मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा। मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है। ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं। व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है। मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं। साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है। व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं।
दिसंबर 09, 2023
प्रलोभन बगैर सब बेकार ( वादों का क्या ) डॉ लोक सेतिया
दिसंबर 08, 2023
जो वादा किया निभाना पड़ेगा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
जो वादा किया निभाना पड़ेगा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
( अगला अध्याय अर्थात अगली पोस्ट सबसे महत्वपूर्ण है
उस को पढ़ने से मोक्ष जैसा फल पाया जा सकता है )
दिसंबर 07, 2023
भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
भटकन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
( बहुत साल पुरानी डायरी से इक रचना प्रस्तुत की है। )
दिसंबर 06, 2023
मेरी तलाश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
मेरी तलाश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
नींद नहीं ख़ूबसूरत सपनों से प्यार ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
नींद नहीं ख़ूबसूरत सपनों से प्यार ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
दिसंबर 05, 2023
गर्व से कहो हम सभी भिखारी हैं ( खरी-खोटी ) डॉ लोक सेतिया
गर्व से कहो हम सभी भिखारी हैं ( खरी-खोटी ) डॉ लोक सेतिया
' बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । '
बेचैनी ( नज़्म )
पढ़ कर रोज़ खबर कोईमन फिर हो जाता है उदास ।
कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।
कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।
कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।
चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।
सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।
जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।
बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।
कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
दिसंबर 04, 2023
परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया
परछाई बनकर खुश हैं लोग ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया
1 मैं ( नज़्म )
मैं कौन हूंन देखा कभी किसी ने
मुझे क्या करना है
न पूछा ये भी किसी ने
उन्हें सुधारना है मुझको
बस यही कहा हर किसी ने ।
और सुधारते रहे
मां-बाप कभी गुरुजन
नहीं सुधार पाए हों दोस्त या कि दुश्मन ।
चाहा सुधारना पत्नी ने और मेरे बच्चों ने
बड़े जतन किए उन सब अच्छों ने
बांधते रहे रिश्तों के सारे ही बंधन
बनाना चाहते थे मिट्टी को वो चन्दन ।
इस पर होती रही बस तकरार
मानी नहीं दोनों ने अपनी हार
सोच लिया मैंने
गलत हूंगा मैं
चाहा भी तो कुछ कर न सका मैं
सुधरता रहा
बिगड़ा मैं कितना
कितनी बिगड़ी मेरी तकदीर
कितने जन्म लगेंगें
बदलने को मेरी तस्वीर
जैसा चाहते हैं सब
वैसा तभी तो मैं बन पाऊं ।
पहले जैसा हूं
मुझे खुद मिटा डालो
मेरे मरने का वर्ना कुछ इंतज़ार करो ।
2 हर किसी का अलग ख़ुदा है ( ग़ज़ल )
सबको लगता नहीं उन जैसा हूं मैं ,
मैं सोचता हूं खुद अपने जैसा हूं मैं ।
डॉ लोक सेतिया ' तनहा '
दिसंबर 03, 2023
ईमानदारी की किताब ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया - भूमिका
ईमानदारी की किताब ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया - भूमिका
नवंबर 24, 2023
बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
बड़ी महंगी हुई दोस्ती ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
1
सच बोलना तुम न किसी से कभी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ।
