मई 17, 2025

POST : 1967 ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

आज फिर ज़रूरत महसूस हुई पुराने महान शख़्सियत वाले हमारे नायकों की जो आज़ादी से पहले भी और देश की आज़ादी के बाद भी गर्व से सर ऊंचा कर दुनिया भर में अपनी महान विरासत और बौद्धिक शक्ति से विदेशी सरकारों जनता को प्रभावित कर सकते थे । आज भी स्वामी विवेकानंद से महात्मा गांधी तक इक लंबी सूचि है जिनकी कही बातों विचारों ने भारत देश का डंका विद्वता को लेकर दुनिया में बजाया था । तमाम लोग कितनी भाषाओं के जानकर और विचारों उच्च आदर्शों की खान हुआ करते थे साथ ही निर्भय होकर साहसपूर्वक अपनी बात रखकर प्रभावित किया करते थे । आर्थिक भौतिक तौर पर देश पिछड़ा होने के बाद भी शिक्षा ज्ञान और विवेकशीलता के मापदंड पर किसी भी पश्चिमी सभ्यता से शानदार साबित होते थे । अभी भी हम अपनी गौरवशाली विरासत परंपराओं की बात करते हैं जबकि अपने वास्तविक व्यवहार में हम उन सभी को छोड़ विदेशी तौर तरीके अपना कर दोहरे चरित्र वाले बन चुके हैं । अभी कुछ दिन पहले इक ऐसा आंकलन पढ़ने को मिला जिस में बताया गया था कि तीन चौथाई भारतीय किसी बाहर विदेशी यात्रा पर नहीं जाते और आधी आबादी तो देश में भी अपने आस पास तक ही जाती है । लेकिन जो करोड़ों लोग किसी भी कारण विदेशों में जाते हैं घूमने नौकरी कारोबार करने उनकी भी जानकारी सिमित रहती है कोई सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक नहीं होती है । आपने देखा होगा सुनते होंगे कुछ लोग सोशल मीडिया पर फोटो वीडियो पोस्ट करते हैं लेकिन मैंने जब भी ऐसे लोगों से चर्चा की हैरानी हुई क्योंकि सभी ने विदेश में कुछ स्थानों को देखने घूमने और मौज मस्ती मनोरंजन करने को ही महत्व दिया । वहां की सामाजिक अथवा राजनीतिक सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सजगता जैसे विषयों पर कोई जानकारी हासिल नहीं की अधिकांश जैसे गए थे उसी तरह लौटे । अधिकांश ने खुद कोई बदलाव नहीं महसूस किया और न ही अनुभव किया कि उनसे किसी देश के लोगों ने कुछ हासिल किया कभी ऐसा लगा । 

हमने कितनी बार देखा कोई प्रतिनिधिमंडल किसी देश या कई देशों में भर्मण करने गया वहां की शिक्षा स्वास्थ्य प्रणाली कृषि आदि को समझा लेकिन देश में आकर कोई सार्थक पहल दिखाई कम ही दी है । कारण एक ही है कि हमारे समाज में पैसा सबसे महत्वपूर्ण हो गया है और जो बातें वास्तव में अनमोल हैं उनकी कीमत गौण समझी जाने लगी है । शिक्षक व्यौपार , राजनेताओं को छोड़ दें तो पुराने सामाजिक धार्मिक संतों महात्माओं ने भी जितना संभव हुआ देश विदेश जाकर समाज को जागरूक किया और सही मार्गदर्शन दिया । अब तो हमने मशीनी चीज़ों को छोड़ मानवीय आदर्शों संवेदनाओं को जीवन से बाहर कर दिया है जैसे उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं रही है । हमने रटी रटाई किताबी पढ़ाई को ही ज़िंदगी का आधार मान लिया है और अपनी बुद्धि विवेकशीलता को भुला बैठे हैं । हमको लगता है आधुनिक उपकरण संसाधन और तथाकथित विकास से समाज शानदार बन जाएगा जबकि ये सच नहीं है बल्कि जब ये सभी नहीं था और हम लोग सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तब सामाजिक पारिवारिक नैतिक रूप से कहीं बेहतर हुआ करते थे । पहले हम मानसिक तौर पर ऊंचाई पर खड़े थे अब ढलान पर हैं और लगता है फिसलते फिसलते गिरते जा रहे हैं । 
 
 
ऐसा होने का कारण भी है , हमारे देश समाज में काबलियत की कोई कद्र नहीं समझी जाती है , अवसर मिलना आगे बढ़ना हो तो कुछ और सहारे बैसाखियों की तरह ज़रूरी लगते हैं ।  राजनीति समाज से प्रशासन की व्यवस्था तक अवसरवादिता का शिकार है कहीं कुछ भी सामन्य ढंग से होता नहीं है । हमने अपनी बुनियाद को ही खोखला कर दिया है व्यवस्था चरमर्रा कर कभी भी ध्वस्त हो सकती है प्रतीत होता है ।
 
 
 प्रबलित मिट्टी की ढलानें - टेरे आर्मी इंडिया

POST : 1966 सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

   सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया 

शिखर पर खड़ा हुआ है झूठ सच पड़ा हुआ खाई में  
इंसाफ़ क़त्ल होता रहता सच और झूठ की लड़ाई में
 
सियासत की अर्थी भी निकलेगी मगर बरात बन कर
जनता की डोली का दुःख दर्द दब जाएगा शहनाई में
 
शासकों को क्या खबर क्या क्या होने लगा समाज में 
जंग लाज़मी है चुनावी खेल में , हर भाई और भाई में
 
आत्मा ज़मीर आदर्श और ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाना 
कोई कबाड़ी खरीदता नहीं ये सब सामान दो पाई में 
 
