हम लेखक कुछ नहीं करते ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया
दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें , पूछते हैं करते क्यां है जनाब , बताते हैं कि साहित्य सृजन करते हैं तो कहते हैं ये तो आपका शौक है , लिखने को क्या है हम भी लिख सकते हैं , क्या करें इतने काम हैं कि फुर्सत ही नहीं मिलती । ऐसा हमेशा हुआ है समझते हैं कि कलम उठाई जो मन चाहा लिख दिया , कौन समझाए कि साहित्य ऐसा नहीं होता है जब तक आप आपने खुद से बाहर निकल समाज के दुःख सुःख परेशानियों से चिंतित हो कर वास्तविक संवेदनाओं को नहीं महसूस करते लिखना नहीं आता है । अधिकांश सोशल मीडिया पर ऐसा ही निर्रथक लिखा जाता है जिसका कोई प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता है , सिर्फ़ नाम पहचान की खातिर लिखने को लिखना नहीं कहा जाता है । अधिकांश नहीं तमाम लोग समझते हैं जिस कार्य से अच्छी आमदनी नहीं हो उसको करना किस काम का और समझते हैं की हम लेखक कुछ भी नहीं करते हैं । यकीन करना ये कुछ भी नहीं करने जैसा काम बड़ा कठिन है लेकिन महत्वपूर्ण है , अगर धन दौलत की चाहत में दुनिया की इस अंधी दौड़ में शामिल होकर लोग लिखना छोड़ देते तो आज हमको कोई महान साहित्य कितने ग्रंथ कितनी कथाएं कितनी कहानियां कितनी शानदार रचनाएं पढ़ने को नहीं मिलती जो हमको मानवीयता का अर्थ समझाती हैं । साहित्य भविष्य की पीढ़ी के लिए लिखा जाता है जैसे कोई मशाल जलाई जाती है किसी घने अंधकार भरे सुनसान रास्ते में मुसाफ़िर को राह दिखलाने के लिए । वास्तविक लेखन आसान नहीं बेहद दुश्वार है कदम कदम डगर डगर लांघनी पड़ती कंटीली दीवार है । जर्जर नैया है टूटी हुई पतवार है कितने तूफ़ान हैं भंवर हैं बीच मझधार मांझी लाचार है लेकिन जाना उस पार है जिसका कोई पता ठिकाना नहीं सपनों का संसार है ।
लिखने वालों की खुद अपनी नई राह बनानी पड़ती है पुरानी सड़कों से उनका सफ़र नहीं चलता है , सबसे अलग अपनी मंज़िल की तलाश करते हैं । कोई साथी कोई कारवां नहीं हौंसलों से चलना है जीवन भर कहीं भी कोई ठहराव नहीं आना चाहिए साहित्य लेखन इक बहता दरिया है जिस को कभी किसी समंदर में नहीं मिलना अन्यथा अपना अस्तित्व ही मिट जाता है । मैंने जब से अपना डॉक्टर होने का रोगियों का उपचार करने का कार्य छोड़ दिया है जिस से कुछ आय हुआ करती थी 45 साल तक किसी तपस्या की तरह ही अपना कार्य किया है अब पूरा ध्यान लेखन कार्य पर है जिस से कुछ नाम दौलत मिलने की कोई चाहत भी नहीं है न ही चालीस साल लिखने के बाद कुछ मिला है सिवा आत्मसंतुष्टि के । कभी कभी लगता है लोगों को ये भी स्वीकार नहीं है कि कोई अपनी ख़ुशी से सामाजिक सरोकारों और समस्याओं पर समाज को जगाने की कोशिश भी करे । नासमझ समझते हैं तो भी कोई बात नहीं लेकिन जिनको उद्देश्य नहीं मालूम वो जब कहते हैं कि आप कुछ नहीं करते इसलिए ये कार्य करते हैं जबकि ऐसे लोग खुद कुछ भी किसी के लिए नहीं कर सकते जो भी करना है खुद अपनी ख़ातिर ही करते हैं । हमको जिस से कुछ भी भौतिक हासिल नहीं होता मानसिक सुःख और इक सुकून महसूस होता है , उस से बढ़कर भला क्या हो सकता है , कुछ भी और करते तो जितना भी कुछ मिलता कितना स्थाई होता , जबकि हमारा लेखन जो जैसा भी है दीर्घकालीन पूंजी की तरह है जिसे हमारे बाद भी दुनिया को पढ़ने को मिलेगा कुछ सार्थकता अवश्य है इस की , भले हम नहीं जानते कोई भी नहीं समझता आज तब भी । कुछ लोग महल सड़कें कितना कुछ निर्माण करते हैं लेकिन कुछ और लोग उन सभी को निर्माण करने को नक़्शा बनाते हैं योजना बनाते हैं , लेखक भी ऐसा ही करते हैं उनको इक खूबसूरत दुनिया की चाहत है परिकल्पना है उनकी और उसी को लेकर सतत प्रयास करते हैं । कुछ नहीं करते समझते हैं दुनिया वाले जबकि जो कर रहे हैं करना चाहते हैं वो अनमोल है , कोई उसकी कीमत नहीं लगा सकता है ।
मुझे लिखना है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।
टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।
धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।
छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।
बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।
ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।
हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।
सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।
जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।
मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की और विश्वास की ।
लिखनी है कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।
अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहां ।
बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।
फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।
वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।
टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।
धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।
छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।
बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।
ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।
हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।
सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।
जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।
मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की और विश्वास की ।
लिखनी है कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।
अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहां ।
बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।
फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।
वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।
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