दिसंबर 11, 2024

POST : 1926 दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

     दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया  

आज का विषय महत्वपूर्ण है सामाजिक वास्तविकता हम सभी की , पहले इक ग़ज़ल पढ़ते हैं । 

जिससे अनभिज्ञ पीने वाला है 

ज़िन्दगी वो विषाक्त हाला है । 

प्यार फूलों से था जिसे बेहद 

चित्र पर उसके फूलमाला है । 

था स्वयं जो अजातशत्रु , उसे 

क्या खबर किसने मार डाला है । 

दिन दहाड़े ही लुट रहा कोई

मूकदर्शक बना उजाला है । 

मधु प्रतीकों का घोर आलोचक 

पीनेवालों का हम-पियाला है । 

बेठिकाने को मिल गई मंज़िल 

उसने फुटपाथ जा संभाला है । 

हों निराले न तौर क्यों ' महरिष '

दौर ही आज का निराला है । 

( नागफनियों ने सजाई महफिलें - ग़ज़ल संग्रह से साभार शायर : आर पी शर्मा ' महरिष ' )  

  बिना किसी भूमिका अब सीधे आज के दौर की बात करते हैं , दुनिया जहान की नहीं खुद अपनी बात करते हैं । हमारे समाज में बड़ा छोटा बीच का जो भी हो सभी को पहले इक सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हमने क्या किया है अपने देश समाज को बेहतर बनाने की खातिर । पहले उनकी बात जो समझते हैं हम देश समाज के सेवक हैं देशभक्त हैं बड़े पदों पर बैठ लोकतंत्र संविधान की बातें करते हैं शासक प्रशासक मंत्री से सरकारी महासचिव से छोटे से पद पर आसीन कर्मचारी सभी शामिल हैं कार्यपालिका न्यायपालिका तक । इक अंदाज़ा लगाते हैं कि दस से बीस प्रतिशत जनसंख्या का भाग हैं , इनको जितना चाहिए किसी से मांगना नहीं पड़ता अपने आप निर्धारित करते हैं जब चाहे साधन सुविधाएं अधिकार विशेषाधिकार । शायद साधरण नागरिक से लाख गुणा उनको हासिल है लेकिन क्या तब भी जिस कार्य के लिए उनको नियुक्त निर्वाचित किया उस कार्य को करने में सफल हुए हैं । वास्तव में उनके रहते गरीबी भूख अन्याय शोषण नागरिकों की मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाना इत्यादि सभी की दशा बिगड़ती गई है अर्थात उनको जो करना था नहीं किया तब भी सबसे शानदार ज़िंदगी जीते हैं और उनको कोई खेद कभी नहीं होता कि उन्हें जैसा करना था नहीं किया है । 
 
उनके बाद आते हैं कुछ उद्योगपति कारोबारी कुछ ख़ास शिक्षा स्वास्थ्य जगत में कार्यरत सभ्य वर्ग के लोग जिनको समाज को सुंदर भविष्य और नैतिकता का मार्ग समझाना था लेकिन इतने पावन कार्य में होते हुए भी अधिकांश भटक गए धन दौलत और नाम शोहरत ऐशो-आराम की मृगतृष्णा में जिसका कोई अंत नहीं है । ऐसे सभी लोगों ने कभी उचित अनुचित की चिंता नहीं कि न ही सोचा समझा कि इंसान को कितनी ज़मीन चाहिए । इक हवस में पागल होकर उन्होंने इंसानियत को लेकर समझना छोड़ दिया । उनको सभी को मेहनत से हज़ारों गुणा अधिक मूल्य मिलता है और इस को देखने समझने वाला कोई नहीं है , पैसे को भगवान बनाया तो पैसे से खुद बिकने ही नहीं बल्कि न्याय कानून सभी कुछ खरीदने लगे । शराफ़त और नफ़ासत से तमाम लोगों को इतना लूटा कि किसी की बेबसी बदहाली पर कभी विचार नहीं किया अगर कुछ किया भी तो किसी मतलब से कुछ हासिल करने को बदले में । कितनी विडंबना है उच्च शिक्षा पाकर भी मानसिकता बेहद संकीर्ण ही रहती है । तथाकथित धार्मिक उपदेश देने वाले , कलाकार फ़िल्मकार टेलीविज़न पर अख़बार में वास्तविक तस्वीर नहीं दिखला कर दर्शकों को घटिया मनोरंजन के नाम पर इतनी गंदगी परोसने लगे हैं जिन से देश समाज को कुछ नहीं हासिल होता बल्कि पतन की राह चलने को प्रेरित करते हैं । 
 
देश की राजनीति जाने कब से किसी तरह सत्ता पाने की सीढ़ी बनती गई जिस में खुद सभी कुछ अपने लिए हासिल करने को बिना कुछ सोचे समझे रेवड़ियां बांटने का चलन हो गया है । कभी किसी नाम पर कभी कोई योजना बनाकर कुछ खास लोगों को फायदा देने के लिए ताकि अपनी नाकामी को ढका जाये किया गया । अब जैसा विज्ञापन है सरकारी 80 करोड़ लोगों को खाने को मुफ़्त राशन देने का , क्या शर्म की बात नहीं है कि आज़ादी के 75 साल बाद ऐसी हालत क्यों है । लेकिन ये कोई देश की जनता की भलाई नहीं है कि सरकारें उनको भिखारी बनाकर खुद शासक बनकर राजाओं शहंशाहों की तरह रहें । इस तरह ऊपर के बीस प्रतिशत और निचले 55 वास्तव में मध्यमवर्ग के 25 प्रतिशत पर इक बोझ हैं जिनके पास कोई विकल्प नहीं है सिवा इसके कि बीच का वर्ग नीचे आते आते आधा रह गया है और शीघ्र ही उसका कोई निशान नहीं बचेगा । बड़ी चिंताजनक तस्वीर होगी जिस में कोई बगैर परिश्रम सभी कुछ पायेगा तो बाकी मेहनत करने के बावजूद भी हाथ में कटोरा लिए दिखाई देंगे , ऐसा होगा इसलिए क्योंकि सभी ने समाज देश को बेहतर बनाने को कुछ करना ज़रूरी नहीं समझा बल्कि उस को बर्बाद करने में लगे हुए हैं । 
 
ऐसा आसान तो नहीं है फिर भी कभी कोई इन सभी सरकारों से हिसाब मांगे कितने राजनेताओं को कितने लाखों हज़ारों करोड़ की खैरात मिलती है जाने किस किस नाम से । पेंशन मुफ्त आवास मुफ्त सुविधाएं उम्र भर कोई क़र्ज़ चुकाना है जनता ने इनका सांसद विधायक अथवा अन्य किसी सार्वजनिक सेवा के पद पर शोभा बढ़ा कर खूब शान से सुःख सुविधाएं उपयोग करने का उपकार करने का । यकीन करना ये 80 करोड़ को मुफ्त राशन उस के सामने राई जैसा प्रतीत होगा , ये पहाड़ जैसा बोझ देश की जनता को किस जुर्म में ढोना पड़ता है और कब तक ढोते रहना है । अर्थशास्त्री समझा सकते हैं कि अधिकांश लोग बदहाल हैं सिर्फ इन कुछ ख़ास लोगों को दी जाने वाली भीख जिस को उन्होंने अपनी विरासत बना लिया है लोकतंत्र की आड़ में इक लूट तंत्र है ।  
 
 कैक्टस फूल का पौधा: 10 प्रकार, प्रसार, देखभाल, ख़रीदना गाइड

दिसंबर 08, 2024

POST : 1925 कौन था कोई नादान था ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

          कौन था कोई नादान था ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

कोई कथा कहानी नहीं है हक़ीक़त है अफ़साना नहीं कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं कभी भी अभी तलक भी किसी ने उस दुनिया बनाने वाले को पहचाना नहीं । युग बीत गए कोई हिसाब नहीं दुनिया क्या से क्या बन गई मगर शुरुआत आखिर कभी कोई करता अवश्य है तो जिस ने इस दुनिया को था इक खिलौना खेलने को बनाया उसी आदमी ने इक दिन बनाने वाले को नादान बताया । जिसने सब कुछ बनाया दुनिया का कण कण पेड़ पौधे पक्षी हवा पानी बादल गगन से धरती पाताल तक पर्वत से खाई तक , जानवर बना बैठा इंसान बना बैठा । तब वही उसी के लिए ख़तरनाक पहेली जैसे कभी कैसे कभी कैसे अपने आचरण को बदलने लगे तो उसने खुद को अदृश्य बना की आवरण के पीछे छुपा लिया । इक दिन फिर ऐसा हुआ उसका बनाया इंसान जब इक बार आंखें होते हुए भी गहरी खाई है नहीं देख पाया भगवान ने हाथ पकड़ा उसको बचाया , आदमी ने सवाल किया कौन है कहां से इधर है आया । परिचय दिया मैं विधाता हूं तुझे इस संसार को मैंने ही है बनाया , आदमी को कभी ईश्वर का यकीन नहीं आया , साबित करो कब क्या क्योंकर बनाया क्या किसी पर कोई पहचान का चिन्ह बनाया लिखा अपना नाम पता बताया । बोला वो मेरा नाम पता ठिकाना क्या सभी में मैं हूं समाया । आदमी खुद को समझदार मानता रहा उसको नादान अनजान सिरफिरा समझा उसकी बातों में नहीं आया कहने लगा बता मुझे खाई में गिरने से क्यों बचाया । भगवान ने अपना पीछा छुड़ाने को कहा भूल हुई बनाकर दुनिया बड़ा पछताया , बस उस के बाद ईश्वर किसी को आंखों से नज़र नहीं आया सवालों से किसी के तंग आकर खुद को सामने होते दिखाई नहीं देता ऐसा बनाया । इंसान को जब वो नज़र नहीं आया तब उसने समझा मुझसे घबरा गया छुप गया डर कर छुपाया अपने को या था कोई साया । जानवर और इंसान दोनों ही भगवान से खुद को ताकतवर समझ अवसर मिलते ही बदलने लगे इतना कि कब कोई आदमी हैवान बन जाता है कब कोई जानवर भी शैतान से मेहरबान बन जाता है यही पहेली इक रहस्य रहती है । 
 
युग युगांतर के बाद दुनिया रंग बदलते बदलते आधुनिक काल तक इतना बदलाव हो चुका था कि ऊपरवाला थक कर सो चुका था इंसान इंसानियत को खो चुका था । ये भी करोड़ों वर्ष पहले की बात है आदमी को कहां मालूम खुद उसकी कोई नहीं औकात है वो तो महज़ किसी की इक ठोकर लगाई सौगात है । बस इक आदमी ने अपने आस पास जितने भी इंसान दिखाई दिए उनको यकीन दिलवाया कि जहां तक जितना नज़र आता है उसी का है जिसको जो चाहिए ले कर उपयोग कर सकता है केवल उसकी अनुमति से उसे अपना दाता और विधाता मानकर । किसी को इस में कोई परेशानी नहीं महसूस हुई और सभी ने उसकी कही बात को मानकर उसे सरदार बना लिया । धीरे धीरे सरदार की उम्र बढ़ती गई और उस ने कुछ लोगों को अपना वारिस या भावी सरदार घोषित कर दिया और दुनिया में इंसान इंसान में बड़े छोटे शासक शासित जैसे वर्ग बनते गए भेदभाव होने लगा । अचानक दुनिया बनाने वाले की नींद खुली तो उसे खबर हुई कि इंसानों ने उसकी बनाई खूबसूरत दुनिया को बर्बाद कर दिया है । अपने आवरण से निकल अदृश्य से सामने दिखाई देने का विकल्प चुना तो देखने वालों ने उसे सिरफिरा समझ लिया क्योंकि अब तक कितने अलग अलग अपने अपने ईश्वर सभी ने बना अर्थात घोषित कर लिए थे । 
 
सरकार को जब पता चला तब हर शासक ने खुद को विधाता और जाने क्या क्या घोषित करने वालों ने उसे पकड़ने और बंदी बनाकर क़ैदख़ाने में रखने का फ़रमान सुना दिया । भगवान को तहखाने में छुपाना रखना चाहा सभी हुक्मरानों ने ये सोच कर कि कभी काम आएगा तो उसे बाहर निकाल इस्तेमाल कर लिया जाएगा ।लेकिन उन सभी को क्या खबर थी कि भगवान कभी भी अदृश्य होने का विकल्प चुन वहां से छूमंतर हो जाते थे । अपनी बनाई दुनिया को हर छोर से दूसरे छोर तक पहचाना परखा तो जाना कि कुछ भी वास्तविक नहीं रहा है सभी बाहर से कुछ लगते हैं भीतर से कुछ और होते हैं खोखले हैं बाहरी आकार बढ़ता गया है बिल्कुल उसी तरह जैसे रावण का पुतला ऊंचा और फैला हुआ पलक झपकते ही राख बन जाता है । भगवान कहलाना चाहते हैं भगवान जिस ने सभी कुछ बनाकर सौंप दिया उसे कोई घर कोई पहचान देना चाहते हैं । भगवान जो खुद सबको देता है उसे दुनिया से क्या चाहिए उसको कुछ देना अर्थात खुद को भगवान से अधिक बड़ा महान और ताकतवर समझते हैं । आदमी नहीं जानता कि खुद इंसान भगवान की बनाई इक अनबुझी पहेली है जिस ने उसे भी अचंभित कर दिया है कि ये क्या चीज़ बना बैठा मैं जो अब उसी को चुनैती देने लगी है ।  
 
भगवान है भी या नहीं कहीं किसी की मनघड़ंत कहानी तो नहीं ऐसा विचार कुछ जालसाज़ झूठे फरेबी और मक्क़ार लोगों को आया तो उन्होंने सभी कुछ पर अपना आधिपत्य कायम कर खुद को शासक प्रशासक न्यायधीश सुरक्षा करने वाले अलग अलग ओहदेदार बना कर लूटना और लूट को खैरात की तरह कुछ भाग बांटना शुरू कर दिया । कोई ऊपरवाला भगवान नहीं हैं बस सिर्फ हमीं हैं मसीहाई करते हैं । लोगों ने भी उनकी सत्ता को मंज़ूर कर लिया है और उनके ज़ुल्मों को इंसाफ़ कहने लगे हैं । दुनिया बनाने वाले ने शायद बेबस होकर खुद ही अपने आप को ख़त्म कर दिया है , ख़ुदक़ुशी नहीं अंतर्ध्यान होना समझ सकते हैं । अब कोई भगवान नहीं किसी को कोई डर नहीं सभी मनमानी करते हैं यूं समझ लें की भगवान को सत्य को पराजित कर दिया गया है । बिना किसी चुनावी प्रक्रिया हटा दिया गया है ।  उस एक वास्तविक भगवान को हटवा कर कई लाखों लाख नकली भगवान बने बैठे हैं , पहचान करना कठिन नहीं है क्योंकि असली के भगवान ने कुछ भी अपने लिए या अपने पास नहीं रखा न कभी बदले में कुछ मांगा किसी से जबकि ये जितने भी खुद को भगवान समझते कहलवाते हैं उन सभी को अपने लिए जितना भी संभव हो चाहते हैं किसी भी तरह से हथिया लेते हैं । समाज देश को इनसे मिलता कुछ नहीं खोखली बातें और कभी सच नहीं होने वायदे प्रलोभन और झूठे भाषण को छोड़कर ।
 
 
 भगवान के न होने का सबूत क्या है?
 

