढोना पड़ता है विवश होकर ।
 
इक घटना पुरानी है नाम को छोड़ देते हैं , रेल मंत्री के सास ससुर बिना टिकट यात्रा करते पकड़े गए । इस में उनको कोई गलती नहीं थी बस अपनी बेटी दामाद को पहले बताते तो टिकट पूछना तो दूर है रेलवे स्टेशन पर अधिकारी हाल चाल जानने सुविधा उपलब्ध करवाने को तैयार रहते । रेलवे विभाग परिवहन विभाग को नेताओं के परिवार के सदस्यों की जानकारी मिलनी चाहिए । किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं जो पत्नी से ये कहे की तुम्हारे मायके वालों ने मुझे कितनी मुसीबत में डाल दिया है , हद से हद यही कहते हैं कि अपने मायके वालों से कह दें कि कोई यात्रा करनी हो तो मुझे पहले बता दें ताकि उनको आसानी होगी । हमारे राज्य में बात बिल्कुल अलग है जब भी जो भी नेता सत्ता में होता है बाप भाई चाचा ताऊ साला बहनोई मामा से दूर के नाते वाले रिश्तेदार होने का ढिंढोरा पीटते रहते हैं , हर दिन हर किसी को धमकाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं । शहर गांव गली सभी उनको इसी तरह जानते हैं अन्यथा कोई उनकी पहचान नहीं होती है । मेरे शहर  में आधे लोग ख़ास इसी कारण समझे जाते हैं बाकी आधे बाप दादा की ज़मीन जायदाद से जाने जाते हैं अन्यथा वह लोग शून्य ही होते हैं । लॉटरी पर कभी प्रतिबंध लगाया जाता है कभी सरकार खुद यही करती है लेकिन लॉटरी का टिकट खरीदना आदत होती है आसानी से धन कमाने की आजकल नाम बदल कर करोड़पति बनने का शो या ऐप्प्स पर जाल फैंकने में कौन शामिल नहीं है ।  
 
चुनाव में टिकट मिलने से जीत होना ज़रूरी नहीं है फिर भी शासक दल की टिकट मिलना आर्थिक रूप से लाभकारी होती है इसलिए भले लग रहा हो सरकार नहीं बनने वाली तब भी टिकट मिलने को कोई कोशिश छोड़ते नहीं है । दल से मिलने वाली धनराशि का कोई हिसाब किताब नहीं होता जैसे जब सरकार बनने का भरोसा होता है तब पैसे दे कर भी टिकट खरीदी जाती है । कई नेता पहले करोड़ों देते हैं टिकट पाने को अगली बार दल वाले टिकट देते हैं साथ कई गुणा धनराशि भी चुनाव लड़ने को । मगर कुछ बदनसीब होते हैं जिनको दल फिर से टिकट नहीं देता क्योंकि उसकी जगह कोई और अपनी शतरंज पहले बिछा चुका होता है । राजनीति की यात्रा में भी सावधानी रखना ज़रूरी है अन्यथा दुर्घटना घटते देर नहीं लगती है । ताश की बाज़ी में पत्तों की तरह सही पत्ते मिलना टिकट कब किस से मिला इस पर निर्भर करता है । निर्दलीय चुनाव लड़ने में जीत कर तभी अहमियत बढ़ती है जब किसी को भी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो तब घोड़ा मंडी में हर नस्ल की कीमत बराबर समझी जाती है । आज़ाद उम्मीदवार त्रिशंकु विधानसभा में नायक होते हैं ।   
 
 Haryana Election 2024: कांग्रेस में दागी और दो बार चुनाव हारने वालों का  कटेगा पत्‍ता; पार्टी किन नेताओं को देगी टिकट? - Haryana Election 2024  Congress will not give tickets to ...

सितंबर 04, 2024

रंग बदलती दुनिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      रंग बदलती दुनिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  चुनावी राजनीति की बात है मौसम रंगीन है ,  नज़र आये चाहे कुछ भी समझ नहीं आये नज़ारा हसीन है । संख्या अनगिनत है चुनाव में सभी मैदान में उतरने को तैयार हैं जिस भी दल से टिकट मिल जाए उसे लेकर विचार बदल जाते हैं । जीत हार बाद की बात है अवसर मिलने की बात है कितनी हसीं मुलाक़ात है चांद भी है और उनका साथ है वाह भाई वाह क्या बात है । फूल है हाथ में , हाथ छोड़ना नहीं , ऐसा जज़्बात है इक यही खेल है जिसमें होती करामात है बिन बादल बरसती नोटों की बरसात है । हमारा देश और समाज कभी चलता था सोच समझ कर कुछ सार्थक पहले से बेहतर बनाने की दिशा में कोशिश करते हुए । लेकिन अब लगता है जैसे हम ठहर गए हैं किसी तालाब के पानी की तरह बहना दरिया नदिया की तरह भूल गए हैं । जिसे भी देखते हैं खुद की खातिर कोई अवसर ढूंढता है अन्य सभी को पीछे छोड़ आगे बढ़ना चाहता है , इक कारवां था जिस में तमाम लोग शामिल थे उसे बिखरने दिया मतलब की खातिर । भीड़ है फिर भी हम सभी अकेले ही नहीं अजनबी लगते हैं खुद को भी पहचानना कठिन लगता है । चर्चा बहुत होती है सार्थक संवाद नहीं होता है क्योंकि विचार विमर्श करते हुए भी हमारा ध्यान निष्कर्ष को लेकर नहीं उसका हासिल क्या हो सकता है हमें ऊपर ले जाने के लिए इस की चिंता रहती है । 

सभी को इक छलांग लगाकर शिखर पर पहुंचना है सत्ता हथियानी है लेकिन सत्ता का उपयोग कर देश समाज को कोई दिशा देनी है ऐसा कभी सोचते ही नहीं । अर्थात हमारे पास सब कुछ हो सिर्फ खुद के लिए ऐसा संकीर्ण मानसिकता का समाज बन गया है । और ये इक राजनीति की बात नहीं है शिक्षा स्वास्थ्य धर्म से न्याय व्यवस्था सुरक्षा प्रणाली प्रशासन तक सभी ईमानदारी से कर्तव्य निभाना छोड़ मनमानी करने लगे हैं । विडंबना है कि बावजूद इस के सभी मानते हैं हम देश और समाज की सेवा करते हैं जबकि लूट का कारोबार करने में इक होड़ सी लगी है । कारोबार व्यौपार उद्योग से लेकर सिनेमा टीवी चैनल लेखन तक हर कोई सही राह से भटक गया है आईना बेचने लगे हैं दर्पण को देखते नहीं हैं । बारिश में जैसे मेंढक टरटराने लगते हैं हम सभी की आदत बन गई है रोज़ किसी बदले विषय पर बातचीत करते हैं । कोई गिनती नहीं रोज़ कुछ न कुछ नया होता है नव वर्ष से लेकर त्यौहार या खास अवसर ही नहीं महिला दिवस बाल दिवस स्वतंत्रता दिवस गणतंत्र दिवस से तमाम दिन निर्धारित हैं किस दिन हिंदी की बात करनी है कब संविधान को लेकर कुछ कहना है । बस उस दिन उस अवसर को छोड़ कभी किसी की चिंता करना अनावश्यक लगता है , सभाओं में भाषण भी इक सिमित परिधि में देते हैं सुनते हैं और अधिकांश औपचारिकता निभाते हैं कोई प्रभाव नहीं छोड़ते इस कदर खोखले हो गए हैं । 

कोई चित्रकार इक चित्रकारी करते हुए कितने रंगों का उपयोग करता है अपनी बात को अभिव्यक्त करने को अब लगता है तस्वीर खूबसूरत नहीं डरावनी लगती है । दोष तस्वीर का रंगों का नहीं है जो सामने दिखाई देता है उसी को दर्शाना होता है । आज इस रचना में भी बात निराशा की नहीं है अंधकार ही अंधकार है हर तरफ और कहीं कोई आशा की किरण नहीं दिखाई देती तो उस बेबसी का दर्द झलकता है शब्दों में सिर्फ कल्पना लोक में जीना संभव नहीं रचनाकार के लिए । मुझे जिस सुंदरता की चाहत है लाख कोशिश करने पर भी उसका कोई निशान कोई सिरा मिलता नहीं है तो महसूस होता है भटक गए हैं अब फिर से उसी जगह से नई शुरुआत करनी होगी जिस मोड़ से हमने राह बदल ली थी भटक गए हैं । वक़्त लौटता नहीं कभी भी तब भी सफ़र में जब समझ आये कि मंज़िल नहीं दिखाई दे रही तो सोच समझ कर इक मोड़ लेना ज़रूरी है । नहीं तो चलते चलते थक कर सोना हमेशा हमेशा के लिए नियति बन जाएगी । उलझी हुई तस्वीर है बिगड़ी हुई तकदीर है टूटी हुई शमशीर है शिकारी खुश निशाने पर है घायल हुआ हर तीर है ।
 
 
Die Geheimis der Kletterkünstler: Lianen leisten Wäldern unschätzbare  Dienste - [GEO]

 

                 

अगस्त 20, 2024

ग़ज़ब की बात यही औकात ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

    ग़ज़ब की बात यही औकात ( विचार-विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

 सुबह से शाम तक हम क्या करते हैं सोशल मीडिया पर देखने पर लगता है अमृत की वर्षा हो रही है सभी को सामाजिक संबंधों से देश की घटनाओं पर जानकारी है समझ है और घटने वाली बुरी घटनाओं से गहरी संवेदना सरोकार है । लेकिन ये कोई खबर नहीं शायद कोई इश्तिहार है पढ़ना समझना कौन चाहता है हर शख़्स खुद को समझता समझदार है । खुद नहीं पढ़ते समझते दुनिया को बतलाते हैं ऐसे में चर्चा करना किस काम का समय की बर्बादी है सब कुछ बेकार है दुनिया कहते हैं निस्सार है । ठीक से समझ लेना चाहिए इस व्हाट्सएप्प पर उपचार करने वाला खुद बीमार है । आज कोई खास दिन है कौन सा वार है कोई त्यौहार है शुभकामनाओं का लगा अंबार है लेकिन आपस में ज़िंदगी की वास्तविकता की बात नहीं होती दिखावे का शिष्टाचार है । कल रक्षाबंधन था शुभकामनाओं का दौर था सामाजिक सुरक्षा महिला क्या बड़े क्या बचपन की सुरक्षा पर कोई नहीं चिंतित था सोशल मीडिया का खुद बुना हुआ इक जाल था जी का जंजाल था जीना भी मुहाल था । कौन किसे भेज रहा कैसा संगीत था कोई सुर था न कोई ताल था वीडियो बनाया क्या कमाल था मकसद क्या था मनोरंजन करना या शालीनता का आभाव है इसकी मिसाल था । 
 
टीवी पर सोशल मीडिया पर सैर पर इधर उधर हर दिन घटनाओं की चर्चा करते हैं , लेकिन वास्तविक ज़िंदगी में सामने देख कर बच कर निकलते हैं । हमको क्या कोई कुछ भी करता रहे जब तक अपने तक आंच नहीं आती अनदेखा करते हैं । सरकार समाज धर्म प्रशासन पुलिस सुरक्षा को तैनात स्कूल कॉलेज अस्पताल सभी मनमानी करते हुए नहीं डरते हैं । अच्छाई भलाई सच्चाई कर्तव्य निभाने की बातें सभी करते हैं लेकिन स्वार्थ की खातिर हर हद से गुज़रते हैं झूठ का दामन पकड़े हैं सच से मुकरते हैं । सामने खामोश रहते हैं सोशल मीडिया पर खूब शोर करते हैं । भ्र्ष्टाचार अन्याय नफ़रत तमाम बुराईयों को देख कर विरोध करने का हौसला नहीं करते अर्थात उनको बढ़ने देने में योगदान करते हैं । देश में एकता समानता भाईचारा हो इस को लेकर कभी सोचते ही नहीं ख़ुदगर्ज़ होकर अपनी हर चाहत पूरी करने को बबूल बोने का काम करते हैं । खुद को सभी शानदार समझते हैं अन्य सभी की कमियां बताते हैं अनुचित उचित छोड़ धन दौलत नाम शोहरत पाने को क्या नहीं अपनाते हैं । इक वास्तविकता को क्यों भूल जाते हैं जैसा देश समाज है अच्छा खराब सब हम लोग बनाते हैं अनैतिक अनुचित को बढ़ावा देकर मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जा कर कुछ नहीं पाते सुनते हैं समझते नहीं हैं नज़रे चुराते हैं । हमने कितने चेहरे लगा रखे हैं आईना नहीं देखते खुद को नहीं समझ पाते हैं ज़िंदगी जितनी लंबी मिले जीते हैं बस बिताते हैं कुछ देश समाज के बेहतर बनाते तो अच्छा था मगर आखिर कुछ हासिल नहीं होता पछताते हैं । हंसना चाहते हैं खुद बस इस खातिर सभी को रुलाते हैं क्या ग़ज़ब के लोग हैं झूठ को सच बताते हैं । आज कुछ सवाल उठाते हैं जिनके जवाब आपको देश समाज की असलियत समझाते हैं । राजनेता धर्मगुरु सरकार का प्रशासन सभी जनता को न्याय क्या अधिकार तक देना ज़रूरी नहीं समझते जनता को ठोकर लगा मुस्कुराते हैं अपराधी संग दोस्ती बढ़ाकर समाज को बदतर बनाते हैं कोई भी कर्तव्य खुद नहीं निभाते आरोप दुनिया पर लगाते हैं । ये सभी अमीर बनते जाते हैं देश को लूट कर घर भरते हैं झूठी शान से इतराते हैं । सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गाते हैं तिरंगा फहराते हैं ।

