बिहारी दूल्हे की बरात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
अबकी बार क्या होगी चुनावी नैया पार महीनों तक संशय था बेकार , नतीजों की आई ऐसी बहार फिर मिल बैठे चार यार शादी होगी शानदार छप चुके हैं इश्तिहार । चुनाव में शानदार प्रदर्शन करना महत्वपूर्ण नहीं रहा , उम्मीद से ज़्यादा झोली भरी हुई है सभी साथ मिलकर लड़ कर विजयी हुए थे अब कौन बनेगा क्या बनेगा की उलझन खड़ी हुई है । जैसे किसी गरीब की लॉटरी निकलती है कुछ लोग जानते ही नहीं उनको जनता ने निर्वाचित किया क्या देख समझ कर । सभी को मालूम है जनता को अभी तक सही गलत की छोड़ो भले बुरे की भी पहचान नहीं है अन्यथा अधिकांश लोग ऐसे हैं जिनको देश समाज संविधान नियम कानून की रत्ती भर भी समझ नहीं हैं शराफ़त से उनका कभी कोई नाता नहीं रहा है बदमाशी उनकी पूंजी है जिस के दम पर जनता से समर्थन मांगते नहीं छीनते हैं । अब शासन की बागडोर हाथ आई है तो सभी गठबंधन के संगी साथी आमने सामने खड़े हैं हिस्से की भागीदारी के सवाल पर । जैसे एक हसीना सौ दीवाने इक शमां सौ परवाने जैसा हाल है आग़ाज़ तो अच्छा है अंजाम खुदा जाने ।
कुछ असंजस की दशा बनी हुई है , दिल सभी के धड़कते हैं राजा जी कहलाने को मगर जब तक राजकुमारी हाथ में जीत की वरमाला लिए खड़ी नहीं दिखाई देती चुप रहना पड़ता है । लोकतंत्र की रीति अजीब है सत्ता की राजकुमारी खुद नहीं जानती पहचानती किस को वरमाला पहनानी है । सभी ससुराल वाले अपने अपने दावे प्रतिदावे पेश कर अपनी शर्तों से बाराती बुलाना चाहते हैं । लेकिन तमाम अटकलें थम गईं जब इक तथ्य पर चिंतन किया गया कि कहीं ऐसा नहीं हो पटना की रानी का चयन बिहारी जनता को अनुचित प्रतीत हो और पूरी की पूरी जीती हुई बाज़ी गंवा बैठें । दुल्हन वही जो पिया मन भाए लेकिन कौन पिया है किस किस का जी ललचाये , अपने लगने पराये रूठे कोई कोई मनाये । फिर वही कहावत लगती है जारी एक बिहारी सब पर भारी , जिसको समझे थे मज़बूरी वही बन गया इक लाचारी उस के बिना नहीं खुलता कोई ताला कौन है जीजा कौन है साला । गठबंधन है बड़ा निराला सांवला सलौना लगता है मतवाला नहीं मंज़ूर कोई बाहर वाला , ज़िद पर अड़ा हुआ है दूल्हा उसकी शादी होगी निराली , प्रेम विवाह जैसा बंधन नहीं है ये है बड़े बज़ुर्गों द्वारा तय किया रिश्ता है लेकिन कुछ भी रिश्तों संबंधों में इक समान नहीं है । हर कोई चतुर सुजान है राजनीति में कोई भी नादान नहीं है । किसी की ज़मीन नहीं किसी का कोई आसमान नहीं है । आपस का कारोबार है इक हाथ लेने इक हाथ देने का नियम है किसी का किसी पर एहसान नहीं है ।
जिनकी आरज़ू दिल की अधूरी रह गई उनको लगता है कभी न कभी बिल्ली की किस्मत से छींका टूटेगा तो उनकी चाहत पूरी हो सकती है । सभी संग संग हैं तब तक जब तक कोई बेहतर विकल्प नहीं दिखाई देता ।
आपको क्या अभी भी समझ नहीं आया कि हमारे देश में लोकतंत्र संविधान जनता समाज की भलाई देश की सेवा सभी झूठी बातें हैं असलियत सत्ता की लूट का इक खेल है । शपथ उठा ली गई है शपथ का अर्थ कोई नहीं समझता है निभाना कौन चाहता है । सत्ता की भागीदारी का बंटवारा लगता है जैसे कोई ख़ज़ाना मिल गया है हर कोई हड़पना चाहता है । बाहर कुछ दिल में कुछ और सभी की हालत ऐसी है लगता है कभी भी कोई भी कुछ भी तमाशा कर सकता है राम राम करते किसी तरह बरात तैयार हुई घुड़चढ़ी हो गई और दुल्हन भी मिल जाएगी । लेकिन आने वाले समय में सत्ता रानी कितनी स्यानी क्या सभी को खुश कर पाएगी , या आधुनिक कन्या की तरह अपना रंग दिखलाएगी सभी को तिगनी का नाच नचाएगी । दिल्ली भी बिचौलिया जैसी है क्या देगी क्या पाएगी ये उलझन कभी क्या सुलझ पाएगी । अभी अठखेलियां देखनी हैं सभी दल वाले गुल खिलाने वाले हैं इक युग्ल गीत गाने वाले हैं ।
बागों में बहार है , कलियों पे निखार है ,
............. तुमको मुझसे प्यार है
छोड़ो हटो जाओ पकड़ो न बैंयां ,
आऊं न मैं तेरी बातों में सैंयां
तुमने कहा है देखो देखो मुझको सैंयां ,
बोलो तुमको इकरार है ..............
तुमने कहा था मैं सौ दुःख सहूंगी ,
छुप के पिया तेरे मन में रहूंगी ............
अच्छा चलो छेड़ो आगे कहानी ,
होती है क्या बोलो प्यार की दीवानी
बेचैन रहती है प्रेम दीवानी
बोलो क्या दिल बेकरार है जीना दुश्वार है ...........
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