जिनको इतिहास लिखना आधुनिक समय का यहां 
भर लिया इंसानी खून उन्होंने कलम की स्याही में 
 
राजनेता अधिकारी धनवान लोग शोहरत जिनकी है 
खोटे साबित हुए सब कसौटी पर हर बार कठिनाई में 
 
सबका भला नहीं सिर्फ खुद अपने लिए जीना मरना 
खूब मुनाफ़ा अब बाजार में अच्छों की झूठी बुराई में  
 

सच और झूठ | Hindi Abstract Poem | Shahbaz Khan
   

मई 14, 2025

POST : 1965 मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया

       मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया  

मुझे लिखना है  ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।

टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।

धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।

छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।

बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।

ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।

हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।

सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।

जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।

मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की  और विश्वास की ।

लिखनी है  कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।

अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।

बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों 
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।

फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।

वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।

ये कविता शुरुआती समय की लिखी साधरण शब्दों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है ब्लॉग पर भी 12 साल पहले 2012 में पब्लिश की थी । इक जाने माने कवि को ईमेल से भेजी तो उनकी सराहना पाकर लगा कोई सार्थकता दिखाई दी होगी उनको तभी पहली बार ऐसा उत्साह बर्धन मिला मुझको ।  लिखना मेरे लिए कोई शौक या ख़्वाहिश नाम शोहरत पाने का माध्यम नहीं है , इक संकल्प है जूनून है समाज को कुछ देने उसको बेहतर बनाने के प्रयास की ख़ातिर । करीब पचास साल पहले जो तय किया था अपने समाज और देश की समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं को लेकर पत्र चर्चा या किसी से मिलकर समाधान सुधार करने के लिए समय के साथ उसका स्वरूप बदलते बदलते कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य बन गया है । कभी कभी कितनी बार धैर्य टूटना और निराश होना इस रास्ते में आता रहा है मगर हमेशा फिर आगे चलते रहने का ही निर्णय लिया है ।  थमना थककर ठहरना मुझसे कभी हुआ नहीं फिर से इक सोच रही है मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही है । 
 
कोई संगी साथी नहीं कोई भीड़ नहीं कोई संगठन जैसा नहीं बस अकेले ही अपनी इक पगडंडी बनाकर इक मंज़िल प्यार और मानवता की ढूंढने और बनाने की कोशिश करना चाहता हूं । जानता हूं आधुनिक युग में पढ़ना और समझना शायद ही कोई चाहता है और पढ़ कर असर होना बदलाव होना और भी कम आशा की जा सकती है । जब देखते हैं तमाम लोग निष्पक्षता से  किनारा कर अपनी कलम का उपयोग किसी अन्य मकसद से करते हैं कभी विचारधारा से बंधे कभी धर्म राजनीति से जुड़े इकतरफ़ा लेखन करते हैं अथवा लिखने से नाम शोहरत कुछ और हासिल करना चाहते हैं तब महसूस होता है आज का क़लमकार भटक गया है ।  साहित्य सृजन करते करते भटक जाना या यूं कहें बहक जाना  इस से बचना है बड़ी फ़िसलन है , मुमकिन है कुछ लोग सैकड़ों किताबें लिख कर शोहरत की बुलंदी पर खड़े भौतिक आर्थिक लाभ अर्जित कर खुश हैं अपना ध्येय हासिल कर , मगर क्या मेरे जैसे बेनाम लिखने वालों से अधिक समाज को बदलाव ला पाए हैं या फिर कुछ लोगों तक उनकी किताबें पहुंची हैं इतना ही हुआ है । 
 
मैं कोई और मकसद नहीं रखता लिखने में सिर्फ जैसा भी समाज है लोग हैं जैसा वातावरण पहले से भी खराब होता जा रहा है उसको रेखांकित करना उजागर कर संबंधित वर्ग तक बात पहुंचाना ज़रूरी है । जी नहीं मैं कोई उपदेशक नहीं किसी को सही या गलत साबित नहीं करना मुझको , सच दिखाना दर्पण का कार्य है भले अंजाम कुछ भी हो । सोचता हूं कि जितने भी पढ़ते हैं कुछ पर ही सही प्रभाव पड़ता अवश्य होगा , मुमकिन है अभी नहीं तो भी कभी न कभी लोग पढ़कर समझेंगे सोचेंगे कि किसी ने ज़िंदगी की उलझनों कठिनायों से जूझते हुए भी पतवार को थामे रखा कश्ती को भंवर में डूबने नहीं दिया खुद बचने को ।  निराशा है परेशानी है जब समाज में अधिकांश लोग वास्तव में जैसा करना चाहिए उस से विपरीत कार्य करते हुए भी संकोच नहीं करते । बुद्धिजीवी समाज पत्रकारिता समाज की संस्थाएं अपने कर्तव्य निभाने को छोड़ नैतिकता को भूलकर आडंबर और प्रचार में लगे हुए हैं । जिनको सभ्य समाज का निर्माण करना था वही पुरातन मूल्यों को ताक पर रख साहित्य की परिभाषा को बदलना चाहते हैं । साहित्य और प्रकाशन का इक बाज़ार बनाया गया है जिस में लोग अख़बार पत्रिकाएं किताबें छापकर धनवान बन रहे मालामाल होते जाते हैं लेकिन लिखने वाला लेखक वहीं खड़ा है अपनी आजीविका का कोई अन्य साधन तलाशता । सामाजिक शोषण पर मुखर लेखक मौन है बेबस है अपनी बर्बादी किसको बताये । सोशल मीडिया के सवर्णिम काल में ए आई अर्थात नकली होशियारी ने संजीदगी पूर्वक लेखन को किनारे कर दिया है , हर कोई बिना भाषा अर्थ समझे जाने लिखने लगा है ।
 
