जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जश्ने आज़ादी का हर साल मनाते रहेशहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।
याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।
दम घुटने लगा पर न समझे बात ये कि
काट कर पेड़ क्यों रहे शहर बसाते रहे ।
लिखा फाइलों में न दिखाई दिया कभी
लोग भूखे हैं सब नेता सच झुठलाते रहे ।
दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी मगर
आईना खराब है चेहरे अपने छुपाते रहे ।
आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।
यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।
मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।
खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।
यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।
मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।
खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
1 टिप्पणी:
बाड़ बनकर..खेत खाते रहे
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