दिसंबर 06, 2024

POST : 1924 ' नैरंग सरहदी ' दास्तां फिर याद आ गई ( अनमोल रत्न ) डॉ लोक सेतिया

' नैरंग सरहदी ' दास्तां फिर याद आ गई ( अनमोल रत्न ) डॉ लोक सेतिया 

 कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि इस पर गर्व का अनुभव करें या फिर खेद का जब कभी हमारे देश के किसी व्यक्ति की प्रतिभा की कदर कहीं विदेश में होती है ज़िंदा रहते । नोबेल प्राइज़ मिला कुछ लोगों को विदेश में जाकर कोई खास उपलब्धि हासिल करने पर । हरगोबिंद खुराना , अमर्त्य सेन से सुब्रहमनियम  वेंकटरमन कितने नाम हैं । लेकिन किसी शायर विद्वान के निधन के वर्षों बाद उनके अप्रकाशित लेखन का प्रकाशन और पहचान किसी विदेशी शोधकर्ता और आलोचक लेखक द्वारा हुआ हो ये कभी पहले नहीं सुना हमने , पहली बार ये अजब तमाशा देखा है । सच समझना कठिन है कि जश्न मनाएं या फिर इस पर थोड़ा अफ़सोस का अनुभव करें जैसे कभी होता है कोई भूख से मर जाता है बाद में उसके नाम पर मृत्यु भोज का आयोजन करते हैं । इक गीत है पंजाबी में जियोंदे जी कंडे देंदी ऐ मोयां ते फुल चढांदी ऐ , मुर्दे नू पूजे ऐ दुनिया जियोंदे दी कीमत कुझ वी नहीं । मुझे इक ग़ज़ल पसंद है जिस में इक शेर कुछ ऐसा ही है जिसका अर्थ है मेरी बदकिस्मती असफ़लता नाकामी का एक कारण ये भी है कि मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । शायर कोई अनजान है मुझे ढूंढने पर भी उनका नाम नहीं मिला पेश है दो शेर उनकी ग़ज़ल से :

बंद आंखों का तमाशा हो गया , 
खुद से मैं बिछड़ा तो तन्हा हो गया ।
 
एक सूरत ये भी महरूमी की है  ,
मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । 
 
  हक़ीक़त नहीं कोई अफ़साना लगता है , ज़िंदगी के बाद जैसा किसी शायर ने खुद ही कहा था अपनी ग़ज़ल में , आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद , होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद । उनकी दास्तां सुनी तो दिल दिमाग़ में हज़ारों ख़्यालात जाने किधर से कहां तक उमड़ने लगे , तमाम अन्य अजनबी अनजाने जाने पहचाने लिखने वालों की स्मृतियां फिर ताज़ा हो गई । पहले थोड़ा संक्षेप में नैरंग जी की बात बाद में बहुत कुछ विषय से जुड़ा हुआ अलग अलग व्यक्तियों को लेकर । 6 फरवरी  1912  में  पाकिस्तान में ज़िला डेरा इस्माइल खां के इक क़स्बे मंदहरा उनका जन्म और 5 फरवरी  1973 में रिवाड़ी में निधन 61 वां जन्म दिन मनाने से चौबीस घंटे पहले , उर्दू फ़ारसी के विद्वान और बाद में पंजाबी पढ़ कर पंजाबी के अध्यापक रहे शायर को मलाल ही रहा अपने लेखन का प्रकाशन नहीं होने को लेकर । कई साल बाद उनके बेटे का संपर्क इत्तेफ़ाक़ से उर्दू और फ़ारसी पर शोध कार्य एवं उन को बढ़ावा देने को प्रयासरत जनाब डॉ तक़ी आबीदी जो लेखक और आलोचक हैं से हुआ , जिन्होंने नैरंग जी की रचनाओं पर पहली बार 2020 में प्रकाशन किया । 
 
  भारत में 2018 में उनके शागिर्द रहे शायर विपिन सुनेजा जी ने इक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी और कभी कभी उन को लेकर आयोजन करवाया करते थे रिवाड़ी के लेखक मित्र मिलकर । डॉ आबीदी जी ने कितने ही देशों में उनके लेखन पर आयोजन प्रचार प्रसार किया और खूब सराहना मिलती रहती हमेशा । नैरंग सरहदी जी के निधन के 51 साल बाद रेवाड़ी में  ' इंडिया कानकलेव ' में कार्यक्रम आयोजित करवा जैसे भूली बिसरी कहानी को ताज़ा ही नहीं किया बल्कि उनके बेटे नरेश नारंग जी ने अपने अनुभव सांझा कर हमारे समाज और देश राज्य में साहित्य और रचनाकारों की ही नहीं भाषा और संस्कृति की दशा पर उदासीनता क्या संस्थाओं संगठनों की लापरवाही को उजागर कर सोचने पर विवश कर दिया । किसी हिंदी भाषा की  साहित्य अकादमी ने उनकी रचनाओं की पांडुलिपि पर कोई विचार तक नहीं किया क्योंकि उनका लेखन उर्दू या फ़ारसी में लिखा हुआ था , ऐसी अन्य संस्थाओं से भी नरेश नारंग जी को निराशा से अधिक हताशा मिली और उनका साहस धैर्य ख़त्म होने को था जब डॉ तक़ी आबीदी जी से संवाद ने अपने पिता की विरासत को सुरक्षित रखने संभालने में संबल का कार्य किया जिस से पचास साल बाद इक खोया हुआ महान शायर फिर से ज़िंदा हो गया है । लेखक कवि शायर इक विचार होते हैं जो उनके जाने के बाद भी कभी ख़त्म नहीं होते मिटते नहीं हैं । 
 
    नैरंग जी को लेकर उन से बेहद करीब रहे विपिन सुनेजा जी से चर्चा की तो उनकी ज़िंदगी की किताब खुलती ही गई । शायरी में भाषा उच्चारण की शुद्धता को लेकर बहुत गंभीर रहते थे , ग़ज़ल नज़्म के साथ मुक्तक एवं कव्वाली और मसनवी भी शामिल है उनके लेखन में । आशावादी सोच वास्तविक जीवन की परेशानियों समस्याओं के बावजूद कायम थी तथा हास्य विनोद उनका स्वभाव में रहता था । इक खास बात जो उन में थी सभाओं में केवल उन्हीं लोगों को आमंत्रित करते जिन की रूचि अदब में हो बिना बात भीड़ जमा करना उन्हें पसंद नहीं था । जैसा सभी जानते हैं हर साहित्यकार इक खूबसूरत दुनिया बनाना चाहता है जबकि वास्तव में सिर्फ कलम चलाने से सब संभव नहीं और ऐसा कहते हैं लिखने से नहीं कुछ कर दिखाने से बदलाव होगा मगर ऐसा होने ही नहीं देते कुछ लोग । कभी कभी नियति भी अपना रंग दिखाती है कमाल ही करती है नैरंग जी ने उर्दू अकादमी को अपनी किताब की पांडुलिपि भेजी थी जिसे प्रकाशित करने की स्वीकृति का पत्र उनके निधन के कुछ दिन बाद मिला था परिवार को शायद चार दिन बाद की बात है , लेकिन उर्दू अकादमी ने उनकी किताब " तामीर - ए - यास " 25 साल बाद छापी 1998 में । मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर है कि हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , ख़ाक़ हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।  
 
  लेकिन सभी का नसीब ऐसा नहीं होता है बहुत लोग ऐसे होते हैं जिनके लेखन को लेकर परिवार समाज अनभिज्ञ या उदासीन होते हैं । कितने लोग जो लिखते हैं उनकी डायरियों में रह जाता है और शायद ही कोई उनको पढ़ता समझता या सुरक्षित रखता है । मैंने अपने कुछ दोस्तों के निधन के बाद उनके वारिस बच्चों से पत्नी से पूछा तो उनको पता ही नहीं था कि दोस्तों की रचनाएं कहां खो गई अथवा धूल चाट रही होंगी या कभी दीमक खा जाएगी । सिरसा हरियाणा से प्रकाश सानी जी क्या कमाल की ग़ज़ल कहते थे अख़बार पत्रिकाओं में छपती थी लेकिन कोई किताब नहीं छपने से उनकी रचनाओं का क्या हुआ कोई नहीं जानता है । सिरसा से ही हरिभजन सिंह रेणु जी की पंजाबी की कविताएं हिंदी में अनुवाद किया गया लेकिन कभी उनको आपेक्षित पहचान और सम्मान शायद नहीं मिला । जबकि कुछ ऐसे भी लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने किसी और की रचनाओं को कुछ बदलाव कर खुद की घोषित कर नाम शोहरत से लेकर सरकारी साहित्य अकादमियों में निदेशक पद तक हासिल कर लिया । आजकल साहित्य की किताबों को कोई पढ़ता ही नहीं है कभी कहते थे किताब खरीद कर पढ़नी चाहिए मांग कर नहीं , अब तो लिखने वाले उपहार में भेजते हैं तब भी पढ़ता कोई शायद ही है ।  

लेखक सभी का दर्द समझते महसूस करते हैं लिखते हैं बस खुद अपना दुःख दर्द कभी नहीं लिखते , लिखना भी चाहें तो छापेगा कौन । अख़बार पत्रिका पुस्तक प्रकाशक लिखने वालों की रचनाएं प्रकाशित कर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं मगर लेखक को अधिकांश कोई मानदेय नहीं मिलता जो देते हैं वो भी बहुत थोड़ा जिस से कोई लेखक जीवन यापन नहीं कर सकता । कुछ जाने माने खास लोगों की किताबें सरकार खरीदती है या अन्य लोग किसी मकसद से खरीदते हैं हज़ारों में अलमारी में रखने को पढ़ने को नहीं । कुछ साल पहले संसद में इक कानून बनाया गया जिस पर बताया गया लेखक का भला होगा , कानून बना कि कोई लेखक अपने लिखे गीत ग़ज़ल का अधिकार नहीं बेच सकता कोई खरीदता है तो अवैध होगा । कभी किसी का अपना निर्मित सृजित कुछ बेचना भी गुनाह हो सकता है , जाने ये हाथ काटने की बात है कि हाथ मिलाने की । इक सवाल ये भी उठता है कि लिखने वाले का साहित्य प्रकाशित होना क्या अहमियत रखता है तो इसका जवाब भी है कि आप किसी काल किसी शासन किसी राज्य किसी समाज की असलियत तभी समझ सकते हैं जब उस वक़्त के कवि कथाकार ग़ज़ल कहने वाले साहित्य का सृजन करने वालों को पढ़ेंगे समझेंगे । किसी ईमारत किसी शिलालेख से भवन से सामाजिक वास्तविकता नहीं जान सकते हैं । आपने बड़े बड़े किले ऊंचे ऊंचे मीनार भव्य निर्माण देखें होंगे जिनको देख आप अभिभूत हो सकते हैं , लेकिन कोई कवि कोई शायर कोई कहानीकार आपको उजला नहीं अंधेरा पक्ष भी दिखला सकता है । शासकों का गुणगान करने वाले ज़ालिम को मसीहा बताने वाले चाटुकार नहीं लिखेंगे कि वो कितने अत्याचारी थे । कोई ताजमहल पर नज़्म लिख बादशाह को कटघरे में खड़ा कर सकता है , इक शहशांह ने बनवा के हसीं ताजमहल हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक । 
 