लिखना अच्छी बात है मगर क्या लिखना चाहिए मालूम होना चाहिए और कितनी बार लगता है कि ऐसा नहीं लिखना अच्छा था । ये बात किसी और के लिए नहीं खुद अपने बारे भी कहना ज़रूरी है कितनी बार पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है बहुत कुछ लिखना उचित नहीं था कुछ को दोहराया जाता रहा बार बार जो कोई शानदार शैली नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि किसी बात को अधिक बार दोहराने से अच्छी बात भी आपकी अहमियत खो देती है । सार्वजनिक मंच पर लिखा मिटाने से भी बिगड़ी बात बनती नहीं है इसलिए लेखक को पहले बार बार सोच विचार कर ही लिखना चाहिए ।  अंत में खुद अपने आप से साक्षात्कार करती इक कविता प्रस्तुत है ।
 

अपने आप से साक्षात्कार ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

हम क्या हैं
कौन हैं
कैसे हैं 
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।

हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।

हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये 
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।

मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान 
आदर्शों को छोड़ कर
हम करने लगे
आपस में टकराव ।

इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये 
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।

खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने 
मकसद तक अपना ।

आईना बनना था 
हमको तो
सारे ही समाज का 
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे  हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात । 
 
 
 उद्यमियों को साहित्य पढ़ना चाहिए (सिर्फ बिजनेस किताबें नहीं) | जोस अल्वारो  ए. अडिज़ोन द्वारा | द एमवीपी | मीडियम
 


मई 12, 2025

POST : 1964 आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

कुछ सालों से ये शब्द किसी अमृतवाणी से अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं , हर शख़्स सही समय का बेसब्री से इंतिज़ार करता है । दिल की धड़कन किसी महबूबा से मिलन की बेला से बढ़कर तेज़ होने लगती हैं । मुझे अभी पता चला ऐलान का , तो सबसे पहला काम समझ आया इस पोस्ट को निर्धारित आठ बजे के वक़्त से पहले पूरा कर पब्लिश करना है ताकि आठ बजते ही टीवी पर प्रसारण को सुनने का कर्तव्य पूर्ण किया जा सके । आठ पहले भी सुबह शाम बजते थे अभी भी बजते हैं आगे भी बजते रहने हैं , मगर आठ बजे से जो संबंध साहिब जी है किसी का किसी से शायद ही हुआ होगा । आठ बजना लगता है कोई चेतावनी जैसा है कभी जागते रहो की आवाज़ की गूंज सुनाई देती थी तब क्योंकि अधिकांश लोग रात का खाना खाकर आंगन में या फिर बंद कमरे में अथवा मौसम के अनुसार बरामदे में चारपाई बिस्तर लगाकर चैन से सोते थे और कभी कोई ख़्वाब भी देख लिया करते थे । आजकल सोशल मीडिया टीवी और गलियों सड़कों पर दौड़ते भागते वाहनों का शोर के साथ कितनी तरह की आवाज़ें नींद उड़ाती रहती हैं इसलिए नींद भी सोने के भाव की तरह महंगी हो गई है । आपको आठ बजे से पहले क्या क्या करना है बड़ा सवाल है आपकी कितने मिंट में गलती दाल है कोई मिसाल है । वक़्त की बात क्या है चलता अपनी चाल है अच्छा है वक़्त तो क्या खूब है क़िस्मत का कमाल है , सभी को अपने समय का ख़्याल है । 

आपकी घड़ी में क्या बजा है कोई नहीं बताता सही समय कभी न कभी आएगा , जन्म समय तारीख़ जगह कितना कुछ मिलाकर आपकी राशि आपके ग्रह आपके सितारे बताते हैं भविष्य क्या होगा । आठ बजे किसी की शुभघड़ी हो सकती है लोग सत्ता मिलते शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं शपथ उठाते हैं । शाम को आठ बजते ही कुछ लोग अपने ठौर ठिकाने जाते हैं कुछ महफ़िल सजाकर जश्न - ए - आज़ादी मनाते हैं महखाने बैठ कर जाम से जाम टकराते हैं । हमसे मत पूछना हम रोज़ प्यासे जाते हैं प्यासे लौट आते हैं , लोग कहते हैं आप बिना पिये ही लड़खड़ाते हैं । लोग जागते रहते हैं रंगीन रातों को हसीनों की अदाएं देखते हैं मधुर गीत सुनते हैं मौज मनाते हैं । जाग जाग कर कुछ आशिक़ किसी की याद में अश्क़ बहाते हैं , कभी हुई शाम उनका ख़्याल आ गया , वही ज़िंदगी का सवाल आ गया गुनगुनाते हैं । मुझे पुराने यार याद दिलाते हैं कि तुम भी क्या आदमी थे सुबह होते ही यही गीत गाने लगते थे । हमको अभी उनका इंतिज़ार करना है चाहे झूठा वादा भी करें अच्छे दिन आने वाले हैं ऐतबार है करार करना है । 

