हम पुरानी लकीरें मिटाते रहे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
हम पुरानी लकीरें मिटाते रहेकुछ नये रास्ते खुद बनाते रहे ।
आशियाँ इक बनाया था हमने कहीं
उम्र भर फिर उसे हम सजाते रहे ।
हर ख़ुशी दूर हमसे रही भागती
हादसे साथ अपना निभाते रहे ।
तुम भी मदहोश थे हम भी मदहोश थे
दास्ताँ फिर किसे हम सुनाते रहे ।
ख्वाब देखे कई प्यार के रात भर
जब खुली आँख सब टूट जाते रहे ।
इक ग़ज़ल आपकी क्या असर कर गई
हम उसे रात दिन गुनगुनाते रहे ।
जा रहे हैं मगर फिर मिलेंगे कभी
दीप आशा के "तनहा" जलाते रहे ।
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