मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया
मैं क्या हूं क्यों हूं कहां हूं कैसे हूं सभी लोग तमाम दुनिया उलझी हुई है मेरी उलझन सुलझाने में मगर चाहे जितना सुलझाए कोई उलझन बढ़ती जाती है । दुनिया वाले क्या भगवान भी मुझसे अनजान है क्योंकि मेरी बनाई दुनिया में उसका नहीं कोई नाम है न कोई निशान है । आप समझे नहीं ये किसी टीवी शो की बात नहीं है मेरी सबसे ऊंची निराली शान है मेरे लिए हर शख्स नासमझ है अभी नादान है । मेरा सभी कुछ है कुछ भी मेरा है नहीं लेकिन जो भी है सब कुछ मेरे अधिकार में है , आपका जीना आपका मरना कोई मायने नहीं रखता है जो भी है सिर्फ मेरे ही इख़्तियार में है । मेरी सत्ता इस पार से उस पार तलक फैली है मेरा आकार धरती से फ़लक तक से बढ़कर , शून्य से अनगिनत संख्या जैसे किसी विस्तार में है , किसी देश में किसी शासक में वो बात कहां है जो विशेषता मेरी सरकार में है । मुझे नाचना नहीं आता नचाना जानता हूं सभी को अपने इशारों पर सब नहीं जानते असली लुत्फ़ सत्ता देवी की पायल की मधुर झंकार में है । मेरा हो मोल सबसे महंगा दुनिया के हर बाज़ार में है जो कहीं नहीं है चमत्कार मेरे ही किरदार में है । मुझे जानते हैं सभी पहचानता कोई नहीं मुझ जैसा कोई हुआ कभी न ही कभी होगा पहला आखिरी भी शुरुआत भी अंत भी मैं खुद से खुद तक रहता हूं हर बात सच्ची है जो भी मैं कहता हूं । मेरे हाथ मेरी आंखें पहुंचती हैं देखती हैं पल पल जहां भी कुछ भी घटित होता है , सब मालूम है कोई हंसता है किसलिए कौन किस बात पर रोता है । मेरी शरण में जो भी आता है सब पाता है मुझसे बिछुड़ने वाला अपनी हस्ती को खोता है । मेरा साथ पाकर सभी गुनाह माफ़ हो जाते है जितने भी अपराध किये पिछले सभी पाप धुल जाते हैं , खुशियों के कमल कीचड़ में भी खिल जाते हैं ।
मेरी दुनिया के सभी दस्तूर निराले हैं बचना इस खंडहर जैसी हवेली में कदम कदम पर फैले जाले हैं कोई भी खिड़की दरवाज़ा नहीं है लेकिन पांव में बेड़ियां हैं जंज़ीरों से बंधे हुए लोग हैं सलाखों की कैद में जादुई लगे ताले हैं । मुझे ढूंढने वाले गुम हो जाते हैं जिनको चाहत है मेरे भीतर समाकर शून्य हो जाते हैं । कोई दादी नहीं कोई नहीं नानी है फिर भी ख़त्म कभी होती नहीं मेरी प्रेम कहानी है , राजा महाराजा शाहंशाह कुछ भी समझ सकते हैं मेरा परिवार बड़ा है कोई भी नहीं मेरी रानी महारानी है । जिस को समझ आई मेरी बात इक वही जानकर है नहीं समझ पाया कोई जो महाअज्ञानी है । मेरी लीला निराली है चेहरे पर लाली दिल में कालिख़ से बढ़कर छाई काली परछाई है मैंने आपका चैन लूटा है दुनिया की नींद चुराई है , चोर छिपकर रहते हैं मुझी में मैंने चोरों की नगरी इक अलग बसाई है । मैं भी फंस गया हूं अपने खुद के बुने जाल में सामने है कुंवां और पीछे गहरी खाई है । मैंने सबको ख़त्म करने की शपथ उठाई है नाम से मेरे हर चीज़ घबराई है हर जगह थरथराई है मैंने स्वर्ग को नर्क बनाया है वही खुश है जो शरण में मेरी आया है , सामने जिस ने सर अपना भूले से उठाया है उसका शीश कट गया मरकर भी पछताया है । आपने मुझे क्यों बनाया है कुछ समझ नहीं आपको आया है इक अजूबा सामने नज़र आता है कोई जूते साफ करता है कोई तलवे चाटता है कोई पांव दबाता है कोई जूता फैंकता है मगर कोई बच कर खैर मनाता है ।

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