  यहां आज के आधुनिक समाज की बात करनी आवश्यक है , साहित्य कला संस्कृति सभी को फिल्म टीवी सीरियल इत्यादि ने प्रदूषित कर दिया है । समाज की वास्तविकता कहीं दिखाई नहीं देती आधुनिक टीवी सिनेमा से सोशल मीडिया में । इक खास वर्ग तक सिमित ही नहीं बल्कि सही दिशा नहीं दे कर भटकाने का कार्य कर रहे हैं खुद को दर्पण कहने वाले । पैसा इतना महत्वपूर्ण लगता है कि अभिनय से संगीत या पटकथा लेखन में नैतिकता मर्यादा का उलंघन आम है गंदगी परोसना आदत हो गई है । धन दौलत नाम शोहरत की अंधी दौड़ में फिल्म जगत और टेलीविज़न से संबंधित लोग सही मार्ग से भटक गए हैं और समाज की सही तस्वीर नहीं दिखते बल्कि झूठी और कपोल कल्पनाओं की कहानियां दिखा दर्शकों को गुमराह करने लगे हैं । इनको आप वास्तविक साहित्य का पर्याय या विकल्प समझने की भूल कभी नहीं करें । इनके मापदंड कब बदल जाते हैं कोई नहीं सोच समझ पाता है । कड़वी बात है लेकिन सच है कि हमारे देश में ईमानदारी से लिखना अपराध करने जैसा है , सज़ा देते हैं वो लोग जिनको साहित्य की परख की बात क्या समझ नहीं होती लेकिन निर्धारित करते हैं क्या शानदार लेखन है क्या बेकार है । 
 
 मैंने जनाब नैरंग सरहदी जी को लेकर यथासंभव सार्थक जानकारी खोजने की कोशिश की है , लेकिन जिस शख़्स से आप कभी मिले नहीं कोई भी संबंध कभी नहीं रहा कभी पहले पढ़ा ही नहीं उनको कितना समझ सकता है कोई भी । हां इतना अवश्य महसूस हुआ है कि कुछ लोग सही वक़्त पर सही जगह सही समाज और माहौल में नहीं पैदा होते किसी पौधे की तरह उचित वातावरण नहीं मिलने से बढ़ नहीं पाते फलते फूलते नहीं है लेकिन उनका अंकुर इतने वर्ष बाद सुरक्षित रहना और फिर से उगना किसी चमत्कार से कम नहीं है ।
 
 नैरंग जी की किताब ' ज़िन्दगी के बाद ' पढ़ रहा हूं अमृत प्रकाशन दिल्ली से 2018 में प्रकाशित हुई है ,
कुछ चुनिंदा ग़ज़ल विपिन सुनेजा की आवाज़ में ' आएगी मेरी याद '  एल्बम में से नीचे लिंक दिया गया है लुत्फ़ उठा सकते हैं । शुरुआत ही शानदार दो शेर से की गई है पढ़िए :-
 
आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद 
होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद । 
 
पसे - हयात यही शेर होंगे ऐ नैरंग 
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी ।  
 
ग़ज़लों के बाद कुछ कत्ए शामिल हैं बहुत शानदार कुछ पढ़ सकते हैं :-

गुले - बेरंगो- बू- ओ - बास हूँ मैं 
ज़िन्दगी से बहुत उदास हूँ मैं 
मुझसे दुनिया को क्या ग़रज़ ' नैरंग '
शाइरे - दर्दो-ग़मो यास हूँ मैं । 

गर्के -आबे- शफ़ाफ़ रहता हूँ 
पाक दामन हूँ साफ़ रहता हूँ 
कुछ दो दुनिया ख़िलाफ़ है मेरे 
कुछ मैं अपने ख़िलाफ़ रहता हूँ । 

लुत्फ़ सुनने में कहाँ और सुनाने में कहाँ 
दाद देने में कहाँ दाद के पाने में कहाँ 
दिले - बेताब की बातें हैं ये ' नैरंग ' वरना 
कद्रदानी - ए - सुख़न आज ज़माने में कहाँ । 

कुछ नज़्में हैं , चरागां करके छोड़ेंगे , हमारा हरियाना , गुरु नानक , गुरु गोविन्द सिंह , महात्मा गांधी । 
मर्सिया पढ़ते हैं किसी की समाधि कब्र पर श्रद्धांजलि देते समय , नैरंग जी ने जिन पर मर्सिया लिखा है उन में शामिल हैं , पण्डित जवाहरलाल नेहरू , लाल बहादुर शास्त्री , अपने उस्ताद पर । 

कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद भी शामिल है उनकी किताब ' ज़िन्दगी के बाद में '  , और आखिर में इक मसनवी भी लिखी है  ' दस्ताने- सावित्री ' कुछ साहित्य उर्दू फ़ारसी के लिखने शोध करने वालों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं अलग अलग तरीके से कितनी जगह पर । सभी ने उनके लेखन को विश्व स्तर का और शानदार बताया है , निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी का सही समय और सामाजिक वातावरण में होना अथवा नहीं होकर विपरीत माहौल में रहना पैदा होना प्रमुख कारण हो सकता है उचित पहचान नहीं मिल पाने का किसी का दोष नहीं नियति का भी नहीं कह सकते ऐसे जाने कितने अनमोल हीरे कहीं मिट्टी में दबे रह जाते हैं । उनका ही शेर आखिर में उनकी कहानी को ब्यान करता हुआ : -
 
 
मैं और मेरी याद खुदासाज़ बात है , वर्ना मैं वो हूं जिसको ज़माना भुला चुका । 
 
 
किसी एक पोस्ट में ऐसे महान शायर की बात पूरी होना संभव नहीं है गागर में सागर भरने की कोशिश नहीं करना चाहता बस आख़िर में विपिन सुनेजा जी की आवाज़ में उनकी ग़ज़लों के यूट्यूब वीडियो लिंक सांझा कर रहा हूं जो नैरंग जी की पुस्तक ' ज़िन्दगी के बाद ' की चुनिंदा रचनाएं हैं ।    

 
 
   


दिसंबर 04, 2024

POST : 1923 मंदिर दोस्ती का ( हसरत- ए - दिल ) डॉ लोक सेतिया

         मंदिर दोस्ती का ( हसरत- ए - दिल ) डॉ लोक सेतिया  

दोस्त दोस्ती उम्र भर इसी दायरे में ज़िंदगी घूमती रही है , कभी किसी ने लिखा था भगवान को ढूंढने निकला था फिर सोचा था कोई दोस्त साथ हो तो मिलकर तलाश करेंगे । जब दोस्त मिल गया तो भगवान को खोजने की ज़रूरत ही नहीं रही । मैंने हमेशा लिखा है कि मुझे बस इक सच्चे दोस्त की चाहत है ढूंढता रहता हूं और शुरुआत में लिखना ही उसी के लिए उसी के नाम किया जो कौन कहां कैसा नाम पता नहीं जानता । वो कहानी अलग है कोई कल्पनालोक की परियों की कथा जैसी आज उन सभी दोस्तों की बात जो मिलते रहे और बिछुड़कर भी कभी दिल से दूर नहीं हुए । बचपन से अभी तक कितने ही दोस्त मिले हैं कुछ ऐसे जो किसी इक छोर से दूजे छोर तक सफर के हमराही जैसे रोज़ ज़िंदगी के कारोबार में जान पहचान कुछ अनुभव कुछ करीब रहना इक बहाना या इत्तेफ़ाक़ होता है । लेकिन बहुत थोड़े दोस्त पता नहीं चलता क्यों कब और कैसे अपना इक हिस्सा बन गए । दोस्त वही जिन से दिल और रूह महकने लगती है जिनसे मिलते ही खुद को भूल दोस्ती की खुशबू से हर मौसम सुहाना बन जाता है । आदमी आखिर इक दिन दुनिया से रुख़्सत होते रहते हैं बस दोस्ती ही है जो मौत से भी मरती नहीं ख़त्म नहीं होती हमेशा ज़िंदा रहती है सभी दोस्तों के दिलों में । कोई यकीन करे भले नहीं करे मेरे दोस्त हमेशा मेरे दिल में ज़िंदा रहते हैं । बचपन में दोस्तों के लिए इक गीत गाता रहता था मैं हमेशा , एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । यारों ने मेरे वास्ते क्या कुछ नहीं किया , सौ बार शुक्रिया अरे सौ बार शुक्रिया , बचपन तुम्हारे साथ गुज़ारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । बनता है मेरा काम तुम्हारे ही काम से , होता है मेरा नाम तुम्हारे ही नाम से , तुम जैसे मेहरबां का सहारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । जब आ पड़ा कोई भी मुश्किल का रास्ता , मैंने दिया है तुमको मुहब्बत का वास्ता , हर हाल में तुम्हीं को पुकारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । गबन फ़िल्म , शायर हसरत जयपुरी , गायक मोहम्मद रफ़ी , संगीत शंकर जयकिशन ।  
 
बहुत सोचा बड़ी मुश्किल से समझ आया कि दोस्ती दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता क्यों है , बहुत ही संक्षेप में बताता हूं जो मैंने समझा है इतने गहन गंभीर विमर्श के बाद । आपको जितने भी नाते रिश्ते मिलते हैं जन्म से बड़े होने तक माता पिता भाई बहन अन्य रिश्तेदार सभी से हमेशा इक लेन देन का सिर्फ पैसे का नहीं तमाम तरह का रहता है । थोड़ा अजीब है लेकिन मुझे दिखाई दिया है हर किसी के पास इक बही खाता है जिस में आपका क़र्ज़ अथवा उधार लिखा है क्या क्या करना था नहीं किया हज़ार शिकायत शिकवे गिले सामने नहीं फिर भी नज़र आते हैं । आपने कितना किया कभी कोई जमाखाता नहीं रखता क्योंकि ऐसा तो करना आपका फ़र्ज़ था कोई एहसान नहीं किया , कभी भी किसी ने नहीं देखा कि आपकी क्या मज़बूरी रही होगी जब कुछ करना चाहते थे नहीं कर पाए । कितने दिन आये नहीं कोई संदेश नहीं बहुत कुछ रहता है नाराज़गी जैसा और उसे कोई भुलाता नहीं कितने प्रयास कर देखें । सिर्फ दोस्त भले कितने साल बाद मिलते हैं कोई ऐसा हिसाब-किताब नहीं करते ख़ुशी से बाहों में भर कर कहते हैं अभी भी वैसे ही हैं । उम्र का बदलाव दोस्ती में कोई बदलाव नहीं लाता है , दुनियादारी से अछूता रहता है ये संबंध दिल का दिल से । 
 
आपने सुना होगा पिता से पुत्र से माता से बेटी से बहन से भाभी से हमको दोस्त की तरह रहना है समझना है , क्योंकि सभी जानते हैं इस से सुंदर निःस्वार्थ रिश्ता कोई नहीं ज़माने में । लेकिन कहना आसान करना बहुत कठिन है उम्मीद पर खरा उतरना पड़ता है जबकि दोस्ती का मतलब ही है कोई इम्तिहान नहीं लिया जाता बस भरोसा दिल से होता है कि दोस्त हैं तो हैं कोई प्रमाणपत्र नहीं ज़रूरत होती । आपको शीर्षक ध्यान आया , मेरा इक ख़्वाब है दोस्ती का इक घर हो मंदिर जैसा पावन जिस में सभी दोस्त जब चाहें आएं साथ साथ रहें जब मर्ज़ी चले जाएं कोई बंधन नहीं हो । दोस्ती सभी का धर्म हो ईमान हो दोस्तों की दुनिया में किसी और दौलत की आवश्यकता नहीं होती है । आपको इक राज़ की बात बतानी है , मेरे पास अनमोल खज़ाना है दुनिया की सबसे बड़ी दौलत का तलाशी ले सकते हैं , मिलेगा प्यार और दोस्ती का अंबार । 
 

(  राजेंदर , जुगिंदर , भुपेन्दर , जैसे दोस्तों को समर्पित ये लेख जिनकी याद हमेशा रहेगी। ) 

 

 

नवंबर 26, 2024

POST : 1922 पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

       पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

सालों की गिनती का क्या महत्व है किताब की बात हो तो जो लिखा गया वही होता है पढ़ना हो अगर मगर उनको संविधान की किताब से कोई सबक नहीं सीखना उस में समझाई बातों पर अमल नहीं करना सिर्फ उसका लाभ उठाना है सत्ता मिलती है उसी का करिश्मा है । अचानक किसी को लगा कितने साल से उस की चर्चा करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई अब जब राजनीति की नैया डोलने लगी हिचकोले खाने लगी सत्ता की डोली घबराने लगी सियासत अपना ढंग दिखाने लगी किसी चौखट पर सर झुकाने लगी । हमको बचपन की बात याद आई बाबा जी कहते थे सभी परिवार रिश्तेदार गांव शहर वाले , जीवन भर बड़ी मेहनत से कमाई की कितना कुछ बनाया । पुराने बज़ुर्ग बड़े सीधे सादे भोले हुआ करते थे जिस ने हाथ जोड़ जो भी मांगा बिना सोचे दे देते हर कोई सहायता मांगने चला आता । बूढ़े हुए तो घर की बैठक या ड्योढ़ी में चौखट पर बैठे कभी विश्राम करते आदत थी छोटे बड़े से आदर से प्यार से बात करते तो किसी को कोई परेशानी नहीं थी । इक घटना वास्तविक है हम बच्चे सभी भाई चुपचाप ख़ामोशी से रात को छोटे दरवाज़े से सिनेमा देखने चले गए बिना अनुमति बिना बतलाए । चतुराई की थी बैठक का दरवाज़ा भीतर से खुला छोड़ बाहर से सांकल लगा आये थे । फिल्म देख वापस आने पर बैठक का दरवाज़ा खोला तो सामने बाबा जी हाथ में उनकी इक खूंडी हमेशा रहती थी , सभी घबरा गए लेकिन बाबा जी ने कोई शब्द नहीं बोला न कुछ भी सज़ा ही दी । लेकिन कुछ था उनकी नज़रों में जो हमको हमेशा याद रहा । बाबा जी कहते थे तुम लोग चाहे जहां भी जाओ कुछ भी खादी का साधरण कपड़ा पहन रखा हो तुम्हारी पहचान मेरे पोते हो हमेशा रहेगी । बाबा जी का निधन पचास साल पहले हुआ तो हमको शायद ही समझ आया हो हमने कितना शानदार रिश्ता खो दिया है । 
 