गुमनाम फिल्म देखी थी आधी रात को दूर कोई आवाज़ सुनाई देती थी,  गुमनाम है कोई , बदनाम है कोई । किस को खबर कौन है वो अनजान है कोई । किसको समझें हम अपना , कल का नाम है इक सपना , आज अगर तुम ज़िंदा हो तो कल के लिए माला जपना । पल दो पल की मस्ती है , बस दो दिन की हस्ती है , चैन यहां पर महंगा है और मौत यहां पर सस्ती है । कौन बला तूफ़ानी है मौत को खुद हैरानी है , आए सदा वीरानों से जो पैदा हुआ वो फ़ानी है । साठ साल पहले 1965 की फिल्म है , रहस्यमयी फिल्मों की शायद उसी से शुरुआत हुई थी । आजकल तो फ़िल्में सीरीज़ से लेकर सामाजिक वातावरण में कितनी तरह की अटकलें कितनी आहटें शोर बनकर आपको हैरत में डालती रहती हैं । आज रात आठ बजे क्या होगा हर कोई सांस रोके बेचैनी से इंतिज़ार कर सकता है क्योंकि उस वक़्त पर किसी एक को छोड़कर बाक़ी किसी का बस नहीं है ये भी किसी के कॉपीराइट से छोटी बात नहीं है । आठ की संख्या पर पहली बार ध्यान देने की ज़रूरत महसूस हुई है देखने पर दो गोलाई जैसे छल्ले ऊपर नीचे जुड़े हुए लगते हैं , उलटा सीधा जैसे पलट कर रख सकते हैं और उनको बनाने वाली रेखाएं कैसे कहां से शुरू हुई कैसे कहां उसी से मिलकर घुलमिल गई कोई बता नहीं सकता है । दो छल्ले घूमते घूमते आपस में ऐसे समाहित हो जाते हैं जैसे दो जिस्म एक जान , यही सार की बात सामने दिखाई दे रही थी , कौन सा गोला महत्व रखता है कौन बड़ा कौन छोटा है समझ ही नहीं आता । ऊपरवाला नीचेवाला इक जैसे लगते हैं आपको निर्धारित नहीं करने देते कौन किस के सहारे टिका हुआ है । आधा घंटा अभी बाक़ी है चलो इक ग़ज़ल पुरानी से पटाक्षेप करते हैं इस कथा कहानी का ।



महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया ( ग़ज़ल ) 

        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
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मई 11, 2025

POST : 1963 हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया

  हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया 

आनंद फिल्म का डायलॉग हमारी हक़ीक़त है , अंतर इतना है कि ऊपरवाला कोई ईश्वर नहीं है यहीं इसी धरती पर बैठा कोई इंसान है । जैसे रमोट कंट्रोल से यंत्र को जब चाहे शुरू या बंद किया जा सकता है हम लोग चलते फिरते प्राणी लगते हैं लेकिन हमारे बस में कुछ भी नहीं है कभी कोई कभी कोई हमको अपनी उंगलियों पर नचाता है । इक और फ़िल्मी डायलॉग है कठपुतली करे भी तो क्या डोर किसी और के हाथ है नाचना तो पड़ेगा  सिम्मी ग्रेवाल कहती है । ये विवशता किसी को खुद समर्पण करना आशिक़ी और प्रेम में होना अलग बात है लेकिन जब ज़िंदा समाज मज़बूर हो जाए बेजान वस्तु की तरह तब इंसान और खिलौने में कोई फर्क नहीं रहता है । कमाल की बात ये है कि हमको खबर तक नहीं कि कौन हमसे खेलने लगा है खिलौना बना कर । घर परिवार समाज से लेकर करोड़ों की आबादी वाले देश तक खुद अपनी पहचान अपना अस्तित्व भुलाकर जाने कैसे कितने लोगों की मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी अपनी जीवनशैली को बदलते ही नहीं छोड़ देते हैं । नाच मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा , पैसा दौलत ताकत ही नहीं धर्म राजनीति से कितना कुछ है जिस की खातिर हमने अपनी पहचान तक मिटा दी है ।  हमको नाचना नहीं आता फिर भी हम सभी नाचते हैं जब भी कोई अवसर होता है मगर बिना किसी कारण भी नाचने झूमने लगते हैं कितनी बार अजीब अजीब मकसद होते हैं किसी को खुश करने किसी का दिल बहलाने को । 

कितनी बार ऐसा होता है कोई दुनिया देश समाज को इतना महत्वपूर्ण लगने लगता है कि समझने लगते हैं इक वही शख़्स सब कर सकता है जबकि वास्तव में भीतर से ऐसे लोग खोखले होते हैं और उनकी जड़ें कमज़ोर होती हैं , ज़रा तेज़ आंधी चलते पता नहीं चलता कब गिर जाते हैं । हमारे देश में महान नायक हुए हैं जो अपने आदर्शों और मूल्यों पर अडिग खड़े रहे टूट भी जाएं तो भी झुके नहीं । नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरना सभी के बस की बात नहीं होती है । खोखले किरदार वाले लोग आजकल दुनिया भर में छाये हुए हैं हमने ऐसे लोग बार बार आज़माए हुए हैं , मुखौटे लगाकर लोग अपनी सूरत छिपाए हुए हैं । आजकल कौन क्या है समझना कठिन है सामने कुछ दिखाई देता है अंदर कुछ और होता है मुंह में राम बगल में छुरी जैसा है । दोस्त बनकर दुश्मनी करना राजनैतिक कूटनीति कहलाता है , कोई किसी दूर देश में बैठा अपनी शतरंज की गोटियां चलाता है दोनों हाथ लड्डू लिए मूंछों पर तांव देकर इतराता है , समझता है वही सभी का मालिक है दाता है विधाता है मगर ऐसा हर व्यक्ति कभी मुंह की खाता है । 

आधुनिक युग में नाटक का नायक छलिया भी होता है और ख़लनायक भी उसकी कॉमेडी दर्शकों पर क्या क्या सितम नहीं ढाती है । हंसने की चाह ने दुनिया को इतना रुलाया है निर्देशक पटकथा पढ़ कर खुद घबराया है । आपको तालियां बजानी हैं हिचकियां छुपानी हैं पर्दे पीछे कोई खड़ा सभी को देख रहा है उस की निगाह से बचना संभव नहीं है । जंग में आर पार नहीं होता है कुछ लोग लाशों का कारोबार करते हैं लोग उकताने लगे हैं जंग और शांति दोनों को तराज़ू पर रखकर पलड़ा जिधर मर्ज़ी झुकाने लगे हैं । लड़ना सिखाने वाले शांतिगीत सुनाने लगे हैं महफ़िल में दोनों को बुलाकर जाम टकराने लगे हैं बाहर शीशे से झांकने वाले अब घबराने लगे हैं । प्यास बुझाने आये थे प्यास बढ़ाने लगे हैं असली सूरत सामने आते ही पर्दा गिराने लगे हैं । युद्धविराम की चर्चा है सरहद पर आहटें सुनाई देती हैं , ये कितनी बार दोहराया जाएगा कौन सच से नज़र मिलाएगा । 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग
आईने से यूँ परेशान हैं लोग ।

बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।

जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।

अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।

आदमीयत  को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।

मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग । 
 
 
 हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं''...


मई 10, 2025

POST : 1962 सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया

   सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया  

हमने जाने कितनी कथाएं कहानियां सुन रखी हैं झूठ बोलने को लेकर , उनकी बात करने लगे तो आज की कहानी की शुरुआत भी संभव नहीं होगी इसलिए सीधी बात करते हैं । पिछले तीन सप्ताह बड़े ही कठिनाई और तनावपूर्ण हालात रहे हैं लेकिन चार दिन से भारत पकिस्तान की जंग से बढ़कर हमारे देश के समाचार चैनलों ने हर किसी को भयभीत करने और संशय का वातावरण बनाने में जैसे झूठ और मनघड़ंत खबरों का इतिहास रचने का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि अब कोई उनके मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता है । अब ज़रूरत है कि पत्रकारिता की परिभाषा को बदल कर मुझसे बढ़कर झूठा कोई नहीं कर दिया जाये । समाचार का अर्थ सच को दफ़्ना कर झूठ को सच बनाना किया जाना चाहिए । टीवी चैनलों में पहले भी कितने तरह के ख़िताब ईनाम पुरुस्कार इत्यादि बंदरबांट की तरह अपने को देते हैं सभी चैनल नंबर वन हैं । जनता को अब इक और शिखर का चुनाव करना होगा इतने सारे चैनलों में सबसे भरोसेमंद झूठ का तमगा किस को मिलना चाहिए । विज्ञापनों का झूठ राजनेताओं के भाषणों का झूठ और तथाकथित महान विचारकों से लेकर तमाम नाम शोहरत वालों की झूठी कहानियों घटनाओं का झूठ सरकारी दफ्तरों फ़ाइलों आंकड़ों से लेकर देश समाज सेवा और धनवान लोगों की ईमानदारी की कमाई का झूठ सभी बौने हो गए हैं टीवी चैनलों का झूठ उस ऊंचाई पर पहुंच गया है । 

खुद को सच का झंडाबरदार कहने वाले वास्तव में कभी सच के साथ खड़े नहीं थे , सच के क़ातिल वही हैं मगर उनकी अपनी अदालत अपने गवाह अपने ही घड़े हुए सबूत और खुद वही फैसला सुनाने वाले न्यायधीश भी बने बैठे थे । लेकिन हमने ही नहीं बल्कि दुनिया भर ने उनका तमाशा देखा जब उन्होंने देशहित को दरकिनार कर सरकार के निर्देश को अनदेखा कर ऐसे ऐसे ख़तरनाक़ मंज़र जंग के दिखाए जो हुए ही नहीं । सोचने पर समझ आया कि उनकी मानसिकता क्या है उनको ऐसे दृश्य रोमांचक लगते हैं और ऐसा मनोरंजन जिस से उनका धंधा कारोबार टीआरपी आसमान पर पहुंच जाये । अर्थात उनकी संवेदना उनका ज़मीर इस स्तर तक निचले पायदान पर आ पहुंचा है जहां स्वार्थ और अपना फायदा इंसानियत को छोड़ने की कीमत पर भी ज़रूरी लगता है । जाने इस सीमा तक झूठ से गुमराह कर के उनको शर्म भी नहीं आती होगी अथवा वो अपनी अंतरात्मा में झांकते ही नहीं होंगे कभी । सरकार और राजनेताओं की कमज़ोर नस उनको पता है इसलिए उन पर अंकुश कोई नहीं लगाएगा मालूम है , लेकिन इक कार्य किया जाना आवश्यक है । 

                                अस्वीकरण ( घोषणा ) 

जैसे फिल्मों में और विज्ञापनों में घोषणा की जाती है , टीवी चैनल समाचार दिखाने पढ़ने से पहले हर बार दर्शकों को बताएं की इसकी सत्यता प्रमाणित नहीं है और आपको भरोसा नहीं करना चाहिए । भाषा सुविधानुसार बदली जा सकती है । आख़िर में इक ग़ज़ल पढ़ सकते है सच को लेकर कही थी कभी । 

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) 

         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का ।

हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का ।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का ।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का ।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का ।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का ।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का ।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का ।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप ' तनहा '
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का ।  




