अगस्त 22, 2012

राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

राही नई पुरानी उसी रहगुज़र के हैं
जिस पर निशान गालिबो दाग़ो जिगर के हैं।

जाने कहां कहां के हमें जानते हैं लोग
हमको तो ये गुमां था कि तेरे नगर के हैं।

वो काफिले तो जानिबे मंज़िल चले गये 
बाकी रही है गर्द वहां हम जिधर के हैं।

मिलते हैं अजनबी की तरह लोग किसलिये 
हम सब तो रहने वाले उसी एक घर के हैं।

ये दर्दो ग़म भी खुद को करें किस तरह जुदा
रिश्ते हमारे इनसे तो शामो - सहर के हैं। 
 
साहिल की रेत को भी भला इसकी क्या खबर 
बिखरे पड़े हैं जो ये महल किस बशर के हैं। 
 
सुनसान शहर सारा अंधेरा गली गली
थोड़ा जिधर उजाला है "तनहा" उधर के हैं। 

यूट्यूब पर मेरा चैनल " अंदाज़-ए -ग़ज़ल " से वीडियो पेश करता हूं। 

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