मुझे ये कहने और स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे सैंकड़ों लोगों के बड़े परिवार में उन जैसा कभी कोई नहीं बन पाया । उनके विचार उनकी सभी को अपना बनाने भरोसा करने की आदत किसी में नहीं है निस्वार्थ और ईमानदारी से आचरण करना और कभी किसी से नहीं डरना खराब हालात का डटकर सामना करना इक ऐसा किरदार था जिस में कोई अहंकार कभी नहीं दिखाई दिया , कोई बड़ा छोटा नहीं सभी बराबर थे उनके लिए । संविधान की किताब का उन से कोई मतलब नहीं है लेकिन खुद अनपढ़ होने के बाद भी हमको पढ़ना लिखना उन्हीं ने सिखाया था । मुझसे हमेशा धार्मिक किताबें पढ़ कर सुनाने को कहते और मैं कभी इनकार नहीं करता था बाकी भाई बहाना बना बचते थे । आज लगा ये जितने लोग संविधान की वर्षगांठ मनाने का आयोजन उत्स्व मना रहे हैं क्या पढ़ते हैं किताब को समझते हैं अनुपालना करते हैं । शायद लोग भगवान धार्मिक कथाओं को भी पढ़ते समझते नहीं बस उनको अलमारी में या किसी जगह सजावट की तरह रख कर सर झुकाते हैं । विडंबना इस बात की है कि सर भी झुकाते हैं तो किसी स्वार्थ की खातिर कुछ चाहते हैं या फिर किसी डर से या गलती की क्षमा मांगने के लिए । आजकल बड़े बज़ुर्गों की तस्वीरें बनवा दीवार पर टंगवाने और फूलमाला चढ़ाने का चलन है , हम लोगों ने बाबा जी की कोई तस्वीर नहीं बनवाई , किसी ने नहीं लगवाई मरे पर पासपोर्ट साइज़ की अलबम में अवश्य सुरक्षित है । 
 
किताब से आवाज़ आती सुनाई दे रही है , बेबस लाचार बना दिया है मुझे इन्हीं लोगों ने जो भाषण में मुझे कितना महान बतला रहे हैं । वास्तव में मुझे अपने मतलब की खातिर दरवाज़े पर बिठाया हुआ है क्योंकि मेरा शरीर देखने में बड़ा बलशाली लगता है कोई चोर लुटेरा घर में प्रवेश करते घबराएगा । असल में मुझसे हिला भी नहीं जाता और रात भर जागता रहता हूं कितनी चिंताएं हैं मेरी भावनाओं की परवाह किसी को नहीं है ।

संविधान दिवस पर विशेष कार्यक्रम, 75 साल पूरे होने पर पुरानी संसद में आयोजन  City Tehelka

नवंबर 24, 2024

POST : 1921 नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

   नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 

जब पहली बार नकली होशियारी अथवा ए आई (   artificial intelligence ) का पता चला तभी मैंने तय कर लिया था इस नामुराद से बच कर रहना ज़रूरी है । होशियारी से अपना यूं भी कभी कोई नाता नहीं रहा है , सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी । लोग भले चाहते हैं सब कुछ आसानी से पलक झपकते हो जाये बस किसी अलादीन के चिराग़ से निकले जिन को आदेश देते असंभव भी संभव हो जाये । हमको मुश्किल राहों से उलझनों परेशानियों से गुज़र कर कुछ भी हासिल करना अच्छा लगता है नाकामियों से घबराना नहीं आता हमको । कागज के फूल हुआ करते थे अब प्लास्टिक से बने मिलते हैं और हमने इंसानों में भी पत्थर जैसे लोग देखे हैं जो हमेशा खूबसूरत दिखाई देते हैं लेकिन कुछ भी खुशबू नहीं बांटते नकली फूल । अभी तक दुनिया समझती समझाती थी नकली से बचना चाहिए ये क्या हुआ जो लोग नकली होशियारी पर ऐसे फ़िदा हैं । बताते हैं ये सब कर सकता है उसको कहोगे तो कुछ भी लिख देगा किसी भी की आवाज़ की हूबहू नकल करेगा जाने क्या क्या । लेकिन जानकारी लेने पर पता चला कि उस में जो भी सामिग्री जानकारी सूचनाएं भरी गई होती हैं उन्हीं से अंदाज़े से आपकी वांछित बात देता है । इसको समझदारी नहीं चालाकी चतुराई कहना चाहिए क्योंकि कंप्यूटर या मशीन खुद कुछ भी सृजन नहीं करती हैं केवल वही करती है जिस के लिए इंसान ने उसे बनाया हुआ है । 
 
ऐसे ढंग से कोई आपको अनाज फल खाने पीने की चीज़ें रोटी सब्ज़ी बनाकर प्रस्तुत कर भी दे तब भी आप उस को खा नहीं सकते , भविष्य में आपको मानसिक रोगी बना सकता है ये । सोचो आपको भूख लगी हो मगर ये नकली होशियारी आपको बताये कि आपका पेट अब भर चुका है ऐप्प पर देख सकते हैं । अभी इस को लोग उपयोग करने ही लगे थे कि कितनी ऐप्प्स बाज़ार में आ गई इनकी वास्तविकता को परखने को , अब उनसे जानकारी ली जाने लगी है कि नकली होशियारी से बनी हुई झूठी चीज़ है । अभी तो सरकार उसका उपयोग करने की बात सोचती हो शायद मगर बाद में लोग समझ सकते हैं कि चलो सरकार नेता सभी का कोई भरोसा नहीं रहा चलो इस के सहारे देश की व्यवस्था चलाते हैं । योजनाएं बजट सब इस से बन जायेगा और उनसे अधिक भरोसेमंद क्योंकि मशीन को रिश्वत भाईचारा स्वार्थ और जालसाज़ी की ज़रूरत नहीं होगी । लेकिन शोध कर्ता बताते हैं जब इसी से लिखवाई बात को कुछ दिन बाद इसी को परखने को कहा तो इस ने जवाब दिया ये किसी मूर्ख की समझाई गलत बात है । ऐसे एक दिन इस में जब कोई वास्तविक नई सही जानकारी नहीं भरी जाएगी क्योंकि हमने सब इस के हवाले कर दिया होगा खुद चैन की बंसी बजाते होंगे तब इस में कुछ नहीं बचेगा केवल कचरा मिलेगा । दुनिया में पहले भी ऐसा होता रहा है चतुर सुजान बनकर कुछ लोग अपना कचरा कूड़ा कर्कट अन्य देशों को बेच कर अपनी मुसीबत से छुटकारा पाते हैं साथ में कमाई भी करते हैं । बड़े बज़ुर्ग कहते थे हम चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती फिर इसका तो नाम ही   artificial intelligence है मतलब नकली का प्रमाणपत्र सलंगन है । झूठी यारी बड़ी बिमारी होती है । 
 
 What is Artificial Intelligence (AI) and Why People Should ...

नवंबर 20, 2024

POST : 1920 चुपके से छुपते छुपाते धंधा है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  चुपके से छुपते छुपाते धंधा है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  आशिक़ी हो कि राजनीति हो कौन बच सकता है सभी करना चाहते हैं मगर सभी को सब कुछ मिलता नहीं है । लेकिन ये दो अलग अलग विषय हैं किताबें भी अलग अलग हैं , जाने क्यों नासमझ लोग आशिक़ी में भी राजनीति करने लगते हैं और कुछ लोग राजनीति में दिल लगा बैठते हैं , जबकि राजनीति में कोई भी किसी का होता नहीं है । लेकिन आज दोनों विषयों पर इक साथ लिखना मज़बूरी है क्योंकि आजकल समझना बड़ा दुश्वार है क्या ये राजनीति का कारोबार है या फिर किसी को किसी से हुआ सच्चा प्यार है । माजरा आपसी लेन देन का है और ऐसा लेना देना सार्वजनिक तौर पर नहीं करते अन्यथा हंगामा खड़ा हो जाता है । अधिकांश लोग अवैध लेन देन को रिश्वत कहना उचित नहीं मानते इसे उपहार कहना ठीक समझते हैं । सत्ता की राजनीति में उपहार का चलन पुराना है जनता को बड़ी मुश्किल से पड़ता मनाना है उसे अपना बनाना है तो नित नया रास्ता बनाना है । शराब की बोतल से कभी बात बन जाती थी कभी साड़ी बांटने से भरोसा जीत सकते थे वोट का नोट से रिश्ता अटूट है आपको सब करने की छूट है सरकार की योजना गरीबी मिटाने की नहीं है ये लूट खसूट है यही सच है बाक़ी सब झूठ है । भिक्षा कभी बेबस गरीब मांगते थे या फिर कुछ साधु संत सन्यासी पेट भरने को झोली फैलाते या भिक्षा पाने का कोई कटोरा हमेशा लिए रहते थे । भीख भिखारी भिक्षा सभी बदल चुके हैं आजकल ये धंधा सब बाक़ी व्यवसायों से अधिक आसान और बढ़िया बन चुका है उस से ख़ास बात ये है कि इस में कभी मंदा नहीं आता न ही इसको छोटा समझा जाता है । दानपेटी से कनपटी पर बंदूक रख कर ख़ुशी से चाहे मज़बूरी से देने के विकल्प हैं । दाता के नाम देने की बात आजकल कारगर साबित नहीं होती है डाकू गब्बर सिंह का तरीका भी अब छोड़ दिया गया है क्योंकि उस में खतरे अधिक और फायदा थोड़ा बदनामी ज़्यादा होती है । 

आपको ध्यान होगा कभी सरकारी दफ़्तर में रेड क्रॉस बांड्स के नाम पर वसूली खुले आम हुआ करती थी , बांड मिलते नहीं थे बस मूल्य देना पड़ता था । लेकिन हिसाब रखते थे वास्तव में कुछ बांड की बिक्री की कीमत जमा करते थे मगर उस पैसे को खर्च स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने पर नहीं बड़े अधिकारी की सुख सुविधाओं पर करते थे । तबादला होने पर अधिकारी खाते में जमा बकाया राशि कुछ खास अपने लोगों को वितरित किया करते थे , भविष्य में उसका फल मिलता रहता था । वक़्त बदला तो इस हाथ दो उस हाथ लो का नियम व्यवहारिक लगा तो परिणीति चुनवी बांड्स में हुई मगर कुछ ही समय बाद उनको अवैध घोषित कर दिया गया अदालत द्वारा । लोकतंत्र का तमाशा अजीब है जिस में ऐसी बातें राज़ कहलाती हैं जिनके बारे में हर कोई जानता है । जब तक सामने दिखाई नहीं देता किसी को कोई मतलब नहीं होता जानते हैं कि सभी दल यही करते हैं ईमानदारी की मूल्यों पर आधारित राजनीति कोई नहीं करता सब समझते हैं जो चाहे वही करूं मेरी मर्ज़ी । कोयले पर हीरे का लेबल लगाया हुआ है राजनीति काजल की कोठरी है कालिख से कौन बच सकता है । देश की आधी से अधिक संपत्ति धन दौलत कुछ लोगों के पास जमा हुई है तो सिर्फ इसी तरह से जनता से वसूल कर खज़ाना भरने और उस खज़ाने से योजनाओं के नाम पर अपनों को वितरित करने या अंधा बांटे रेवड़ियां फिर फिर अपने को दे । इधर चुनाव में बांटने बटने साथ रहने पर चुनाव केंद्रित था किसी को खबर नहीं थी कि मामला पैसे बांटने की सीमा तक पहुंचेगा ।
 
आपको क्या लगा जिस से बात शुरू की थी इश्क़ आशिक़ी उस को भुला दिया या उस का कोई मतलब ही नहीं है । ऐसा नहीं है सच कहें तो सिर्फ राजनेता अधिकारी उद्योगपति ही नहीं सभी पैसे से दिल लगा बैठे हैं पैसे की हवस ने समाज को पागल बना दिया है । राजनीति समाजसेवा देशभक्ति की खातिर नहीं होती अब आजकल सत्ता हासिल कर नाम शोहरत ताकत का उपयोग कर दौलत हथियाने को की जाती है । जिस जगह कभी कुंवां था शायर कहता है उस जगह प्यास ज़्यादा लगती है बस वही बात है जिनके पास जितना भी अधिक पैसा होता है उसकी लालसा उसका लोभ उतना ही बढ़ता जाता है । आपने ठगी करने की कितनी बातें सुनी होंगी ठग पहले कुछ लालच देते हैं बाद में लूटते हैं जैसे शिकारी जाल बिछाता है पंछी दाना चुगने आते हैं जाल में फंसते हैं । राजनीति जो जाल बुनती है बिछाती है दिखाई नहीं देता कभी कोई हादसा पेश आता है तो ढकी छुपी असलियत सामने आती है तब हम हैरान होने का अभिनय करते हैं जैसे हमको नहीं पता था कि ऐसा ही होता रहा है और होना ही है क्योंकि हमको आदत है बंद रखते हैं आंखें । आखिर में पेश है मेरी इक पुरानी ग़ज़ल । 
 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।   
 

 Amit Srivastava🕉️🇮🇳 on X: "वो बिक चुके थे... जब हम खरीदने के काबिल हुए!  https://t.co/UYIalYMqYN" / X
 