सोशल मीडिया: मित्र या शत्रु - पेन2प्रिंट सर्विसेज
 
 

अगस्त 15, 2024

पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं  ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया  

जैसे कोई सोने चांदी के पिंजरे में कैद हो कर भी खुद को किस्मत वाला समझने लगे तमाम लोग ग़ुलाम बन  कर खुश हैं , कभी महसूस होता है जैसे हमको आज़ादी से जीने की आदत ही नहीं । सोच मानसिकता किसी न किसी को अपना मसीहा अपना मालिक समझने की जाती नहीं है । बोलना तो क्या हम जिस को अपना सब कुछ समझते हैं उस की कही हर बात को ख़ामोशी से सर झुकाए स्वीकार करने को अनिवार्य मानते हैं । घर परिवार समाज सरकार से दोस्ती रिश्ते नाते सभी हमको इतने बंधनों में जकड़े रहते हैं कि हम ज़िंदा रहते हुए भी रोज़ जाने कितने समझौते कर खुद को कुचलते हैं । अनुचित लगता है फिर भी साहस नहीं करते विरोध करने का और कोई भी किसी को अपनी आलोचना का अधिकार देने को तैयार नहीं है । सार्थक संवाद और आपसी वार्तालाप में कोई अन्य पक्ष भी है इस पर चिंतन करना भूल गए हैं । टकराव बढ़ते हैं और हम सभी असहमत व्यक्ति को विरोधी नहीं बल्कि दुश्मन मानने लगते हैं । इतनी संकीर्ण मानसिकता बन गई है समाज की जिस से हर कोई घुटन महसूस करता है नतीजा धनवान ताकतवर दहशत फ़ैलाने वाले मनमानी करते हैं और कोई उनसे टकराव लेने का साहस नहीं करता । अन्यायी अत्याचारी लोग समझते हैं वो अपराध कर भी गलत नहीं कर रहे बल्कि अपने अनुचित कार्यों को उचित साबित करने को कोई मकसद बताकर बचना चाहते हैं । कभी हमारे समाज में सच और न्याय के लिए लड़ने मर मिटने वाले लोग हुआ करते थे जो ज़ालिम को खुली चुनौती दे कर इंसाफ़ आज़ादी के लिए जीवन कुर्बान कर देते थे । हम ऐसे महान आदर्शवादी नायकों को लेकर खुद को गौरवशाली समझते हैं लेकिन उनके आदर्श उनकी सिखाई बातों दिखलाई राहों पर चलना नहीं चाहते क्योंकि हमको किसी भी तरह आराम से ज़िंदगी बितानी है । अब हम कहने को आज़ाद देश के नागरिक हैं जबकि हमको गुलामी करते कोई संकोच नहीं होता और ऐसा करने को समझदारी नाम देते हैं । 
 
इक कहानी है पहले भी लिखी थी उसे फिर दोहराता हूं । कोई साधु किसी पहाड़ी की डगर पर जा रहा था कि उसको किसी परिंदे की आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । घाटी में ढूंढते ढूंढते साधु को मिल गया वो परिंदा जो इक पिंजरे में था जबकि पिंजरा खुला हुआ था , साधु ने उसे अपने हाथ से पकड़ बाहर निकाला और खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया । अगले दिन जब साधु उसी डगर से गुज़र रहा था तब उसको फिर वही आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । साधु उस जगह गया तो देखा वही पक्षी खुद ही उस पिंजरे में वापस लौट आया था । तब साधु को समझ आया कि परिंदे को उस पिंजरे से लगाव हो गया है तभी वो खुले गगन को छोड़ उसी में आकर बैठ गया है । साधु ने फिर से पक्षी को बाहर निकाल कर आसमान में उड़ा दिया और फिर उस पिंजरे को भी उठाया और घाटी में गहराई में फेंक दिया था । अब परिंदा आये भी तो पिंजरा नहीं होगा तभी उसका नाता टूटेगा और आज़ाद रहना सीखेगा । विडंबना ये भी है कि अब जो साधु संत सन्यासी रहनुमा हमको मिलते हैं उनके पास कोई पिंजरा रहता है हमको आज़ाद नहीं रहने देना चाहते बल्कि कैद में रखते हैं । जब तक हम इन गुलामी के पिंजरों से प्यार करते रहेंगे हम कभी आज़ाद नहीं हो सकते भले पिंजरा खुला ही हो हमको वापस उसी में रहना भाता है ।  
 
सवाल ये है कि कैसा पिंजरा है जिस में हम ख़ुशी से कैद रहना चाहते हैं जबकि दरवाज़ा खुला हुआ है । वो है हमारे बड़े बड़े सुनहरे सपनों का खुद बुना जाल और चाहतों का क़ैदख़ाना । धन दौलत नाम शोहरत किसी भी तरह से सफ़लता की ऊंचाई पर पहुंचना चाहते हैं । अधिकांश लोग अपनी मेहनत क़ाबलियत से हासिल किए से संतुष्ट नहीं होते और जैसे भी संभव हो दुनिया से प्रतस्पर्धा में शामिल हो कर आगे बढ़ना चाहते हैं । ऐसे में होता ये भी है कि हम जो जीवन की मूलयवान चीज़ें आदर्श और सामाजिक मूल्य हैं उनका त्याग कर सिर्फ भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को महत्व देते हैं । आडंबर करते हुए सभी को दिखाने को जो नहीं हैं उसका मुखौटा बन जाते हैं अपनी वास्तविकता खो बैठते हैं । गरीब जिनके पास कुछ भी नहीं उन से बढ़कर दरिद्रता उनकी कहलाती है धर्म ग्रंथों के अनुसार जिनको सभी कुछ मिला हुआ होता तब भी और अधिक की हवस रहती है ।कभी छोटे गांव में ख़ुशी मिलती थी आपसी मेलजोल प्यार अपनापन होता था , आजकल महानगर में बड़े घर में सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन भी दिल को ख़ुशी नहीं देता बल्कि ख़ालीपन महसूस होता है । लेकिन कोई भी हमारे खुद बनाए पिंजरे को किसी गहरी खाई में फेंक हमको मुक्त नहीं करवा सकता । बंद पिजंरे में कैद रहना नियति बन गई है हमारी ।    
 
 पिंजरा

अगस्त 13, 2024

शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

  शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

जितने गुरु हैं देश और दुनिया भर में  
अकेले हमारे नगर में उस से अधिक 
राजनीति के बदलते चेहरे - मुखौटे हैं  
भीड़ है चमचे हैं चाटुकार हैं कुछ चेले हैं । 
 
सबको करना इक यही ही गोरखधंधा है
बाज़ार राजनीति का चढ़ता भाव जाता 
जिसको दिखाई नहीं देता है वो अंधा है 
महंगाई से रिश्ता कभी आता न मंदा है । 
 
सच्ची झूठी पाप पुण्य की जैसी हो कमाई
दयावान कहलाते हों चाहे ज़ालिम कसाई  
दौलत कहते हैं भला किस काम है आई 
गुंडे बदमाश सभी हैं दुश्मन भी और भाई । 
 
भावी विधायक सांसद हैं कितने कहां पर 
कभी भूल से चले गए जो तुम भी वहां पर 
अजब नज़ारा दिखाई देगा आपको तब तो 
तारे ज़मीं पर ख़ाक़ उड़ती होगी आस्मां पर । 
 
लूटना बन गया है धर्म देश समाज की सेवा 
बड़े सस्ते दाम मिलता है जहां हर एक मेवा
सोना उगलती है सत्ता की है जो अपनी देवी  
नशा है सत्ता का छूटता नहीं बेशक जानलेवा । 
 
दीमक यही देश को लग गई है हर इक जगह 
खोखला कर दिया है समाज को लो सब सह
नहीं कोई इनसे बचा सकता है जनता बेचारी 
नया क्या पुराना क्या सब कुछ रहा है अब ढह ।
 
पेड़ राजनीति के आम हैं शाखों पर केले लगे हैं 
शहतूत की जगह बाग़ में बस कड़वे करेले लगे हैं
जिधर देखते हैं सभाएं आयोजित कर रहे हैं चोर 
शहर शहर गली गली अब कितने ही मेले लगे हैं ।     
 
 
 
 

अगस्त 08, 2024

दर्द ए दिल की दवा करते हैं ( हास्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

 दर्द ए दिल की दवा करते हैं  ( हास्य  - कविता ) डॉ लोक सेतिया

शायद नहीं यकीनन हम असली कम नकली अधिक बन गए हैं  
सोशल मीडिया से टीवी शो , सिनेमा या किसी सभा में जाकर ,
 
भावनाएं जागती हैं , हम अश्क़ बहाते हैं संग नाचते झूमते गाते हैं 
जगह वातावरण बदलते ही भूलकर , फिर पहले जैसे बन जाते हैं ।
 

दोस्ती प्यार रिश्तों का हर दिन कोई बाज़ार सजाते हैं बनाते हैं 
कीमत मिलती है , बिकते हैं मोल चुका कर खरीद कर ले आते हैं ,
 
भरोसा अजीब है कहते हैं करते हैं बार बार मगर उसे आज़माते हैं
जहां कोई किसी साथ मिल के ख्वाबों की दुनिया अपनी बसाते हैं ।  

 
क्यों कहते हैं कि शीशा हो या दिल हो आखिर टूट ही जाता है ,
दिल कोई खिलौना तो नहीं जो इक टूट जाए तो दूसरा ले आए 
 
दिल अपने पास रहता तो हर कोई संभाल कर रखता हमेशा ही 
इश्क़ में दिल कब किस पर फ़िदा हो जाता है बस में नहीं रहता । 
 
 
दिल चीज़ ही ऐसी है जैसे , कोई बेटी इक दिन पराए घर जाना है 
मुहब्बत का यही अफ़साना , दिल से दिल का नाता इक बनाना है ,
 
कहते हैं जिसे प्यार कोई समझा है न कभी जाना , किस पे आना है 
दिल की बस्ती में बर्बाद लोग रहते हैं जिनका नहीं कोई  ठिकाना है ।  
 

कितने पुल बनते ही टूटने को हैं फिर से बनवाए जाते हैं , बीच धारे 
कितनी भी लंबी दूरी हो कितना तेज़ बहाव गहरा पानी बीच बहता हो  ,
 
टूटे बंधन जोड़े जाते हैं इधर से उधर से सभी फिर मिल जाते किनारे 
पहले से चौड़े और मज़बूत दरिया पर पुलों से नाते निभाए ही जाते हैं । 
 

दिल किस ने किसका तोड़ा , ये अजब पहेली इक गेंदा इक चमेली है 
दिल का ऐतबार मत करना कभी प्यार मत करना कहती अलबेली है ,
 
ये खेल है लेकिन बन जाता है तमाशा कोई भी देता नहीं तब दिलासा  
आशा सुनहरे सपने बिखर जाते हैं बचती है सिर्फ हताशा और निराशा । 
 

दुनिया बदल गई है आदमी में दिल ही नहीं है मिलता सीने में सभी के 
किस्से हुए पुराने आशिक़ महबूबा साथ मरते सच्ची उनकी आशिक़ी के ,
 
इक बाज़ार बन गया सच भी कल्पना का सोशल मीडिया पर भी जहां 
झूठा है आसमान भी फरेब का जहां अकेला हर आशिक़ का है कारवां । 
 
 
टूटे हुए दिल का अंबार लगा है बाज़ार में इक ऐसा इक संसार बना है 
नाकाम मुहब्बत वालों की महफ़िल खूब जमती है जश्न हो जैसे कोई ,
 
पुरानी इक दिन तस्वीर बदलती है अपनी सबकी तकदीर बदलती है 
रांझा मजनू लैला सोहनी महीवाल बदलते हैं जूलियट हीर बदलती है ।  
 

बेवफ़ाई भी कभी कभी ज़रूरी होती है बिछुड़ना कोई  मज़बूरी होती है 
हर प्रेम कहानी लाजवाब लगती है , दास्तां अगर आधी अधूरी होती है ,
 
उसने बदला अपना रास्ता क्या हुआ हम भी नई इक और राह करते हैं
खुद तबाह नहीं होते किसी की चाहत में , दर्द ए दिल की दवा करते हैं । 
 