मई 08, 2025

POST : 1961 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

मुश्किल है चुपचाप ज़ालिम का ज़ुल्म सहना , आखिर किसी दिन हैवानियत को ख़त्म कर शराफ़त से सभी को दुनिया में है रहना । लेकिन ये याद रखना बुराई से लड़ते लड़ते भलाई मत छोड़ देना , कुछ भी हो बेशक हैवानियत का रास्ता कभी नहीं अपनाना आदमी तू भी हैवान मत बन जाना । कभी सोचा है कोई भी जब न्यायालय में न्यायधीश बन कर किसी मुजरिम को फांसी की सज़ा का फ़ैसला लिखता है तब जिस पेन से निर्णय लिखता है उसकी निब को तोड़ देता है । कोई कलम कभी अपनी संवेदना से विमुख नहीं होती उसे न्याय करते हुए भी किसी का जीवन समाप्त करते हुए महसूस होता है काश ऐसा कभी नहीं लिखना पड़ता शायद तभी उस से भविष्य में कुछ भी लिखना नहीं चाहता न्यायधीश । निर्दयी लोग मासूमों की जान बेरहमी से लेते हैं और उनका अंत करना पड़ता है मगर इंसानियत मासूम लोगों की मौत पर शोक मनाती है तो निर्दयी लोगों की हैवानियत की सज़ा देते समय उनकी मौत पर भी कोई ख़ुशी कोई उत्सव नहीं मनाती है । कभी सुना होगा कि हमारी सेना दुश्मन देश के सैनिकों की लाशों को भी आदर पूर्वक दफ़्न करती है उनके धर्म की विधि पूर्वक । धार्मिक ग्रंथों में भी अपने दुश्मन की मौत पर कभी जश्न नहीं मनाया जाता ऐसा पढ़ा है और सुना है कथाओं में देखा है टीवी सीरियल फिल्मों में । अगर हम किसी विधाता ईश्वर भगवान की पूजा अर्चना करते हैं तो जिन आदर्शों मर्यादाओं का पालन उन्होंने किया उस से सबक सीखना ज़रूरी है । 
 
मैं आपको पौराणिक कथाओं की बात नहीं कहना चाहता क्योंकि आधुनिक युग में कोई भी उन जैसा नहीं बन सकता जिन्होंने प्राण जाये पर वचन नहीं जाई या फिर दुश्मन की सौ गलतियां क्षमा करने का संयम रखा हो ।लेकिन शायद हमको याद नहीं है कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण हुआ है जिस ने न केवल अपने विरोधी से मानवीय व्यवहार कायम रखा हो उसकी बातों को दरकिनार कर , बल्कि पांच सौ खूंखार डाकुओं से भी आत्मसमर्पण करवाया हो उस समाज को भयमुक्त बनाने को । हिंसा और नफरत को कभी भी ताकत से लड़ाई लड़कर या हिंसा का जवाब हिंसा से दे कर ख़त्म नहीं किया जा सकता है । इक घटना है सिखगुरु गोबिंद सिंह जी को किसी ने बताया भाई कन्हैया दुश्मन सैनिकों को भी पानी पिलाता है , भाई कन्हैया गुरु तेगबहादुर जी के समय से अनुयाई बनकर गुरुओं की बाणी को सुनता समझता था । गुरु गोबिंद सिंह जी ने उसको बुलाया और पूछा मुझे बताया गया है कि तुम घायल दुश्मन सैनिकों को मरहम लगाते हो और जो प्यासे हैं दुश्मन उनको भी पानी पिलाते है जबकि हमारी उनसे जंग ही पानी को लेकर ही है । भाई कन्हैया जी ने कहा कि ये बात सच है लेकिन मैं जब भी उनके चेहरे की तरफ देखता हूं मुझे उन में भी गुरूजी आपकी ही छवि दिखाई देती है परमात्मा जैसी वाहेगुरु जैसी । मुझे अपने लिए लड़ने वाले और उनकी तरफ से लड़ने वाले सभी घायल या प्यासे इक जैसे लगते हैं सभी में भगवान का रूप है । तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा था भाई कन्हैया जी ने खालसा पंथ की शिक्षाओं को सही तरह से समझा है ये अनमोल हैं सभी को भाई कन्हैया जी की तरह गुरुओं की शिक्षा को समझना चाहिए ।   



मई 04, 2025

POST : 1960 ऊपरवाला जान कर अनजान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ऊपरवाला जान कर अनजान है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

आखिर मेरा इंतज़ार ख़त्म हुआ मौत का फ़रिश्ता सामने खड़ा था , मुझसे कहने लगा बताओ किस जगह जाना है । मैंने जवाब दिया मुझे दुनिया बनाने वाले से मिलना है , फ़रिश्ता बोला उसकी कोई ज़रूरत नहीं है विधाता ने सभी को अपने अपने विभाग आबंटित कर सब उन्हीं पर छोड़ा हुआ है । मैंने समझ लिया असली परेशानी की जड़ यही है अब तो ऊपरवाले से मिलना और भी ज़रूरी हो गया है , मैंने कहा ऐसी ही व्यवस्था से दुनिया परेशान है सरकार विभाग बनाकर किसी को दायित्व सौंपती है मगर कोई भी अपना काम ठीक से नहीं करता नतीजा भगवान भरोसे रहने वाले जीवन भर निराश होते रहते हैं । अन्याय सहते सहते उम्र बीत जाती है दुनिया में इंसाफ़ नहीं मिला तो ऊपरवाले से उम्मीद रखते हैं लेकिन कोई विनती कोई प्रार्थना कुछ असर नहीं लाती , फिर भी भगवान को छोड़ जाएं तो किस दर पर जाएं । धरती पर जैसे सरकारों को फुर्सत नहीं जनता के दुःख दर्द समस्याओं पर ध्यान देने की शासक प्रशासन सभी का ध्यान केंद्रित रहता है सरकार है यही झूठा विश्वास दिलाने पर । परेशान लोग आखिर मान लेते हैं कि सरकार कहने को है जबकि वास्तव में कोई सरकार कोई कानून कोई व्यवस्था कहीं भी नहीं है । न्यायपालिका से संसद विधानसभा तक सभी खुद अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने बनाने की कोशिश करने में समय बर्बाद करते हैं । फ़रिश्ता मज़बूर हो कर मुझे ऊपरवाले के सामने ले आया , भगवान का ध्यान जाने किधर था मेरी तरफ देखा तक नहीं । 
 
