अगस्त 17, 2012

POST : 44 कोरा कागज़ ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      कोरा कागज़ ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जानता हूं मैं
चाहते हो पढ़ना
मेरे मन की
पुस्तक को
जब भी आते हो
मेरे पास तुम ।

बैठ कर सामने मेरे
तकते रहते हो
चेहरा मेरा
कनखियों से
चुपचाप ।

जान कर भी
बन जाता हूं अनजान मैं
क्योंकि समझता हूँ  मैं
जो चाहते हो पढ़ना तुम 
नहीं लिखा है
वो मेरे चेहरे पर ।

तुम्हें क्या मालूम
क्यों खाली है अभी तक
किताब मेरे मन की ।

मिटा दिया है किसी ने
जो भी लिखा था उस पर । 
 

 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Wah बढ़िया कविता