नवंबर 17, 2024

POST : 1919 क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं 
बिक गया सब झूठ सच तोलता कोई नहीं । 

शहर में रहते हैं अंधे उजाला क्या करे 
खिड़कियां हैं बंद दर खोलता कोई नहीं । 



POST : 1918 तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से ) डॉ लोक सेतिया

   तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से  ) डॉ लोक सेतिया 

अभी नहीं मालूम अगली ही पंक्ति में लिखना क्या है सुबह सुबह ये ख़्याल आया कि इस दुनिया में सभी कुछ तो है फिर भी सभी की झोली ख़ाली दिखाई देती है तो किसलिए । बहुत सारी पुरानी डायरियां संभाल कर रखी हुई है , अक़्सर जब कोई सवाल परेशान करता है तो उनको पढ़ता हूं और न जाने कैसे मुझे जो बात नहीं समझ आ रही थी पल भर में समझ आ जाती है । आज विचार आया मन में बातचीत में व्यवहार में सोशल मीडिया से लेकर साहित्य फ़िल्म टीवी सीरियल सभी में ऐसा लगता है देख सुन कर जैसे जहां में प्यार वफ़ा ईमानदारी भरोसा जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं ऐसा कुछ मिलता ही नहीं किसी को भी ढूंढते ढूंढते सब का जीवन गुज़र जाता है ।
 
कुछ रचनाएं आधी अधूरी पुरानी डायरी में लिखी हुई हैं , पढ़कर देखा , जिनको किसी न किसी कारण से मुकम्मल नहीं किया जा सका था , लेकिन उनकी शायद दबी हुई भावनाओं को खुद ही आकार देने की क्षमता अभी तक नहीं रही खुद मुझी में , तो किसी को क्या बताता और कोई कैसे समझाता  । उम्र के इस मोड़ पर जो मुझे समझ आया वो इक वाक्य में कहा जा सकता है ' मैंने सही लोगों में सही जगह उचित तरीके से जिन बातों की चाहत थी बेहद ज़रूरत थी दोस्ती प्यार अपनेपन की नहीं की,  और जिन लोगों जिन जगहों पर उनका आभाव था वहां उन सब को ढूंढता रहा '। तभी मैंने अपने जीवन को रेगिस्तान में पानी की तलाश ओएसिस जैसा बार बार कहा है रचनाओं में । आसानी के लिए वही कुछ पुरानी कविताएं नज़्म या जो भी है सार्वजनिक कर रहा हूं विषय की ज़रूरत है ऐसा सोच कर । 
 
 1 

ज़िंदा रहने की इजाज़त ही नहीं मिली , 
प्यार की मुझको इक दौलत नहीं मिली ।
 
मिले दोस्त ज़माने भर वाले , लेकिन , 
कभी किसी में भी उल्फ़त नहीं मिली । 
 
नासेह की नसीहत का क्या करते हम , 
लफ़्ज़ों में ख़ुदा की रहमत नहीं मिली ।   
 
 2 

किसी की आरज़ू में  खुद अपने भी न बन पाए ,  
गुलों की चाहत थी कांटों से भरे सब चमन पाए । 
 
मुहब्बत की गलियों में में यही देखा सब ने वहां ,  
ख़ुद मुर्दा हुए दफ़्न हुए तब खूबसूरत कफ़न पाए ।  
 
अजनबी अपने देश गांव शहर में लोग सभी मिले  ,   
जा के परदेस लोगों ने कभी अपने हम-वतन पाए ।
 
 3 

अपने अपने घर बैठे हैं हम सब ये कैसा याराना है ,  
मिलने की चाहत मिट गई फुर्सत नहीं का बहाना है ।  
 
फूलों सी नमी शोलों में लानी है हमने पत्थर दिलों में , 
मिटानी हर नफरत और एहसास प्यार कर जगाना है ।  
 
ढूंढता फिरता हूं खुद ही अपने क़ातिल को मैं कब से   , 
मुझको कोई तो नाम बताओ किस किस को बुलाना है ।
 
 
कुछ यहां तो कुछ वहां निकले , 
नासमझ सारे ही इंसां निकले ।
 
मैंने दुश्मनी का सबब पूछा जब  , 
दोस्त खुद ही बड़े पशेमां निकले ।  

उस का इंतज़ार करते रहे वहीं रुक  , 
जहां से थे वो सभी कारवां निकले । 
 
 5 

कोई अपना होता गर तो कुछ गिला करते , 
ज़माना गैर है किसी से बात ही क्या करते । 
 
बेवफ़ाई शहर की आदत थी पुरानी बनी हुई , 
हमीं बताओ आख़िर कब तलक वफ़ा करते । 
 
ज़ख़्म नहीं भरें कभी यही तमन्ना अपनी थी , 
चारागर पास जाके  क्योंकर इल्तिज़ा करते ।  
 
 
इतना काफ़ी आज की बात को समझने को और नतीजा निकला जवाब समझ आया कि जिस को जो चाहिए पहले ये सोचना समझना होगा वो है कहां मिलेगी कैसे किस से तब अपनी उस को हासिल करने को कोई रास्ता बनाना होगा । चाहत बड़ी कीमती चीज़ होती है सब को इसकी समझ होती नहीं है जब मनचाही चीज़ मिले तो दुनिया की दौलत के तराज़ू पर नहीं रखते हैं दिल के पलड़े पर पता चलता है सब लुटा कर भी कोई दौलतमंद बनता है तो पैसे हीरे मोती सब किसी काम नहीं आये जितना इक शख़्स जीवन में मिल जाए तो किस्मत खुल जाती है । तय कर लिया है जहां प्यार वफ़ा ईमानदारी और विश्वास नहीं हो उस तरफ भूले से भी जाना नहीं है । मुझे अपनापन प्यार और हमदर्द लोग मिले जिनसे मिलने की उम्मीद ही नहीं की थी । उसी रेगिस्तान में पानी कुछ हरियाली को ढूंढता हूं मैं मुझे मालूम है चमकती हुई रेत को पानी समझना इक मृगतृष्णा है उस से बचना है और यकीन है जिस दुनिया की तलाश है वो काल्पनिक नहीं वास्तविक है और मिल जाएगी किसी न किसी दिन मुझे ।  
 
 


नवंबर 11, 2024

POST : 1917 शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

जो नज़र आता है वास्तविकता नहीं होता है , ठीक जैसे सुंदर लिबास और चेहरे के भीतर आदमी नहीं कोई शैतान रहता है । बगुला जैसे हैं हम लगते हैं बड़े साफ़ मन वाले मगर बस मौका मिलते ही अपनी असलियत पता चलती है झपटने को तैयार रहते हैं । धार्मिक बनकर कितना कुछ करते हैं पूजा अर्चना इबादत भजन कीर्तन धार्मिक स्थल पर जाना सर झुकाना ग्रंथों को पढ़ना सुनना हाथ में माला जपना भक्ति श्रद्धा करना दीपक जलाना फूल चढ़ाना नाचना झूमना आंसू बहाना । मगर हमेशा रहता है कहीं पर निगाहें कहीं पे निशाना । कौन कितना भला कितना बुरा नहीं कोई भी पहचाना , छोड़ा नहीं झूठ बोलना दुनिया को जैसा नहीं होकर दिखलाना । लोभ छोड़ा न नफरत छोड़ी अहंकार कितना कितनी दौलत कैसे जोड़ी चलन है निराला भीतर अंधेरा है बाहर उजाला । देशभक्त कहलाते हैं मगर हैं छलिया जिस शाख पर बैठते हैं उसे ही काटते रहते हैं चोर डाकू कुछ भी उनके सामने नहीं है ये समाज को बर्बाद करते हैं भटकाते हैं कुर्सियों पर बैठ दरबारी राग गाकर क़ातिल होकर मसीहा कहलाते हैं । पढ़ लिखकर बड़े सभ्य लगते हैं लेकिन वास्तव में मतलबी और कपटी हैं जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते जाते हैं । प्यार मुहब्बत की ख़त्म हुई कहानी है बच्चे नहीं भोले आजकल न कोई बुढ़िया रानी है बचपन सीख रहा है जंग और लड़ाई वाले खेल कितने अब नहीं हैं परियां नहीं हैं खूबसूरत से सपने । 
 
समझदार बनकर क्या हमने है पाया नींद खोई है अमन चैन गंवाया भाई नहीं लगता कोई हमसाया सबको दुश्मन अपना बनाया । सोशल मीडिया ने जाल इक ऐसा बिछाया जिस ने सभी को सही रास्ते से भटका कोई खतरनाक रास्ता दिखला पागल है बनाया । टीवी सीरियल चाहे फ़िल्मी कहानी सभी को है बस दौलत बहुत कमानी करते हैं कितनी नादानी इस युग में काल्पनिक भूतों की डरावनी कहानी लगती है सबको कितनी सुहानी जो है मृगतृष्णा रेगिस्तानी लगता है प्यासे को पानी । भूलभुलैया में डूबी है नैया कहीं भी नहीं कोई ऐसा खिवैया जो बचाये भईया , समझ लेते हैं जिसको सैंयां उसी ने करानी है ता ता थैया । दुनिया में मिलता नहीं इंसान ढूंढने से शैतान लगता है भगवान देखने से आज किसी की कल किसी की है बारी हैवानियत हुई इंसानियत पर भारी । राजा थे हम बन गए हैं भिखारी विनाश की करते रहते हैं तैयारी दिल करता है कहीं किसी दिन चुपचाप भाग जाएं कोई अपनी खुद की दुनियां बनाएं जिस में कोई छल कपट झूठ नहीं हो जैसा हो किरदार नज़र वही आएं । लेकिन मुश्किल है इस शानदार आवरण को उतरना भीतर का खोखलापन बाहर निकालना , सब सुनाते हैं अपनी आधी कहानी सच्चाई नहीं लिखता कोई सुनाता कोई अपनी ज़ुबानी । जिस दिन मनाते हैं हम दीवाली होती है अमावस की रात कितनी काली , खड़ा है उस दर पर कौन बनकर इक सवाली भरी झोली किसकी रही सबकी खाली । ज़माने को क्या दिखला रहे हैं हम जो नहीं हैं बनने की कोशिश में अपनी असलियत को झुठला रहे हैं । जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं हर दिन और भी नीचे धसते धरातल की तरफ जा रहे हैं । 
 
 
 Message Of Diwali Is To Remove Darkness Of Ego Clarity And Enlightenment  Related To Human Existence - Amar Ujala Hindi News Live - दिवाली पर अहंकार  मिटाने वाली रोशनी:प्रकाश आपके भीतर... मानव

नवंबर 09, 2024

POST : 1916 अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

दो घटनाएं अलग अलग होते हुए भी टेलीविज़न पर एक ही दिन चर्चा में आने से एक दूजे से जुडी हुई लगती हैं । सुबह इक राज्य में मुख्यमंत्री के आगमन पर पांच तारा होटल से मंगवाया नाश्ता उनकी जगह उन के ही स्टाफ को खिलाया गया जिसकी जांच विभाग ने घोषित की है हालाँकि जब इसका उपहास होने लगा तब सरकार ने खुद को उस से अलग रखने की कोशिश की । शाम को इक टीवी शो में इक बड़े अधिकारी को आमंत्रित किया गया था जिनके जीवन पर लिखी पुस्तक पर इक सफल फ़िल्म बन चुकी है । विडंबना की बात ये है कि कितनी मुश्किलों को पार कर अधिकारी बनने वाले जब वास्तविक कार्य की जगह सत्ताधारी नेताओं की आवभगत और उनके लिए तमाम प्रबंध करने में अपना वास्तविक कर्तव्य भूल जाते हैं तब लगता है की जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर राजा और गुलाम के किरदार दिखाई देने लगे हैं । क्यों जब कोई भी नेता किसी सरकारी कार्य पर किसी विभाग में आता जाता है तब तमाम सरकारी अमला उसकी सुविधा और जीहज़ूरी में लगे रहते हैं जबकि वो कोई महमान बनकर नहीं सरकारी काम से आये होते हैं । शायद असली कार्य भूल जाता है और अधिकांश ऐसी बैठकें औपचारिकता मात्र होती हैं , असली कामकाज तो कंप्यूटर फोन से ऑनलाइन अथवा वीडियो कॉन्फ्रेंस से होते रहते हैं या हो सकते हैं । हक़ीक़त तो ये है कि अधिकांश सरकारी अधिकारी कर्मचारी राजनेता सामन्य जनता का कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होते सिर्फ खास वर्ग या सिफ़ारिश रिश्वत वाले काम तुरंत किये जाते हैं । कोई भी कारोबारी जब किसी कार्य से कहीं जाता है तब खुद अपना सभी प्रबंध करता है खाने रहने का । कोई भी नेता या अधिकारी जब सरकारी कार्य करने जाते हैं तो क्या उनके पास आने जाने खाने पीने को धन नहीं होता है जो बाद में विभाग से वसूल किया जा सके व्यक्तिगत ढंग से बिना सरकारी तंत्र को बर्बाद किए । सिर्फ इस कार्य के लिए तमाम सरकारी विभाग के लोगों को लगाना जनता के लिए कितनी परेशानियां पैदा करते हैं । क्योंकि बड़े से बड़े पद पर आसीन लोग इस अनावश्यक अनुचित परंपरा के आदी हो चुके हैं इसलिए उनको उचित अनुचित की समझ नहीं आती है । 
 
