दौड़ना भी साथ रहना भी ( समाजवाद ) डॉ लोक सेतिया
एकता की खातिर दौड़ना अच्छा है , तभी जब सभी को बराबर समझ साथ लेकर कदम बढ़ाया जाये , लेकिन जब मकसद खुद आगे बढ़ना अन्य सभी को छोड़ कर पीछे बन जाये तब , एकता नहीं संभव हो सकती है । लगता है जैसे भीड़ में भी सभी अलग अलग अकेले अकेले हैं । हमने साथ निभाना छोड़ दिया है हमको साथी भी चाहिए तो ऐसा जो हमको बढ़ने दे खुद पीछे पीछे चलकर , वास्तविकता यही है । कम से कम बड़े लोग शासक वर्ग प्रशासन धनवान लोग कभी लगता नहीं अपने समान कदम से कदम मिलाकर सभी को चलने देना पसंद करते हैं । जब तक आदमी आदमी में इतना अधिक अंतर रहेगा कि कुछ लोग लाखों करोड़ों रूपये सिर्फ अपनी खातिर खर्च कर रहे हों जब अधिकांश को जीवन भर में लाख तो क्या हज़ार रूपये भी बुनियादी ज़रूरत को हासिल नहीं हों ऐसी भेदभाव पूर्ण व्यवस्था देश की बनाई गई है तब तक एकता कहने भर को दिखावा हो सकती है वास्तविक नहीं । लगता नहीं है कि जिन्होंने देश की धन संपदा का सबसे बड़ा हिस्सा किसी न किसी तरह अपने आधीन कर लिया है वो भूखे नंगे लोगों को अपने पैरों पर खड़े होना भी देंगे । सभी राजनैतिक दलों से कारोबार उद्योग व्यौपार करने वालों ने अपनी अधिक से अधिक हासिल कर एकत्र करने की हवस ने मानवधर्म को भुला दिया है । अपने से छोटे की खातिर कुछ भी छोड़ना नहीं बल्कि जितना भी मुमकिन हो उनसे छीनना आदत बन गई जिसे उन्होंने अपना अधिकार मान लिया है । बीस तीस प्रतिशत ख़ास वर्ग में शामिल लोग कभी साधरण जनता को आत्मनिर्भर होने नहीं देना चाहते हैं । लोकतंत्र के नाम पर लूट का ऐसा वातावरण बना दिया गया है जिस में भले चंगे लोग लूले लंगड़े बना दिए गए हैं जिनको हर कदम बैसाखियों की ज़रूरत पड़ती है । सिर्फ सरकारी आयोजन के लिए ही सड़कों के गड्ढे नहीं भरे जाते सही मायने में साधरण इंसान के लिए इतनी कठिनाईयां इतने अवरोध ये सभी खड़े करते हैं कि लोग लड़खड़ाते नहीं औंधे मुंह गिरते हैं और ये बेरहम प्रणाली हंसती है कोई सहायता को नहीं हाथ बढ़ाता । आपको जो लोग कहने को समाजसेवा करने वाले दिखाई देते हैं उनकी भी बदले में कितनी महत्वकांक्षाएं स्वार्थ छिपे रहते हैं । दान धर्म समाजसेवा तक सभी कारोबार बन गए हैं और इतना ही नहीं सभी में होड़ लगी है खुद को महान कहलवाने की प्रचार प्रसार कर के ।
काश जितना पैसा हम तमाम ऐसे आयोजनों पर समारोहों पर बर्बाद करते रहते हैं उस का उपयोग वास्तव में जनता और सामाजिक कल्याण पर खर्च किया जाये बिना कोई शोर शराबा या शोहरत पाने की लालसा के तो कुछ बेहतर नतीजे मिल सकते हैं । जबकि यहां जितना ये सब बढ़ता गया है इंसान इंसान से उतना ही अलग होता गया है हर शख्स खुद को छोड़ समाज को लेकर सोचता समझता ही नहीं है । हमने हर समस्या को गंभीरता पूर्वक नहीं समझा और उसका हल ऐसे ही किसी दिन कुछ करने से मानते हैं कि कोई रस्म निभा दी है । आडंबर करना हमारी कार्यशैली बन गई है इसलिए हमने वास्तविक प्रयास करना छोड़ ही दिया है , एकता कायम रखने के लिए सभी को आपस में विश्वास और संवेदना से आपसी मतभेद भुलाकर दिल से अपनाना होगा । बीती बातों को भुलाना होगा और इक नई सुबह को लाना होगा कोई दीपक जलाना होगा ये गीत याद करना होगा गुनगुनाना होगा । नया ज़माना आएगा : - शायर आनंद बक्शी ।
कितने दिन आंखें तरसेंगी , कितने दिन यूं दिल तरसेंगे
इक दिन तो बादल बरसेंगे , आय मेरे प्यासे दिल
आज नहीं तो कल महकेगी , ख़्वाबों की महफ़िल
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।
सूने सूने से मुरझाये से हैं क्यूं , उम्मीदों के चेहरे
कांटों के सर पे ही बांधे जाएंगे , फूलों के सेहरे
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।
ज़िंदगी पे सब का एक सा हक है , सब तसलीम करेंगे
सारी खुशियां सरे दर्द बराबर , हम तकसीम करेंगे
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।
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