फिर वही हादिसा हो गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ।
फिर वही हादिसा हो गया ,झूठ सच से बड़ा हो गया ।
अब तो मंदिर ही भगवान से ,
कद में कितना बड़ा हो गया ।
कश्तियां डूबने लग गई ,
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।
सच था पूछा ,बताया उसे ,
किसलिये फिर खफ़ा हो गया ।
साथ रहने की खा कर कसम ,
यार फिर से जुदा हो गया ।
राज़ खुलने लगे जब कई ,
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।
हाल अपना , बतायें किसे ,
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।
देख हैरान "तनहा" हुआ ,
एक पत्थर खुदा हो गया ।
नवंबर 23, 2023
प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया
प्यासे ने नज़राने में मयख़ाना दे दिया ( बाज़ी हार दी ) डॉ लोक सेतिया
नज़राना फिल्म का गीत :-
एक प्यासा तुझे मयख़ाना दिए जाता है
जाते-जाते भी ये नज़राना दिए जाता है
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को
साहिल करेगा याद उसी ना-मुराद को , हाय
कश्ती ख़ुशी से जिसने भँवर में उतार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
जब चल पड़े सफ़र को तो क्या मुड़ के देखना ? हाय
दुनिया का क्या है, उसने सदा बार-बार दी
जैसे गुज़र सकी ये शब-ए-ग़म गुज़ार दी
बाज़ी किसी ने प्यार की जीती या हार दी ।
समझने का फेर है कोई हार कर नहीं हारता कोई जीत कर भी सब हार जाता है जब वक़्त बदलता है हर आशिक़ का उतर बुखार जाता है । नशे की रात बीत जाती है बचा ख़ुमार रह जाता है दिल में बस इक ऐतबार रह जाता है फिर सुबह होगी कुछ पास नहीं लेकिन बकाया उधार रह जाता है । कभी जश्न कभी मातम होता है ज़माना हंसते हुए भी लगता है रोता है । पहले नंबर की कहानी है दूसरे नंबर की यही नादानी है हम अगर नहीं हारते तो उनकी जीत नहीं हो सकती थी और हम घर आये महमान को खाली हाथ नहीं भेजा करते बस जो था पास नज़राना दे दिया । हमने इक खेल को खेल नहीं समझा है हार जीत होना अनोखी बात नहीं लेकिन हमने तो खेल की भावना तक को हार दिया है । कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती कविता सभी को याद रहती है समझा नहीं अर्थ कोई भी ।
छोड़िये राजनेताओं की राजनीति का क्या कहना चुनाव हार कर चिंतन करते हैं क्यों हारे ताकि जिस ने हराया उसको बचाया जा सके और हार का ठीकरा किसी और के सर फोड़ कर राहत का अनुभव किया जा सके । क्या हम पहली बार खेल में हारे हैं या क्या विश्व कप जीतने से हम वास्तव में दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बन जाते । हम तो जाने कब से हारते आये हैं सच कहें तो सब कुछ हार बैठे हैं जो जो भी हमारी पहचान हुआ करती थी कुछ भी हम में बचा नहीं है । प्यार सच्चाई वो सामाजिक सदभावना परोपकार की बातें भाईचारा क्या हम तो अपनी बात पर अडिग रहने की आदत तक भुला बैठे हैं । आज़ादी मिली मगर हमने आज़ाद रहना नहीं सीखा कभी भी गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं होना चाहते और विडंबना ये है कि ऐसे ऐसे किरदार वाले लोगों को अपना मसीहा समझ लिया जिनका कोई ज़मीर तक नहीं था । कड़वी बात है मगर सच है कि हमने खेल के मैदान को जंग का मैदान समझ लिया है जबकि जंग को हमने खेल समझने की भूल की है । सीमा की नहीं ज़िंदगी की जंग भी हमको कैसे लड़नी चाहिए नहीं आती है हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली जीवन जीने का कोई सबक नहीं सिखलाती है ।
ज़िंदा तो है जीने की अदा भूल गए हैं ।
ख़ुशबू जो लुटाती है मसलते हैं उसी को
एहसान का बदला यही मिलता है कली को
एहसान तो लेते है, सिला भूल गए हैं ।
करते है मोहब्बत का और एहसान का सौदा
मतलब के लिए करते है ईमान का सौदा
डर मौत का और ख़ौफ़-ऐ-ख़ुदा भूल गए हैं ।
अब मोम पिघल कर कोई पत्थर नही होता
अब कोई भी क़ुर्बान किसी पर नही होता
यूँ भटकते है मंज़िल का पता भूल गए हैं ।
-पयाम सईदी