 साहित्य दुनिया | क़लक़ मेरठी का मशहूर शेर.. तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर  सही तू नहीं और सही और नहीं और सही | Instagram
 
 

 

अगस्त 06, 2024

एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया 

खरी बात तो ये है कि हमको उसकी याद भी नहीं आती अब , कौन ढूंढता उस को जो संविधान ने स्थापित किया है । सालों तक जैसे बूढ़े बज़ुर्गों की खैर ख़ैरियत नहीं लेने पर किसी को खबर नहीं होती की कब वो जो इधर उधर दिखाई देते थे हर राह चलते से दुआ सलाम किया करते थे , अचानक खो गए या शायद हमारी दुनिया को छोड़ चले गए । जब किसी के होने नहीं होने का आभास भी नहीं होता , ऐसे में अनचाहे लोग या फिर चाहे लोकतंत्र की व्यवस्था हो , गायब होना अचरज की बात नहीं है । बड़ी अजीब बात है हमको खुद ही अपनी खबर नहीं और ज़माने की खबर रखने की बात करते हैं । अजीब नहीं हमको पड़ोसी देश चाहे पाकिस्तान हो या बंगलादेश या लंका से रूस अमेरिका कोरिया तक में क्या क्यों घट रहा है समझते हैं , खुद अपने घर आंगन में जो भी होता रहे हमको दिखाई ही नहीं देता । हर किसी की गलतियां ढूंढते हैं खुद कभी सही राह पर चलते ही नहीं , जागो अब नींद से और सपनों को हक़ीक़त समझना छोड़ जो वास्तविकता है उस को समझो पहचानो । 
  
  एक था लोकतंत्र , सोचो याद है कैसा था , उसका क्या हुआ कभी किसी ने उसे बंधक बना लिया , कभी किसी ने उसको ज़िंदा ही दफ़्न कर उसकी जगह कोई झूठा नकली लोकतंत्र ला कर सामने खड़ा कर हमको विवश कर दिया उसे ही वास्तविक लोकतंत्र स्वीकार करने को । राजनेता और अधिकारी धनवान लोगों और साहित्य कला समाज का दर्पण अख़बार टीवी सिनेमा से गठजोड़ कर हम सभी को छलिया बन ठगने में सफल नहीं होते अगर हमने अपनी समझ अपने विवेक से काम लेना छोड़ कभी इस कभी उस पर भरोसा नहीं किया होता । 
 
आज आपको हमारे खुद अपने ही देश के विधि द्वारा स्थपित संविधानसम्मत लोकतंत्र की व्यथा कथा बताते हैं । हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस का जश्न मनाते हैं लेकिन ख़ुशी मनाने में मकसद को भूल कर सिर्फ आडंबर करते हैं झूमते गाते हैं केवल इक रस्म निभाते हैं । देश को गुलामी से मुक्त करवाया था लोकतंत्र को अपनाया था हम सभी भारतवासी हैं धर्मनिरपेक्ष समाज हैं को आदर्श बनाया था ।   शायद इक सबक हमको किसी ने नहीं पढ़ाया था हम ने भी कर्तव्य निभाना है इस बात को भुलाया था हम अलग अलग समझने लगे खुद को एकता की शपथ को सभी ने भुलाया था । धोखा हमने हमेशा ही खाया था चिकनी चुपड़ी बातों से प्रभावित होकर फरेबी लोगों को अपनाया था , बिना देखे समझे रहनुमा झूठे मक्क़ार लोगों को बनाकर जो बोया था वही पाया था । मतलबी लोगों को देश सेवा करना नहीं भाया है सत्ता का नशा इस हद तक चढ़ा था जिसे भी अवसर मिला भ्र्ष्टाचार किया ज़ुल्म ढाया था । आज़ाद हो गए थे फिर भी उन विदेशी शासकों की रिवायतों को छोड़ा नहीं बदला नाम रंग ढंग उनका दोहराया था । नवाब राजा साहब  सरदार बहादुर  राय बहादुर खान बहादुर के ख़िताब देते थे अंग्रेजी शासक अपने चाटुकारों को आज़ाद देश की सरकार ने उनका उपयोग जारी रखा नामकरण कर बदलाव कहने को मगर भावना और मकसद वही रहा । 
 
सत्ता ने राजनेताओं अधिकारियों सुरक्षा तंत्र को निरंकुश बना दिया और जनता द्वारा निर्वाचित चयनित नियुक्त लोग खुद को जनसेवक नहीं राजा और देश का मालिक समझ बैठे । इसकी शुरुआत अलग अलग नाम से राजनैतिक दल बनाने से हुई जैसे लोग कोई भी एक ही सामान अपने अपने लेबल से बेचते हैं और कहते हैं हमारा सामान शुद्ध है मिलावटी नहीं । लेकिन विडंबना की बात है कि किसी भी राजनैतिक दल के पास ख़ालिस लोकतंत्र था ही नहीं बल्कि सभी ने कुछ भी अपनी साहूलियत से मिश्रण बना कर घोषित कर दिया गुणवत्ता का अपना पैमाना अपनाते हुए । जैसा बाज़ार में देखते हैं किसी शहर गांव राज्य में कोई वस्तु खूब बिकती है और उसकी पहचान बन जाती है , बिल्कुल उसी तरह सभी दलों की दुकानें चल निकलीं और सभी जमकर कमाई करने लगे । कुछ ही दिन में भिखारी का राजा बनना देख कर पैसे वाले उनके धंधे में निवेश कर मालामाल होते गए । राजनेता चुनाव जीते या हारे कारोबारी लोग कभी भी घाटे में नहीं रहे उनको समझ होती है बाज़ार में झुकाव किधर है जिसका पलड़ा भारी हो उस तरफ चले जाते व्यौपारी हमेशा यही करते हैं । 
 
कुछ साल पहले लोकतंत्र ऐसा खोटा सिक्का बन गया जो किसी काम का साबित नहीं होने पर भी सबसे अधिक बिक्री वाला कमाई का माध्यम साबित हुआ । किसी के पास भी लोकतंत्र था ही नहीं फिर भी सभी ने बड़े आलीशान शोरूम खोलकर उसे बेचना शुरू किया , आयात भी निर्यात भी होने लगा उस का जिस को बनाना कोई जानता तक नहीं । भाषण में लोकतंत्र की हत्या उसकी गंभीर हालत पर चिंता जताकर खूब तालियां बजवाई गईं पहले उसका नाम निशान मिटा कर । ऐसा अजूबा भारत देश में ही संभव है हर कोई संविधान लोकतंत्र की बात करता है बिना कोई परिचय उनसे किए ही । अपनी पीठ थपथपाना अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनना अब क्या कहते हैं इसे कौन समझता है । गिनती करते हैं 140 करोड़ जनसंख्या 77 साल होने को हैं आज़ाद हुए लेकिन हासिल क्या हुआ है ध्यान से समझते हैं । 
 
सभी अधिकार सभी सुख सुविधाएं साधन संसाधन ऊपर वाले ख़ास सांसद विधायक मंत्री अधिकारी विशेषाधिकार प्राप्त वीवीआईपी धनवान नाम शोहरत वाले अभिनेता खिलाडी पत्रकार से लेकर धर्म और सामाजिक संगठन बनाकर मनमानी करने वालों की खातिर आरक्षित हैं । साधरण जनता से सभी कुछ ही नहीं जीने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक छीन कर उनको गुलामी से बुरी दशा में पहुंचा कर भी शासक वर्ग रत्ती भर भी शर्मसार नहीं हैं । पुलिस प्रशासन किसी बंदर के हाथ तलवार की तरह है जनता का दमन करने को न्याय और न्यायपालिका तमाशाई बने खड़े हैं । भारत लोकतांत्रिक देश था लेकिन वो जो एक था लोकतंत्र उसका क्या हुआ इक पहेली बन गया है । गायब है अपहरण हुआ है या किसी कैदखाने में तड़प रहा है किसी शाहंशाह की महलनुमा हवेली में । आपको रौशनियां नज़र आती हैं शानदार इमारतें सड़कें क्या क्या नहीं इतना ही नहीं चांद को छूने की बात करते हुए इस असलियत को भुला दिया है कि वो घर मकान वो इक आशियाना 77 साल बाद नहीं 60 प्रतिशत जनता बेघर है और 20 प्रतिशत के पास बहुत अधिक है जिसे वो बर्बाद कर रहे हैं ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए हमको । 
 
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अगस्त 04, 2024

इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया

    इक ख़्वाब सच होने की चाहत ( फ्रैंडशिप डे ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी गुज़ारी है यही ख़्वाब देखते तलाश करते कुछ भी नहीं सिर्फ इक दोस्त हमेशा हर कदम साथ चलने वाला हालात बदलने पर भी कभी नहीं बदलने वाला लेकिन अभी तक कोई भी नहीं मिला तो सोच रहा हूं कब तक वही पुरानी बातें ग़ज़ल गीत कुछ मीठी यादें दोहरा कर इस दिन की ख़ुशी मनाते शुभकामनाएं भेजता रहूंगा । आज तकदीर को स्वीकार करना होगा झूठी तसल्ली से दिल बहलाना छोड़ समझना होगा कि यहां कहीं भी नहीं है कोई दोस्ती प्यार मुहब्बत की दुनिया । जिसे भी अपना दोस्त माना ज़िंदगी की सबसे बड़ी दौलत जिसे समझा वही जाने कब किसी मोड़ से कोई बहाना भी बनाये बगैर चुपचाप अलग राह पर चला गया मुझे उस मोड़ पर खड़ा छोड़कर । नहीं कोई शिकायत कोई गिला नहीं है नाराज़ होने का अधिकार मिला ही नहीं फिर भी इक मधुर एहसास रहता है थोड़ी दूर तक ही सही दोस्त बनकर कुछ लोगों ने साथी समझा तो सही । अब सोचता हूं तो लगता है कितने खुशनसीब होंगे वो लोग जिनको कोई सच्चा दोस्त जीवन में मिला होगा । लोग सुनता हूं खुद अपने आप से प्यार करते हैं मुझसे वो भी हुआ नहीं कभी अब भले आप मुझे निराशावादी ही कहें मंज़ूर है ये तोहमत भी हमको ग़म ही ग़म मिले हैं तो दिखावे को झूठी आशावादिता कहां से लाएं । आपको कैसे समझाएं पहली ही ग़ज़ल कितनी बार दोहराएं , 1973 में कहा था ' किसे हम दास्तां अपनी सुनाएं , कि अपना मेहरबां किस को बनाएं '। पचास साल बाद 2023 में उसे बदल कर बस इतना ही कहा ' सुनो गर दास्तां तुमको सुनाएं , तुम्हें हम मेहरबां अपना बनाएं '। पचास साल में दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है और हम लगता है उसी पुरानी राह पर इक मोड़ पर खड़े ही रह गए हैं । चलना ज़रूरी होता है चलते भी रहे हैं अकेले ही मगर समझ नहीं पाये किधर जाना था किस तरफ़ बढ़ते रहे कि मंज़िल हमेशा दूर होती गई । अब तो विधाता से भी शिकवा करना छोड़ दिया है क्यों हमारे भाग्य में इक शब्द लिखना भूल गए दोस्ती और प्यार । 
 
कभी इक ग़ज़ल में शेर कहा था ' हमें इक बूंद मिल जाती हमारी प्यास बुझ जाती , थी शीशे में बची जितनी पिला हमको वही देता '। दोस्ती की डगर पर हमको हमेशा कांटें ही कांटे बिछे मिले मगर हमने तो उनसे भी हमेशा प्यार से निभाया रिश्ता ज़ख़्म खाकर भी हंसते रहे कभी दर्द की दवा नहीं मांगी किसी से भी । दोस्ती के जाम में मय की जगह विष भी ख़ुशी ख़ुशी पीते रहे यही समझ कर कि ये भी कम नहीं है भला किसको फुर्सत है किसी को ज़हर भी दे आराम की ख़ातिर । आगाज़ से अंजाम तलक दोस्ती की डगर का ये सफ़र सुहाना नहीं भी रहा तो क्या हुआ इक झूठे सपने को हक़ीक़त मानकर ही सही थोड़ा सुकून मिलता तो रहा है ।   उम्र भर की हमने ईबादत जहां कहते हैं सब लोग वहां पर कोई ख़ुदा ही नहीं था । दिल आज भी नहीं मानेगा कि कोई अपना दोस्त हमराज़ हमख़्याल नहीं इस ज़माने में और उन सभी को शुभकामाएं और बधाई संदेश भेजना ही होगा । किसी ने समझा मुझको अपना चाहे नहीं मगर मैंने तो हर किसी को अपना दोस्त ही समझा है क्योंकि इक यही सबक सीखा है दुश्मनी करना रूठना किसी से हमको आता ही नहीं । बस इक ख़्याल है जो जाता ही नहीं , सच बोलना तुम न किसी कभी  । 
 

सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

सच बोलना तुम न किसी से कभी 
बन जाएंगे दुश्मन , दोस्त सभी । 
 
तुम सब पे यक़ीं कर लेते हो 
नादान हो तुम ऐ दोस्त अभी । 
 
बच कर रहना तुम उनसे ज़रा 
कांटे होते हैं , फूलों में भी ।  

पहचानते भी वो नहीं हमको 
इक साथ रहे हम घर में कभी । 

फिर वो याद मुझे ' तनहा ' आया 
सीने में दर्द उठा है तभी ।
 
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अगस्त 02, 2024

लोग ही सारे बुरे हैं ( तरकश के तीर ) डॉ लोक सेतिया

          लोग ही सारे बुरे हैं ( तरकश के तीर ) डॉ लोक सेतिया  

यही होने लगा है सभाओं में , धार्मिक उपदेश देने वाले आलीशान भवन में उपस्थित भीड़ को जैसे लताड़ लगा रहे होते हैं । कहते हैं लोग धार्मिक तौर तरीके भूल गए हैं ऊपरवाले की पूजा इबादत नहीं करते सब अपने स्वार्थ को महत्व देते हैं । सबको ही जैसे सभी को कटघरे में गुनहगार साबित करने का प्रयास किया जाता है , शायद कोई इस पर विचार नहीं करता कि अगर ऐसा वास्तव में है तो फिर मंदिर मस्जिद गिरजाघर और गुरूद्वारे में धार्मिक अनुष्ठान आयोजन में इतनी संख्या में कौन दिखाई देते हैं । क्या जो लोग ऐसा कहते हैं बस वही अच्छे हैं बाक़ी सभी लोग ख़राब हैं , ये कैसे नवाब हैं । कुछ ऐसा ही धनवान लोग शासक बनकर सत्ता पर बैठे लोग ख़ुद को महान और जनता को नासमझ नादान समझते हैं शोहरत की बुलंदी पर शैतान भी अपने को भगवान समझते हैं । अपनी लूट को भी तमाम लुटेरे किसी का दिया वरदान समझते हैं , फ़र्ज़ निभाने को सरकार गरीबों पर एहसान समझते हैं । 
 
सोशल मीडिया पर भेजते हैं अधिकांश संदेश प्रचारित करते हुए कि कोई भी दोस्ती घर परिवार समाज के प्रति कर्तव्य नहीं निभाता है लेकिन कभी किसी भी ऐसे संदेश को नहीं सांझा करते कि जीवन में कितने लोगों ने कितनी बार बिना स्वार्थ भलाई करने का कार्य किया अपने पराये सभी की ख़ातिर । मतलब ये कि कोई जीवन भर भलाई करता रहे दुनिया को दिखाई नहीं देता लेकिन सभी औरों में बुराई तलाश करने का अवसर ढूंढते रहते हैं । जहां एक तरफ अवगुण तलाश करते हैं अपने करीब नाते रिश्ते दोस्त और गली मोहल्ले में वहीं जो धनवान या राजनेता कितने ही अपराध कर किसी न किसी ढंग से सज़ा से बच निकलते हैं कानून से खिलवाड़ कर उनकी आयोजित सभाओं में सब जानते हुए भी लोग तालियां बजाते हैं । तब किसी को उन में अपराधी बलात्कारी दिखाई नहीं देता है , हद तो ये है कि जो धर्मगुरु उपदेशक बनकर सभी को धर्म का उपदेश देते हैं ऐसे गुनहगार को अपना शिष्य बनाकर उसकी बढ़ाई करते हैं । 
 
सत्ताधारी शासक ऐसे अपराधी से गठजोड़ कर राजनीति को गंदा कर जाने कैसे किसी धर्म और संविधान की न्याय की बात कर सकते हैं । कभी कभी महसूस होता है इस आधुनिक समाज में अच्छाई और सच्चाई कोई अभिशाप हैं भलेमानुष बनकर किसी को दुनिया जीने क्या चैन से रहने तक नहीं देती है । शायद तभी इसको कलयुग कहते हैं क्योंकि कलयुग में पापी अपराधी बदमाश आदरणीय कहलाते हैं जबकि शराफ़त से आचरण करने वाले अपमानित होते हैं । क्या यही आसपास नहीं होता है हर दिन सोचना ।  
 
इस युग में पैसा ही भगवान बन गया है , पैसे की खतिर धनवान और शासक ही नहीं धर्मउपदेशक से लेकर तमाम बड़े आदरणीय कहलाने वाले शिक्षक डॉक्टर वकील न्यायधीश समाजसेवा का दम भरने वाले तथा सच का झंडाबरदार खुद को घोषित करने वाले अपना ईमान तक त्याग कर झूठ के दरबार में खड़े मिलते हैं । जनता का धन सरकारी संसाधन सभी ऐसे ही लोगों को खैरात में मिलता हैं । वास्तव में इनका गुज़ारा अपनी ईमानदारी से मेहनत से की कमाई से हो ही नहीं सकता है । इन सबका जैसे संगठित कोई गिरोह है जिसने अपने नियम कायदे ही नहीं नैतिकता के मूल्य तक बदल कर अपनी व्याख्या कर अनुचित को उचित करार कर दिया है । भगवान और धर्म को इक बाज़ार बनाकर ये सभी अपने अधर्म अन्याय अनाचार को छिपाना चाहते हैं , सभी को बुरा साबित कर खुद महान कहलाना चाहते हैं । 1970 में गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने गोपी फ़िल्म में बिल्कुल यही भविष्यवाणी की थी । एक एक शब्द सच साबित हुआ है ध्यान से पढ़ना इसको ।

रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलयुग आयेगा , हंस चुगेगा दाना दुनका कव्वा मोती खायेगा । 

सुनो सिया कलयुग में काला धन और काले मन होंगे , चोर उच्चके नगरसेठ और प्रभु भक्त निर्धन होंगे। 

जो होगा लोभी और भोगी वो जोगी कहलायेगा , हंस चुगेगा दाना दुनका कव्वा मोती खायेगा ।

 रामचंद्र कह गए सिया से - Ramchandra Keh Gaye Siya Se Lyrics

 

जुलाई 31, 2024

दिल की धड़कन नज़र के नूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

     दिल की धड़कन नज़र के नूर रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

दिल की धड़कन नज़र के नूर रहे 
पास रह कर भी कितना दूर रहे । 
 
एक होंठों तलक पहुंचा न कभी 
जाम हाथों में सब भरपूर रहे ।
 
कौन समझा कभी भी बात यही 
हुस्न वाले सदा मगरूर रहे । 
 
वो कभी जाम को छूते ही नहीं 
पर हमेशा नशे में चूर रहे । 
 
जब मिलाई नज़र मुंह फेर लिया 
ये अजब इश्क़ में दस्तूर रहे । 
 
बेबसी क्या है मुश्किल कुछ कहना 
सब ही अपनी जगह मज़बूर रहे ।
 
चारागर भी बना दुश्मन अपना 
ज़ख़्म बनते सभी नासूर रहे ।  

बेगुनाही हमारा जुर्म बनी 
फ़ैसले हमको सब मंज़ूर रहे ।
 
कौन अब नाम रखता याद यहां 
हम भी ' तनहा ' कभी मशहूर रहे ।  



 

जुलाई 29, 2024

स्वर्गवासी और नर्कवासी महागठबंधन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  आधा सच है आधा झूठ ( अधूरी बात पूरी ) डॉ लोक सेतिया 

                  राजा के पुण्य का प्रभाव ( अंतर्यात्रा ) संकलित 

एक धर्मात्मा राजा थे । मृत्यु होने पर यमदूत उन्हें अपने साथ ले गए । पूर्व काल में किए एक पाप की उनकी सज़ा सिर्फ़ इतनी थी कि उन्हें नर्क में ले जाकर लौट आना था । यमदूत नर्क में ले गए , तो वहां के प्राणियों की चीत्कार से राजा का दिल दहल गया । इसके बाद राजा को स्वर्ग लेकर चलने लगे , तो नर्क के प्राणियों ने यमदूतों से आग्रह किया कि राजा को कुछ समय यहां पर और ठहरने दीजिये । इनसे टकरा कर जो हवा हमें स्पर्श कर रही है , उससे बड़ी ही शांति मिल रही है । 

राजा ने पूछा ' इनको मेरे शरीर से टकराने वाली हवा से शांति क्यों मिल रही है । यमदूतों ने कहा कि आपके पूर्व में किये गए पुण्य कर्मों की वजह से इनके पाप क्षीण हो रहे हैं । राजा ने यमदूतों से कहा ' यदि मेरी वजह से इतने सारे जीवों को सुःख मिल रहा है , तो मैं यहीं रुकने को तैयार हूं '। यमदूत बोले राजन आप चलिए । देखिए आपको लेने स्वयं धर्मराज और इंद्रदेव आए हैं । 

राजा ने धर्मराज और इंद्रदेव से कहा , ' मैं स्वर्ग जाने की बजाय यहां ठीक हूं ' । इंद्र ने कहा ये लोग अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं । आप हमारे साथ चलें । 

राजा ने कहा ' मेरे लिए दूसरों को शांति पहुंचाना , स्वर्ग सुःख से ज़्यादा महत्वपूर्ण है ' । इंद्रदेव ने कहा राजन इस से तुम्हारे पुण्य और बढ़ गए हैं , इन्हीं के प्रभाव से ये नरकगामी भी सदगति को प्राप्त होंगे । इसके बाद राजा उनके साथ स्वर्गलोक चले गए ।

             ( अमर उजाला 29 जुलाई 2024 अंक से आभार सहित ) 

  स्वर्गवासी और नर्कवासी महागठबंधन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   लिखने वाले जब लिखते हैं तब उनको नहीं मालूम होता कि भविष्य में कैसे राजा कैसा शासन कैसे लोग धरती पर आधुनिक संस्करण में कथाओं को बदल कर क्या से क्या कर देंगे । चलो देखते हैं जब सभी को स्वर्ग मिल गया तब नर्क की ख़ाली जगह कौन कौन रहने लगा । कोई था इक ऐसा जिस ने स्वर्ग को भी ठोकर लगा दी थी क्योंकि उसको कारोबारी समझ थी कि स्वर्ग में नर्कवासी लोगों को चौकीदार सेवक नौकर चाकर बनाया जाएगा उनको उच्च वर्ग से अलग नीचा समझा जाएगा । जब वो नर्क छोड़ने को तैयार नहीं हुआ तो ऊपरवाले की चिंता का विषय बन गया कि किसी एक की खातिर नर्क की तमाम व्यवस्थाएं जारी रखना कठिन होगा । पूछने पर उस ने दोबारा धरती पर जाने का विकल्प चुना ताकि वहां अपने लिए मनचाहा वातावरण तलाश कर सके स्वर्ग उसकी पसंद कभी नहीं था । धरती पर शासक बन कर राजनीति को कीचड़ अथवा इक दलदल बना दिया जाएगा उसका इरादा था , धर्मराज इंद्रदेव यमदूतों से आग्रह किया अब जब मेरे सभी पाप क्षीण हो गए हैं तो मुझसे भी उस राजा की तरह अपनी मर्ज़ी पूछनी चाहिए । धर्मराज भी उस की मीठी मीठी बातों में आ गए और कह दिया बताओ आपको किधर जाना है । उसने कहा मुझे लगता है कि विधाता की निर्धारित व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया जाना चाहिए इसलिए मुझे धरती पर नर्क बनाना है और उस पर शासन करना है । धर्मराज दुविधा में पड़ गए तो उसने समझाया चिंता नहीं करें आजकल उस धरती पर कोई भी मरने के बाद नर्क नहीं जाता है सभी स्वर्गवासी कहलाते हैं । मुझे स्वर्ग को भी नर्क बनाना आता है और मेरे कुछ सहयोगी हैं जिनको इस खेल में आनंद आता है । लेकिन मेरा वादा है कि ऐसा करते हुए भी मैं भगवान और धर्म का डंका बजाता रहूंगा , स्वर्ग का सपना बेच कर जनता का दिल बहलाता रहूंगा । उस व्यक्ति को अजीब ढंग से सभी को अपनी कही गई झूठी बात को सच समझने का गुण हासिल था और उसने विधाता तक को अपना विधान बदलने की बात पर पुन: विचार करने पर सहमत करवा लिया था । ऐसा कहा कि आदमी को नर्क का भय और स्वर्ग की चाहत भगवान की स्तुति उपासना करने को ज़रूरी है । अन्यथा दुनिया ईश्वर पर भरोसा करना छोड़ देगी । बस इस तरह किसी ने देवताओं से वरदान हासिल कर लिया था और शासक बनकर नर्क से बदतर समाज बनाकर मोगैंबो खुश हुआ का अट्हास लगा रहा है ।  उस का कमाल है अपने खास लोगों को धरती पर ही स्वर्ग से सुंदर माहौल उपलब्ध करवाता है लेकिन जिनको स्वर्ग देखने की कामना है उनको मौत का टिकट देता है गारंटी के साथ । उसका शासन दोधारी तलवार है जिस में लालच भी है और डर भी सरकार चलाने को । उसके शासन में खुश कोई भी नहीं दो तरह की व्यवस्था है कुछ को सभी कुछ कुछ को कुछ भी नहीं मगर ख़ैरात मिलती है ज़िंदा रहने को ज़िंदगी जीने को नहीं । 