ये सवाल कोई केवल पैसों का नहीं है बल्कि वास्तविकता तो यही है कि सांसद विधायक मंत्री मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक सभी प्रतिदिन अधिकांश सरकारी अमले ससाधनों को अपने लिए आरक्षित रखते हैं जिस से सामान्य नागरिक के साधारण कार्य भी होते ही नहीं आसानी से । आज़ादी के 77 साल बाद सामन्य लोगों की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होने का प्रमुख कारण यही है । सत्ता के मद में उनको अपना जनसेवा करने का फ़र्ज़ याद ही नहीं रहता बल्कि खुद को शासक समझ कर व्यवस्था का दुरूपयोग करते हैं क्योंकि सभी इक जैसे हैं इसलिए कौन किस को क्या समझाए ।  विवेकशीलता का नितांत आभाव है और अहंकार तथा मनमानी करना किसी को अपराध क्या अनुचित नहीं प्रतीत होता है । देश में हर जगह यही हालत है जैसे अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानियां सुनते थे सामने दिखाई देती हैं । नैतिकता की बात कोई नहीं करता और सादगीपूर्ण जीवन किसी को स्वीकार नहीं है सभी को शाहंशाह जैसा जीवन चाहिए भले उसकी कीमत साधारण जनता को जीवन भर चुकानी पड़ रही है समानता का सपना कभी सच नहीं होगा इस ढंग से । 
 
अगर कभी कोई इनसे हिसाब मांगता और जांच परख की जाती तब मालूम होता इतने सालों में सरकारी लोगों की अनावश्यक यात्राओं आयोजनों पर नेताओं की व्यर्थ की प्रतिदिन की सभाओं आयोजनों पर उनके विज्ञापनों प्रचार प्रसार पर जितना धन बर्बाद किया गया है उस से करोड़ों लोगों की बुनियादी सुविधाओं शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि की व्यवस्था संभव थी ,अर्थात इन्होने ये सब नहीं होने दिया जो ज़रूरी था । ये सभी सिर्फ सफेद हाथी जैसे देश पर बोझ बन गए हैं जिसको समाज देश कल्याण कहना छल ही है ।  इसका अंत होना ही चाहिए अन्यथा देश कभी वास्तविक लोकतंत्र नहीं बन सकता है लूट तंत्र बन गया है या बनाया गया है ।
 
  Srinivas BV - अंधेर नगरी, चौपट राजा!

नवंबर 08, 2024

POST : 1915 केक और समोसों का ग़बन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      केक और समोसों का ग़बन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

ये विकट समस्या है ख़ास वीवीआईपी लोगों के लिए मंगवाए गए नाश्ते को उनके अधीन स्टॉफ को खिलाने को सरकार विरोधी कृत्य घोषित कर जांच करवाई जाएगी । देश की राजनीति आजकल ऐसी ही गंभीर परेशानियों से जूझ रही है । गोलगप्पों से मेल मुलाक़ात शुरू हुई थी जलेबी तक पहुंच गई कोई आपत्ति नहीं जताई क्योंकि सभी दलों में आम सहमति कायम थी । लेकिन लज़ीज़ समोसे और केक मुख्यमंत्री जी की जगह उनके अधीन स्टॉफ को खिलाना अक्षम्य अपराध है ज़रूरत हो तो इस पर सर्वोच्च न्यायालय को इक जांच आयोग गठित कर कठोर दंड देने और नियम कड़े करने चाहिएं । न्याय की देवी को सब दिखाई देता है जब से काली पट्टी खुली है । शायद ऐसे खबर से जिस हलवाई जिस बेकरी से समोसे और केक मंगवाए गए वो अपने दाम बढ़ा सकते हैं , आखिर ख़ास बन जाना बड़ी बात होती है । इधर जैसे ही शासक बदलते हैं उनका खाने खिलाने से रहन सहन तक सभी को लेकर बदलाव करने अनिवार्य हैं । राजनेता भले कुछ भी खाएं उनको छूट है पशुओं का चारा से कोयला क्या शराब से कवाब तक आसानी से हज़्म हो जाता है नेताओं की पाचनशक्ति कमाल की होती है । सीमेंट लोहा क्या ज़मीन पेड़ पौधे से मिट्टी रेत तक सब नेताओं की मोटी तोंद में समा जाता है । सरकारी कर्मचारी कब क्या कितना चुपचाप गटकते हैं इसकी कभी किसी को खबर नहीं होती है उनको हमेशा संभल संभल कर अपने पेट में तमाम चीज़ों को फ़ाइलों में आंकड़े भर कर भरना पड़ता है । मुख्यमंत्री जी ने अपने ख़ास मित्र विरोधी दल के नेता को जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया है , समोसे और केक को लेकर दोनों एकमत हैं बहुत पसंद करते हैं जब भी मिलते हैं खाते खिलाते हैं । 
 
देश में कोई गरीबी भूख या अन्य समस्या नहीं है बस नेताओं की बढ़ती भूख सत्ता की हवस से जो भी दिखाई दे उसे अपने भीतर समाहित करने की व्याकुलता एकमात्र समस्या है जिसका कोई समाधान नहीं है । गर्म समोसे और स्वादिष्ट केक की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू , नेता जी को कोई देवदास की नायिका का डायलॉग बोलने का अभ्यास करवा रहा है । आपने कभी ऐसा अनुभव किया है किसी पार्टी में आपने कितना कुछ खाया हो लेकिन बाद में कोई आपको इक ऐसा व्यंजन लाजवाब था बताये जो आपको नहीं मिला हो तब बाक़ी सभी का स्वाद फीका लगता है । लेकिन उस से बढ़कर ये भी होता है कि कभी आपको इतनी अधिक भूख लगी हो और किसी होटल में जाने पर बताया जाये अब सिर्फ इक चीज़ ही उपलब्ध है जो शायद कभी आपको खाना पसंद भी कम हो मगर उस दिन वही इतनी स्वादिष्ट लगती है कि दोबारा उस जैसा स्वाद कभी मिलता नहीं आप तरसते हैं । राजनेताओं को कुछ खाने को नहीं मिले जो उनकी खातिर मंगवाया गया हो इस से अधिक अनुचित कुछ भी नहीं हो सकता है । लगता है जैसे कोई बचपन में स्कूल में सभी का टिफ्फ़न छीन कर खाता रहा हो पहली बार उसका टिफ्फ़न कोई और खा गया हो तब धैर्य से काम नहीं ले सकते हैं । ये ग़बन है कोई छोटी बात नहीं है इसलिए जांच का नतीजा कुछ भी हो नेता जी को चैन नहीं मिलेगा कभी ।  
 
विपक्षी दल को विषय की गंभीरता नहीं समझ आ रही है , सवाल कोई मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो जैसा मासूम नहीं है , कोई भी सरकारी खर्च जिस भी पर व्यय किया गया बताया जाये अगर जानकारी मिले कि उसको मिला ही नहीं तो मामला घोटाले का बनता है । समोसे और केक से तमाम लोगों की भावनाएं जुड़ी रहती हैं जैसे कॉलेज में कोई सहपाठी लड़की चाट पकोड़े किसी से खाये मगर फ़िल्म देखती किसी और साथ दिखाई दे जाये तो उसे दोस्त का रकीब बनना कहते हैं ।  कोई नहीं जानता किसी के दिल पर क्या बीतती है जब उसके हिस्से की मनपसंद चीज़ कोई और खा जाये हज़्म ही कर जाये । दार्शनिक लोग समझाते हैं कौन किसी के नाम का कुछ खाता है सब का नाम दाने दाने पर लिखा आता है । जांच आयोग भी आखिर निर्णय यही सुनाएगा सब को अपने नसीब का मिलेगा खोएगा क्या पाएगा ।
 
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अक्तूबर 24, 2024

POST : 1914 भगवान तेरे नाम पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         भगवान तेरे नाम पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सोच रहा है दुनिया वाले कितने भोले हैं सब मेरे नाम पर दर्ज करते रहते हैं , उसकी मर्ज़ी से सब कुछ ही नहीं होता बल्कि उसकी मर्ज़ी बिना पता तक नहीं हिलता । क्या ये नाम शोहरत की बात है कदापि नहीं भला जो नहीं किया कभी करना नहीं चाहता कितना कुछ घटता है हर घड़ी हर जगह अगर मैंने किया करवाया या होने दिया तब मुजरिम हूं मैं सज़ा का हक़दार हूं । चाहता हूं बताना बता नहीं सकता कितना बेबस कितना लाचार हूं । जिनका भरोसा है मुझ पर कि मैं हूं समझते नहीं मेरी बात करते हैं अपनी मनचाही बात मिलने को उन से बहुत बेताब बड़ा बेकरार हूं । दुश्मन नहीं किसी का न ही मैं किसी का यार हूं नफ़रत भरी दुनिया आपकी है और मैं प्यार सिर्फ प्यार हूं । हर शख़्स कहता है मुझ से अच्छा कोई नहीं है जाने क्यों दुनिया उसको भला नहीं मानती उस को नहीं किसी को पसंद नहीं करती सच मुझे नहीं मालूम ऐसा कौन करवाता है जितने भी शरीफ़ लोग हैं ज़माना उनको खराब साबित करता है मुफ़्त में बदनाम करता है । मेरा विश्वास है जो जैसा है उसको सभी वैसे लगते हैं समस्या ये है कि कोई भी खुद को आईने में नहीं देखता है । सभी लोग अगर अपने भीतर मन में झांक कर देखते तो ये परेशानी कभी नहीं होती है । सदियों से युग युग से इंसान इंसान को अपने आधीन रखने की कोशिश करता है गुलामी विधाता ने नहीं लिखी है किसी आदमी किसी देश किसी समाज की तकदीर में । अन्याय शोषण अत्याचार क्या इस का कारण ईश्वर के निर्धारित नियम हैं कदापि नहीं जब कुदरत से लेकर जीव जंतुओं तक को किसी अनचाहे बंधन में विधाता ने नहीं जकड़ा तब सिर्फ इंसान ही क्यों खुद ऐसे कायदे कानून बनाकर थोपता है अपनी खुदगर्ज़ी की खातिर मगर दोष मुझे देता है । 

दुनिया भर में सरकार के नाम पर शासक ताकत धन दौलत का उपयोग कर जब जैसा चाहा नियम कानून बनाकर साधरण लोगों पर शासकीय अधिकार चलाते हैं खुद को महान समझते हैं क्या भगवान से डरते हैं भगवान होना चाहते हैं । सरकारों ने कितनी योजनाएं घोषित की और दावे किये देश से भूख गरीबी और अन्य परेशानियां मिटाने को लेकर कभी निर्धारित अवधि तक कुछ भी सच साबित नहीं हुआ तो अपराधी कौन है । पुलिस न्यायपालिका प्रशासन सभी जिस कार्य को नियुक्त हैं अगर सफल नहीं हुए तो कारण क्या भगवान है , क्या भगवान ने उनको ये सब नहीं करने दिया । तमाम लोगों ने भगवान को भुलाया ही नहीं बल्कि ठगा है अच्छा किया तो हमने किया बुरा हुआ तो भगवान की इच्छा उसकी मर्ज़ी । भगवान को दुनिया ने शायद शैतान जैसा बनाना चाहा है उसके नाम पर झूठ फरेब छल कपट लूट का कारोबार क्या अब हिंसा दंगे फ़साद से समाज में भेदभाव नफ़रत फैलाने का कार्य किया जाने लगा है । भगवान कभी किसी महल या अन्य इमारत में नहीं रहता कण कण में वास करता इंसान के भीतर मन में आत्मा में बसता है , लोग बाहर जाने कहां कहां ढूंढने की बात करते हैं ढूंढना होता तो पहले समझते कौन है ईश्वर क्या है । अगर कोई कहता है कि यही दुनिया है जिसे मैंने बनाया था तो सही नहीं है अब ये दुनिया कोई और है आपने मेरी बनाई दुनिया को तबाह बर्बाद कर जिसे बेहद भयानक स्वरूप दे दिया है , मुझे इस दुनिया से घबराहट होती है मैं चाहता हूं इस बार कोई ऐसी दुनिया बनाऊंगा जिस में कोई बुराई कोई भेदभाव कोई अंतर छोटे बड़े का नहीं हो । कोई कहेगा इस दुनिया का अंत विनाश होना है जो मुझी ने करना है मगर ये सही नहीं है मैं चाहे कुछ भी हो अपने हाथों से बनाई खूबसूरत दुनिया को ख़त्म नहीं कर सकता । ये काम भी इंसान खुद करने लगा है आधुनिकता और किताबी शिक्षा से ज़िंदगी जीने के साधन बनाने की बजाय मौत और तबाही लाने वाले संसाधन बनाकर । क्या मैं भगवान इतना नासमझ हो सकता हूं जो ऐसी अनुचित बातों कार्यों को होते देख अपनी आंखें बंद कर बस अपना गुणगान सुनकर चिंतामुक्त रह सके , मेरी दुविधा कौन समझेगा , कहते कहते कोई अचानक गुम हो गया है अभी तक तो सामने था वार्तालाप करता हुआ । 

ईश्वर पर सुविचार | God Quotes in Hindi

         

