इंसान बेचते हैं , भगवान बेचते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इंसान बेचते है भगवान बेचते हैंकुछ लोग चुपके चुपके ईमान बेचते हैं ।
लो हम खरीद लाये इंसानियत वहीं से
हर दिन जहां शराफत शैतान बेचते हैं ।
अपने जिस्म को बेचा उसने जिस्म की खातिर
कीमत मिली नहीं पर नादान बेचते है ।
सब जोड़ तोड़ करके सरकार बन गई है
जम्हूरियत में ऐसे फरमान बेचते हैं ।
फूलों की बात करने वाले यहां सभी हैं
लेकिन सजा सजा कर गुलदान बेचते हैं ।
अब लोग खुद ही अपने दुश्मन बने हुए हैं
अपनी ही मौत का खुद सामान बेचते हैं ।
सत्ता का खेल क्या है उनसे मिले तो जाना
लाशें खरीद कर जो , शमशान बेचते हैं ।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया ग़ज़ल👌👍
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