ऊपर जब स्वर्ग वालों को नर्क वालों के आगमन का पता चला तो स्वीकार कर लिया यही समझ कर कि उन में बहुत काबिल लोग भी हैं जो मुमकिन है स्वर्ग का कुछ विकास करने में उपयोगी साबित हों । एक तो भीड़ बढ़ गई दूसरा शांति भंग होने लगी मगर बदलाव अच्छा लगता है शुरुआत में । लेकिन नर्कवासी स्वर्ग में आकर भी मनचाहा वातावरण नहीं बनवा पाए तो हलचल होने लगी और बात सत्ता पलटने की होने लगी । आखिर लोकतंत्र से बेहतर क्या हो सकता है मगर गिनती में नर्कवासी अधिसंख्यक और स्वर्गवासी अल्पसंख्यक होने से समस्या विकट लग रही है । सब उल्टा पुल्टा होने की संभावना दिखाई दे रही है ऐसे में सबसे अधिक चिंता उसी की है जिस ने दुनिया बनाकर इक मुसीबत मोल ले ली थी अब ये नई आफ़त सामने खड़ी है ।
 
 
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जुलाई 28, 2024

ख़्वाब अधूरा रह गया ( निबंध ) डॉ लोक सेतिया

           ख़्वाब अधूरा रह गया ( निबंध ) डॉ लोक सेतिया  

बड़ी गहरी नींद आधी रात को कभी खुल जाती है और लगता है कोई सुहाना ख़्वाब देख रहे थे जो इक ऐसे मोड़ पर था कि सोचने पर समझ नहीं आता कि आगे क्या होता । दिल चाहता है काश फिर से नींद आये और वही सपना दोबारा नज़र आये आख़िर तक । ज़िंदगी भी कुछ ऐसा ही आधा अधूरा सपना है और हम बस नींद से जाग कर किसी उधेड़ बुन में लगे रहते हैं हमारा अपनी नींद अपने ख़्वाब पर कोई बस नहीं चलता है । सवाल सिर्फ अपना नहीं होता है जाने कौन कौन जुड़ा रहता है ख़्वाबों की दुनिया का विस्तार असीम है । ऐसा भी होता है कि हमको याद ही नहीं रहता वो कौन था जो सपनों में आया था , नहीं ये कोई फ़िल्मी गीत की प्यार की बात नहीं है । शायद सभी को कुछ अजनबी अनजान लोग मिलते हैं सपने में जिनसे कभी मिलने की कोई घटना दिमाग़ में नहीं ध्यान आती है । इक और भी बात होती है बचपन से ही किसी को कोई डरावना ख्वाब दिखाई देता है बार बार बड़े होने पर भूल जाता है लेकिन उसकी इक याद रहती है । बचपन में कहते हैं दादी नानी की कहानियां सुनते सुनते बच्चों को नींद में परियां दिखाई देती हैं मगर सबको हसीन मधुर ख़्वाब नसीब होते नहीं हैं । अपने अपने ख़्वाब सभी के होते हैं हर उम्र में कभी सुनहरे कभी आकाश पर उड़ने जैसे सपने देखना अच्छा लगता है । देश और समाज को लेकर कुछ महान लोग जीवन व्यतीत कर दिया करते हैं , हमारे महान विचारकों ने देश को गुलामी से मुक्त करवा आज़ाद भारत का इक सपना सच करना चाहा था जो अभी तक अधूरा ही नहीं है बल्कि हमने उसको भुला दिया है । आज भी अधिकांश लोगों के लिए समान अवसर और अधिकार सिर्फ इक चाहत है जो पूरी नहीं हो सकती क्योंकि हमारे सत्ताधारी लोगों प्रशासन के अधिकारियों न्यायधीश सुरक्षा को नियुक्त पुलिस सैनिकों को देश और जनता की नहीं सरकार और उस के बदलते आदेश और मनमाने नियम कायदे कानून की पालना संविधान से अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती है । जब इंसान विवेक से निर्णय नहीं लेता तब किसी मशीन की तरह कार्य करता है संवेदनाशून्य होकर । 
 
राजनेता अधिकारी पुलिस न्यायधीश से लेकर उद्योगपति व्यौपारी तमाम धनवान साधन-संपन्न लोग इस सीमा तक स्वार्थी और निष्ठुर हो गए हैं कि उन में मानवीय भावनाओं का अंत हो चुका है शायद ही किसी को आम जनता के दुःख दर्द से कोई सरोकार होता है । भाषण देने से कुछ नहीं हो सकता जब आपका आचरण ही सामान्य वर्ग के विपरीत हो , नागरिक को उचित अधिकार भी हासिल करने को हर दिन इक लड़ाई लड़नी पड़ती है जबकि उच्च वर्ग और शासक वर्ग धनवान वर्ग जो चाहे छीन कर हासिल कर लेता है । कहने को हम कितने ही धर्मों को मानने वाले धार्मिक समाज हैं लेकिन छल कपट धोखा और लूट कर सब कुछ अपने लिए एकत्र करने को शोषण और अन्याय करने में कोई संकोच नहीं करता है । आजकल लगता है जैसे हर बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है वही हमारे समाज और लोकतंत्र का तौर बन गया है । नाम शोहरत दौलत ताकत जितनी बढ़ती जाती है अधिक हासिल करने की हवस उतनी बढ़ती जाती है । ऊंचे से ऊंचे पद पर बैठ कर भी किसी को संतोष नहीं होता है और इक होड़ लगी रहती है सबसे तेज़ सबसे आगे सबसे ऊपर जाना है । 
 
आपका कद आपका चरित्र आपके कार्य आपको खुद जिस ऊंचाई तक पहुंचाते हैं उस से और महान बड़ा दिखाई देने को जितना प्रयास किया जाता है वास्तव में वो इक अपराध होता है । आजकल शोहरत की बुलंदी पर बैठे लोग , कुबेर का ख़ज़ाना एकत्र कर सोने की लंका के मालिक बने लोग , आचरण में सबसे दरिद्र बन गए हैं जैसा धर्म समझाता है कि जिस के पास सब कुछ हो फिर भी और अधिक की चाह रखता हो वो सबसे गरीब होता है । आज सबसे अधिक खेदजनक बात उस बुद्धिजीवी वर्ग की खराब हालत की है जिसको जो करना था समाज को दर्पण दिखाना उचित मार्ग पर चलने को प्रेरित करना वही भटक कर धन दौलत सत्ता शोहरत हासिल करने को शासक सरकार साहूकार का चाटुकार बन गया है , सभी की हालत इक कवि की कविता जैसी है ऊंचाई पर चढ़ कर पर्वत पर खड़े होने से आदमी और भी बौना दिखाई देता है । हम सभी का इक ख़्वाब अधूरा रह गया है लोकतंत्र सामाजिक समानता और मानव कल्याण का कब छूट गया कैसे पता ही नहीं किसी को याद नहीं क्या भविष्य होता क्या हो रहा है । आपका किरदार बौना हो गया है , आखिर में इक ग़ज़ल पेश है । 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।  

 
 
 स्वप्न शास्त्र: अगर आपको आते हैं ऐसे सपने तो समझ लीजिए कि आप रातों-रात बनने  वाले हैं धनवान | 🛍️ LatestLY हिन्दी
 

जुलाई 26, 2024

हमको मिली सज़ाएं हर बार तेरे दर पे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

  हमको मिली सज़ाएं हर बार तेरे दर पे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

  
हमको मिली सज़ाएं , हर बार तेरे दर पे 
आये हैं आज फिर हम सरकार तेरे दर पे । 
 
कोई नहीं यहां जो फ़रियाद अपनी सुनता 
शायद मिले किसी दिन वो प्यार तेरे दर पे । 
 
हमदर्द कौन किसका , बेदर्द  दुनिया सारी
आते हैं लोग होकर लाचार तेरे दर पे । 
 
भगवान बन के बैठे इंसान हमने देखे 
देखी बनी इबादत बाज़ार तेरे दर पे । 
 
सब झूठ के पुजारी मुजरिम हों जैसे सच के 
लेकिन छुपा रखे हैं क़िरदार तेरे दर पे ।
 
दस्तूर है निराला बस शोर करते रहना 
होती नहीं मधुर अब झंकार तेरे दर पे । 
 
जब देखता सभी कुछ ख़ामोश कैसे रहता 
होने लगी है इस पर तकरार तेरे दर पे । 
 
हमको तबाह करके ख़ुद चैन से है सोता 
हमने बना लिया है घर-बार तेरे दर पे । 
 
अहसान कर रहे हैं वरदान देने वाले 
सब लूट का लगा कर संसार तेरे दर पे । 
 
दी ज़िंदगी भी ऐसी जो मौत से हो बदतर
झोली रही है ख़ाली हर बार तेरे दर पे । 
 
' तनहा ' कभी जनाज़ा अपना उठेगा आख़िर 
उल्फ़त बुला ही लेगी इक बार तेरे दर पे ।  
 






 
 
 

जुलाई 24, 2024

खेल है नसीबों का ज़िंदगी ( अफ़साना ) डॉ लोक सेतिया

      खेल है नसीबों का ज़िंदगी  ( अफ़साना  ) डॉ लोक सेतिया  

नाम में क्या रखा है की बात पुरानी है नाम क्या है से नामकरण तक कितना कुछ बदल गया है । आस्था विश्वास अंधविश्वास से चलते चलते सरकार बदलने की बात होती रहती थी मगर सरकार नाम बताने की आड़ में नाम बदनाम करने बदलने की कोशिश करती है तो देश की बड़ी अदालत को दखल देना पड़ता है । लेकिन यहां माजरा कुछ और ही है किसी को जिस भी हसीना से इश्क़ होता वही बेवफ़ा निकलती किसी और की बन जाती । आशिक़ ने कितनी बार क्या क्या नहीं किया नतीजा वही पंछी पिंजरा छोड़ कब उड़ गया खबर नहीं हुई तो पंडित नजूमी सभी के दर की ख़ाक़ छान डाली आखिर में इक विशेषज्ञ से मुलाकात हुई तो उसने घर गली शहर नाम सभी का मिलान किया तब बताया आपको प्यार मिलेगा तब जब आप किसी महानगर में जा कर किसी शॉपिंग मॉल में खरीदारी करोगे दस दिन लगातार वही एक ही चीज़ खरीदनी है और जितने भी दाम मांग रहे हों चुपचाप देते रहना है छूट की बात कभी नहीं करनी अगर खुद कोई छूट देने को कहे तब भी मना कर देना है । चाहत बड़ी अजीब होती है आशिक़ी सब करवाती है ख़ाली जेब हाथ जोड़ उधर मांग कर जाने किस किस की खातिर सब खरीद कर जिस किसी को ज़रूरत थी दे दिया , कोई भी खुश नहीं हुआ हर किसी को महसूस हुआ जितना मांगा था नहीं बहुत थोड़ा मिला । नसीब इंसान का उम्र भर साथ साथ चलता है कौन है जो हालात बदलता है जिस से भी दिल लगाया रास्ता बदलता है । दोस्ती वफ़ा प्यार सब छोड़ ही जाते हैं दुश्मन हैं अपनी जां के वही आकर समझाते हैं मतलब की ख़ातिर सभी करीब आते हैं मतलब जब निकल जाता है जाने कहां खो जाते हैं । बर्बाद हो गया कोई घर बार बेच कर फिरता है ढूंढता ख़ुदा इक संसार बेच कर अपना ज़मीर बचा लिया हमेशा लोग शोहरत की बुलंदी पर खड़े हैं किरदार बेच कर । 
 
खुद को जिस शख़्स को बदलना नहीं आता है इस ज़माने के साथ चलना नहीं आता है संभलना आता है फिसलना नहीं आता है । रिश्तों में हर किसी को छलना नहीं आता है अनाड़ी है भरी दुनिया में अकेला है ज़िंदगी खेल नहीं इक झमेला है कोई क्या बताए क्या क्या सितम कैसे झेला है । उम्र भर यही लगता है थोड़ी दूर खड़ी हुई है ज़िंदगी करीब आ रही है पर ओझल हो जाती है पलक झपकते कोई खेल समझा रही है । किसी दिन इक सवाल आता है ज़हन में जीने से मरना अच्छा मलाल आता है दिल में ज़िंदगी का कुछ भी हासिल नहीं है इक नदी के इस पर कोई खड़ा है उस पर खड़ी है शायद वही ज़िंदगी है जाने का कोई पुल नहीं है । तैरना सीखा नहीं डूबना मुश्किल नहीं है ख़ुदकुशी नहीं करनी है बुज़दिल नहीं है हर कश्ती का होता कभी साहिल नहीं है ये दर्द का अफ़साना है अपना है दुनिया में न कोई भी बेगाना है पतवार नहीं मांझी नहीं लहरों को देखता है । अजब छोर है ज़िंदगी ठहरी हुई है लौट कर वापस जाने को भी नहीं कोई ठिकाना है । 
 