अक्तूबर 22, 2024

POST : 1913 खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

बात इंसाफ़ से भी अधिक महत्वपूर्ण है उनको इंसाफ़ की देवी की आंखों से काली पट्टी हटानी पड़ी बाद में याद आया उन्होंने पहले जब कोई दुविधा थी ईश्वर से सही निर्णय करने की क्षमता देने की विनती की थी । भगवान का फ़ैसला भला कोई ग़लत साबित करने की बात कहने का साहस कर सकता है भगवान से कौन नहीं डरता लेकिन सभी का भगवान एक वही नहीं जाने कितने भगवान किस किस ने बनाये हुए हैं । एक महात्मा जूदेव जी जब पैसे लेते कैमरे पर पकड़े गए तब समझा रहे थे पैसा ख़ुदा तो नहीं लेकिन ख़ुदा कसम ख़ुदा से कम भी नहीं है । वो जो ऊपरवाला है कभी किसी को सामने दिखाई नहीं देता सुनते हैं हज़ारों करोड़ों वर्ष तपस्या करते थे तब दर्शन देते वरदान देते मनचाहा इस कलयुग में ज़िंदगी छोटी सी है क्या खबर कब सांस की माला टूट जाये इसलिए आवश्यकता थी ऐसा भगवान खोजा जाये जो ज़रूरत पड़ते ही खड़ा हो बचाने को नैया पार लगाने को । वास्तविक ईश्वर ने जब देखा दुनिया बदल गई है भगवान विधाता की कोई आधुनिक परिभाषा घड़ ली है तब उसको अपना अस्तित्व बचाना था भगवान भरोसे का अर्थ समझाना था । भगवान ख़ुद को किस किस से बचाते इतने ख़ुदा ईश्वर हैं कि भीड़ में अकेले घबराते मुश्किल था कैसे समझाते अपना परिचय पत्र पहचान कहां से जुटाते । ज़रा सामने तो आ रे छलिया छुप छुप छलने में क्या राज़ है , कोई बुलाता रहा नहीं सामने आये कौन किसको क्या दिखाए , उनको कहो ढूंढ लाये ।
 
इंसाफ़ क्या होता है सिर्फ अदालत में सरकारी दफ़्तर की बात नहीं है , संविधान में सभी को एक समान जीने के अधिकार शिक्षा रोज़गार का तमाम मौलिक अधिकार सामाजिक बराबरी अपनी बात कहने का ही नहीं असहमत होने विरोध करने का भी अधिकार स्वतंत्रता में शामिल है । जिन अधिकांश लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं हासिल भूखे नंगे बिना छत बेघरबार है उनके लिए कैसा न्याय , वो तो न्यायालय की चौखट तक नहीं पहुंचते हैं । शायद अब तथाकथित न्याय करने वालों को देश की वास्तविकता दिखाई दे अगर वो भी अपनी आंखों से स्वार्थ और महत्वाक्षांओं की पट्टी उतार कर मानवीय संवेदना से काम लेना सीख लें ।  अमीरों का न्याय अलग गरीबों का न्याय अलग क्या यही कानून का शासन कहला सकता है , भगवान किसी को कुछ भी करने या नहीं करने को निर्देश नहीं देते कभी । आपका विवेक आपकी अंतरात्मा आपका ज़मीर आपको उचित अनुचित का भेद करना सिखाता है । भगवान के नाम पर गलत को सही नहीं साबित किया जाना चाहिए ।  आख़िर में इक पुरानी ग़ज़ल अपनी किताब ' फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी ' से पेश है :-

फैसले तब सही नहीं होते ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते ।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।

क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।

जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
 
 कानून अब अंधा नहीं', न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों से हटी पट्टी, हाथ में

अक्तूबर 20, 2024

POST : 1912 दीवाली तक ही मौका है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   दीवाली तक ही मौका है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

जनाब के तेवर देख कर साफ़ लग रहा था अब भ्र्ष्टाचार की खैर नहीं , अपन को किसी से दोस्ती नहीं भाई अपन को किसी से बैर नहीं । भ्र्ष्टाचार भी अपना ही है , कोई भी तो गैर नहीं , ये इक कांटों भरा जंगल है कोई गुलशन की सैर नहीं । चलो आपको पहले इसकी पुरातन महिमा सुनाते हैं , लेन देन को लोग असली प्यार बताते हैं । सदियों पहले जब अंग्रेजी हुक़ूमत थी सरकार जनाब से मिलने को चपरासी को इक बीड़ी पिलाई थी चिंगारी सुलगाई कभी नहीं बुझ पाई थी , अगली बार देश आज़ाद हुआ बड़े बाबू की बारी आई थी उनको इक चाय पिलवाई थी दूर हुई कठिनाई थी । भगवान भ्र्ष्टाचार भाईचारा तीनों की कुंडली एक है बात की गहराई जिस को समझ आई थी उसने अपनी डूबती नैया पार लगाई थी । नये नये मंत्री बने नेता ने दीवाली तक की अवधि बताई थी समझने वालों को स्कीम नव वर्ष तक बढ़ेगी आगे भी बढ़ती रहेगी भविष्वाणी नज़र आई थी । आखिर इक ख़ास अधिकारी ने उनसे मतलब पूछा था कल तक आपके दल ने घोषणापत्र में ईमानदारी की मिसाल कायम की है ये प्रचार चलाया था आपने अपनी ही पिछली सरकार में पैसे का खेल चलता रहा कह कर इक तमाचा लगाया है , कुछ भी समझ नहीं आया है । पैसे नहीं मांगने की बात सही है , मगर मांगना क्या है विकल्प नहीं बतलाया है । बिन मांगे आजकल मोती नहीं मिलते सच है बच्चा रोता है तभी मां दूध पिलाती है सरकार भी जो जितनी झोली फैलाये उसको उतनी खैरात बंटवाती है ।
 
आपका आभार इक अगला सबक पढ़ाया है लेकिन आधा अधूरा है पाठ क्यों दुनिया को भरमाया है , झूठी मोह माया है सब फिर कैसा जाल गया बिछाया है । कभी राजनेताओं का सरकारों का ख़ाली पेट नहीं भरता है जिसने भी बजट बनाया है जनता को बहलाया है खाया भी खिलाया भी और हर दिन उड़ाया है हर दिन सभाओं में पैसा पानी की तरह गया बहाया है । अधिकारी कर्मचारी और शासक मिलकर गंगा में डुबकी लगाते हैं कुछ को मिलती सीपियां हैं कुछ मोती पाकर इतराते हैं । घोटालों की क्या बात है हर किसी का इक प्याला है इस देश में जनता का बस इक वही ऊपरवाला है । सत्ता का दस्तूर निराला है जो गोरा है वही काला है खेल यही मतवाला है किस किस ने किसको पाला है हर मुंह में कोई निवाला है भिखारी सारी दुनिया है दाता इक राम है ये बात बड़ी आसान है काम का होता दाम है । बिना दाम कोई नहीं करता काम है सबको भाता विश्राम है । रिश्वत का नाम बड़ा बदनाम है ये तो इक महादान है करता सबका कल्याण है । आपने गज़ब फ़रमाया है त्यौहार का उपहार बंटवाया है इस तरह से नित नई योजनाओं ने जनता को ठगा उल्लू बनाया है ।
 
कुछ लोग हर रोज़ शहर में अपनी सत्ता की लाठी चलाते हैं , पुलिस वाले नगरपरिषद वाले से बड़े अधिकारी तक सब्ज़ी फल से ज़रूरत का सामान तक चपरासी भेज मंगवाते हैं । पैसे नहीं मांगते बस मुफ़्त का माल खाकर गुज़ारा चलाते हैं इसको घूस नहीं मानते रिश्ते निभाते हैं जब कोई कानून अड़चन हो काम आते हैं पकड़े जाने पर बचाते है । ये परंपरा है भूखों को जो खिलाते हैं पुण्य कमाते हैं आपको इक सच्ची घटना बताते हैं । इक व्यौपारी पर हिसाब किताब में हेराफेरी ढूंढने को छापा पड़ा कोई गलती हिसाब किताब में नहीं पकड़ी गई तो अधिकारी ने कहा सेठ जी आपका बही खाता सही है पर सुबह से कुछ नहीं खाया जाने से पहले कुछ खाना मंगवा दो । मुनीम जी होटल से खाना खरीद कर लाये सभी खा कर खुश हुए तब मुनीम जी ने पूछा सेठ जी ये खर्च किस पर हुआ बही में लिखना है , सेठ जी ने कहा लिख देना इतने पैसे की रोटी भूखे कुत्तों को खिलाई है सुन कर असलियत समझ आई यही होती है चतुराई । भैंस अपनी हुई पराई सरकारी लोग खुद को समझते हैं घर जंवाई उनको चाहिए दूध मलाई छाछ जनता की ख़ातिर है बचाई । आपको किसने रोका है ईमानदारी की बात सबसे बड़ा धोखा है दीवाली तक का अभी मौका है उस के बाद चौका है कैच नहीं होगा दावा है नो बॉल है भ्र्ष्टाचार ख़त्म कभी नहीं होगा बस बाल की खाल की मिसाल है । ये चलन बख़्शीश देने से शुरू हुआ था अब छीनने तक पहुंचा है भ्र्ष्टाचार विकास कहलाता है जो देता है वही पाता है आधुनिक भाग्य विधाता है कौन ऐसा करते शर्माता है ।  
 
  
 भ्रष्टाचार की समस्या - Amrit Vichar
  

अक्तूबर 18, 2024

POST : 1911 आडंबर शानो - शौकत पर पैसे की बर्बादी ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

 आडंबर शानो - शौकत पर पैसे की बर्बादी ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

लगता है अब तो किसी को सरकारी धन संसाधनों की बर्बादी की कोई चिंता ही नहीं है सुरसा के मुंह की तरह थमने का नाम नहीं लेते सरकार के बढ़ते हुए खर्चे जिनका मकसद सामाजिक सरोकार नहीं शासकों का अपनी शोहरत का ढिंढोरा पीटना है । लोकतंत्र में चुनाव जीतना सत्ता हासिल करना वास्तव में जनता की अपेक्षाओं आकांक्षाओं पर खरा साबित होने का दायित्व उठाना है शपथ ग्रहण करने का अभिप्राय कोई जश्न मनाना नहीं होना चाहिए । लेकिन राजनेताओं को जश्न मनाने का अवसर लगता है क्योंकि शायद किसी को जनता समाज की समस्याओं बुनियादी ज़रूरतों और सामन्य लोगों का जीवन स्तर बेहतर करने की चिंता नहीं सत्ता के अधिकारों का मनमाना उपयोग करने की छूट मिलना लगता है । हरियाणा में नवनिर्वाचित सरकार का शपथ ग्रहण समारोह भव्यता और शानो - शौकत की मिसाल था जिस में पचास हज़ार लोगों के लिए पंडाल एवं अन्य कितने ही संसाधन सुविधाओं का प्रबंध किया गया जिस पर समाचार है पचीस करोड़ रूपये खर्च किए जाने का । आप सोचते रहें नेताओं को मिलने वाले अनगिनत लाभ सुविधाओं और संसद बनने के बाद या विधायक बन चुकने उपरांत मिलनी वाली कितनी पेंशन के औचित्य पर यहां अभी शुरुआत है और आगे पांच साल तक जनकल्याण नहीं शासकों की अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति पर पैसा इसी तरह पानी की बहाया जाएगा ।    
 
लोकलाज की बात कौन करे आजकल सत्ता पर आसीन है शख़्स खुद को शाहंशाह समझता है और जनता का धन मनचाहे तरीके से गुलछर्रे उड़ाने पर खर्च करता है । अभी समाचार पढ़ा साहित्य अकादमी के पुरूस्कार हरियाणा से बाहर कितने राज्यों के लेखकों को देने का ऐलान किया गया है । सत्ता मिलते ही नियम कायदे छोड़ अपनों को रेवड़ियां बांटते हैं सभी हमने तो ये भी देखा है कोई लेखक नहीं बल्कि प्रकाशक साहित्य अकादमी का निर्देशक बनाया गया । जानकारी तलाश की तो पता चला 2014 में मोदी जी के शपथ ग्रहण समारोह पर खर्च हुआ था 17.6 करोड़ जिस में चार हज़ार महमान आमंत्रित थे लेकिन जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के शपथ ग्रहण पर उस से अधिक पैसे खर्च हुए तब भारतीय जनता पार्टी ने उसकी आलोचना की थी । सवाल केजरीवाल का नहीं है वो भी राजनेताओं में शामिल हैं जिनकी कथनी और करनी अलग अलग होती है ।
 
हमारे समाज में कोई वास्तविक नायक नहीं है गांधी जी शास्त्री जी जैसा जो देश को सादगी से ईमानदारी से जीवन यापन करने की राह दिखाने को खुद अपना आचरण उसी तरह से निभाना ज़रूरी समझे । कितने आयोजन कितने तरह के समारोह पर धार्मिक दिखावे पर पैसा खर्च किया जाता है कुछ पल में करोड़ों रूपये धुंवां बन उड़ जाते हैं जिनका उपयोग दीन दुखियों की सहायता में किया जाता तो शायद बहुत सार्थक प्रयास हो सकता था । नववर्ष या अन्य अवसर पर कुछ लोग जिस संस्था के अध्यक्ष सचिव होते हैं उस संस्था का धन खुद अपने नाम से विज्ञापन प्रचार में करने से संकोच नहीं करते हैं । मेरी मर्ज़ी जैसे खर्च करूं का युग है कभी सुनते थे जब चोरी का माल हो तो बांसों के गज से पैमाईश की जाती है , माल ए मुफ़्त दिल ए बेरहम । अलीबाबा चालीस चोर की आधुनिक कथा यही है खाना खिलाना ही नहीं उड़ाना भी है हसरत अभी बाक़ी है शीशा है प्याला है और साक़ी है , आगाज़ है अंजाम क्या होगा ये झांकी है ।
 
         माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम..... | Quotes & Writings by Mrinal Singh | YourQuote

अक्तूबर 16, 2024

POST : 1910 जादूगर का खेल तमाशा ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   जादूगर का खेल तमाशा ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

