यहां तो आफ़ताब रहते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
यहां तो आफताब रहते हैंकहां, कहिये ,जनाब रहते हैं ।
शहर का तो है बस नसीब यही
सभी खानाखराब रहते हैं ।
क्या किसी से करे सवाल कोई
सब यहां लाजवाब रहते हैं ।
सूरतें कोई कैसे पहचाने
चेहरे सारे खिज़ाब रहते हैं ।
पत्थरों के मकान हैं लेकिन
गमलों ही में गुलाब रहते हैं ।
रूह का तो कोई वजूद नहीं
जिस्म ही बेहिसाब रहते हैं ।
1 टिप्पणी:
Rooh ka koi wazood....👌👍
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