चम्बल नदी कहा से निकलती है? - Quora

जुलाई 17, 2024

क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया

    क़ातिल ही मुंसिफ़ है ( न्याय दिवस ) डॉ लोक सेतिया 

 

   मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा ( सुदर्शन फ़ाकिर )  

     इस वर्ष का 17 जुलाई अंतर्राष्ट्रीय न्याय दिवस का थीम है फासलों को मिटाना , सांझेदारी बनाना । 

 

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद , जो नहीं जानते वफ़ा क्या है , सच कहा जाए तो आजकल इंसाफ़ की परिभाषा बदल चुकी है अन्याय करना जब इंसाफ़ कहलाने लगे तब समझ लेना चाहिए कि हम ज़ालिम से ज़ख्म पर मरहम लगाने की झूठी आस लगाए हैं । कौन हैं जो समाज में फासले बढ़ाते हैं , शासक सरकार तथाकथित वीवीआईपी लोग और अमीर साधन संपन्न धनवान लोग जो अमीर बनते ही शोषण कर अथवा सामान्य नागरिक की विवशता का लाभ उठा कर उस से उत्पाद का मनचाहा मोल पाकर । सरकार भी उन पर मेहरबान होती है इनको खुली छूट होती है नियम कानून से मानवता तक को ताक पर रख कर ये कुछ गिने चुने लोग बड़ी बेशर्मी से छल कपट से आर्थिक हिंसा तक सब करते हैं । इतना सब करने पर भी इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती न ही इनके लिबास पर कोई दाग़ क्या छींटा भी नज़र आता है । अपने अपकर्मों को ये सभी पैसे सत्ता ताकत वाले धनवान लोग धार्मिक अनुष्ठान दान इत्यादि कर ढक लिया करते हैं । अमीर गरीब शासक और आम नागरिक की दूरी घटाना उनको कैसे मंज़ूर हो सकता है बल्कि ये तो बड़े छोटे ख़ास आम की खाई और अधिक चौड़ा और गहरा करने को किसी भी सीमा तक जाकर समाज से खिलवाड़ कर सकते हैं । राजनेता ही नहीं अधिकारी से लेकर बड़े बड़े खिलाड़ी अभिनेता उद्योगपति पैसे ताकत वाले दिखावा समाज सेवा का करते हैं भाषण देते हैं जबकि आचरण बिल्कुल विपरीत होता है , किसी साधारण इंसान से मिलना तो दूर इनको उनकी तरफ देखना भी पसंद नहीं है । आज भी यही लोग और कानून व्यवस्था न्याय की कुर्सी पर बैठे बड़ी बड़ी बातें करेंगे सभाओं में जबकि ये उनकी कठोर सोच और समझ ही है जिस से देश में न्याय पर भरोसा घटता ही नहीं जा रहा अपितु अब निराश हो गए हैं लोग । इनकी कथनी और करनी एक समान नहीं है जैसे कोई समाज में शराफ़त का मुखौटा लगाए हुए जीवन में गुनाह करने से कोई संकोच नहीं करता हो । हज़ारों करोड़ की बर्बादी उनके  आयोजन सभाओं योजनाओं प्रचार प्रसार पर की जाती है जिसका उपयोग समाज के उत्थान पर की जानी चाहिए । लेकिन इनकी बेशर्मी की सीमा ही नहीं है क्योंकि इतने अन्याय ज़ुल्म कर के भी ये आपको कितना कुछ मिल रहा है समझा कर तालियां बजवाते हैं । धर्म उपदेशक भी इनके सामने अपना सर झुकाते हैं हमको संचय नहीं करने की कथा प्रवचन सुनाने वाले खुद कितना जमा किया किसलिए किया कभी नहीं बताते हैं । आपको अजीब लगा क्या न्याय दिवस से इन बातों का क्या मतलब है तो आपको अर्थशास्त्र का साधरण सा नियम बताते हैं , अधिकांश लोग इसी कारण शोषित वंचित बदहाल बेहाल भूखे गरीब हैं ये लोग उनके हिस्से का सब किसी न किसी तरह छीनकर खा जाते हैं । ये जब भी जो भी दिन मनाते हैं हालात से नज़रें चुराते हैं झूठ बोलकर खुद अपना ही राग गाते हैं ।  ये क़त्ल भी करते हैं और शोकसभा में आंसू भी बहाते हैं वास्तव में खुद हंसते है सभी को रुलाते हैं । 
 
 World Day for International Justice 2020: अंतरराष्ट्रीय न्याय दिवस का क्या  है महत्व और क्यो मनाते हैं इसे, जानिए

जुलाई 16, 2024

ये दुनिया ये महफ़िल ( खाना - ख़ज़ाना ) डॉ लोक सेतिया

  ये दुनिया ये महफ़िल  ( खाना - ख़ज़ाना  ) डॉ लोक सेतिया 

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
 कोई भी किसी से कम नहीं है , किसी को भी कोई ग़म नहीं , सब  हमराज़ हैं अपने  , अपना कोई भी हमदम नहीं । सितम है जश्न बहार का पर झूठे ऐतबार का है , ये करिश्मा कारोबार का है , शायद ख़त्म नहीं होने वाले इंतिज़ार का है ।  छोटा नहीं यहां कोई शख़्स  , हर कोई सबसे बड़ा होने का तमगा लगाए था , ध्यान सभी का था उसकी तरफ जो इस महफ़िल को सजा कर सभी की औकात समझाए था । द्वार पर खड़ा था लेकिन कोई नहीं जानता कौन कितना बड़ा था कौन छोटा नहीं इस ज़िद पर अड़ा था । भीड़ में सभी लोग अकेले अकेले थे दुनिया जहान के हर किसी के सौ झमेले थे । कुबेर का खज़ाना जिसको मिल गया था इक नगर सोने का बना साथ पाया था दिल फिर भी नहीं माना किसी को देख मचल कचल गया था । दौलत के सभी पुजारी बड़ी शान से चले आये पैसा ख़ुदा है मानकर कदमों में सर झुकाये , कुछ लोग जाने क्यों बुलाने पर भी नहीं आये उनकी कमी खल रही थी दिल चाहता था बिना मनाये काश सभी मान जाएं आबरू को कैसे बचाएं दुनिया को किस तरह समझाएं थमती नहीं गर्म हवाएं । सब ख़ाली हाथ लौटे झोली भरी हुई थी सोचा नहीं था ऐसा दिल ही दिल में बहुत पछताये । 
 
कुछ दिन कुछ महीने का खेल तमाशा था आकाश ज़मीं पर कैसे चला आया कोई नहीं समझा वो था किसी बादल का आवारा साया जिस ने सच को छुपाया झूठ खुद अपने आप पे फिरता था इतराया । कितना बड़ा ख़ज़ाना जलाया था राख़ की चाहत में जब राख का ढेर छू कर देखा कोई चिंगारी बची थी अपना हाथ खुद जलाया । क्या बताएं कौन नाचा किस ने किस किस को नचाया मेरे अंगने में तेरा काम क्या कोई नहीं बता सका सवाल सुनते ही सीस को झुकाया करोड़पति से शानदार खेल ये है समझ आया । सभी अपने घर पर राजा दरबार में सवाली सब जानते है किस किस की जेब कैसे काटी , मांगी सभी ने थाली सोने चांदी वाली पर भूख कैसे मिटती बजाते रहे ताली सब भरा मगर ख़ाली ख़ाली । बुझ चुकी आग की बची राख की अलग बात थी दुल्हा दुल्हन बैंड बाजा बरात थी पिया मिलन की आस थी चांदनी साथ थी ।  
 
 
  पैसे का सब खेल है शोहरत की झूठी माया है हर किसी ने मेरे यार की शादी है लगता है जैसे सारे संसार की शादी है गीत की धुन पर नाचकर दिखाया है । अर्थ हर बात का समझ आया है , धर्म काम मोक्ष योग कला खेल राजनीति कौन है जो नहीं शामिल बरात में , खोया है खुद को तभी सब कुछ हाथ आया है । साकी खुद मयकदा बन सभी की प्यास बुझाता है कौन करीब कौन दूर है जाम से जाम टकराया है । हमको बिना पिए नशा छाया है सूरज को क्यों पसीना आया है । इक आईनाख़ाने की बड़ी चर्चा है शीशे का महल बनवाया है सब को सब दिखाई देता है चेहरा जिस ने छुपाया है आईना भी शर्माया है । शायद ये किसी जादूगर का कोई करिश्मा है देखने वालों को अपना गुज़रा ज़माना नज़र आया है , सच और झूठ जुड़वां भाई हैं गले से एक दूजे को लगाया है । कोई अमर्त्य सेन कहीं छुप कर खड़ा है अर्थव्यस्था को समझ रहा है सभी ने उसको भुलाया है भारत रत्न है नोबेल पुरुस्कार भी पाया है लेकिन उसका जीवन जिस मकसद की खातिर बिताया है देश समाज को नहीं भाया है । असमानता भेदभाव अन्याय लूट खसूट इतना अधिक बढ़ाया है कि कोई हिसाब नहीं याद सब कुछ मगर इंसानियत शराफ़त को भुला कर इक ऐसा समाज बनाया है जिस में रूह नहीं जिस्म भी नहीं सिर्फ इक धुंधला सा छाया हुआ साया है । कुछ भी नहीं पढ़ने को रहा लिखा था जितना आज सब मिटाया है ।
 
 भयावह है अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई - Sarita Magazine
 

जुलाई 13, 2024

चश्मदीद गवाह क़त्ल का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        चश्मदीद गवाह क़त्ल का ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इतने साल तक खामोश रहने के बाद शायद उसकी अंतरात्मा जागी होगी तभी उस ने सार्वजनिक सभा में ये बताया कि जिस की तमाम लोग चिंता कर रहे हैं उसका तो कभी का क़त्ल किया जा चुका है । चारों तरफ सन्नाटा पसर गया और हर कोई उन के इस रहस्य को खोलने पर सकते में है । कोई उनसे सवालात ही नहीं कर सकता कि आपने खुद अपनी नज़रों के सामने ये हादिसा होते देखा फिर भी खामोश रहे । खुद उनको ही बताना पड़ा कि उस समय जिस का क़त्ल किया गया उस से मेरा कोई संबंध नहीं था अगर जान पहचान थी भी तो उस तरह की जिस तरह से दुश्मन से होती है । उसका ज़िंदा रहना मर जाना मेरे लिए कोई मायने ही नहीं रखता था , फिर आज जब समझ आई कि उसका वारिस बनकर मुझे मनचाहा सभी कुछ हासिल हो जाएगा तब करीबी रिश्ता बनाना ही पड़ा । 
 
  टीवी पर इस खबर को सुन कर मुझे भी इक घटना की याद आई है । इक सांध्य दैनिक अख़बार की गूंज शहर में सुनाई देती थी , उस को जाने कैसे इक गोपनीय पत्र मिला जिस में किसी बाबा के अपराधों का विवरण था । बिना किसी डर के अपनी औकात को समझे उस पत्रकार ने वो जानकारी अख़बार में छाप कर इक ऐसी भूल की जिस का अंजाम उस का सभी कुछ जलाकर राख होना सामने आया । पुलिस विभाग ने बाबा के अनुयाईयों पर रपट दर्ज करवा आगजनी करने वालों को मौके से ही गिरफ़्तार कर अदालत में पेश कर दिया । बाबा की पहुंच सरकार तक थी इसलिए दंगईयों को बचाने को पुलिस ने तमाम हथकंडे अपनाये लेकिन अदालत को यकीन कौन दिलाए । तब जिस का सब कुछ जलाया गया था उस को समझा कर समझौता करवाया गया और उस से झूठा ब्यान दिलवा कर आरोपी को बचाया गया । आंखों देखा हाल कविता उस घटना की वास्तविकता है कवि गोष्ठी में सरकारी मंत्री की उपस्थिति में ये कविता पढ़ी गई थी खूब तालियां बजी थी विडंबना की बात थी । 

कोई विश्वास करे चाहे नहीं करे उस घटना का कोई चश्मदीद कभी सामने नहीं आया , समझौता भी अमल में नहीं लाया गया था । आज जिस का क़त्ल हुआ बताया गया है उस अपराध का दोषी भी क़त्ल किया जा चुका है ऐसे में इंसाफ़ या सच्चाई की बात नहीं है ये आपदा का अवसर बनाना है लेकिन कब जब सभी कड़वी बातों को पीछे छोड़ वहां से कितना आगे निकल चुके हैं । अधिक नहीं कहते पुरानी हास्य-व्यंग्य कविता दोबारा पढ़ते हैं । याद करना चाहता नहीं मगर भूल भी नहीं सकते कि अभी भी किसी अदालत में कुछ लोगों पर अपराध का मुकदमा चल ही रहा है कोई फ़ैसला हुआ तो नहीं । पता चला है कि उस घटना के भी वही शख़्स चश्मदीद गवाह हैं मगर उसकी गवाही देने को अंतरात्मा से अभी कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी शायद । कहते हैं कि किसी और पर लांछन लगाने से पहले खुद अपने गिरेबान में अवश्य झांकना चाहिए । किसी को अपराधी मानकर उस पर पत्थर फैंकना हो तो शुरुआत वो शख़्स करे जिस ने कभी कोई पाप नहीं किया हो । ये सुनकर सभी के हाथ से पत्थर गिर गए थे कोई साक्ष्य कोई बेगुनाही का प्रमाणपत्र नहीं अपने भीतर से सभी जानते हैं इस दुनिया में सभी से कभी न कभी गुनाह हुआ होता है । राजनीति वैसे भी इक ऐसी दलदल है जिस में धंसा कोई भी साफ़ सुथरा रह पाए बहुत कठिन है , हुए हैं कुछ थोड़े से ऐसे लोग जिनको सत्ता से अधिक सामाजिक मूल्यों की कदर थी । अजब हाल है जिन के घर कांच के बने हैं वो भी दूसरों पर पत्थर उछालने का कार्य करने लगे हैं । दर्पण कोई नहीं देखता अन्यथा चेहरे पर दाग़ किसी से कम नहीं दुनिया भले आपकी नकली चमक दमक से प्रभावित हो इक अदालत है ऊपरवाले की जिस से कुछ भी छिपा नहीं है ।
 

आंखों देखा हाल ( हास्य-व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुबह बन गई थी जब रात
ये है उस दिन की बात
सांच को आ गई थी आंच 
दो और दो बन गए थे पांच।

कत्ल हुआ सरे बाज़ार 
मौका ए वारदात से
पकड़ कातिलों को
कोतवाल ने
कर दिया चमत्कार।

तब शुरू हुआ
कानून का खेल 
भेज दिया अदालत ने 
सब मुजरिमों को सीधा जेल।

अगले ही दिन
कोतवाल को
मिला ऊपर से ऐसा संदेश
खुद उसने माँगा 
अदालत से
मुजरिमों की रिहाई का आदेश।

कहा अदालत से
कोतवाल ने
हैं हम ही गाफ़िल 
है कोई और ही कातिल।

किया अदालत ने
सोच विचार 
नहीं कोतवाल का ऐतबार
खुद रंगे हाथ 
उसी ने पकड़े  कातिल 
और बाकी रहा क्या हासिल।

तब पेश किया कोतवाल ने 
कत्ल होने वाले का बयान 
जिसमें तलवार को 
लिखा गया था म्यान।

आया न जब 
अदालत को यकीन 
कोतवाल ने बदला 
पैंतरा नंबर तीन।

खुद कत्ल होने वाले को ही 
अदालत में लाया गया 
और लाश से
फिर वही बयान दिलवाया गया।

मुझसे हो गई थी
गलत पहचान 
तलवार नहीं हज़ूर 
है ये म्यान  
मैंने तो देखी ही नहीं कभी तलवार
यूँ कत्ल मेरा तो 
होता है बार बार 
कहने को आवाज़ है मेरा नाम 
मगर आप ही बताएं 
लाशों का बोलने से क्या काम।

हो गई अदालत भी लाचार 
कर दिये बरी सब गुनहगार 
हुआ वही फिर इक बार
कोतवाल का कातिलों से प्यार।

झूठ मनाता रहा जश्न 
सच को कर के दफन 
इंसाफ बेमौत मर गया
मिल सका न उसे कफन।  
 
 बाबरी मस्जिद विध्वंस का आंखों देखा हाल - saw the condition of babri masjid  demolition with my own eyes-mobile

जुलाई 12, 2024

बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी { हत्या हुई फिर भी ज़िंदा है } ( सरकारी फ़रमान ) डॉ लोक सेतिया

  हत्या हुई फिर भी ज़िंदा है ( सरकारी फ़रमान ) डॉ लोक सेतिया  

अध्यादेश जारी किया गया है कि उस दिन संविधान की हत्या हुई थी , इमरजेंसी लगी थी इस विषय पर बहुत कुछ सभी ने लिखा है पहले भी । मैंने भी हमेशा उसका विरोध किया है खुद गवाह रहा हूं 25 जून 1975 की दिल्ली में रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की सभा में भाषण सुनने वाली भीड़ में शामिल था । लोकतंत्र को लेकर सवाल उठते रहते हैं कितना स्वस्थ है कितना बीमार है लेकिन संविधान की हत्या का प्रमाण जारी करना किसी नीम हकीम का ज़िंदा को मुर्दा बताना जैसी बात नहीं है । संविधान की शपथ उठाकर सरकार बनाने संसद का सदस्य बनने वाले क्या किसी निर्जीव किताब की बात कर रहे थे अर्थात उनको भरोसा ही नहीं था कि देश ने जिस संविधान को अपनाया उसे कभी किसी राजनेता ने अगर क़त्ल किया तो सभी खामोश बैठे देखते रहे होंगे । तमाम लोग आपात्काल में भी तमाम तरह से विरोध जताते रहे लेकिन जो जेलों में बंद थे उनकी चिंता संविधान होनी चाहिए थी जबकि आपात्काल हटते ही वो तमाम लोग संविधान को भूलकर सत्ता का शतरंज का खेल खेलने लगे थे और कुछ ही महीने बाद आपसी खींचतान ने जनता को निराश कर दिया और विपक्षी दलों की जनता पार्टी सरकार को अपने स्वार्थों की खातिर गिरा दिया गया । आज भी कुछ लोग जो कहते हैं उन्होंने आपात्काल में संघर्ष किया वास्तव में जेल जाने से डरे हुए छिपते फिरते थे , मैंने तब निडर होकर ऐसे लोगों को अपने घर में रखा था । 
 
संविधान ज़िंदा है कभी कोई उसकी हत्या नहीं कर सकता है  झूठा है ये सरकारी अध्यादेश । महात्मा गांधी की हत्या की जा सकती थी इंदिरा गांधी की भी हत्या की जा सकती थी लेकिन कोई तानाशाह कितना भी खुद को ताकतवर समझता हो देश के संविधान की हत्या की कोशिश भी नहीं कर सकता है । भारत एक शांति का संदेश दुनिया को देने वाला देश है लेकिन अपने संविधान की रक्षा खुद जनता करना जानती है । संविधान है लोकतंत्र ज़िंदा है तभी जो भी आज सत्ता पर बैठे हैं उनको अवसर मिला है जैसा ये हत्या हुई की घोषणा करता अध्यादेश समझाना चाहता है वैसा कदापि संभव नहीं अन्यथा क्या पिछले करीब 49 साल तक संविधान कोई मुर्दा लाश था ऐसा कहना शोभनीय नहीं अचरज की बात है । सत्ता की लड़ाई में भी इक मर्यादा का पालन किया जाना चाहिए लेकिन लगता है कुछ लोगों को संविधान सिर्फ सत्ता हासिल करने को इक मार्ग है कोई जीवंत आदर्श ग्रंथ नहीं जैसा सिख धर्म में गुरुग्रंथ साहिब को मानते हैं । वास्तव में हमने अपने सभी धर्म ग्रंथों को इसी तरह समझ लिया है उन से कोई सबक नहीं लेते केवल कहने को शीश झुकाते हैं पूजा करते हैं उन की समझाई राह पर चलते नहीं कभी । धर्मों का हाल सामने है कोई एक मिसाल देने की ज़रूरत नहीं है मगर उस ढंग से संविधान को हत्या हो चुकी है ऐसा सोचना भी देश समाज को रसातल में धकेलना है । 
 
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी , सत्ता का मनमाने ढंग से उपयोग किस किस ने कितनी बार किया असली सवाल यही है । आपात्काल की घोषणा भी संविधान में प्रावधान का उपयोग कर की गई थी और धारा 370 भी संविधान के अनुच्छेद का हिस्सा था उसको हटाया भी गया संविधान में बदलाव कर । दोनों ही कार्य कितने सविधान की भावना और लोकतान्त्रिक मर्यादा को ध्यान में रख कर किए गए और कितना किसी और सत्ता की चाहत को महत्व देने को ऐसे सवाल अनगिनत हैं । विडंबना है कि हर मनोनीत अथवा निर्वाचित शासक अभी भी जब जैसा चाहता है नियम कानून को मनमाने तरीके से बदल या परिभाषित कर लेता है । संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा का राजनेताओं में नितांत अभाव रहा है , कोई चाहे परिवारवाद को बढ़ावा दे या किसी संगठन की विचारधारा को महत्व दे अंतर कुछ भी नहीं है । छाज तो बोले छलनी क्या बोले जिस में हज़ारों छेद हैं । संविधान को जो मानते नहीं थे बदलना चाहते थे जिन्होंने कभी देश की आज़ादी में कोई योगदान नहीं दिया बल्कि गुलामी को पसंद करते थे उनसे संविधान की चिंता की बात पचती नहीं है । 
 
कुछ पोस्ट पहले की लिखी हुई हैं नीचे लिंक दिया गया है :-
 
  https://blog.loksetia.com/2014/01/blog-post_2.html

https://blog.loksetia.com/2014/01/blog-post_26.html

https://blog.loksetia.com/2024/05/blog-post_9.html

https://blog.loksetia.com/2024/06/blog-post_27.html
 
देश में अब 25 जून को मनेगा संविधान हत्या दिवस, केंद्र सरकार ने जारी किया  नोटिफिकेशन - modi govt declares 25th june as samvidhan hatya diwas to  honour sacrifices of people during

जुलाई 11, 2024

झूठ ही अपनी पहचान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     झूठ ही अपनी पहचान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

ख़त्म हो चुकी सच की पहचान है , हर गली में खुली झूठ की दुकान है । दुनिया में सबसे बड़े झूठे हैं हम लोग अब यही अपनी असली पहचान है । सच कभी भूले से मुंह से निकला अगर झट निकाल फैंका उसी में जो दरवाज़े पर बाहर रखा इक पानदान है । झूठ का इतिहास लिखता कोई नहीं और हमारा इक वही अरमान है । हमने हमेशा झूठ को चुना है है अमर वही सच चार दिन का मेहमान है सच को करना है दफ़्न ऐसी जगह जिस जगह दफ़्न सभी का ईमान है । झूठ का देवता आपको दिखाएं हर जगह उसका घर हर बाज़ार उसका ही है कारोबार सबसे ऊंची उसकी आन बान शान है झूठ ही मुल्क़ बना कितना महान है । पाप पुण्य क्या हैं झूठ ऐसा बड़ा दान है जितना बड़ा झूठा है लगता है जैसे भगवान है । ज़िंदगी भी झूठ है मौत भी इक झूठ है आदमी अब आदमी ही नहीं झूठ का कोई सामान है देश अभी भी सोने की खान है कोयला महंगा सस्ती जान है । है कोई जो झूठ से अनजान है कोई मिले अगर सबसे बड़ा नादान है झूठ सबके मन को भाता है अपनी चाहत अपनी शोहरत अपनी दौलत पर वही इतराता है सच को झूठ जो बनाता है इस जहां का वही विधाता कहलाता है । सच आजकल झूठ से घबराता है हर किसी से दूर भाग जाता है झूठ बिना बुलाए चला आता है खुद भी खाता है दुनिया को खिलाता है बजट जब भी कोई बनाता है झूठ का बही खाता सबके मन भाता है । आप सभी कुछ भी मत यार करो सिर्फ और सिर्फ झूठों का ऐतबार करो , सच को हमेशा दरकिनार करो , झूठ को जी भर कर प्यार करो । 
 