चलो बुलावा आया है , इक आलमपनाह ने दरबार सजाया है ,
जीत का जश्न मना लिया , अब ताजपोशी का दिन आया है । 
 
आधुनिक ढंग की सियासत ने , ग़ज़ब का ये चलन चलाया है 
लोकतंत्र चीथड़े पहने हुए खड़ा , सत्ता को मुकट पहनाया है । 
 
ये सत्ता की इक बस्ती है जिसमें , महंगी ज़िंदगी मौत सस्ती है ,
अच्छा क्या बुरा क्या छोड़ो अभी , खूब नाचना करनी मस्ती है ।
 
सबका मज़हब धन दौलत है , शासक बनकर के होती हस्ती है
इंसान नहीं भगवान है राजा , क्या  मिसाल की बुत - परस्ती है ।
 
उस दुनिया के निवासी हैं जिस में , भुखमरी नसीब हमारा है 
कोशिश जितनी कर देखी बदलाव की जनमत हमेशा हारा है । 
 
भाषण की मशाल वादों की शमां का बस खेल उनका सारा है 
कुछ भी नहीं नज़र आता , चहुंओर ही फैला हुआ अंधियारा है ।
 
अब ऐसा हाल है , जूतों में बंटती दाल है , तिरछी टेढ़ी चाल है
गिरगिट सा किरदार , रंग बदल कर कालिख़ बन जाती गुलाल है । 
 
कानून जिसकी ढाल है , फैली तोंद भी फूले हुए लाल गाल है 
हर चेहरा बदला बदला है , आईने ने किया क्या क्या कमाल है । 
 
जिसका कोई हल नहीं निकलता , गरीबी ऐसा कठिन सवाल है 
बेख़बर हक़ीक़त से बड़बोला है  , उसका नाम अख़बारी लाल है ।
 
सोना सस्ता है महंगा पीतल है , राजनीति की खुली टकसाल है
बाढ़ सूखा अकाल भूकंप , राहत सामग्री खा जाता कोई दलाल है । 
 
सूअर की आंख में किसका बाल , ख़त्म नहीं होती जांच पड़ताल है
करोड़ों के घोटाले होते देश में , नहीं कहना अर्थ व्यवस्था कंगाल है । 
 
बारिश है आंकड़ों की हां सूखा रहता , जनता का हर इक ताल है      
बबूल बोन वाले लोगों को मिलते हैं आम खाने को किया कमाल है ।
 
महमान बन कर आये थे नेता , खुद मालिक घर से दिया नकाल है
समस्या विकट है गंजे सर कितने बाल , संसद में मचा ये बवाल है ।  
 
हवाओं में ज़हर है घोलता , शिकारी कौन किसका बिछाया जाल है 
सत्ता के गलियारों की यही करताल है , जेल नहीं गुंडों की ससुराल है ।
 
लोकतंत्र से मत पूछो कैसा हुआ उसका हाल है , किस दर्द से बेहाल है
भविष्य क्या बताये कोई भूतकाल से भयानक होता वर्तमान का काल है ।
 
खेल तमाशा जादूगर का नहीं होता , सच वही जो नज़र सबको आता है
महलों में रहने वाला ताजमहल बनवा , सब गरीबों का मज़ाक उड़ाता है । 
 
चोर सिपाही भाई भाई , दुल्हन ने सेज सजाई सुनते हैं बजती शहनाई 
बड़े बड़े प्यारे सपनों से दिल बहलाता , शासक बना कोई मुंगेरीलाल है ।   


    Haryana CM Oath Ceremony: हरियाणा CM के शपथ समारोह को ग्रैंड बनाने की  तैयारी; पंचकूला सेक्टर 5 नो फ्लाइंग जोन घोषित
 
     

अक्तूबर 14, 2024

POST : 1909 शपथ आइसक्रीम की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          शपथ आइसक्रीम की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

     सरकार ने महत्वपूर्ण आदेश जारी किया था सभी विभागों को निर्देश दिया गया था निर्धारित दिन समय तारीख़ को ये कार्यक्रम आजोजित करना ज़रूरी है । देश की राजधानी से लेकर ज़िला तहसील गांव तक हर दफ़्तर में हर कर्मचारी अधिकारी से चपरासी चौकीदार तक पुलिस प्रशासन सभी को शपथ खानी है रिश्वत नहीं खाने की ईमानदारी से कर्तव्य निभाने की । कोई भी लापरवाही करता है अथवा अनुउपस्थित रहकर शपथ खाने से वंचित रहता है तो उसकी निष्ठा संदिग्ध मानी जाएगी और ऐसे लोगों को उन जगहों पर नियुक्त किया जाएगा जहां चाह कर भी कोई घूस नहीं खा सके । बड़े अधिकारी ने इस आवश्यक कार्य  में कोई भूल चूक नहीं रहे इसलिए बैठक बुलाई है । मंत्री जी भी शामिल होंगे सुनते सभी उत्सुक थे कि चलो इस अवसर पर शपथ ही सही कुछ तो खाने की बात होगी अन्यथा मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री जैसे लोग न खाने न ही खाने देने का भाषण देते हैं । खाना खिलाना ज़रूरी है आपसी संबंध बनाने के लिए इस में कोई संशय नहीं हो सकता है । बड़े अधिकारी से साथ बैठे अधिकारी ने धीमी आवाज़ में सवाल किया जनाब शपथ खानी है या उठानी होती है , बात सोचने की थी इसलिए इक साहित्यिक रूचि रखने वाले से अंतर जानने को करीब बुलाया और पूछा । उसने कहा दोनों एक ही बात लगती हैं लेकिन फर्क तो है शपथ उठानी है तो हाथ में कब तक संभाली जा सकती है सर पर रखनी पड़ेगी इक बोझ हमेशा बना रहेगा जबकि खाने से पेट में हज़्म होकर जल्दी ही हल्कापन फिर से महसूस किया जा सकेगा पाचनशक्ति सरकारी विभाग की कभी कम नहीं होती है । 
 
अधिकारी को निर्णय करना है कब किस की खिलाई जाये खाई जाये , चाह नाश्ते के साथ या फिर भोजन में लंच करते हुए , बजट कितना है काजू बादाम शीतल पेय मंत्री जी को सब का लुत्फ़ उठाना अच्छा लगता है । दूसरे इक अधिकारी ने जानना चाहा क्या लिखित शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कर विवरण देना होगा किस ने कब किस को खिलाई थी शपथ कब से लागू होकर कितने समय तक प्रभावी रहेगी । बड़े बाबू का सवाल था कभी कोई रिश्वत लेते पकड़ा गया तब क्या इस शपथ पत्र को प्रस्तुत कर बच जाएगा जैसे अन्य सरकारी कागज़ी प्रमाण से होता है । इसको तमगा बनाकर दफ़्तर में टांगना होगा या घर की अलमारी में सुरक्षित रखना होगा जब भी ज़रूरत होगी पेश कर दिया जाएगा । अधिकारी ने कहा ये सब छोड़ो पहले बताओ पिछले साल जो तख्तियां लगवाई थी जिन पर लिखा था यहां रिश्वत मत दें यहां रिश्वत नहीं ली जाती है उनका असर क्या हुआ । इस पर बड़े बाबू ने बताया जनाब दो बातों में अंतर बड़ा है , यहां रिश्वत न दें से समझदार जान जाते थे की किसी और जगह ये परंपरा निभाई जा सकती है । 
 
आला अधिकारी ने उनको टोक कर पूछा था व्यर्थ की बातों में उलझने की ज़रूरत नहीं है पहले ये विचार करना है कि शपथ किस रूप में खानी खिलानी है । नमकीन चटपटी या सलाद या फलों की चाट को शपथ का पर्याय समझना उचित होगा । सचिव ने निवेदन किया अगर अनुमति हो तो मैं सलाह देना चाहता हूं , अधिकारी ने हां का इशारा किया तो सचिव ने बताया , सब कुछ होगा चाय पकोड़े शीतल पेय मिठाई से तमाम व्यंजन खाने के बाद अंत में आइसक्रीम के स्वरूप में स्वादिष्ट शपथ खाई जा सकती है जिसको जो भी पसंद हो सभी उपलब्ध करवाई जा सकती हैं , वेनिला स्टॉबेरी बुट्टरस्कॉच टूटी फ्रूटी पचास तरह की मिलती हैं सभी चाव से खाते हैं । सबको लगा मौसम भी ऐसा है और आखिर में खाने से जैसे आइसक्रीम पिघलेगी हम भी भूल जाएंगे । औपचारिकता निभा कर मौज मनाएंगे कभी नहीं घबराएंगे जब सरकार कहेगी बार बार मंगवा खाएंगे खिलाएंगे । तैयारी बड़े ही शानदार ढंग से की जा रही है ईमानदारी की शपथ वाली आइसक्रीम सब को बुला रही है । जाने किसने शपथ ग्रहण समारोह में इक धर्म उपदेशक को बुलवा लिया जिसने समझाया कि शपथ स्वच्छ मन से शुद्धता का पालन करते हुए ली जानी चाहिए । आइसक्रीम कितनी असली है कोई नहीं कह सकता और सरकारी कर्मचारी अधिकारी मन की शुद्धता स्वछता की कभी चिंता नहीं करते सत्ताधारी लोग भी कपड़े साफ सुथरे और बढ़िया पहनते हैं भीतर की मैल पर कभी ध्यान नहीं देते फिर भी सभी ने शपथ ली मन में विचार कुछ और रखते हुए क्या क्या मत पूछना किसी से ।
   
 
 चॉकलेट आइसक्रीम चुनौती Multi DO Challenge

अक्तूबर 13, 2024

POST : 1908 सही समय का इंतज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            सही समय का इंतज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सरकार बेकरार है अभी बीच मझधार है समाज का करना उद्धार है बस सही समय का इंतज़ार है । जब संसद पर आतंकवादी हमला हुआ तभी घोषणा कर दी गई थी समय आ गया है इस को खत्म करने का । सरकार चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी लेकिन सीमा पर पूरा साल भर फ़ौज तैनात रही मगर सरकार ने संयम रखा लड़ने झगड़ने से अच्छा है शांति के सफेद कबूतर उड़ाना । फैसला सही समय पर लेने का अर्थ होता है चुनाव के वक़्त दहाड़ना दुश्मन को ललकारना ताकि जनता को देश की सुरक्षा के सवाल पर वोट देने को प्रेरित किया जा सके । आतंकवाद घोटाले गरीबी शिक्षा रोज़गार अन्याय शोषण जैसी समस्याएं अभी क्या जल्दी है ख़त्म करने की अभी उनका इस्तेमाल सत्ता की राजनीति के मकसद से किया जा सकता है किसी भी शासक के पास अन्य कोई कारगर उपाय नहीं है जनता को प्रभावित करने का । भय बिनु होई  न प्रीति भगवान राम समझा गए थे धमकी देने से बात बन जाती है समंदर हाथ जोड़ सामने खड़ा होता है । रास्ता नहीं देता कोई बात नहीं कितने अनमोल हीरे जवाहरात उपहार में भेंट कर भगवान की नाराज़गी दूर कर खुश कर लेता है । भगवान राम भी जब समंदर को सुखाने को बाण का उपयोग नहीं करते अवसर देते हैं कोई न कोई बीच का रास्ता समझौता करने का निकलता अवश्य है । 
 
जनता को इस बार फिर से भरोसा दिलवाया है अच्छे दिन से भी बढ़कर शानदार क्या क्या उपहार सभी को बांटेंगे फिर से इक बार आज़माओ तो सही । जनता की आदत है मान जाती है धोखा हर किसी से खाकर भी रूठी हुई मनाते हैं तो मान भी जाती है कदम कदम ठोकर खाकर भी समझ नहीं पाती है सत्ता की गंदी राजनीति हमेशा झूठे ख़्वाब दिखलाती है । गरीबी भ्र्ष्टाचार सभी समस्याओं को ख़त्म करने का भी जनाब सरकार हज़ूर ऐलान कर ही देंगे बस अभी कितना कुछ उनको करना है कुछ खुद की कामनाओं को हासिल करने को कुछ खास अपनों की चाहतों को पूरा करने को । जनता को जन्म जन्म बार बार लेने का भरोसा है इस बार नहीं किसी अगले जन्म में सबकी बारी आएगी । सरकार विपक्षी दलों से सहयोग चाहती है हमेशा उनका आपसी तालमेल बना रहता है भले टीवी पर बहस में उलझते हैं मगर ऑफ दि रेकॉर्ड कुछ और मेल मिलाप करते हैं । पहले भी जाने कितनी बार शासकों ने साधारण जनता से अपील की है फिर इक बार सरकार ने देश की साधरण जनता से सहयोग मांगा है अभी परेशानियां सहन करें कोई आक्रोश कोई विरोध प्रदर्शन करना उचित नहीं है धीरे धीरे सब अच्छा लगने लगेगा । कोई आपत्काल घोषित नहीं किया गया बस देशहित में सही समय का इंतज़ार और राजनेताओं पर ऐतबार करें ये आग्रह आदेश निर्देश है । 

शायर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल पेश है :-

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए , इस परकटे परिन्द की कोशिश तो देखिए । 

गूँगे निकल पड़े हैं ज़ुबाँ की तलाश में , सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए । 

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन , सूखा मचा रही ये बारिश तो देखिए । 

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें , चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए । 

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ , इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए । 

( साये में धूप से आभार सहित ) 

भय बिनु होइ न प्रीति | सम्पादकीय | विनम्रता और प्रेम की भाषा | आतंकवाद और  अलगाववाद | पत्थरबाजी का दौर | भारत विरोधी आवाजें | भारत विरोधी ...