मैंने ही प्रणाम करते हुए पूछा भगवान जी आपकी तबीयत कैसी है कोई चिंता आपको परेशान कर रही है । भगवान कहने लगे क्या बताऊं कुछ भी मेरे बस में नहीं रहा है , जब मेरे देवी देवता ही अपना कामकाज ठीक से नहीं करते तो धरती पर सत्ताधारी लोगों और प्रशासनिक लोगों से क्या आशा की जा सकती है । लेकिन समस्या ये भी है कि हमने भी आपके देश की तरह इक संविधान बनाया हुआ है जिस में सभी को अपना कार्य ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से निभाना है मगर पद मिलने के उपरांत शपथ कर्तव्य कौन याद रखता है हर कोई अधिकारों का मनचाहा उपयोग करने लगता है । संविधान की उपेक्षा करते हैं सभी हर कोई समझता है कि संविधान उस पर नहीं लागू होता , संविधान बेबस है खुद कुछ नहीं कर सकता संविधान से शक्ति अधिकार पाने वाले मर्यादा और आदर्श को ताक पर रख देते हैं । आखिर मुझे ही समस्या का वास्तविक कारण बताना पड़ा भगवान ने जब कहा कि उसने तो कितना शानदार ढंग बनाया हुआ है हर देवी देवता को मालामाल किया हुआ है उनको चाहने वाले भी चढ़ावा चढ़ाते हैं फिर लोग ख़ाली झोली वापस कैसे लौटते हैं । 

मुझे समझाना पड़ा देश का बजट कितना बड़ा है लेकिन सभी मंत्री संसद विधायक अधिकारी सचिव और विभाग वाले बंदरबांट करते हैं , अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे । अमीर और सत्ता के ख़ास लोग जमकर मौज उड़ाते हैं सभी खज़ाना खुद सरकार और उसके करीबी खा जाते हैं लोग हाथ पसारे खड़े रह जाते हैं । आपके देवी देवता के भी आलीशान भवन बनते जाते हैं , गरीब लोग बेबस बेघरबार हैं ख़ाली पेट भजते हैं प्रभुनाम सतसंग की भीड़ बन धोखा खाते हैं । साधु संत धर्म उपदेशक करोड़ों के मालिक बनकर रंगरलियां मनाते हैं , जैसे राजनेता और समाजसेवा की बातें करने वाले जनता का हक हज़म कर अपना फ़र्ज़ लूट की छूट का अवसर मनाते हैं । सरकार बनाकर भगवान बनाकर लोग पछताते हैं आहें भरते हैं अश्क़ बहाते हैं खाली हाथ आते हैं ख़ाली हाथ दुनिया से लौट आते हैं , अजब दुनिया तुमने बनाई है जिधर जाओ पहाड़ों की बात होती है जनता की किस्मत हरजाई है आगे पीछे दोनों तरफ गहरी खाई है । गरीबी की रेखा की कितनी लंबाई है । 


 The number of children in the poor population is increasing rapidly, five  crore children in India are forced to live in extreme poverty. | गरीब आबादी  में तेजी से बढ़ रही बच्चों
 


मई 03, 2025

POST : 1959 लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया

  लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान है आजकल तो खुद कुछ नहीं जानते तो आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस से जो मर्ज़ी करवा लो । लेकिन जिसे कलमकार कहते हैं उनको हुनर आता है शब्दों को तराशने का सजाने संवारने का और उन में मानवीय भावनाओं को इस तरह समाहित करने का जिस से रचना जीवंत हो उठती है । खुद को कलमवीर कहलाने वाले कितने लोग वीरता शब्द से परिचित नहीं होते हैं । दो चार क्या सौ किताबें छपवा लेने से कोई महान साहित्यकार नहीं बन जाता है अच्छा लेखक होने की पहली कसौटी है सच लिखने से पहले सच को समझना परखना स्वीकार करना , जो अपनी सोच अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकलते उनका लेखन समाज की खातिर नहीं होता सिर्फ खुद की नाम शोहरत की कामना की खातिर लिखते हैं जिस से सामाजिक बदलाव कभी नहीं हो सकता है । मुझे कलम थामे कोई पचास वर्ष हो गए हैं लेकिन कोई पुस्तक पांच साल पहले तक छपवाई नहीं थी , सच बताऊं मुझे हमेशा लगता था कैसे महान लिखने वालों ने क्या शानदार सृजन किया है मेरा लेखन उनके सामने कुछ भी नहीं है । पांच किताबें छपने के बाद भी समझ आया है कि मुझे किताबों से कहीं बढ़कर पाठकों ने अख़बार पत्रिकाओं में अन्य कितने तरह से पढ़ा और समझा है । कुछ पत्र रखे हुए हैं संभाल कर जिन में रचना पर टिप्पणी कर डाक द्वारा भेजा गया था कभी कभी तो किसी पाठक ने प्रकाशित रचना का पन्ना भिजवाया था क्योंकि मुझे खबर ही नहीं थी प्रकाशित होने की रचना की । आजकल पहले भी कितनी बार कोई किताब प्रकाशित होती रही शब्दकोश की तरह लेखकों की जीवनी परिचय का विवरण बताने को , हज़ारों नाम मिलते हैं मगर कितनों के लिखने की सार्थकता पर ध्यान जाता है । किताबें लिखना व्यर्थ है अगर लेखक का मकसद सामाजिक विषय पर निडरतापूर्वक और निष्पक्षता से आंकलन नहीं किया गया हो तो । 
 
