दुर्घटना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
जब घटी थीदुर्घटना मेरे साथ
दोनों ही खड़ी थी
तब मेरे ही पास।
उन्हें इतना करीब से
देखा था मैंने पहली बार
डरा नहीं था नियति को
कर लिया था स्वीकार।
मगर तभी ख़ामोशी से
प्यार और अपनेपन से
अपनी आगोश में
भर लिया था
मुझे ज़िंदगी ने।
मुझे कहना चाहती हो जैसे
तुम्हें बहुत चाहती हूं मैं।
और लौट गई थी मौत
चुप चाप हार कर ज़िंदगी से
तब मुझे हुआ था एहसास
कितना कम है फासला
मौत और ज़िंदगी के बीच।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें