नवंबर 26, 2025

POST : 2041 सच कहने पे जाँ मत वारो ( सच मत बोलना ) डॉ लोक सेतिया

      सच कहने पे जाँ मत वारो ( सच मत बोलना   ) डॉ लोक सेतिया  

                     साबिर दत्त जी की ग़ज़ल से शुरू करते हैं : - 

 
सच्ची बात कही थी मैंने , लोगों ने सूली पे चढ़ाया 
मुझको ज़हर का जाम पिलाया , फिर भी उनको चैन ना आया 
सच्ची बात कही थी मैंने , सच्ची बात कही थी मैंने ।
 
ले के जहाँ भी वक़्त गया है , ज़ुल्म मिला है ज़ुल्म सहा है 
सच का ये इनाम मिला है , सच्ची बात कही थी मैंने । 
 
सब से बेहतर कभी ना बनना , जग के रहबर कभी ना बनना 
पीर पयम्बर कभी ना बनना , सच्ची बात कही थी मैंने । 
 
चुप रह कर ही वक़्त गुज़ारो , सच कहने पे जाँ मत वारो 
कुछ तो सीखो मुझसे यारो , सच्ची बात कही थी मैंने ।   
 
अब कोई भी कुर्बान नहीं होता है सच पर , सब झूठ बोलकर सभी अपनी ज़िंदगी को शानदार बनाते हैं , भ्र्ष्टाचार की बहती गंगा में डुबकी लगाते हैं खुद भी खाते हैं ऊपर से नीचे तक मिल बांटकर खाते हैं । इतना बढ़ गया है सरकारी विभागों में लूट का बाज़ार कि होने लगी है रिश्वत पर आर या पार , ख़ुदकुशी करने का पढ़ लिया समाचार । खुद सत्ताधारी राजनेता ने ये बताया है कि पुलिस विभाग में बड़े अधिकारी से छोटे अधिकारी तक ख़ुदकुशी करने का कारण भ्रष्टाचार है । जानते हैं अब मुख्यमंत्री कोई और है लेकिन खुद उनकी दल की सरकार है जिस में भ्र्ष्टाचार अब अपराध नहीं शिष्टाचार है ।  खुद सरकार के मुखिया जिस शहर में जाते हैं लोग उनको मिलते हैं बताते हैं जिस झील बनाने पर करोड़ों रूपये खर्च हुआ उसकी हालत देख सकते हैं जांच करने को अधिकारी आते हैं सच और झूठ आमने सामने टकराते हैं । ये सिर्फ इक मिसाल है वास्विकता तो ये है कि हर योजना इक गोलमाल है सत्ताधारी नेता से तमाम विभाग वाले होते जाते मालामाल हैं देश की मत पूछो खज़ाना लुट चुका हुआ कंगाल है । 
 
अब कोई भी सच्चाई की ईमानदारी की बात नहीं करता है , सच की खातिर कोई नहीं मरता है । हमारे देश में धर्म का शोर बहुत है सभी शासक प्रशासक मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरजाघर जाते हैं मगर जनता को छलते हैं झूठ बोलने से नहीं कतराते हैं किसी भगवान से बिल्कुल नहीं डरते मनमानी करते हैं मौज मनाते हैं । बड़े बड़े पदों से संवैधानिक संस्थाओं पर नियुक्त अफ़्सर शासक राजनेता के पांव दबाते हैं हाथ जोड़ सर को झुका जो हुक्म मेरे आका कहकर उनकी खातिर आसान राहें बनाकर बदले में मनचाहा आशिर्वाद पाते हैं । कभी बाद में वही अधिकारी खुद कितने जूते किस राजनेता से खाये थे गिनती तक बताते हैं । साधरण लोग जिन बड़े अधिकारियों से बात करते घबराते हैं बिना कोई अपराध उनसे डांट से लाठी डंडे तक खाते हैं वो अधिकारी अपनी गरिमा को शासक के दरबार में खो बैठते हैं ख़ामोश रहकर उनका हौंसला बढ़ाते हैं ।  शासक दल में शामिल संगीन अपराध में आरोपी मंत्री बनकर ग्रह मंत्रालय पाकर कानून को अपना रखवाला बनाते हैं । 
 
लोग भी भूल चुके हैं वो बस इक घटना ही थी जब इक बड़े अधिकारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जी को इक गोपनीय पत्र लिख कर भ्र्ष्टाचार को उजागर किया है और 27 नवंबर 2003 को बिहार में क़त्ल कर दिया गया था अपने तीस साल की उम्र में जन्म दिन पर 27 नवंबर 1973 के दिन । अब शायद कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि देश में कोई अधिकारी या कोई राजनेता वास्तव में भ्र्ष्टाचार रुपी दैत्य का अंत करने भी चाहता है । अब तो सभी की रगों में यही बहता है कोई गुरु नानक नहीं है जो उनकी लूट की कमाई दौलत की रोटी को निचोड़ सके जिस में करोड़ों गरीबों का लहू बहता है । नेक कमाई मेहनत की हक की कमाई नहीं चाहता कोई भी सभी को पैसा चाहिए ऐशो आराम चाहिए मगर बिना किसी काम चाहिए । देश में लोग डरे सहमे हैं सच बोलने का अर्थ ज़िंदगी से हाथ धोना है सत्ताधारी राजनेताओं प्रशासन और धनवान लोगों के लिए लोकतंत्र इक खिलौना है , जनता को रोते रोते हंसना हैं या फिर झूठी नकली हंसी हंसते हंसते रोना है ।  लेकिन ऐसा नहीं है कि भ्र्ष्टाचार की चर्चा ही नहीं होती है सभी विभाग कभी कभी किसी दिन शपथ उठाते हैं लेकिन किस की कसम कौन जाने याद नहीं रखते भूल जाते हैं । अंत में इक ग़ज़ल पुरानी है मेरी  किताब      ' फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ' में शामिल है पढ़ते हैं । 
 
 

बहस भ्र्ष्टाचार पर वो कर रहे थे ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

बहस भ्रष्टाचार पर वो कर रहे थे
जो दयानतदार थे वो डर रहे थे ।

बाढ़ पर काबू पे थी अब वारताएं
डूब कर जब लोग उस में मर रहे थे ।

पी रहे हैं अब ज़रा थक कर जो दिन भर
मय पे पाबंदी की बातें कर रहे थे ।

खुद ही बन बैठे वो अपने जांचकर्ता
रिश्वतें लेकर जो जेबें भर रहे थे ।

वो सभाएं शोक की करते हैं ,जो कल
कातिलों से मिल के साज़िश कर रहे थे ।

भाईचारे का मिला इनाम उनको
बीज नफरत के जो रोपित कर रहे थे ।  
 

 
 
 

कोई टिप्पणी नहीं: