कोरा कागज़ ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जानता हूं मैंचाहते हो पढ़ना
मेरे मन की
पुस्तक को
जब भी आते हो
मेरे पास तुम ।
बैठ कर सामने मेरे
तकते रहते हो
चेहरा मेरा
कनखियों से
चुपचाप ।
जान कर भी
बन जाता हूं अनजान मैं
क्योंकि समझता हूँ मैं
जो चाहते हो पढ़ना तुम
नहीं लिखा है
वो मेरे चेहरे पर ।
तुम्हें क्या मालूम
क्यों खाली है अभी तक
किताब मेरे मन की ।
मिटा दिया है किसी ने
जो भी लिखा था उस पर ।
1 टिप्पणी:
Wah बढ़िया कविता
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