सच खड़ा है बिल्कुल नंगा है उसको आती लाज है सर पर झूठ के सोने का ताज है पुराना युग ख़त्म हुआ सामने है जो भी जैसा भी वही आज है । संसद अदालत से प्यार मुहब्बत तक झूठी कसमें सभी खाते हैं जो सबसे बड़े झूठे हैं सत्यवादी कहलाते हैं । आशिक़ अपनी महबूबा को दुनिया की सब से हसीं कहते हैं प्यार और जंग में सब जायज़ है फ़रमाते हैं हुस्न वालों को आईना कभी नहीं दिखलाते हैं चेहरे पर मेकअप लगा किस किस पर सितम ढाते हैं । सच बोलना मना है जनाब खफ़ा हो जाते हैं तारीफ़ झूठी सुनाओ फिर से करीब आते हैं मान जाते हैं । झूठ की कीमत बढ़ती जाती है ईमानदारी हाथ मलती रह जाती बाद में बहुत पछताती है । झूठ की काली घटा सुबह शाम छाती है सच की धूप से आपको बचाती है झूठ की बारिश झूमती है गाती है दुनिया को रोज़ नया रंग समझाती है । सरकार है दुनिया में आती है लौट आती है झूठ की जो दौलत है ख़त्म कभी नहीं होती है सत्ता हंसती मुस्कुराती है जनता को जी भर रुलाती है । सच की जितनी पसलियां हैं टूट कर चूर चूर हो जाती हैं झूठ की छाती चौड़ी होकर जश्न मनाती है । सबसे समझदार वही है सब झूठों का सरदार वही है चोर भी है थानेदार वही है समझो सब संसार वही है । झूठ की तेज़ है रफ़्तार बहुत महंगी है उसकी कार बहुत कहानी लंबी कौन सुनता है हमने संक्षेप में समझा दिया है झूठ की कथा का सार बहुत । झूठ का होना है अभी विस्तार बहुत । अंत में इक मित्र शायर का शेर पेश है ' है कभी आसां कभी दुश्वार है ज़िंदगी तेरा अजब आकार है ' जवाहर ठक्कर ज़मीर  । 
 
 सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला Saiyan jhoothon - HD वीडियो सोंग - लता  मंगेशकर - दो आँखें बारह हाथ

जुलाई 10, 2024

दो किनारों की अनबन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        दो किनारों की अनबन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

नदिया के पुल आपसी तालमेल सहमति और दोनों की सहनशीलता पर टिके होते हैं , जब भी कभी कोई पुल ध्वस्त होता है अचानक गिर जाता है तो निर्माण की कमी ही नहीं होती है , आपसी तकरार भी कारण हो सकता है । विवाहित महिला पुरुष कितना एक दूसरे को समझते हैं रिश्ता कायम रहना इस पर निर्भर करता है । आदमी आदमी को जोड़ने वाले बंधन धीरे धीरे कमज़ोर होते जाते हैं कभी सात जन्म की बात हुआ करती थी आजकल चार दिन का भरोसा नहीं है । अख़बार टीवी चैनल वाले हर बात को बढ़ा चढ़ा कर कुछ भी नतीजा निकाल लेते हैं । सरकार पर इंजीनयर से अधिकारी और निर्माता कंपनी ठेकेदार तक को कटघरे में खड़ा कर देते हैं । ऐसे में इक उच्च स्तर की समिति से जांच करवानी अनिवार्य है उस में शामिल हैं इक अलग तरह के विशेषज्ञ जिनका जीवन ही आपसी संबंधों को लेकर शोध करते बीता है । किसी भी टूटे हुए पुल अथवा ध्वस्त इमारत के मलबे से कभी साबित नहीं किया जा सकता कि निर्माण सामिग्री कैसी थी । कभी किसी ने इस पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया कि सरकारी फाईलों में सभी बढ़िया हुआ ऐसा प्रमाणित है जिस के आधार पर शिलान्यास से शुरुआत तक सब खर्च और नियम पालन करने का लिखित प्रमाण उपलब्ध है ऐसे में केवल मौसम पर दोष देना उचित नहीं है । 
 
 ये बिल्कुल शादी संबंध जैसी बात है , लड़का लड़की की कुंडली स्वभाव पसंद सभी को परखा जाता है , सभी रीती रिवाज़ों और शुभ समय घड़ी पर सही जगह का चयन कर विवाह किया जाता है । दहेज से लेकर मंडप और होटल बैंक्वेट हाल की शानदार शोभा सजावट सभी आये मेहमानों की सुविधाओं तक कोई भी कमी कोई कसर नहीं होती और विवाह करवाने वाले भी सब ठीक से करवाते हैं खूब मनचाहा शुल्क लेते हैं बिचोलिये भी शुरू से आखिर तक सहभागी रहते हैं । इस सब के बावजूद शादी के बाद पति पत्नी में झगड़े अनबन होती रहती है कभी साथ रहते हैं कभी मनमुटाव बढ़ता है तो अलग अलग रहने लगते हैं कितनी बार समझौते होते हैं तब भी तलाक की ज़रूरत पड़ जाती है । कसूरवार दोनों खुद पति पत्नी होते हैं मगर झगड़े में आरोप झूठे सच्चे तमाम लगाते हैं निभ जाती तो कभी उन सब बातों का महत्व नहीं होता , टकराव होने पर खामियां ढूंढते हैं अच्छाई नहीं दिखाई देती । पुल भी बेबस हो जाते हैं जब दोनों किनारे तकरार करते करते पीछे हटकर फ़ासला बना लेते हैं ।
 
नदी क्या सागर पर कोई कितना बड़ा पुल बनाया जाए आखिर दोनों तरफ दो किनारों को सहना पड़ता है पानी का उतर चढ़ाव लहरों का किनारों से टकराव नियमित निरंतर होता ही है । पुल कैसे टिकेगा अगर दोनों किनारे आपसी फ़ासला बढ़ाने लग जाएं । पुलों का टूटना पहले भी होता था लेकिन इतना जल्दी नहीं जैसे आजकल इक चलन चल पड़ा है जिधर देखते हैं पुलों में गिरने की होड़ लगी है । किनारों की आपसी अनबन इतनी बढ़ती जाती है कि किनारों की हालत से परेशान पुल बेचारा ख़ुदकुशी कर अपना अंत कर लेता है । उस के बाद क्या होता है दोनों किनारों का फिर से गठबंधन करवाने को इक नया पुल बनवाने की चर्चा होने लगती है और जब पुनर्विवाह की तरह नया पुल नहीं बनता पुल टूटने की बात होती रहती है । जांच आयोग की समस्या का समाधान हो गया है अन्यथा कितना कठिन था फ़ैसला करना की जब पुल बनना शुरू हुआ और जब तक बनकर उद्घाटन हुआ कौन किस किस पद पर था किस की गलती थी । पहले भी कभी किसी को कोई सज़ा नहीं मिली केवल आरोप लगाकर बदनाम किया गया इस बार बदनाम भी क्यों किया जाए ये पहेली थी जिस का हल मिल ही गया है । आपसी रिश्तों का टूटना सामान्य घटना है ।
 
( अस्वीकरण :- इस रचना का किसी व्यक्ति घटना से कोई संबंध कदापि नहीं है ये इक काल्पनिक कथा है ) 
 
 
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जुलाई 09, 2024

आज हमने छोड़ दिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आज हमने छोड़ दिया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

 सभी समझाते हैं और मैं भी मान जाता हूं छोड़ देना है , छोड़ना ही है किसी दिन , चलो आज से छोड़ देता हूं । कुछ ख़ास है भी नहीं मेरे पास जिसे छोड़ने से कुछ बदलेगा , हाथ में इक कलम की तरह स्मार्ट फोन या इक लैपटॉप ही तो रहता है मेज़ पर , किसी को इनकी ज़रूरत नहीं बस लिखना उन सभी को थोड़ा नागवार गुज़रता है । जब भी छोड़ने की तैयारी करता हूं कुछ बात कोई घटना कोई विषय सामने ख़ुद ही चला आता है तब चलो आज कसम तोड़ देते हैं छोड़ने की बात को ही छोड़ देते हैं । इक कहावत है नशा कोई भी हो जाता नहीं है सुबह तौबा करते हैं पीने वाले शाम होते ही आख़िरी बार जाम छलका लेते हैं सोचते सोचते उम्र बीत जाती है । ज़माने वाले कितना कुछ बटोरते रहते हैं जितना भी मिले थोड़ा लगता है रत्ती भर भी हाथ से फिसले कैसे मुमकिन है , लेकिन बड़े लोग बड़ी बड़ी बातें दुनिया को नसीहत देने का लुत्फ़ ही और है । हम क्या हैं लोग दामन बचा कर निकलते हैं हमने किसी का दामन कभी पकड़ा ही नहीं छोड़ना छुड़ाना क्या होता है क्या मालूम । महफ़िल सजाना छोड़ दिया हमने आना जाना रूठना मनाना छोड़ दिया दुनिया को समझना अपने को भी समझाना छोड़ दिया हर अफ़साना छोड़ दिया ज़िंदगी से रिश्ता नाता तोड़ लिया । कश्ती का रुख किनारे से और भी फ़ासला बढ़ाने को उधर मोड़ दिया दिल का किस्सा अनकहा रहने दिया मुंह मोड़ लिया जिस तरफ मुहब्बत बिकती उधर से गुज़रना छोड़ दिया । आज हमने निराशा को छोड़ आशा से रिश्ता जोड़ लिया है । 
 
वो जो मुझे बड़े ही प्यार से दोस्त बनकर समझा रहे थे छोड़ देने को , खुद कितना कुछ पकड़े जकड़े हैं अभी सागर को अपने भीतर भरने को व्याकुल हैं । कारोबार के साथ कितने और खेल खिलवाड़ उन्होंने फैलाए हुए हैं समाज सेवा से लेकर राजनीति का कितना बोझ उठाए हुए हैं । कितने घर बदल कर वापस जहां से चले लौट आये हुए हैं । पिछली बार मिले तो कहने लगे भाड़ में जाएं जो लोग उनको अपना भाग्य विधाता नहीं बनाते नहीं समझना चाहते । इतने प्यासे हैं जैसे खुद से उकताए हुए हैं । बोलते बहुत हैं बोल कर झट से दूर चले जाते हैं हमको लिखने को छोड़ जाते हैं । सौतन की बेटी फ़िल्म से सावन कुमार का लिखा गीत किशोर कुमार की आवाज़ में पढ़ने को प्रस्तुत है ।  लिखना नहीं बोलना भी नहीं कोई बात नहीं सोचने समझने को दुनिया की अजीब बातें सुनने से अच्छा है कुछ दिल को छूने वाले पुराने गीत सुन कर सभी को पढ़ने को दोहराये जाएं सुकून मिलेगा ।
 
कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?
कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?
 इसलिए चुप रहते हैं ,

हमसे अपने, रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 

मेरी सूरत देखने वालोंमैं भी इक आइना था
 
टूटा जब ये , शीशा ये दिलसावन का महीना था ,
 
टुकड़े दिल के किसको दिखाएँ ?इसलिए चुप रहते हैं
हमसे अपने, रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 


आज ख़ुशी की , इस महफ़िल मेंअपना जी भर आया है ,

ग़म की कोई बात नहीं हैहमे ख़ुशी ने रुलाया है ,

आँख से आँसू बह ना जाएँइसलिए चुप रहते हैं ,
हमसे अपने रूठ न जाएँइसलिए चुप रहते हैं । 

प्यार के फूल चुने थे हमनेख़ुशी की सेज सजाने को
 
पतजड़ बनकर आई बहांरेंघर में आग लगाने को ,

आग में गम की जल न जाएँ
इसलिए चुप रहते हैं । 

कौन सुनेगा ? किसको सुनायें ?

इसलिए चुप रहते हैं , इसलिए चुप रहते हैं ।


ये भी जैसे कोई अधूरा ख़्वाब था दोस्ती प्यार रिश्तों का सभी का बकाया चुकाना है असल साथ ब्याज भी जोड़कर हिसाब था कि कोई किताब था । उलझन नहीं थी बीत गई सो बात गई शिकवे गिले पुराने सभी छोड़ना ही पड़ता है दिल से दिल जोड़ने को यादों का दर्पण तोड़ना ही पड़ता है । ख़िज़ाओं का मौसम ज़िंदगी भर आस पास रहा है सूखे पत्तों को डाली से तोड़ना नहीं पड़ता ख़ुद ही शाख़ से टूट कर बिखर जाते हैं । यहां लोग मौसम की तरह मिजाज़ बदलते हैं , कभी अंदाज़ कभी अल्फ़ाज़ कभी अपनी आवाज़ बदलते हैं , हम जैसे लोग टूटा हुआ साज़ हैं सुर निकलता है साथी ढूंढते हैं दुनिया वाले हमदर्द बदलते हैं हमराज़ बदलते हैं । कभी बहुत पहले इक फ़िल्म देखी थी बहारें फिर भी आयेंगी उस में  कैफ़ी आज़मी का लिखा गायक महेन्दर कपूर का गाया गीत दिल को गहराई तक छू गया , बदल जाये अगर माली चमन होता नहीं ख़ाली आज आपको पढ़ने को पेश करता हूं ।

 

बदल जाये अगर माली  , चमन होता नहीं ख़ाली 

हारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

थकन कैसी घुटन कैसी , चल अपनी धुन में दीवाने 

खिला ले फूल कांटों में , सजा ले अपने वीराने

हवाएं आग भड़काएं , फ़ज़ाएं ज़हर बरसाएं 

बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

अंधेरे क्या उजाले क्या , ना ये अपने ना वो अपने 

तेरे काम आयेंगे प्यारे , तेरे अरमां तेरे सपने 

ज़माना तुझ से हो बरहम , ना आए राहबर मौसम 

बहारें फिर भी आती हैं , बहारें फिर भी आयेंगी । 

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