मैंने पहले भी लिखा है लेखन को बांटना किसी सांचे में ढालना अनुचित है , दलित लेखन वामपंथी लेखन ऐसे है जैसे किसी को खुले आकाश से वंचित कर इक बुने हुए जाल के भीतर उड़ान भरनी पड़ती है । लेखक देश की दुनिया की सीमाओं को लांघकर अपनी ही सोच विचार की उड़ानें भरते हैं हवा और परिंदों और मौसमों की तरह सतरंगी धनुष जैसे । क्यों है कि हम कभी भाषा कभी राज्य कभी शहर को लेकर अपने आप को बंद कर लेते हैं बचते हैं अन्य सभी को अपनाने से । भला ऐसा लिखने वाला सर्वकालिक और सभी की मानवीय संवेदनाओं की बात कह सकता है । हमको अभिव्यक्ति की आज़ादी की चाहत होनी चाहिए जबकि इस तरह हम खुद को किसी पिंजरे में कैद कर समझते हैं यही अपनी पहचान है । कभी इक कविता खुद को लेकर लिखी थी आज तमाम लोगों की वास्तविकता लगती है प्रस्तुत है कैद कविता । कभी बड़े लोग जेल की सलाखों के पीछे बैठ किताबें लिखते था आजकल इक बंद दायरे की सीमारेखा खींच कर सिमित होकर लिखने का चलन दिखाई देने लगा है , कितना अजीब है । 
 

   कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने 
खुद अपनी ही कैद से । 


 जेल में भगत सिंह ने बताया था 'मैं नास्तिक क्यों हूं? - today shaheed bhagat  singh s birthday-mobile

मई 02, 2025

POST : 1958 खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया

       खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया  

जनाब को लड़ना खूब आता है लेकिन दुश्मन देश से नहीं खुद अपने ही देश वाले विरोधी लोगों से किसानों से अपना अधिकार मांगने वालों से । दुनिया को दिखाई दिया उनकी मर्ज़ी बिना परिंदा भी पर नहीं खोल सकता है सभी सड़कें बंद होती हैं किसानों की राहों पर कीलें और अवरोध खड़े होते हैं । आतंकवादी कब किस रास्ते घुसते हैं उनको नहीं चिंता बस खुद सुरक्षित हैं उनकी सत्ता को कोई खतरा नहीं है उनका पूरा प्रबंध है । जो गरजते हैं बरसते नहीं कुछ ऐसे बादल जैसे हैं शोर ही शोर है देश सही दिशा में बढ़ रहा है वास्तव में समाज की हालत खराब से अधिक खराब हो रही है । कभी उस दुश्मन देश से कभी इस दुश्मन देश से जंग का ऐलान होता है जैसे क्रिकेट में फ्रेंडली मैच होता है जीत हार से कोई फर्क नहीं पड़ता आपसी मेलजोल कायम रहता है । क्रिकेट खिलाड़ी आजकल चाहने वालों को जुए के खेल में फंसाने का कार्य कर खुद मालामाल होते हैं दुनिया को कंगाल कर अपना घर भरते हैं । जनाब ने भी शतरंज की चाल चली है आतंकवाद को छोड़ कर अपना इरादा बदल कर धर्म की बात से बढ़कर जातीय जनगणना का पासा आज़माया है । दुश्मन के लिए नहीं खुद अपने लिए सत्ता ने जाल बिछाया है । किसी खिलाड़ी ने अपनी ऐप्प पर लड़ने का तमाशा बनाया है उस दुश्मन को आमने सामने बिठाया है । सहमति बनाई है दुश्मन भी आखिर सौतेला ही सही भाई है हाथ में इक कटोरा है कटोरे में मलाई है । दुश्मन को हारना होगा मुंह मीठा करवाना है जीत कर जनाब ने शर्त लगाई है । मैच फिक्सिंग में हारने में पैसा मिलता है तो जीतना कोई नहीं चाहता , ये जीत हार सब बहाना है दोनों को अपने घर जाकर झूठ को सच बताना है । आप क्या देखना चाहते थे आपको याद नहीं रहता है सामने मंज़र बदल जाता है , कुछ होने वाला है अब कि दुश्मन को मज़ा चखाना है । यही सोचते सोचते समय गुज़रता रहता है इक आलीशान महल है जिसकी कोई बुनियाद नहीं है कांपता है लगता है अभी ढहता है । उसी में आतंकवाद छुपकर नहीं खुलेआम रहता है , मगर सभी ललकारते हैं उसके ठिकाने के करीब नहीं जाते कोई खून का दरिया पानी बनकर बीच राह में बहता है । कोई शायर है साहिर लुधियानवी , जंग को लेकर कहता है जंग खुद इक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी । इसलिए ए शरीफ़ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है , आप और हम सभी के आंगन में शम्मा जलती रहे तो बेहतर है ।
 
 
 
जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है : - 

 
मौज-ए - गुल , मौज- ए - सबा , मौज- ए - सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है । 
 
हमने हर गाम सजदों ए जलाये हैं चिराग़ 
अब तेरी रहगुज़र रहगुज़र लगती है । 
 
लम्हें लम्हें बसी है तेरी यादों की महक 
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है । 
 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं 
देखना ये है कि अब आग़ किधर लगती है । 
 
सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है 
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है ।
 
वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ 
ये तो ' अख़्तर ' दफ़्तर की खबर लगती है ।  
 

Garibi - Amar Ujala Kavya - गरीबी...